top of page

Recent Posts

Archive

Tags

पुराना संन्यासी, पुराने ढब का संन्यासी


पुराना संन्यासी, पुराने ढब का संन्यासी उदास आदमी होता है——हारा—थका, बेचैन, डरा हुआ, भयभीत, हर छोटी—छोटी चीज से डरा हुआ। मेरा संन्यासी तो किसी बात से डरा हुआ नहीं है। पुराना संन्यासी तो अपराध—भाव से भरा हुआ होता है कि यह किया तो गलती हो जाएगी, यह किया तो गलती हो जाएगी।

मेरे संन्यासी को तो मैंने कोई अपराध पैदा करने का उपाय नहीं दिया है। मैंने तो सिर्फ उसे कहा है, सहज प्रतिपल अपने बोध से जीना। और तुम्हारा बोध तुम्हें जो करने को कहे, करना। फिर चाहे सारी दुनिया एक तरफ हो, तुम फिकर न लेना।

परमात्मा ने तुम्हें जो जीवन दिया है वह जीने के लिए दिया है। पुराना संन्यास तो जीवन से भयभीत है, डरा हुआ है, घबड़ाया हुआ है। सुंदर स्त्री दिख जाए तो पुराना संन्यास थरथराने लगता है, कंपने लगता है, पसीना—पसीना होने लगता है। मेरे संन्यासी को तो भय का कोई कारण नहीं है क्योंकि मैंने कहा है, सुंदर स्त्री में परमात्मा के सौंदर्य को देखना। वहां भी झुकना, वहां भी पूजा का भाव रखना। वहां भी उसी की महिमा है, उसी का रंग है, उसी का रूप है, उसी का रस है। अगर सुंदर फूल में परमात्मा देख सकते हो तो आदमी का कसूर क्या है? एक सुंदर आदमी में क्यों नहीं देख सकते? एक सुंदर स्त्री में क्यों नहीं देख सकते?

अगर मेरा संन्यास फैला..... और फैलेगा; क्योंकि विधायक है। जीवन के स्वीकार पर खड़ा है। तो जैसे तुम फूल के सौंदर्य की प्रशंसा करते हो वैसे ही किसी दिन पुरुषों के, स्त्रियों के सौंदर्य की भी प्रशंसा कर सकोगे। और प्रशंसा में जरा भी अपराध और भय का भाव नहीं होगा। क्योंकि परमात्मा की ही प्रशंसा है। हम किसी की भी स्तुति करें, उसी की स्तुति है। नदी किसी भी दिशा में बहे, सागर पहुंच जाती है। सभीस्तुतियां उसी की तरफ पहुंच जाती हैं। स्तुति मात्र उसकी है।

मैंने तुम्हें भोजन से नहीं तोड़ा है कि तुम यह मत खाना, यह मत पीना; कि अगर कहीं तुमने यह खा लिया तो पाप हो जाएगा, नरक में पड़ोगे।

कैसे—कैसे लोग हैं! कोई आलू खा लेगा तो नरक में जाएगा। कोई निर्दोष टमाटर से डरा हुआ है। अब टमाटर से ज्यादा निर्दोष प्राणी देखा तुमने दुनिया में ? टमाटर बेचारा! एकदम भोला—भाला। इससे भोली—भाली कोई चीज ही नहीं होती। इसको खाने से तुम कैसे नरक चले जाओगे?लेकिन टमाटर खाने से कुछ लोग डरते हैं। उसका रंग मांस जैसा है। बस रंग ही मांस जैसा है, घबड़ाहट हो गई; भय हो गया।

डरने की तो तुम बात ही मत पूछो कि लोग किस—किस चीज से डरते हैं। अगर तुम सारे डरों को इकट्ठा कर लो तुम्हें इसी वक्त मरना पड़े; तुम जी नहीं सकते। क्वेकर ईसाई हैं, वे दूध पीने से डरते हैं। तुम कहोगे, यह तो हद हो गई। वे दही नहीं खाते, वे मक्खन नहीं छूते क्योंकि यह हिंसा है।

बात में अर्थ तो है। क्योंकि गाय के थन में जो दूध है, वह उसके बच्चों के लिए है, तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हें किसने हक दिया कि तुम उसके बच्चों का दूध छीनकर पी जाओ। जरा सोचो तो कि यही तुम्हारी स्त्रियों के साथ किया जाए, कि बच्चे को तो दूध न मिले और कोई भी आकर बच्चे की मां का दूध पी जाए तो इसको हिंसा कहोगे कि नहीं कहोगे? तुम गाय का दूध पी रहे हो बड़े मजे से, कह रहे हो दुग्धाहार कर रहे हैं और बछड़े का क्या हुआ?

