क्या कुंडलिनी साधना अशरीर में प्रवेश के लिए शरीर की तैयारी है?PART-01
साधना और मेरुदंड का महत्व;-
05 FACTS;-
1-शरीर का आधार है मेरुदंड ।अपनी प्राण-शक्ति को मेरुदंड के ऊपर उठती, एक केंद्र की ओर गति करती हुई प्रकाश-किरण समझो; और इस भांति तुममें जीवंतता का उदय होता है।योग के अनेक साधन, अनेक उपाय इस विधि पर आधारित हैं।मेरुदंड, रीढ़ तुम्हारे शरीर और मस्तिष्क दोनों का आधार है। तुम्हारा मस्तिष्क, तुम्हारा सिर तुम्हारे मेरुदंड का ही अंतिम छोर है। मेरुदंड पूरे शरीर की आधारशिला है। और अगर मेरुदंड युवा है तो तुम युवा हो। और अगर मेरुदंड बूढ़ा है तो तुम बढ़े हो। अगर तुम अपने मेरुदंड को युवा रख सको तो बूढ़ा होना कठिन होगा। सब कुछ इस मेरुदंड पर निर्भर है। अगर तुम्हारा मेरुदंड जीवंत है तो तुम्हारे मन-मस्तिष्क में मेधा होगी, चमक होगी। और अगर तुम्हारा मेरुदंड जड़ और मृत है तो तुम्हारा मन भी बहुत जड़ होगा। समस्त योग अनेक ढंगो से तुम्हारे मेरुदंड को जीवंत, युवा और प्रकाशपूर्ण की चेष्टा करता है।
2-मेरुदंड के दो छोर है। उसके आरंभ का काम-केंद्र है और उसके शिखर पर सहस्त्रार है-सिर के ऊपर जो सातवां चक्र है। मेरुदंड का जो आरंभ है वह पृथ्वी से जुड़ा है। तुम्हारे मेरुदंड के आरंभिक चक्र के द्वारा तुम निसर्ग /प्रकृति के संपर्क में आते हो.. जैसे-पृथ्वी, पदार्थ आदि। और अंतिम चक्र से, सहस्त्रार से तुम परमात्मा के संपर्क में होते हो।तुम्हारे अस्तित्व के ये दो ध्रुव हैं। पहला काम केंद्र है, और दूसरा सहस्त्रार है। अंग्रेजी में सहस्त्रार के लिए कोई शब्द नहीं है। ये ही दो ध्रुव है। तुम्हारा जीवन या तो कामोन्मुख होगा या सहस्त्रारोन्मुख होगा। या तो तुम्हारी ऊर्जा काम-केंद्र से बहकर पृथ्वी में वापस जाएगी, या तुम्हारी ऊर्जा सहस्त्रार से निकलकर अनंत आकाश में समा जाएगी। तुम सहस्त्रार से ब्रह्म में, परम सत्ता में प्रवाहित हो जाते हो। तुम काम केंद्र से पदार्थ जगत में प्रवाहित होते हो। ये दो प्रवाह है; ये दो संभावनाएं है।जब तक तुम ऊपर की और विकसित नहीं होते, तुम्हारे दुःख कभी समाप्त नहीं होगे।
3-तुम्हें सुख की झलकें मिल सकती है; लेकिन वे झलकें ही होंगी और बहुत भ्रामक होंगी। जब ऊर्जा ऊर्ध्वगामी होगी, तुम्हें सुख की अधिकाधिक सच्ची झलकें मिलने लगेंगी। और जब ऊर्जा सहस्त्रार पर पहुंचेगी, तुम परम आनंद को उपलब्ध हो जाओगे। वही निर्वाण है। तब तुम्हे झलक नहीं मिलती, तुम आनंद ही हो जाते हो।योग और तंत्र की पूरी चेष्टा यह है कि कैसे ऊर्जा को मेरुदंड के द्वारा, रीढ़ के द्वारा उर्ध्वगामी बनाया जाए, कैसे उसे गुरूत्वाकर्षण के विपरीत गतिमान किया जाये। काम आसान है, क्योंकि वह गुरुत्वाकर्षण के विपरीत नहीं है। पृथ्वी सब चीजों को अपनी ओर खींच रही है; तुम्हारी काम-ऊर्जा को भी पृथ्वी नीचे खींच रही है।उदाहरण के लिए अंतरिक्ष यात्रियों ने यह अनुभव किया है कि जैसे ही वे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बाहर निकल जाते है, उनकी कामुकता बहुत क्षीण हो जाती है। जैसे-जैसे शरीर का वजन कम होता है, कामुकता विलीन हो जाती है।पृथ्वी तुम्हारी जीवन-ऊर्जा को नीचे की तरफ खींचती है, और यह स्वाभाविक है। क्योंकि जीवन-ऊर्जा पृथ्वी से आती है। तुम भोजन लेते हो, और उससे तुम अपने भीतर जीवन-ऊर्जा निर्मित कर रहे हो। यह ऊर्जा पृथ्वी से आती है, और पृथ्वी उसे वापस खींचती है।
