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श्रीयंत्र का क्या रहस्य है ?क्या 'श्रीयंत्र' सभी देवी देवता का आधार तथा निवास स्थान है ?क्या

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Jun 13, 2018
  • 15 min read

श्री यंत्र का महत्व;-

07 FACTS;-

1-यह सर्वाधिक लोकप्रिय प्राचीन यन्त्र है,इसकी अधिष्टात्री देवी स्वयं श्रीविद्या अर्थात त्रिपुर सुन्दरी हैं,और उनके ही रूप में इस यन्त्र की मान्यता है। यह बेहद शक्तिशाली ललितादेवी का पूजा चक्र है,इसको त्रैलोक्य मोहन अर्थात तीनों लोकों का मोहन यन्त्र भी कहते है। यह सर्व रक्षाकर सर्वव्याधिनिवारक सर्वकष्टनाशक होने के कारण यह सर्वसिद्धिप्रद सर्वार्थ साधक सर्वसौभाग्यदायक माना जाता है।

2-इसे गंगाजल और दूध से स्वच्छ करने के बाद पूजा स्थान या व्यापारिक स्थान तथा अन्य शुद्ध स्थान पर रखा जाता है। इसकी पूजा पूरब की तरफ़ मुंह करके की जाती है,श्रीयंत्र का सीधा मतलब है,लक्ष्मी यंत्र जो धनागम के लिये जरूरी है।

3-इसके मध्य भाग में बिन्दु व छोटे बडे मुख्य नौ त्रिकोण से बने ४३ त्रिकोण दो कमल दल भूपुर एक चतुरस ४३ कोणों से निर्मित उन्नत श्रंग के सद्रश्य मेरु प्रुष्ठीय श्रीयंत्र अलौकिक शक्ति व चमत्कारों से परिपूर्ण गुप्त शक्तियों का प्रजनन केन्द्र बिन्दु कहा गया है।

4-सभी देवी देवताओं के यंत्रों में श्रीदेवी का यंत्र सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इसी कारण से इसे यंत्रराज की उपाधि दी गयी है। इसे यन्त्रशिरोमणि भी कहा जाता है। दीपावली धनतेरस बसन्त पंचमी अथवा पौष मास की संक्रान्ति के दिन यदि रविवार हो तो इस यंत्र का निर्माण व पूजन विशेष फ़लदायी माना गया है,ऐसा मेरा विश्वास है।

5-यंत्र और मंत्र मिलकर शीघ्र फलदायी होते हैं। श्रीयंत्र में लक्ष्मी का निवास रहता है। यह धन की अधिष्ठात्रीत्रिपुर-सुंदरी का यंत्र है। इसे षोडशी यंत्र भी कहा जाता है।

6-इसकी विशिष्टता का अनुमान इसी बात से लगाया जाता है कि सनातन धर्म के पुनरूद्धारक, भगवान शिव का अवतार माने जाने वाले, जगद्गुरू

आदि शंकराचार्य ने जिन चार पीठों की स्थापना की, उनमें उन्होने

पूरी प्रामाणिकता के साथ श्रीयंत्र की स्थापना की. जिसके परिणाम के रूप में आज भी चारों पीठ हर दृष्टि से, फिर वह चाहे साधनात्मक हो या फिर आर्थिक, पूर्णता से युक्त हैं.

7-श्रीयंत्र प्रमुख रूप से ऐश्वर्य तथा समृद्धि प्रदान करने वाली महाविद्या त्रिपुरसुंदरी महालक्ष्मी का सिद्ध यंत्र है. यह यंत्र सही अर्थों में यंत्रराज है. इस यंत्र को स्थापित करने का तात्पर्य श्री को अपने संपूर्ण ऐश्वर्य के साथ

आमंत्रित करना होता है.

