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योग का क्या अर्थ है?मुख्य रूप से कितने प्रकार के योग होते है?

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Jun 24, 2018
  • 14 min read

योग का क्या अर्थ है?-

1-योग विश्व इतिहास का सबसे पुराना विज्ञानं है ,जिसने व्यक्ति के अध्यात्मिक और शारीरिक क्रिया कलापों के लिए नए द्वार खोले ।योग का जन्म कब हुआ ...यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि इसका अविर्भाव हम ज्ञात नहीं कर सकते । वेदों एवं जैन ग्रंथों में योग का वर्णन मिलता है।लेकिन योग इससे पहले भी विद्यमान था, भले ही वो किसी ग्रंथो में न लिखा गया हो। क्योंकि उस समय ऋषि परम्परा के कारण योग एक ऋषि से दुसरे ऋषि तक मौखिक ही पंहुच जाता होगा । इसलिए योग के आविर्भाव का पता लगाना बहुत मुश्किल है , एवं इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है।

‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घं’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध। वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा। आगे योग में हम देखेंगे कि आत्मा और परमात्मा के विषय में भी योग कहा गया है।

गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है 'योग: कर्मसु कौशलम्‌' (योग से कर्मो में कुशलता आती हैं)। स्पष्ट है कि यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है। कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को योग कहते हैं। इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्धमतावलंबी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं। यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पंतजलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।

परंतु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा? योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।

संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक्‌ रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। संसार को मिथ्या माननेवाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है। अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफ़ी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं।

इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिस पर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है परंतु इसके विवेचन के लिये बहुत समय चाहिए। यहाँ उस प्रक्रिया पर थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक है जिसकी रूपरेखा हमको पतंजलि के सूत्रों में मिलती है। थोड़े बहुत शब्दभेद से यह प्रक्रिया उन सभी समुदायों को मान्य है जो योग के अभ्यास का समर्थन करते हैं।पातंजल योग दर्शन के अनुसार - अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।(२) सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।विष्णुपुराण के अनुसार - योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।(४) भगवद्गीता के अनुसार - दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।(७) बौद्ध धर्म के अनुसार - कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।

योग के प्रकार:-

योग की उच्चावस्था समाधि, मोक्ष, कैवल्य आदि तक पहुँचने के लिए अनेकों साधकों ने जो साधन अपनाये उन्हीं साधनों का वर्णन योग ग्रन्थों में समय समय पर मिलता रहा। उसी को योग के प्रकार से जाना जाने लगा। योग की प्रामाणिक पुस्तकों में शिवसंहिता तथा गोरक्षशतक में मुख्य रूप से योग के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है -

1- मंत्रयोग 2-राजयोग 3-लययोग 4 -हठयोग ।

गीता में दो प्रकार के योगों का वर्णन मिलता है-(1) ज्ञानयोग(2) कर्मयोग

आत्मानुभूति योग; स्वर-योग; नाद योग

1-मन्त्र योग;-

'मंत्र' का समान्य अर्थ है- 'मननात् त्रायते इति मंत्रः'। मन को त्राय (पार कराने वाला) मंत्र ही है। मंत्र योग का सम्बन्ध मन से है, मन को इस प्रकार परिभाषित किया है- मनन इति मनः। जो मनन, चिन्तन करता है वही मन है। मन की चंचलता का निरोध मंत्र के द्वारा करना मंत्र योग है। मंत्र योग के बारे में योगतत्वोपनिषद में वर्णन इस प्रकार है-

योग सेवन्ते साधकाधमाः।

( अल्पबुद्धि साधक मंत्रयोग से सेवा करता है अर्थात मंत्रयोग अनसाधकों के लिए है जो अल्पबुद्धि है।)

मंत्र से ध्वनि तरंगें पैदा होती है मंत्र शरीर और मन दोनों पर प्रभाव डालता है। मंत्र में साधक जप का प्रयोग करता है मंत्र जप में तीन घटकों का काफी महत्व है वे घटक-उच्चारण, लय व ताल हैं। तीनों का सही अनुपात मंत्र शक्ति को बढ़ा देता है। मंत्रजप मुख्यरूप से चार प्रकार से किया जाता है।

