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क्या रहस्य है सहस्रार-चक्र का? दशम द्वार /ब्रह्मरंध्र क्या है?

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • May 12, 2018
  • 31 min read

सहस्रार-चक्र क्या है :- 19 FACTS;- 1-मानवी सत्ता का मौलिक केन्द्र-स्रोत ब्राह्मी चेतना है। पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिण ध्रुव के समान ही मानवी सत्ता के भी दो ध्रुव है-सहस्रार और मूलाधार। सहस्रार को उत्तरी ध्रुव के समतुल्य समझा जा सकता है।जिस प्रकार सूर्य के अनुदान उत्तरी ध्रुव पर बरसते है और सम्पूर्ण पृथ्वी इस केन्द्र से आवश्यकता के अनुरूप शक्ति प्राप्त करती है। उसी प्रकार ब्राह्मी चेतना का चैतन्य प्रवाह अन्तरिक्ष में सतत् प्रवाहित होता रहता है। मनुष्य के शरीर में वह सहस्रार के माध्यम से अवतरित होता है तथा दक्षिणी ध्रुव मूलाधार तक पहुँचता है। 2-सहस्रार चक्र मस्तिष्क मध्य में अवस्थित बताया गया है। सिर के मध्य में एक हजार पंखुड़ियों वाला कमल हैं उसे ही ‘सहस्रार चक्र’ कहते है। उसी में ब्राह्मी शक्ति या शिव का वास बताया गया है। यहीं आकार कुण्डलिनी महाशक्ति शिव से मिलती है। यही से सारे शरीर की गतिविधियों का उसी प्रकार संचालन होता है जिस प्रकार पर्दे के पीछे बैठा हुआ कलाकार उँगलियों को गति देकर कठपुतलियों को नचाता है। इसे आत्मा की अधिष्ठात्री स्थली भी कहते है। विराट् ब्रह्म में हलचल पैदा करने वाली सारी सूत्र शक्ति और विभाग इसी सहस्रार के आस पास फैले पड़े है। 3-सहस्रार का शाब्दिक अर्थ है-हजार पंखुड़ियों वाला। शास्त्रों में इसी का अलंकारिक वर्णन रूपों में किया गया है। सहस्र दल कमल, कैलाश पर्वत, शेषनाग, क्षीरसागर जैसे दिव्य सम्बोधन इसी के लिए प्रयोग किये गये है। उपाख्यान आता है कि क्षीर सागर में शेष नाग पर भगवान विष्णु शयन करते है। इस अलंकारिक वर्णन में इस तथ्य का उद्घाटन किया गया है कि जीव सत्ता के ऊर्ध्व स्थल अर्थात् देवीय गुणों सम्पन्न चेतना में ही परमात्मा अवतरित होते है और निवास करते है। 4- सहस्रार को कैलाश पर्वत के रूप में इंगित करने तथा भगवान शंकर के तप रत होने में भी उसी तथ्य का वर्णन हुआ है। यही वह केन्द्र है जहाँ जागृत होने पर कुण्डलिनी सन्मार्ग का भेदन करती हुई ब्रह्मलोक में पहुँचकर मोक्ष प्रदान करती है। इस सहस्रार चक्र तक पहुँचने पर ही साधक को अमृतपान का सुख, दिव्यदर्शन, संचालन की शक्ति ओर समाधि का आनन्द मिलता है और वह पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त कर अनन्तकाल तक ऐश्वर्य और सुखोपभोग करता है। 5-योग शास्त्रों के अनुसार सहस्रबाहो दोनों कनपटियों से दो-दो इंच अन्दर और भौंहों से भी लगभग तीन-तीन इंच अन्दर मस्तिष्क मध्य में महावीर नामक महारुद्र के ऊपर छोटे से पोले भाग में ज्योति पुँज के रूप में अवस्थित है। तत्त्वदर्शियों के अनुसार यह उलटे छोटे या कटोरे के समान दिखाई देता है। 6-छान्दोग्य-उपनिषद् में सहस्रार दर्शन की सिद्धि का वर्णन करते हुए कहा गया है ''सहस्रार को जागृत कर लेने वाला व्यक्ति सम्पूर्ण भौतिक विज्ञान की सिद्धियाँ हस्तगत कर लेता है।'' यही वह शक्ति केन्द्र है जहाँ से मस्तिष्क शरीर का नियंत्रण करता है ओर विश्व में जो कुछ भी मानवहित विलक्षण विज्ञान दिखाई देता है, उसका सम्पादन करता है। 7-मस्तिष्क मध्य स्थित इसी केन्द्र से एक विद्युत उन्मेष रह-रह कर सतत् प्रस्फुटित होता रहता है जिसे एक विलक्षण विद्युतीय फव्वारा कहा जा सकता है। वहाँ से तनिक रुक-रुक कर एक फुलझड़ी सी जली रहती है हृदय की धड़कन में भी ऐसे ही मध्यवर्ती विराम- सिस्टम और 'डायनेमो' (ऊर्जा को विद्युत धारा में बदलने वाला उपकरण‘ ) के मध्य रहते है। 8-मस्तिष्कीय मध्य में स्थित इस बिन्दु से भी तरह की गतिविधियाँ संचालित होती रहती है। वैज्ञानिक इन उन्मेषों को मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों की सक्रियता-स्फुरणा का मुख्य आधार मानते है। संत कबीर ने इसी के बारे में कहा है-

"हृदय बीच अनहत बाजे, मस्तक बीच फव्वारा"

