क्या ध्यान और प्रेम एक ही अनुभव के दो नाम हैं ?
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...
प्रेम क्या है?
02 FACTS;-
1-माता पार्वती शिवजी की केवल अर्धांगिनी ही नहीं शिष्या भी बनीं। शिवजी से अनेक विषयों पर चर्चा करतीं।एक दिन पार्वतीजी ने पूछा- प्रेम क्या है महादेव?प्रेम का रहस्य क्या है?इसका वास्तविक स्वरुप, इसका भविष्य क्या है?शिवजी बोले- प्रेम क्या है, इसका रहस्य और स्वरुप यह तुम पूछ रही हो पार्वती?प्रेम का रहस्य क्या है--तुमने ही प्रेम के अनेको रूप उजागर किये हैं !तुमसे ही प्रेम की अनेक अनुभूतियाँ हुयी!सती के रूप में जब अपना शरीर त्याग तुम चली गयी, मेरा जीवन, मेरा संसार, मेरा दायित्व, सब निरर्थक और निराधार हो गया।मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धाराएँ बहने लगी. ये ही तो प्रेम है पार्वती!तुम्हारे अभाव में मेरे अधूरेपन की अति से इस सृष्टि का अपूर्ण हो जाना ये ही प्रेम है!तुम्हारे और मेरे पुन: मिलन कराने हेतु इस समस्त ब्रह्माण्ड का हर संभव प्रयास करना हर संभव षड्यंत्र रचना, पार्वती रूप में पुन: जन्म लेकर मेरे एकाकीपन और मुझे मेरे वैराग्य से बाहर निकलने पर तुम्हारा विवश करना और मेरा विवश हो जाना यह प्रेम ही तो है !जब जब अन्नपूर्णा के रूप में तुम मेरी क्षुधा को बिना प्रतिबन्धन के शांत करती हो या कामाख्या के रूप में मेरी कामना करती हो तो वह प्रेम की अनुभूति ही है!तुम्हारे सौम्य और सहज गौरी रूप में हर प्रकार के अधिकार जब मैं तुम पर व्यक्त करता हूँ और तुम उन अधिकारों को मान्यता देती हो और मुझे विश्वास दिलाती रहती हो कि सिवाए मेरे इस संसार में तुम्हे किसी का वर्चस्व स्वीकार नहीं तो वह प्रेम की अनुभूति ही होती है।जब तुम मनोरंजन हेतु मुझे चौसर में पराजित करती हो तो भी विजय मेरी ही होती है क्योंकि उस समय तुम्हारे मुख पर आई प्रसन्नता मुझे मेरे दायित्व की पूर्णता का आभास कराती है।तुम्हें सुखी देखकर मुझे सुख का जो आभास होता है यही तो प्रेम है पार्वती !
2-जब तुमने अपने अस्त्र वहन कर शक्तिशाली दुर्गा रूप में अपने संरक्षण में मुझे सशक्त बनाया तो वह अनुभूति प्रेम की ही थी !जब तुमने काली के रूप में संहार कर नृत्य करते हुए मेरे शरीर पर पाँव रखा तो तुम्हें अपनी भूल का आभास हुआ और तुम्हारी जिह्वा बाहर निकली, वही भी प्रेम था पार्वती !जब तुम अपना सौंदर्यपूर्ण ललिता रूप जो कि अति भयंकर भैरवी रूप भी है, का दर्शन देती हो और जब मैं तुम्हारे अति-भाग्यशाली मंगला रूप जो कि उग्र चंडिका रूप भी है, का अनुभव करता हूँ, जब मैं तुम्हें पूर्णतया देखता हूँ बिना किसी प्रयत्न के, तो मैं अनुभव करता हूँ की मैं सत्य देखने में सक्षम हूँ !जब तुम मुझे अपने सम्पूर्ण रूपों के दर्शन देती हो और मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारा विश्वासपात्र हूँ !इस तरह तुम मेरे लिए एक दर्पण बन जाती हो जिसमें झांक कर में स्वयं को देख पाता हूँ कि मैं कौन हूँ !तुम अपने दर्शन से साक्षात् कराती हो और मैं आनंदविभोर हो नाच उठता हूँ और नटराज कहलाता हूँ !यही तो प्रेम है..जब तुम बारम्बार स्वयं को मेरे प्रति समर्पित कर मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारे योग्य हूँ, जब तुमने मेरी वास्तविकता को प्रतिबिम्भित कर मेरे दर्पण के रूपको धारण कर लिया वही तो प्रेम था पार्वती.. क्या अंतर है एक आयोजित विवाह और एक दिव्य प्रेम में?