एक सुन्दर आख्यान;-

09 FACTS;-

1-एक सुन्दर आख्यान आता है कि एक बार लक्ष्मी अप्रसन्न होकर बैकुण्ठ को चली गईं, इससे पृथ्वी तल पर काफी समस्याएं पैदा हो गईं। ब्राह्मण और वणिक वर्ग बिना लक्ष्मी के दीन-हीन, असहाय से घूमने लगे, तब ब्राह्मणों में श्रेष्ठ, वशिष्ठ ने निश्चय किया, कि मैं लक्ष्मी को प्रसन्न कर भूतल पर ले आऊंगा।

2-जब वशिष्ठ बैकुण्ठ में जा कर लक्ष्मी से मिले तो ज्ञात हुआ, कि लक्ष्मी अप्रसन्न हैं और वह किसी भी स्थिति में भूतल पर आने को तैयार नहीं हैं, तब वशिष्ठ वहीं बैठ कर विष्णु की आराधना करने लगे। जब विष्णु प्रसन्न होकर प्रकट हुए, तो वशिष्ठ ने कहा, कि हम पृथ्वी पर बिना लक्ष्मी के दुःखी हैं, हमारे आश्रम उजड़ गए हैं, चौपट हो गए हैं और जीवन की उमंग और उत्साह समाप्त हो गया है।

3-भगवान विष्णु, वशिष्ठ को साथ लेकर लक्ष्मी के पास गए और उन्हें मनाने लगे, परन्तु लक्ष्मी नहीं मानीं और उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा, कि मैं किसी भी स्थिति में भूतल पर जाने को तैयार नहीं हूं। क्योंकि पृथ्वी पर साधना और शुद्धि नहीं है।

4-हताश होकर वशिष्ठ पुनः भूतल पर लौट आए और लक्ष्मी के निर्णय से सबको अवगत करा दिया। सभी किंकर्त्तव्यविमूढ़ थे, कि क्या किया जाए? तब देवताओं के गुरु बृहस्पति ने कहा, कि अब एकमात्र ‘ श्रीयंत्र साधना ’ ही बची है, और यदि सिद्ध ‘ श्री यंत्र ’ बना कर स्थापित किया जाए, तो निश्चय ही लक्ष्मी को आना पड़ेगा।

5-बृहस्पति की बात से ॠषियों में हर्ष की लहर दौड़ गई और उन्होंने बृहस्पति के निर्देशन में धातु पर श्रीयंत्र का निर्माण किया और उसे मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठायुक्त किया और दीपावली से दो दिन पूर्व धन त्रयोदशी को उस श्रीयंत्र को स्थापित कर विधि-विधान से उसका षोडशोपचार पूजन किया। पूजन समाप्त होते-होते लक्ष्मी स्वयं वहां उपस्थित हो गईं और बोलीं – मैं किसी भी स्थिति में यहां आने के लिए तैयार नहीं थी, यह मेरा प्रण था, परन्तु बृहस्पति की युक्ति से मुझे आना ही पड़ा। श्रीयंत्र मेरा आधार है और इसी में मेरी आत्मा निहित है।

6-इस कथा से यह भली भांति स्पष्ट है, कि श्रीयंत्र अपने आप में लक्ष्मी का सर्वाधिक प्रिय स्थान है, और जहां यह यंत्र स्थापित होता है, वहां लक्ष्मी स्थायी रूप से रहती ही हैं।

7-जहां पर यह यंत्र स्थापित होता है, वहां पर दरिद्रता का विनाश होता है, ॠण मोचन में यह यंत्र पूर्ण सफलतादायक है। भारद्वाज ॠषि के अनुसार यह यंत्र स्वयं ही पूर्ण होता है, यदि यह श्रीयंत्र धातु निर्मित मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठा युक्त हो ।

8-कणाद ने कहा है, कि श्री यंत्र यदि मंत्र सिद्ध है, तो इस पर अन्य किसी भी प्रकार का प्रयोग या उपाय करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह स्वयं ही चैतन्य हो जाता है और जहां पर भी यह स्थापित होता है, उसको अनुकूल फल और प्रभाव देने लग जाता है।