यह फव्वारा ही रेटीकूलर ऐक्टिवेटिंग सिस्टम ‘ है। 9-मस्तिष्क में विलक्षण शक्ति केन्द्रों की बात अब वैज्ञानिक भी मानते है। इन्टेलिजेन्स/ सद्बुद्धि मानवी मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों से नियंत्रित होती है यह सबकी साझेदारी का उत्पादन है। यही वह सार भाग है जिससे व्यक्तित्व का स्वरूप बनता और निखरता है। स्मृति, विश्लेषण, संश्लेषण, चयन, निर्धारण, आदि की क्षमताएँ मिलकर ही मानसिक स्तर की बनाती है। 10-इनका सम्मिश्रण, उत्पादन कहाँ होता है? वे परस्पर कहाँ गुँथती हैं? इसका ठीक से निर्धारण तो नहीं हो सका, पर समझा गया है कि वह स्थान लघु मस्तिष्क-सेरिवेलम में होना चाहिये। यही वह मर्मस्थल है, जिसका थोड़ा सा विकास-परिष्कार संभव हो सके तो व्यक्तित्व का ढाँचा समुन्नत हो सकता है। इसी केन्द्र स्थान को अध्यात्म शास्त्रियों ने बहुत समय पूर्व जाना और उसका नामकरण ‘सहस्रार चक्र’ किया है। 11-शरीर शास्त्र के अनुसार मोटे विभाजन की दृष्टि से मस्तिष्क को पाँच भागों में विभक्त किया गया है- (1) बृहद् मस्तिष्क-सेरिव्रम (2) लघु मस्तिष्क- सेरिवेलम (3) मध्य मस्तिष्क-मिड ब्रेन (4) मस्तिष्क सेतु-पाँन्स (5) सुषुम्ना शीर्य -मेडुला आँवलाँगेटा 12-इनमें से अन्तिम तीन को संयुक्त रूप से मस्तिष्क स्तम्भ ब्रेन स्टीम भी कहते है। इस तरह मस्तिष्क के गहन अनुसंधान में ऐसी कितनी ही सूक्ष्म परतें आती है जो सोचने-विचारने सहायता देने भर का नहीं, वरन् समूचे व्यक्तित्व के निर्माण में भारी योगदान करती है। 13-वैज्ञानिक इस तरह की विशिष्ट क्षमताओं का केन्द्र ‘फ्रन्टललोब ‘ को मानते है जिसके द्वारा मनुष्य के व्यक्तित्व, आकांक्षायें, व्यवहार प्रक्रिया, अनुभूतियाँ संवेदनाएँ आदि अनेक महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों का निर्माण और निर्धारण होता हैं इस केन्द्र को प्रभावित कर सकना किसी औषधि उपचार या शल्य क्रिया से सम्भव नहीं हो सकता। इसके लिए योग साधना की ध्यान धारण जैसी उच्चस्तरीय प्रक्रियायें ही उपयुक्त हो सकती है, जिन्हें कुण्डलिनी जागरण के नाम से जाना जाता है। 14-अध्यात्म शास्त्र के अनुसार मस्तिष्क रूपी स्वर्ग लोक में यों तो तैंतीस कोटि देवता रहते, पर उनमें से पाँच मुख्य हैं। इन्हीं का समस्त देव स्थान पर नियंत्रण है। उक्त मस्तिष्कीय पाँच क्षेत्रों को पाँच देव परिधि कह सकते है। इन्हीं के द्वारा पाँच कोशों की पाँच शक्तियों का संचार-संचालन होता है। पंचकोशी साधना में इन पाँचों को समान रूप से विकसित होने का अवसर मिलता है तदनुसार इस ब्रह्मलोक में, देवलोक में निवास करने वाला जीवात्मा स्वर्गीय परिस्थितियों के बीच रहता हुआ अनुभव करता है। 15-मस्तिष्क के विभाजन तथा सहस्रार चक्र के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार एक ही तथ्य के भिन्न-भिन्न विवेचन मिलते है। शास्त्रों में इसी को अमृत कलश ‘ कहा गया है। उसमें से सोमरस स्रवित होने की चर्चा है। देवता इसी अमृत कलश से सुधा पान करते अजर अमर बनते है। 16-वर्तमान वैज्ञानिक की मान्यतानुसार मस्तिष्क में एक विशेष द्रव भरा रहता है जिसे ‘सेरिब्रोस्पाइनल फ्ल्यूड’ कहते है यही मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों को पोषण और संरक्षण देता रहता है। मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों को पोषण और संरक्षण देता रहता है। मस्तिष्कीय झिल्लियों से यह झरता रहता है और विभिन्न केन्द्रों तथा सुषुम्ना में सोखा जाता हैं। 17-अमृत कलश में सोलह पटल गिनाये गये हैं। इसी प्रकार कहीं-कहीं सहस्रार की सोलह पंखुड़ियों का वर्णन है। यह मस्तिष्क के ही सोलह महत्वपूर्ण विभाग-विभाजन है। शिव संहिता में भी सहस्रार की सोलह कलाओं का वर्णन करते हुए कहा गया है- ‘कपाल के मध्य चन्द्रमा के समान प्रकाशमान सोलह कलायुक्त सहस्रार की यह सोलह कलायें मस्तिष्क के सेरिब्रोस्पाइनल फ्ल्यूड से सम्बन्धित मस्तिष्क के सोलह भाग है। 18-इन सभी विभागों में शरीर को संचालित करने वाले एवं अतीन्द्रिय क्षमताओं से युक्त अनेक केन्द्र है। सहस्रार अमृत कलश को जागृत कर योगीजन उन्हें अधिक सक्रिय बनाकर असाधारण लाभ प्राप्त करते है। योग शास्त्रों में इन्हीं ही ऋद्धि-सिद्धियाँ कहते है षट्चक्रों निरूपण नामक योग ग्रंथि के अनुसार इस सहस्रार कमल की साधना से योगी का चित्त स्थिर होकर आत्म-भाव में लीन हो जाता है। तब वह समग्र शक्तियों से सम्पन्न हो जाता हैं। और भव-बंधन से छूट जाता है। सहस्रार से निस्सृत हो रहे अमृत पर भी विजय प्राप्त कर लेता है। शरीर के 112 चक्रों को 7 चक्रों के रूप में क्यों जाना जाता है?- 10 FACTS;- 1-मानव शरीर में 112 चक्र होते हैं, लेकिन योगी शिव ने इन्हें सात वर्गों में बांटा था और सप्त ऋषियों को दीक्षित किया था। इसी वजह से ये आम तौर पर सात चक्रों के रूप में जानें जाते हैं। 2-धरती की हर चीज़ इंसानी सिस्टम के विकास में शामिल रही है अगर हम इस धरती पर मौजूद जीवन की प्रकृति, या धरती पर मौजूद किसी भी भौतिक वस्तु की प्रकृति को जानना चाहते हैं, चाहे वह सजीव हो या निर्जीव तो इसके लिए सबसे बेहतर तरीका है अपने खुद के सिस्टम पर गौर करना। 3-ये एक सौ बारह अपने इन सात आयामों में, आमतौर पर सात चक्रों या योग के सात स्कूल के तौर पर जाने जाते हैं। क्योंकि इस शरीर के निर्माण में इन सभी चीजों को शामिल किया गया है। इंसानी सिस्टम में एक सौ चौदह ऊर्जा-केंद्र होते हैं, जिन्हें हम ‘चक्र’ कहते हैं। अगर ये चक्र अपनी पूर्णता पर पहुंच जाएं तो इंसान शरीर-हीनता की स्थिति का अनुभव करने लगेगा। यह भी अपने आप में मानव के विकास की पूर्णता का एक प्रमाण है। वर्ना जो प्राणी अभी भी क्रमिक विकास के दौर में हैं, उनमें यह संभव नहीं हो पाएगा। 4-अगर आप शरीर के बोध के बिना सिर्फ एक पल के लिए ही सही, बैठ पाएं, तो इसका मतलब है कि यह शरीर, यह इंसान अपने चरम पर पहुंच चुका है। अब सवाल सिर्फ इतना है कि क्या कोई व्यक्ति इतना फोकस्ड है कि वहां पर टिक पाए? 5-मूलाधार शरीर का सबसे बुनियादी चक्र है। मूलाधार साधना पीनियल ग्लैंड से जुड़ी है, और इस साधना से तीन बुनियादी गुण सामने आ सकते हैं।इन एक सौ चौदह चक्रों में से दो चक्र शरीर के बाहर होते हैं, जिन्हें एक अलग आयाम के रूप में देखा जाता है। कुछ पद्धतियों में शरीर को नौ आयामों में देखते हैं, जिसमें सात हमारे सिस्टम में और दो बाहरी आयाम होते हैं। 6-जिस आयाम को किसी प्रक्रिया में बांधा नहीं जा सकता, फिर भी उस आयाम तक पहुंचा जा सकता है, वह आयाम सहस्रार है। सामान्य योगिक पद्धति इसे एक सौ चौदह में से दो कम करके देखती है। दरअसल, ये दो चक्र भौतिक ढांचे के बाहर होते हैं। 7-असल में, हम इन्हें ऐसे देखते हैं कि हम किसके साथ काम कर सकते हैं और किसके साथ नहीं। इन एक सौ बारह चक्रों के साथ हम काम कर सकते हैं, इनमें से अगर एक सौ आठ चक्रों पर काम करके उन्हें तैयार व सक्रिय किया जाए तो अंतिम चार स्वाभाविक तौर पर सक्रिय हो जाते हैं। 8-इसके आधार पर इनमें से हरेक के सात आयाम व सोलह पहलू होते हैं, इस तरह से यह एक सौ बारह होते हैं। और ये एक सौ बारह अपने इन सात आयामों में, आमतौर पर सात चक्रों या योग के सात स्कूल के तौर पर जाने जाते हैं। 9-योग के इन सात स्कूलों का श्रेय सप्तऋषियों को जाता है, क्योंकि इन्हीं लोगों ने ये सात स्कूल तैयार किए। चूंकि योगी शिव को पता था कि सप्त ऋषियों में से कोई भी अकेला इन सारी प्रक्रियाओं को ग्रहण कर पाने में सक्षम नहीं होगा, इसलिए उन्होंने इसके सोलह पहलुओं को हरेक ऋषि को दिया। इस तरह से मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा से जुड़ी अलग-अलग विधाएं सामने आईं। 10-हालांकि सातवें चक्र को आप वास्तव में विधा नहीं कह सकते, इस पर चलने वाले लोग विधाहीन हैं। इसलिए उनका कोई सिस्टम नहीं है। अगर आप किसी चीज को विधा कहना चाहते हैं, तो उसके लिए एक सिस्टम का होना जरूरी है। तो जिस आयाम को किसी प्रक्रिया में बांधा नहीं जा सकता, फिर भी उस आयाम तक पहुंचा जा सकता है, वह आयाम सहस्रार है।

