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क्या कारण है कि भगवत गीता में श्री कृष्ण स्वयं पर इतना जोर दे रहे हैं ?

1-भगवत गीता में श्री कृष्ण कह रहे है..

''और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थ्ति हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थ्ति है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान।और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्‍ति से सब भूतों को धारण करता हूं और रसस्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अश्निरूप होकर प्राण और अपान मे स्थ्ति हुआ चार प्रकार के अन्न को पचाता हूं।और मैं ही सब प्राणियों के ह्रदय में अंतर्यामीरूय से स्थित हूं तथा मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन अर्थात संशय-विसर्जन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं तथा वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं''।

2- वास्तव में,श्री कृष्ण के ये सारे सूत्र अर्जुन का समर्पण संभव हो सके, इसके लिए हैं। श्री कृष्ण की ये सारी बातें उस एक केंद्र की ओर इशारा कर रही हैं , जो सबका आधार है।और अगर वह आधार हमें दिखाई पड़ने लगे, तो हम उस आधार की शरण सहज ही जा सकेंगे। अगर हमारी बुद्धि को उसकी झलक भी मिलने लगे, तो हम अपने होने का आग्रह, अथार्त अस्मिता और अहंकार की हमारी अति छूटनी शुरू हो जाएगी।तो श्री कृष्ण जब बार -बार यह कहते हैं कि मैं यह हूं ..मैं यह हूं ;तो बहुत से पढ़ने वालों को गीता में ऐसा लग सकता है कि श्रीकृष्ण बड़े अहंकारी हैं। यह क्यों कह रहे है कि सभी चांद -सूरज की रोशनी मैं हूं! कि सभी रसों में छिपा हुआ रस मैं हूं! कि सभी प्राणों में धड़कता प्राण मैं हूं!आज के जमाने में तो गीता जैसी किताब लिखनी या कहनी भी मुश्किल हो जाए कि ..सभी कुछ आप हैं ।

3-हिंदू तो सोच लेते है कि भगवान हैं... ठीक है।लेकिन अन्य धर्मो के लोग जब गीता पढ़ते है, तो उन्हें फौरन खयाल आता है कि यह क्या बात है कि श्री कृष्ण इतना जोर देते हैं कि मैं ही सब कुछ हूं ।और आपको अगर ऐसा लगे कि श्री कृष्ण अहंकारी हैं, अपने 'मैं' पर देते हैं, तो समझना कि यह चोट आपके अहंकार को लग रही है।अर्जुन ने तो कहीं भी यह सवाल नहीं उठाया कि आप इतने अहंकार की बातें क्यों कर रहे हैं! यह भी जरा आश्चर्यजनक है क्योंकि अर्जुन बुद्धिमान , सुशिक्षित है, सुसंस्कारी है। उस समय के प्रतिभावान व्यक्तियों में से एक है।और श्रीकृष्ण जिसके सारथी बनने को राजी हो गए हैं, वह कोई साधारण या गंवार नहीं है।श्री कृष्ण के जोर का कारण समझना होगा क्योंकि उनका जोर स्वयं पर नहीं है; बल्कि अर्जुन पर है। श्रीकृष्ण की यह सारी चेष्टा इसीलिए है कि अर्जुन देख पाए कि उसके भीतर जो मैं की आवाज है, वह व्यर्थ है; और वह संपूर्ण के केंद्र पर समर्पित हो जाए। इसके लिए एक ही उपाय है कि अर्जुन का केंद्र अर्जुन के भीतर न हो, कहीं बाहर हो जाए।

