स्वर्ण मंदिर .... सिक्ख धर्म के 10 गुरु
05 FACTS;-
1-अमृतसर का स्वर्ण मंदिर केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया का मशहूर मंदिर है। ये सिख धर्म के मशहूर तीर्थ स्थलों में से एक है। इस मंदिर का ऊपरी माला 400 किलो सोने से निर्मित है, इसलिए इस मंदिर को स्वर्ण मंदिर नाम दिया गया। बहुत कम लोग जानते हैं लेकिन इस मंदिर को हरमंदिर साहिब के नाम से भी जाना जाता है। कहने को तो ये सिखों का गुरुद्वारा है, लेकिन मंदिर शब्द का जुडऩा इसी बात का प्रतीक है कि भारत में हर धर्म को एकसमान माना गया है। यही वजह है कि यहां सिखों के अलावा हर साल विभिन्न धर्मों के श्रद्धालु भी आते हैं, जो स्वर्ण मंदिर और सिख धर्म के प्रति अटूट आस्था रखते हैं। स्वर्ण मंदिर के बारे में सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसकी नींव एक मुस्लिम सूफी पीर साईं मियाँ मीर ने रखी थी, जबकि सिखों के चौथे गुरु गुरु राम दास जी ने 1577 में इसकी स्थापना की थी और सिखों के पांचवे गुरु अर्जनदेव ने इसकी डिजाइन और निर्माण काम की शुरुआत की थी।स्वर्ण मंदिर में बने चार दरवाजे, चारों धर्मों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसका मतलब यहां हर धर्म के व्यक्ति मत्था टेकने आ सकते हैं।इस मंदिर के चारों ओर बने दरवाजे सभी धर्म के लोगों को यहां आने के लिए आमंत्रित करते हैं।
2-स्वर्ण मंदिर किसने बनवाया..
अमृतसर का इतिहास करीब 400 साल पुराना है। यहां गुरूद्वारे की नींव 1577 में चौथे सिख गुरू रामदास ने 500 बीघा में रखी थी। अमृतसर का मतलब है अमृत का टैंक। पांचवे सिख गुरू गुरू अर्जन देव जी ने इस पवित्र सरोवर व टैंक के बीच में हरमंदिर साहिब यानि स्वर्ण मंदिर का निर्माण किया और यहां सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ आदि ग्रंथ की स्थापना की। श्री हरमंदिर साहिब परिसर अकाल तख्त का भी घर माना जाता है। एक और संस्करण में बताया गया है कि सम्राट अकबर ने गुरू रामदास की पत्नी को भूमि दान की थी, फिर 1581 में गुरू अर्जुनदास ने इसका निर्माण शुरू कराया। निर्माण के दौरान ये सरोवर सूखा और खाली रखा गया था। हरमंदिर साहिब के पहले संस्करण को पूरा करने में पूरे 8 साल का समय लगा। ये मंदिर 1604 में पूरी तरह बनकर तैयार हुआ था। हालांकि कई बार स्वर्ण मंदिर को नष्ट किया गया, लेकिन 17वीं शताब्दी में महाराज सरदार जस्सा सिंह अहलुवालिया द्वारा इसे फिर से बनवाया गया था। मार्बल से बने इस मंदिर की दीवारों पर सोने की पत्तियों से नक्काशी की गई है, जो देखने में बहुत ही सुंदर लगती हैं।सिख धर्म की आस्था से जुड़े इस गुरुद्धारे के बाहर की तरफ अकाल तख्त है, जिसे सिख धर्म के छठवें गुरु हरगोविंद जी का घर माना जाता है। इस तख्त का निर्माण 1606 में बनाया गया था।
स्वर्ण मंदिर के गुरूद्वारे में होने वाले लंगर में हर कोई शामिल हो सकता है।