लोग बछड़ों को मार डालते हैं और गाय को धोखा देने के लिए झूठा बछड़ा खड़ा कर देते हैं। घास—फूस का बनाकर बछड़ा खड़ा कर देते हैं गाय को धोखा देने के लिए। क्योंकि असली बछड़ा रहेगा तो कुछ तो पी ही जाएगा। थोड़ा न बहुत तो पीएगा ही। आखिर जिंदा रखना है तो कुछ न कुछ तो उसको देना ही पड़ेगा। तो झूठा बछड़ा खड़ा कर दिया। हद हो गई बेईमानी की! आदमियों को धोखा दो, दो; गाय को भी धोखा देने लगे? और एक तरफ से गौमाता भी कहते हो उसको। माता ही को धोखा दे रहे हो, उसकी जेब काट रहे हो। और आंदोलन भी बड़ा चलाते हो किगौहत्या नहीं होनी चाहिए। और गौ को चूसे जा रहे हो। तुम्हारी गौओं की हालत देखते हो? हड्डी—हड्डी हो रही हैं और खींचे जा रहे हो उनका दूध, जितना खींच सकते हो; जिस तरह खींच सकते हो।

क्वेकर कहते हैं, दूध खून का हिस्सा है। इसीलिए तो दूध पीने से खून बढ़ जाता है। तो दूध खून है। दूध पीना खून पीना है। यह तो पाप हो गया। अब मारे गए! अब क्या करोगे? दही ले नहीं सकते, दूध ले नहीं सकते, घी ले नहीं सकते, मक्खन ले नहीं सकते। गए सब रसगुल्ले! गए सब संदेश! सारी मिठाइयां पाप हो गईं।

तुम जरा सारे धर्मों का हिसाब तो लगाकर देख लो। कुछ नहीं बचेगा खाने को। उधर जैन तेरापंथी है, वह नाक पर पट्टी बांधे बैठा है कि हिंसा न हो जाए। श्वास से हिंसा हो रही है। गरम श्वास से कीड़े—मकोड़े हवा में छोटे—छोटे मर जाते हैं, वे मर न जाएं। लेकिन तुम्हारे जीने में ही हिंसा हो रही है। तुम्हारे शरीर के भीतर प्रतिपल न मालूम कितने जीवाणु मर रहे हैं। वे ही तो जीवाणु मरकर तुम्हारे बाल बनकर निकलते हैं,नाखून बनकर निकलते हैं। इसलिए तो बाल को काटने से दुःख नहीं होता क्योंकि वे मरे हुए जीवाणु हैं। नाखून काटने से दुःख नहीं होता, खून नहीं बहता क्योंकि वे मरे हुए जीवाणुओं की लाशें हैं; हड्डियां हैं। तुम्हारे भीतर प्रतिपल लाखों जीवाणु मर रहे हैं। और इसलिए तो रोज भोजन की जरूरत है ताकि नया भोजन नए जीवाणु दे दे।

एकेक शरीर में सात—सात करोड़ जीवाणु हैं। पूरी बस्ती हो तुम। पुराने शास्त्रों ने ठीक ही तुमको पुरुष कहा है। पुरुष का मतलब है, पुर के बीच में बसा। एक पूरा नगर तुम्हारे चारों तरफ है। सात करोड़! बंबई भी छोटी है। सात करोड़ जीवाणु, उनके बीच में आप बसे हैं। और उनमें प्रतिपल मरना हो रहा है, जीना हो रहा है, सब चल रहा है। चलते हो, उठते हो, बैठते हो, उसमें हिंसा हो रही है। करवट लेते हो, उसमें हिंसा हो रही है। श्वास लेते हो, उसमें हिंसा हो रही है। जियोगे कैसे? अगर तुम सारे धर्मों का हिसाब करके चलो तो जी ही नहीं सकते। और ये ही धर्म अब तक आदमी को सिखाते रहे हैं। आदमी की जिंदगी में जहर घोल दिया है।

मैं तो आदमी की जिंदगी को मुक्ति दे रहा हूं। मैं तो तुमसे कह रहा हूं, जो परमात्मा ने दिया है उसे भोगो। और मैं तो तुमसे यह कह रहा हूं, कोई मरता ही नहीं। आत्मा अमर है। कहां की हिंसा, कैसी हिंसा? चिंता छोड़ो। शांति से, सरलता से, स्वभाव से जियो। और इस जीवन को परमात्मा की भेंट समझकर अनुग्रह मानो। इस भेंट में ही परमात्मा को खोजो। अगर संगीतज्ञ को खोजना हो तो उसके संगीत में ही खोजना पड़ेगा। अगर सन्नाटा को खोजना हो तो उसकी सृष्टि में ही खोजना पड़ेगा। अगर कवि को खोजना हो तो उसके काव्य में ही खोजना पड़ेगा, और कहां पाओगे? वहीं से सूत्र मिलेंगे, वहीं से सेतु बनेगा।

मैं तो जीवन के अहोभाव, जीवन के परम स्वीकार, जीवन के आनंद, जीवन के उत्सव को दे रहा हूं मेरे संन्यासी को। मेरे संन्यासीफ्रस्ट्रेशन में पड़ रहे हैं, विषाद में पड़ रहे हैं, इससे ज्यादा मूढ़ता की कोई बात हो सकती है? हां, मेरे संन्यासियों को देखकर पुराने संन्यासी बड़ेफ्रस्ट्रेशन में पड़ रहे हैं, यह जरूर सच है। उनके प्राण बड़ी मुश्किल में पड़ रहे हैं। वे बड़े बेचैन हो रहे हैं कि यह कैसा संन्यास? उनकी बेचैनी यह है कि यह तो हद हो गई, हम इतना छोड़—छाड़कर मोक्ष पहुंचेंगे और ये बिना छोड़े—छाड़े पहुंच जाएंगे! यहां भी मजा करेंगे और वहां भी!