4-श्रीकृष्ण अर्जुन से कह सके, क्योंकि अर्जुन का एक सतत प्रेम श्रीकृष्ण के प्रति है। और जहां प्रेम हो, वहां हम समझ पाते हैं कि यह जो कहा जा रहा है इसमें कोई अहंकार नहीं है। तो अर्जुन को पूरे समय यह लगा है कि श्रीकृष्ण अपने 'मैं' को बड़ा कर रहे हैं ताकि मेरा 'मैं'उस बड़े मैं में खो जाए।वे अपने 'मैं' के विराट रूप को मुझे दे रहे हैं, ताकि मैं एक बूंद की तरह उस सागर में खो जाऊं।यह सिर्फ एक उपाय है कि अर्जुन मिटने को राजी हो सके।प्रत्येक गुरु अपने शिष्य को यह सहारा देगा ही। जिस दिन शिष्य मिट जाएगा, उस दिन गुरु हंसकर उससे भी कह देगा कि तुम भी नहीं हो, मैं भी नहीं हूं।लेकिन उसके पहले यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि गुरु अगर यह कह दे, मैं भी नहीं हूं तुम भी नहीं हो, तो शिष्य यह तो मान लेगा कि तुम नहीं हो, लेकिन यह नहीं मान सकता कि मैं नहीं हूं। क्योंकि यह मानना बहुत कठिन बात है। यह तो कोई भी मान लेगा कि तुम नहीं हो। ज्ञानी सदा जानते हैं कि वे कुछ भी नहीं हैं। इसलिए जो गुरु कहे, 'मैं' नहीं हूं तो शिष्य बिलकुल राजी होगा।

6-लेकिन अज्ञानियों से बात करना जोखम का काम है क्योंकि शिष्य को यह खयाल भी नहीं आता कि हम भी नहीं हैं।श्रीकृष्ण इतने जोर से कह रहे हैं कि 'मैं' यह हूं ताकि अर्जुन को प्रतीति होने लगे कि वह कुछ भी नहीं है।यह ठीक वैसा ही है, जैसा कि दीवाल पर एक लकीर खींच दो और किसी को कहो कि इसे बिना छुए छोटा कर दो। वे नहीं कर पाएगे। लेकिन एक बड़ी लकीर उसके पास खींचों ; वह छोटी हो जायेगी। श्रीकृष्ण इतना ही कर रहे हैं कि अर्जुन की लकीर के पास एक बहुत बड़ी लकीर खींच रहे हैं ...श्रीकृष्ण की लकीर।अर्जुन का 'मैं' है, एक छोटा सा टिमटिमाता दीया; और श्रीकृष्ण कह रहे हैं, सूर्यों का सूर्य मैं हूं।वास्तव में,अर्जुन का श्रीकृष्ण के प्रति इतना प्रेम है कि वह देख सकता है।अगर अर्जुन भाव से देख ले, तो श्रीकृष्ण के भीतर का सूरज दिखेगा।तब वह अपने टिमटिमाते दीए को छोड़ देगा।टिमटिमाता दीया छूट जाए तो अपने भीतर का सूरज भी दिखेगा। लेकिन अपने ही भीतर के सूरज को देखना अति कठिन है। क्योंकि अपनी नजर तो अपने दीए पर ही लगी है। इस दीए का बुझना जरूरी है। यह गुरु के सहारे ही बुझ सकता है और एक बार बुझ जाए, तो गुरु के सूर्य को देखने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि अपना सूर्य भी दिखाई पड़ने लगेगा।

7-हमारी हालत ऐसी है कि सूर्य निकला है लेकिन हम दीए से आविष्ट होकर ,उस पर आंख गड़ाए बैठे हैं। इतने जन्मों से आंख गड़ाए हैं कि हिप्‍नोटाइज्‍ड हो गए हैं। वह दीया ही दिखाई पड़ता है और दीया देखते-देखते आंखें भी इतनी छोटी हो गई हैं कि अगर एक बार सूर्य की तरफ देखें, तो अंधेरा ही दिखाई पड़ेगा। यह श्रीकृष्ण का सहारा है कि आहिस्ता से अर्जुन को उसके दीए से हटा लें।और एक बार वह श्रीकृष्ण का सूर्य देख ले, तो वह केवल श्रीकृष्ण का सूर्य नहीं है, बल्कि वह सभी का सूर्य है.. सभी के भीतर बैठा है।'और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थित हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान। और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण किए हूं और रस -स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।''