9-जिस प्रकार अगरबत्ती किसी व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित नहीं होती, वह जहां पर भी जलाई जाती है, वहीं पर सुगन्ध बिखेरने लग जाती है, इसी प्रकार मंत्र सिद्ध चैतन्य श्रीयंत्र जहां पर भी स्थापित होता है वहीं पर यह अनुकूल फल देने में समर्थ हो जाता है।

श्रीयंत्र विभेद:-

02 FACTS;-

1-श्रीयंत्र का विन्यास बहुत ही विचित्र है। इसके मध्य में एक बिंदु और बाहर की ओर भूपुर होते है। भूपुर के चारों ओर चार द्वार होते हैं। बिंदु से भूपुर तक दस प्रकार के अवयव होते हैं। पूजन के समय मध्यस्थ बिंदु को भी तीन बिंदु के रूप में माना जाता है। मूल बिंदु को योनि तथा शेष दो बिंदुओं को भगवती त्रिपुर संुदरी के दो कुच माना जाता है। इन्हीं तीनों बिंदुओं के ध्यान को ‘कामकला’ कहा जाता है।

2-श्री यंत्र के मुख्य तीन रूप होते हैं;-

2-1-भूपृष्ठ;-

जो यंत्र समतल होता है, उसे भूपृष्ठ कहते हैं। यह स्वर्ण, रजत अथवा ताम्रपत्र पर बनाया जाता है। इसे भोजपत्र पर भी बनाया जा सकता है, परंतु इसकी निर्माण प्रक्रिया अत्यंत क्लिष्ट होने के कारण सामान्यतः इसे बना-बनाया ही प्राप्त किया जाता है।

2-2-कच्छ-पृष्ठ;-

जो श्रीयंत्र मध्य में कछुए की पीठ के समान उभरा हुआ हो उसे कच्छप-पृष्ठ कहा जाता है।

2-3-मेरु पृष्ठ;-

जिस श्रीयंत्र की बनावट सुमेरु पर्वत की आकृति में हो, उसे मेरु पृष्ठ कहा जाता है। स्फटिक मणि से बने यंत्र अधिकांशतः मेरु पृष्ठकार होते हैं। स्फटिक से बने श्रीयंत्र की एक विशिष्टता है कि जिस समय साधक आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण होता है उस समय उसके शरीर से बाहर प्रवाहित होने वाली ऊर्जा को यह स्वयं में समाहित कर लेता है। परंतु इसके लिए यह अत्यंत ही आवश्यक है कि पूजा-स्थल में रखा हुआ श्रीयंत्र पूर्णतः चैतन्य हो। साथ ही उसके कोण आदि निर्धारित संख्या में और समान आकार में हों।

श्रीयंत्र का क्या स्वरूप है?-

07 FACTS;-

1-श्रीयंत्र अपने आप में रहस्यपूर्ण है।श्री यंत्र का रूप ज्योमितीय होता है। इसकी संरचना में बिंदु, त्रिकोण या त्रिभुज, वृत्त, अष्टकमल का प्रयोग होता है। यह सात त्रिकोणों से निर्मित है। मध्य बिन्दु-त्रिकोण के चतुर्दिक् अष्ट कोण हैं। उसके बाद दस कोण तथा सबसे ऊपर चतुर्दश कोण से यह श्रीयंत्र निर्मित होता है।

2-यंत्र ज्ञान में इसके बारे में स्पष्ट किया गया है-श्रीयंत्र के चतुर्दिक् तीन परिधियां खींची जाती हैं। ये अपने आप में तीन शक्तियों की प्रतीक हैं। इसके नीचे षोडश पद्मदल होते हैं तथा इन षोडश पद्मदल के भीतर अष्टदल का निर्माण होता है, जो कि अष्टधा प्रकृति (अपरा जड़ -वह परा प्रकृति जीवरूप अर्थात् चेतन रूप है जिसके कारण ही शरीर मन और बुद्धि अपनेअपने कार्य इस प्रकार करते हैं मानो वे स्वयं ही चेतन हों।) तथा अष्टलक्ष्मी का परिचायक है।

