स्वामी विवेकानन्द ...अमृतवाणी अंश
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...
02 FACTS;-
1-श्री रामकृष्ण के सानिध्य में रहते समय हीस्वामी विवेकानन्द ने निर्विकल्प समाधि का आस्वादन कर लिया था, और अपने गुरुदेव से प्रार्थना की थी कि वे कुछ ऐसी कृपा दें जिससे वे हर समय ब्रह्मानन्द में ही लीन होकर रहने योग्य बन जाएँ। किन्तु श्री रामकृष्ण चाहते थे कि उनका नरेन् लोक कल्याण के लिए केवल उच्च भूमि में ही न रहकर, साधारण जनता बीच उतर आये।
ज्ञानयोग में ज्ञानी साधक ब्रह्म को जानना चाहता है। वह 'नेति' 'नेति ' विचार करते हुए एक एक करके मिथ्या वस्तुओं का त्याग करता जाता है। जहाँ विचार (आत्मनिरीक्षण) समाप्त हो जाता है, वहाँ समाधि होती है, ब्रह्मज्ञान होता है।एक बार श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ से पूछा , "तेरे जीवन का ध्येय क्या है ? नरेन्द्रनाथ ने कहा , " सदा समाधि में मग्न रहना। " सुनकर श्रीरामकृष्ण बोले - "क्या तू इतना क्षुद्रबुद्धि है ! समाधि से भी पार चला जा। समाधि तो तेरे लिये कुछ भी नहीं है। उससे भी ऊँची अवस्था है।
किसी दूसरे व्यक्ति से (कालीमहाराज ?) से उन्होंने कहा था ~ "भाव और भक्ति ही सब कुछ नहीं है। "
2-और एक समय श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ से यही प्रश्न पूछा। उस समय भी नरेन्द्रनाथ ने एक ही उत्तर दिया। सुनकर श्रीरामकृष्ण बोले - " छी, छी ! तेरा इतना उच्च आधार है और तेरे मुँह से यह बात? मैंने तो सोचा था कि तू एक विशाल वटवृक्ष के समान होगा, तेरी छाया में हजारों लोगों को आश्रय मिलेगा , परन्तु वैसा न होकर तू केवल अपनी ही मुक्ति चाहता है ! यह तो बहुत तुच्छ बात है ! मुझे तो सभी भाव अच्छे लगते हैं। मैं एक ही सब्जी को कभी उबालकर , कभी तल कर, कभी उसकी चटनी बनाकर , तो कभी रसेदार तरकारी बनाकर खाना पसन्द करता हूँ। मैं समाधि में निर्गुण भाव से ईश्वर का अनुभव करता हूँ। फिर उनके विभिन्न रूपों के साथ विभिन्न भावसम्बन्ध स्थापित कर आनन्द का उपभोग करता हूँ। तू भी ऐसा ही करना ! तू एक ही आधार में ज्ञानी और भक्त दोनों बन''।जब स्वामी विवेकानन्द ने बाद में माँ जगदम्बा के काली रूप को स्वीकार कर लिया तब श्री रामकृष्ण बहुत खुश हो गए थे । उनके खुश होने का कारण यही था कि श्रीरामकृष्णदेव समस्त शिक्षाओं के भीतर एक ही गोल्डन थ्रेड गुजरता है, और वह है - 'शिवज्ञान से जीव सेवा।' Worship God in the form of all living beings ' अर्थात समस्त जीवित प्राणि भी उसी ब्रह्म से निर्गत हुए हैं, अतः 'जीव' के रूप में भी उसी ईश्वर /शिव की पूजा करो ! विवेकानन्द के विषय में श्री रामकृष्ण कहते थे - " वह साक्षात् नारायण है - जीव के उद्धार के लिये उसने देह धारण की है। " - नरेन्द्र के विषय में श्रीरामकृष्ण की जो इच्छा-बीज रूप में थी वह इस अपरोक्षानुभूति के बाद विवेकानन्द के दृढ़ निश्चय में अंकुरित हो गयी ।
अमृतवाणी अंश.....