8-यहाँ सोम दो अर्थ रखता है। एक तो सोम का अर्थ है, चंद्रमा। रस विज्ञान के अनुसार औषधियों को पुष्टि चंद्रमा से मिलती है।सूर्य के बिना औषधियां, वनस्पतिया, वृक्ष बड़े नहीं होंगे क्योंकि सूरज उन्हें प्राण देता है। लेकिन उनमें जो जीवनदायी तत्व है,रस है या शांति है,वह उन्हें, चंद्रमा से मिलता है।इसलिए जितनी शांत औषधियां हैं, उन सबमें चंद्रमा छिपा है।इसी कारण सोम का दूसरा अर्थ भी है ..उसे हम सोमरस कहते थे।ये औषधियां व्यक्ति में क्रांतिकारी फर्क ले आती हैं क्योंकि वेद में जो सोम का वर्णन है कि ऋषि सोम को पी लेते हैं और समाधिस्थ हो जाते हैं, और परमात्मा के आमने -सामने उनकी चर्चा और बातचीत होने लगती है। इस लोक से रूपांतरित हो जाते हैं; किसी और आयाम में प्रविष्ट हो जाते हैं । वैज्ञानिक बड़ी खोज में लगे हैं कि वेदों ने जिसको सोमरस कहा है, वह क्या है।जाने कितने दावे किए गए हैं कि यह वनस्पति सोमरस होनी चाहिए। कुछ लक्षण मिलते हैं, लेकिन पूरे लक्षण किसी वनस्पति से नहीं मिलते। संभावना इस बात की है कि वह वनस्पति पृथ्वी से खो गई। सोम की खोज के लिए बड़े ग्रंथ लिखे जाते हैं, बड़ी शोध की जाती है क्योंकि वनस्पति , औषधि या रसायन के द्वारा समाधि कैसे प्राप्त की जाए, इस संबंध में बड़ा प्रयास किया जा रहा है।

9-हो सकता है, सोम इस तरह का रासायनिक रस रहा हो कि समाज को उसे विलुप्त कर देना पड़ा हो। क्योंकि समाज में अगर लोग बहुत आनंदित हो जाएं और तल्लीन रहने लगें, तो समाज नहीं चल सकता है। समाज के लिए थोड़े दुखी, परेशान लोग चाहिए।अगर सभी लोग प्रसन्न हों, तो बहुत मुश्किल काम है।निश्चित ही उसको छिपाया गया होगा या नष्ट कर दिया गया होगा। इसलिए बहुत खोज करके भी हिमालय में सोम वनस्पति उपलब्ध नहीं होती।सभी वनस्पतियों में चांद उतरता है लेकिन सोम अदभुत रस है क्योंकि सोम नाम की जो वनस्पति है, उसमें चंद्रमा की पूरी शांति होती है। उसके पत्ते -पत्ते में, फूल में, जड़ों में चंद्रमा छिप जाता है। और उसका अगर विधिवत उपयोग किया जाए, तो समाधि फलित होती है।लेकिन श्रीकृष्ण यहां कह रहे हैं कि मैं वही सोम हूं। चांद भी मैं हूं, सूरज भी मैं हूं। इस जगत में जो तेज है, वह भी मेरा है, और इस जगत में जो शांति है, सन्नाटा है, वह भी मेरा है। इस जगत में जो तरंगें हैं, वे भी मेरी हैं। इस जगत में जो मौन , जो शांत समाधिस्थ व्यक्तित्व है, वह भी मैं हूं।मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त हुआ अन्न को पचाता हूं। और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं।

10-शरीर को तो हम जानते है, देखते है। तो जिसे हम जानते और देखते है -वह अलग हो गया ,संसार का हिस्सा हो गया।

भीतर आंख बंद करते है तो अपने हृदय की धड़कन भी हम सुनते है।तो यह हृदय की धड़कन भी हमारी न रही; यंत्रवत हो गई, शरीर की हो गई।आंख बंद करते है तो विचारों की बदलियां घूमती हैं। उनको भी हम देखते है कि यह विचार जा रहा है, यह अच्छा हैं या बुरा । इन विचारों के पार 'मैं' देखने वाला हो गया।समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं इतनी ही चेष्टा करती हैं कि तुम्हें यह समझ में आना शुरू हो जाए कि तुम क्या -क्या नहीं हो। नेति -नेति;अथार्त यह भी मैं नहीं, यह भी मैं नहीं ।जो भी दिखाई पड़ जाए, ज्ञेय /आब्जेक्ट बन जाए, उसे छोड़ते जाओ; इलिमिनेट करो। और उस जगह ही रुको, जहाँ सिर्फ जानने वाला ही रह जाए। वही अंतर्यामी है जो भीतर छिपा और सब जानता है, और किसी के द्वारा कभी जाना नहीं जाता। क्योंकि उसके पीछे जाने का कोई उपाय नहीं है। वह सबसे पीछे है। वह अंत है , मूल है।