(1) वाचिक (2) मानसिक (3) उपांशु (4) अणपा।

साधकों के भेद से योग को निम्न श्रेणियों में विभक्त किया गया है –

2-राज योग अर्थात ध्यान योग ;–

पतंजलि योग दर्शन का मुख्य विषय राज योग अर्थात ध्यान योग है | पर अन्य सब प्रकार के योग इसके अंतर्गत हैं |महर्षि पतंजलि के योग को ही अष्टांग योग या राजयोग कहा जाता है। इसके आठ अंग होते हैं। भगवान बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग भी योग के इन्हीं आठ अंगों का हिस्सा है। आमतौर हम जिस योग का अभ्यास करते हैं या चर्चा करते हैं, वह यही है। योग की सबसे प्रचलित धारा है यह। इसे आठ अंग इस तरह हैं : यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। इन आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। मोटे तौर पर इनमें से तीन अंगों पर ही ज्यादा जोर दिया जाता है। ये हैं : आसन, प्राणायाम और ध्यान।राजयोग सभी योगों का राजा कहलाया जाता है क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ सामग्री अवश्य मिल जाती है। राजयोग महर्षि पतंजलि द्वारा रचित अष्टांग योग का वर्णन आता है। राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है।महर्षि पतंजलि के अनुसार समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है। इन साधनों का उपयोग करके साधक के क्लेशों का नाश होता है, चित्तप्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता है और विवेकख्याति प्राप्त होती है है। राजयोग के अन्तर्गत महिर्ष पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार बताया है- योग के आठ अंगों में प्रथम पाँच बहिरंग तथा अन्य तीन अन्तरंग में आते हैं।उपर्युक्त चार पकार के अतिरिक्त

3- हठ योग; –

हठ' शब्द का इस्तेमाल जबर्दस्ती के लिए होता है, लेकिन जब 'हठ' के साथ 'योग' जुड़ जाए, तो वह आध्यात्मिक हो जाता है। 'हठ' शब्द दो अक्षरों से मिलकर बना है। 'ह' हकार यानी दायां नासिका स्वर, जिसे पिंगला नाड़ी भी कहते हैं। 'ठ' ठकार यानी बायां नासिका स्वर, जिसे इड़ा नाड़ी कहते हैं। इन दोनों स्वरों के योग से 'हठयोग' बनता है, जिससे मध्य स्वर या सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का आवागमन होता है और कुंडलिनी शक्ति व चक्र जागृत होते हैं। यह मन को संसार की ओर जाने से रोककर अंतर्मुखी करने की एक प्राचीन भारतीय साधना पद्धति है। हठयोग साधना की मुख्य धारा शैव रही है। मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ उसके प्रमुख आचार्य माने गए हैं। गोरखनाथ के अनुयायी हठयोग की साधना करते थे। उन्हें नाथ योगी भी कहा जाता है। बौद्धों ने भी हठयोग को अपनाया। घेरण्ड संहिता में हठयोग की साधना के सात अंगों का जिक्र मिलता है। ये हैं : षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान और समाधि। हठ योग का सम्बन्ध शरीर और प्राण से है, जो योग के आठ अंगों – यम , नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि में से आसान और प्राणायाम के अंदर आ जाते हैं |

हठ योग , राज योग का साधन मात्र ही है |

‘ह’ का अर्थ सूर्य ( पिङ्गला नाड़ी अथवा प्राणवायु ) और ‘ठ’ का अर्थ चन्द्रमा ( इड़ा नाड़ी अथवा अपानवायु ) है , इनके योग को हठ योग कहते है |

२. ज्ञान योग अर्थात सांख्य योग; –

सारे ज्ञेय तत्त्व का ज्ञान इस योग दर्शन में अति उत्तमता से कराया गया है |यह दिमाग को साफ करने और शरीर और दिमाग से नकारात्मक ऊर्जा को मुक्त करता है। इस प्रकार के योग के माध्यम से ज्ञान के पाया जाता हैं ।ज्ञान योग तीन मुख्य सिद्धांतों है:1. आत्मबोध2. अहंकार को हटाने3. आत्मानुभूतिये सिद्धांत योगी को अपने और अपने जीवन के बारे में वास्तविक ज्ञान या सत्य प्राप्त करने में सहायता करता है।