4- प्रत्येक चीज अपने मूलस्रोत को लौट जाती है। और अगर यह ऐसे ही चलता रहा, जीवन-ऊर्जा फिर-फिर पीछे लौटती रहे, तुम वर्तुल/Circle में घुमते रहे, तो तुम जन्मों-जन्मों तक ऐसे ही घूमते रहोगे। तुम इस ढंग से अनंतकाल तक चलते रह सकते हो, यदि तुम अंतरिक्ष यात्रियों की तरह छलांग नहीं लेते। अंतरिक्ष यात्रियों की तरह तुम्हें छलांग लेना है और वर्तुल के पार निकल जाना है। तब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का पैटर्न टूट जाता है। यह तोड़ा जा सकता है और तोड़ने की ही विधियां है। ये विधियां इस बात की फ्रिक करती है कि कैसे ऊर्जा उर्ध्वगति करे, नये केंद्रो तक पहुंचे; कैसे तुम्हारे भीतर नई ऊर्जा का आविर्भाव हो और कैसे प्रत्येक गति के साथ वह तुम्हें नया व्यक्ति बना दे। और जिस क्षण तुम्हारे सहस्त्रार से, कामवासना के विपरीत ध्रुव से तुम्हारी ऊर्जा मुक्त होती है, तब तुम इस धरती के व्यक्ति नहीं रह गए , तब तुम भगवान हो गए।जब हम कहते है कि श्री कृष्ण या गौतम बुद्ध भगवान है तो उसका यही अर्थ है।
5-उनके शरीर तो तुम्हारे जैसे है; उनके शरीर भी रूग्ण होंगे और उनके शरीरों में सब कुछ वैसा ही होता है जैसे तुम्हारे शरीरों में होता है। सिर्फ एक चीज उनके शरीरों में नहीं होती जो तुममें होती है; उनकी ऊर्जा ने गुरुत्वाकर्षण के पैटर्न को तोड़ दिया है। लेकिन वह तुम नहीं देख सकते; वह तुम्हारी आंखों के लिए दृश्य नहीं है।लेकिन कभी-कभी जब तुम किसी बुद्ध की सानिध्य में बैठते हो तो तुम यह अनुभव कर सकते हो। अचानक तुम्हारे भीतर ऊर्जा का ज्वार उठने लगता है और तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की तरफ यात्रा करने लगती है। तभी तुम जानते हो कि कुछ घटित हुआ है। केवल बुद्ध के सत्संग में ही तुम्हारी ऊर्जा सहस्त्रार की तरफ गति करने लगती है। श्री कृष्ण इतने शक्तिशाली है कि पृथ्वी की शक्ति भी उनसे कम पड़ जाती है। उस समय पृथ्वी की ऊर्जा तुम्हारी ऊर्जा को नीचे की तरफ नहीं खींच पाती है। जिन लोगों ने जीसस, बुद्ध या श्री कृष्ण की सन्निधि में इसका अनुभव लिया है, उन्होंने ही उन्हें भगवान कहा है। उनके पास ऊर्जा का एक भिन्न स्त्रोत है जो पृथ्वी से भी शक्तिशाली है।-
क्या शरीर और आत्मा ,एक ही सत्य के दो छोर है?-
04 FACTS;-
