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साधना मे सप्त चक्र भेदन का क्या रहस्य है ?PART-01


क्या रहस्य है नाड़ी चक्र के विज्ञान का?-

05 FACTS;-

1-कुण्डलिनी की सर्वत्र व्याख्या एक ऐसी शक्ति की रूप में की गयी है जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती | यह सर्वशक्तिमान की अधिष्ठात्री शक्ति है |यह मानव जीवन का दुर्लभतम वरदान है जिसको साध लेने से जन्म-जन्मान्तर के भाव-बंधन टूट जाते हैं |समस्त

विश्वव्यापी संसार में जो अनंत-कोटि ब्रह्माण्ड हैं, उनकी यात्रा, इसी मानव शरीर में कराती हुई, अंत में जब यह परात्पर पुरुष के वाम भाग में विराजती है तो मनुष्य की चेतना अपने पूर्णतम विकास को प्राप्त करती है अर्थात अपने आत्म स्वरुप में ही अवस्थित हो जाती हैं |

2-लेकिन कुण्डलिनी तंत्र को समझने से पहले नाड़ी चक्र के विज्ञान को समझना अनिवार्य है | मानव-शरीर में नाड़ियों की संख्या बहत्तर हज़ार बतायी गयी है | ये नाड़ियाँ पेड़ के पत्तों की अतिसूक्ष्म शिराओं की भांति शरीर में रहती हैं | ये नाड़ियाँ, मनुष्य शरीर में, लिंग से ऊपर और नाभि के नीचे के स्थान (जिसे मूलाधार भी कहते हैं) से निकल कर पूरे शरीर में व्याप्त हैं |

इन बहत्तर हज़ार नाड़ियों में भी बहत्तर नाड़ियाँ प्रमुख हैं | ये सभी नाड़ियाँ, चक्र के समान शरीर में स्थित होकर शरीर तथा शरीर में स्थित पाँचों प्रकार की वायु (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) का आधार बनी हुई हैं | इन बहत्तर नाड़ियों में भी दस नाड़ियाँ प्रधान हैं जिनके नाम-इड़ा, पिन्गला, सुषुम्ना, गान्धारी, हस्तिजिव्हा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुषा, कुहू और शन्खिनी हैं |

3-इन दस नाड़ियों में भी प्रथम तीन नाड़ियाँ इड़ा, पिन्गला और सुषुम्ना विशेष महत्व की हैं जो प्राणवायु के मार्ग में स्थित हैं | शरीर के मेरुदंड के वाम भाग में या बाएं नासारंध्र (नाक) में इड़ा और दायीं तरफ (दाहिनी नाक में) पिन्गला नाड़ी है | मेरुदंड के बीचोबीच सुषुम्ना नाड़ी है | इन

तीनों ही नाड़ियों में प्राणवायु बहती है |इसके अतिरिक्त बायीं आँख में गांधारी, दाहिनी आँख में हस्तिजिव्हा, दायें कान में पूषा, बाएं कान में यशस्विनी, मुख में अलम्बुषा, लिंग में कुहू, और गुदा में शन्खिनी स्थित है | शरीर के दस द्वारों पर ये दस नाड़ियाँ स्थित हैं | इनमे इड़ा नाड़ी में चन्द्र, पिन्गला नाड़ी में सूर्य तथा सुषुम्ना में अग्नि देवता स्थित हैं |

4-जो लोग इड़ा (चन्द्र), और पिंगला (सूर्य) नाड़ी से प्राणवायु का अभ्यास, स्वरोदय शास्त्र के अनुसार, निरंतर करते हैं उनकी दृष्टि त्रैकालिक होने लगती है यानी उन्हें भविष्य का भान होने लगता है | इन नाड़ियों के स्वर से शुभ-अशुभ, किसी कार्य के सिद्ध होने या बेकार जाने का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है | स्वरोदय-शास्त्र में इनकी विस्तार से चर्चा है |शुभ कर्म में चन्द्र

या इड़ा नाड़ी का चलना तथा रौद्र कर्म में सूर्य या पिन्गला नाड़ी का चलना अच्छा माना जाता है | इड़ा नाड़ी चलने का अर्थ है बायीं नाक से श्वाँस का चलना और पिंगला नाड़ी चलने का अर्थ है दाहिनी नाक से श्वाँस का चलना | किस समय कौन सी नाड़ी चल रही है इसका अनुभव आप अपनी नासिका छिद्रों के पास अपनी अँगुलियों को ले जाकर कर सकते हैं |

5-इन नाड़ियों के चलने का क्रम इस प्रकार से है- शुक्ल पक्ष में पहले तीन दिन तक चन्द्र नाड़ी चलती है | इसके बाद तीन दिन तक सूर्य नाड़ी चलती है | फिर उसके बाद तीन दिन तक चन्द्र नाड़ी और उसके बाद तीन दिन सूर्य नाड़ी चलती है | इसी क्रम से शुक्लपक्ष में नाड़ी सञ्चालन होता है | इसी प्रकार से कृष्णपक्ष में पहले तीन दिन दाहिनी नाड़ी यानी सूर्य-स्वर का उदय होता है उसके बाद चन्द्र नाड़ी का | इसी प्रकार से प्रत्येक दिन इन नाड़ियों का क्रमबद्ध उदय एवं अस्त होता है | इन समस्त नाड़ियों का सञ्चालन करने वाली शक्ति ही कुण्डलिनी

शक्ति है |ऊर्जा शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियां होती हैं जिनसे ऊर्जा प्रवाहित होती है, और एक सौ चौदह महत्वपूर्ण मिलन बिंदु होते हैं, जहां काफी संख्या में नाड़ियां मिलती हैं और फिर बंट जाती हैं।

क्या रहस्य है कुण्डलिनी शक्ति का?-

04 FACTS;-

1-कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार चक्र के नीचे, सर्प की भांति, साढ़े तीन कुंडली मार कर सोई हुई है |यह सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति जब पहली बार जागती है तो शरीर में भूकंप सा अहसास होता है यद्यपि प्रत्येक साधक के अपने स्वतंत्र निजी अनुभव हो सकते हैं लेकिन शरीर उस समय विचित्र पीड़ा के दौर से गुजरता है- एक ऐसा अनुभव जैसा पहले कभी ना

हुआ हो |निरंतर साधना एवं अभ्यास से जब कुण्डलिनी जागती है तो वह ऊपर की तरफ उठती है | उस समय सुषुम्ना नाड़ी, प्राणवायु के लिए राजपथ बन जाती है | जैसे एक राजा, राजमार्ग से, अपने पूरे ऐश्वर्य के साथ निकलता है, वैसे ही प्राणवायु, सुषुम्ना नाड़ी में सुखपूर्वक बहती है |

2-उस समय चित्त यानि मन निरालम्ब हो जाता है और योगी को किसी भी प्रकार का भय नहीं रह जाता | तंत्रशास्त्रों में सुषुम्ना नाड़ी की बहुत महिमा बखान की गयी है | इसे शून्य पदवी, ब्रह्मरन्ध्र, महापथ, शाम्भवी, मध्यमार्ग आदि नाम दिए गए हैं |योग, प्राणायाम, ध्यान और साधना के माध्यम से कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है और यह शक्ति जागृत होकर सभी चक्रों का भेदन करती है अर्थात चक्रों को जगाती है, जिससे मन स्थिर होता और मन में आध्यात्मिक विचार उत्पन्न होने लगते हैं।''ॐ सत् चित् एकम ब्रह्म ''..यह ब्रह्म मंत्र हीं कुण्डलिनी जागरण का मंत्र है|जागने के बाद, जब कुण्डलिनी शक्ति ऊपर की तरफ उठती है तो सारे चक्र खिल जाते हैं, ब्रह्म ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि, और रूद्र ग्रंथि खुल जाती हैं तथा शरीर में स्थित षट्चक्र पूर्ण विकसित होते हुए खुल जाते हैं |

3-आदि शंकराचार्य के सौन्दर्यलहरी के अनुसार कुण्डलिनी शक्ति का जागरण, ब्रह्मरंध्र में स्थित छह चक्रों का भेदन करके किया जा सकता है |ब्रह्मरंध्र /सहस्रार चक्र मष्तिष्क में पीछे की तरफ़, सबसे ऊपर होता हैं | यहीं पर परात्पर पुरुष, सहस्त्रों पंखुड़ियों वाले कमल पर बैठा है |रंध्र एक संस्कृ‍त शब्द है जिसका मतलब है मार्ग, जैसे कोई छोटा छिद्र या सुरंग। यह शरीर का वह स्थान होता है, जिससे होकर जीवन भ्रूण में प्रवेश करता है।जब बच्चा पैदा होता है तो उसके सिर पर एक नर्म जगह होती है।सिर पर सबसे ऊपर ब्रह्मरंध्र नाम का एक बिंदु होता है।

