क्या कारण है कि प्रत्येक गोपी को लगता है श्री कृष्ण उसके साथ नाच रहे हैं ?
08 FACTS;-
1-भक्त जब भगवान को मिलता है, तब उसे पुलक और आनंद का अनुभव होता है।परन्तु भगवान कोई व्यक्ति नहीं है जिनको भक्त जैसी पुलक और आनंद का अनुभव हो सके। भगवान तो पूरे ही अस्तित्व है। इसलिए पुलक और आनंद की घटना तो घटती है, लेकिन वहां कोई अनुभव करने वाला नहीं है।जैसे भक्त के छोटे से हृदय में आनंद समा जाता है, वैसा कोई हृदय परमात्मा का नहीं है। परमात्मा तो पूरा अस्तित्व है, इसलिए पूरा अस्तित्व ही पुलक से भर जाता है। इतना फर्क है .. .पुलक तो घटेगी ही, क्योंकि भटका हुआ घर लौट आया।अस्तित्व की तरफ जिसकी पीठ थी, उसने मुंह कर लिया।जो खो गया था, वापस मिल गया तो आनंद की घटना तो घटेगी ही।लेकिन भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, वहां कोई भीतर छिपा हुआ हृदय नहीं है।वास्तव में,वहां ह्रदय ही हृदय है; सारा अस्तित्व उनका हृदय है।इसलिए जैसा अनुभव भक्त को होगा, वैसा कोई अनुभव करने वाला भगवान में नहीं है। वह तो परम शून्यता है, जो अनुभव किया जा सकता है।
2-लेकिन इसे भक्त ही जान पाएगा।तुम्हें भक्त का आनंद तो दिखाई पड़ेगा, क्योंकि भक्त हमारे जैसा ही व्यक्ति है।उसके हृदय में कुछ घटेगा; आंसू बहेंगे, तो तुम आंसुओ को पहचान सकते हो। वह नाचने लगेगा, तो तुम नाच को समझ सकते हो। लेकिन परमात्मा में जो पुलक घट रही है, वह तुम न देख पाओगे। इसलिए तो बहुत सी कथाएं हैं, जो कथाएं जैसी मालूम होती है; लेकिन वे सत्य घटनाएं है।कहते हैं,जब मोहम्मद साहब को जब ज्ञान हुआ, तो रेगिस्तान की तपती दुपहरियों में बादल उन्हें छाया देने लगे।मगर ये बादल किसी और को दिखाई न पड़े होंगे।तुम्हारी आंखें इतनी सूक्ष्म घटना को न देख पाएंगी। वस्तुत: कोई बादल बने भी, यह भी जरूरी नहीं है। लेकिन छाया मोहम्मद साहब को मिलने लगी, यह पक्का है।अस्तित्व के साथ एक संवाद शुरू हो गया ।निश्चित ही, जब तुम अस्तित्व के प्रति प्यार से भरोगे , तो अस्तित्व भी अपने प्यार को तुम्हारी तरफ
लुटायेगा।
3-अस्तित्व जड़ नहीं है... यह अस्तित्व ही तो परमात्मा है। अगर जड़ होता, तो तुम रोओ, तो पत्थर रोएगा नहीं; उसमें कोई संवेदना नहीं है।हम कभी कहते हैं कि उस व्यक्ति का हृदय पाषाण है।तो उसका इतना ही मतलब होता है कि उसमें से प्रतिसंवेदन नहीं उठता। वह तुम्हें दुखी देखकर दुखी न होगा।वास्तव में, पाषाण झूठा शब्द है।पत्थर भी आंदोलित होते हैं क्योंकि सभी तरफ चैतन्य का विस्तार है। तो प्रतिसवेदना होगी; लेकिन वह घटना इतनी सूक्ष्म है कि भक्त ही जान पाएगा कि भगवान को क्या हो रहा है, साधारणजन न पहचान पाएंगे।क्योंकि उनके पास उस अमृत-नाद को सुनने के न तो कान हैं , न उनके पास उस अरूप को देखने की आंखें हैं ।इसलिए तुम्हें मीरा नाचती हुई दिखाई पड़ेगी और थोड़ी अजीब सी भी मालूम पड़ेगी क्योंकि जिसके साथ वह नाच रही है, वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। वास्तव में, मीरा तो अपने श्री कृष्ण के साथ ही नाच रही है।लेकिन वह श्री कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है।हवाओं के झोंके में भी वही श्री कृष्ण हैं; हवा छूती है मीरा को, तो श्री कृष्ण के हाथ ही छूते हैं।जब तुम्हारे पास मीरा का हृदय होगा, तो हवा तुम्हें और ढंग से छुएगी।