योग के सात स्कूलों तथा सप्तऋषि क्या है?-

14 FACTS;- 1-आदि’ का अर्थ प्रारंभ होता है। भगवान शिव को ‘आदिनाथ’ भी कहा जाता है। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम आदिश भी है। इस ‘आदिश’ शब्द से ही ‘आदेश’ शब्द बना है। नाथ साधु जब एक-दूसरे से मिलते हैं तो कहते हैं- आसमाधि। 2-भगवान शिव ने सबसे पहले अपना ज्ञान 7 लोगों को दिया था। ये ही आगे चलकर ब्रह्मर्षि कहलाए। इन 7 ऋषियों ने शिव से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और दुनिया के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। 3-इन सातों ऋषियों ने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं छोड़ा जिसको शिव कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान नहीं सिखाया गया हो। आज सभी धर्मों में इसकी झलक देखने को मिल जाएगी। परशुराम और रावण भी भगवान शिव के ही शिष्य थे। 4-जिन 7 महामानवों को भगवान शिव ने ज्ञान दिया था उन सप्त ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं : बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।भगवान शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत ‍की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है। आदिगुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया था। 5-उल्लेखनीय है कि हर काल में अलग-अलग सप्त ऋषि हुए हैं। उनमें भी जो ब्रह्मर्षि होते हैं उनको ही सप्तर्षियों में गिना जाता है। 7 ऋषि योग के 7 अंगों का प्रतीक हैं 8वां अंग मोक्ष है। मोक्ष के लिए ही 7 प्रकार के योग किए जाते हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। अर्थात : 1. ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5. काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि 6-भगवान शिव ही पहले योगी हैं और मानव स्वभाव की सबसे गहरी समझ उन्हीं को है। उन्होंने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए 7 ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के 7 बुनियादी पहलू बन गए। वक्त के साथ इन 7 रूपों से सैकड़ों शाखाएं निकल आईं। बाद में योग में आई जटिलता को देखकर पतंजलि ने 300 ईसा पूर्व मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। योग का 8वां अंग मोक्ष है। 7 अंग तो उस मोक्ष तक पहुंचने के लिए हैं। 7-सबसे पहले मोक्ष या निर्वाण का स्वाद भगवान शिव ने ही चखा। आदि योगी शिव ने ही इस संभावना को जन्म दिया कि मानव जाति अपने मौजूदा अस्तित्व की सीमाओं से भी आगे जा सकती है।सांसारिकता में रहना है, लेकिन इसी का होकर नहीं रह जाना है। अपने शरीर और दिमाग का हरसंभव इस्तेमाल करना है, लेकिन उसके कष्टों को भोगने की जरूरत नहीं है। ये शिव ही थे जिन्होंने मानव मन में योग का बीज बोया। 8-योग विद्या के मुताबिक 15 हजार साल से भी पहले शिव ने सिद्धि प्राप्त की थी। इस अद्भुत निर्वाण या कहें कि परमानंद की स्थिति में पागलों की तरह हिमालय पर नृत्य किया था। फिर वे पूरी तरह से शांत होकर बैठ गए। 9-उनके इस अद्भुत नृत्य को उस दौर और स्थान के कई लोगों ने देखा। देखकर सभी के मन में जिज्ञासा जाग उठी कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि वे पागलों की तरह अद्भुत नृत्य करने लगे।आखिरकार लोगों की दिलचस्पी बढ़ी और इसे जानने को उत्सुक होकर धीरे-धीरे लोग उनके पास पहुंचे लेकिन शिवजी ने उन पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि आदि योगी तो इन लोगों की मौजूदगी से पूरी तरह बेखबर परमानंद में लीन थे। 10-उन्हें यह पता ही नहीं चला कि उनके इर्द-गिर्द क्या हो रहा है। लोग प्रतीक्षा करते रहे और फिर लौट गए। लेकिन उन लोगों में से 7 लोग ऐसे भी थे, जो उनके इस नृत्य का रहस्य जानना ही चाहते थे। लेकिन शिव ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया, क्योंकि वे अपनी समाधि में लीन थे। 11-कठिन प्रतीक्षा के पश्चात् जब भगवान शिव ने आंखें खोलीं तो उन सभी ने शिव जी से उनके इस नृत्य और आनंद का रहस्य पूछा।भगवान शिव ने उनकी ओर देखा और फिर कहा, ‘यदि तुम इसी प्रतीक्षा की स्थिति में लाखों वर्ष भी गुजार दोगे तो भी इस रहस्य को नहीं जान पाआगे, क्योंकि जो मैंने जाना है वह क्षणभर में बताया नहीं जा सकता और न ही उसे क्षणभर में पाया जा सकता है। वह कोई जिज्ञासा या कौतूहल का विषय नहीं है।’ 12-ये 7 लोग भी हठी और पक्के थे। भगवान शिव की बात को उन्होंने चुनौती की तरह लिया और वे भी शिव के पास ही आंखें बंद करके रहते। दिन, सप्ताह, महीने, साल गुजरते गए, लेकिन भगवान शिव थे कि उन्हें नजरअंदाज ही करते जा रहे थे। 13-84 वर्ष की लंबी साधना के पश्चात् ग्रीष्म संक्रांति के शरद संक्रांति में बदलने पर पहली पूर्णिमा का दिन आया, जब सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायण में चले गए।पूर्णिमा के इस दिन आदि योगी शिव ने इन 7 तपस्वियों को देखा तो पाया कि साधना करते-करते वे इतने पक चुके हैं कि ज्ञान हासिल करने के लिए तैयार हैं। अब उन्हें और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।

14-भगवान शिव ने उन सातों को अगले 28 दिनों तक बेहद नजदीक से देखा और अगली पूर्णिमा पर उनका गुरु बनने का निर्णय लिया। इस तरह शिव ने स्वयं को आदिगुरु में रूपांतरित कर लिया, तभी से इस दिन को ‘गुरु पूर्णिमा’ कहा जाने लगा। ब्रह्मरंध्र / दशम द्वार क्या है? ;- 09 FACTS;- 1-मस्तिष्क के माध्यम से समस्त शरीर के संचालन के लिए जो विद्युत उन्मेष पैदा होते है, वे आहार से नहीं, वरन् मस्तिष्क के एक विशेष संस्थान से उद्भूत होते है। वह मनुष्य का अपना उत्पादन नहीं, वरन् दैवी अनुदान हैं अध्यात्मवेत्ता इसे ही ‘सहस्रार चक्र’ कहते है जिसका सम्बन्ध ब्रह्मरंध्र से होता है। ब्रह्मरंध्र को दशम द्वार कहा गया है। 2-नौ द्वार है- दोनों नथुने, दो आँखें, दो कान, एक मुख, दो मल-मूत्र के छिद्र। दसवाँ ब्रह्मरंध्र है। योगी जन इसी से होकर प्राण त्यागते हैं मरणोपरान्त कपाल क्रिया करने का उद्देश्य यही है कि प्राण का कोई अंश शेष रह गया हो तो वह उसी में होकर निकले और ऊर्ध्वगामी प्राप्त करे। योगशास्त्रों के अनुसार ब्रह्मसत्ता का ब्रह्माण्डीय चेतना का मानव शरीर में प्रवेश सहस्रार स्थित इसी मार्ग से होता है। इसी के माध्यम से दिव्य शक्तियों तथा दिव्य अनुभूतियों का आदान-प्रदान होता है। सहस्रार और ब्रह्मरंध्र मिलकर एक संयुक्त इकाई यूनिट के रूप में काम करते है। अतः योग साधना में इन्हें संयुक्त रूप में प्रयुक्त प्रभावित करने का विधान है। 3-मानव काया की धुरी उत्तरी ध्रुव सहस्रार और ब्रह्मरंध्र ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क बनाकर आदान-प्रदान का पथ प्रशस्त करता है। भौतिक ऋद्धियाँ और आत्मिक सिद्धियाँ जागृत सहस्रार के सहारे निखिल ब्रह्माण्ड से आकर्षित की जा सकती है। सहस्रार में जैसा भी चुम्बकत्व होता है। उसी स्तर का अदृश्य उपार्जन उसके स्तर एवं व्यक्तित्व का सूक्ष्म निर्धारण करता है। 4- चेतन और अचेतन मस्तिष्कों द्वारा जो इन्द्रियगम्य और अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध होता है, उसका केन्द्र यही है। ध्यान से लेकर समाधि तक और आत्मिक चिन्तन से लेकर भक्ति योग तक की समस्त साधनायें यहीं से फलित होती और विकसित होती है। ओजस् तेजस और ब्रह्मवर्चस् के रूप में पराक्रम, विवेक एवं आत्मबल की उपलब्धियों का अभिवर्धन यहीं से उभरता है। ईश्वरीय अनुदान इसी पर अवतरित होता है। इस सहस्रार चक्र की साधना द्वारा वह क्षमता विकसित की जा सकती है जिसमें चैतन्य प्रवाहों को ग्रहण कर अपने को दैवीय गुणों से सुसम्पन्न बनाया जा सकें।