३. कर्मयोग अर्थात अनासक्ति निष्काम कर्मयोग –

४. भक्ति योग ;–

यह श्रद्धा , भक्ति का मुख्य अंग है , जप और मंत्र भी इसमें सम्मिलित है |भक्ति योगभक्ति दिव्य प्रेम और विश्वास के बारे में है, जहां व्यक्ति मनुष्यों समेत सभी जीवित प्राणी के लिए समय समर्पित करता है, क्षमा मांगता है और सहिष्णुता का अभ्यास करता है। यह कर्म योग के समान ही है।भक्ति के 9 सिद्धांत हैं जिनका पालन किया जाता है:1. श्रवण2. प्रशंसा3. स्मरण4. पडा-सेवा5. पूजा6. वंदना7. दास्य8. सखा9. आत्म-निवेदना

3-आत्मानुभूति योग;- 04 FACTS;- 1-आत्मा के सूक्ष्म अन्तराल में, अपने आपके सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान मौजूद है। वह अपनी घोषणा सदैव इस प्रकार करती रहती है कि जिससे बुद्धि भ्रमित न हो और अपने स्वरूप को न भूले। थोड़ा ध्यान देने पर आत्मा की इस वाणी को हम स्पष्ट रूप से सुन सकते हैं और उस पर निरन्तर ध्यान देने से आत्मा का साक्षात्कार भी कर सकते हैं। 2-प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व, नित्यकर्म से निवट कर पूर्व को मुख करके किसी शान्त स्थान में बैठिये। मेरुदण्ड सीधा रहे। नेत्र बन्द रखिये और स्वाभाविक रीति से श्वास लीजिये। जब नासिका द्वारा वायु भीतर प्रवेश करने लगे, तो सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय को सजग करके ध्यान पूर्वक श्रवण कीजिए कि वायु के साथ-साथ ‘सो’ की सूक्ष्म ध्वनि हो रही है। 3-जब तक वायु भीतर रहे तब तक ‘अ’ और जब बाहर निकलने लगे तो ‘हैं’ की ध्वनि का अनुभव कीजिये। साथ ही हृदय-स्थित सूर्य-चक्र के प्रकाश बिन्दु में आत्मा के तेजोमय स्वरूप की भावना कीजिये। इस प्रकार ‘सोऽहं’ (यह मैं हूं) का अजपाजाप होने लगेगा। 4-‘सोऽहं’ साधना की उन्नति जैसे-जैसे होती जाती है, वैसे ही वैसे विज्ञानमय कोष का परिष्कार होता जाता है। आत्मज्ञान बढ़ता है और धीरे-धीरे आत्म-साक्षात्कार की स्थिति निकट आती चलती है। आगे चलकर सांस पर ध्यान जमना छूट जाता है और केवल मात्र सूर्य-चक्र में विशुद्ध ब्रह्मतेज के ही दर्शन होते हैं। उस समय समाधि की जैसी अवस्था हो जाती है और क्रमशः साधक ब्राह्मी स्थिति का अधिकारी हो जाता है। 4-स्वर-योग;- 04 FACTS;- 1-विज्ञानमय कोश वायु-प्रधान होने के कारण, उसमें वायु संस्थान विशेष रूप से सजग रहता है। इस वायु-तत्व पर अगर अधिकार प्राप्त कर लिया जाय तो अनेक प्रकार से अपना हित सम्पादन किया जा सकता है। स्वर-शास्त्र के अनुसार श्वास-प्रश्वास के भागों को नाड़ियां कहते हैं जिनकी संख्या शरीर में 7200 हैं। इनको नसें न समझना चाहिये, स्पष्टतः यह प्राण-वायु के आवागमन के मार्ग हैं। 2-इनमें तीन-इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना प्रधान नाड़ियां हैं। इड़ा, को ‘चन्द्रनाड़ी’ भी कहते हैं, जिसका संस्थान बांये नथुने में है। पिंगला को ‘सूर्यनाड़ी’ कहते हैं, जो दाहिने नथुने में है। सुषुम्ना को ‘वायु’ कहते हैं जो दोनों नथुनों के मध्य में है। जिस प्रकार संसार में सूर्य और चन्द्र नियमित रूप से अपना-अपना कार्य करते हैं, उसी प्रकार इड़ा, पिंगला भी मनुष्य जीवन में अपना-अपना कार्य नियमित रूप से करती है। 3-जैसा सब जानते हैं चन्द्र का गुण शीतल और सूर्य का ऊष्ण है। यही गुण इड़ा और पिंगला नाड़ियों के हैं। इसलिये विवेकपूर्ण और स्थाई कार्य चन्द्रस्वर में करने से विशेष सफलता मिलती है। इसी प्रकार उत्तेजित, आवेश, और जोश के साथ करने से कार्यों के लिये सूर्य-स्वर लाभदायक कहा गया है। 