08 FACTS;-
1- विवाह दो भांति संभव हो सकता है। एक आयोजित, कि माता और पिता , पंडित-ज्योतिषी निर्णय लें। परिवार-समाज सहयोगी हो, लेकिन जिन व्यक्तियों का विवाह हो रहा है, उनकी कोई भी मरजी न पूछी जाए, समाज तय करे। ऐसा विवाह आयोजित विवाह है ;जिसमें बड़ी सिक्योरिटी है।क्योंकि जब बुजुर्ग तय करते हैं, तो पूरे गणित का , पूरे अनुभव का उपयोग करते हैं। जीवन में जो उन्होंने जाना है, सीखा है, समझा है, उस हिसाब से तय करते हैं। बड़े-बूढ़े स्वभावतः चालाक होते हैं। उनकी चालाकी, उनका गणित वे उपयोग में लाते हैं। और उन्होंने जीवन में कुछ महत्वपूर्ण बातें देखी हैं, जो कि बच्चे, बच्चे होने के कारण नहीं देख सकते। उन्होंने देखा है कि भाव की दशाएं सदा टिकती नहीं हैं। उन्होंने जाना है कि भाव की ऊंचाई पर जो निर्णय लिए जाते हैं, जब भाव नीचे गिरेगा तो वे निर्णय नष्ट हो जाएंगे। उन्होंने यह भी जाना है कि सपनों में ज्यादा देर तक नहीं जीया जा सकता। सपने अंततः टूट जाते हैं। 2-रोमांस एक ऐसा सपना है, जिसमें हम दूसरे को परमात्मा या दूसरे में परमात्मा देखते हैं। लेकिन हमारी मनोदशा तो ऐसी नहीं कि दूसरे में परमात्मा हम सतत देख सकें। क्षणभर को झलक मिलती है और खो जाती है, फिर घुप्प अंधेरा हो जाता है। और जब दूसरे में परमात्मा हमें नहीं दिखाई पड़ेगा, तो उस झलक के आधार पर जो संबंध हमने निर्मित किया था, वह बिखर
जाएगा।इसलिए पश्चिम में इतना ज्यादा तलाक है। क्योंकि पश्चिम में समाज विवाह को तय नहीं कर रहा है, बच्चे स्वयं तय कर रहे हैं। सौ विवाह में से पचास टूट जाते है और जो पचास चलते हैं, वे भी मजबूरी में ,अन्य कारणों से चलते मालूम पड़ते हैं, प्रेम के कारण नहीं। बच्चे हैं, नौकरी है, अकेलापन है, छोड़ने में मजबूरी है, छोड़ने में सम्मान को धक्का लगता है, इन सब कारणों से टिकते हैं।तो जो विवाह समाज तय करता है, वह बड़ा टिकाऊ है क्योकि उसमें कोई प्रेम की ऊंचाई नहीं है, उसमें गणित का समतल जगत है ;हिसाब को प्रधानता है, भावना को नहीं। समाज जब तय करता है तो बुद्धि से तय करता है, उसमें हृदय को स्थान नहीं है। और हृदय भरोसे योग्य नहीं है, क्योंकि हृदय इस क्षण कह सकता है 'हां' और दूसरे क्षण कह सकता है 'न'।
3-बुद्धि का तो तर्क और गणित है, उसकी स्थिरता तो सभी को उपलब्ध हो सकती है। इसलिए बुद्धि को शिक्षित किया जा सकता है, विद्यालय, विश्वविद्यालय, परीक्षाएं; लेकिन हृदय का न कोई विद्यालय है, न कोई विश्वविद्यालय है, न कोई परीक्षाएं हैं। हृदय को शिक्षित नहीं किया जा सकता।हृदय की स्थिरता तो केवल समाधिस्थ पुरुषों को उपलब्ध होती है। हृदय को तो पकड़ने में वे ही सफल हो पाते हैं, जो समाधिस्थ हुए, जो लीन हो गए, जिनका अहंकार संपूर्ण रूप से समाप्त हो गया। ऐसे समाधिस्थ हृदय से जो प्रेम उठता है, वह तो सनातन है, शाश्वत है। उसका कभी कोई अंत नहीं होता।पर ऐसा प्रेम तो कभी -कभी हीं उठेगा । ऐसे प्रेम का आसरा लेकर समाज नहीं चलाया जा सकता। और इसको हम आधार मानकर चलेंगे, तो अधिक लोग दुखी , पीड़ित हो जाएंगे। अनुभव, समझ, गणित, सभी आयोजित विवाह के पक्ष में हैं। उससे चीजें टिकती हैं। माना कि आकाश नहीं छुआ जा सकता, लेकिन पृथ्वी पर पैर जमे रहते हैं। कोई बहुत आनंद की वर्षा भी नहीं होगी, लेकिन सुख-दुख का छोटा-सा झरना सदा बहता रहता है। 4-वे जो आनंद की वर्षा की आकांक्षा करते हैं, उसमें से सौ में से निन्यानबे, अक्सर दुख के मरुस्थल में खो जाते हैं। वे जो थोड़े से सुख-दुख के झरने पर राजी हैं, उन्हें न तो कभी आनंद का आकाश मिलता है और न कभी दुख का मरुस्थल मिलता है। वे जीवन को चला लेते हैं और उस चलती गाड़ी का हमने नाम जीवन दे रखा है।