5-सहस्रार दोनों कनपटियों से 2-2 इंच अन्दर और भौहों से भी लगभग 3-3 इंच अन्दर मस्तिष्क के मध्य में “महाविवर” नामक महाछिद्र के ऊपर छोटे से पोले भाग में ज्योति-पुँज के रूप में अवस्थित है। कुण्डलिनी साधना द्वारा इसी छिद्र को तोड़ कर ब्राह्मी स्थिति में प्रवेश करना पड़ता है इसलिये इसे “दशम द्वार” या ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं।

6-ध्यान बिन्दु उपनिषद् में कहा है-''मस्तक में जो मणि के समान प्रकाश है जो उसे जानते हैं वहीं योगी है। तप्त स्वर्ण के समान विद्युत धारा-सी प्रकाशित वह मणि अग्नि स्थान से चार अंगुल ऊर्ध्व और मेढ़ स्थान के नीचे है |''इस स्थान पर पहुँचने की शक्यों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है- '' वह परम विज्ञानी, त्रिकालदर्शी और सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है वह चाहे जो कुछ करे उसे कोई पाप नहीं होता। उसे कोई जीत नहीं सकता''।7-ब्रह्मरंध्र एक प्रकार से जीवात्मा का कार्यालय है |इस दृश्य जगत में जो कुछ है और जहाँ तक हमारी दृष्टि नहीं पहुँच सकती उन सबकी प्राप्ति की प्रयोगशाला है। भारतीय तत्त्वदर्शन के अनुसार यहाँ 17 तत्त्वों से संगठित ऐसे विलक्षण ज्योति पुँज विद्यमान् हैं जो दृश्य जगत में स्थूल नेत्रों से कहीं भी नहीं देखे जा सकते। समस्त ज्ञानवाहक सूत्र और बात नाड़ियाँ यहीं से निकल कर सारे शरीर में फैलती हैं। सूत्रात्मा इसी भास्कर श्वेत दल कमल में बैठा हुआ चाहे जिस नाड़ी के माध्यम से शरीर के किसी भी अंग को आदेश-निर्देश और सन्देश भेजता ओर प्राप्त करता रहता है।

8-वह किसी भी स्थान में हलचल पैदा कर सकता है किसी भी स्थान की बिना किसी बाध्य-उपकरण के सफाई ओर प्राणवर्धा आदि, जो हम सब नहीं कर सकते वह सब कुछ कर सकता है। यह सब ज्योति पुञ्जों के स्स्रण आकुंचन-प्रकुञ्चन आदि से होता है। नाक, जीभ, नेत्र, कर्ण, त्वचा इन सभी स्थूल इन्द्रियों को यह प्रकाश-गोलक ही काम कराते हैं और उन पर नियन्त्रण सहस्रारवासी परमात्मा का होता है।