4-कभी-कभी इड़ा और पिंगला दोनों नाड़ियां रुककर सुषुम्ना चलने लगती है, अर्थात् दोनों नथुनों से एक सी गति से श्वास चलता है वह समय आत्मिक चिन्तन के लिये श्रेष्ठ माना गया है। ऐसे समय में मानसिक विकार प्रायः दब जाते हैं और गहरे आत्मिक भाव का थोड़ा बहुत उदय अवश्य होता है। ऐसे समय में दिये हुए शाप या वरदान कुछ न कुछ फलीभूत अवश्य होते हैं क्योंकि उनके साथ आत्म तत्व का सम्मिश्रण होता है। 5-नाद योग;- 06 FACTS;- 1-‘शब्द’ को ब्रह्म कहा है क्योंकि ईश्वर और जीव का एक श्रृंखला में बांधने का काम शब्द द्वारा ही होता है। सृष्टि की उत्पत्ति का प्रारम्भ भी शब्द से हुआ है। पंच तत्वों में सबसे पहले आकाश बना आकाश की तन्मात्रा शब्द है। अन्य समस्त पदार्थों की भांति शब्द भी दो प्रकार का है सूक्ष्म और स्थूल। सूक्ष्म शब्द को विचार कहते हैं और स्थूल शब्द को नाद। 2-ब्रह्मलोक से हमारे लिये ईश्वरीय शब्द-प्रवाह सदैव प्रवाहित होता है। ईश्वर हमारे साथ वार्तालाप करना चाहता है पर हममें से बहुत कम लोग ऐसे हैं जो उसे सुनना चाहते हैं या सुनने की इच्छा करते हैं। ईश्वर निरन्तर एक ऐसी विचारधारा प्रेरित करता है जो हमारे लिये अतीव कल्याणकारी होती है, उसको यदि सुना और समझा जा सके तथा उसके अनुसार मार्ग निर्धारित किया जा सके तो निस्संदेह जीवनोद्देश्य की ओर द्रुत गति से अग्रसर हुआ जा सकता है। यह विचारधारा हमारी आत्मा से टकराती है। 3-हमारा अंतःकरण एक रेडियो की तरह है जिसकी ओर यदि अभिमुख हुआ जाय, अपनी वृत्तियों को अंतर्मुखी बनाकर आत्मा में प्रस्फुटित होने वाली दिव्य विचार लहरियों को सुना जाय, तो ईश्वरीय वाणी हमें प्रत्यक्ष में सुनाई पड़ सकती है। इसी को आकाशवाणी कहते हैं। 4-ईश्वर उनके लिए बिल्कुल समीप होता वे ईश्वर की बातें सुनते हैं और अपनी उससे कहते हैं। इस दिव्य मिलन के लिए हाड़ मांस के स्थूल नेत्र या कानों का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आत्मा की समीपता में बैठा हुआ अंतःकरण अपनी दिव्य इन्द्रियों की सहायता से इस कार्य को आसानी से पूरा कर लेता है। 5- यह अत्यन्त सूक्ष्म ब्रह्म शब्द, विचार तब तक धुंधले रूप में सुनाई पड़ता है जब तक कषाय कल्मष आत्मा में बने रहते हैं। जितनी आन्तरिक पवित्रता बढ़ती जाती है, उतने ही यह दिव्य संदेश बिलकुल स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। आरम्भ में अपने लिए कर्तव्य का बोध होता है, पाप पुण्य का संकेत होता है, बुरा कार्य करते समय अन्त में भय, घृणा, लज्जा, संकोच, आदि का होना तथा उत्तम कार्य करते समय आत्म संतोष, प्रसन्नता, उत्साह होना इसी स्थिति का बोधक है। 6-यह दिव्य सन्देश आगे चल कर भूत, भविष्य, वर्तमान की सभी घटनाओं को प्रगट करता है, किसके लिए क्या भवितव्य बन रहा है और भविष्य में किस के लिए क्या घटना घटित होने वाली है यह सब कुछ उसे प्रगट हो जाता है। और भी ऊंची स्थिति पर पहुंचने पर उसके लिए सृष्टि के सब रहस्य खुल जाते हैं।

६. लययोग और कुण्डलिनी योग – तो राज योग ही है |चित्त का अपने स्वरूप विलीन होना या चित्त की निरूद्ध अवस्था लययोग के अन्तर्गत आता है। साधक के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे इसी को लययोग कहते हैं।