11-अगर हम अपने भीतर के अंतर्यामी को पकड़ लें, वही हम हैं, अगर उसमें हम खडे हो जाएं और ठहर जाएं, तो हम श्रीकृष्ण में खड़े हो गए। और तब हम भी कह सकेंगे कि यह सूरज मेरी ही रोशनी है, और यह चांद मुझसे ही चमकता है, औषधियां मुझसे ही बड़ी होती हैं; और इस जगत में जो सोम बरस रहा है, वह मैं ही हूं।अंतर्यामी को आप पकड़ लें, तो यही घोषणा जो श्रीकृष्ण की है, आपकी घोषणा हो जाएगी। और तभी आप समझ पाएंगे कि श्रीकृष्ण यह घोषणा अहंकार के कारण नहीं बल्कि एक आंतरिक अनुभव के कारण कर रहे हैं कि''मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं तथा मेरे से ही स्मृति, जान और अपोहन, संशय -विसर्जन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं तथा वेदात का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं''।तीन शब्दों का श्रीकृष्ण ने उपयोग किया है ... स्मृति, ज्ञान और अपोहन। अपोहन का अर्थ है, संशय का विसर्जन।अपोहन शब्द याद रखने जैसा है।आपके भीतर सदा ऊहापोह चलता है। ऊहापोह का मतलब है, यह ठीक कि वह ठीक! यह भी ठीक, वह भी ठीक! कुछ समझ नहीं पड़ता कि क्या ठीक। संशय में मन घड़ी के पेंडुलम की तरह, बाएं -दाएं डोलता रहता है ; कहीं ठहरता नहीं ...यह ऊहापोह की अवस्था है।

12-अपोहन का अर्थ है, इससे विपरीत अवस्था। जहाँ कोई ऊहापोह नहीं, जहा संशय चला गया; जहाँ आप असंशय खड़े हो गए।जहाँ चित्त स्थिर है ,चुनाव न रहा कि यहां जाऊं कि वहाँ जाऊं /च्चाइसलेसनेस ...वह अपोहन है।श्रीकृष्ण कहते हैं, स्मृति मैं हूं। क्योंकि आपके भीतर जिसको आप स्मृति /मेमोरी कहते हैं, कि आपको पता है कि आपका नाम आदि क्या है, इससे स्मृति का प्रयोजन नहीं है ।स्मृति से इस बात का प्रयोजन है कि मैं कौन हूं ...सेल्फ रिमेंबरिग। मेमोरी नहीं, आत्मबोध, कि मैं कौन हूं!आप MBA हैं, यह आत्म बोध नहीं है। क्योंकि MBA होना स्त्री होना, कि पुरुष होना,सांयोगिक है; कोई आपका स्वभाव नहीं है।लेकिन हम उसको भी स्वभाव की तरह पकड़ लेते हैं।और ऐसा नहीं है आप वह नहीं रहेंगे, तो सब मिट गया क्योंकि कुछ नहीं मिटता। श्रीकृष्ण कह रहे हैं, आत्मस्मरण /सेल्फ रिमेंबरेंस 'मैं 'हूं। मेरा नाम, मेरा घर, पता, ये सब कुछ मूल्य के नहीं हैं। मेरा न कोई नाम है, और न मेरा कोई घर है, और न मेरा कोई रूप है। मेरी वह जो अरूप और अनाम स्थिति है, उसी को श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह स्मृति है।स्मृति शब्द बाद में बिगड़ा और संत कबीर के समय में सुरति हो गया। गुरुनानक और संत कबीर कहते हैं, सुरति जगाओ। सुरति का मतलब है,उसको जगाओ , जो आपके भीतर परमात्मा है।