3-अष्टदल के भीतर चतुर्दश त्रिकोण निर्मित होते हैं, जो चतुर्दश शक्तियों के परिचायक हैं तथा इसके भीतर दस त्रिकोण स्पष्ट देखे जा सकते हैं, जो दस सम्पदा के प्रतीक हैं। दस त्रिकोण के भीतर अष्ट त्रिकोण निर्मित होते हैं, जो अष्ट देवियों के सूचक कहे गए हैं। इसके भीतर त्रिकोण होता है, जो भगवती का त्रिकोण माना जाता है। इस त्रिकोण के भीतर एक बिन्दु निर्मित होता है, जो भगवती का सूचक है। साधक को इस बिन्दु पर स्वर्ण सिंहासनारूढ़ धन की अधिष्ठात्री देवी त्रिपुर-सुंदरी की कल्पना करनी चाहिए।

4-इस प्रकार से श्रीयंत्र 2816 शक्तियों अथवा देवियों का सूचक है और श्री यंत्र की पूजा इन सारी शक्तियों की समग्र पूजा है। तंत्र के अनुसार श्री यंत्र

का निर्माण दो प्रकार से किया जाता है- एक अंदर के बिंदु से शुरू कर बाहर की ओर जो सृष्टि-क्रिया निर्माण कहलाता है और दूसरा बाहर के वृत्त से शुरू कर अंदर की ओर जो संहार-क्रिया निर्माण कहलाता है।मुख्यतः दो प्रकार के श्रीयंत्र बनाए जाते हैं – सृष्टि क्रम और संहार क्रम। सृष्टि क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में 5 ऊध्वर्मुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शिव त्रिकोण कहते हैं। ये 5 ज्ञानेंद्रियों के प्रतीक हैं। 4 अधोमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शक्ति त्रिकोण कहा जाता है। ये प्राण, मज्जा, शुक्र व जीवन के द्योतक हैं। संहार क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में 4 ऊर्ध्वमुखी त्रिकोण शिव त्रिकोण होते हैं और 4 अधोमुखी त्रिकोण शक्ति त्रिकोण होते हैं।

5-अद्भुत त्रिकोण;-

चमत्कारी साधनाओं में श्रीयंत्र का स्थान सर्वोपरि है तथा मंत्र और तंत्र इसके साधक तत्व माने गए हैं। श्रीयंत्र सब सिद्धियों का द्वार है तथा देवी त्रिपुर-सुंदरी का आवास है जिसमें अपने-अपने स्थान, दिशा, मंडल, कोण आदि के अधिपति व्यवस्थित रूप से आवाहित होकर विराजमान रहते हैं। मध्य में उच्च सिंहासन पर प्रधान देवता प्राण प्रतिष्ठित होकर पूजा प्राप्त करते हैं। श्रीयंत्र के दर्शन मात्र से साधक मनोरथ को पा लेता है।

6-शास्त्रकारों ने इस बात पर बल दिया है कि जिस प्रकार शरीर और आत्मा में कोई भेद नहीं होता है उसी प्रकार श्रीयंत्र और लक्ष्मी में कोई भेद नहीं होता है। भारतीय तंत्र विधा का आधार अध्यात्म है। इस विधा की प्राचीनता ऋग्वेद से पहचानी जा सकती है। वैदिक जीवन चर्या में पूजन, यज्ञ तथा तंत्र में साधना का अपना विशेष स्थान था। पूजन पद्धतियों का उपयोग जीवन को शांत, उन्नातिशील, ऐश्वर्यवान बनाने के लिए होता था।

7-जिस प्रकार यंत्र एवं देवता में कोई भेद नहीं होता है। यंत्र देवता का निवास स्थान माना गया है। यंत्र और मंत्र मिलकर शीघ्र फलदायी होते हैं। श्रीयंत्र में लक्ष्मी का निवास रहता है। यह धन की अधिष्ठात्री देवी त्रिपुर-सुंदरी का यंत्र है। इसे षोडशी यंत्र भी कहा जाता है।भौतिक जीवन में

खुशहाली लानेके निमित्त श्रीयंत्र का निर्माण हुआ। श्रीयंत्र दरिद्रता रूपी स्थितियों को समाप्त करता है। ऋण भार से दबे साधकों के लिए यह रामबाण है।

श्री यंत्र का क्या रहस्य हैं?