1- यह शरीर और आत्मा बहुत गहरे में दो नहीं हैं और जिस दिन पूरा सत्य दिखाई पड़ता है , उस दिन ऐसा ही दिखाई पड़ता है कि शरीर आत्मा का वह हिस्सा है जो इंद्रियों की पकड़ में आ जाता है और आत्मा शरीर का वह हिस्सा है जो इंद्रियों की पकड़ के बाहर रह जाता है।शरीर का ही अदृश्य छोर आत्मा है और आत्मा का ही दृश्य छोर शरीर है ..यह बहुत आखिरी अनुभव है। साधारणत: हम सब यही मानकर चलते हैं कि शरीर और आत्मा एक ही हैं।लेकिन यह भ्रांति है, हमें आत्मा का कोई पता ही नहीं है; हम शरीर को ही आत्मा मानकर चलते हैं। लेकिन इस भ्रांति के पीछे भी कहीं अदृश्य हमारे प्राणों के कोने में वही प्रतीति है कि.. एक है।उस एक की प्रतीति ने दो तरह की भूलें पैदा की हैं।एक अध्यात्मवादी कहता है कि शरीर है ही नहीं, आत्मा ही है। एक भौतिकवादी [चार्वाक } कहता है कि शरीर ही है, आत्मा है ही नहीं। यह उसी गहरी प्रतीति की भ्रांतियां हैं; और प्रत्येक साधारणजन भी, जिसको हम अज्ञानी कहते हैं, वह भी यह एहसास करता है कि शरीर ही मैं हूं। लेकिन जैसे ही भीतर की यात्रा शुरू होगी, पहले तो यह बात टूटेगी और पता चलेगा कि शरीर अलग है और आत्मा अलग है।
2- लेकिन यह मध्य की बात है। और जब गहरे उतरोगे और चरम अनुभूति जब होगी, तब पता चलेगा कि ''दूसरा तो कोई है नहीं''! फिर आत्मा और शरीर दो नहीं हैं; फिर एक ही है; उसके ही दो रूप हैं।जैसे एक मैं हूं और मेरा बायां हाथ है और दायां हाथ है। बाहर से जो देखने आएगा, अगर वह कहे कि बायां और दायां हाथ एक ही हैं, तो गलत कहता है; क्योंकि बायां और दायां बिलकुल अलग है।लेकिन जब भीतर प्रवेश करेगा तो पाएगा कि मैं तो एक ही हूं ...जिसका बायां है और उसी का दायां है।और जब बायां टूटता है तब भी मैं ही दुखता हूं और जब दायां टूटता है तब भी मैं ही दुखता हूं।तो अंतिम अनुभूति में तो शरीर और आत्मा दो नहीं हैं, वे एक ही सत्य के दो पहलू हैं ।अगर कोई किसी का बायां हाथ पकड़ना शुरू करे, और पकड़ता जाए, ..बढ़ता जाए, तो आज नहीं तो कल दायां हाथ भी उसकी पकड़ में आ जाएगा। या कोई चाहे तो दूसरी तरफ से भी यात्रा शुरू कर सकता है कि सीधी आत्मा से यात्रा शुरू करे, तो शरीर पकड़ में आ जाएगा।लेकिन आत्मा से यात्रा शुरू करनी बहुत कठिन है क्योकि उसका हमें पता ही नहीं है।
3-हम शरीर पर खड़े हैं , तो हमारी यात्रा तो शरीर से शुरू होगी। ऐसी विधियां भी हैं जिनमें यात्रा सीधी आत्मा से ही शुरू होती है। लेकिन साधारणत: वैसी विधियां बहुत थोड़े से लोगों के काम की हैं।अधिकतम लोगों को तो यात्रा शरीर से ही शुरू करनी पड़ेगी, क्योंकि जहां हम खड़े हैं, वहीं से यात्रा शुरू होगी। और शरीर की जो यात्रा है उसकी तैयारी कुंडलिनी है। शरीर के भीतर में जो गहरे से गहरे अनुभव हैं, उन गहरे अनुभवों का मूल केंद्र कुंडलिनी है। वास्तव में, जैसा हम शरीर को जानते हैं ; शरीर उतना ही नहीं है, शरीर उससे बहुत ज्यादा है।यह पंखा चल रहा है। इस पंखे को हम उतार लें और तोड़कर सारा जांच कर डालें, तो भी बिजली हमें कहीं भी नहीं मिलेगी।फिर भी पंखा बिजली से चल रहा था। और पंखा उसी क्षण बंद हो जाएगा जिस क्षण बिजली की धारा बंद होगी। शरीर शास्त्री ने एक तरह शरीर का अध्ययन किया है, तो उसे कुंडलिनी कहीं भी नहीं मिलती। मिलेगी भी नहीं ..फिर भी कुंडलिनी की ही विद्युत शक्ति से सारा शरीर चल रहा है।
