स्व की खोज कैसे करें?क्या है 3 सूत्र ?
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...
स्व की खोज कैसे करें?-
06 FACTS;-
1-जिस अर्थ में शेष सब खोजा जा सकता है, स्व उसी अर्थ में नहीं खोजा जा सकता है। वहां जो खोज रहा है, और जिसे खोज रहा है, उन दोनों में दूरी जो नहीं है। संसार की खोज होती है, स्वयं की खोज नहीं होती है।और जो स्वयं को ही खोजने निकल पड़ते हैं, वे स्वयं से और दूर ही निकल जाते हैं।जो स्वयं आप हो, उसे कैसे खोजा जा सकता है ... यह सत्य ठीक से समझ लेना आवश्यक है, तो खोज हो भी सकती है। संसार को पाना हो तो बाहर खोजना पड़ता है और यदि स्वयं को पाना हो तो सब खोज छोड़कर अनुद्धिग्ग और स्थिर होना पड़ता है। उस पूर्ण शांति और शून्य में ही उसका दर्शन होता है, जो कि "मैं हूं"।
वास्तव में,खोज भी एक उद्दिग्नता है ..एक तनाव है। वह भी एक चाह और वासना है और वासना से आत्मा को नहीं पाया जा सकता है। वही तो बाधा है। वासना का अर्थ है कि मैं कुछ होना चाहता हूं या कि कुछ पाना चाहता हूं। और आत्मा वह है जो कि मुझे उपलब्ध ही है, जो कि मैं हूं ही। वासना और आत्मा की दिशायें विपरीत हैं। वे विरोधी आयाम /डायमेंशन हैं। इसलिए, यह ठीक से समझ लें कि आत्मा को पाया तो जा सकता है, पर चाहा नहीं जा सकता है। आत्मा की कोई चाह नहीं हो सकती है। सब चाह सांसारिक है, और कोई भी चाह आध्यात्मिक नहीं है।
2-वासना ही तो संसार हैऔर सब वासना अज्ञान है ..बंधन है। फिर यह वासना धन की हो या धर्म की, पद की हो या प्रभु की, मद की हो या मोक्ष की, उसमें कुछ भेद नहीं है। वासना वासना है लेकिन वासना का ज्ञान वासना से मुक्त कर देता है, क्योंकि वासना का ज्ञान उसके दुःखस्वरूप को प्रकट कर देता है। दुःख का बोध दुःख से मुक्ति है, क्योंकि दुःख को जानकर कोई दुःख को नहीं चाह सकता है। और उस क्षण जब कोई चाह नहीं होती है और चित्त वासना से विक्षुब्ध नहीं होता है, और हम कुछ खोज नहीं रहे होते हैं--उसी क्षण, उस शांत और अकंप क्षण में ही उसका अनुभव होता है, जो कि हमारा वास्तविक होना है।जब वासना नहीं होती है, तब आत्मा प्रकट होती है। आत्मा को मत चाहो, चाह को जानो और उससे मुक्त हो जाओ, तो तुम उसे जान लोगे और पा लोगे जो कि आत्मा है।जो अपने भीतर अंधेरे से भरा है, सारे जगत् में भी रोशनी हो, उससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जहां जाएगा, अपने अंधेरे को साथ ले जाएगा।कोई खोज सार्थक नहीं है, जब तक भीतर आलोकित न हो।
3-वास्तव में,धर्म का विचार से कोई संबंध नहीं है। उसका संबंध निर्विचार से है। विचार फिलॉसफी है। उससे उत्पत्तियां तो आती हैं, पर समाधान नहीं आता है। धर्म समाधान है। विचार का द्वार तर्क है और समाधान का द्वार समाधि है। समाधि शून्य चैतन्य हैं। चित्त शून्य हो पर जाग्रत हो, उस शांत स्थिति में सत्य के द्वार खुलते हैं।शून्य में ही सत्य का साक्षात होता है, और परिणामस्वरूप सारा जीवन परिवर्तित हो जाता है। शून्य तक, समाधि तक ध्यान से पहुंचते हैं। पर साधारणतः जिसे ध्यान समझा जाता है, वह ध्यान नहीं है। वह भी चिंतन ही है। हो सकता है कि वे विचार आत्मा के हों या परमात्मा के हों, पर वे भी विचार ही हैं। इससे भेद नहीं पड़ता है कि विचार किसके हैं। विचार मात्र वस्तुतः पर /अन्य का या बाह्य का होता है। विचार मात्र अनात्म का होता है। "स्व" का कोई विचार नहीं हो सकता है।क्योकि विचार के लिए दो का होना जरूरी है। इसलिए विचार द्वैत के बाहर नहीं ले जाता है। अद्दैत में, स्व में चलना है, और उसे जानना है, तो विचार नहीं, ध्यान मार्ग है। विचार और ध्यान बिल्कुल विपरीत दिशाएं हैं--एक बहिर्गामी है, एक अंतर्मुखी है।