4-छूने -छूने में भी फर्क है।मां तुम्हारे सिर को छूती है या तुम अपने बेटे को छूते हो...दोनों तरह के स्पर्श एक से हैं। गरमी एक शरीर से दूसरे शरीर में थोड़ी सी जाती है ...थोड़े से ताप का आदान प्रदान होता है। हवा का झोंका तुम्हें भी छूता है, मगर तुम्हें ऐसे ही छूता है जैसे राह पर कोई अजनबी से धक्का लग गया। मीरा को भी छूता है, लेकिन वह प्रेमी का हाथ है। उस झोंके में सिर्फ स्पर्श नहीं है, स्पर्श के पीछे छिपा हुआ राज है, एक भाव दशा है। वृक्षों में फूल खिलते हैं, तुम भी उनके रंग-रूप को देख लेते हो। मीरा भी देखती है, लेकिन वहां वृक्षों में उसका प्रेमी ही खिल रहा है। आषाढ़ आता है, मोर नाचते हैं। तुम भी देख लेते हो, पर मीरा के लिए उनके श्री कृष्ण ही नाच रहे है। असल में मीरा के लिए सारा अस्तित्व श्री कृष्ण रूप हो गया। इसलिए अब जो भी होता है, वह श्री कृष्ण में ही हो रहा है।और पूरी भाषा , पूरे अर्थ बदल जाते हैं।
5-यह दूसरी भाषा प्रेम की है ...मीरा उसका उपयोग करती है ।मीरा को हम कभी रोते भी देखते हैं कि उनका विरह हो गया है और कभी नाचते भी देखते हैं कि मिलन हो गया। न तो हमें विरह के क्षण में कोई उसके घर से जाता दिखाई पड़ता, और न मिलन के क्षण में कोई घर आता दिखाई पड़ता। इसलिए तो मीरा कहती है, सब लोक -लाज खोई।यह इतनी बड़ी घटना भी हमें तृप्त नहीं कर पाएगी। उसका कारण है कि हमें वह श्री कृष्ण दिखाई नहीं पड़ते।जब भक्त भगवान को मिलता है तो घटना तो घटती ही है।भक्त तो एक बूंद है, भगवान तो एक सागर है।अगर बूंद इतनी नाचती है, तो सोचो, सागर कितना नाचता होगा!लेकिन वह कोई व्यक्ति नहीं है ;यह सारी समष्टि वही है। इसलिए वह सब रूपों में नाचता है, सब रूपों में हंसता है, सब रूपों में पुलकित होता है।लेकिन वह उसी को दिखाई पड़ता है , जिसके हृदय में Gratitude भरा है। उसे परमात्मा साथ ही नाचता हुआ दिखाई पड़ता है।यही तो अर्थ है कि सोलह हजार गोपियां नाचती हैं और प्रत्येक गोपी को लगता है श्री कृष्ण उसके साथ नाच रहे हैं। श्रीकृष्ण अगर व्यक्ति हों, तो एक ही गोपी के साथ नाच सकते है।
6-श्री कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं हैं।श्री कृष्ण तो एक तत्व का नाम है और वह तत्व सर्वव्यापी है। जब तुम नाचते हो और तुम नाचने की क्षमता जुटा लेते हो, तब तुम अचानक पाते हो कि सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ नाच रहा है।फिर अस्तित्व बहुत बड़ा है, वह दूसरों के साथ भी नाच रहा है। इसलिए भक्त को कोई ईर्ष्या पैदा नहीं होती।गोपियों का विरह भी साथ- साथ था, उनका मिलन भी साथ -साथ था। क्योंकि श्री कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं हैं, तत्व की बात है। सारा अस्तित्व है, जहां भी तुम नाचो, अस्तित्व तुम्हें घेरे हुए है। श्री कृष्ण के हाथ तुम्हारे गले में पड़े हैं। हवा में, धूप में आलिंगन है।सब तरफ से श्रीकृष्ण तुम्हें घेरे हुए हैं। वे तुम्हारे साथ नाचने को तैयार हैं। बस, तुम्हारे पैरों के उठने की कमी है। तुम जरा नाचना सीख लो,तो परमात्मा नाचने को राजी है। तुम जरा हंसना सीख लो,तो परमात्मा हंसने को राजी है। तुम रोओगे, तो अकेले रोओगे; तुम हंसोगे, तो सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ हंसेगा। क्योंकि परमात्मा रो नहीं सकता।
7-इसे थोड़ा समझना है कि परमात्मा दुखी नहीं हो सकता। इसलिए जब भक्त आनंदित होता है, तो पूरा अस्तित्व आनंदित होता है। लेकिन यह मत सोचना कि जब भक्त रोता है, तो पूरा अस्तित्व रोता है।क्योकि पूर्ण रोना जानता ही नहीं। पूर्ण की कोई पहचान ही रोने से, रुदन से, उदासी से नहीं है। कहावत है कि जब तुम हंसते हो, तब सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ हंसता है। जब तुम रोते हो, तब तुम अकेले रोते हो। रोना निजी है, व्यक्तिगत है। इसलिए तो जब तुम रोना चाहते हो, तो तुम अकेले होना चाहते हो...द्वार दरवाजा बंद कर लेते हो।तुम चाहते हो, बिलकुल अकेला छोड़ दो। क्योंकि रोना निजी घटना है।लेकिन जब तुम हंसते हो, तब तुम पास-पड़ोस के लोगों को बुला लेते हो , निमंत्रण भेज देते हो , भोज का आयोजन कर लेते हो कि मित्र, पड़ोसी, संबंधी, हम सब साथ ही नाचे, प्रसन्न हों।प्रसन्नता निजी नहीं है, फैलती है। दुख निजी है, सिकुड़ता है, सड्ता है। तुम अकेले ही दुखी रह जाते हो और अचानक तुम पाते हो कि सारे जगत से तुम्हारा तालमेल टूट गया।