1-'वे (ब्रह्म) ही सबकुछ बने हैं' :" मेरी ब्रह्ममयी माँ ही सब कुछ बनी हैं, वे आद्या -शक्ति ही जीव-जगत बनी है। वही अनन्त-शक्ति स्वरूपिणी जगत में दैहिक, मानसिक , नैतिक , आध्यात्मिक आदि विविध शक्तियों के रूप में प्रकाशित हैं। मेरी माँ ' काली भवतारिणी' ही वेदान्त का ब्रह्म (आत्मा) है। वह आत्मा या ब्रह्म का मूर्त (व्यक्त) रूप है।
2-" भगवान जब निष्क्रिय अवस्था में होते हैं, सृष्टि-स्थिति-प्रलय आदि कार्य नहीं करते, तब उन्हें मैं आत्मा , ब्रह्म या पुरुष कहता हूँ। और जब क्रियाशील रूप में ~ ' सृष्टि-स्थिति-प्रलय' आदि क्रियाओं का कर्ता के रूप में उनका विचार करता हूँ, तब उन्हें शक्ति (माँ जगदम्बा) , माया या प्रकृति कहता हूँ। "
3- " ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं। एक को मानने से दूसरे को भी मानना पड़ता है। जैसे अग्नि और उसकी दाहिका-शक्ति। दाहिका-शक्ति के बिना अग्नि की कल्पना असम्भव है, वैसे अग्नि बिना उसकी दहनशक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। "
जहाँ कहीं कार्य है -सृष्टि ,स्थिति , प्रलय है - वहीं शक्ति (कारण) है ! परन्तु जल स्थिर होने से भी जल है, और तरंगपूर्ण होने पर भी जल ही है। वह सच्चिदानन्द ब्रह्म ही आद्याशक्ति है, जो सृष्टि , स्थिति , प्रलय किया करती है। जैसे कप्तान जब कोई काम नहीं करता तब भी वही है, और जब पूजा करता है, या लाटसाहब से मिलने जाता है तब भी वही - वह एक ही है ; भेद केवल उपाधि में है।"
4-श्रीरामकृष्ण कहा करते थे - " मैं सभी को स्वीकार करता हूँ। जाग्रत, स्वप्न , सुषुप्ति और चतुर्थ~ तुरीय सभी अवस्थाओं को ग्रहण करता हूँ। फिर ब्रह्म और माया , जीव , जगत सब कुछ ग्रहण करता हूँ। सब ग्रहण करने पर वजन में कुछ कमी रह जाती है। इसलिये मैं नित्य और लीला दोनों को लेता हूँ।"
5- "समाधि अवस्था में उपलब्ध ब्रह्म मानो दूध है, सगुण-निर्गुण ईश्वर मानो माखन हैं, और चौबीस तत्वों से बना जगत मानो छाछ। जब तक तुम माया के राज्य में हो (देह/जगत में हो) तब तक तुम्हें 'माखन और छाछ ' ~ "ईश्वर और जगत " ~ दोनों को स्वीकार करना होगा।"
6- 'यदि ईश्वर स्वयं ही सब कुछ बने हैं, तो फिर जगत में इतनी विविधता , 'अहं ' का इतना तारतम्य क्यों है ? ' ~ इस प्रश्न को हल करते हुए श्रीरामकृष्ण ने कहा था, " यह उनका खेल है -उनकी लीला है। एक राजा के चार बेटे हैं।हैं तो सभी एक ही राजा के बेटे , पर खेल में कोई मंत्री बना है, तो कोई कोतवाल, कोई और कुछ बना है। राजा का बेटा होकर 'कोतवाल-कोतवाल ' खेल रहा है। "
7-" ऐसा मत ठीक नहीं कि राम-सीता , कृष्ण -राधा आदि ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं, -केवल रूपक हैं ; या शास्त्र आदि में उनका जो वर्णन है, वह केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही सत्य हैं - उनका भौतिक अस्तित्व नहीं था। तुम्हारी -हमारी तरह वे भी रक्त-मांस के बने मनुष्य ही थे , परन्तु वे दिव्य-स्वरुप थे। इसीलिये उनके जीवन की रूपात्मक व्याख्या भी सम्भव है। अवतार और ब्रह्म का सम्बन्ध मानो तरंग और समुद्र की तरह है। सभी अवतार मूलतः एक ही हैं। वही एक ईश्वर मानो जल में डुबकी लगाकर एक स्थान पर कृष्ण के रूप में उदित हुआ और दूसरे स्थान पर ईसा के रूप में। "
8-"ईश्वर अनन्त हैं , परन्तु उनकी इच्छा हो तो वे मनुष्य के रूप में अवतीर्ण हो सकते हैं। अवतार के माध्यम से ही हम ईश्वर की प्रेम-भक्ति का आस्वादन कर सकते हैं।....ईश्वर नित्य हैं; फिर वे लीला भी करते हैं। ईश्वरलीला, देवलीला, जगत-लीला, नरलीला। नरलीला में वे अवतार बनकर आते हैं। अवतार को 'अचिन्हा गाछ' भी कहा जाता है, उन्हें सब लोग नहीं पहचान सकते। रामचन्द्र को भरद्वाज आदि प्रवृत्तिमार्ग के केवल 7-ऋषियों ने ही अवतार के रूप में पहचाना था। ईश्वर मनुष्य को ज्ञान-भक्ति सिखाने के लिये नररूप धारण कर अवतीर्ण होते हैं। "