3-सुनकर भले ही आपको हैरत हो लेकिन स्वर्ण मंदिर की किचन में हर रोज 40 हजार लोगों को नि:शुल्क लंगर खिलाया जाता है। छुट्टी और वीकेंड्स में हर दिन 4 लाख लोग यहां लंगर खाते हैं। यहां ज्यादातर रोटी परोसी जाती है, जिसके लिए 12 हजार किलो आटा हर रोज लगाया जाता है। वैकेशंस में यहां की रोटी मशीन से ही रोटियां तैयार होती हैं, जिसमें एक बार में 25 हजार रोटियां बनकर निकलती हैं। यहां की एक खास बात है कि लंगर में खाने के लिए बैठने से पहले आपको अपने जूते उतारने होंगे और सिर को ढंकना होगा।यहां दो हॉल हैं, जहां एक बार में 5 हजार लोग साथ में बैठकर लंगर खा सकते हैं। साफ सफाई का प्रमाण इसी बात से मिलता है कि हर बर्तन को पांच अलग-अलग बार धोया जाता है। बता दें कि सिख लंगर का चलन सिखों के पहले गुरू गुरूनानक ने शुरू किया था। इस गुरूद्वारे में किसी भी व्यक्ति के तीन दिन तक रहने की पूरी व्यवस्था है। यहां कई कमरे और हॉल बने हैं, जहां सोने के लिए तकिया, कंबल और चादर की सुविधा दी जाती है। अगर आप भी स्वर्ण मंदिर घूमने जाएं, तो आराम से यहां तीन दिन तक ठहर सकते हैं।श्री हरिमन्दिर साहिब के चार द्वार हैं। इनमें से एक द्वार गुरु राम दास सराय का है। इस सराय में अनेक विश्राम-स्थल हैं।
4-विश्राम-स्थलों के साथ-साथ यहां चौबीस घंटे लंगर चलता है, जिसमें कोई भी प्रसाद ग्रहण कर सकता है। श्री हरिमन्दिर साहिब में अनेक तीर्थस्थान हैं। इनमें से बेरी वृक्ष को भी एक तीर्थस्थल माना जाता है। इसे बेर बाबा बुड्ढा के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि जब स्वर्ण मंदिर बनाया जा रहा था तब बाबा बुड्ढा जी इसी वृक्ष के नीचे बैठे थे और मंदिर के निर्माण कार्य पर नजर रखे हुए थे।यहाँ दुखभंजनी बेरी नामक एक स्थान भी है। गुरुद्वारे की दीवार पर अंकित किंवदंती के अनुसार कि एक बार एक पिता ने अपनी बेटी का विवाह कोढ़ ग्रस्त व्यक्ति से कर दिया। उस लड़की को यह विश्वास था कि हर व्यक्ति के समान वह कोढ़ी व्यक्ति भी ईश्वर की दया पर जीवित है। वही उसे खाने के लिए सब कुछ देता है। एक बार वह लड़की शादी के बाद अपने पति को इसी तालाब के किनारे बैठाकर गांव में भोजन की तलाश के लिए निकल गई। तभी वहाँ अचानक एक कौवा आया, उसने तालाब में डुबकी लगाई और हंस बनकर बाहर निकला। ऐसा देखकर कोढ़ग्रस्त व्यक्ति बहुत हैरान हुआ। उसने भी सोचा कि अगर में भी इस तालाब में चला जाऊं, तो कोढ़ से निजात मिल जाएगी।उसने तालाब में छलांग लगा दी और बाहर आने पर उसने देखा कि उसका कोढ़ नष्ट हो गया। यह वही सरोवर है, जिसमें आज हर मंदिर साहिब स्थित है। तब यह छोटा सा तालाब था, जिसके चारों ओर बेरी के पेड़ थे। तालाब का आकार तो अब पहले से काफी बड़ा हो गया है, तो भी उसके एक किनारे पर आज भी बेरी का पेड़ है। यह स्थान बहुत पावन माना जाता है। यहां भी श्रद्धालु माथा टेकते हैं।
5-स्वर्ण मंदिर में जाने से पहले ध्यान रखें ये बातें
1-अपने सिर को रूमाल, डुपट्टा या स्कार्फ से ढंक सकते हैं।
2-मंदिर में दर्शन के दौरान कट स्लीव्स ड्रेस पहनने से बचें।