4-तो यह जो कुंडलिनी की विद्युत शक्ति है, इसको बाहर से शरीर के विश्लेषण से कभी नहीं जाना जा सकता। क्योंकि विश्लेषण में वह तत्काल छिन्न-भिन्न होकर विदा हो जाती है, विलीन हो जाती है। उसे तो जानना हो तो भीतरी अनुभव से जाना जा सकता है। यानी शरीर को भी जानने के दो ढंग हैं। बाहर से शरीर को जानना, जैसा कि एक डाक्टर टेबल पर व्यक्ति के शरीर को रखकर काट रहा है, जांच रहा है। और एक शरीर को भीतर से जानना है। जो व्यक्ति शरीर के भीतर बैठा है, वह अपने शरीर को भीतर से जान रहा है।स्वयं के शरीर को जब कोई भीतर से जानना शुरू करता है तो यह खयाल रखना हैं कि हम अपने शरीर को भी बाहर से ही जानते हैं। तो अपने ही शरीर को भीतर से जानने अगर कोई जाएगा, तो बहुत शीघ्र वह उस कुंड पर पहुंच जाएगा जहां से शरीर की सारी शक्तियां उठ रही हैं। उस कुंड में सोई हुई शक्ति का नाम ही कुंडलिनी है। और तब वह अनुभव करेगा कि पूरे शरीर में सब कुछ वहीं से फैल रहा है । जैसे कि एक दीया जल रहा हो, पूरे कमरे में प्रकाश हो, लेकिन हम खोजबीन करते, करते दीये पर पहुंच जाएं और पाएं कि इस ज्योति से ही सारी प्रकाश की किरणें फैल रही हैं। वे दूर तक फैल गई हैं, लेकिन वे यहां से ही जा रही हैं।
कुंड शब्द का क्या अर्थ हैं?-
04 FACTS;-
1-कुंड शब्द के कई अर्थ हैं। पहला यह है कि जहां जरा सी लहर भी नहीं उठ रही;सब सोया हुआ, जरा सा कंपन नहीं, सब प्रसुप्त है। क्योंकि जरा सी भी लहर उठे तो शक्ति सक्रिय हो गई ।दूसरा अर्थ यह है कि प्रसुप्त तो है, लेकिन किसी भी क्षण सक्रिय हो सकता है। कुंड मृत या सूखा नहीं है.. भरा है। किसी भी क्षण सक्रिय हो सकता है, लेकिन सब सोया हुआ है।तो कुंड का अर्थ है शरीर के भीतर उस बिंदु की खोज, जहां से जीवन की ऊर्जा पूरे शरीर में फैल रही है। निश्चित ही, उसका कोई सेंटर होगा। असल में, ऐसी कोई ऊर्जा नहीं होती जिसका कोई केंद्र न हो। चाहे दस करोड़ मील दूर हो सूरज, लेकिन हमारे हाथ में किरण है ;तो हम कह सकते हैं कि कहीं केंद्र होगा, जहां से वह यात्रा कर रही है और जहां से वह चल रही है। असल में, कोई भी शक्ति केंद्र शून्य नहीं हो सकती। शक्ति होगी तो केंद्र होगा। ऐसे ही, जैसे परिधि होगी तो केंद्र होगा; कोई परिधि बिना केंद्र के नहीं हो सकती।तो तुम्हारा शरीर एक शक्ति का पुंज है, इसे तो सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं।
2-वह शक्ति का पुंज उठ रहा है, बैठ रहा है, चल रहा है, सो रहा है। फिर ऐसा भी नहीं है कि उसकी शक्ति हमेशा एक सी ही काम करती हो! कभी ज्यादा भी शक्ति उसमें होती है, कभी कम भी होती है। जब तुम क्रोध में होते हो तो इतना बड़ा पत्थर उठाकर फेंक देते हो, जो तुम क्रोध में नहीं हो तो हिला भी न सकोगे। जब तुम भय में होते हो तो इतनी तेजी से दौड़ लेते हो, जितना कि तुम किसी ओलंपिक के खेल में भी दौड़ रहे हो तो भी नहीं दौड़ सकोगे।तो शक्ति तुम्हारे भीतर एक सी नहीं है ..