और मैं तुमसे कहे देता हूं कि जो यहां मजा करेगा वही वहां भी मजा करेगा। क्योंकि मजे का अभ्यास करना होता है। और जो यहां मजा नहीं करेगा, वहां भी मजा नहीं करेगा। क्योंकि यहां अगर उसने गैर—मजे का अभ्यास कर लिया तो बड़ी मुश्किल में पड़ेगा।

तुम्हारे पुराने ढब के संन्यासियों को नरक में ज्यादा शांति मिलेगी। उनके ज्यादा अनुकूल होगा। यहां उनको कांटों की खुद ही सेज बनानी पड़ती है, वहां शैतान के शिष्य बना देंगे। यहां उनको ही आग जलाकर बैठना पड़ता है और भभूत लगानी पड़ती है , वहां शैतान के .....अच्छी मालिश करेंगे। और भभूत से ही मालिश करेंगे और खूब भभूत लगा देंगे——ऐसी कि उतरे ही नहीं। अंगारों सहित मालिश कर देंगे। खूबत्यागत्तपश्चर्या करवा देंगे।

उनको नरक ही मौजूं पड़ेगा, स्वर्ग नहीं मौजूं पड़ सकता। स्वर्ग में वे करेंगे क्या? बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे। स्वर्ग में अप्सराएं हैं और शराब के झरने हैं। और कल्पवृक्ष हैं। कल्पवृक्ष के नीचे जरा बैठकर तुम्हारा संन्यासी करेगा क्या——पुराने ढब का? मेरे संन्यासी को तो कोई दिक्कत नहीं है। मगर पुराने ढब का संन्यासी कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर करेगा क्या? कि हे प्रभु, पत्थर गिराओ! कि थोड़ी तपश्चर्या और करवाओ! कल्पवृक्ष किस काम का? पुराने संन्यासी अगर स्वर्ग पहुंचे होंगे तो कुल्हाड़ियां लेकर उन्होंने सब कल्पवृक्ष काट डाले होंगे अब तक। जंगल साफ कर दिया होगा। फिर से वृक्षारोपण करना पड़ेगा।

मैं एक संन्यास दे रहा हूं जो सहज है——स्वाभाविक; आनंद जिसका अनुशासन है। मेरा संन्यास और फ्रस्ट्रेशन में ले जा रहा है लोगों को या मेरा संन्यासी फ्रस्ट्रेशन में जा रहा है, इससे ज्यादा व्यर्थ, असंगत बात क्या हो सकती है? हां, मगर आर्यसमाजियों को पड़ गई होगी अड़चन। उनको बड़ी अड़चन है।

यहां शंकराचार्य किसी मठ के कोई मित्र ले आया था द्वार पर। ले आया था मुझे मिलाने। गाड़ी मैं उन्हें बैठा हुआ छोड़कर वह पूछने आया दफ्तर में अंदर कि कब मिलना हो सकता है? लेकिन इसी बीच सब गड़बड़ हो गई। एक विदेशी संन्यासी अपनी पत्नी का हाथ हाथ में लिए दरवाजे से प्रविष्ट हुआ। दोनों मस्त! गीत गुनगुनाते हुए! शंकराचार्य को आग लग गई। जब तक उनका शिष्य वापिस पहुंचा व्यवस्था करके मिलने की, वे बोले, इसी वक्त चलो। इस जगह से हटो! यह कैसा संन्यास है! संन्यासी और स्त्री का हाथ हाथ में लिए?

तुम सोचते हो, अगर ये शंकराचार्य स्वर्ग पहुंच जाएं और देख लें कि रामचंद्र जी सीता जी के साथ खड़े हैं, एकदम झपट्टा मारकर अलग कर देंगे दोनों को, हटो! शर्म नहीं आती? राम होकर और सीता जी का हाथ पकड़े हो? तुमने समझा क्या है, जगजननी सीता! छोड़ो हाथ!

यह संन्यासी के कारण बड़ी अड़चन होगी वैकुंठ में। यह कृष्ण महाराज तो एकदम छीन—छान लेगा उनका मोर—मुकुट और बंसी—वंसी कीछोड़ो! यह नहीं चलेगा। ये किनकी स्त्रियां तुम्हारे आसपास नाच रही हैं? तुमको मालूम है कि सोलह हजार स्त्रियां कृष्ण की, उनमें उनकी स्त्रियां कौन थीं? एक रुक्मिणी के सिवा और कोई ब्याही हुई स्त्री नहीं थी। बाकी ये हजारों स्त्रियां उनके पास नाचीं किसी प्रेम में डूबकर, किसी आनंद में लीन होकर।