3-घुटनों से ऊपर की कोई भी ड्रेस पहनना यहां अलाउड नहीं है।
4-अमृतसर में गर्मी ज्यादा होती है, इसलिए यहां घूमने आने के लिए अपने साथ कॉटन के कपड़े ही लाएं। यहां फोटोग्राफी केवल परिक्रमा तक ही अलाउड है, इसके बाद अंदर फोटो खींचने के लिए विशेष तौर से परमिशन लेनी होती है।
5-यहां अपने साथ शराब, सिगरेट, मीट और ड्रग्स लाना निषेध है।
6-दरबार साहिब के अंदर हो रही गुरबाणी सभी लोगों को नीचे बैठकर सुनना चाहिए। माना जाता है कि ये गुरू ग्रंथ साहिब को सम्मान देने का तरीका है।
सिक्ख धर्म के 10 गुरु ;-
सिक्ख धर्म के 10 गुरु हुए हैं। गुरु नानक देव जी सिख धर्म के प्रवर्तक (जनक) थे उनके बाद 9 गुरु और हुए। सिक्ख धर्म के दसवें व अंतिम गुरु गोविंद सिंह थे।
1-गुरु नानक देव जी (1469-1539)
2-गुरु अंगद देव जी (1539-1552)
3-गुरु अमर दास (1552-1574)
4-गुरु राम दास (1574-1581)
5-गुरु अर्जुन देव (1581-1606)
6-गुरु हरगोविंद (1606-1644)
7-गुरु हर राय (1645-1661)
8-गुरु हरकिशन (1661-1664)
9-गुरु तेग बर (1664-1675)
10-गुरु गोविंद सिंह (1675-1699)
1-गुरु नानक देव जी (1469-1539);-
03 FACTS;-
1-सिख धर्म के प्रचारक गुरु नानक देव का जन्म 15 अप्रैल 1469 में तलवंडी नामक स्थान पर हुआ था।
गुरु नानक देव जी ने ही धर्म की स्थापना की थी।नानक जी के पिता का नाम कल्यानचंद (मेहता कालू जी) और माता का नाम तृप्ता था।नानक जी के जन्म के बाद तलवंडी का नाम ननकाना पड़ा। वर्तमान में यह स्थान पाकिस्तान में स्थित है।13 साल की उम्र में उनका उपनयन संस्कार हुआ। नानक जी का विवाह सुलक्खनी नाम की महिला के साथ हुआ।नानक जी के 2 पुत्र श्रीचंद औऱ लक्ष्मीचंद थे।श्रीचंद साहिब जी ने ही उदासीन अखाड़े की स्थापना की थी।1499 में उन्होंने अपना संदेश देना शुरु किया और यात्राएं प्रारंभ कर दी थी जबकि वे 30 साल के थे। 1507 में वे अपने परिवार को छोड़कर यात्रा के लिए निकल पड़े। 1521 तक इन्होंने भारत, अफगानिस्तान, फारस और अरब के प्रमुख स्थानों का भ्रमण किया। कहते हैं कि उन्होंने चारों दिशाओं में भ्रमण किया था।लगभग पूरे विश्व में भ्रमण के दौरान नानकदेव के साथ अनेक रोचक घटनाएं घटित हुईं। उनकी इन यात्राओं को उदासियां कहा जाता हैं।
2- गुरुनानक देवी जी के चार शिष्य थे। यह चारों ही हमेशा बाबाजी के साथ रहा करते थे। बाबाजी ने अपनी लगभग सभी उदासियां अपने इन चार साथियों के साथ पूरी की थी। इन चारों के नाम हैं- मरदाना, लहना, बाला और रामदास के साथ पुरी की थी। मरदाना ने गुरुजी के साथ 28 साल में लगभग दो उपमहाद्वीपों की यात्रा की। इस दौरान उन्होंने तकरीबन 60 से ज्यादा प्रमुख शहरों का भ्रमण किया। जब गुरुजी मक्का की यात्रा पर थे तब मरदाना उनके साथ थे।गुरुनानक देवजी अपनी 4 प्रसिद्ध यात्राओं को पूरा करने के बाद 1522 में करतारपुर साहिब में रहने लगे थे। नानकजी ने अपने जीवनकाल के अंतिम 17 वर्ष, 5 माह और 9 दिन यहीं बिताए थे। करतारपुर साहिब, पाकिस्तान के नारोवाल जिले में रावी नदी के तट पर स्थित है। यह जगह भारतीय सीमा से महज 3 किलोमीटर दूर स्थित है।