9-"जिस प्रकार संगीत में आरोह- अवरोह होते हैं- 'सा रे ग म प ध नि सा ' कहते हुए स्वर को ऊपर तक चढ़ाकर, फिर ' सा नि ध प म ग रे सा ' कहते हुए नीचे उतरा जाता है। उसी प्रकार समाधि में अद्वैतबोध का अनुभव करने के पश्चात् पुनः नीचे उतरकर 'अहं' बोध का अवलम्बन कर रहा जाता है। जैसे केले के स्तम्भ की परतों को छीलते छीलते माँझे तक पहुँचकर उसी को सार समझा। फिर विचार आया कि छिलकों का ही माँझा है , माँझे के ही छिलके हैं ~ दोनों मिलकर ही स्तम्भ बना है। "
10- " समाधि में ब्रह्म का साक्षात्कार करने के बाद भी साधक 'अहं' के सहारे द्वैतभूमि में उतर आता है। वह उतना 'अहं' ही रख छोड़ता है, जिसके द्वारा वह सगुण ईश्वर की लीला का आस्वादन कर सके - सा,रे,ग,म,प, ध, नि--नि पर अधिक देर ठहरना कठिन है, इसलिये साकार ईश्वर में भक्ति आवश्यक है। माँ काली के किसी भी अवतार में भक्ति रखना आवश्यक है, मानो ईश्वर मन में ही विराजमान है ! अर्थात अब उसका व्यष्टि अहं भी माँ जगदम्बा के मातृ-हृदय का सर्वव्यापी विराट 'अहं' हो बन चुका है।]
11-" समाधि से साधारण भावभूमि में उतर आने पर साधक के भीतर 'अहं' की एक पतली रेखा मात्र रह जाती है - उसके द्वारा वह दिव्य-दर्शनादि का आस्वादन कर सकता है। इसके द्वारा वह देखता है, कि एकमात्र ब्रह्म ही जीव -जगत के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। जड़ या निर्विकल्प समाधि में निराकार -निर्गुण ब्रह्म का और चेतन या सविकल्प समाधि में साकार-सगुण ब्रह्म का साक्षात्कार करने के बाद 'विज्ञानी ' (भक्त) को ईश्वर की इस महिमा का अनुभव होता है। जब तक तुममें स्वयं के व्यक्तित्व का बोध है, तब तक तुम ईश्वर को भी 'व्यक्ति ' (नवनीदा -माँ,गुरु) के सिवा अन्य किसी रूप में विचार-चिंतन नहीं कर सकते। निर्गुण निराकार ब्रह्म ही तुम्हारे निकट (अब) सगुण -साकार ईश्वर के ही रूप में प्रकट होता है। ये विभिन्न ईश्वरीय रूप सत्य हैं, वे तुम्हारी देह, मन या बाह्यजगत से कहीं अनन्तगुना अधिक सत्य हैं। "
12- ' नित्य और लीला ' दोनों सत्य है (शिव ही जीव बने हैं)' ~ जेने सर्व-जीवेर कल्याणई शेष कथा: 'ज्ञान के बाद विज्ञान ' को जानने का मतलब है ' नित्य और लीला ' दोनों सत्य है ~ को स्वीकार करना। " ~ " ब्रह्म ही द्वैत-प्रपंच की सत्ता हैं ! जब तक 'अहं' है , तब तक साकार ईश्वर भी सत्य हैं ; जीव-जगत के रूप में उनकी लीला भी सत्य है !"
13-" जब तुम बाहर के लोगों से मिलो तब सबसे प्रेम करो, हिल-मिलकर एक हो जाओ - द्वेषभाव तनिक भी न रखो। 'वह साकारवादी है, निराकार नहीं मानता, 'अमुक निराकारवादी है, साकार नहीं मानता', 'वह हिन्दू है, वह मुसलमान है , वह ईसाई है, कि जैन है' इस प्रकार किसी के भी प्रति नाक-भौं सिकोड़ते हुए घृणा मत प्रकट करो। भगवान ने जिसको जैसा समझाया है, उसने उन्हें वैसा ही समझ रखा है। .... यह जानकर कि सभी जन भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते ही हैं; सबके साथ जितना सम्भव हो सके मिला-जुला करना। सामने वाले की पूरी बात सुनने के बाद अपनी प्रतिक्रिया इस तरह व्यक्त करो कि वह सदा के लिये तुम्हारा हो जाये। इस प्रकार बाहर के सभी लोगों से प्रेमपूर्वक मिलने के बाद जब तुम अपने घर (हृदय) में लौटोगे -तब मन में शान्ति और आनन्द का अनुभव करोगे। "
14-श्रीरामकृष्ण एक कहानी कहते थे - " चारदीवारी से घिरी हुई एक जगह थी। उसके भीतर क्या है , इसका बाहर के लोगों को कुछ पता नहीं था। एकदिन चार दोस्तों ने मिलकर सलाह किया कि सीढ़ी के सहारे चारदीवारी पर चढ़कर देखा जाय भीतर क्या है ? पहला आदमी निसेनी के सहारे दीवार पर जैसे ही चढ़ा वैसे ही 'हा -हा ' कर हँसते हुए चारदीवारी के भीतर कूद पड़ा। क्या हुआ समझ न पाकर दूसरा आदमी भी दीवार पर चढ़ा और वह भी उसी प्रकार 'हा-हा' हँसते हुए भीतर कूद पड़ा। तीसरे आदमी का भी वही हाल हुआ। अन्त में चौथा आदमी चारदीवार पर चढ़ा। उसने देखा कि भीतर दिव्य उपयोग की वस्तुओं से भरा अद्भुत शोभामय एक उपवन है। उसके मन में उस सुन्दर