मैं तो कृष्ण को वापस लौटा रहा हूं। मैं तो संन्यास के ओंठों पर फिर बांसुरी रख रहा हूं। संन्यास गाता हुआ होना चाहिए। अगर गाते हुए परमात्मा तक पहुंच सकते हो तो क्यों रोते हुए जाते हो? अगर नाचते हुए पहुंच सकते हो तो क्यों चलते हुए जाना? और अगर परमात्मा भी नाचता हुआ ..... और मैं कहता हूं कि नाचता हुआ है। जरा चारों तरफ प्रकृति को देखो, वह परमात्मा का प्रतीक है——नाचती हुई प्रकृति, सब तरफ मौज से भरी प्रकृति। सब तरफ झरने बह रहे हैं, फूल खिल रहे हैं; वास उड़ रही है, बादल घिर रहे हैं, चांद तारों से भरा आकाश है। इस सबसे तुम्हें याद नहीं पड़ती कि परमात्मा महात्मा तो नहीं है। परमात्मा खूब रंग—रंगीला है। रसो वै सः। रसपूर्ण है, रस का स्रोत है, सच्चिदानंद है।

लेकिन आर्यसमाजी को यह बात न जंचेगी। उसे यह बात पसंद ही नहीं पड़ेगी। हां, उसे देखकर फ्रस्ट्रेशन पैदा हो जाएगा। मेरे संन्यासी को देखेगा तो उसको जलन औरर् ईष्या पैदा हो जाएगी। वह यह बर्दाश्त नहीं कर सकता। वह चाहता है, लोग दुःखी हों। वह दुःख को आदर देता है। ये सब दुःख का सम्मान करनेवाले लोग हैं। जितना जो दुःखी होता है उसको उतना आदर देता है। कहता है, यह उतना बड़ा तपस्वी है। जो जितना अपने को सताता है, गलाता है, जो अपने मन कोत्तन को खूब मारता है, कोड़े फटकारता है, उसको उतना सम्मान। तपश्चर्या उसका लक्ष्य है। त्याग उसका लक्ष्य है।

मेरे संन्यास का लक्ष्य है, परम भोग। और मैं सीधी—सादी बातें कर रहा हूं; कहीं कुछ छिपाना नहीं है, सीधी बात है : परम भोग। मैं अगर तुम्हें परमात्मा की तरफ ले जाना चाहता हूं तो इसलिए नहीं कि भोग बुरा है बल्कि इसलिए कि तुमने जिसको भोग जाना है वह भोग ही नहीं है। इसी जीवन में परम भोग घट सकता है। मैं तुम्हारे जीवन से सुख को छीन नहीं लेना चाहता, तुम्हारे जीवन में सुख को गहराना चाहता हूं, घना करना चाहता हूं।

तो यह बात तो बड़ी बेमौजूं है। वेदांत, तुम्हारा मिलना अगर फिर हो जाए आर्यसमाजी सज्जन से, आर्य भिक्षु से, तो उनसे निवेदन करना। और फिर तो तुम मेरे संन्यासी हो। तुम्हें वहीं जवाब देना था। तुम्हें एकदम खड़े होकर नटराज शुरू कर देना था। हाथ पकड़ लेना था कि आओ, नाचें। वहीं समझ में आ जाता कि फ्रस्ट्रेशन में कौन है। खिलखिलाकर हंसना था, आनंदित होना था, निमंत्रण देना था कि आओ, हमनाचें। यहां तक तुम्हें प्रश्न लाने की जरूरत ही न थी, उत्तर वहीं देना था। और उत्तर जीवंत होना चाहिए।

तीसरा प्रश्न :

प्रेम की इतनी महिमा है तो फिर मैं प्रेम करने से डरता क्यों हूं?

इसीलिए, क्योंकि इतनी महिमा है। और तुम्हारे संस्कार तुम्हें इतनी महिमा तक जाने से रोकते हैं। प्रेम विराट है और तुम्हारे संस्कारों ने तुम्हें क्षुद्र बनाया है, छोटा बनाया है, ओछा बनाया है। प्रेम भोग है और तुम्हारे संस्कारों ने तुम्हें त्याग सिखाया है। प्रेम आनंद है और तुम्हारे संस्कार कहते हैं, उदासीन हो जाओ। प्रेम रस है और तुम्हारे संस्कार रस—विपरीत हैं इसलिए तुम भयभीत होते हो।

और फिर तुम इसलिए भी भयभीत होते हो कि प्रेम के रास्ते पर अहंकार की आहुति देनी होती है। अपने सिर को काटकर चढ़ाना होता है। अपने को खाना होता है। जैसे बूंद सागर में गिरे, ऐसे प्रेम के सागर में गिरना होता है।

फिर भय लगता है कि प्रेम इतना विराट है, इतना बड़ा आकाश! और तुम पिंजरे में रहने के आदी हो गए हो। तुमने देखा कभी? पिंजरे में बंद पक्षी को अगर तुम दरवाजा भी खोल दो तो बाहर नहीं निकलता।

मैंने तो सुना है, एक सराय में एक आदमी एक रात मेहमान हुआ। कवि था। और दिन भर सुबह से उसने सुना, तोता एक, बड़ा प्यारा तोता बंद है; सराय के दरवाजे पर लटका है। और दिनभर चिल्लाता है, "स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!' कवि को बड़ी बात जंची। कवि था, उसके हृदय में भी स्वतंत्रता का मूल्य था। उसने सोचा, हद हो गई! मैंने तोते बहुत देखे; कोई कहता, राम—राम, कोई कुछ जपता, कोई कुछ, मगर स्वतंत्रता की याद करनेवाला तोता पहली दफा देखा।