4-एक अच्छा मेहमान हमेशा मुख्य द्वार से आता है और उसी से वापस जाता है। अगर वह मुख्य द्वार से आकर पिछले दरवाजे से चला जाए तो इसका मतलब है कि वह आपका घर साफ करके गया है! आप भी जब शरीर छोड़ते हैं, तो पूरी जागरूकता के साथ आप चाहे शरीर के किसी भी भाग से जाएं, उसमें कोई बुराई नहीं। लेकिन अगर आप ब्रह्मरंध्र से शरीर छोड़ सकें, तो यह शरीर छोड़ने का सबसे अच्छा तरीका है।जब किसी भ्रूण के अंदर जीव प्रवेश करता है और शिशु बनने की प्रक्रिया में उस भ्रूण को ठीक नहीं पाता है, तो वह उससे बाहर निकल जाता है। इसीलिए एक द्वार खुला रखा जाता है।यह ब्रह्मरंध्र आपको हमेशा चौखट पर तैयार रखता है, यानी जीवन और उसके परे जाने के चौखट पर। एक योगी हमेशा खुद को देहरी पर रखना चाहता है, ताकि वह जब चाहे, पूरी चेतनता में शरीर से बाहर चला जाए।

क्या रहस्य है षट्चक्र का?-

10 FACTS;- 1-शरीर में मौजूद चक्र का सम्बंध शक्ति पुंज अर्थात दिव्य ज्योति से है। देवी-देवताओं के पीछे दिखाई देने वाला तेज प्रकाश ही शक्ति पुंज है। इसकी पुष्टि प्राचीन काल में बनी देवी-देवताओं की मूर्ति व चित्र करती है।यह ज्योति प्रकाश पुंज या आभामंडल कहलाता है। यह प्रकाश उनके तेज का प्रतीक होता है। योग शास्त्रों के अनुसार जिस तरह शरीर में विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म तंत्र या सूक्ष्म कोश होते हैं, उसी तरह मानव शरीर में चक्र होते हैं। शरीर का यह चक्र ही भौतिक शरीर को अभौतिक शरीर से जोड़ता हैं।अभौतिक शरीर वह है, जिसे सीधे महसूस

नहीं किया जा सकता। देवताओं के पीछे दिखाये गए इन आभामंडल का सम्बंध इन चक्रों से है तथा इन्हीं चक्रों के कारण एक साधारण मनुष्य योग क्रिया करके ईश्वर के सूक्ष्म रूप का दर्शन कर पाता हैं। योगाभ्यास के द्वारा इन चक्रों को देखा जा सकता है। इन चक्रों से निकलने वाली तेज रोशनी गोलाकार रूप में ध्यान करने वाले के चारों ओर घूमती रहती है।

2-शरीर में 114 चक्र हैं।इन एक सौ चौदह चक्रों में से दो भौतिक क्षेत्र के बाहर हैं। ज्यादातर इंसानों के लिए ये दोनों बहुत अस्पष्ट होते हैं, जब तक कि वे इसके लिए जरूरी साधना न करें।अगर आपकी भौतिकता से परे कोई आयाम आपके भीतर निरंतर सक्रिय प्रक्रिया बन जाता है, तो कुछ समय बाद आम तौर पर सुप्त रहने वाले ये दो चक्र जाग्रत हो जाते हैं। उनके सक्रिय होने पर आपके सिर पर एक एंटीना बन जाता है जो आपको जीवन का एक खास नजरिया प्रदान करता है!हमारी ऊर्जा प्रणाली में 112 चक्र हैं। इनमें से कुछ चक्र शरीर में एक

ही जगह होते हैं, जबकि कुछ अन्य चक्र गतिशील होते हैं।इन चक्र का हमारे विचारों, भावनाओं पर असर पड़ता है;हमें ये चक्र प्रभावित करते हैं।

3-इन एक सौ बारह चक्रों का इस्तेमाल आपकी परम प्रकृति तक पहुंचने के एक सौ बारह मार्गों के रूप में किया जा सकता है। इसी वजह से आदियोगी ने परम तत्व की प्राप्ति के एक सौ बारह तरीके बताए।अगर आप दोनों समबाहु त्रिकोणों को ऐसे बिंदु तक ले आएं, जहां वे एक-दूसरे को इस तरह काटते हों कि छह समबाहु त्रिकोणों वाला एक तारा बन जाए, तो आपका सिस्टम संतुलित और बहुत ग्रहणशील हो जाता है। आपके पास जितने निष्कर्ष होते हैं, आपके दिमाग और शरीर में उतनी ही अकड़न होती है। जब आपको एहसास होता है कि आप कुछ नहीं जानते, तो आप ग्रहणशील हो जाते हैं।

4-सहज होने के लिए, आपकी ऊर्जा को लचीला होना चाहिए।अगर आप रोज हठ योग करते हैं, तो आप ध्यान देते होंगे कि जिस दिन आपका रवैया अकड़ा हुआ होता है, उस दिन आपका शरीर भी नहीं मुड़ता। जिस दिन आप खुश और दिमागी तौर पर लचीले होते हैं, आपका शरीर भी बेहतर तरीके से मुड़ता है।आपकी चेतनता की प्रकृति आपके जीवन के हर पल, आपके शरीर की हर कोशिका में अभिव्यक्त होती है। यही वजह है कि आजकल दुनिया में बहुत सी बीमारियां हैं, जिन्हें इंसान खुद पैदा करता है। पहले के समय में, लोग वह खाते थे, जो स्थानीय तौर पर उपलब्ध होता था। आजकल इतनी विविधता के बावजूद, बहुत सी बीमारियां हैं। वास्तव में लोगों के पास जितने विकल्प होते हैं, वे उतने ही ज्यादा बीमार पड़ते हैं।

5-चक्र वे ऊर्जा केन्द्र हैं, जिसके माध्यम से अंतरिक्ष ब्रह्माण्ड की ऊर्जा मानव शरीर में प्रवाहित होती है। दैनिक जीवन में ''योग” का अभ्यास इन केन्द्रों को जाग्रत कर सकता है जो सभी में

और हर एक व्यक्ति में विद्यमान है।आपके शरीर में चक्र किस तरह गतिशील हैं कि यह इस पर निर्भर करता है कि आप खुद के साथ क्या करते हैं। चक्रों को गतिशील रखने के लिए कुछ करना जरूरी है क्योंकि चक्रों की गतिशीलता यह तय करती है कि अलग-अलग तरह की जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न परिस्थितियों में आप कितने लचीले और प्रभावी हैं। ज्यादातर इंसानों के साथ समस्या यह होती है कि एक स्थिति में वे अच्छी तरह काम कर पाते हैं मगर दूसरी स्थिति में वे पूरी तरह असफल हो जाते हैं। इसकी वजह यह है कि वे सिर्फ एक खास तरीके से सोच सकते हैं, महसूस कर सकते हैं और काम कर सकते हैं।आपको हर

काम अच्छी तरह करने में सक्षम होना चाहिए। लेकिन अगर आपकी ऊर्जा प्रणाली अकड़ी हुई है और उसमें लचीलापन नहीं है, तो यह नहीं होगा।

6-भौतिक अस्तित्व और ऊर्जा–अस्तित्व की एक खास ज्यामिति है। परमाणु से लेकर ब्रह्मांड तक, दुनिया की हर चीज जिस तरह काम करती है, उसके पीछे ज्यामिति की सटीकता है। ज्यामिति के सबसे मूलभूत और सबसे स्थायी आकारों में से एक है -त्रिकोण। मानव की ऊर्जा-प्रणाली में, दो समबाहु त्रिकोण होते हैं – एक नीचे है जिसका मुख ऊपर की तरफ है और ऊपर है जिसका मुख नीचे की ओर है।आम तौर पर ये दोनों त्रिकोण अनाहत से ठीक ऊपर मिलते हैं। अपने मन और कल्पना के साथ काम करने के लिए जरूरी है कि इन दोनों त्रिकोणों का तालमेल ठीक रहे – कम से कम कुछ सीमा तक तो ठीक रहना जरूरी है। आदर्श तालमेल यह होगा कि दोनों त्रिकोण एक-दूसरे को इस तरह काटें कि छह बिंदुओं वाला एक तारा बने जिसके बाहरी हिस्से में छह समबाहु त्रिकोण हों।