आयोजित विवाह टिकाऊ होगा, स्थायी होगा, उसमें महासुख न होंगे, उसमें महादुख भी न होंगे। न वह प्रेम के कारण बना है, न प्रेम के खोने पर टूटेगा। और जब प्रेम के कारण बना ही नहीं है, तो प्रेम के खोने का सवाल नहीं है। वह एक सामाजिक संस्था है। हजारों साल के अनुभव के बाद, हृदय को हम मौका नहीं देते हैं और बुद्धि से तय करते हैं।जिस कामवासना को आप प्रेम समझते हैं, वह प्रेम नहीं है।वह सिर्फ प्रकृति के द्वारा संचालित प्रक्रिया है जिसमें प्रकृति संतति के लिए आपको नियोजित करती है।जहां तक कामवासना का संबंध है, मछलियों में, पक्षियों में, वृक्षों में और आप में कोई भी भेद नहीं है।कामवासना प्राकृतिक घटना है। प्रेम अप्राकृतिक, अलौकिक, परा-प्राकृतिक घटना है।इसे समझ कि प्रेम प्रकृति के बहुत पार है।श्रीराम और माँ सीता का प्रेम, प्रेम है केवल विवाह नहीं। और महृषि बाल्मीकि की रामायण शुद्ध है। महृषि बाल्मीकि ने रामायण वैसी कही है जैसे राम रहे होंगे। 5-संत तुलसीदास आदर्शवादी हैं और महृषि बाल्मीकि यथार्थवादी।श्रीराम और माँ सीता का संबंध प्रेम का ही संबंध है, पति-पत्नी का नहीं।श्रीराम पहुंचते हैं माँ सीता की नगरी में, बगीचे में घूमते हैं और उनको देखकर प्रेम में पड़ जाते हैं। इन दो हृदयों के मिलने की घटना पहले घट गई है।यह श्रीराम का और माँ सीता का प्रेम में पड़ जाना प्रथम घटना है। इसके बाद शेष सारा विकास हुआ है।वास्तव में, हम प्रेम का अध्ययन ही नहीं करते बल्कि प्रेम से बचना चाहते हैं।कुछ कृष्ण-भक्त हैं और राम-विरोधी कि एक सुनी हुई बात पर, एक अफवाह पर गर्भवती माँ सीता को घर से निकाल देना, यह बात कुछ मर्यादा पुरुषोत्तम के योग्य मालूम नहीं पड़ती। इसमें प्रेम की बड़ी कमी मालूम होती है। राम राजपुरुष रहे होंगे, एक राजनीतिज्ञ रहे होंगे, लेकिन प्रेमी तो नहीं हैं।वे अगर समझ पाए तो श्रीराम और श्रीकृष्ण एक ही दिखाई पड़ेंगे कि यह प्रेम की बड़ी अनूठी घटना है और सिर्फ प्रेमी ही यह कर सकता है।
6-वास्तव में, श्रीराम के मन में यह खयाल भी नहीं उठता कि सीता ऐसा भी सोच सकती है कि श्रीराम ने गलत किया। सीता इसे स्वीकार करेगी ...यह प्रेम ऐसा अनन्य है। दुनिया में और सारे लोगों ने अनुचित का सवाल उठाया हो, श्रीराम के बच्चों ने अर्थात लव-कुश ने उठाया है, लेकिन सीता ने नहीं उठाया है।जो भी रामायण पढ़ेगा उसको सवाल उठेगा ही कि यह बात क्या है। सीता ने स्वीकार कर लिया है।जब हम किसी को प्रेम करते हैं, तो वह जैसा भी है, हम उसे वैसा पूरा स्वीकार कर लेते हैं। वह हमारे साथ जो भी करेगा, वह बुरा तो हो ही नहीं सकता। यह प्रेम की सहज उत्पत्ति है कि वह सारी दुनिया को बुरा दिखाई पड़े, लेकिन प्रेमी को बुरा दिखाई नहीं पड़ सकता।प्रेमी अपने अहंकार को छोड़ ही चुका होता है। और श्रीराम सीता को वनवास भेज सकते हैं , क्योंकि यह सीता का भेजना नहीं, खुद का ही जाना है। यह भेद इतना भी नहीं रहा है।इसलिए जब हम दूसरे को कुछ कष्ट दे रहे हों, तो विचार भी उठता है। जब अपने को ही किसी त्याग या कष्ट में ले जा रहे हों, तो विचार का कोई सवाल ही नहीं। 7-सीता श्रीराम को इतनी अपनी है कि छोड़ने में उन्हें यह विचार नहीं उठा कि कुछ अनुचित हो रहा है। जैसे वे खुद एक दिन पिता के कहने पर जंगल चले गए थे, वैसे ही सीता भी जंगल चली जाती है। जहां प्रेम है, वहां प्रश्न नहीं है, वहां एक परम स्वीकृति है।श्रीराम और सीता के बीच जो घटना घटी है, वह प्रेम की ही अनन्य घटना है और पति-पत्नी होना गौण है। वह सामाजिक उपचार है , स्वीकृति है ...मूल आधार नहीं है।और श्रीराम के मन में दूसरी स्त्री का प्रश्न नहीं उठेगा। जहां प्रेम की कमी है, जहां हम तृप्त नहीं हैं, अतृप्त हैं, वहीं दूसरा हमें आकर्षित करता है।प्रेम एक अद्वैत है, जहां दूसरे का कोई सवाल ही नहीं।प्रेम सिर्फ प्रेम करता है, किसी को सुधारना नहीं चाहता।अगर तुमने चाहा कि दूसरा ऐसा व्यवहार करे जैसा मैं चाहता हूं; बस तुमने प्रेम के जीवन में विष डालना शुरू कर दिया। और जैसे ही तुम यह चाहोगे, दूसरा भी अपेक्षाएं शुरू कर देगा। तब तुम एक-दूसरे को सुधारने में लग गए। प्रेम किसी को सुधारता नहीं।यद्यपि प्रेम के माध्यम से आत्मक्रांति हो जाती है, लेकिन प्रेम किसी को सुधारने की चेष्टा नहीं करता। सुधार घटता है, सुधार अपने से होता है।