भारत के तीर्थयात्री पाकिस्तान में पहले करतारपुर साहिब फिर ननकाना साहिब जाते हैं।1496 ई ० में कार्तिक पूर्णिमा की रात को उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।गुरु नानक देव जी ने संगत और पंत को स्थापित किया था। संगत का अर्थ होता है धर्मशाला और पंचशील का अर्थ होता है लंगर लगाना।कवि हृदय नानक की भाषा में फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी, संस्कृत और ब्रजभाषा के शब्द समा गए थे।मृत्यु से पहले उन्होंने अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से जाने गए।
3-नानकदेवजी के दस सिद्धांत :
1. ईश्वर एक है।
2. सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो।
3. जगत का कर्ता सब जगह और सब प्राणी मात्र में मौजूद है।
4. सर्वशक्तिमान ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता।
5. ईमानदारी से मेहनत करके उदरपूर्ति करना चाहिए।
6. बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएं।
7. सदा प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने को क्षमाशीलता मांगना चाहिए।
8. मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके उसमें से जरूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।
9. सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं।
10. भोजन शरीर को जिंदा रखने के लिए जरूरी है पर लोभ-लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।
2-गुरु अंगद देव जी (1539-1552);-
गुरु अंगद देव जी सिखों के दूसरे गुरु थे।गुरु नानक देव ने अपने दोनों पुत्रों को छोड़कर, उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया था।
इनका जन्म फिरोजपुर, पंजाब में 31 मार्च, 1504 को हुआ था।उनके पिता का नाम फेरू जी था, जो पेशे से चरित्र थे। इनकी माता का नाम रामा जी था।गुरु अंगद देव को लहिणा जी के नाम से भी जाना जाता है।अंगद देव का पूर्व नाम लहना था। भाई लहणा जी के ऊपर सनातन मत का प्रभाव था, जिस के कारण वह देवी दुर्गा को एक स्त्री एंवम मूर्ती रूप में देवी मान कर, उसकी पूजा अर्चना करते थे। वो प्रतिवर्ष भक्तों के एक जत्थे का नेतृत्व कर ज्वालामुखी मंदिर जाया करता था। 1520 में उनका विवाह माता खीवीं जी से हुआ। उनसे उनके दो पुत्र - दासू जी एवं दातू जी तथा दो पुत्रियाँ - अमरो जी एवं अनोखी जी हुई। मुगल एवं बलूच लुटेरों (जो कि बाबर के साथ आये थे) की वजह से फेरू जी को अपना पैतृक गाँव छोड़ना पड़ा। इसके पश्चात उनका परिवार तरन तारन के समीप अमृतसर से लगभग 25 कि॰मी॰ दूर स्थित खडूर साहिब नामक गाँव में बस गया, जो कि ब्यास नदी के किनारे स्थित था। इन्हें गुरुमुखी लिपि का अविष्कारक कहा जाता है ।गुरु अंगद देव जी लगभग 7 साल तक गुरु नानक देव के साथ रहे और फिर पंथ की गद्दी पर बैठे हुए सिखाये।गुरु अंगद देव जी सितंबर 1539 से मार्च 1552 तक अपने पद पर रहे।गुरु अंगद देव जी ने जात-पात के भेद-भाव से हटकर लंगर प्रथा स्थायी रूप से चलाई और पंजाबी भाषा का प्रचार शुरू किया।