इतना भावाभिभूत हो गया कि रात जब सब सो गए दूसरे दिन तो वह उठा और उसने पिंजरा खोल दिया उसका और कहा, "प्यारे, उड़ जा। अब रुक मत।' मगर तोता उड़ा नहीं। पिंजरे के सींखचों को पकड़कर रुक गया। कवि के हृदय में बड़ी दया आ गई थी। स्वतंत्रता का ऐसा प्रेमी! उसने हाथ डालकर तोते को बाहर निकालना चाहा तो तोते ने चोंचें मारीं उसके हाथ में, लहूलुहान कर दिया। वह निकलना नहीं चाहता।

मगर कवि तो कवि होते हैं। पागल तो पागल हैं! उसने तो निकाल ही दिया तोते को, चाहे चोट मारता रहा तोता, चिल्लाता रहा। और मजा यह था, चोटें मार रहा था, बाहर निकलता नहीं था, सींखचे पकड़े था और चिल्ला रहा था, "स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!' मगर कवि ने भी निकालकर..... उसकी एक न सुनी "स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।' निकालकर उसको स्वतंत्र कर ही दिया। निश्चिंत आकर सो गया कवि अपने कमरे में। हृदय का भार हलका हो गया। लेकिन सुबह जब उसकी आंख खुली, तोता पिंजरे में बैठा था। वह दरवाजा बंद करना पिंजरे का रात भूल गया। तोता फिर वापिस आ गया था और सुबह से फिर रट लगा रहा था। और पिंजरे का द्वार खुला था। रट लगा रहा था, "स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!'

ऐसी तुम्हारी दशा है। तुम प्रेम की मांग भी करते हो मगर पिंजरे में तुम्हारी रहने की आदत भी हो गई है। तुम प्रार्थना की मांग भी करते हो मगर बस तोतों की तरह रट रहे हो। यह वास्तविक तुम्हारे प्राणों की प्यास हो तो अभी घटना घट जाए।

प्रेम खतरनाक मार्ग है। अपने को गंवाना पड़ता है तब कोई प्रेम को पाता है। इतनी कीमत चुकानी पड़ती है। सस्ता सौदा नहीं है, महंगा सौदा है। अपने को खोने की तैयारी चाहिए। जब इतनी तैयारी हो——

दिलो—दिमाग को रो लूंगा आह कर लूंगा

मैं तेरे इश्क में सब कुछ तबाह कर लूंगा

जब इतनी तैयारी हो तो प्रेम और उसकी महिमा का स्वाद मिलना शुरू होता है।

फिर प्रेम रुलाता भी बहुत है। क्योंकि आज तुम प्रेम करोगे तो आज थोड़े ही प्रेमी मिल जाएगा! लंबी विरह की रात्रि आएगी तब मिलन की सुबह होती है। विरह की रात्रि का भी डर होता है। इसलिए लोग प्रेम करने से घबड़ाते हैं कि कौन विरह को सहेगा! समझदार आदमी इस तरह की बातों में पड़ते ही नहीं। क्योंकि उसमें पीड़ा है।

कोई ऐ "शकील' देखे यह जुनून नहीं तो क्या है

कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा

न मालूम कितनी रातों यहीं रोना पड़ेगा——कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा। तुमने चाहा और प्रेम उसी वक्त थोड़े ही घट जाता है! प्रेम परीक्षाएं मांगता है, कसौटियां मांगता है। प्रेम की विरह की अग्नि से गुजरना पड़ता है तभी तुम योग्य के लिए पात्र हो पाते हो;तभी तुम प्रेम को पाने के अधिकारी हो जाते हो।

कोई ऐ "शकील' देखे यह जुनून नहीं तो क्या है

कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा

यह पागलपन नहीं तो और क्या है? पागलपन मालूम होता है प्रेम।

समझदार बच जाते हैं, इस पागलपन की तरफ नहीं जाते। समझदार धन कमाते हैं, प्रेम नहीं। समझदार दिल्ली की यात्रा करते हैं, प्रेम की नहीं। समझदार और सब करते हैं, प्रेम से बचते हैं क्योंकि प्रेम पागलपन है। और पागलपन है ही। बुद्धि की सब सीमाओं को तोड़कर, बुद्धि की सारी व्यवस्थाओं को तोड़कर प्रेम उमगता है। इसलिए तुम डरते होओगे। विचारशील आदमी होओगे।

कहूं किससे मैं कि क्या है शबे—गम, बुरी बला है

मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता

प्रेमी को कितनी बार मरना पड़ता है इसका पता है? बार—बार मरना पड़ता है, हर बार मरना पड़ता है। हर बार विरह जब घेरती है, मौत घटती है। इंच—इंच मरना पड़ता है।

कहूं किससे मैं कि क्या है शबे—गम, बुरी बला है——वह जो विरह की लंबी रात है, बड़ी खतरनाक है।

मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता——एक बार मर जाता तो भी कोई बात थी। मरते हैं, मरते हैं। जी भी नहीं पाते, मर भी नहीं पाते। प्रेमी की बड़ी फांसी लग जाती है। प्रेम फांसी है; मगर फांसी के बाद ही सिंहासन है। याद करो जीसस की कहानी। सूली लगी, और सूली के बाद ही पुनरुज्जीवन। प्रेम सूली है।

और जिसने प्रेम नहीं जाना उसे भक्ति से तो मिलना कैसे हो पाएगा? प्रेम भक्ति का बीज है। भक्ति प्रेम का फूल है। प्रेम ही प्रगाढ़ होते—होते एक दिन भक्ति बनता है। जो प्रेम से वंचित रह गया, वह भक्ति से वंचित रह जाएगा। और अगर भक्ति करेगा तो उसकी भक्ति थोथी होगी, औपचारिक होगी, क्रियाकांड होगी, पाखंड होगी, दिखावा होगी, धोखा होगी।

बरस रही है हरीमे—हविस में दौलते—हुस्न

गदाए—इश्क के कासे में इक नजर भी नहीं

न जाने किसलिए उम्मीदवार बैठा हूं

इक ऐसी राहपै जो तेरी रहगुजर भी नहीं

बहुत बार ऐसा लगेगा कि कहां बैठा हूं, किसकी राह देख रहा हूं? न कोई आता, न कोई जाता। कहीं ऐसा तो नहीं है एक ऐसी राह पर बैठा हूं जहां से परमात्मा का निकलना होने ही वाला नहीं है ! जहां से प्रेमी गुजरेगा ही नहीं!

न जाने किसलिए उम्मीदवार बैठा हूं

इक ऐसी राहपै जो तेरी रहगुजर भी नहीं

कभी तुझे गुजरते भी नहीं देखा। कभी तेरे पैरों की चाप भी नहीं सुनी। मैं कहीं ऐसा व्यर्थ बैठे—बैठे व्यर्थ ही तो नहीं हो जाऊंगा?

प्रेम बड़ी प्रतीक्षा मांगता है, बड़ा धीरज मांगता है। और जिनके पास धीरज की कमी है वे प्रेम के रास्ते पर नहीं जा सकते। और यहां तो सारे लोग जल्दी में हैं। अभी हो जाए कुछ, इसी वक्त हो जाए कुछ, मुफ्त में हो जाए कुछ, उधार हो जाए कुछ। न तो कोई कीमत चुकाने को राजी है, न कोई प्रतीक्षा करने को राजी है, न कोई विरह के आंसू गिराने को राजी है।

हम भी तस्लीम की खू डालेंगे

बे—नियाजी तेरी आदत ही सही

प्रेमी को तो कहना पड़ता है, अगर तेरा उपेक्षाभाव तेरी आदत है तो रहे तेरी आदत, सम्हाल तू अपनी आदत। हम भी तस्लीम की खूडालेंगे——हम भी धैर्य की आदत डालेंगे।

हम भी तस्लीम की खू डालेंगे

बे—नियाजी तेरी आदत ही सही

तू रख अपनी आदत बेपरवाही की। मतकर चिंता हमारी, मत ले खोज—खबर, मत देख हमारी तरफ। तू कर उपेक्षा जितनी कर सकता हो। हम अपने धीरज से तेरी उपेक्षा को हराएंगे।

लंबी यात्रा है विरह की, आंसुओं की। मगर जो हिम्मत कर लेता है, पूरी हो जाती है। और जिसे एक बार थोड़ा—सा भी स्वाद लग जाता है प्रेम का, फिर लौट नहीं पाता। फिर सिर गंवाना हो तो सिर गंवाता है। फिर जो गंवाना हो, गंवाने को राजी होता है।

जीते—जी कूचः—ए—दिलदार से आया न गया

उसकी दीवार का सर से मिरे साया न गया

एक बार उसकी दीवाल की छाया भी तुम पर पड़ जाए तो फिर चाहे जान रहे कि जाए, तुम उसके दीवाल के साए को छोड़कर जा न सकोगे।

तुम तो मंदिर भी हो आते हो, लौट आते हो। तुम्हारा मंदिर झूठा है। उसके मंदिर जाकर कोई कभी लौटा है? जो गया सो गया। जो गया सो उसके मंदिर का हिस्सा हो गया।

जीते—जी कूचः ए—दिलदार से आया न गया

प्रेमी की गली से कोई जिंदा लौटता है?