8-प्रेम से बड़ी कोई शक्ति नहीं है। तुम्हारा प्रेम ही सुधार देगा लेकिन अपेक्षा मत करना।जहाँ अपेक्षा की और सुधारना चाहा तो बस मुसीबत हो गई...तुम घाटी की तरफ उतरने लगे।तुम घर में छोटे-छोटे बच्चे को प्रेम करते हो, लेकिन प्रेम से ज्यादा उनकी सुधार की चिंता बनी रहती है। बस उसी सुधार में तुम्हारा प्रेम मर जाता है।कोई बच्चा अपने माता-पिता को कभी माफ नहीं कर पाता, नाराजगी आखिर तक रहती है। पैर भी छू लेता है, क्योंकि छूना पड़ता है; लेकिन भीतर माता-पिता दुश्मन ही मालूम होते रहते हैं। क्योंकि ऐसी छोटी-छोटी चीजों पर उन्होंने बच्चे को सुधारने की कोशिश की। बच्चे को समझ में आता है कि जैसा मैं हूं वैसा प्रेम के योग्य नहीं ..उतना काफी नहीं। जैसा मैं हूं उसको काटना-पीटना, बनाना पड़ेगा, तब प्रेम के योग्य हो पाऊंगा। बच्चे को इसमें निंदा का स्वर मालूम पड़ता है।वास्तव में, प्रेम सिर्फ प्रेम करता है, किसी को सुधारना नहीं चाहता। और प्रेम बड़े सुधार पैदा करता है। प्रेम की छाया में बड़ी क्रांतियां घटती हैं। अगर माता-पिता ने बच्चे को सच में प्रेम किया है,तो बस काफी है। उतना प्रेम ही उसे सम्हालेगा; उसे गलत जाने से रोकेगा। जब भी वह राह से नीचे उतरने लगेगा,या मार्ग में बाधा बन जाएगा तो याद आएगी माता-पिता की, उनके बेशर्त प्रेम की--और बच्चे के पैर पीछे लौट आएंगे।
क्या ध्यान और प्रेम एक ही अनुभव के दो नाम हैं?-
13 FACTS;- 1- विवाह बुद्धि का निर्णय है।लेकिन प्रेम बिलकुल अनूठी बात है, उसका बुद्धि से कोई संबंध नहीं। प्रेम का विचार से भी कोई संबंध नहीं। जैसे ध्यान निर्विचार है, वैसे ही प्रेम निर्विचार है। और जैसे ध्यान बुद्धि से नहीं सम्हाला जा सकता, वैसे ही प्रेम भी बुद्धि से नहीं सम्हाला जा सकता।ध्यान और प्रेम करीब-करीब एक ही अनुभव के दो नाम हैं।जब किसी दूसरे व्यक्ति के संपर्क में ध्यान घटता है, तो हम उसे प्रेम कहते हैं। और जब बिना किसी दूसरे व्यक्ति के, अकेले ही प्रेम घट जाता है, तो उसे हम ध्यान कहते हैं। ध्यान और प्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ध्यान और प्रेम दो अलग-अलग स्थानों से देखे गये एक ही दरवाजे का नाम है।अगर बाहर से देखोगे, तो दरवाजा प्रेम है। अगर भीतर से देखोगे, तो दरवाजा ध्यान है। जैसे एक ही दरवाजे पर बाहर से लिखा होता है एंटे्रन्स/प्रवेश; और भीतर से लिखा होता है एग्जिट/बहिर्गमन। वह दरवाजा दोनों काम करता है। अगर बाहर से उस दरवाजे पर आप पहुंचे, तो लिखा है प्रेम। अगर भीतर से उस दरवाजे को अनुभव किया, तो लिखा है ध्यान।ध्यान अकेले में ही प्रेम से भर जाने का नाम है और प्रेम दूसरे के साथ ध्यान में उतर जाने की कला है।इस दरवाजे पर शायद ही कभी कोई पहुंच पाएगा। क्योंकि जितने कम ध्यानी हैं ;उतने ही कम प्रेमी होंगे। ध्यानियों के हिसाब से हम दुनिया नहीं चलाते, प्रेमियों के हिसाब से भी नहीं चला सकते। इसलिए ध्यानी और प्रेमी, दोनों को दुनिया अंधा कहती है कि इन्हें कुछ सूझता नहीं। 2-वास्तव में, बुद्धि के पास आंखें हैं और बुद्धि सोचती है, बस उसके ही पास आंखें हैं। हृदय के पास कोई और आंखें हो सकती हैं, इसका बुद्धि को पता भी नहीं। और पता भी हो जाए तो भरोसा नहीं। क्योंकि हृदय एक सहज धारा है।