9-ध्यान की पूर्वावस्था में यह प्रकाश टिमटिमाते जुगनू चमकते तारे, चमकीली कलियाँ, मोमबत्ती, आधे या पूर्ण चन्द्रमा आदि के प्रकाश-सा झलकता है। धीरे-धीरे उनका दिव्य रूप प्रतिभासित होने लगता है उससे स्थूल इन्द्रियों की गतिविधियों में शिथिलता आने लगती है और आत्मा का कार्य-क्षेत्र सारे विश्व में प्रकाशित होने लगता है। सहस्रार-चक्र का स्थान तथा प्रभाव :- 10 FACTS;- 1-चक्र हमारी खोपड़ी के उपरी भाग में स्थित होता है | अथार्त जहाँ ललाट, पार्श्विका, लौकिक ये तीनो अस्थियाँ एक दुसरे को काटती है | सहस्रार चक्र मस्तिष्क के ऊपर ब्रह्मरंध में अपस्थित 6 सेंटीमीटर व्यास के एक अध खुले हुए कमल के फूल के समान होता है। ऊपर से देखने पर इसमें कुल 972 पंखुड़ियां दिखाई देता है। इसमें नीचे 960 छोटी-छोटी पंखुड़ियां और उनके ऊपर मध्य में 12 सुनहरी पंखुड़ियां सुशोभित रहती हैं। इसे हजार पंखुड़ियों वाला कमल कहते हैं। 2-इसका चिन्ह खुला हुआ कमल का फूल है जो असीम आनन्द के केन्द्र होता है। इसमें इंद्रधनुष के सारे रंग दिखाई देते हैं लेकिन प्रमुख रंग बैंगनी होता है। इस चक्र में अ से क्ष तक की सभी स्वर और वर्ण ध्वनि उत्पन्न होती है। पिट्यूट्री और पिनियल ग्रंथि का आंशिक भाग इससे सम्बंधित है। यह मस्तिष्क का ऊपरी हिस्सा और दाई आंख को नियंत्रित करता है। यह आत्मज्ञान, आत्मदर्शन, एकीकरण, स्वर्गीय अनुभूति के विकास का मनोवैज्ञानिक केन्द्र है। 3-यह आत्मा का उच्चतम स्थान है। इस चक्र को देख कर व्यक्ति के स्वभाव और चरित्र का अनुमान लगाया जा सकता है। इसका विस्तार, रंग, गति, आभा और बनावट देख कर व्यक्ति की चैतन्यता, आध्यात्मिक योग्यता और अन्य चक्रों से समन्वय का अनुमान लगाया जा सकता है। अच्छा योगाभ्यास करने वाले साधक का चक्र ओजस्वी और चमकदार होता है। 4-सच्चे स्वप्न देखने की क्षमता विकसित हो जाती है। यदि इस चक्र में लचीलापन है तो इसका मतलब है कि व्यक्ति आसानी से अपनी आत्मा को शरीर से निकाल कर कहीं अन्यत्र ले जा सकता है। नीचे के बाकी 6 चक्रों से बिलकुल अलग यह एक अति विशिष्ट और उन्नत चक्र है। यह ईश्वरधाम और मोक्ष का द्वार है। जब यह चक्र अच्छी स्थिति में है तो अन्य चक्र स्वतः जागृत हो जाते हैं। 5-जो साधक अपनी कुण्डलिनी जाग्रत कर लेते हैं तो कुण्डलिनी बाल रूप बाला त्रिपुरा सुन्दरी के रूप में ऊपर उठती है। थोड़ा और ऊपर पहुंचने पर वह यौवन को प्राप्त कर राजराजेश्वरी का रूप धरती है और सहस्रार चक्र तक वह संपूर्ण स्त्री ललिताम्बिका का रूप धर लेती है। जो साधक कुण्डलिनी को सहस्रार तक ले कर आते हैं, वे परमानन्द को प्राप्त करते हैं, जिसकी सर्वोच्च अवस्था समाधि है। 6-कुण्डलिनी के इस जागरण को शिव और शक्ति का मिलन कहते हैं। इस मिलन से आत्मा का अस्तित्व खत्म हो जाता है और वह परमात्मा में लीन हो जाती है। इस चक्र पर ध्यान करने से संसार में किये गये बुरे कर्मों का भी नाश होता है। ऐसे साधक अच्छे कर्म करने और बुरे कर्मों का नाश करने में सफल हो जाते हैं। 7-आज्ञा चक्र को सम्प्रज्ञात समाधि में जीवात्मा का स्थान कहा जाता है, क्योंकि यही दिव्य दृष्टि का स्थान है। उसे शिव की तीसरी आंख भी कहते हैं। मूलाधार से लेकर आज्ञा चक्र तक सभी चक्रों के जागरण की कुंजी सहस्रार चक्र के पास ही है। यही सारे चक्रों का मास्टर स्विच है। 8-यह चक्र सूर्य की भांति प्रकाश का विकिरण करता है इसलिए इसे हजार पंखुडिय़ों वाले कमल, ब्रह्म रन्ध्र या लक्ष किरणों का केन्द्र कहा जाता है | सहस्रार चक्र में एक शक्ति पायी जाती है जिसको मेधा शक्ति के नाम से जाना जाता है | यह शक्ति स्मरण शक्ति, एकाग्रता और बुद्धि को प्रभावित करती है | 9- मेधा शक्ति एक हार्मोन है, जो मस्तिष्क की प्रक्रियाओं जैसे स्मरण शक्ति, एकाग्रता और बुद्धि को प्रभावित करता है। योग अभ्यासों से मेधा शक्ति को सक्रिय और मजबूत किया जा सकता है। 10-जब व्यक्ति का सहस्रार-चक्र भी जाग्रत हो जाता है तो व्यक्ति मोक्ष द्वार पर पहुच जाता है | शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यह चक्र योग के उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करता है- आत्म अनुभूति और ईश्वर की अनुभूति, जहां व्यक्ति की आत्मा ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ जाती है। व्यक्ति अपने सभी कर्मों से मुक्त हो जाता है | और मोक्ष प्राप्त कर लेता है | ध्यान में योगी निर्विकल्प समाधि (समाधि का उच्चतम स्तर) सहस्रार चक्र पर पहुंचता है, यहां मन पूरी तरह निश्चल हो जाता है और ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय एक में ही समाविष्ट होकर पूर्णता को प्राप्त होते हैं। सहस्रार चक्र का मंत्र :- 03 FACTS;- 1-इस चक्र का मन्त्र होता है – ॐ| इस चक्र को जाग्रत करने के लिए आपको ॐ मंत्र का जाप करते हुए ध्यान लगाना होता है | आज्ञा चक्र वाला ही मंत्र इस चक्र में भी होता है | इसके देवता श्री भगवान शंकर हैं और बीज मंत्र ' ॐ ' है। 2-यह वास्तव में चक्र नहीं है बल्कि साक्षात तथा सम्पूर्ण परमात्मा और आत्मा है। जो व्यक्ति सहस्रार चक्र का जागरण करने में सफल हो जाते हैं, वे जीवन मृत्यु पर नियंत्रण कर लेते हैं। सभी लोगों में अंतिम दो चक्र सोई हुई अवस्था में रहते हैं। अतः इस चक्र का जागरण सभी के वश में नहीं होता है। इसके लिए कठिन साधना व लम्बे समय तक अभ्यास की आवश्यकता होती है। 3-इसका संतुलन बिगड़ने पर सिरदर्द, मानसिक रोग, नाड़ीशूल, मिर्गी, मस्तिष्क रोग, एल्झाइमर, त्वचा में चकत्ते आदि रोग होते हैं। सहस्रार चक्र का रंग;- 02 FACTS;- 1-सहस्रार चक्र का कोई विशेष रंग या गुण नहीं है। यह विशुद्ध प्रकाश है, जिसमें सभी रंग हैं। सभी नाडिय़ों की ऊर्जा इस केन्द्र में एक हो जाती है, जैसे हजारों नदियों का पानी सागर में गिरता है। यहां अन्तरात्मा शिव की पीठ है। सहस्रार चक्र के जाग्रत होने का अर्थ दैवी चमत्कार और सर्वोच्च चेतना का दर्शन है। जिस प्रकार सूर्योदय के साथ ही रात्रि ओझल हो जाती है, उसी प्रकार सहस्रार चक्र के जागरण से अज्ञान धूमिल (नष्ट) हो जाता है। 2-सहस्रार चक्र में हजारों पंखुडिय़ों वाले कमल का खिलना संपूर्ण, विस्तृत चेतना का प्रतीक है। सहस्रार चक्र का कोई विशेष रंग या गुण नहीं है।सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर स्थित है। इसे "हजार पंखुडिय़ों वाले कमल”, "ब्रह्म रन्ध्र” (ईश्वर का द्वार) या "लक्ष किरणों का केन्द्र” भी कहा जाता है, क्योंकि यह सूर्य की भांति प्रकाश का विकिरण करता है। अन्य कोई प्रकाश सूर्य की चमक के निकट नहीं पहुंच सकता। इसी प्रकार, अन्य सभी चक्रों की ऊर्जा और विकिरण सहस्रार चक्र के विकिरण में धूमिल हो जाते हैं। सहस्रार-चक्र जाग्रत करने की “आवश्यकता” ;- 09 FACTS;- 1-मूलाधार से होते हुए ही सहस्रार तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह चक्र जाग्रत हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है। 2-सहस्रार कोई मार्ग नहीं है। जब हम मार्ग शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो उसका मतलब होता है - एक सीमाओँ में बँधा, स्थापित रास्ता। सीमा में बाँधने के लिए आपको एक भौतिक स्थान की जरूरत होती है। सहस्रार कोई भौतिक स्थान नहीं है। शरीर के भूगोल में उसकी मौजूदगी है, मगर वह किसी भौतिक स्थान का प्रतीक नहीं है। इसलिए, उससे जुड़ा कोई मार्ग नहीं है। 3-रामकृष्ण परमहंस काफी समय सहस्रार अवस्था में थे। इसे लेकर कई कहानियां हैं मगर एक प्रभावशाली उदाहरण होगा, तोतापुरी और रामकृष्ण परमहंस का। रामकृष्ण सहस्रार में बहुत अधिक रमे हुए थे इसलिए उनका लंबे समय तक जीवित रहना मुश्किल था। 4-क्योंकि यह ऐसा स्थान नहीं है, जहां आप भौतिक शरीर में बने रह कर धरती पर मौजूद रह सकते हैं। वह आनंदपूर्ण और शानदार अवस्था है, मगर वह शरीर में बने रहने लायक स्थान नहीं है, वह ‘जाने वाला’ स्थान है। आप बीच-बीच में उसे छूकर वापस आ सकते हैं। जब कोई व्यक्ति वहां लंबे समय तक रहता है, तो उसका शरीर साथ छोड़ देता है। 5-सभी देवताओं में शिव सबसे बलवान और ऊर्जावान हैं। इसका मतलब है कि वह सक्रीयता(एक्शन) के प्रतीक हैं, मगर वह भी कई बार सहस्रार में होने के कारण उन्मत्त(नशे से भरे) रहते हैं।आपने सुना होगा कि तोतापुरी ने शीशे का एक टुकड़ा लेकर रामकृष्ण के आज्ञा चक्र पर वार कर दिया ताकि सिर्फ परमानंद में तैरते रामकृष्ण को स्पष्टता और बोध तक नीचे लाया जाए। क्या परमानंद में तैरना अच्छी बात नहीं है? 6-यह बहुत बढ़िया है मगर उस स्थिति में आप न तो काम कर सकते हैं और न ही कुछ प्रकट कर सकते है। यह स्थिति नशे जैसी होती है। यह अवस्था बहुत बढ़िया और अस्तित्व संबंधी रूप में शानदार होती है, मगर आप उन अवस्थाओं में काम नहीं कर सकते। चाहे आप काम कर भी लें, तो आप बहुत प्रभावशाली नहीं होंगे। यह भौतिक और अभौतिक के बीच एक धुंधली दुनिया है। 7-मूलाधार शरीर का सबसे बुनियादी चक्र है।सहस्रार अवस्था में दुनिया में कुछ करना मुश्किल होता है। हम यहां-वहां, थोड़ी बहुत पार्टी करते रहते हैं, भाव स्पंदन और सत्संग करते हैं, मगर फिर हम अपना ध्यान उस पर केंद्रित रखना चाहते हैं, जो हमें करने की जरूरत है। अगर हर कोई सहस्रार में होगा, तो यह सब कुछ संभव नहीं होगा। और अगर हर कोई वहां रहना शुरू कर देगा, तो वे लंबे समय तक दुनिया में नहीं रह पाएंगे, वे दुनिया से चले जाएंगे। 8-आपने शिव की परमानंद अवस्था के बारे में सुना होगा, जिसमें कोई उन तक पहुंच नहीं सकता। इतना केंद्रित और तीव्रता वाला देव अचानक से उन्मत्त(नशे से भरा) और अनुपलब्ध हो जाता है। इसकी वजह यह है कि उन दिनों वे सहस्रार में होते थे। इतनी तीव्रता और फोकस वाले देव भी इतने नशे में होते थे कि उनके लिए कुछ करना मुश्किल था। सभी देवताओं में शिव सबसे बलवान और ऊर्जावान हैं। इसका मतलब है कि वह सक्रीयता(एक्शन) के प्रतीक हैं, मगर वह भी कई बार सहस्रार में होने के कारण उन्मत्त(नशे से भरे) रहते हैं। तो यह कोई मार्ग नहीं है। 9-आप सहस्रार में इसलिए जाते हैं क्योंकि आप खुद को खोना चाहते हैं, इसलिए नहीं कि आप खुद को पाना चाहते हैं। जब आपको खोने का मन करे तो आपके लिए सहस्रार है। जब आपको खुद को पाने का मन करे तो आपको किसी मार्ग पर चलने की जरूरत है। क्या खोने की भी कोई परंपरा है? हां है, मगर आप उसे कोई रूप या आकार नहीं दे सकते।