वस्तुओं का ( दिव्यानन्द का) उपभोग करने की तीव्र कामना उठी, पर उसने उसका दमन किया, और दूसरों भी अपने साथ लेकर उसका आनन्द चखाने की इच्छा से वह नीचे वापस उतर आया। तथा जो भी दिखाई पड़ता उसी को उस जगह के बारे में बताने लगा। ब्रह्मवस्तु भी इसी उपवन की तरह है। जो उसे एकबार देख लेता है, वही आनन्दमग्न होकर उसमें विलीन हो जाता है। परन्तु जो विशेष शक्तिमान महापुरुष होते हैं, वे ब्रह्मदर्शन के पश्चात् वापस आकर लोगों को उसकी खबर [सुसमाचार] बताते हैं, और दूसरों को साथ लेकर उस ब्रह्मानन्द में निमग्न होते हैं। "
15-'कुछ महापुरुष समाधि की सर्वोच्च अवस्था (सप्तमभूमि) में पहुँचकर भगवद-बोध में विलीन जाने के बाद भी लोककल्याण के लिये उस शब्दातीत अवस्था से पुनः उतर आते हैं। समाधि के बाद भी वे इच्छापूर्वक 'विद्या का अहं ' रख लेते हैं। यह अहं आभास मात्र है, यह पानी पर खींची गई रेखा के समान होता है। ईश्वरप्राप्ति के पश्चात् यदि किसी का 'दास मैं' या 'भक्त मैं ' बना रहता है, तो भी वह व्यक्ति किसी अनिष्ट नहीं कर सकता। पारस पत्थर को छू लेने से तलवार सोना बन जाती है, तलवार का आकर तो रहता है, पर वह किसी हिंसा नहीं कर सकती।''
16-कभी- कभी आकाश में सूर्यास्त होने से पहले ही चन्द्र का उदय हो जाता है। और उस समय सूर्य और चन्द्र का सम्मिलित प्रकाश दिखाई देता है। इसीतरह चैतन्य महाप्रभु जैसे कुछ अवतारों में , एकाधार में ज्ञानसूर्य और भक्तिचन्द्र दोनों का समान रूप से प्रकाश दिखाई देता है। एक ही आधार में ज्ञान तथा भक्ति दोनों का प्रकाशित होना अत्यन्त दुर्लभ घटना है।"
17-''समाधि होने के बाद प्रायः देह नहीं टिका करती। किसी-किसी की देह लोकशिक्षा के लिये रह जाती है-जैसे नारदादि ऋषि और चैतन्यदेव आदि अवतारों का हुआ। कुआँ खोद चुकने के बाद भी कोई कोई व्यक्ति कुदाल-कड़ाही सम्भाल कर रख लेते हैं, सोचते हैं रहने दो कभी किसी के काम आयेगा। ऐसे महापुरुष लोग जीवों के दुःख को देखकर कातर होते हैं। वे इतने स्वार्थी नहीं होते कि सोचे , हमें ज्ञानलाभ हुआ कि सब हो गया''।
18-पौधों में साधारणतः पहले फूल (मंजर) आते हैं, बाद में फल ; किन्तु कुछ पौधे ऐसे भी होते हैं, जिनमे पहले फल आते हैं, और उसके बाद फूल होते हैं~ जैसे लौकी और कुम्हड़ा का पौधा। इसी तरह साधारण साधकों को तो साधना करने के बाद ईश्वर लाभ होता है। किन्तु जो नित्यसिद्ध (भावी नेता/शिक्षक/ would be Leaders ) होते हैं, उन्हें पहले ही ईश्वर का लाभ हो जाता है, (मनःसंयोग की) साधना पीछे करते हैं।जब लकड़ी का बड़ा भारी कुन्दा पानी पर बहता है, तब उसपर चढ़कर कितने ही लोग आगे निकल जाते हैं, उनके भार से वह डूबता नहीं। परन्तु सड़ियल लकड़ी पर एक कौआ भी बैठे तो वह डूब जाती है। इसी प्रकार जिस समय अवतार-महापुरुष आते हैं उस समय उनका आश्रय ग्रहण कर कितने लोग तर जाते हैं, परन्तु सिद्ध पुरुष काफी श्रम करके किसी तरह स्वयं तरता है। अवतारों के साथ जो आते हैं, वे या तो नित्यसिद्ध होते हैं, या वह उनका अन्तिम जन्म होता है।
19- " संसारी जीव सब कुछ त्यागकर भगवान (अवतार) को क्यों नहीं भज सकता है ? " क्या कोई नट रंगमंच पर उतरते ही अपना मुखौटा हटा देता ? संसारियों को पहले नाटक में अपना काम पूरा कर लेने दो, उसके बाद ठीक समय आने पर वे अपना बनावटी साज उतार देंगे। "
20-''शब्द ब्रह्म : हमारे द्वारा बोला गया मात्र एक ही शब्द किसी को जीवन दे सकता है और उसके प्राणों का हरण भी कर सकता है। जीवन की दिशा को परिवर्तित कर सकता है तो किसी को गलत मार्ग पर भी ले जा सकता है। क्योंकि शब्द ब्रह्म स्वरूप हैं। शब्द ऐसा मरहम है जो बड़े से बड़े घाव को चुटकियों में ठीक कर सकता है, तो शब्द ऐसी कटार भी है जिसका काटा पानी भी नही माँगता। इसीलिए ध्यान रखें कि किसके सामने क्या बोल रहे हैं और क्या नहीं। दादा कहते थे -' जो भी कोई तुमसे मिले ; उसे ऐसा प्रतीत हो मानो इस व्यक्ति से मिलकर उसका जीवन धन्य हो गया है!''