हृदय अतीत का हिसाब नहीं रखता कि कल क्या हुआ, परसों क्या हुआ। बुद्धि हिसाब रखती है पूरे अतीत का और अतीत के आधार पर वर्तमान में निर्णय लेती है। जो जीवन में जाना है, उस पूरे को मौजूद करके आज क्या करना है, उस संबंध में निर्णय लेती है। हृदय निर्भार है, हृदय का कोई अतीत नहीं है, उसकी कोई स्मृति नहीं है। वह इसी क्षण झटके से निर्णय लेता है। वह कुछ सोचता-विचारता नहीं .. अनुभव को बीच में नहीं लाता। उसका जो रिस्पांस है, वह इसी पल है, नया और ताजा है। हृदय सदा सुबह की ओस जैसे ताजा होता है ।जबकि बुद्धि सदा पुरानी,बासी और सड़ी-गली है।हृदय सदा यहां और अभी है। इसलिए हृदय बुद्धि की दृष्टि में अंधा और पागल है।ध्यान तुम्हें बुद्धि से हटाता है और हृदय में ले आता है। और जैसे -जैसे तुम हृदय के करीब आते हो वैसे -वैसे ही पात्रता निर्मित होती है।
3-प्रेमी और ध्यानी ज्यादा नहीं हैं, ज्यादा हो भी नहीं सकते। ध्यानियों के संबंध में तो हम भी मानते हैं कि ज्यादा नहीं हैं, लेकिन प्रेमियों के संबंध में हम नहीं मानते।हम सभी समझते हैं कि हम सब तो प्रेमी हैं। लेकिन यह भ्रांति है । जितने न्यून ध्यानी हैं, उतने ही न्यून प्रेमी हैं। क्योंकि प्रेम भी ध्यान की ही एक घटना है। और जैसे श्रीकृष्ण, क्राइस्ट, गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी इने-गिने ध्यानी हुए, ऐसे ही इने-गिने प्रेमी हुए हैं ..श्रीराम -सीता, श्रीकृष्ण-राधा या मीरा।जिस दिन भी आप किसी के प्रेम में पड़ गए, उस दिन सारी स्त्रियां उस स्त्री में समा गईं, सारे पुरुष उस पुरुष में समा गए। फिर वह स्त्री प्रकृति है और आपका पुरुष पुरुष है और यह सारा जगत खो गया। और इसीलिए प्रेम की इतनी भूख है; और जब तक ऐसा प्रेम न मिल जाए, तब तक तृप्ति भी न होगी; तब तक आप कितने ही साथी बदलें।एक जीवन, एक पत्नी; फिर दूसरे जीवन, दूसरी पत्नी, दूसरा पति बदलने की हमें सुविधा है। पश्चिम में चूंकि ईसाइयत ने कहा, एक ही जन्म है.. इतनी सुविधा नहीं है। तो एक ही जन्म में उनको उतना काम करना पड़ता है, जो आप कई जन्मों में फैलाकर कर रहे हैं। उन्हें जल्दबाजी है, क्योंकि समय कम है। आपके पास समय बहुत है, इसलिए जल्दबाजी नहीं है। लेकिन कोई बुनियादी अंतर नहीं है।
4-और दो यात्राएं हैं: या तो प्रेम घट जाए और या ध्यान घट जाए। और दो तरह के व्यक्ति हैं, एक स्त्री का चित्त है, जहां प्रेम पहले घट सकता है, फिर ध्यान घटेगा। और एक पुरुष का चित्त है, जहां ध्यान पहले घटे, फिर प्रेम घटेगा। ये दो ढंग हैं। लेकिन कोई भी पहले घटे, दूसरा अनिवार्य-रूप से घटने वाला है। एक कदम उठ गया है, तो दूसरा भी उठेगा।तो आप अपने को पहचान लें, अगर आपके जीवन में प्रेम से ही परमात्मा की खोज होने वाली है, और आपको लगता है कि ध्यान में मेरी कोई रुचि नहीं, प्रेम में ही मेरा रस है, तो आप ध्यान की व्यर्थ चेष्टा मत करें। आप प्रेम में ही डूबने का उपाय करें।और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह प्रेम किसका है। वह आपकी पत्नी का है कि आपके बच्चे का है कि आपकी गाय का है कि एक वृक्ष के साथ है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि सवाल दूसरे का नहीं, सवाल प्रेम करने की प्रक्रिया का है। एक पत्थर से भी आप प्रेम कर लें, तो भी वही घट सकता है।पत्थर की मूर्ति के पास भी भक्त ने भगवान को पा लिया है। क्योंकि पत्थर की मूर्ति का सवाल ही नहीं है, सवाल तो भीतर के हृदय का है।भक्त का उसकी पत्थर की मूर्ति से व्यवहार देखें ,तो वैसा व्यवहार आपने किसी जीवित चिन्मय व्यक्ति के साथ भी नहीं किया है।