वह कभी ज्यादा हो रही है, कभी कम हो रही है। इससे यह भी साफ होता है कि तुम्हारे पास कुछ रिजर्वायर भी है, जिसमें से कभी शक्ति आ जाती है और कभी नहीं आती। जरूरत होती है तो आ जाती है, नहीं जरूरत होती तो छिपी रहती है। तुम्हारे पास एक केंद्र है, जिससे शक्ति तुम्हें मिलती हैं।तुम्हें रोजमर्रा के काम के लिए भी शक्ति मिलती है और असाधारण काम के लिए भी शक्ति मिलती है। फिर भी तुम उस केंद्र को कभी रिक्त नहीं कर पाते हो। और कभी तुम उस केंद्र का पूरा उपयोग भी नहीं कर पाते हो।
3-विज्ञान कहता है कि असाधारण व्यक्ति भी पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा अपनी ऊर्जा का उपयोग नहीं करता है। यानी हम जिसको महापुरुष कहते हैं, वह भी पंद्रह प्रतिशत से ऊपर नहीं जाता है। और जिसको हम साधारणजन कहते हैं वह तो दो ढाई प्रतिशत से काम चलाता है। उसकी अट्ठानबे प्रतिशत शक्तिया तो पड़ी पड़ी ही विदा हो जाती है।इसलिए बड़े आदमी में और छोटे आदमी में बीज शक्ति का कोई पोटेंशियल भेद नहीं होता,केवल उपयोग का ही भेद होता है। महान से महान प्रतिभा का व्यक्ति भी जिस शक्ति का उपयोग कर रहा है, वह साधारण से साधारण बुद्धि के व्यक्ति के पास भी है ..बस अनुपयोग में है, उसे कभी पुकारा या जगाया नहीं गया, वह पड़ी रह गई है।हमारी जो न्यूनतम सीमा रेखा है उसको हम अपनी परम सीमा रेखा मानकर जी रहे हैं। और इसलिए कई संकट क्षणों में साधारण से साधारण व्यक्ति भी असाधारण क्षमता प्रकट कर पाता है।
4-संकट में अचानक हमें ही पता चलता है कि हमारे भीतर क्या था।एक केंद्र है, जिस पर यह सारी शक्ति एक बीज की तरह ठहरी हुई है, छिपी हुई है, सोई हुई है ;जिसमें सब कुछ अभी बंद है; लेकिन प्रकट हो सकती है।इसलिए हो सकता है कि हमें पता भी न चले कि हमारे भीतर क्या सोया हुआ था। क्योंकि हमें उतना ही पता चलेगा जितना हम जगाएंगे। क्योंकि जगाने के पहले हमें पता ही नहीं चल सकता कि हमारे भीतर क्या सोया हुआ है। उतना ही पता चलेगा जितना जगेगा। जितना जगेगा उतना ही पता चलेगा। यानी तुम्हारे भीतर जितनी शक्ति सक्रिय होगी उतनी ही तुम्हारे चेतन में आएगी। और जो निष्कि्य शक्ति है वह तुम्हारे अचेतन और अनकांशस में सोई रहेगी।इसलिए महान से महान व्यक्ति को भी, जब तक वह महान हो नहीं जाता, पता नहीं चलता। न महावीर को पता है, न बुद्ध को पता है, न जीसस को, न श्री कृष्ण को; वे जिस दिन हो जाते हैं उसी दिन पता चलता है। और इसलिए जिस दिन अनायास उनके भीतर यह घटना घटती है, उस दिन उनको अनुकंपा मालूम पड़ती है कि पता नहीं यह कहां से आया..कौन दे गया।
क्या कुंडलिनी कुंड में उठी एक लहर की तरह है?-
03 FACTS;-