21-बाजुबन्द पुरुष को को शोभायमान नहीं करते हैं और ना ही चन्द्रमा के समान उज्जवल हार ,न स्नान,न चन्दन का लेप,न फूल और ना ही सजे हुए केश ही शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत प्रकार से धारण की हुई वाणी ही उसकी भली भांति शोभा बढ़ाती है। साधारण आभूषण नष्ट हो जाते है परन्तु वाणी रूपी आभूषण निरन्तर जारी रहने वाला आभूषण हैं।
22-"जैसे वकील को देखने से मामले -मुकदमे और कचहरी की बातें ही मन में आती है, वैसे ही साधु या भक्त को देखने से ईश्वर और धर्म -सम्बन्धी बातों का ही स्मरण होता है। साधुसंग धर्मसाधना का एक प्रधान अंग है। जिस प्रकार लुहार बीच-बीच में धौकनी चलाकर भट्ठी की आग को बनाये रखता है, उसी प्रकार साधुसंग द्वारा मन को सचेत बनाये रखना चाहिये।"
23-" मनुष्य स्वयं को पहचानने से भगवान को पहचान सकता है। 'मैं ' कौन है ? हाथ, पैर , रक्त ,मांस -इनमें से 'मैं ' कौन है ? इस तरह भलीभाँति विचार करने पर दिखाई देता है कि 'मैं ' नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। जिस प्रकार प्याज का छिलका अलग करते जाओ, तो छिलका ही छिलका निकलता जाता है। सार भाग कुछ मिलता ही नहीं। उसी प्रकार विचार करने पर 'मैं 'पन के नाम से कुछ नहीं मिलता। अन्त में जो बचता है वही है आत्मा या चैतन्य। 'मैं ' 'मेरा ' के दूर हो जाने पर भगवान दर्शन देते हैं। "
24-सुन्दर उद्यान गृह में ब्रह्मज्ञान ..... श्री रामकृष्ण एक कहानी कहते थे --एक साधु अपने शिष्य को आत्मज्ञान प्राप्त कराना चाहता था। वह उसे एक सुन्दर उद्यान गृह में रखकर चला गया। कुछ दिनों बाद लौटकर उसने शिष्य से पूछा - " बेटा , तुझे किसी बात का अभाव है? शिष्य के ' हाँ ' कहने पर साधु ने श्यामा नाम की एक सुन्दर स्त्री को वहाँ रखा और शिष्य को उसके साथ यथेच्छ आहार-विहार करने की अनुमति दी। फिर बहुत दिनों बाद आकर साधु ने शिष्य से वही बात पूछी। इस बार शिष्य ने उत्तर दिया , 'नहीं महाराज, मुझे अब किसी बात की चाह नहीं है। ' तब साधु ने शिष्य और श्यामा दोनों को पास बुलाया और श्यामा के हाथों की ओर निर्देश करते हुए, शिष्य से पूछा , 'ये क्या है ?' शिष्य बोला -'ये श्यामा के हाथ हैं। ' इसी प्रकार क्रमशः श्यामा की ऑंखें, नाक , कान आदि सभी सुन्दर अंगों का निर्देश करते हुए साधु पूछता गया , 'ये क्या हैं ?' शिष्य भी उपयुक्त उत्तर देता गया। ऐसा करते हुए शिष्य के ध्यान में अचानक यह बात आयी कि , ' मैं तो बार-बार यह कह रहा हूँ कि यह श्यामा का 'अमुक' है, और यह श्यामा का 'तमुक ' है, पर वास्तव में श्यामा क्या है ? ' असमंजस में पड़कर उसने गुरु से पूछा, "परन्तु महाराज , ये ऑंखें , नाक , कान आदि जिसके अंग हैं, वह श्यामा वास्तव में क्या है ? " साधु ने कहा , " यदि तुम जानना चाहते हो कि श्यामा वास्तव में कौन है , तो मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें यह ज्ञान करा दूँगा।" इसके बाद साधु ने उसके निकट आत्मज्ञान का रहस्य (तत्वमसि का रहस्य) प्रकट किया।"
.... क्या आप जानते हैं कि वास्तव में आप कौन हैं ? क्या वास्तव में आप शशिभूषण श्रीवास्तवा ही हैं ? .... या आपका नाम 'शशिभूषण श्रीवास्तवा' हैं ? नाम तो कोर्ट में जाकर बदला भी जा सकता है। क्या नाम बदलने से आप बदल जाते हैं? क्या नाम बदलने से आप अपना अस्तित्व खो देते हैं? बिलकुल नहीं! अभी आपका 'मैं' ज्ञान स्वरूप है, उसके बाद विज्ञान स्वरूप 'मैं' प्रकट होगा।'''
25-''जब तुम अट्टालिका के छत पर चढ़ते हो, तब पहले प्रथम तल्ले को पार करते हो, फिर दूसरे तल्ले को पार करने के बाद जब छत पर चढ़ते हो, तो देखते हो कि ईंट -बालू-सीमेंट-छर्री से छत बना हुआ है, उसीसे सीढियाँ और सम्पूर्ण अट्टालिका भी बनी हुई हैं। नेति नेति करते हुए जब 'तुम' (अहं नहीं आत्मा) नाम-रूप से परे 'transcendent' शब्दातीत ब्रह्म या परमसत्य की अनुभूति करते हो, तब 'यह है!' ['इति' 'इति' ~ नेति से इति ] कह उठते हो। और वहीं तुम्हारी खोज समाप्त हो जाती है''।