७. मनोयोग – दृष्टि बंध ( Sightism ) , अंतरावेश ( Spiritualism ) , सम्मोहन ( Mesmerism ) और वशीकरण ( Hipnotism ) जो मनोयोग से पुकारे जाते है वे भी प्रत्याहार और धारणा के अंतर्गत है |

८. यम और नियम – न केवल व्यक्तिगत रूप से विशेषतया योगियों के लिए बल्कि सामान्यरूप से सब वर्णो , आश्रमों , मत – मतान्तरों , जातियों , देशों और समस्त मनुष्य – समाज के लिए माननीय मुख्य कर्त्तव्य तथा परम धर्म है |

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हठयोग में बन्ध का क्याअर्थ है?-

06 FACTS;-

1-बन्ध का अर्थ है ताला लगाना, बन्द करना, रोक देना। बन्ध के अभ्यास में, शरीर के विशेष क्षेत्र में ऊर्जा प्रवाह को रोक दिया जाता है। जब बंध खुल जाता है तो ऊर्जा शरीर में अधिक वेग से वर्धित दबाव के साथ प्रवाहित होती है।मूलबंध यानी गुदाद्वार (मलद्वार) को संकोचन करना, उड्डियान बंध याने पेट को अन्दर ले जाना, जलंधर बंध याने ठोड़ी को कंठ कूप में लगाना।तीन बंध कब करना चाहिये ....प्राणायाम के आरंभ से अन्त तक मूलबंध कायम रखना ;कुँभक (श्वाँस फेफड़े में रोके रखना) करते समय जालंधर बन्ध और रेचक करते समय (श्वाँस बाहर निकालते समय) उड्डियान बन्ध करना।

2-बन्ध चार प्रकार के होते हैं...

2-1-मूल बन्ध :-

गुदा संबंधी रोक।मूलाधार प्रदेश (गुदा व जननेन्द्रिय के बीच का क्षेत्र) को ऊपर की ओर खींचे रखना मूलबन्ध कहलाता है। गुदा को संकुचित करने से अपान स्थिर रहता है। प्राण की अधोगति रुककर ऊर्ध्व गति होती है। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी में मूलबन्ध से चैतन्यता उत्पन्न होती है।आँतें बलवान् होती हैं। मलावरोध नहीं होता, रक्त सच्चार की गति ठीक रहती है। अपान और कूर्म दोनों पर ही मूलबन्ध का प्रभाव पड़ता है। वे जिन तन्तुओं में फैले रहते हैं, उनका संकुचन होने से यह बिखराव एक केन्द्र में एकत्रित होने लगता है।

2-2-उड्डियान बन्ध : -

A-मध्य पेट को उठाना।पेट को ऊपर की ओर जितना खींचा जा सके, उतना खींच कर उसे पीछे की ओर पीठ में चिपका देने का प्रयत्न इस बन्ध में किया जाता है। इससे मृत्यु पर विजय होती है। जीवनी शक्ति को बढ़ाकर दीर्घायु तक जीवन स्थिर रखने का लाभ उड्डियान से मिलता है। आँतों की निष्क्रियता दूर होती है।

B-उदर तथा मूत्राशय के रोगों में इस बन्ध से बड़ा लाभ होता है। नाभि स्थित समान और कृकल प्राणों में स्थिरता तथा वात, पित्त, कफ की शुद्धि होती है। सुषुम्रा नाड़ी का द्वार खुलता है और स्वाधिष्ठान चक्र में चेतना आने से वह स्वल्प श्रम से ही जाग्रत् होने योग्य हो जाता है।

C-सावधानियाँ- आँतों की सूजन, आमाशय या आँतों के फोड़े, हर्निया, आँख के अन्दर की बीमारी ग्लूकोमा, हृदय रोगी, उच्च रक्तचाप रोगी एवं गर्भवती महिलाएँ न करें।

2-3-जालन्धर बन्ध : -

A-ठोड्डी को बन्द करना।मस्तक को झुकाकर ठोड़ी को कण्ठ- कूप (कण्ठ में पसलियों के जोड़ पर जो गड्ढा है, उसे कण्ठ -कूप कहते हैं) अथवा छाती से लगाने को जालन्धर बन्ध कहते हैं। हठयोग में बताया गया है कि इस बन्ध का सोलह स्थान की नाड़ियों पर प्रभाव पड़ता है।