4-साधारणतः तो यही समझा जाता है कि एकाग्रता ध्यान है। एकाग्रता ध्यान नहीं है। क्योंकि एकाग्रता में तनाव है। एकाग्रता का मतलब यह है कि सब जगह से छोड़ कर एक जगह मन को जबरदस्ती रोकना। तो मन को ऐसी अवस्था में छोड़ना है जहां कोई द्वंद्व ही नहीं है। तब तो ध्यान में आप जा सकते हैं। मन को निर्द्वंद्व छोड़ना है; जो मन से लड़ेगा उसकी हार निश्चित है।मन के भीतर जो व्यक्ति लड़ेगा, वह अपने को दो हिस्सों में तोड़ रहा है। जिससे लड़ रहा है, वह भी वही है; और जो लड़ रहा है, वह भी वही है।उन दोनों में से तो कोई नहीं जीतेगा, वह क्षीण और कमजोर हो जाएगा।अगर मन को जीतना हो तो पहला नियम यह है कि लड़ना मत बल्कि घंटे भर के लिए मन को विश्राम देना। तो विश्राम का सूत्र अलग हो जाएगा कि मन जैसा है हम उससे राजी हैं। अगर आप उससे नाराज हैं तो फिर विश्राम नहीं संभव हो सकता। क्योंकि नाराजी से लड़ाई शुरू हो जाएगी। मन जैसा भी है–बुरा और भला, क्रोध से भरा, चिंता से भरा, विचारों से भरा– हम उसी मन के साथ राजी हैं ..टोटल एक्सेप्टबिलिटी।मन जो भी करेगा, हम चुपचाप बैठे देखते रहेंगे।ध्यान का अर्थ है ..बाहर से कोई संबंध न रह जाए अर्थात चित्त की बाहर के जगत में कोई गति न रह जाए। चित्त बिलकुल शून्य हो जाए ..अगति को उपलब्ध हो जाए।उस ठहरे हुए क्षण में, उस रुके हुए क्षण में जब सब रुक गया हो, थम गया हो--उस अवस्था का नाम ध्यान है। ध्यान एकाग्रता नहीं, ध्यान शून्यता है। शून्यता में कोई बिंदु नहीं रह जाता जहां हम टिकते हों,हों कोई आधार नहीं रह जाता। सब निराधार हो जाता है।
5-विचार "पर" को जानने का मार्ग है, ध्यान "स्व" को जानने का।ध्यान का अर्थ है क्रियाहीन होना। ध्यान क्रिया नहीं, अवस्था है। वह अपने स्वरूप में होने की स्थिति है। क्रिया में हम अपने से बाहर के जगत से संबंधित होते हैं। अक्रिया में स्वयं से संबंधित होते हैं। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, तब हमें उसका बोध होता है जो कि हम हैं। अन्यथा, क्रियाओं में व्यस्त हम स्वयं से ही
अपरिचित रह जाते हैं। जब हममें कोई क्रिया नहीं होती है और यह विचार भी नहीं रह जाता है कि मैं हूं"। केवल बस "होना" मात्र ही रह जाता है। इसे ही शून्य समझें। यही वह बिंदु है जहां से संसार का नहीं, सत्य का दर्शन होता है। इस शून्य में ही वह दीवार गिर जाती है, जो मुझे स्वयं को जानने से रोके हुए है। विचार के पर्दे उठ जाते हैं और प्रज्ञा का आविर्भाव होता है। इस सीमा में विचार नहीं, जाना जाता है।यहां साक्षात दर्शन है। यहां न ज्ञेय /नोन है; न ज्ञाता /नोअर है। यहां तो केवल ज्ञान /नोइंग ही है।तरंगें जब नहीं होती हैं, तब सागर के दर्शन होते हैं। और जब बादल नहीं होती हैं तो नीलाकाश के दर्शन होते हैं।
6-यह सागर प्रत्येक के भीतर है, और यह आकाश /स्पेस प्रत्येक के भीतर है। हम इस आकाश को जानना चाहते हैं, तो निश्चय ही जान सकते हैं।इस आकाश तक पहुंचने का रास्ता भी है। वह भी प्रत्येक के ही पास है और हममें से प्रत्येक उस पर चलना भी जानता है। पर हम केवल एक ही दिशा/डायरेक्शन में चलना जानते हैं।कोई भी रास्ता केवल एक दिशागामी नहीं हो सकता है।प्रत्येक राह अनिवार्यतः दो दिशाओं में, दो विपरीत दिशाओं में सत्ता रखती है। उसके होने के लिए ही यह अनिवार्य है कि वह एक ही साथ दो विपरीत दिशाओं में हो, अन्यथा वह हो ही नहीं सकती है। आने का और जाने का मार्ग एक ही है। वही मार्ग दोनों काम करेगा। मार्ग तो वही होगा, केवल दिशा वही नहीं होगी। "संसार" और "स्व" का मार्ग तो एक ही है। जो संसार में लाता है, वही स्वयं में भी ले जायेगा। केवल दिशा विपरीत होगी। अभी तक जो सामने था, वही अब पीछे होगा। और जो पीठ की ओर था, उस पर आंखें करनी होंगी। रास्ता वही है, केवल हमें विपरीत मुड़ जाना है।सन्मुख से विमुख और विमुख से सन्मुख होना है।
क्या है 3 सूत्र ?-
03 FACTS;-
इन सूत्रों पर चलने से चित्त की वह स्थिति बनेगी जो कि शांति और सत्यानुभूति की साधना के लिए अत्यंत आवश्यक है। सूत्र निम्न है...