26-''श्री रामकृष्णदेव की समस्त शिक्षाओं में जो एक ही सूत्र 'गोल्डन थ्रेड' के रूप में प्रविष्ट दिखाई देती है, वह है -" नित्य और लीला" दोनों सत्य हैं, दोनों को स्वीकार करो ! मानो आज उन्हें समझ में आया कि- ठाकुर ने क्यों उन्हें केवल 'निर्विकल्प समाधि ' के आनन्द में ही डूबे रहने से मना किया था ! किसी समय रामकृष्ण ने भिखारियों को नारायण मानकर उनकी जूठन को ग्रहण कर लिया था। इसपर 'हलधारी' ने रामकृष्ण से कहा था -'मैं देखूंगा कि तेरी सन्तानो का विवाह कैसे होगा?' "क्या मैं भी तेरी तरह जगत को मिथ्या कहूँ , और मेरे बालबच्चे भी होते रहें ?" कोठी के अंदर बैठकर जब श्री रामकृष्ण रो रहे थे तब उन्हें माँ जगदम्बा की अशरीरी वाणी ने तीन बार 'भावमुख अवस्था' में रहने का निर्देश दिया था। किसी शिक्षक/ नेता को अपने शेष उम्र तक किस अवस्था में अवस्थित रहते हुए लोकशिक्षण का कार्य करना पड़ता है, उस भाव को समझने के लिए, इस ' भावमुख अवस्था' में रहना ही एकमात्र उपाय है। उन्हें रूप-अरूप के संधिस्थल (चौखट) पर खड़े होकर एक ओर तो 'शब्दातीत' ब्रह्म 'transcended' को ही अरूपा माँ जगतजननी के रूप में देखना पड़ता है, दूसरी ओर इस 'शब्दमय' जगत को उससे ही निर्गत या उत्पन्न सन्तान के रूप में भी समझना पड़ता है।''
27-जगतगुरु श्रीरामकृष्णदेव सभी शिक्षकों को ' ज्ञान के बाद विज्ञान' में जाने की शिक्षा देते थे, यहाँ तक कि एक अद्भुत घटना-गंगानदी के इस पार से उस पार तक निकल जाने पर भी डूबने लायक पानी नहीं मिलने की घटना~ के माध्यम से अपने शिक्षक/गुरु तोतापुरीजी को भी उन्होंने यही शिक्षा दी थी, कि केवल निर्गुण निराकार ब्रह्म ही सत्य नहीं हैं, यह जगत जिस माया का खेल है, वह माँ काली भी सत्य है। " Don't take one and dismiss the other" इसमें से किसी एक ग्रहण करके दूसरे को अस्वीकार मत करो!अतः प्रत्येक भावी नेता को फिर वहाँ लौट आना पड़ता है; किन्तु 'तोतापुरी जी' उसी अवस्था में रुक गए थे। वहाँ पहुँचने के बाद भी हमलोग (भावी शिक्षक) जब इस जगत को पुनः देखेंगे, तो पाएंगे कि वही एक अनेक बनकर लीला कर रहा है। यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड उसी ब्रह्म -की अभिव्यक्ति या प्रकट रूप है''।
28-" यद्यपि अद्वैतज्ञान ही सर्वोच्च ज्ञान है, तथापि साधक को शुरू में उपास्य-उपासक भाव से साधना करनी चाहिये। श्री रामकृष्ण मेरे उपास्य हैं, और मैं उनका उपासक हूँ ' यह भाव लेकर ही साधना करनी चाहिये। इससे सरलता से ज्ञान लाभ हो जाता है। 'पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म को भी रोना पड़ता है।' ....तुम मन को कितना भी क्यों न समझाओ कि तुम्हारे जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, पाप नहीं, पुण्य नहीं , शोक नहीं,दुःख नहीं ; तुम जन्मजरारहित , निर्विकार , सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा हो, परन्तु ज्यों ही रोग होकर देह अस्वस्थ हो जाती है, या मन संसार में कामनी -कांचन के आपात सुख के भुलावे में पड़कर कोई कुकर्म कर बैठता है, त्योंही , मोह, यातना , दुःख आ खड़े होते हैं, और वे तुम्हारे सारे 'विवेक-प्रयोग शक्ति' को भुलाकर तुम्हें बेचैन कर देते हैं। इसलिए, यह जान लो कि ईश्वर की कृपा हुए बिना, माया के द्वार छोड़े बिना (अहंबोध लुप्त हुए बिना) किसीको आत्मज्ञान नहीं होता, दुःख -कष्टों का अन्त नहीं होता''।
29- उपनिषद् का आदेश है कि ’ शिव बनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न है-हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? प्रारंभिक अवस्था में मूर्ति पूजा क्यों आवश्यक है ?~वास्तव में,"मकान बाँधते समय चारों ओर मचान बनाना अनिवार्य होता है, परन्तु ढलाई होते ही मचान की जरूरत नहीं रह जाती। इस तरह साधक के लिये प्रथम अवस्था में मूर्तिपूजा की आवश्यकता होती है, बाद में नहीं रह जाती। "
30-" जीव के मरे बिना शिव नहीं आता। अर्थात जीवत्व के नष्ट हुए बिना शिवत्व प्राप्त नहीं होता। फिर, शिव के शव बने बिना माँ आनन्दमयी उसके वक्षस्थल पर नृत्य नहीं करती। अर्थात इस शिवत्व-अभिमान का भी अतिक्रमण करने के बाद ही सर्वोच्च आनन्द की अवस्था प्राप्त होती है। अहंकार के दूर हो जाने पर (विराट अहं में रूपांतरित हो जाने पर ) जीवत्व का नाश हो जाता है। इस अवस्था में समाधि में ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। जीव (अहं) नहीं ब्रह्म (आत्मा) ही ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। "