7-अपनी कल्पना की शक्ति को बढ़ाने के लिए आपको ऊपर की ओर मुख वाले त्रिकोण को, जो शरीर की ज्यामिति के अर्थों में बुनियाद है, को ऊपर की तरफ इस तरह उठाना होगा कि इसमें विशुद्धि भी शामिल हो जाए।अगर आपके पास ऐसी कोई साधना नहीं है, तो आप एक आसान तरीका आजमा सकते हैं – एक खास समय तक भूखे रहने से भी यह लाभ मिलता है। विशुद्धि चक्र आपकी कल्पना का आधार है।आम तौर पर जब पेट खाली होता है, तो नीचे वाला त्रिकोण अपने आप ऊपर उठ जाता है। भोजन कर लेने के बाद, वह फिर से नीचे चला जाता है। 8-वैसे तो ‘चक्र‘ का मतलब पहिया या गोलाकार होता है। चूंकि इसका संबंध शरीर में एक आयाम से दूसरे आयाम की ओर गति से है, इसलिए इसे चक्र कहते हैं, पर वास्तव में यह एक त्रिकोण है।आप इन्हें नाड़ियों के संगम या मिलने के स्थान कह सकते हैं। यह संगम हमेशा त्रिकोण की शक्ल में होते हैं।आमतौर पर सभी लोगों में चक्र 3 अवस्था में जागृत रहते हैं। चक्र की पहली अवस्था संतुलन की होती है, परन्तु यह आदर्श स्थिति कम लोगों में पायी जाती है। व्यक्ति यदि अपने जीवन में लगातार किसी एक कार्य को ही करता रहता है, तो उस व्यक्ति में उससे सम्बंधित चक्र का जागरण हो जाता है। परन्तु जिस चक्र से सम्बंधित कोई कार्य नहीं होता वह सोई हुई स्थिति में चला जाता है।प्रत्येक चक्र के भेदन पर शिष्य को विस्मित और चकित कर देने वाली सिद्धियाँ प्राप्त होती जाती हैं |

9-किसी भी आध्यात्मिक यात्रा को हम मूलाधार से सहस्रार की यात्रा कह सकते हैं। यह एक आयाम से दूसरे आयाम में विकास की यात्रा है, इसमें तीव्रता के सात अलग-अलग स्तर होते हैं।आज्ञाचक्र महतत्त्व (The Great Grand Matter) से संचालित है और मन यानि संस्कारों को प्रभावित करने वाला है |आपकी ऊर्जा को मूलाधार से आज्ञा चक्र तक ले जाने के लिए कई तरह की आध्यात्मिक प्रक्रियाएं और साधनाएं हैं, लेकिन आज्ञा से सहस्रार तक जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है।कोई भी एक खास तरीका नहीं है।आपको या तो छलांग लगानी पड़ती है या फिर आपको उस गड्ढे में गिरना पड़ता है, जो अथाह है, जिसका कोई तल नहीं होता। इसे ही ‘ऊपर की ओर गिरना‘ कहते हैं।

10-योग में कहा जाता है कि जब तक आपमें ऊपर की ओर गिरने’ की ललक नहीं है, तब तक आप वहां पहुँच नहीं सकते।लोग अपने मन को छलांग के लिए तैयार करने में लंबे समय तक आज्ञा चक्र पर ही रुके रहते हैं।99.9 फीसदी लोगों को विश्वास की जरूरत पड़ती है,क्योंकि बिना विश्वास कोई भी कूदने को तैयार नहीं होगा। शरीर के मेरुदंड के भीतर,

ब्रह्मनाड़ी में अनेक चक्रों की कल्पना की गयी है |योग शास्त्रों में मनुष्य के अन्दर मौजूद

षट्चक्रों का वर्णन किया गया है।यह चक्र शरीर के अलग-अलग अंगों में स्थित है तथा इनके नाम भी भिन्न है। शरीर के अन्दर यह सात चक्र है-

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चक्रों के नाम>>> सम्बंधित >>> तत्व>>>> प्रतीक चिह्न >>>स्थित>>>लोक>>>देवता>>>प्राप्ति

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1-मूलाधार चक्र;- भौतिक>पृथ्वीतत्व>7 सूंडों वाला एक हाथी>जननेन्द्रिय और गुदा के बीच स्थित>पाताल लोक>ब्रह्मा - शक्ति डाकिनी>Pure Concept

2-स्वाधिष्ठान चक्र;-प्राणाधार>जलतत्व>मगरमच्छ >उपस्थ में स्थित>भूः लोक>विष्णु -शक्ति राकिनी>Faith

3-मणिपूर चक्र;-काम या विद्युत केंद्र>अग्नितत्व,>मेढ़ा >नाभिमंडल में स्थित>भुवः लोक>रूद्र - शक्ति लाकिनी>Devotion

4-अनाहद चक्र;-नैतिक अथवा सौंदयपरक >वायुतत्व,>हिरण>हृदय के पास स्थित>स्वः लोक > रुद्र -काकिनी शक्ति>Love

5-विशुद्धि चक्र;-धार्मिक> आकाशतत्व> एक सफेद हाथी> कंठकूप में स्थित>>महर्लोक>> सदाशिव -शक्ति शाकिनी>Surrender

6-आज्ञा चक्र;- आध्‍यात्‍मिक>>प्रकाशतत्व>>एक श्वेत शिवलिंगम् /शुद्ध मानव और दैवीय गुण>भ्रमध्य में स्थित >>जनःलोक>>ज्ञानदाता शिव -शक्ति हाकिनी >Solution

7-बिन्दु चक्र; - चंद्र केन्द्र> शिवतत्व>दैवीय गुण> सिर के शीर्ष भाग पर केशों के गुच्छे के नीचे स्थित> तपःलोक

8-सहस्त्रार चक्र;- दिव्‍य>>शिवतत्व>>दैवीय>>मस्तिष्क के शिखर पर स्थित/"ब्रह्म रन्ध्र” में स्थित

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चक्रों का हमारे अस्तित्व के तीन स्तरों पर प्रभाव;-

02 FACTS;-

1-चक्रों का हमारे अस्तित्व के कई स्तरों पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है।पहला स्तर शारीरिक है। शरीर में जिस स्थान पर चक्र स्थित है वहां ग्रन्थियां, अवयव और नाडिय़ां हैं, जिनको श्वास व्यायामों, ध्यान, आसनों और मंत्रों से सक्रिय किया जा सकता है।दूसरा स्तर नक्षत्रीय स्तर है। चक्रों का स्पंदन और ऊर्जा प्रवाह हमारी चेतना और शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करते हैं। गलत भोजन, बुरी संगत और नकारात्मक विचार चक्रों की ऊर्जा को कम या बाधित कर देते हैं, जिससे चेतना अव्यवस्थित और शरीर बीमार हो सकता है।अपनी स्वाभाविक अवस्था में, चक्रों की ऊर्जा एक घड़ी की दिशा में चलती है। थोड़े से अभ्यास से हम चक्रों की प्रभा को अपने हाथ की हथेली से अनुभव कर सकते हैं और घूमने की दिशा तय कर सकते हैं।हम

चक्रों के घुमाव को शरीर के उस हिस्से पर 1 सेंटीमीटर ऊपर हाथ रखकर,जहां वह चक्र स्थित है, प्रभावित कर सकते हैं और हाथ को घड़ी की दिशा में कुछ मिनटों के लिए घुमा सकते हैं।

2-तीसरा महत्वपूर्ण स्तर आध्यात्मिक स्तर है जिससे नैसर्गिक ज्ञान, बुद्धि और जानकारी प्राप्त होती है। वह ऊर्जा जो सभी चक्रों को जाग्रत करती है कुंडलिनी कहलाती है। "कुंडल" का अर्थ है सांप, इसीलिए यह ऊर्जा 'सर्पशक्ति' के नाम से भी जानी जाती है। कुंडलिनी का जाग्रत होना चेतना जाग्रति की ही एक प्रक्रिया है। चेतना का फैलाव होता है, जागरूकता और स्पष्टता उच्चकोटिक होती है और जीवन ऊर्जा बढ़ जाती है। कुंडलिनी जाग्रत होने का अर्थ अज्ञान, भ्रम एवं अस्थिर विचारों से मुक्ति और बुद्धि, आत्मसंयम और आत्म अनुशासन का विकास है।सामान्य मानव-अस्तित्व से संबद्ध पांच चक्र रीढ़ के साथ स्थित हैं। तीन दिव्य चक्र सिर में स्थित हैं। इनका स्पंदन और ऊर्जा हमें आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर ले जाती है।

सातों चक्रों का वर्णन;-

07 FACTS;-

1-मूलाधार चक्र:-

04 POINTS;-

1-मूलाधार का अर्थ है...मूल=जड़,आधार = नींव।शरीर के अन्दर जिस दिव्य ऊर्जा शक्ति की बात की गई है, उस ऊर्जा शक्ति को कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं। यह कुण्डलिनी शक्ति शरीर में जहां सोई हुई अवस्था में रहती है उसे मूलाधार चक्र कहते हैं। मूलाधार चक्र जननेन्द्रिय और गुदा के बीच स्थित है। मनुष्य के अन्दर इस ऊर्जा शक्ति की तुलना ब्रह्माण्ड की निर्माण शक्ति से की जाती है। यही चक्र पूरे विश्व का मूल है। यह शक्ति जीवन की उत्पत्ति, पालन और नाश का कारण है। इसका रंग लाल होता है तथा इसमें 4 पंखुड़ियों वाले कमल का अनुभव