सहस्रार चक्र में ध्यान ;- 07 FACTS;- 1-साधना की उच्च स्थिति में ध्यान जब सहस्रार चक्र पर या शरीर के बाहर स्थित चक्रों में लगता है तो इस संसार (दृश्य) व शरीर के अत्यंत अभाव का अनुभव होता है |. यानी एक शून्य का सा अनुभव होता है. उस समय हम संसार को पूरी तरह भूल जाते हैं |(ठीक वैसे ही जैसे सोते समय भूल जाते हैं).| सामान्यतया इस अनुभव के बाद जब साधक का चित्त वापस नीचे लौटता है तो वह पुनः संसार को देखकर घबरा जाता है,| क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं होता कि उसने यह क्या देखा है? वास्तव में इसे आत्मबोध कहते हैं.| 2-यह समाधि की ही प्रारम्भिक अवस्था है| अतः साधक घबराएं नहीं, बल्कि धीरे-धीरे इसका अभ्यास करें.| यहाँ अभी द्वैत भाव शेष रहता है व साधक के मन में एक द्वंद्व पैदा होता है.| वह दो नावों में पैर रखने जैसी स्थिति में होता है,| इस संसार को पूरी तरह अभी छोड़ा नहीं और परमात्मा की प्राप्ति अभी हुई नहीं जो कि उसे अभीष्ट है. |इस स्थिति में आकर सांसारिक कार्य करने से उसे बहुत क्लेश होता है क्योंकि वह परवैराग्य को प्राप्त हो चुका होता है और भोग उसे रोग के सामान लगते हैं, | 3-परन्तु समाधी का अभी पूर्ण अभ्यास नहीं है.| इसलिए साधक को चाहिए कि वह धैर्य रखें व धीरे-धीरे समाधी का अभ्यास करता रहे और यथासंभव सांसारिक कार्यों को भी यह मानकर कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं\, करता रहे और ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखे. साथ ही इस समय उसे तत्त्वज्ञान की भी आवश्यकता होती है जिससे उसके मन के समस्त द्वंद्व शीघ्र शांत हो जाएँ.| 4- इसके लिए योगवाशिष्ठ (महारामायण) नामक ग्रन्थ का विशेष रूप से अध्ययन व अभ्यास करें.| उसमे बताई गई युक्तियों "जिस प्रकार समुद्र में जल ही तरंग है, सुवर्ण ही कड़ा/कुंडल है, मिट्टी ही मिट्टी की सेना है, ठीक उसी प्रकार ईश्वर ही यह जगत है." का बारम्बार चिंतन करता रहे तो उसे शीघ्र ही परमत्मबोध होता है,| सारा संसार ईश्वर का रूप प्रतीत होने लगता है और मन पूर्ण शांत हो जाता है. | 5-जब साधक का ध्यान उच्च केन्द्रों (आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र) में लगने लगता है तो साधक को अपना शरीर रूई की तरह बहुत हल्का लगने लगता है.| ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब तक ध्यान नीचे के केन्द्रों में रहता है (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर चक्र तक), तब तक "मैं यह स्थूल शरीर हूँ" ऐसी दृढ भावना हमारे मन में रहती है और यह स्थूल शरीर ही भार से युक्त है|, इसलिए सदा अपने भार का अनुभव होता रहता है. 6- परन्तु उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से "मैं शरीर हूँ" ऐसी भावना नहीं रहती बल्कि "मैं सूक्ष्म शरीर हूँ" या "मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ परमात्मा का अंश हूँ" ऎसी भावना दृढ हो जाती है. |यानि सूक्ष्म शरीर या आत्मा में दृढ स्थिति हो जाने से भारहीनता का अनुभव होता है.| दूसरी बात यह है कि उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है जो ऊपर की और उठती है|. यह दिव्य शक्ति शरीर में अहम् भावना यानी "मैं शरीर हूँ" इस भावना का नाश करती है, |जिससे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का भान होना कम हो जाता है. | 7-ध्यान की उच्च अवस्था में या शरीर में हलकी चीजों जैसे रूई, आकाश आदि की भावना करने से आकाश में चलने या उड़ने की शक्ति आ जाती है,| ऐसे साधक जब ध्यान करते हैं तो उनका शरीर भूमि से कुछ ऊपर उठ जाता है.| परन्तु यह सिद्धि मात्र है, इसका वैराग्य करना चाहिए. ध्यान में क्या अनुभव हो सकता है ?- 14 FACTS;- 1-साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं.|हर साधक की अनुभूतियाँ भिन्न होती हैं |अलग साधक को अलग प्रकार का अनुभव होता है |इन अनुभवों के आधार पर उनकी साधना की प्रकृति और प्रगति मालूम होती है |साधना के विघ्न-बाधाओं का पता चलता है | साधना में ध्यान में होने वाले कुछ अनुभव निम्न प्रकार हो सकते हैं | 2-कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है.| यानि एक तो यह स्थूल शरीर है और उस शरीर से निकलते हुए २ अन्य शरीर.| तब साधक कई बार घबरा जाता है. वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़ भी देता है.| परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है |. 3-एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है.| दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है| तीसरा शरीर कारण शरीर कहलाता है|. सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शरीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि|. परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है| यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है.| 4-तीसरा शरीर कारण शरीर है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं.| मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है.| इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाया प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं | 5-अनाहत चक्र (हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों का अनुभव होता ही है |. कई बार साधकों को लगता है जैसे उनके शरीर के छिद्रों से गर्म वायु निकलकर एक स्थान पर एकत्र हुई और एक शरीर का रूप धारण कर लिया जो बहुत शक्तिशाली है.| उस समय यह स्थूल शरीर जड़ पदार्थ की भांति क्रियाहीन हो जाता है.| इस दूसरे शरीर को सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर कहते हैं.| 6-कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सूक्ष्म शरीर हवा में तैर रहा है और वह शरीर हमारे स्थूल शरीर की नाभी से एक पतले तंतु से जुड़ा हुआ है.| कभी ऐसा भी अनुभव अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल गया |मतलब जीवात्मा हमारे शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी. ऐसा विचार आते ही हम उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं परन्तु यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है.| 7- "स्थूल शरीर मैं ही हूँ" ऐसी भावना करने से व ईश्वर का स्मरण करने से वह सूक्ष्म शरीर शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है.| कई बार संतों की कथाओं में हम सुनते हैं कि वे संत एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं,| ऐसा उस सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही संभव होता है. उस सूक्ष्म शरीर के लिए कोई आवरण-बाधा नहीं है, वह सब जगह आ जा सकता है. |यह सब साधना की बेहद उच्च अवस्था में ही होता है | 8-हर साधक के साथ हर अनुभव होता भी नहीं |सबके साथ भिन्न भिन्न अनुभव होते हैं |यहाँ लिखे जा रहे अनुभव उनकी एक बानगी मात्र हैं |इनसे अलग -भिन्न और अलौकिक अनुभव भी हो सकते हैं |यहाँ के विभिन्न अनुभव विभिन्न साधकों के विभिन्न अनुभवों पर आधारित हैं| 9-कई साधकों को किसी व्यक्ति की केवल आवाज सुनकर उसका चेहरा, रंग, कद, आदि का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है और जब वह व्यक्ति सामने आता है तो वह साधक कह उठता है कि, "अरे! यही चेहरा, यही कद-काठी तो मैंने आवाज सुनकर देखी थी, यह कैसे संभव हुआ कि मैं उसे देख सका?" 10-वास्तव में धारणा के प्रबल होने से, जिस व्यक्ति की ध्वनि सुनी है, |साधक का मन या चित्त उस व्यक्ति की भावना का अनुसरण करता हुआ उस तक पहुँचता है और उस व्यक्ति का चित्र प्रतिक्रिया रूप उसके मन पर अंकित हो जाता है. इसे दिव्य दर्शन भी कहते हैं. | आँखें बंद होने पर भी बाहर का सब कुछ दिखाई देना, दीवार-दरवाजे आदि के पार भी देख सकना, बहुत दूर स्थित जगहों को भी देख लेना, भूत-भविष्य की घटनाओं को भी देख लेना, यह सब आज्ञा चक्र (तीसरी आँख) के खुलने पर अनुभव होता है. | 11-सूर्य के सामान दिव्य तेज का पुंज या दिव्य ज्योति दिखाई देना एक सामान्य अनुभव है.| यह कुण्डलिनी जागने व परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर होता है.| उस तेज को सहन करना कठिन होता है.| लगता है कि आँखें चौंधिया गईं हैं और इसका अभ्यास न होने से ध्यान भंग हो जाता है. |वह तेज पुंज आत्मा व उसका प्रकाश है.| इसको देखने का नित्य अभ्यास करना चाहिए.| समाधि के निकट पहुँच जाने पर ही इसका अनुभव होता है.| 12-हमारे ईष्ट देव हम पर समयानुसार शक्तिपात भी करते रहते हैं. उस समय हमें ऐसा लगता है जैसे मूर्छा (बेहोशी) सी आ रही है या अचानक आँखें बंद होकर गहन ध्यान या समाधि की सी स्थिति हो जाती है, साथ ही एक दिव्य तेज का अनुभव होता है और परमानंद का अनुभव बहुत देर तक होता रहता है. ऐसा भी लगता है जैसे कोई दिव्या धारा इस तेज पुंज से निकलकर अपनी और बह रही हो व अपने अपने भीतर प्रवेश कर रही हो. वह आनंद वर्णनातीत होता है. इसे शक्तिपात कहते है. 13-ध्यान/समाधी की उच्च अवस्था में पहुँच जाने पर ईष्ट देव या ईश्वर द्वारा शक्तिपात का अनुभव होता है. साधक को एक घूमता हुआ सफ़ेद चक्र या एक तेज पुंज आकाश में या कमरे की छत पर दीख पड़ता है और उसके होने मात्र से ही परमानन्द का अनुभव ह्रदय में होने लगता है. उस समय शरीर जड़ सा हो जाता है व उस चक्र या पुंज से सफ़ेद किरणों का प्रवाह निकलता हुआ अपने शरीर के भीतर प्रवेश करता हुआ प्रतीत होता है. 14-उस अवस्था में बिजली के हलके झटके लगने जैसा अनुभव भी होता है और उस झटके के प्रभाव से शरीर के अंग भी फड़कते हुए देखे जाते हैं. यदि ऐसे अनुभव होते हों तो समझ लेना चाहिए कि आप पर ईष्ट की पूर्ण कृपा हो गई है, उनहोंने आपका हाथ पकड़ लिया है और वे शीघ्र ही आपको इस माया से बाहर खींच लेंगे. क्या अनुभव हो सकता है ध्यान में (सगुण रूप की साधना करने वाले साधकों को)?- 05 FACTS;- 1-ईश्वर के सगुण रूप की साधना करने वाले साधकों को, भगवान का वह रूप कभी आँख वंद करने या कभी बिना आँख बंद किये यानी खुली आँखों से भी दिखाई देने का आभास सा होने लगता है या स्पष्ट दिखाई देने लगता है. |उस समय उनको असीम आनंद की प्राप्ति होती है.| परन्तु मन में यह विश्वास नहीं होता कि ईश्वर के दर्शन किये हैं.| वास्तव में यह सवितर्क समाधि की सी स्थिति है जिसमे ईश्वर का नाम, रूप और गुण उपस्थित होते हैं.| 2-ऋषि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में इसे सवितर्क समाधि कहा है. |ईश्वर की कृपा होने पर (ईष्ट देव का सान्निध्य प्राप्त होने पर) वे साधक के पापों को नष्ट करने के लिए इस प्रकार चित्त में आत्मभाव से उपस्थित होकर दर्शन देते हैं और साधक को अज्ञान के अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की और खींचते हैं|. इसमें ईश्वर द्वारा भक्त पर शक्तिपात भी किया जाता है जिससे उसे परमानन्द की अनुभूति होती है.| 3- कई साधकों/भक्तों को भगवान् के मंदिरों या उन मंदिरों की मूर्तियों के दर्शन से भी ऐसा आनंद प्राप्त होता है.| ईष्ट प्रबल होने पर ऐसा होता है.| यह ईश्वर के सगुन स्वरुप के साक्षात्कार की ही अवस्था है इसमें साधक कोई संदेह न करें | कई सगुण साधक ईश्वर के सगुन स्वरुप को उपरोक्त प्रकार से देखते भी हैं और उनसे वार्ता भी करने का प्रयास करते हैं.| 4- इष्ट प्रबल होने पर वे बातचीत में किये गए प्रश्नों का उत्तर प्रदान करते हैं, या किसी सांसारिक युक्ति द्वारा साधक के प्रश्न का हल उपस्थित कर देते हैं. |यह ईष्ट देव की निकटता व कृपा प्राप्त होने पर होता है. |इसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए. |साधना में आने वाले विघ्नों को अवश्य ही ईश्वर से कहना चाहिए और उनसे सदा मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए.| 5-वे तो हमें सदा राह दिखने के लिए ही तत्पर हैं परन्तु हम ही उनसे राह नहीं पूछते हैं या वे मार्ग दिखाते हैं तो हम उसे मानते नहीं हैं, तो उसमें ईश्वर का क्या दोष है? ईश्वर तो सदा सबका कल्याण ही चाहते है|.