04 FACTS;-

1-श्रीयंत्र बिंदु, त्रिकोण, वसुकोण, दशार-युग्म, चतुर्दशार, अष्ट दल, षोडसार, तीन वृत तथा भूपुर से निर्मित है। इसमें 4 ऊपर मुख वाले शिव त्रिकोण, 5 नीचे मुख वाले शक्ति त्रिकोण होते हैं। इस तरह त्रिकोण, अष्टकोण, 2 दशार, 5 शक्ति तथा बिंदु, अष्ट कमल, षोडश दल कमल तथा चतुरस्त्र हैं। ये आपस में एक-दूसरे से मिले हुए हैं। यह यंत्र मनुष्य को अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष देने वाला है।

2-श्री यंत्र में 9 त्रिकोण या त्रिभुज होते हैं जो निराकार शिव की 9 मूल

प्रकृतियों के द्योतक हैं। श्री यंत्र में 4 त्रिभुजों का निर्माण इस प्रकार से किया जाता है कि उनसे मिलकर 43 छोटे त्रिभुज बन जाते हैं जो 43 देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

3-मध्य के सबसे छोटे त्रिभुज के बीच एक बिंदु होता है जो समाधि का सूचक है अर्थात यह शिव व शक्ति का संयुक्त रूप है। इसके चारों ओर जो 43 त्रिकोण बनते हैं वे योग मार्ग के अनुसार यम 10, नियम 10, आसन 8, प्रत्याहार 5, धारणा 5, प्राणायाम 3, ध्यान 2 के स्वरूप हैं।

4-प्रत्येक त्रिकोण एवं कमल दल का महत्व;-

इन त्रिभुजों के बाहर की तरफ 8 कमल दल का समूह होता है जिसके चारों ओर 16 दल वाला कमल समूह होता है। इन सबके बाहर भूपुर है। मनुष्य शरीर की भांति ही श्री यंत्र की संरचना में भी 9 चक्र होते हैं जिनका क्रम अंदर से बाहर की ओर इस प्रकार है- केंद्रस्थ बिंदु फिर त्रिकोण जो सर्वसिद्धिप्रद कहलाता है। फिर 8 त्रिकोण सर्वरक्षाकारी हैं। उसके बाहर के 10 त्रिकोण सर्व रोगनाशक हैं। फिर 10 त्रिकोण सर्वार्थ सिद्धि के प्रतीक हैं। उसके बाहर 14 त्रिकोण सौभाग्यदायक हैं। फिर 8 कमलदल का समूह दुःख, क्षोभ आदि के निवारण का प्रतीक है।

4-1-उसके बाहर 16 कमलदल का समूह इच्छापूर्ति कारक है। अंत में सबसे बाहर वाला भाग त्रैलोक्य मोहन के नाम से जाना जाता है। इन 9 चक्रों की अधिष्ठात्री 9 देवियों के नाम इस प्रकार हैं – 1. त्रिपुरा 2. त्रिपुरेशी 3. त्रिपुरसुंदरी 4. त्रिपुरवासिनी, 5. त्रिपुरात्रि, 6. त्रिपुरामालिनी, 7. त्रिपुरसिद्धा, 8. त्रिपुरांबा और 9. महात्रिपुरसुंदरी

कब करें श्रीयंत्र स्थापना;-

04 FACTS;-

1-श्री यंत्र का निर्माण सिद्ध मुहूर्त में ही किया जाता है। गुरुपुष्य योग, रविपुष्य योग, नवरात्रि, धन-त्रयोदशी, दीपावली, शिवरात्रि, अक्षय तृतीया आदि श्रीयंत्र निर्माण और स्थापन के श्रेष्ठ मुहूर्त हैं।

2-श्री यंत्र के निर्माण व पूजन के लिए सर्वश्रेष्ठ मुहुर्त है कालरात्रि अर्थात दीपावली की रात्रि. इस रात्रि में स्थिरलग्न में यंत्र का निर्माण व पूजन संपन्न किया जाना चाहिये.