13-वह जो सब संयोगों के पार है, सब स्थितियों के पार है, सभी स्थितियों से गुजरता है, फिर भी किसी स्थिति के साथ एक नहीं है, सभी अवस्थाओं से गुजरता है।कभी आप बच्चे हैं; कभी जवान हैं; कभी बूढ़ा हैं; लेकिन आपके भीतर कोई है, जो न बच्चा है, न जवान है, न बूढ़ा है; जो तीनों से गुजरता है।उदाहरण के लिए जैसे तीन स्टेशनें हों और आपकी ट्रेन तीनों से गुजर जाए। वह जो यात्री भीतर बैठा है, जो सदा चल रहा है, कहीं भी ठहरता नहीं है, किसी भी अवस्था के साथ एक नहीं हो जाता है; सदा अवस्था मुक्त है, उस स्मृति को श्रीकृष्ण कहते हैं, 'मैं हूं'।तीन शब्दों में श्रीकृष्ण ज्ञान भी कह रहे हैं। यहां ज्ञान से अर्थ नालेज का नहीं है। विश्वविद्यालय ज्ञान देते हैं। श्रीकृष्ण उस ज्ञान की बात नहीं कर रहे हैं। शिक्षक ज्ञान देते हैं और ज्ञान को स्मृति इकट्ठी कर लेती है ।आपके पास संग्रह हो जाता है , बड़ी सूचनाएं इकट्ठी हो जाती हैं। ज्ञान से अर्थ है... प्रज्ञा।यह बड़ी अलग बात है। क्योंकि यह हो सकता है, आप कुछ न जानते हों और ज्ञानी हों। और यह भी हो सकता है, बहुत कुछ जानते हों और निपट अज्ञानी हों।

14-आपके जानने से कोई संबंध नहीं है।एक व्यक्ति बहुत कुछ जान सकता है। सब शास्त्र कंठस्थ हो सकते हैं, और फिर भी जीवन में जो व्यवहार करे, वहां अज्ञानी सिद्ध हो।आपको वेद कंठस्थ हों और गीता आपकी जबान पर बैठी हो; और आपको मालूम है कि न तो शस्त्रों से छिदता हूं, न अग्नि मुझे जला सकती है। और जरा सा दुख आ जाए और आप ...। वहाँ पता चलता है कि यह प्रज्ञा है या नहीं। प्रज्ञा आपके अनुभव में काम आती है। ज्ञान केवल बुद्धि की बातचीत है और बुद्धि की बातचीत तो हम कुछ भी इकट्ठी कर ले सकते हैं।यहां श्रीकृष्ण जो ज्ञान कह रहे हैं; उसका प्रज्ञा से संबंध है।स्मृति, ज्ञान और अपोहन, ये ही सब वेदों द्वारा जानने योग्य तीन बातें हैं। सारा वेदांत इन्हीं तीन की खोज करता है। और न केवल सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं वरन वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं।सारे वेद मुझे ही खोजते हैं और सारे वेद मेरे ही अनुभव से निकलते हैं।

15-वास्तव में,सारे वेदों की खोज है कि वह अंतर्यामी मिल जाए। वह जो भीतर छिपा हुआ राजों का राज है, वह मिल जाए। लेकिन वेद निकलते कहां से हैं?जिनको वह मिल जाता है, उनकी वाणी वेद बन जाती है। जो उसे पा लेते हैं, उनकी सुगंध वेद बन ‘जाती है। जो वहां उस अंतर्यामी तक तक पहुंच जाते हैं , फिर वे जो भी कहते हैं, वही वेद बन जाता है। वे न कहें, तो मौन उनका वेद हो जाएगा। वे चलें -फिरें, उठें, तो उनकी गतिविधि वेद हो जाएगी। अगर श्रीकृष्ण को बांसुरी बजाते हुए देख लो, तो उस बांसुरी में वेद है; उसमें सारा वेदांत है, उसमें सारा इशारा है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं ही सबकी खोज, और मैं ही सब का मूल हूं। और यह जो 'मैं' है, तुम्हारे भीतर छिपा हुआ अंतर्यामी है। श्रीकृष्ण बाहर से बोल रहे हैं, लेकिन जिसकी तरफ इशारा कर रहे हैं, वह अर्जुन के भीतर है।गुरु सदा बाहर से बोलता है, लेकिन जिस तरफ इशारा करता है, वह शिष्य के भीतर है। इसलिए यात्रा के दो पड़ाव हैं । एक तो बाहर का गुरु, वह पहला पड़ाव है और फिर भीतर का गुरु, वह अंतिम पड़ाव है।

...SHIVOHAM....


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