हमें लगेगा कि सब पागलपन है क्योंकि मनोविज्ञान को प्रेमी के हृदय का कोई भी पता नहीं है। 5-वास्तव में, प्रेम-पात्र तो सिर्फ बहाना है। प्रेम-पात्र के बहाने के द्वारा भीतर प्रेम का जो झरना रुक गया है, वह फिर झरने लगे, कहीं पत्थर अटक गए हैं, वे पत्थर हट जाएं। तो पात्र तो सिर्फ पत्थर हटाने का काम कर रहा है। झरना तो मेरे भीतर है,मेरा स्वभाव हैं। एक बार बहने लगे, तो आप निश्चिंत होकर जान लेंगे कि इसका प्रेम-पात्र से कोई भी संबंध न था। यह झरना तो था लेकिन मैंने ही पत्थर रख-रखकर झरने को रोक रखा था। प्रेम-पात्र ने सहायता दी और पत्थर हट गए और झरना निर्बाध बहने लगा।तो अगर प्रेम आपका रस हो, तो पागल होने की तैयारी चाहिए। फिर किससे प्रेम, यह सवाल ही नहीं है। श्री कृष्ण की मूर्ति काम दे सकती है और एक अनगढ़ पत्थर भी काम दे सकता है। तुम किसी को प्रेम करो। यह छोटी-छोटी छलांग का अभ्यास है। फिर परमात्मा प्रेम की आखिरी छलांग है, जिसमें तुम बिलकुल न बचोगे, खो जाओगे अनंत खाई में, फिर तुम्हारा नामोनिशान न बचेगा। वह आखिरी छलांग है, इसीलिए जरा रुको। शायद उतनी हिम्मत अभी तुम न जुटा पाओ, थोड़ी-थोड़ी छलांग लो, छोटे-छोटे गङ्ढों में अभ्यास करो। लोग प्रेम से बचते है क्योंकि प्रेम पाश है ,बंधन है। 6-अगर भीतर अहंकार हो, तो निश्चित ही प्रेम बंधन बनता है और प्रेम चारों तरफ से कसता है। और जब प्रेम कसता है, तो हम भीतर तड़फड़ाते हैं। लेकिन अगर भीतर मैं हूं, तो प्रेम तो हो ही नहीं सकता। इसलिए प्रेम के नाम पर जिसे हम चलाते हैं, वह मोह है, वासना है, तृष्णा है, कामना है। और अहंकार भीतर है, तो वासना, तृष्णा, मोह, सब बांध लेते हैं।हमने वासना को पाशविक कहा है। पाश का अर्थ होता है, बांधने वाला, बंधन। पशु का अर्थ होता है, जो बंधा हुआ है। पाशविक का अर्थ होता है, बंधने को तत्पर। पशु का अर्थ जानवर से नहीं है, जो भी बंधा है, वह पशु है। पाश उसके चारों तरफ है। और बंध वही सकता है, जो भीतर खड़ा है।प्रेमी तो बंध ही नहीं सकता है। इसलिए प्रेम को जो जानते हैं, उन्होंने परम स्वतंत्रता कहा है। उन्होंने कहा, प्रेम मोक्ष है, क्योंकि प्रेम में तुम मिट जाओगे। अगर पाश होंगे भी, तो शून्य में भटकते रहेंगे और शून्य को तुम पाश से बांधने की कोशिश करोगे, तो तुम्हारे पाश में ही गांठ पड़ जाएगी, लेकिन भीतर तो कोई पाया नहीं जा सकता है। 7-वास्तव में, किसी ने कभी प्रेम न किया हो ..यह खोजना ही कठिन है, क्योंकि प्रेम स्वभाव है। और जो मस्त होने को तैयार हैं, केवल उन्हीं पर परमात्मा प्रेम की तरह बरसता है।अगर आपके हृदय में प्रेम हो और एक गाय से भी थोड़ा लगाव है तो कोशिश करो।गाय ही तुम्हारा पहला अभ्यास हो जाएगी । तुम जाओ और गाय को हृदयपूर्वक प्रेम करो। गाय तुम्हारी स्मृति में समा जाए, रोएं-रोएं में बैठ जाए। उठो तो गाय, बैठो तो गाय, चलो तो गाय, तुम गायमय हो जाओ। और गाय की आंख में डूब-डूबकर परमात्मा की आंख स्मरण आ जाएगी ।और इसलिए हम गाय को माता कहते रहे हैं। गाय के पास जैसी निर्विकार आंख है, वैसी कहीं भी खोजनी कठिन है।मनुष्य की आंख भी वैसी निर्विकार नहीं। जैसा शुद्ध, जैसे आकाश बिलकुल निरभ्र हो, बादल बिलकुल न हों। गाय की आंख के पास बैठकर कभी देखने की कोशिश करें तो तत्क्षण गाय के हृदय का प्रेम उठना शुरू हो जाएगा। क्योंकि गाय को कोई अपना-पराया है, न गाय के पास कोई बुद्धि है, जो हिसाब रखती है, गणित लगाती है, सोच-विचारकर चलती है। गाय तो शुद्ध हृदय है। अगर आपके भीतर प्रेम है, तो गाय तत्क्षण प्रेम की तरंगें आपकी तरफ भेजने लगेगी। 