उसकी दीवार का सर से मेरे साया न गया

इतनी हिम्मत नहीं है इसलिए प्रेम की महिमा सुन लेते हो, बुद्धि से समझ भी लेते हो, फिर भी भीतर—भीतर डरे रहते हो।

यह हाल था शब—ए—वादा कि ता—ब—रहगुजर

हजार बार गया मैं, हजार बार आया

कितनी बार जाना पड़ता है देखने द्वार पर कि कहीं प्रेमी आ तो नहीं गया? विरह की रात्रि में पत्ता भी खड़कता है तो गलता है, उसी का आगमन हो रहा है। हवा का झोंका आता है तो लगता है, उसी का आगमन हो रहा हैं। राह से कोई अजनबी गुजर जाता है तो लगता है, वही आ गया।

यह हाल था शब—ए—वादा कि ता—ब—रहगुजर

हजार बार गया मैं, हजार बार आया

——सोने की फिर चैन नहीं। प्रेम में जो पड़ा वह जागा।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, दो मार्ग हैं परमात्मा तक जाने के। एक मार्ग है, ध्यान। ध्यान का अर्थ है, जागो। जो जागेगा वह प्रेम करने लगेगा। जागा हुआ आदमी घृणा नहीं कर सकता क्योंकि जागे हुए आदमी को दिखाई पड़ता है, सब एक है। मैं ही हूं। यहां किसी को चोट पहुंचाना अपने ही गाल पर चांटा मारना है। यहां किसी को दुःख देना अपने को ही दुःख देना है। जागे हुए पुरुष को दिखाई पड़ता है, एक का ही विस्तार है, एक ही परमात्मा सबमें छाया है। प्रेम अपने आप पैदा होता है।

दूसरा रास्ता है प्रेम का। प्रेम करो और तुम जाग जाओगे क्योंकि प्रेमी सो नहीं सकता। उसकी प्रतीक्षा में पलक लगे कैसे? उसकी राह देखनी पड़ती है, कब आ जाए, किस क्षण आ जाए, किस द्वार से आ जाए, किस दिशा से आ जाए। प्रेम हिम्मत की बात है, दुस्साहस की बात है।

तुम पूछते हो, "प्रेम की इतनी महिमा है तो फिर मैं प्रेम करने से डरता क्यों हूं?' इसीलिए डरते हो। महिमा का तुम्हें थोड़ा—थोड़ा बोध होने लगा है। आकर्षण पैदा हो रहा है, कशिश पैदा हो रही है। प्रेम पुकार दे रहा है। और अब भय पकड़ रहा है। अच्छे लक्षण हैं, भय की मानकर रुकना मत। भय के बावजूद प्रेम की पुकार सुनना और प्रेम के स्वर को पकड़कर चल पड़ना।

प्रेम परमात्मा का आयाम है। निकटतम कोई मार्ग अगर परमात्मा के पास ले जानेवाला है तो प्रेम है। ध्यान का मार्ग लंबा है और रूखा—सूखा है; मरुस्थल जैसा है। प्रेम का मार्ग बहुत हरा—भरा है। प्रेम के मार्ग पर गंगा बहती है, मरुस्थल नहीं है। छोड़ो अपनी नौका गंगा में। भय तो पकड़ता है। जब भी कोई नई यात्रा को निकलता है, नए अभियान को, अज्ञात अनजान की खोज में, भय स्वाभाविक है। लेकिन स्वाभाविक भय का अर्थ यह नहीं है कि उसके कारण रुको।

अंतिम प्रश्न :

प्यारे भगवान, एक लहर उठी थी और किनारे से टकराने के पहले ही सम्हल गई। और फिर से वही लहर वापस मझधार में डूब गई। उस क्षण का क्या कहूं! डूबने में आनंद घना होकर छा गया और भीग गई। प्रेम—सागर में डूबकर पुनः गाती हूं, "झमकि चढ़ जाऊं अटरिया री।'

तरु, जो तुझे हो रहा है, मुझे पता है। धीरे—धीरे औरों को भी पता होना शुरू हो जाएगा।

वाकिफ है जोश इश्क से अपने तमाम शहर

और हम यह जानते हैं कि कोई जानता नहीं

प्रेम का तो पता चलना शुरू हो जाता है। प्रेम तो प्रकट होने लगता है। प्रेमी की चाल बदल जाती है, चलन बदल जाता है, उठना—बैठना बदल जाता है, भाव—भंगिमा बदल जाती है। प्रेम घटता है तो पता चलने ही लगता है। प्रेम को छुपाने का उपाय नहीं है।

पड़ा था सूना सितार दिल का

हुई अचानक यह जाग तुमसे

जो जिंदगी रोग बन चुकी थी

वह बन गई है आज राग तुमसे

यह मेरे जीवन की रागिनी क्या

प्रेम की यह मीठी बांसुरी क्या

यह दान तुमने दिया है साजन

मिला है मन को यह राग तुमसे

परमात्मा को धन्यवाद दो। उसके अनुग्रह में झुको। और जितने अनुग्रह में झुको उतनी ही और प्रेम की वर्षा होगी।

उनके ओंठों में है कैसी मै—ए—गुल रंग "सुरूर'

देखिए कब वह घड़ी आए कि हम तक पहुंचे

——परमात्मा मदिरा है।

उनके ओंठों में है कैसी मै—ए—गुल रंग "सुरूर'

——उसके ओंठ अमृत से भरे हैं।

देखिए कब वह घड़ी आए कि हम तक पहुंचे

——जितने झुकोगे उतने जल्दी घड़ी आ जाएगी। जो बिल्कुल झुक गया उसकी घड़ी आ गई। जरा भी झुकोगे तो बूंदाबांदी शुरू हो जाएगी। अगर बिल्कुल झुक गए तो वह भी तुम पर झुक आता है। झुकि आयी बदरिया सावन की!