होता है जो पृथ्वी तत्व का बोधक है।सौन्दर्यलहरी में आदि शंकराचार्य कहते हैं कि ''मूलाधार चक्र में स्थित कुण्डलिनी शक्ति को सावित्री भी कहते हैं | इसकी आराधना करने वाला यानि इस चक्र का भेदन करने वाला साधक ऐश्वर्यवान बनता है क्योंकि इस अखिल विश्व-ब्रह्माण्ड का वैभव इसी शक्ति-युग्म के हाथ सन्निहित है'' |

2-मनुष्य के अन्दर पृथ्वी के सभी तत्व मौजूद है। चतुर्भुज का भौतिक जीवन में बड़ा महत्व है, चक्र में स्थित यह 4 पंखुड़ियां वाला कमल पृथ्वी की चार दिशाओं की ओर संकेत करता है। मूलाधार चक्र का आकार 4 पंखुड़ियों वाला है अर्थात इस पर स्थित 4 नाड़ियां आपस में मिलकर इसके आकार की रचना करती है। यहां 4 प्रकार की ध्वनियां- लं ,वं, शं, सं जैसी होती रहती है।इस चक्र का तत्त्व पृथ्वी है,तन्मात्रा 'गंध' है,अतः बीज 'लं' होगा। ब्रह्मा अपनी शक्ति डाकिनी के साथ विराजमान हैं।भूः इसका लोक है। यह आवाज (ध्वनि) मस्तिष्क एवं हृदय के भागों को कंपित करती रहती है। शरीर का स्वास्थ्य इन्ही ध्वनियों पर निर्भर करता है। मूलाधार चक्र रस, रूप, गन्ध, स्पर्श, भावों व शब्दों का मेल है।मूलाधार चक्र का प्रतिनिधित्व करने वाला पशु 7 सूंडों वाला एक हाथी है। हाथी बुद्धि का प्रतीक है। 7 सूंडें पृथ्वी के 7 खजानों (सप्तधातु) की प्रतीक हैं। मूलाधार चक्र का तत्त्व पृथ्वी है, जो हमारी आधार और 'माता',है; हमें ऊर्जा और भोजन उपलब्ध कराती है।

3-मूलाधार चक्र पशु और मानव चेतना के मध्य सीमा निर्धारित करता है। इसका संबंध अचेतन मन से है, जहां पिछले जीवनों के कर्म और अनुभव संग्रहीत होते हैं। अत: कर्म सिद्धान्त के अनुसार यह चक्र हमारे भावी प्रारब्ध का मार्ग निर्धारित करता है। यह चक्र हमारे

व्यक्तित्व के विकास की नींव भी है।मूलाधार चक्र की सकारात्मक उपलब्धियां स्फूर्ति, उत्साह और विकास हैं। नकारात्मक गुण हैं सुस्ती, निष्क्रियता, आत्म-केन्द्रित (स्वार्थी) और अपनी

शारीरिक इच्छाओं द्वारा प्रभावित होना है।इस चक्र में शिव पशुपति महादेव के रूप में ध्यानावस्थित है - जिसका अर्थ है कि निम्नस्तरीय गुणों पर नियंत्रण कर लिया गया है।मूलाधार चक्र के सांकेतिक चित्र में चार पंखुडिय़ों वाला एक कमल है। ये चारों मन के चार कार्यों : मानस, बुद्धि, चित्त और अहंकार का प्रतिनिधित्व करते हैं -यह सभी इस चक्र में उत्पन्न होते हैं।

4-जीवन चेतना है और चेतना उत्क्रांति का प्रयास करती है। मूलाधार चक्र के चिह्न की ऊर्जा और ऊपर उठने की गति दोनों ही विशेष होती हैं।चक्र का रंग लाल है जो शक्ति का रंग है। शक्ति का अर्थ है ऊर्जा, गति, जाग्रति और विकास।मूलाधार चक्र का एक दूसरा प्रतीक चिह्न उल्टा त्रिकोण है, जिसके दो अर्थ हैं। एक अर्थ बताता है कि ब्रह्माण्ड की ऊर्जा खिंच रही है और नीचे की ओर इस तरह आ रही जैसे चिमनी में जा रही हो। दूसरा अर्थ चेतना के ऊर्ध्व प्रसार का द्योतक है। त्रिकोण का नीचे कीओर इंगित करने वाला बिन्दु प्रारंभिक बिन्दु है, बीज है, और त्रिकोण के ऊपर की ओर जाने वाली भुजाएं मानव चेतना की ओर चेतना के प्रगटीकरण के द्योतक हैं।यह अपान वायु का स्थान है तथा मल, मूत्र, वीर्य, प्रसव आदि इसी के अधीन है। मूलाधार चक्र कुण्डलिनी शक्ति, परमचैतन्य शक्ति तथा जीवन शक्ति का पीठ स्थान है। यह मनुष्य की दिव्य शक्ति का विकास, मानसिक शक्ति का विकास और चैतन्यता का मूल है।

2-स्वाधिष्ठान चक्र:-

03 POINTS;-

1-स्वाधिष्ठान का अर्थ है..स्व = आत्मास्थान=जगह ।मूलाधार चक्र के ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र आता है | स्वाधिष्ठान चक्र में रूद्र ही अग्नि बनकर निवास करते हैं |नीचे से दूसरे नम्बर पर है स्वाधिष्ठान चक्र(पद्म),जो निचले चक्र से कोई दो अंगुल ऊपर,थोड़ा टेढ़ा होकर, लगभग पेड़ू के पास स्थित है। इस चक्र का भेदन करने से साधक पञ्च-विद्याओं में निष्णात हो जाता है|वो अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीर में व्याप्त समस्त दैहिक और दैविक दोषों को नष्ट करने में सक्षम

हो जाता है |द्वितीय चक्र उपस्थ में स्वाधिष्ठान चक्र के रूप में स्थित है। इसमें 6 पंखुड़ियों वाला कमल होता है।यह कमल 6 पंखुड़ियों वाला और 6 योग नाड़ियों का मिलन स्थान है।इस चक्र का प्रभाव प्रजनन, कुटुम्ब कल्पना आदि से है। स्वाधिष्ठान चक्र के जल तत्व में मूलाधार का पृथ्वी तत्व विलीन होने से कुटुम्बी और मित्रों से सम्बंध बनाने में कल्पना का उदय होने लगता है। इस चक्र के कारण मन में भावना जड़ पकड़ने लगती है।

2- सिन्दूरी आभा वाले छः पंखुड़ियों पर क्रमशः प्रादक्षिण क्रम से बं,भं,मं,यं,रं,लं वर्ण अंकित हैं। इस चक्र का तत्त्व जल है,तन्मात्रा रस है,अतः स्वाभाविक है कि बीज वं होगा। शरीर में सर्वव्यापी व्यानवायु का मुख्य अधिष्ठान है यह। रस तन्मात्रा के कारण रसना इसकी ज्ञानेन्द्रिय है,और जलतत्व सम्बन्धि मूत्रादि त्याग-शक्ति उपस्थ इसका स्थान माना जाता है। भुवः इसका लोक है। मकरवाहन पर वरुण विराजमान हैं। साथ ही विष्णु अपनी शक्ति राकिनी के साथ हैं। अर्द्धचन्द्राकार स्वेत यन्त्र है,जिस पर ध्यान सिद्ध होने से जिह्वा पर साक्षात् सरस्वती का वास हो जाता है,साथ ही सृष्टि,पालन,संहार की शक्ति प्राप्त होती है। यानी कुछ भी अवंच नहीं रहता।

3-यह चक्र भी अपान वायु के अधीन होता है। इस चक्र वाले स्थान से ही प्रजनन क्रिया सम्पन्न होती है तथा इसका सम्बंध सीधे चन्द्रमा से होता है। समुद्रों का ज्वार-भाटा चन्द्रमा से नियंत्रित होता है। मनुष्य के शरीर का तीन चौथाई भाग जल है। मन मनुष्य की भावनाओं के वेग को प्रभावित करता है। स्त्रियों में मासिकधर्म आदि चन्द्रमा से सम्बंधित है। उपरोक्त कार्यो का नियंत्रण स्वाधिष्ठान चक्र से होता है। यह सभी क्रियाएं स्वाधिष्ठान चक्र के द्वारा ही सम्पन्न होती है। इस चक्र के द्वारा मनुष्य के आंतरिक और बाहरी संसार में समानता स्थापित करने की कोशिश रहती है। इसी चक्र के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान करने से मन शांत होता है तथा धारणा व ध्यान की शक्ति प्राप्त होती है। इससे आवाज मधुर बनती है।

4-स्वाधिष्ठान चक्र हमारे विकास के एक-दूसरे स्तर का संकेतक है। चेतना की शुद्ध, मानव चेतना की ओर उत्क्रांति का प्रारंभ स्वाधिष्ठान चक्र में होता है। यह अवचेतन मन का वह स्थान है जहां हमारे अस्तित्व के प्रारंभ में गर्भ से सभी जीवन अनुभव और परछाइयां संग्रहीत रहती हैं। मूलाधार चक्र हमारे कर्मों का भंडारग्रह है तथापि इसको स्वाधिष्ठान चक्र में सक्रिय किया