3-इसके बाद माघ माह की पूर्णिमा, शिवरात्रि, शरद पूर्णिमा, सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण का मुहूर्त श्रेष्ठ होता है. यद्यपि ग्रहण को सामान्यतः शुभ कर्मों के लिए प्रयोग नही किया जाता इसलिए यहां संदेह होना स्वाभाविक है, मगरश्री विद्या पूर्णते तांत्रोक्त विद्या है तथा तांत्रोक्त साधनाओं के लिए ग्रहण को श्रेष्ठतम मुहूर्त मान गया है.

4-उपरोक्त मुहूर्तों के अलावा अक्षय तृतीया, रवि पुष्य योग, गुरू पुष्य योग, आश्विन माह को छोडकर किसीभी अमावस्या या किसी भी पूर्णिमा को भी श्रेष्ठ समय मे यंत्र निर्माण व पूजन किया जा सकता है.

कैसे करें सिद्ध श्री यंत्र को;-–

06 FACTS;-

1-कोई अच्छा सा दिन देख लें या शुक्ल पक्ष का शुक्रवार ले. श्री यन्त्र को गंगा जल से धो ले. और अपने मंदिर रख कर माता लक्ष्मी का ध्यान लगाते हुए “ओम श्रीँ” मंत्र का जाप करें। ये कम से कम 21 माला आपको करनी है. जो की पांच दिन तक करनी है. उसके बाद ये यन्त्र सिद्ध होता है.

2-यदि पूजनकर्ता की साधनात्मक उर्जा नगण्य है तो पूजन औरप्राण-प्रतिष्ठा अर्थहीन हो जाएगी. इसलिए श्री यंत्र के पूजन से पहले पूजनकर्ता के लिए यह आवश्यक है कि, वह कमसे कम एक बार श्री विद्या या महालक्ष्मी मंत्र का पुरश्चरण पूर्ण कर चुका हो.सबसे प्रभावपूर्ण एवं सर्वाधिक लाभप्रद लक्ष्मी बीज मंत्र; —-

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः॥

2-अपने घर में किसी भी श्रेष्ठ मुहूर्त में श्रीयंत्र को स्थापित किया जा सकता है। ‘ तंत्र समुच्चय’ के अनुसार किसी भी बुधवार को प्रातः श्रीयंत्र को स्थापित किया जा सकता है। इसकी स्थापना का विधान बहुत ही

सरल है ।

3-शास्त्रों के अनुसार मंत्र सिद्ध चैतन्य श्रीयंत्र की नित्य पूजा आवश्यक नहीं है और न ही नित्य जल से स्नान आदि कराने की जरूरत है। यदि संभव हो, तो इस पर पुष्प, इत्र आदि समर्पित किया जा सकता है और नित्य इसके सामने अगरबत्ती व दीपक जला देना चाहिए, परन्तु यह अनिवार्य नहीं है। यदि किसी दिन श्रीयंत्र की पूजा नहीं भी होती या इसके सामने अगरबत्ती व दीपक नहीं भी जलाया जाता, तब भी इसके प्रभाव में कोई न्यूनता नहीं आती।

4-शुभ अवसरों पर श्री यंत्र की पूजा का विधान है। अक्षय तृतीया, नवरात्रि, धन-त्रयोदशी, दीपावली, आंवला नवमी आदि श्रेष्ठ दिवसों पर श्रीयंत्र की पूजा का विधान है।