1-यह जो सोया हुआ अचेतन कुंड है, इसमें से जितनी शक्ति जग जाती है, वह कुंडलिनी है। कुंड तो अचेतन है, कुंडलिनी चेतन है। कुंड तो सोई हुई शक्ति का नाम है, कुंडलिनी जागी हुई शक्ति का नाम है। उसमें से जितना हिस्सा जागकर ऊपर आ गया, उस कुंड से जितना बाहर आ गया, उतनी कुंडलिनी है। कुंडलिनी पूरा कुंड नहीं है, कुंडलिनी उसमें से बहुत छोटी सी एक लहर है जो उठ गई है। इसकी दोहरी खोज है इस यात्रा में। तुम्हारे भीतर जो कुंडलिनी जगी है वह तो सिर्फ खबर है तुम्हारे भीतर एक स्रोत की, जहां और भी बहुत कुछ सोया होगा। जब एक किरण आई है, तो अनंत किरणों की वहां संभावना है।तो एक रास्ता तो कुंडलिनी को जगाने का है, जिसमें से तुम्हारी शरीर की शक्ति का तुम्हें पूरा बोध हो सकेगा। और इस शक्ति को जगाकर तुम शरीर के उन बिंदुओं पर पहुंच जाओगे, जहां से शरीर के अदृश्य रूपों में अथार्त आत्मा में प्रवेश आसान है। इस शक्ति को जगाकर तुम उन द्वारों पर पहुंच जाओगे , जहां से तुम अदृश्य द्वार पर जा सकते हो।
2-वास्तव में,हम जो कुछ भी कर रहे हैं, वह हमारी शक्ति किन्हीं द्वारों के द्वारा कर रही है। अगर तुम्हारे कान खराब हो जाएं, तो शक्ति वहां तक आकर लौट जाएगी, लेकिन तुम सुन न सकोगे। फिर धीरे धीरे शक्ति वहां आनी बंद हो जाएगी; क्योंकि शक्ति वहीं आती है जहां उसको सक्रिय होने का कोई मौका हो। वह वहां नहीं आएगी। इससे उलटा भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति बहरा है, और अगर वह अपनी अंगुली से बहुत ज्यादा सुनने का संकल्प करे , तो अंगुली भी सुन सकती है।जमीन पर आज भी ऐसे लोग हैं जो शरीर के दूसरे हिस्सों से सुनने लगे हैं, दूसरे हिस्सों से देखने लगे हैं।वास्तव में, तुम जिसको आँख कहते हो, वह तुम्हारी चमड़ी का ही हिस्सा है। लेकिन अनंत काल से मनुष्य उस हिस्से से देखता रहा है । लेकिन पहले दिन जिस दिन मनुष्य के पहले प्राणी ने उस अंग से देखा होगा, वह बिलकुल ही संयोग की बात थी, वह कहीं और से भी देख सकता था। दूसरे प्राणियों ने और हिस्सों से देखा है। तो दूसरी तरफ उनकी आंखें आ गई हैं।
3-ऐसे भी पशु ,पक्षी हैं, कीड़े -मकोड़े आदि हैं, जिनके पास असली आँख भी है और फाल्स आँख भी है। असली आँख अथार्त जिससे वे देखते हैं; और झूठी आँख , जिससे वे दूसरों को धोखा देते हैं, कि अगर कोई हमला करे तो झूठी आँख पर हमला करे। तुम्हारे घर में जो साधारण सी मक्खी है, उसकी एक आँख हजार आंखों का जोड़ है। उसकी देखने की क्षमता बहुत ज्यादा है। मछलियां हैं जो पूंछ से देखती हैं, क्योंकि उनको पीछे से दुश्मन का डर होता है।अगर हम सारी दुनिया के प्राणियों की आंखों का अध्ययन करें तो हमको पता चलेगा कि आँख का कोई इसी जगह होना कोई मतलब नहीं है। कान का इसी जगह होना कोई मतलब नहीं है। ये कहीं भी हो सकते हैं। इस जगह हैं, क्योंकि अनंत बार मनुष्य जाति ने वहीं- वहीं उन्हें पुनरुक्त किया है, वे वहां स्थिर हो गए हैं। और हमारे भीतर उनकी जो स्मृति है, वह हमारी चेतना में गहरी हो गई है , इसलिए वहां पुनरुक्त हो जाते हैं।यहां जो -जो अंग हमारे पास हैं, उन अंगों में से एक अंग भी खो जाए, तो उस दुनिया का दरवाजा बंद हो जाएगा। जैसे आँख खो जाए, तो फिर हमें प्रकाश का कोई अनुभव न हो सकेगा। फिर हमारे पास कितने ही अच्छे कान हों और कितने ही अच्छे हाथ हों, प्रकाश का अनुभव नहीं हो सकेगा।
CONTD..
.....SHIVOHAM.....