जाता है।स्वाधिष्ठान चक्र की जाग्रति स्पष्टता और व्यक्तित्व में विकास लाती है। किन्तु ऐसा हो, इससे पहले हमें अपनी चेतना को नकारात्मक गुणों से शुद्ध कर लेना चाहिए। स्वाधिष्ठान चक्र के प्रतीकात्मक चित्र 6 पंखुडिय़ों वाला एक कमल है। ये हमारे उन नकारात्मक गुणों को प्रकट करते हैं, जिन पर विजय प्राप्त करनी है - क्रोध, घृणा, वैमनस्य, क्रूरता, अभिलाषा और गर्व। अन्य प्रमुख गुण जो हमारे विकास को रोकते हैं, वे हैं आलस्य, भय, संदेह, बदला, ईर्ष्या और लोभ।

5-स्वाधिष्ठान चक्र का प्रतीक पशु मगर (मगरमच्छ) है। यह सुस्ती, भावहीनता और खतरे का प्रतीक है जो इस चक्र में छिपे हैं।मगरमच्छ की भांति इसकी निम्न और तीव्र गति है। स्वाधिष्ठान चक्र का तत्त्व है जल, यह भी छुपे हुए खतरे का प्रतीक है। जल कोमल और लचीला है, किन्तु यह जब नियंत्रण से बाहर हो जाता है तो भयंकर शक्तिशाली भी है। स्वाधिष्ठान चक्र के साथ यही विचित्रता है। जब अवचेतन से चेतनावस्था की ओर नकारात्मक भावनाएं उत्पन्न होती हैं, तब हम पूर्णरूप से संतुलन खो सकते हैं। स्वाधिष्ठान का रंग संतरी, सूर्योदय का रंग है जो उदीयमान चेतना का प्रतीक है। संतरी रंग सक्रियता और शुद्धता का रंग है। यह सकारात्मक गुणों का प्रतीक है और इस चक्र में प्रसन्नता, निष्ठा, आत्मविश्वास और ऊर्जा जैसे गुण पैदा होते हैं।

3-मणिपूरक चक्र:-

03 POINTS;-

1-स्वाधिष्ठान चक्र के ऊपर मणिपूरक चक्र आता है |मणि और पुर दो शब्दों से इसका नामकरण हुआ है।मणिपूरक का अर्थ है..मणि = गहना/पुर = स्थान, शहर ।जब हमारी चेतना मणिपुर चक्र में पहुंच जाती है तब हम स्वाधिष्ठान के निषेधात्मक पक्षों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। मणिपुर चक्र में अनेक बहुमूल्य मणियां हैं जैसे स्पष्टता, आत्मविश्वास, आनन्द, आत्म भरोसा, ज्ञान, बुद्धि और सही निर्णय लेने की योग्यता जैसे गुण।मणिपूरक चक्र की साधना करते हुए इस चक्र का भेदन करने वाला साधक उस दिव्य शक्ति के साथ अपना सम्बन्ध बना लेता है जो उसकी मनस्विता, तेजस्विता और समर्थता की दिव्य ज्योति को विश्व आकाश में बिजली की तरह चमकाती है अर्थात प्रकाशित करती है | सबसे बड़ी बात इस चक्र का भेदन करने पर साधक काम-बीज का रहस्य जान लेता है और काम-बीज का रहस्य जान लेने से उसके लिए सांसारिक सुखों की कमी नहीं रहती |

2-नीचे से तीसरा,यानी नाभिमंडल के मूल में मणिपूर नामक तीसरा पद्म है,जिसकी आकृति पीले रंग के प्रकाश से आलोकित दस पंखुड़ियों वाले कमलपुष्प सदृश है। चक्रसाधना में इसका विशेष महत्त्व है। दस दलों पर क्रमशः प्रादक्षिण क्रम से डं,ढं, णं,तं,थं,दं,धं,नं,पं,फं,- ये वर्ण विराजते हैं। यानी इन वर्णों की ध्वनियां तरंगित होते रहती है। इस पद्म पर रक्तवर्णी अधोत्रिकोणयन्त्र है,जिसके मध्यमें अग्नितत्त्व का बीज रँ स्थित है,जिसका वाहन मेष यानी भेड़ है।यहीं अग्निदेव विराजते हैं।साथ ही रूद्र अपनी शक्ति लाकिनी के साथ हैं।

3-समानवायु का यह स्थान है। इसकी तन्मात्रा रुप है ,यानि कि ज्ञानेन्द्रिय हैं 'नेत्र' और पाद(पैर) हैं कर्मेन्द्रिय। स्वः इसका लोक है।समान वायु का कार्य पाचन संस्थान द्वारा उत्पन्न रक्त एवं रसादि को पूरे शरीर के विभिन्न अवयवों में समान रूप से वितरण करना है। इस प्रकार रस अथवा भोजन का सार अंश सम्पूर्ण शरीर में पहुंचता है। यह शरीर में नाभि से हृदय तक मौजूद है तथा पाचनसंस्थान इसी के द्वारा नियंत्रित होता है। पाचन संस्थान का स्वस्थ या खराब होना समान वायु पर निर्भर करता है। इस चक्र पर ध्यान करने से साधक को अपने शरीर का भौतिक ज्ञान होता है। इससे व्यक्ति की भावनाएं शांत होती हैं।

4-जब हमारी चेतना मणिपुर चक्र में पहुंच जाती है तब हम स्वाधिष्ठान के निषेधात्मक पक्षों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। मणिपुर चक्र में अनेक बहुमूल्य मणियां हैं जैसे स्पष्टता, आत्मविश्वास, आनन्द, आत्म भरोसा, ज्ञान, बुद्धि और सही निर्णय लेने की योग्यता जैसे गुण।

मणिपुर चक्र का रंग पीला है। मणिपुर का प्रतिनिधित्व करने वाला पशु मेढ़ा (मेष)है। इसका अनुरूप तत्त्व अग्नि है, इसलिए यह 'अग्नि' या 'सूर्य केन्द्र' के नाम से भी जाना जाता है। शरीर में अग्नि तत्त्व सौर मंडल में गर्मी के समान ही प्रकट होता है। मणिपुर चक्र स्फूर्ति का केन्द्र है। यह हमारे स्वास्थ्य को सुदृढ़ और पुष्ट करने के लिए हमारी ऊर्जा नियंत्रित करता है। इस चक्र का प्रभाव एक चुंबक की भांति होता है, जो ब्रह्माण्ड से प्राण को अपनी ओर आकर्षित करता है।

5-पाचक अग्नि के स्थान के रूप में, यह चक्र अग्न्याशय और पाचक अवयवों की प्रक्रिया को विनियमित करता है। इस केन्द्र में अवरोध कई स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकते हैं, जैसे पाचन में खराबियां, परिसंचारी रोग, मधुमेह और रक्तचाप में उतार-चढ़ाव। तथापि, एक दृढ़ और सक्रिय मणिपुर चक्र अच्छे स्वास्थ्य में बहुत सहायक होता है और बहुत सी बीमारियों को रोकने में हमारी मदद करता है। जब इस चक्र की ऊर्जा निर्बाध प्रवाहित होती है तो प्रभाव एक शक्तिपुंज के समान, निरन्तर स्फूर्ति प्रदान करने वाला होता है - संतुलन और शक्ति

बनाए रखता है।मणिपुर चक्र के प्रतीक चित्र में दस पंखुडिय़ों वाला एक कमल है। यह दस प्राणों, प्रमुख शक्तियों का प्रतीक है ...जो मानव शरीर की सभी प्रक्रियाओं का नियंत्रण और पोषण करती है। मणिपुर का एक अतिरिक्त प्रतीक त्रिभुज है, जिसका शीर्ष बिन्दु नीचे की ओर है। यह ऊर्जा के फैलाव, उद्गम और विकास का द्योतक है। मणिपुर चक्र के सक्रिय होने से मनुष्य नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्त होता है और उसकी स्फूर्ति में शुद्धता और शक्ति आती है।

4-अनाहत चक्र:-

05 POINTS;-

1-अनाहत का अर्थ है.. अनाहत नाद = शाश्वत ध्वनि ॐ ध्वनि ।मणिपूरक चक्र के बाद अनाहत चक्र आता है |अन+आहत यानी बिना किसी वाह्य आघात के स्वतः ध्वनित होना।यह स्थान भक्ति रसामृत का परमस्रोत,परमधाम है।अनाहत चक्र को भेदने से साधक में अनुचित का त्याग और उचित को ग्रहण कर सकने की स्वाभाविक प्रवृत्ति का विकास हो जाता है | इस प्रकार से वह हंस जैसा धवल और ब्राह्मी शक्ति का वाहन बन सकने की पात्रता प्राप्त करता हुआ अठारह विद्याओं में निपुण एवं निष्णात बन जाता है |हृदय के पास स्थित क्षेत्र हृदयप्रदेश में ‘ धानी रंग का कमल होता है जिसमें 12 पंखुड़ियां होती है।इस स्थान पर 12 नाड़ियां मिलती है।