8- गाय तो बहुत दूर, वैज्ञानिक कहते हैं, जब आप पौधे के प्रति भी प्रेम-पूर्ण खड़े होते हैं तो पौधा भी प्रेम की तरंगें भेजना शुरू कर देता है। विद्युत यंत्र हैं, जो पौधे से बांध दिए जाते हैं। और कागज पर ग्राफ बन जाता है कि हृदय कैसा धड़क रहा है, ऐसा पौधे के भीतर विद्युत की तरंगें कैसी धड़क रही हैं, उसका ग्राफ बन जाता है। जब पौधे को प्रेम करने वाला व्यक्ति पास खड़ा हो , जो उसे सहला रहा हो, जो उसके कारण प्रसन्न हो रहा हो, तो अलग ग्राफ बनता है। पौधा प्रफुल्लित है, वह ग्राफ से पता चलता है। माली कैंची लेकर आता है, ग्राफ फौरन बदल जाता है।जो पौधे पास हैं, उनका भी ग्राफ बदल जाता है। क्योंकि वे भी उसकी पीड़ा को अनुभव करते हैं।अगर आप पौधे के पास एक कबूतर की गरदन मरोड़ दें, तो भी सारे पौधे रोते हैं, और उनके ग्राफ बदल जाते हैं।यह भी अनुभव किया कि जो व्यक्ति पौधों को नुकसान पहुंचाए या कबूतर को मार डाले, वह दूसरे दिन भी आए, तो उसके कमरे /बगीचे में आते से ही, ग्राफ बदल जाते हैं क्योंकि पौधे सचेत हैं। 9-तो पौधे तो और भी कम विकसित जीवन-धारा के अंग हैं। अगर आप गाय को प्रेम कर सकें और उसकी आंख में झांक सकें, तो उसकी आंख वह द्वार हो जाएगी, जिसमें बाहर से प्रेम लिखा हैऔर भीतर से लिखा है ध्यान।किसी को भी प्रेम कर सकें, अगर प्रेम आपके जीवन का ढंग है, अगर लगता है कि प्रेम आपकी प्यास है, तो उसमें डूब जाएं। पर पूरे डूबें, तो ही उबर सकेंगे। बचाने की कोशिश की, तो फिर न उबर पाएंगे।या आपको लगे कि प्रेम मेरा रस नहीं–ऐसे लोग हैं, जिनका प्रेम रस नहीं–तो उन्हें कुछ दुखी और चिंतित और निराश हो जाने की जरूरत नहीं। ध्यान उनका मार्ग है। तब वे अकेले हों और अपने में डूबें। अगर दूसरे में नहीं डूब सकते, तो अपने में डूबें। अगर अपने में नहीं डूब सकते, तो दूसरे में डूबें। डूबने के दो ही ढंग हैं। या तो अपने में ही लीन हो जाएं या दूसरे में लीन हो जाएं। 10-महावीर स्वामी अपने में लीन होते हैं। इसलिए कहते हैं ध्यानी को परमात्मा की कोई जरूरत नहीं , क्योंकि परमात्मा तो दूसरा है, मुझसे अन्य। अप्पा सो परमप्पा! वे कहते हैं, वह जो भीतर छिपा है, आत्मा है, वही परमात्मा है और कोई परमात्मा नहीं है।यह कोई नास्तिकता नहीं है। यह ध्यानी का वक्तव्य है। और प्रेमी इससे बड़े परेशान हो जाते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि यह व्यक्ति नास्तिक है।वास्तव में, महावीर नास्तिक नहीं हैं। यह ध्यानी की आस्तिकता है।और ध्यानी मीरा को आंसू बहाते सुनेंगे तो कहेंगे, यह क्या पागलपन है? वे इसे धर्म न कह पाएंगे क्योंकि यह प्रेमी का धर्म है ..आस्तिकता है।प्रेमी की आस्तिकता, ध्यानी को सदा ही कुछ पागल, कुछ गलत बात मालूम पड़ेगी। ध्यानी की आस्तिकता प्रेमी को सदा नास्तिकता मालूम पड़ेगी।इसलिए हिंदुओं ने जैन, बौद्ध और चार्वाक, तीनों को एक साथ नास्तिक परंपराएं गिनाया है। चार्वाक तो ठीक है, लेकिन उसमें जैन और बौद्ध भी गिनाए कि ये तीन संप्रदाय नास्तिक हैं।उसका कारण है, प्रेमी सोच ही नहीं सकता कि अपने में कैसे डूबोगे? यह अपने में डूबना तो ऐसे ही हुआ, जैसे कोई खुद को अपने ही पैरों को पकड़कर उठाने की कोशिश करे। डूबने के लिए तो कुछ और चाहिए ...कोई अन्य चाहिए। वह अन्य ही परमात्मा है, जिसमें हम डूब सकेंगे।
11-लेकिन ध्यानी कहता है कि जब तक दूसरा है, तब तक थोड़ा न बहुत तनाव बना ही रहेगा। दूसरे की चिंता, दूसरे का विचार, प्रार्थना, पूजा, तो मन जारी ही रहेगा। जब तक दूसरा है, उसकी मौजूदगी भी डूबने में थोड़ा-सा अंकुश बनी रहेगी। दूसरा बिलकुल नहीं है, तभी तुम डूबोगे, तभी डूबना पूरा होगा।