B-1-पादाङ्गुष्ठ 2- गुल्फ 3- घुटने 4-जंघा 5-सीवनी 6-लिंग 7-नाभि 8-हृदय, 9-ग्रीवा 10-कण्ठ 11- लम्बिका 12-नासिका 13-भ्रू 14-कपाल 15मूर्धा 16- ब्रह्मरन्ध्र यह सोलह स्थान जालन्धर बन्ध के प्रभाव क्षेत्र हैं। जालन्धर बन्ध से श्वास- प्रश्वास क्रिया पर अधिकार होता है। ज्ञानतन्तु बलवान् होते हैं। विशुद्धि चक्र के जागरण में जालन्धर बन्ध से बड़ी सहायता मिलती है।

C-सावधानियाँ- सर्वाइकल स्पाण्डिलाइटिस, उच्च रक्तचाप, हृदय रोगी न करें।

2-4-महाबन्ध : एक ही समय पर तीनों बन्धों का अभ्यास।

NOTE;-

सामान्यत:, बन्धों के अभ्यास के समय श्वास रोका जाता है। मूल बन्ध और जालन्धर बंध पूरक के बाद व रेचक के बाद भी किये जा सकते हैं। उड्डियान बंध और महाबन्ध केवल रेचक के बाद ही किये जाते हैं।

लाभ :

4-चूंकि बन्धों में क्षणिक रूप से रक्त का प्रवाह रुक जाता है, इसीलिए बन्ध के खुलने पर ताजा रक्त का बढ़ा हुआ प्रवाह होता है जो पुराने मृत कणों को बहाकर दूर ले जाता है। इस प्रकार से सभी अंग मजबूत, नये और पुनर्जीवित होते हैं और रक्त संचार में सुधार हो जाता है।

5-बन्ध मस्तिष्क केन्द्रों, नाडिय़ों और चक्रों के लिए भी लाभदायक है। ऊर्जा माध्यम शुद्ध कर दिये जाते हैं, रुकावटें हटा दी जाती हैं और ऊर्जा का प्रवाह, आना-जाना सुधर जाता है। बन्ध, दबाव और मानसिक व्यग्रता को शमित कर देते हैं एवं आन्तरिक सुव्यवस्था और संतुलन में सुधार लाते हैं।

6-सावधानी..बन्धों को करने के प्रयास से पूर्व, स्तरों की श्वसन तकनीकों का अभ्यास नियमित रूप से काफी लंबी अवधि तक कर लेना चाहिए।

अश्विनी मुद्रा क्याअर्थ है?- यह मूल बन्ध की प्रारम्भिक क्रिया है। गुदा को संकुचित कीजिए, पुनः उसको मुक्त कीजिए। गुदा को सिकोड़ने एवं छोड़ने की क्रिया ही अश्विनी मुद्रा कहलाती है। इससे गुदा की पेशियाँ मजबूत होती हैं। मलाशय सम्बन्धी दोषों जैसे- कब्ज, बवासीर और गर्भाशय या मलाशय भ्रंश को दूर करती है। प्राण शक्ति का क्षरण रोककर आध्यात्मिक प्रगति हेतु ऊपर की ओर दिशान्तरित कर देती है।

IN NUTSHELL;-

03 FACTS;-

1-ऊपर जिस सब योग-मार्गों का वर्णन किया गया है वे सब प्रणव योग के अन्तर्गत ही हैं और ॐकार -साधना करने वाला व्यक्ति उन सबमें सफलता प्राप्त कर सकता है। ॐकार में संसार का समस्त ज्ञान-विज्ञान बीजरूप से मौजूद है। इसके अतिरिक्त सद्बुद्धि को दिव्य मार्ग से अंतःकरण प्रतिष्ठित करने की शक्ति भी उसमें पाई जाती है।

2-सद्बुद्धि ही मानव जीवन में सबसे बड़ी सम्पदा अथवा शक्ति है। जिसके पास यह शक्ति होगी वह कभी किसी क्षेत्र में असफल नहीं हो सकता। विशेष कर आध्यात्मिक शक्ति का ।

3-इसलिए जो व्यक्ति आत्मोन्नति की दृष्टि से उसकी साधना करेंगे उन्हें कभी निराश नहीं होना पड़ेगा। ऊंची से ऊंची योग-विधियां और दैवी शक्तियां ॐकार-साधक को सहज ही हस्तगत हो जाती हैं।

....SHIVOHAM...


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