2- अनाहत चक्र में 12 ध्वनियां निकलती है जो कं, खं, गं, धं, डं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं होती

रहती है।षट्कोणाकृति यंत्र के मध्य में वायुबीज यँ रचित है, जिसका वाहन हिरण है। अनाहत चक्र का प्रतीक पशु हिरण है जो अत्यधिक ध्यान देने और चौकन्नेपन का हमें स्मरण कराता है।प्राणवायु का मुख्य केन्द्र है यह चक्र। 'त्वचा' ज्ञानेन्द्रिय है, और 'हाथ' इसका कर्मेन्द्रिय,तथा महर्लोक है।यहां दिव्य ऊँकार की ध्वनि सदा गूंजती है ।साक्षात् ईशानरुद्र अपनी त्रिनेत्र चतुर्भुजी काकिनी शक्ति के साथ यहां विराजते रहते हैं।

3-यह प्राणवायु का स्थान है तथा यहीं से वायु नासिका द्वारा अन्दर व बाहर होती रहती है। प्राणवायु शरीर की मुख्य क्रिया का सम्पदन करता है जैसे- वायु को सभी अंगों में पहुंचाना, अन्न-जल को पचाना, उसका रस बनाकर सभी अंगों में प्रवाहित करना, वीर्य बनाना, पसीने व मूत्र के द्वारा पानी को बाहर निकालना प्राणवायु का कार्य है। यह चक्र हृदय समेत नाक के ऊपरी भाग में मौजूद है तथा ऊपर की इन्द्रियों का काम उसके अधीन है। यह चक्र वायु तत्व प्रधान है। प्राणवायु जीवन देने वाली सांस है। प्राण सम्पूर्ण शरीर में प्रसारित होकर शरीर को जीवनी शक्ति देता है। अनाहत चक्र पर ध्यान करने से मनुष्य, समाज और स्वयं के वातावरण में सुसंगति एवं संतुलन की स्थापना करता है। यहां पर ध्यान करने से साधक को सभी शास्त्रों का ज्ञान होता है तथा वाक्पटु, सृष्टि स्थिति संहारक, ज्ञानियों में श्रेष्ठ, काव्यामृत रस के आस्वादन में निपुण योगी तथा अनेक गुणों से युक्त होता है।

4-वायु प्रतीक है-स्वतंत्रता और फैलाव का। इसका अर्थ है कि इस चक्र में हमारी चेतना अनंत

तक फैल सकती है।अनाहत चक्र आत्मा की पीठ (स्थान) है। अनाहत चक्र के प्रतीक चित्र में बारह पंखुडिय़ों का एक कमल है। यह हृदय के दैवीय गुणों जैसे परमानंद, शांति, सुव्यवस्था, प्रेम, संज्ञान, स्पष्टता, शुद्धता, एकता, अनुकंपा, दयालुता, क्षमाभाव और सुनिश्चिय का प्रतीक है। तथापि, हृदय केन्द्र भावनाओं और मनोभावों का केन्द्र भी है। इसके प्रतीक छवि में दो तारक आकार के ऊपर से ढाले गए त्रिकोण हैं। एक त्रिकोण का शीर्ष ऊपर की ओर संकेत करता है और दूसरा नीचे की ओर। जब अनाहत चक्र की ऊर्जा आध्यात्मिक चेतना की ओर प्रवाहित होती है, तब हमारी भावनाएं भक्ति, शुद्ध, ईश्वर प्रेम और निष्ठा प्रकट करती है।

5- यदि हमारी चेतना सांसारिक कामनाओं के क्षेत्र में डूब जाती है, तब हमारी भावनाएं भ्रमित और असंतुलित हो जाती हैं। तब होता यह है कि इच्छा, द्वेष-जलन, उदासीनता और हताशा

भाव हमारे ऊपर छा जाते हैं।अनाहत, ध्वनि (नाद) की पीठ है। इस चक्र पर एकाग्रता व्यक्ति की प्रतिभा को लेखक या कवि के रूप में विकसित कर सकती है। अनाहत चक्र से उदय होने वाली दूसरी शक्ति संकल्प शक्ति है जो इच्छा पूर्ति की शक्ति है। जब आप किसी इच्छा की पूर्ति करना चाहते हैं, तब अपने हृदय में इसे एकाग्रचित्त करें। आपका अनाहत चक्र जितना अधिक शुद्ध होगा उतनी ही शीघ्रता से आपकी इच्छा पूरी होगी।

5-विशुद्ध चक्र: -

05 POINTS;-

1-विशुद्ध का अर्थ है.. विष = जहर, अशुद्धता/शुद्धि = अवशिष्ट निकालना ।विशुद्ध चक्र के बारे में आदि शंकराचार्य कहते हैं कि ''विशुद्ध चक्र में स्वच्छ स्फटिक जैसे शिव के साथ उनकी कार्य शक्ति के रूप में निवास करने वाली तुम महाशक्ति को नमस्कार है | यह संसार तुम्हारी ही ज्योति से, अज्ञानरूपी अंधकार से छुटकारा पा कर आनंदित होता है ''| इस चक्र का भेदन करने वाले साधक के ह्रदय में निरंतर आनंद और उल्लास की अनुभूति होती रहती है मानो उसने परम आनंद की प्राप्ति कर ली हो | ऐसे व्यक्ति का केवल सामीप्य हीं आपको प्राप्त हो जाय तो हमेशा उसी के सानिध्य की इच्छा बनी रहेगी |यह चक्र कंठ में

स्थित होता है जिसका रंग समुद्री नीला होता है और इसे विशुद्ध चक्र कहते हैं। यहां 16 पंखुड़ियों वाला कमल का फूल अनुभव होता है क्योंकि यहां 16 नाड़ियां आपस में मिलती है तथा इसके मिलने से ही कमल की आकृति बनती है। इस चक्र में ´अ´ से ´अ:´ तक 16 ध्वनियां निकलती रहती है।

2-यही वह स्थान है,जहां शिव का हलाहल ठहर गया,और नीलकंठ विभूषित हो गये। दरअसल विशुद्धि पर आकर अशुद्धि नही रहती है! कण्ठस्थान इसका क्षेत्र है। चूंकि इसका सम्बन्ध विशुद्धिकरण से है,इस कारण यह एक अति चमत्कारिक केन्द्र है । योगीगण कहते हैं कि यहाँ सदा अमृतक्षरण होते रहता है ।विष को भी अमृत में बदल देने की क्षमता है इसकी। धूम्रवर्णी प्रकाश से उज्ज्वल सोलह पंखुड़ियों वाले कमल पर क्रमशः सभी स्वरवर्ण - अं,आं,इं,ईं,उं.ऊं,ऋं,ॠ,लृ,ॡ,एं, ऐं,ओं,औ,अं,अः विराज रहे हैं। आकाश इसका तत्त्व है और बीज 'हं',जिसका वाहन हस्ति है।विशुद्धि चक्र का प्रतीक पशु एक सफेद हाथी है। हमें इसके चित्र में एक चन्द्रमा की छवि भी दिखती है जो मन का प्रतीक है। हाथी जिस भांति घूम-घूम कर चलता है,उसी भांति इसकी गति है। 'शब्द' इसका गुण यानी तन्मात्रा है। उदानवायु का मुख्य स्थान कहा गया है इसे। श्रवणशक्ति (श्रोत्र) ज्ञानेन्द्रिय है,और वाक् कर्मेन्द्रिय। जनःलोक है। पञ्चमुख सदाशिव अपनी चतुर्भुजा शक्ति शाकिनी के साथ विराजते हैं यहां। पूर्णचन्द्र सदृश गोलाकार आकाशमंडल इसका यन्त्र है। इसपर साधना करने से कवित्वशक्ति के साथ-साथ महाज्ञानी,रोग-शोगहीन,दीर्घजीवन लब्ध होता है।

3-इस चक्र का ध्यान करने पर मनुष्य रोग, दोष, भय, चिंता, शोक आदि से दूर होकर लम्बी आयु को प्राप्त करता है और उसके अंदर दिव्य दृष्टि, दिव्य ज्ञान तथा समाज के लिए कल्याणकारी भावना पैदा होती है। यह चक्र शरीर निर्माण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह चक्र आकाश तत्व प्रधान है और शरीर जिन 5 तत्वों से मिलकर बनता है, उसमें एक तत्व आकाश भी होता है। आकाश तत्व शून्य है तथा इसमें अणु का कोई समावेश नहीं है। मानव जीवन में प्राणशक्ति को बढ़ाने के लिए आकाश तत्व का अधिक महत्व है।यह तत्व मस्तिष्क के लिए आवश्यक है और इसका नाम विशुद्ध रखने के कारण यह है कि इस तत्व पर मन को एकाग्र करने से मन आकाश के समान शून्य हो जाता है।