31-''हमारे मन और इन्द्रियों को स्वाभाविक रूप से बहिर्मुखी ही बनाया गया है, अतः मन का स्वभाव ही चंचल है। इसलिए वह बाह्य जगत की विषयों की ओर दौड़ता रहता है। और जन्मजन्मांतर के विषय-भोग के अभ्यास से अभी किसी मदिरोन्नमत्त बन्दर के सामान अतिरिक्त चंचल हो गया है। इसीलिए निराकार की उपासना के लिए बैठने पर भी चंचल मन वह और अधिक चंचल होकर भटकता रहता है। उसे बाँधने के लिए गुरुमुख से प्राप्त ('ॐ कार' संयुक्त इष्टदेव के 'नाम' के) वशीकरण-मंत्र द्वारा मन को वश में करने की जरूरत होती है। अतः भगवान की मूर्ति या छवि वशीकरण-मंत्र का स्थान लेकर मन की गति को अंतर्मुखी रखने का सुलभ साधन ही तो है! जीवन का मूल उद्देश्य है-शिवत्व (ब्रह्मत्व) की प्राप्ति। मनःसंयोग (प्रत्याहार और धारणा) का अभ्यास करने के लिये अपने ईष्टदेव की एक छवि या साकार मूर्ति को हृदय में स्थापित करके मन की आँखों से उनका दर्शन करने की सुविधा अपने भक्तों को प्रदान करने के लिए भगवान बार बार अवतरित होते हैं।''
32-”जिस तरह गाय के सारे शरीर में उत्पन्न होने वाला दुग्ध केवल उसके स्तनों के द्वारा ही बाहर निकलता है! इसी तरह परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति का अधिष्ठान मूर्ति/छवि में होता है इस तरह से साधक यह विचार करता है कि वह उस पत्थर निर्मित मूर्ति की उपासना नहीं कर रहा है वरन् वह उस अनन्त शक्ति की पूजा कर रहा है जो उस मूर्ति में विद्यमान है! बाह्य दृष्टि से दिखाई देता है कि वह प्रतिमा की पूजा कर रहा है परन्तु वास्तव में तो वह उस सर्वव्यापी शक्ति की उपासना कर रहा होता है! क्योंकि गुरु से प्राप्त कोई भी 'मंत्र' शब्दात्मक ही होता है। किन्तु उसमें अचिन्त्य शक्ति होती है। अपने इष्टदेव की अर्चना करने के लिए पहले अपने आपको उनके अनुरूप बनाओ, फिर दूसरों को उनके अनुरूप बनने में सहायता करो''।
33-स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है, " मनुष्य की महानता (ब्रह्मत्व या दिव्यता) उसकी उन सत्प्रवत्तियों को चरितार्थ करने में है, जिनसे दूसरों को प्रकाश मिले। आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु पर होने से भौतिक उन्नति होती है, विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है, और अपने ही पर होने से मनुष्य ईश्वर बन जाता है। पहले हमें ईश्वर बन लेने दो, तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहायता देंगे। 'Be and Make ' -बनो और बनाओ , यही हमारा मूल-मंत्र रहे। स्वयं 'मनुष्य' बनो और दूसरों को मनुष्य (ब्रह्मविद महापुरुष) बनने में सहायता करो !'
34- 5-" जब भूमि जल से आप्लावित होती है, तब भी लोग हितकर और पीने योग्य जल की ही खोज करते हैं, दूसरे प्रकार के जल की नहीं। उसी प्रकार ब्रह्मविद मनुष्य भी अपनी संसार-तृष्णा को शान्त करने के लिए, उस वेद रूप शब्द-समुद्र में से - अपने लिए उसी शब्द-प्रवाह (महावाक्यों को ) को खोजेगा जो उसे मुक्ति के पथ में ले जाने के लिए समर्थ हो।"
35--''हिमालय भारत की जननी श्री पार्वती की जन्म भूमि है। यह हमारे पूर्वजों के स्वप्न का प्रदेश है। यह वही पवित्र स्थान है, जहां भारतवर्ष का प्रत्येक सच्चा धर्मपिपासु व्यक्ति अपने जीवन-काल के अन्तिम दिन व्यतीत करने की इच्छा करता है।
गिरिराज हिमालय वैराग्य और त्याग के सूचक हैं, तथा वह सर्वोच्च शिक्षा , जो हम मानवता को सदैव देते रहेंगे --'त्याग ही है।' जिस प्रकार हमारे पूर्वज अपने जीवन के अन्तकाल में इस हिमालय पर खिंचे हुए चले आते थे, उसी प्रकार भविष्य में पृथ्वी भर की शक्तिशाली आत्मायें इस गिरिराज की ओर आकर्षित होकर चली आयेंगी। यह उस समय होगा जब भिन्न -भिन्न सम्प्रदायों के आपस के झगड़े आगे याद भी नहीं किये जायेंगे, जब धार्मिक रूढ़ियों सम्बंधित वैमनस्य नष्ट हो जायेगा, जब हमारे और तुम्हारे धर्म सम्बन्धी झगड़े बिल्कुल दूर हो जायेंगे तथा जब मनुष्य मात्र यह समझ लेगा कि 'कि केवल एक ही चिरन्तन धर्म है, और वह है - " स्वयं में परमेश्वर की अनुभूति"! और शेष जो कुछ है वह सब व्यर्थ है। यह जानकर अनेक व्यग्र आत्मायें यहाँ आयेंगी कि ' यह संसार धोखे की टट्टी है' यहाँ सब कुछ मिथ्या है, और यदि कुछ सत्य है, तो वह है 'ईश्वर की भक्ति', केवल ईश्वर की उपासनायें''।