3-गुरु अमर दास जी (1552-1574);-
गुरु अंगद देव जी के बाद गुरु अमर दास सिख धर्म के तीसरे गुरु बने।61 वर्ष की आयु में गुरु अंगद देव को अपना गुरु बनायाऔर तब से लगातार उनकी सेवा की।गुरु अंगद देव ने उनकी सेवा व प्रण को देखकर ही उन्हे अपनी गद्दी सौंपी।
गुरु अमर दास का निधन 1 सितंबर, 1574 को हुआ था।गुरु अमर दास ने सती प्रथा का विरोध किया और अंतर जातीय विवाह और विधवा विवाह को बढ़ावा दिया था।
4-गुरु रामदास जी (1574-1581);-
03 FACTS;-
1-गुरु रामदास जी गुरु अमरदास के दामाद थे।गुरु रामदास जी का जन्म लाहौर में हुआ था।
बाल्यावस्था में उनके माता पिता की मृत्यु हो गयी। उनकी नानी उन्हें अपने साथ बसर्के गाँव ले आयी। उन्होंने बसर्के में 5 वर्षों तक उबले हुए चने बेच कर अपना जीवन यापन किया।गुरु अमरदास जी ने इनकी सहनशीलता, नम्रता व आज्ञाकारिता के भाव को देखकर अपनी छोटी बेटी की शादी इन साथ कर दी।रामदास साहिब जी का विवाह गुरू अमरदास साहिब जी की पुत्री बीबी भानी जी के साथ हो गया। उनके यहाँ तीन पुत्रों -1. पृथी चन्द जी, 2. महादेव जी एवं 3. अरजन साहिब जी ने जन्म लिया। शादी के पश्चात रामदास जी गुरु अमरदास जी के पास रहते हुए गुरु घर की सेवा करने लगे। वे गुरू अमरदास साहिब जी के अति प्रिय व विश्वासपात्र सिक्ख थे। वे भारत के विभिन्न भागों में लम्बे धार्मिक प्रवासों के दौरान गुरु अमरदास जी के साथ ही रहते।
2-गुरू रामदास जी एक बहुत ही उच्च वरीयता वाले व्यक्ति थे। वो अपनी भक्ति एवं सेवा के लिए बहुत प्रसिद्ध हो गये थे। गुरू अमरदास साहिब जी ने उन्हें हर पहलू में गुरू बनने के योग्य पाया एवं 10 सितम्बर 1574को उन्हें ÷चतुर्थ नानक' के रूप में स्थापित किया। गुरू रामदास जी ने ही ÷चक रामदास' या ÷रामदासपुर' की नींव रखी जो कि बाद में अमृतसर कहलाया। इस उद्देश्य के लिए गुरू साहिब ने तुंग, गिलवाली एवं गुमताला गांवों के जमींदारों से संतोखसर सरोवर खुदवाने के लिए जमीनें खरीदी। बाद में उन्होने संतोखसर का काम बन्द कर अपना पूरा ध्यान अमृतसर सरोवर खुदवाने में लगा दिया। इस कार्य की देख रेख करने के लिए भाई सहलो जी एवं बाबा बूढा जी को नियुक्त किया गया।रामदास जी ने 1577 ई ० में "अमृत सरोवर" नामक एक नगर की स्थापना की थी। जो आगे चलकर अमृतसर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।मुग़ल साम्राज्य के मुग़ल सम्राट अकबर इनका बहुत सम्मान करते थे। गुरु रामदास जी के कहने पर ही अकबर ने एक साल का पंजाब का लगान माफ़ कर दिया था।