4-इस चक्र में हमारी चेतना पांचवें स्तर पर पहुंच जाती है।इसका समानरूप तत्त्व आकाश (अंतरिक्ष) है। हम इसका अनुवाद 'ईश्वर' (लोकोत्तर) भी कर सकते हैं, इसका अभिप्राय यह है कि यह स्थान ऊर्जा से भरा रहना चाहिए। विशुद्धि चक्र उदान प्राण का प्रारंभिक बिन्दु है। श्वसन के समय शरीर के विषैले पदार्थों को शुद्ध करना इस प्राण की प्रक्रिया है।शुद्धिकरण न केवल शारीरिक स्तर पर ही होता है अपितु मनोभाव और मन के स्तर पर भी होता है। जीवन में हमने जिन समस्याओं और दुखद अनुभवों को 'निगल लिया' और भीतर दबा लिया, वे तब तक हमारे अवचेतन मन में बने रहते हैं, जब तक कि हम उनका सामना नहीं करते और बुद्धि

से उनका समाधान नहीं कर देते।ध्यान में जब व्यक्ति की चेतना आकाश में समाहित हो जाती है, हमें ज्ञान और बुद्धि प्राप्त होती है।

5-विशुद्धि चक्र प्रसन्नता की अनगिनत भावनाओं और स्वतंत्रता को दर्शाता है जो हमारी योग्यता और कुशलता को प्रफुल्लित करता है। विकास के इस स्तर के साथ, एक स्पष्ट वाणी, गायन और भाषण की प्रतिभा के साथ-साथ एक संतुलित और शांत विचार भी होते हैं।

जब तक यह चक्र पूर्ण विकसित नहीं हो जाता, कुछ खास कठिनाइयां अनुभव की जा सकती हैं। विशुद्धि चक्र में रुकावट चिन्ता की भावनाएं, स्वतंत्रता का अभाव, बंधन, टेंटुए और कंठ की समस्याएं उत्पन्न करता है। कुछ शारीरिक कठिनाइयों, जैसे सूजन और वाणी में रुकावट,

का भी सामना करना पड़ सकता है।विशुद्धि चक्र के प्रतीक चित्र में सोलह पंखुडिय़ों वाला एक कमल है। ये उन सोलह शक्तिशाली कलाओं (योग्यताओं) का प्रतीक है, जिनसे एक मानव विकास कर सकता है। चूंकि विशुद्धि चक्र ध्वनि का केन्द्र है, संख्या सोलह संस्कृत के सोलह स्वरों की भी प्रतीक है। इस केन्द्र में वाक्सिद्धि अनुभव की जा सकती है, जो एक ऐसी असाधारण योग्यता है कि व्यक्ति जो भी बोले वह सत्य सिद्ध हो जाए।

6-आज्ञा चक्र:-

05 POINTS;-

1-आज्ञा का अर्थ है.. आज्ञा =आदेश, ज्ञान।ब्रह्मरंध्र में स्थित पंचों चक्रों का भेदन करता हुआ साधक जब छठें चक्र यानी आज्ञा चक्र का भेदन करता है तो उसकी दिव्य दृष्टि जागृत हो जाती है |शंकर जी की तरह कामदेव को जला देने में समर्थ अग्नि रूप तीसरा नेत्र भृकुटी स्थान में स्थित आज्ञा चक्र ही तो है | दिव्य ज्ञान की समस्त भूमिकाएं इसी केंद्र से उपजती हैं | अधोस्थान में जननेंद्रिय मूल में पड़ी हुई इस महाशक्ति को उबार कर जो इस आज्ञाचक्र के शीर्ष स्थान तक पहुंचा देता है, वह साधक धन्य हो जाता है |

2-आज्ञा चक्र दोनों भौंहों के बीच स्थित होता है। इस चक्र में 2 पंखुड़ियों वाले कमल का फूल का अनुभव होता है तथा यह सफ़ेद रंग का होता है। इस चक्र में 2 नाड़ियां मिलकर कमल की आकृति बनाती है। यहां 2 ध्वनियां निकलती रहती है।आज्ञाचक्र पर दो दलों वाला कमल है, जिस पर 'हं' और 'क्षं 'विराजित हैं। तपःलोक है इसका। लिंगाकार यन्त्र है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस स्थान पर पिनियल और पिट्यूटरी 2 ग्रंथि मिलती है। योग शास्त्र में इस स्थान का विशेष महत्व है।यह एक अति प्रधान प्रवेशद्वार भी है।यहां ज्ञानदाता शिव अपनी शक्ति हाकिनी के साथ विराजते हैं।इस चक्र पर ध्यान करने से सम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता आती है। मूलाधार से ´इड़ा´, ´पिंगला´ और सुषुम्ना अलग-अलग प्रवाहित होते हुए इसी स्थान पर मिलती है। इसलिए योग में इस चक्र को त्रिवेणी भी कहा गया है।

3-´इड़ा´ नाड़ी को गंगा और ´पिंगला´ नाड़ी को यमुना और इन दोनों नाड़ियों के बीच बहने वाली सुषुम्ना नाड़ी को सरस्वती कहते हैं। इन तीनों नाड़ियों को जहां मिलन होता है, उसे युक्तत्रिवेणी भी कहते हैं। अपने मन को इस त्रिवेणी में जो स्नान कराता है अर्थात इस चक्र पर ध्यान करता है, उसके सभी पाप नष्ट होते हैं।इसका ही एक नाम शिवनेत्र भी है, या कहें तीसरा नेत्र।आज्ञा चक्र मन और बुद्धि के मिलन स्थान है।यह ऊर्ध्व शीर्ष बिन्दु ही मन का स्थान है। सुषुम्ना मार्ग से आती हुई कुण्डलिनी शक्ति का अनुभव योगी को यहीं आज्ञा चक्र में होता है। योगाभ्यास व सहायता से साधक कुण्डलिनी शक्ति के आज्ञा चक्र में प्रवेश करता है और फिर वह कुण्डलिनी शक्ति को सहस्त्रार चक्र में विलीन कराकर दिव्य ज्ञान व परमात्मा तत्व को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त करता है।

4-आज्ञा चक्र का सफेद रंग ;इसका तत्व मन का तत्व, अनुपद तत्त्व है। इसका चिह्न एक श्वेत शिवलिंगम्, सृजनात्मक चेतना का प्रतीक है। इसमें और बाद के सभी चक्रों में कोई पशु चिह्न नहीं है। इस स्तर पर केवल शुद्ध मानव और दैवीय गुण होते हैं।आज्ञा चक्र के प्रतीक चित्र

में दो पंखुडिय़ों वाला एक कमल है जो इस बात का द्योतक है कि चेतना के इस स्तर पर 'केवल दो', आत्मा और परमात्मा (स्व और ईश्वर) ही हैं। आज्ञा चक्र की देव मूर्तियों में शिव और शक्ति एक ही रूप में संयुक्त हैं। इसका अर्थ है कि आज्ञा चक्र में चेतना और प्रकृति पहले ही संयुक्त है, किन्तु अभी भी वे पूर्ण ऐक्य में समाए नहीं हैं।आज्ञा चक्र को सम्प्रज्ञात समाधि में जीवात्मा का स्थान कहा जा सकता है, क्योंकि यही दिव्य दृष्टि का स्थान है। इस शक्ति को दिव्यदृष्टि तथा शिव की तीसरी आंख भी कहते हैं।

5-इस चक्र के गुण हैं - एकता, शून्य, सत, चित्त और आनंद। 'ज्ञान नेत्र' भीतर खुलता है और हम आत्मा की वास्तविकता देखते हैं - इसलिए 'तीसरा नेत्र' का प्रयोग किया गया है जो भगवान शिव का द्योतक है। आज्ञा चक्र 'आंतरिक गुरू' की पीठ (स्थान) है। यह द्योतक है बुद्धि और ज्ञान का, जो सभी कार्यों में अनुभव किया जा सकता है। उच्चतर, नैतिक विवेक के तर्कयुक्त शक्ति के समक्ष अहंकार आधारित प्रतिभा समर्पण कर चुकी है। तथापि, इस चक्र में एक रुकावट का उल्टा प्रभाव है जो व्यक्ति की परिकल्पना और विवेक की शक्ति को कम करता है, जिसका परिणाम भ्रम होता है।

7-बिन्दु चक्र:-

03 POINTS;-

1-बिन्दु का अर्थ है... नोंक, बूँद।बिन्दु चक्र सिर के शीर्ष भाग पर केशों के गुच्छे के नीचे स्थित है। बिन्दु चक्र के चित्र में 23 पंखुडिय़ों वाला कमल होता है। इसका प्रतीक चिह्न चन्द्रमा है, जो वनस्पति की वृद्धि का पोषक है। भगवान कृष्ण ने कहा है : ''मैं मकरंद कोष चंद्रमा होने के कारण सभी वनस्पतियों का पोषण करता हूं" (भगवद्गीता १५/१३)। इसके देवता भगवान शिव हैं, जिनके केशों में सदैव अर्धचन्द्र विद्यमान रहता है। मंत्र है शिवोहम्(शिव हूं मैं)। यह चक्र रंगविहीन और पारदर्शी है।