5-सुविख्यात ‘श्रीयंत्र’ भगवती त्रिपुर सुंदरी का यंत्र है। इसे यंत्रराज के नाम से जाना जाता है। श्रीयंत्र में देवी लक्ष्मी का वास माना जाता है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति तथा विकास का प्रतीक होने के साथ मानव शरीर का भी द्योतक है। वास्तव में वह घर दुर्भाग्यशाली है, जिस घर में श्रीयंत्र स्थापित नहीं है।

6-इसमें कोई दो राय नहीं, कि श्री यंत्र में स्वतः ही कई सिद्धियों का वास है। श्रीयंत्र जिस घर में स्थापित कर इसकी पूजा की जाती है, तो उस घर में भौतिक दृष्टि से किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं रहता। आर्थिक उन्नति तथा व्यापारिक सफलता के लिए तो यह यंत्र बेजोड़ है।

इसके अतिरिक्त ॠण मुक्ति, रोग निवृत्ति, स्वास्थ्य लाभ, पारिवारिक प्रसन्नता और आर्थिक सफलता प्राप्ति के लिए यह यंत्र सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

श्री यंत्र का विविध पदार्थों से निर्माण ;-

श्री यंत्र का निर्माण विविध पदार्थों से किया जा सकता है. इनमें श्रेष्ठता के क्रम में प्रमुख हैं;

07 FACTS;-

क्र. पदार्थ विशिष्टता

1- पारद श्रीयंत्र पारद को शिववीर्य कहा जाता है. पारद से निर्मित यह यंत्र सबसे दुर्लभतथा प्रभावशाली होता है. यदि सौभाग्य से ऐसा पारद श्री यंत्र प्राप्त हो जाए तो रंक को भी वह राजा बनाने में सक्षम होता है.

2-स्फटिक श्रीयंत्र स्फटिक का बना हुआ श्री यंत्र अतिशीघ्र सफलता प्रदान करता है. इस यंत्र की निर्मलता के समान ही साधक का जीवन भी सभी प्रकार की मलिनताओं से परे हो जाता है.

3-स्वर्ण श्रीयंत्र स्वर्ण से निर्मित यंत्र संपूर्ण ऐश्वर्य को प्रदान करने में सक्षम माना गया है. इस यंत्र को तिजोरी में रखना चाहिए तथा ऐसी व्यवस्था रखनी चाहिये कि उसे कोई अन्य व्यक्ति स्पर्श न कर सके.

4-मणि श्रीयंत्र ये यंत्र कामना के अनुसार बनाये जाते हैं तथा दुर्लभ होते हैं

5-रजत श्रीयंत्र ये यंत्र व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की उत्तरी दीवाल पर लगाए जाने चाहिये. इनको इस प्रकार से फ्रेम में मढवाकर लगवाना चाहिए जिससेइसको कोई सीधे स्पर्श न कर सके.

6- ताम्र श्रीयंत्र ताम्र र्निमित यंत्र का प्रयोग विशेष पूजन अनुष्ठान तथा हवनादि केनिमित्त किया जाता है.

7- भोजपत्र श्रीयंत्र आजकल इस प्रकार के यंत्र दुर्लभ होते जा रहे हैं. इन पर निर्मित यंत्रोंका प्रयोग ताबीज के अंदर डालने के लिए किया जाता है. इस प्रकार केयंत्र सस्ते तथा प्रभावशाली होते हैं।

8-उपरोक्त पदार्थों का उपयोग यंत्र निर्माण के लिए करना श्रेष्ठ है. लकडी, कपडा या पत्थर आदि पर श्री यंत्र का निर्माण न करना श्रेष्ठ रहता हैं।

मान्यता है कि भोजपत्र की अपेक्षा तांबे पर बने श्रीयंत्र का फल सौ गुना, चांदी में लाख गुना और सोने पर निर्मित श्रीयंत्र का फल करोड़ गुना होता है। ‘रत्नसागर’ में रत्नों पर भी श्रीयंत्र बनाने की बात लिखी गई है। इनमें स्फटिक पर बने श्रीयंत्र को सबसे अच्छा बताया गया है।