8-जितने तुम ज्यादा दुखी हो, उतना ही परमात्मा से दूर। या उलटा कहो कि जितने तुम परमात्मा से दूर, उतने ज्यादा दुखी। वे दोनों एक ही बातें हैं। जितने तुम परमात्मा के पास, उतने तुम सुखी। चारों तरफ देखो, पक्षी गीत गा रहे हैं, हवा नाच रही है, वृक्षों की पुलक ..उत्सव चल रहा है। तुम इसके भागीदार होना चाहते हो तो नाचो कि मोर फीके पड़ जाएं;गाओ कि पक्षी चुप होकर सुनने लगें।पुलकित हो उठो कि हवाएं झेंप जाएं। तभी तुम परमात्मा के निकट आओगे। जो आनंदित है, वह निकट आ जाता है; और जो निकट आ जाता, वह आनंद से भर जाता। जैसे -जैसे तुम निकट आते हो, वैसे -वैसे तुम पाते हो कि यह उत्सव तुम्हारा नहीं है, यह उत्सव तो सब का है। उदास लोग आक्रामक हो जाते हैं।और आक्रामक लोग दूसरों पर कब्जा करने लगते हैं , दूसरों को रास्ता बताने लगते हैं। जो उदास हैं, वे दूसरों को उदास करने में रस लेने लगते हैं। लेकिन श्री कृष्ण तो बिलकुल ही उदास नहीं है ..उनके होंठों पर बांसुरी रखी है।श्री कृष्ण की बांसुरी दिखाई पड़ती है;लेकिन गौतम बुद्ध की बांसुरी दिखाई नहीं पड़ती। उस बोधि वृक्ष के नीचे भी वेणु बज रही है, गीत उठ रहा है।जब भी किसी ने परमात्मा को पाया है, नाचा है,गाया है। और जब भी कोई नाचा है, तो परमात्मा तो नाच ही रहा है, वह तत्क्षण तुम्हारे साथ हो जाता है।लेकिन परमात्मा यानी समष्टि ... वह कोई व्यक्ति नहीं है, इसे खयाल रखना है।
WHAT IS MAHA-RASA of Sharad Purnima?-
Rasa means juice which brings you joy and Maha-Rasa is the greatest bliss from the amritam/nectar which is that everlasting ecstasy which flows from the divine consciousness in your self. It is always there but unless you experience it you won't feel it. The Gopikaas couldn't feel it, they danced and sang with Krishna but couldn't feel his divine nature. When he danced on the full moon night of Sharad Purnima, he opened their consciousness and they saw his presence everywhere, as if every atom in universe was nothing but a part of his self. This is the significance of Maha-Rasa that you start experiencing the divine nature within you and also in others. You can be a devotee of any form, The Goddess or Devi, Lord Shiva, Lord Krishna or any, the Maha Rasa is not the quality of just one form, you can feel this divine ecstasy through any form or whoever is your ishta. All forms represent the same Parabramha tatva. In these modern times, even the Maha Rasa was scrutinized based on obscenity by the culture bashers, but in reality it is about union. In physical union, two people try to unite but that oneness fades away quickly, but in Divine union the oneness of self with the source is established. If one has experienced this they can never go back. As here not your body, but your living force by which you feel alive in this body melts within the cosmic force .Maha-Rasa was like a quick experience of Samadhi given by the divine to such simple and sincere bhaktas.
...SHIVOHAM....
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