36--"चैतन्य महाप्रभु द्वैतवादी थे, इसलिये 'जीव और ईश्वर में भेद' करने का उनका निर्णय उनकी मान्यताओं के अनुरूप ही था; इसलिए उन्होंने ठीक ही कहा कि ' ईश्वर से प्रेम और जीवों पर दया। ' परन्तु हम अद्वैतवादी हैं। हमारे लिये जीव (व्यष्टि अहं) को ईश्वर (सर्वव्यापी विराट अहं) से पृथक समझना ही हमारे बन्धन का (hypnotized -भेंड़त्व) कारण है। वैराग्यवान मनुष्य आत्मा शब्द का अर्थ व्यक्तिगत 'मैं' (व्यष्टि अहं) न समझकर , उसे माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध या सर्वव्यापी ईश्वर समझता है; जो अन्तःकरण में अंतर्नियामक होकर सब में वास कर रहा है। ... जब जीव को जीव समझकर सेवा की जाती है, तब वह दया है, प्रेम नहीं। परन्तु जब प्रत्येक जीव को अपनी ही 'आत्मा' समझकर सेवा की जाती है , तब वह प्रेम कहलाता है। आत्मा ही एकमात्र प्रेम का पात्र है; इस तथ्य को श्रुति, स्मृति और अपरोक्षानुभूति से जाना जा सकता है। इसलिये ' हमारा मूल सिद्धान्त 'प्रेम' होना चाहिये, न कि 'दया' । सबों के भीतर आत्मदर्शन। ' अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'अहं- बोध' में रूपांतरित कर लेना चहिये। हमारे लिए (मातृहृदय पुरुष के लिए) 'दयामिश्रित उपेक्षा' शब्द का प्रयोग भी ठीक नहीं, माँ के अनुसार सबको अपना मानकर उनके मंगल की प्रार्थना करते रहना ही उचित है। क्योंकि, किसको पत्थर मारे कौन पराया है,शीश महल में हर एक चेहरा अपना लगता है!"
37-" अमेरिका वाले नये मद से मतवाले हैं। हमारे देश पर समृद्धि की सैकड़ों लहरें आयीं और गुजर गुजर गयीं। हमने वह सबक सीखा है, जिसे बच्चे अभी नहीं समझ सकते। ... काम-कांचन में आसक्ति का त्याग कर दो , ये एकमात्र बंधन हैं। विवाह, और स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध और धन --ये ही एकमात्र वास्तविक शैतान हैं। समस्त सांसारिक प्रेम देह से ही उपजते हैं। काम -कांचन को त्याग दो। इसके जाते ही ऑंखें खुल जाएँगी और आध्यात्मिक सत्य का साक्षात्कार हो जायेगा ; तभी आत्मा अपनी अनंत शक्ति पुनः प्राप्त कर लेगी। "
38-" संसार में कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनके जीवन में किसी प्रकार का बंधन नहीं होता। किन्तु ऐसा होते हुए भी वे स्वयं ही किसी न किसी वस्तु (तोता, बिल्ली , कुत्ता आदि) से नाता जोड़कर स्वयं को आसक्ति के बन्धन से बाँध लेते हैं, और किसी भी तरह अपनी संसार-तृष्णा को तृप्त करना चाहते हैं । वे मुक्त होना नहीं चाहते। मनुष्य पर माया का ऐसा ही जबरदस्त प्रभाव है।" " जो लोग सन्तान न होने पर अपना पूरा लाड़-प्यार उड़ेल देने के लिए एक बिल्ली पाल लेते हैं, मेरी अवस्था ठीक वैसी हो गयी है। मेरे भीतर मानो पुरुष की अपेक्षा नारी भाव अधिक है। मैं सदा दूसरे के दुःख को अपने ऊपर ओढ़ता रहता हूँ, .. क्या तुम समझती कि इसमें कोई आध्यात्मिकता है ? 'देख-भाल करने के लिये किसी व्यक्ति का न होना और इस बात की चिन्ता न करना कि मेरी देखभाल कौन करेगा - मुक्त होने का यही मार्ग है। जो एकाकी है, वह सुखी है। सबका समान मंगल करो, लेकिन किसी से 'प्यार मत करो। ' यह एक बंधन है, और बंधन सदा दुःख की ही सृष्टि करता है। अपने मानस में एकाकी जीवन बिताओ -यही सुख है।" 39-''भागवत, में भी कहा गया हे, " उद्धव ! सब में मुझको ही देखने से बढ़ कर और कोई साधन नहीं है‒यह मैं महादेव की सौगन्ध खाकर कहता हूँ । .... इस रहस्य को समझने के बाद... सभी प्राणियों का कल्याण (welfare of all being) ही मेरे जीवन का अन्तिम लक्ष्य है ''।
...SHIVOHAM...
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