वे दोनों ही ठीक कहते हैं। और ये एक ही दरवाजे के दो नाम हैं। श्रीराम और माँ सीता के बीच अनन्य प्रेम घटा है। किसी और साधना की जरूरत न रही। कुछ और करना आवश्यक न रहा, बस प्रेम ने सब कर दिया है। यह प्रेम इतना अनूठा था कि हमने श्रीराम के नाम को पीछे कर दिया और सीता के नाम को आगे कर दिया। हम कहते हैं, सीता-राम। क्योंकि हिंदुओं का सारा मनोभाव प्रेम के द्वार से विकसित हुआ है। यहां ध्यानी भी हुए हैं, लेकिन ध्यानी हिंदू-धारा के बाहर पड़ गए हैं। हिंदू-धारा का मूल-सूत्र प्रेम है।तो गौतम बुद्ध यहां हुए, महावीर यहां हुए, महृषि पतंजलि यहां हुए, लेकिन वे हिंदू-धारा के मूल-स्रोत नहीं बन सके। छोटे झरने हैं, जो इसके साथ बह रहे हैं। हिंदू विचार को जिसे भी समझना हो, उसे प्रेम की अल्केमी को पूरा समझ लेना जरूरी है।यह जो श्रीराम और माँ सीता के बीच घटा है, यह आपके और किसी के भी बीच घट सकता है। तो आप यह मत सोचना कि कहां खोजें राम को ..सीता को। अगर आपने ऐसा सोचा, तो शुरू से ही आप गलत तर्क में पड़ गए।
12-असल में जब भी आप किसी को प्रेम करेंगे, वहीं सीता /राम मिल जायेगे ।जब भी आप किसी को प्रेम करते हैं, तो तत्क्षण मनुष्य खो जाता है और परमात्मा प्रगट हो जाता है। प्रेम जैसे छैनी है, जो पत्थर से मूर्ति को प्रगट कर देती है।आप पर जो मनुष्यता है, वह पर्दा है। प्रेमी उसे हटा देता है और आपके भीतर छिपे हुए चिन्मय-स्वरूप को देख लेता है। आपका जो स्त्री या पुरुष होना है, वह एक ऊपर का रूप है, एक औपचारिकता है। उसे प्रेमी हटा देता है और सीता प्रगट हो जाती है।अगर प्रेम है, तो जहां भी प्रेम का प्रकाश पड़ेगा, वहीं राम दिखाई पड़ना शुरू होगा, वहीं सीता प्रगट हो जाएगी ।लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को ठीक से समझ लेना जरूरी है कि मेरी प्यास क्या है।वास्तव में, बड़े से बड़ा कठिन काम यही है कि हम ठीक से अपनी प्यास समझ लें। नहीं तो प्रेमी ध्यान करता रहे, व्यर्थ समय जाएगा; ध्यानी प्रेम का उपाय करता रहे, व्यर्थ समय जाएगा। क्योंकि पूरे वक्त भीतर से विरोध बना रहेगा।गौतम बुद्ध को हम कीर्तन में ले जाएं , विरोध बना रहेगा कि यह सब व्यर्थ हो रहा है। हम मीरा से कहें कि तुम भी बोधि-वृक्ष के पास आंख बंद करके बैठ जाओ, तो विरोध बना रहेगा। और इन दोनों के बीच कोई विरोध नहीं है ...अपने-अपने ढंग हैं। केवल एलिमेंटल ... एयर ,वॉटर का अंतर हैं।
13- हर व्यक्ति का अपना अनूठा ढंग होता है जिससे वह यात्रा करता है। परमात्मा तक हम सब अद्वितीय ढंग से पहुंचते हैं। और जब भी कोई चेतना परमात्मा के पास पहुंचती है, तो ऐसी घटना पहले कभी नहीं घटी होती। यह पहली दफा घटती है और आखिरी दफा घटती है। और यही महिमा है कि इस जगत में कोई पुनरुक्ति नहीं होती। और इस जगत का जो आत्यंतिक अनुभव है, वह तो दुबारा हो ही नहीं सकता। हर व्यक्ति जब परमात्मा के निकट पहुंचता है, तो ऐसी घटना न तो कभी पीछे घटी होती है और न आगे घटने वाली होती है। यह मिलन सदा ही अद्वितीय और बेजोड़ होता है।अपनी नियति को, एलिमेंट को पहचानें। फिर प्रेम या ध्यान की विधि को चुन लें। अगर कठिन हो और लगता हो कि कुछ समझ में नहीं आता, विभ्रम बना रहता हो, तो प्रेम से शुरू करें। पहले प्रेम का प्रयोग करें। अगर असफल हो जाएं, तो ध्यान का प्रयोग करें। अगर लगता हो कि ध्यान ही मेरा मार्ग है, तो ध्यान का प्रयोग करें। असफल हो जाएं, तो प्रेम का प्रयोग करें। और इस दिशा में कोई भी असफलता असफलता नहीं है। क्योंकि अगर ध्यान में असफल भी हुए, तो जितना भी ध्यान आ जाएगा,वह प्रेम में काम पड़ेगा। अगर प्रेम में असफल हुए, तो जितना प्रेम आ जाएगा, वह ध्यान में काम पड़ेगा।इस जगत में परमात्मा का जो सृजन का क्रम है, उसमें कोई भी पत्थर व्यर्थ नहीं जाता। सब पत्थर काम में आ जाते हैं। अस्वीकृत पत्थर भी भवन में काम आ जाते हैं। और कभी-कभी तो ऐसा होता है, अस्वीकृत पत्थर ही भवन की बुनियाद बनते हैं।
....SHIVOHAM....
Comments