2-बिन्दु चक्र स्वास्थ्य के लिए एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है, हमें स्वास्थ्य और मानसिक पुनर्लाभ प्राप्त करने की शक्ति प्रदान करता है। यह चक्र नेत्र दृष्टि को लाभ पहुंचाता है, भावनाओं को शांत करता है और आंतरिक सुव्यवस्था, स्पष्टता और संतुलन को बढ़ाता है। इस चक्र की सहायता से हम भूख और प्यास पर नियंत्रण रखने में सक्षम हो जाते हैं, और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक खाने की आदतों से दूर रहने की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं। बिन्दु पर एकाग्रचित्तता से चिन्ता एवं हताशा और अत्याचार की भावना तथा हृदय दमन से भी छुटकारा मिलता है।

बिन्दु चक्र शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, स्फूर्ति और यौवन प्रदान करता है, क्योंकि यह "अमरता का मधुरस" (अमृत) उत्पन्न करता है।

3-यह अमृतरस साधारण रूप से मणिपुर चक्र में गिरता है, जहां यह शरीर द्वारा पूरी तरह से उपयोग में लाए बिना ही जठराग्नि से जल जाता है। इसी कारण प्राचीन काल में ऋषियों ने इस मूल्यवान अमृतरस को संग्रह करने का उपाय सोचा और ज्ञात हुआ कि इस अमृतरस के प्रवाह को जिह्वा और विशुद्धि चक्र की सहायता से रोका जा सकता है। जिह्वा में सूक्ष्म ऊर्जा केन्द्र होते हैं, इनमें से हरेक का शरीर के अंग या क्षेत्र से संबंध होता है। उज्जाई प्राणायाम और खेचरी मुद्रा योग विधियों में जिह्वा अमृतरस के प्रवाह को मोड़ देती है और इसे विशुद्धि चक्र में जमा कर देती है। एक होम्योपैथिक दवा की तरह सूक्ष्म ऊर्जा माध्यमों द्वारा यह संपूर्ण शरीर में पुन: वितरित कर दी जाती है, जहां इसका आरोग्यकारी प्रभाव दिखाई देने लगते हैं।

8-सहस्रार चक्र:-

06 POINTS;-

1-सहस्रार का अर्थ है.. =हजार, अनंत, असंख्य ।इन सब चक्रों के ऊपर, महाचक्र है,जिसे सहस्रार के नाम से जाना जाता है।हजार दलों वालें महापद्म पर,जिसे साधना ही महासाधना है ;वही सत्यलोक है। अमरत्व, मुक्ति,निर्वाण सब कुछ वहीं पहुचने पर है।सारी तैयारी उसी की साधना की है।मनुष्य शरीर के कपाल के उर्ध्व भाग में स्थित सहस्रार चक्र के बारे में शंकराचार्य जी कहते हैं कि “विद्युतधारा की तरह इन छह चक्रों से होती हुई, ऊपर सहस्रार कमल में तुम जा विराजती हो |सूर्य, चन्द्र और अग्नि (इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना) तुम्हारी कला पर आश्रित हैं | मायातीत जो परात्पर महापुरुष हैं, तुम्हारी ही आनंदलहरी में स्नान करते हैं” |

2-इन छह चक्रों के भेदन के दौरान प्राणवायु, ब्रह्मरंध्र अर्थात सुषुम्ना नाड़ी में ही गति करता है|

षट्चक्र भेदन एक तरह से कुण्डलिनी शक्ति के महापथ का निर्माण है | एक बार जब कुण्डलिनी शक्ति जागती है तो ब्रह्मरंध्र में, षट्चक्रों से होती हुई, विदुत गति से सीधा सहस्रार में जा मिलती है | ऐसा होना उस मनुष्य के जीवन के साथ-साथ इस ब्रह्माण्ड की भी दुर्लभतम घटनाओं में एक होता है क्योंकि यह पराशक्ति का उस परात्पर पुरुष से मिलन है जो एक मनुष्य शरीर द्वारा संभव होता है |

3-ऐसा होते ही उस मनुष्य का कपाल एक तेज़ और गंभीर आवाज के साथ फटता है, उसका ब्रह्मांडीय शरीर अपनी पूर्ण विकसित अवस्था को प्राप्त करता हुआ उस सत-चित-आनंद को प्राप्त होता है जिसे साकार ब्रह्म के उपासक सायुज्य मोक्ष और निराकार ब्रह्म के उपासक

कैवल्य मोक्ष के रूप में जानते हैं |सहस्त्रार चक्र मस्तिष्क में ब्रह्मन्ध्र से ऊपर स्थित सभी शक्तियों का केन्द्र है। इस चक्र का रंग अनेक प्रकार के इन्द्रधनुष के समान होता है तथा इसमें अनेक पंखुड़ियों वाला कमल का फूल का अनुभव होता है। इस चक्र में ´अ´ से ´क्ष´ तक के सभी स्वर और वर्ण ध्वनि उत्पन्न होती रहती है। यह कमल अधोखुले होते हैं तथा यह अधोमुख आनन्द का केन्द्र होता है। साधक अपनी साधना की शुरुआत आज्ञा चक्र से करता है।फिर मूलाधार चक्र से शुरु करके सहस्त्रार चक्र में पूर्णता प्राप्त करता है।

4-इस स्थान पर प्राण तथा मन के स्थिर हो जाने पर सभी शक्तियां एकत्र होकर असम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता प्राप्त करती है। सहस्त्रार चक्र में ध्यान करने से उस चक्र में प्राण और मन स्थिर होता है, तथा पुन: उस प्राण का जन्म इस संसार में नहीं होता।खेचरी की सिद्धि प्राप्त करने वाले साधक अपने मन को वश में कर लेते हैं, उनकी आवाज भी निर्मल हो जाती है। सहस्रार चक्र में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति - मेधा शक्ति है। मेधा शक्ति एक हार्मोन है, जो मस्तिष्क की प्रक्रियाओं जैसे स्मरण शक्ति, एकाग्रता और बुद्धि को प्रभावित करता है। योग अभ्यासों से मेधा शक्ति को सक्रिय और मजबूत किया जा सकता है।

5-सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर स्थित है। इसे "हजार पंखुडिय़ों वाले कमल”, "ब्रह्म रन्ध्र” (ईश्वर का द्वार) या "लक्ष किरणों का केन्द्र” भी कहा जाता है, क्योंकि यह सूर्य की भांति प्रकाश का विकिरण करता है। अन्य कोई प्रकाश सूर्य की चमक के निकट नहीं पहुंच सकता। इसी प्रकार, अन्य सभी चक्रों की ऊर्जा और विकिरण सहस्रार चक्र के विकिरण में धूमिल हो जाते

हैं।सहस्रार चक्र का कोई विशेष रंग या गुण नहीं है। यह विशुद्ध प्रकाश है, जिसमें सभी रंग हैं। सभी नाडिय़ों की ऊर्जा इस केन्द्र में एक हो जाती है, जैसे हजारों नदियों का पानी सागर में गिरता है। यहां अन्तरात्मा शिव की पीठ है। सहस्रार चक्र के जाग्रत होने का अर्थ दैवी चमत्कार और सर्वोच्च चेतना का दर्शन है। जिस प्रकार सूर्योदय के साथ ही रात्रि ओझल हो जाती है, उसी प्रकार सहस्रार चक्र के जागरण से अज्ञान धूमिल (नष्ट) हो जाता है।

6-यह चक्र योग के उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करता है- आत्म अनुभूति और ईश्वर की अनुभूति, जहां व्यक्ति की आत्मा ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ जाती है। जिसे यह उपलब्धि मिल जाती है, वह सभी कर्मों से मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है - पुनर्जन्म और मृत्यु के चक्र से पूरी तरह स्वतंत्र।इस तरह असम्प्रज्ञात समाधि में जीवात्मा का स्थान ब्रह्मरन्ध्र है, क्योंकि इसी स्थान पर प्राण तथा मन के स्थिर हो जाने से असम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होती है। ध्यान में योगी असम्प्रज्ञात/निर्विकल्प समाधि (समाधि का उच्चतम स्तर) सहस्रार चक्र पर पहुंचता है, यहां मन पूरी तरह निश्चल हो जाता है और ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय एक में ही समाविष्ट

होकर पूर्णता को प्राप्त होते हैं।सहस्रार चक्र में हजारों पंखुडिय़ों वाले कमल का खिलना संपूर्ण, विस्तृत चेतना का प्रतीक है। इस चक्र के देवता विशुद्ध, सर्वोच्च चेतना के रूप में भगवान शिव है।

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.....SHIVOHAM.....

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