इक जाम में घोली है बेहोशी—ओ—हुश्यारी

सर के लिए गफलत है, दिल के लिए बेदारी

और जैसे—जैसे यह मस्ती छाएगी, वैसी—वैसी एक हैरानी की बात समझ में आएगी—— सर के लिए गफलत है। सर तो बेहोश होने लगेगा। दिल के लिए बेदारी——और दिल होश से भरने लगेगा। मस्तिष्क तो सोने लगेगा, खोने लगेगा, हृदय जागने लगेगा।

साधारणतः खोपड़ी जगी हुई है, हृदय सोया हुआ है। विचार, तर्क जगे हुए हैं, प्रेम सोया हुआ है। जैसे—जैसे कोई परमात्मा के अनुग्रह में डूबता है वैसे—वैसे बुद्धि तो सोने लगती है, हृदय जागने लगता है। हृदय के जागने को ही मैं श्रद्धा कहता हूं। बुद्धि तुम्हें विश्वास दे सकती है,श्रद्धा नहीं। श्रद्धा स्वाद है हृदय का।

इक जाम में घोली है बेहोशी—ओ—हुश्यारी

——और एक प्याली में दोनों बातें घोली हैं।

इक जाम में घोली है बेहोशी—ओ—हुश्यारी

सर के लिए गफलत है दिल के लिए बेदारी

जिससे सिर तो सो जाएगा और जिससे हृदय सदा के लिए जाग जाएगा। हृदय का जागरण जगत् में परमात्मा का अनुभव है।

तरु, तू ठीक ही कहती है कि उस क्षण का क्या कहूं! डूबने में आनंद घना होकर छा गया और भीग गई। उस क्षण के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। या कुछ ऐसी बातें कही जा सकती हैं——

ख्वाबीद : तरन्नुम है खामोश कयामत है

रफ्तार की शोखी में गंगा की मतानत है

जज्बात की बेदारी जाहिर है रगो—पैसे

तालाब के पानी में बहता हो कंवल जैसे

ख्वाबीद : तरन्नुम है—— स्वप्निल संगीत है। इतना सूक्ष्म है कि स्वप्न जैसा मालूम होता है, सत्य नहीं मालूम होता। अनाहत का नाद ऐसा ही है।

ख्वाबीद : तरन्नुम है खामोश कयामत है——सारा अस्तित्व ऐसा चुप है जैसे कयामत हो गई; जैसे सृष्टि का अंत हो गया; जैसे प्रलय आ चुकी, महाप्रलय घट गई।

ख्वाबीदः तरन्नुम है खामोश कयामत है

रफ्तार की शोखी में गंगा की मतानत है

और फिर भी जीवन में एक आनंद है, एक नृत्य है; जैसे गंगा नाचती हुई सागर की तरफ चली हो।

जज्बात की बेदारी जाहिर है——और भावनाएं जग गई हैं, विचार सो गए हैं। जज्वाब की बेदारी जाहिर है रगो—पैसे। और ऐसा भी नहीं है कि हृदय के भीतर ही भीतर है, रोएं—रोएं में है, रग—रग में है, अंग—अंग में है।

जज्बात की बेदारी जाहिर है रगो—पैसे——एक—एक रोआ खबर दे रहा है उसकी।

तालाब के पानी में बहता हो कंवल जैसे——और जैसे तालाब के पानी पर एक कमल थिर हो और बहता हो।

नहीं, उस क्षण के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तालाब के पानी में बहता हो कंवल जैसे। मगर यह भी कुछ नहीं कहना है। हमारे सब प्रतीक छोटे पड़ जाते हैं। हमारे सब प्रतीक ओछे पड़ जाते हैं। भाषा लंगड़ी हो जाती है। व्याकरण का दिवाला निकल जाता है। उस क्षण को तो जो जानता है, वही जानता है। लेकिन वह क्षण जिसके जीवन में आना शुरू हो जाता है उसके जीवन में परमात्मा ने प्रवेश शुरू किया। एक—एक किरण धीरे—धीरे घने सूरज बन जाते हैं। एक—एक बूंद सागर बन जाते हैं।

और उसकी अटरिया पर तो हम चढ़ ही रहे हैं। झमकि चढ़ जाऊं अटरिया री। यह तो खयाल ही तब आता है जब सीढ़ियों पर पैर पड़ने लगते हैं। तब दो—दो सीढ़ियां एक साथ छलांग लगा जाने का मन होता है। झमकि चढ़ जाऊं अटरिया री। उमंग में, उत्साह में, आनंद में। कोई होश रह जाता है चढ़ने का? छलांगें लगती हैं। क्रम टूट जाते हैं, छलांगें घटती हैं।

जगजीवन का यह वचन : "झमकि चढ़ जाऊं अटरिया री' बड़ा प्यारा है। मैं तुम्हें जो संन्यास दिया हूं वह ऐसा ही है——झमककर चढ़ जाए अटरिया। नाचता हुआ, गीत गाता हुआ, परम आनंद में लीन।


Single post: Blog_Single_Post_Widget
bottom of page