;सहस्रार चक्र जागरण के मुख्य लक्षण(Crwon chakra symptom);-

05 FACTS;-

1-सहस्रार चक्र जागरण से हमारे अंदर आने वाले बदलाव ...आप भी सिरदर्द से परेशान रहते है ? आपको नींद लेने में समस्या आ रही है ? क्या आप चाह कर भी अपने दिमाग में चलती हलचल को रोक नहीं पाते है ? अगर ये सब आपके साथ रहा है तो ये आपके सहस्रार चक्र जागरण के लक्षण हो सकते है.

2- सहस्रार चक्र जागरण में हमें कई आध्यात्मिक और भौतिक बदलाव महसूस होते है जिनमे सबसे ज्यादा है दुसरो से दूरी बना लेना। अगर sahsrar chakra Blockage हो जाये तो उसेदूर कैसे करे।शरीर में सप्त चक्र हमारे अलग अलग व्यक्तित्व का निर्धारण करते है ये चक्र पूजा पथ, व्यव्हार और रंग से प्रभावित होते रहते है। सहस्रार चक्र जागरण में हमें कुछ लक्षण पर ध्यान देना चाहिए जिससे हमारा सहस्रार चक्र जागरण बिना किसी ब्लॉकेज की समस्या के आसानी से हो जाये।

3-सहस्रार चक्र हमारे आध्यात्मिक रूप का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए इसके जागरण के समय हम आध्यात्मिक और भौतिक दोनों तरह के लक्षण महसूस किये जा सकते है। हमारे व्यव्हार और आध्यात्मिक स्वरूप से जुड़ाव में महत्वपूर्ण बदलाव होते है जिन्हें हमें इग्नोर नहीं करना चाहिए।सहस्रार चक्र की समस्या .. जैसे की ..

4-आध्यात्मिक बदलाव ;-

4-1-आपका अकेलेपन में रहने लगना, दूसरे से मिलने जुलने में असहजता महसूस होना।

4-2-पथ प्रदर्शन की कमी, अपने लक्ष्य से भटकने लगना।

4-3-अपने लक्ष्य के निर्धारण में समस्या होना।

4-4-अपने आध्यात्मिक रूप से कटा कटा महसूस होना।

5-भौतिक लक्षण :-

5-1-नर्व कोशिकाओं में तनाव जिससे हमारे शरीर के स्नायु तंत्र का सही तरह से काम न करना।

5-2-स्नायु तंत्र, और पीनियल ग्रंथि में समस्या उत्पन होना।

5-3-सरदर्द और माइग्रेन जैसी समस्या होना।

5-4-तनाव और अवसाद का शिकार होना।

5-5-अनिद्रा का शिकार होना और सही तरह से सो ना पाना।

नीचे दिए कुछ मुख्य लक्षण जो आप हम सब महसूस कर सकते है।

04 FACTS;-

1. अलगाव-(DETACHMENT):-

02 POINTS;-

1-इस अवस्था को आप सबसे पहले देख सकते है की हम दूसरों से दूर रहने लगते है ज्यादा से ज्यादा एकांत में वक़्त बिताना इसका मुख्य लक्षण है। और भी कई बदलाव व्यव्हार में नोट किये जा सकते है। दोस्तों में बदलाव आ सकता या फिर हमारे दैनिक जीवन के वयवहार और रहने सहने ( लाइफस्टाइल ) में बदलाव देखा जा सकता है.