3-गुरू रामदास साहिब जी ने सिख धर्म को ÷आनन्द कारज' के लिए ÷चार लावों' (फेरों) की रचना की और सरल विवाह की गुरमत मर्यादा को समाज के सामने रखा। इस प्रकार उन्होने सिक्ख पंथ के लिए एक विलक्षण वैवाहिक पद्धति दी। इस प्रकार इस भिन्न वैवाहिक पद्धति ने समाज को रूढिवादी परम्पराओं से दूर किया। बाबा श्रीचंद जी के उदासी संतों व अन्य मतावलम्बियों के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। गुरू साहिब जी ने अपने गुरूओं द्वारा प्रदत्त गुरू का लंगर प्रथा को आगे बढाया। अन्धविश्वास, वर्ण व्यवस्था आदि कुरीतियों का पुरजोर विरोध किया गया।उन्होंने 30 रागों में 638 शबद् लिखे जिनमें 246 पौउड़ी, 138 श्लोक, 31 अष्टपदी और 8 वारां हैं और इन सब को गुरू ग्रन्थ साहिब जी में अंकित किया गया है। उन्होंने अपने सबसे छोटे पुत्र अरजन साहिब को ÷पंचम् नानक' के रूप में स्थापित किया। इसके पश्चात वे अमृतसर छोड़कर गोइन्दवाल चले गये। भादौं सुदी ३ (2 आसू) सम्वत 1638 (1 सितम्बर 1581) को ज्योति जोत समा गए।
5-गुरु अर्जुन देव (1581-1606)
गुरु अर्जुन देव का जन्म 15 अप्रैल 1563 को हुआ था।गुरु अर्जुन देव ने खुद को सच्चा बादशाह कहते है।
गुरु अर्जुन देव चौथे गुरु रामदास जी के पुत्र थे।इन्होने शरण सरोवर का निर्माण कराकर उसमें "हरमंदिर साहिब" (स्वर्ण मंदिर) का निर्माण कराया जिसकी नींव सूफी संत मियां मीर के हाथों से रखवई गयी।धार्मिक ग्रन्थ (आदि ग्रन्थ) की रचना करने का श्रेय भी इनको ही जाता है।जहांगीर ने उन्हें अपने बेटे खुसरो की बगावत में सहायता करने के कारण 30 मई 1606 को फांसी दे दी थी।
6-गुरु हरगोविंद सिंह (1606-1645);-
02 FACTS;-
1-गुरु हरगोविंद सिंह पाँचवे गुरु अर्जन देव के पुत्र थे, इनकी माता का नाम गंगा था।गुरु- गद्दी संभालते ही उन्होंने मीरी एवं पीरी की दो तलवारें ग्रहण की। मीरी और पीरी की दोनों तलवारें उन्हें बाबा बुड्डाजीने पहनाई। यहीं से सिख इतिहास एक नया मोड लेता है। गुरु हरगोबिन्दसाहिब मीरी-पीरी के संकल्प के साथ सिख-दर्शन की चेतना को नए अध्यात्म दर्शन के साथ जोड देते हैं। इस प्रक्रिया में राजनीति और धर्म एक दूसरे के पूरक बने। गुरु जी की प्रेरणा से श्री अकाल तख्त साहिब का भी भव्य अस्तित्व निर्मित हुआ। देश के विभिन्न भागों की संगत ने गुरु जी को भेंट स्वरूप शस्त्र एवं घोडे देने प्रारम्भ किए। अकाल तख्त पर कवि और ढाडियोंने गुरु-यश व वीर योद्धाओं की गाथाएं गानी प्रारम्भ की। लोगों में मुगल सल्तनत के प्रति विद्रोह जागृत होने लगा। गुरु हरगोबिन्दसाहिब नानक राज स्थापित करने में सफलता की ओर बढने लगे। जहांगीर ने गुरु हरगोबिन्दसाहिब को ग्वालियर के किले में बन्दी बना लिया। इस किले में और भी कई राजा, जो मुगल सल्तनत के विरोधी थे, पहले से ही कारावास भोग रहे थे। गुरु हरगोबिन्दसाहिब लगभग तीन वर्ष ग्वालियर के किले में बन्दी रहे। महान सूफी फकीर मीयांमीर गुरु घर के श्रद्धालु थे। जहांगीर की पत्नी नूरजहां मीयांमीर की सेविका थी।