1-पहला सूत्र है....वर्तमान में जीना । अतीत और भविष्य के चिंतन की यांत्रिक धारा में न बहें। उसके कारण वर्तमान का जीवित क्षण/लिविंग मोमेंट व्यर्थ ही निकल जाता है जबकि केवल वही वास्तविक है। न अतीत की कोई सत्ता है, न भविष्य की। एक स्मृति में है, एक कल्पना में। वास्तविक और जीवित क्षण केवल वर्तमान है। सत्य को यदि जाना जा सकता है तो केवल वर्तमान में होकर ही जाना जा सकता है। साधना के इन दिनों में स्मरणपूर्वक अतीत और भविष्य से अपने को मुक्त रखें। समझें कि वे हैं ही नहीं। जो क्षण पास है--जिसमें आप हैं, बस वही है। उसमें और उसे परिपूर्णता से जी लेना है। रात्रि में ऐसे सोयें जैसे सारा अतीत छोड़कर सो रहे हैं। अतीत के प्रति मर जावें। और सुबह--एक नयी सुबह में और एक नये मनुष्य की भांति उठें। जो सोया था वह न उठे। वह सो ही जावे। उसे उठने दें जो कि नित नया है। इस वर्तमान में जीने को सतत, चौबीस घंटे स्मरण रखें और होश रखें कि कहीं अतीत और भविष्य-चिंतन की यांत्रिक आदतें पुनः सक्रिय तो नहीं हो गयी हैं। उनके प्रति सजग रहना ही पर्याप्त है। उनकी जागरूकता हो तो वे सक्रिय नहीं हो पाती हैं। अमूर्च्छा उन्हें तोड़ देती है।
2-दूसरा सूत्र है....सहजता से जीना। मनुष्य का सारा व्यवहार कृत्रिम और औपचारिक है। एक मिथ्या आवरण हम अपने पर सदा ओढ़े रहते हैं। और इस आवरण के कारण हमें अपनी वास्तविकता धीरे-धीरे विस्मृत ही हो जाती है। इस मिथ्या आवरण को निकालकर अलग रख देना है। नाटक करने नहीं, स्वयं को जानने और देखने हम यहां एकत्रित हुए हैं। नाटक के बाद नाटक के पात्र जैसे अपनी नाटकीय वेशभूषा को उतारकर रख देते हैं, ऐसे ही आप भी अपने मिथ्या चेहरों को उतारकर रख दें। वह जो आप में मौलिक है और सहज है--उसे प्रकट होने दें और उसमें जियें। सरल और सहज जीवन में ही साधना विकसित होती है। साधना के दिनों में जानें कि न आपका कोई पद है, न कोई वैशिष्ट्य है, न प्रतिष्ठा है। उन सारी नकाबों को अलग कर दें। आप निपट आप हैं और अति साधारण मनुष्य हैं, जिसका न कोई नाम है, न कोई प्रतिष्ठा है, न कुल है, न वर्ग है, न जाति है। एक नामहीन व्यक्ति--एक अति-साधारण इकाई मात्र--ऐसे हमें जीना है। स्मरण रहे कि वही हमारी वास्तविकता भी है।
3-तीसरा सूत्र है...अकेले जीना। साधना का जीवन अत्यंत अकेलेपन में, एकाकीपन में जन्म पाता है। पर मनुष्य साधारणतः कभी भी अकेला नहीं होता है। वह सदा दूसरों से घिरा रहता है और बाहर भीड़ में न हो तो भीतर भीड़ में होता है। इस भीड़ को विसर्जित कर देना है। भीतर भीड़ को इकट्ठी न होने दें और बाहर भी ऐसे जीयें कि जैसे आप अकेले ही हैं। किसी दूसरे से कोई संबंध नहीं रखना है।संबंधों में हम उसे भूल गये हैं जो कि हम स्वयं हैं। आप किसी के मित्र हैं या कि शत्रु हैं, पिता हैं या कि पुत्र हैं, पति हैं या कि पत्नी हैं--ये संबंध आपको इतने घेरे हुए हैं कि आप स्वयं को अपनी निजता में नहीं जान पाते हैं। आपने अपने आपको अपने संबंधों के वस्त्रों से भिन्न करके भी कभी नहीं देखा है।सब संबंधों से अपने को उऋण कर लें और तब जो शेष बच रहता है, जानें कि वही आपका वास्तविक होना है। वह शेष सत्ता ही अपने-आप में हैं..स्व है। उसमें ही हमें जीना है।
.....SHIVOHAM.....
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