2-जब ये सब होता है तब हम ज्यादा से ज्यादा अंदर की ओर बढ़ने लगते है. खुद को जाननेकी कोशिश करते रहते है.आप जितना ज्यादा सीखते है उतना ही कम बोलने लगते है। ये इसलिए क्यों की कम बोलकर भी मतलब की बात समझा सकते है।

2. शारीरिक बदलाव और सिरदर्द( BODY PAIN AND HEADACHE):-

03 POINTS;-

1-इस अवस्था में हमारे अंदर नकारात्मक विचारों, यादो और ऊर्जा केबीच टकराव होता है। इसलिए मस्तिष्क लगातार सिरदर्द महसूस किया जा सकता है। लगातर उन टकराव की स्थिति में मस्तिष्क के रहने और उस अवस्था को बनाए ( बुरे विचारों को दूर करना ) रखने के लिए मस्तिष्क बहुत श्रम करता है। इसी वजह से सिरदर्द महसूस किया जा सकता है क्यों की मस्तिष्क पर मानसिक दबाव पड़ता है.

2-मस्तिष्क के ऊपरी भाग में दर्द या फिर गर्दन में दर्द महसूस किया जा सकता है। लगातार एक ही विचार मस्तिष्क में चलते रहने से भी मानसिक दबाव की स्थिति उत्पन हो जाती है। लेकिन जब जागरण की अवस्था सहज हो जाती है तब ये स्थिति नियंत्रण में आ जाती है।

3-उपाय :अगर आप फिर भी लगातार सिरदर्द या मस्तिष्क में चलते विचारो से परेशान रहते है तो अपनी आँखे बंद कर मस्तिष्क चलते विचार पर फोकस होने की कोशिश करें। इससे आप ये विचार या तो रोक पाएंगे या फिर उसके मस्तिष्क में दोहराने का कारण समझ जायँगे। तब आप आसानी से इसे रोक पाएंगे। इसके लिए आप भावना शक्ति का अभ्यास करे ये इसमें ज्यादा प्रभावी होगा।

3-भोजन में बदलाव (FOOD PATTERN):-

जागरण की अवस्था के वक़्त मस्तिष्क में जो बदलाव आते है उसका प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है इसी वजह से हम शारीरिक विकास वाले भोजन लेना शुरू कर सकते है या फिर पिछली जिंदगी में जिस खाने को चाहत थी उसे लेना शुरू कर सकते है। इस दौरान खाने को लेकर ज्यादा जागरूक हो जाते है।

4. सोने में बदलाव (SLEEPING PATTERN):-

02 POINTS;-

1-सोने का सामान्य समय 7-8 घंटे है। लेकिन जागरण अवस्था में इसमें बदलाव आने लगता है क्यों की हम मानसिक स्तर के बदलाव से जूझते है जिसका असर हमारे मस्तिष्क पर पड़ता है। इसी वजह से शरीर ऊर्जा में आया बदलाव हमारी नींद को प्रभावित करता है। जैसे नींद का तरीका बदलना या वक़्त बदल जाना उदहारण के तौर पर रात्रि को लेट सोना।

2-इसकी वजह मस्तिष्क में बार बार चलते विचार भी हो सकते है। खुद से बात करते रहना, खुद से ही बहस करते रहना इसका उदहारण है। किसी को सोते वक़्त पसीना ज्यादा आता है तो कोई इस वजह से थक जाता है की उसके मस्तिष्क में विचार की सिलसिला ख़त्म ही नहीं होता है। इसी कारण ज्यादा सो जाता है।नींद मस्तिष्क और शरीर को आराम देने का माध्यम है।

IN NUTSHELL;-

06 FACTS;-

1-यहाँ तक पहुँचना बड़ा कठिन होता है। अनेक साधक तो नीचे के ही चक्रों में रह जाते हैं उनमें जो आनन्द मिलता है उसी में लीन हो जाते हैं। इसलिये कुण्डलिनी साधना द्वारा मिलने वाली प्रारम्भिक सिद्धियों को बाधक माना गया है। जिस प्रकार धन-वैभव ऐश्वर्य और सौंदर्यवान युवती पत्नी का सुख पाकर मनुष्य संसार को ही सब कुछ समझ लेता है उसी प्रकार कुण्डलिनी का साधक भी बीच के ही छः चक्रों में दूर दर्शन, दूर श्रवण, दूसरों के मन की बात जानना, भविष्य दर्शन आदि अनेक सिद्धियाँ पाकर उनमें ही आनन्द का अनुभव करने लगता है और परम-पद का लक्ष्य अधूरा ही रह जाता है।

2-सहस्रार चक्र में पहुँच कर भी साधक बहुत समय तक उस पर स्थिर नहीं रह पाते हैं। वह साधक की आन्तरिक और आध्यात्मिक शक्ति तथा साधना के स्वरूप पर निर्भर है कि वह सहस्रार में कितने समय तक रहता है उसके बाद वह फिर निम्नतम लोकों के सुखों में जा भटकता है पर जो अपने सहस्रार को पका लेते हैं वह पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त कर अनन्त काल तक ऐश्वर्य सुखोपभोग करते हैं।

3-सामान्य व्यक्ति को केवल अपने शरीर और सम्बन्धियों तक ही चिन्ता होती है | पर योगी की व्यवस्था का क्षेत्र सारी पृथ्वी, और दूसरे लोकों तक फैल जाता है | उसे यह भी देखना पड़ता है कि ग्रह-नक्षत्रों की क्रियायें भी तो असंतुलित नहीं हो रही। स्थूल रूप से इन गतिविधियों से पृथ्वी वासी भी प्रभावित होते रहते हैं इसलिये अनजाने में ही ऐसी ब्राह्मी स्थिति का साधक लोगों का केवल हित संपादित किया करता है।

4-उसे जो अधिकार और सामर्थ्य मिली होती हैं वह इतने बड़े उत्तरदायित्व को संभालने की दृष्टि से ही होती है। वैसे वह भले ही शरीरधारी दिखाई दे पर उसे शरीर की सत्ता का बिलकुल ज्ञान नहीं होता। वह सब कुछ जानता, देखता, सुनता और आगे क्या होने वाला है वह सब पहचानता है।विज्ञानमय कोष और मनोमय कोष के अध्यक्ष मन और बुद्धि यहीं रहते हैं और ज्ञानेन्द्रियों से परे दूर के या कहीं भी छिपे हुए पदार्थों के समाचार पहुँचाते रहते हैं।

5-आत्म-संकल्प जब चित्त वाले क्षेत्र से बुद्धि क्षेत्र में पदार्पण करता है तब दिव्य दृष्टि बनती है और वह आज्ञा चक्र से निकल कर विश्व ब्रह्माण्ड में जो अनेक प्रकार की रश्मियाँ फैली हैं उनसे मिलकर किसी भी लोक के ज्ञान को प्राप्त कर लेती है। विद्युत तरंगों के माध्यम से जिस प्रकार दूर के अन्तरिक्ष यानों को पृथ्वी से ही दाहिने-बायें (Traverse , to pass or move over, along, or through) किया जा सकता है। जिस प्रकार टेलीविजन के द्वारा कहीं का भी दृश्य देखा जा सकता है उसी प्रकार बुद्धि और संकल्प की रश्मियों से कहीं के भी दृश्य देखे जाना या किसी भी हलचल में हस्तक्षेप करना मनुष्य को भी सम्भव हो जाता है।

6-मुण्डक और छान्दोग्य उपनिषदों में क्रमशः खण्ड 2 और 9 में इन साक्षात्कारों का विशद वर्णन है और कहा गया है- ''आत्मज पुरुष इस हिरण्मयं कोष में शुभ्रतम ज्योति के रूप में उस कला रहित ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं ''

....SHIVOHAM....

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