2-इन लोगों ने भी जहांगीर को गुरु जी की महानता और प्रतिभा से परिचित करवाया। बाबा बुड्डा व भाई गुरदास ने भी गुरु साहिब को बन्दी बनाने का विरोध किया। जहांगीर ने केवल गुरु जी को ही ग्वालियर के किले से आजाद नहीं किया, बल्कि उन्हें यह स्वतन्त्रता भी दी कि वे 52राजाओं को भी अपने साथ लेकर जा सकते हैं। इसीलिए सिख इतिहास में गुरु जी को बन्दी छोड़ दाता कहा जाता है। ग्वालियर में इस घटना का साक्षी गुरुद्वारा दाता बन्दी छोड़ है। अपने जीवन मूल्यों पर दृढ रहते गुरु जी ने शाहजहां के साथ चार बार टक्कर ली। वे युद्ध के दौरान सदैव शान्त, अभय एवं अडोल रहते थे। उनके पास इतनी बडी सैन्य शक्ति थी कि मुगल सिपाही प्राय: भयभीत रहते थे। गुरु जी ने मुगल सेना को कई बार कड़ी पराजय दी। गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने अपने व्यक्तित्व और कृत्तित्वसे एक ऐसी अदम्य लहर पैदा की, जिसने आगे चलकर सिख संगत में भक्ति और शक्ति की नई चेतना पैदा की। गुरु जी ने अपनी सूझ-बूझ से गुरु घर के श्रद्धालुओं को सुगठित भी किया और सिख-समाज को नई दिशा भी प्रदान की। अकाल तख्त साहिब सिख समाज के लिए ऐसी सर्वोच्च संस्था के रूप में उभरा, जिसने भविष्य में सिख शक्ति को केन्द्रित किया तथा उसे अलग सामाजिक और ऐतिहासिक पहचान प्रदान की। इसका श्रेय गुरु हरगोबिन्दसाहिब को ही जाता है।1644 ई ० में कीरतपुर, पंजाब में इनका निधन हो गया।
7-गुरु हरराय (1645-1661);-
गुरु हरराय साहिब जी सिख धर्म के छठे गुरु हरगोविंद सिंह के बेटे बाबा गुरदीता जी के छोटे बेटे थे।
गुरु हरराय का विवाह किशन कौर के साथ हुआ, और उनके दो बेटे रामराय जी और हरकिशन साहिब जी थे।
गुरु हरराय ने औरंगजेब के भाई दारा शिकोह की विद्रोह में मदद की थी।1661 ई ० में गुरु हरराय की मृत्यु हो गयी।
8- गुरु हरकिशन साहिब (1661-1664);-
गुरु हरकिशन साहिब जन्म 7 जुलाई, 1656 को करतारपुर साहेब में हुआ, और ये सातवें गुरु हर राय जी के बेटे थे।
गुरु हरकिशन साहिब ने 1661 में केवल 5 वर्ष की आयु में ही गद्दी प्राप्त कर ली थी।कम उम्र के कारण औरंगजेब ने इनका विरोध किया।इस विवाद को सुलझाने के लिए ये औरंगजेब से मिलने दिल्ली गए, तो वहांजे की महामारी फैली हुई थी। कई लोगों को स्वास्थ्य लाभ प्रदान करने के बाद गुरु हरकिशन साहिब जी स्वयं चेचक से पीडित हो गए।30 मार्च 1664 को इनका निधन हो गया। अपने अंतिम क्षणों में उनके मुंह से "बाबा बकाले" शब्द निकले। जिसका अर्थ था कि अगली शिक्षा गुरु बकाले गांव से ढूंढा जाएगी।साथ ही गुरु हरकिशन साहिब ने अंतिम क्षणों में यह भी निर्देश दिया था कि उनकी मृत्यु के बाद कोई भी नहीं रोयेगा।
9-गुरु तेग बहादुर सिंह (1664-1675);-
गुरु तेग बहादुर सिंह का जन्म 18 अप्रैल 1621 को पंजाब में हुआ था।गुरु तेग बहादुर सिंह ने धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अपना सब कुछ निछावर कर दिया। सही अर्थो में गुरु तेग बहादुर सिंह को "हिन्द की चादर" कहा जाता है।इस समय काल में औरंगजेब धर्म परिवर्तन कराने वाला था। इससे परेशान होकर कश्मीरी पंडित गुरु तेग बहादुर की शरण में आये तो उन्होंने कहा कि औरंगजेब से जाकर कहो की अगर वो मुझे इस्लाम कबूल करवा देंगे तो हम सब भी इस्लाम कबूल कर लेंगे।गुरु तेग बहादुर सिंह को औरंगजेब के दरबार में पहले लालच और फिर यायत द्वारा इस्लाम कबूलियत की कोशिश की गयी।इस्लाम कबूल करने के लिए औरंगजेब द्वारा उनके दो ऋषि शिष्यों को उनके सामने मार डाला गया।अंत में जब औरंगजेब प्रबंधित नहीं हुआ तो चांदनी चौक पर गुरु तेग बहादुर सिंह का शीश 24 नवंबर 1675 ई ० को कटवा दिया गया है।इस शहीदी स्थान को 'शीश गंज' के नाम से जाना जाता है, यहां "शीशगंज साहिब" नामक गुरुद्वारा स्थित है है।
10-गुरु गोविंद सिंह (1675-1699);-
02 FACTS;-
1-सिखों के दसवें व अंतिम गुरु गोविंद सिंह का जन्म 22 दिसंबर 1666 ई ० को पटना में हुआ था।गुरु गोविंद सिंह सिखों के 9 वें गुरु गुरु तेग बहादुर सिंह के पुत्र थे। यह केवल 9 वर्ष की आयु में गद्दी पर विराजमान हुए ।उन्होंने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने का निर्णय लिया और तलवार हाथ में उठाई।उनके बड़े बेटे बाबा अजीत सिंह और एक अन्य बेटे बाबा जुझार सिंह ने चमकौर के युद्ध में शहादत प्राप्त की। 22 दिसंबर सन् 1704 को सिरसा नदी के किनारे चमकौर नामक स्थान पर सिक्कों और मुगलों के बीच एक ऐतिहासिक युद्ध हुआ। गुरु गोबिंद सिंह सिखों के साथ मुगलों की सेना चीरते हुए, चमकौर की गढ़ी से जाना पड़ा था। सरसा नदी पार करते समय माता गुजरी अपने दो पोतों, साहिबजादा जोरावर सिंह और फतेह सिंह के साथ थी। गुरु गोबिंद सिंह जी उनसे बिछुड़ गए थे।गुरुगोबिंद सिंह के दो साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह को इस्लाम धर्म कबूल न करने पर सरहिंद के नवाब ने दीवार में जिंदा चुनवा दिया था, माता गुजरी को किले की दीवार से गिराकर शहीद कर दिया गया था।
2-1699 ई ० में सिखों के दसवें व अंतिम गुरु गोविंद सिंह का निधन हो गया। उससे पहले उन्होंने धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु खालसा पंथ की स्थापना की और गुरु प्रथा को समाप्त कर दिया। पांच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं-जहां पांच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा। उन्होंने सभी जातियों के भेद-भाव को समाप्त करके समानता स्थापित की और उनमें आत्म-सम्मान की भावना भी पैदा की।गुरु गोविंद सिंह ने पांचवे गुरु अर्जुन देव द्वारा स्थापित "गुरु ग्रंथ साहिब" को ही अगला गुरु बताया।युद्ध की दृष्टि से आपने केसगढ़, फतेहगढ़, होलगढ़, अनंदगढ़ और लोहगढ़ के किले बनवाएं। पौंटा साहिब आपकी साहित्यिक गतिविधियों का स्थान था।दमदमा साहिब में आपने अपनी याद शक्ति और ब्रह्मबल से श्री गुरुग्रंथ साहिब का उच्चारण किया और लिखारी (लेखक) भाई मनी सिंह जी ने गुरुबाणी को लिखा। गुरुजी रोज गुरुबाणी का उच्चारण करते थे और श्रद्धालुओं को गुरुबाणी के अर्थ बताते जाते और भाई मनी सिंह जी लिखते जाते। इस प्रकार लगभग पांच महीनों में लिखाई के साथ-साथ गुरुबाणी की जुबानी व्याख्या भी संपूर्ण हो गई।
..SHIVOHAM...
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