9-विद्वानों की ऐसी धारणा है कि भोजपत्र पर 6 वर्ष तक, तांबे पर 12 वर्ष तक, चांदी में 20 वर्ष तक और सोना धातु में श्रीयंत्र आजीवन प्रभावी रहता है।

रहस्यमय और अदभुत श्री यंत्र;-

07 FACTS;-

1-भगवती महालक्ष्मी की कृपा प्राप्ति का सबसे प्रभावी उपाय है श्री यंत्र की विधिवत साधना. यह एक ऐसा विधान है जोअभूतपूर्व सफलता प्रदायक है. जब किसी भी अन्य उपाय से भगवती की प्रसन्नता प्राप्त न हो पा रही हो तो यहसाधना विधान प्रयोग करना चाहिए. श्री यंत्र के बारे में कहा गया है..

''देवाधिदेव भगवान महादेव शिव ने इस सकल भुवन को ६४ तंत्रो से भर दिया और फिर अपने दिव्य तापसीतेज से समस्त पुरूषार्थों को प्रदान करने में सक्षम श्री तंत्र को इस धरा पर प्रतिष्ठित किया''.

2-आशय यह कि श्री विद्या से संबंधित तंत्र ब्रह्‌माण्ड का सर्वश्रेष्ठ तंत्र है जिसकी साधना ऐसे योग्य साधकों और शिष्यों को प्राप्त होती हैजो समस्त तंत्र साधनाओं को आत्मसात कर चुके हों. इस साधना को प्रदान करने के लिए कहा गया है कि :-

''इस विद्या को सप्रयास गोपनीय रखना चाहिये, यह इतनी गोपनीय विद्या है कि इसे पिता को पुत्र से भीछुपाकर रखना चाहिये''.

3-तंत्र के क्षेत्र में श्री विद्या को निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ तथा सबसे गोपनीय माना जाता है. श्री विद्या कीसाधना का सबसे प्रमुख साधन है श्री यंत्र… इसकी विशिष्टता का अनुमान इसी बात से लगाया जाता है कि सनातनधर्म के पुनरूद्धारक, भगवान शिव का अवतार माने जाने वाले, जगद्गुरू आदि शंकराचार्य ने जिन चार पीठों कीस्थापना की, उनमें उन्होने पूरी प्रामाणिकता के साथ श्री यंत्र की स्थापना की. जिसके परिणाम के रूप में आज भीचारों पीठ हर दृष्टि से, फिर वह चाहे साधनात्मक हो या फिर आर्थिक, पूर्णता से युक्त हैं।

4-श्री यंत्र प्रमुख रूप से ऐश्वर्य तथा समृद्धि प्रदान करने वाली महाविद्या त्रिपुरसुंदरी महालक्ष्मी का सिद्ध यंत्र है. यह यंत्र सही अर्थों में यंत्रराज है. इस यंत्र को स्थापित करने का तात्पर्य श्री को अपने संपूर्ण ऐश्वर्य के साथ आमंत्रितकरना होता है. कहा गया है कि :-

'' जो साधक श्री यंत्र के माध्यम से त्रिपुरसुंदरी महालक्ष्मी की साधना के लिए प्रयासरत होता है, उसकेएक हाथ में सभी प्रकार के भोग होते हैं, तथा दूसरे हाथ में पूर्ण मोक्ष होता है.''

5-आशय यह कि श्री यंत्र का साधकसमस्त प्रकार के भोगों का उपभोग करता हुआ अंत में मोक्ष को प्राप्त होता है. इस प्रकार यह एकमात्र ऐसी साधना हैजो एक साथ भोग तथा मोक्ष दोनों ही प्रदान करती है, इसलिए प्रत्येक साधक इस साधना को प्राप्त करने के लिएसतत प्रयत्नशील रहता है.

6-आदिकालीन विद्या का द्योतक हैं वास्तव में प्राचीनकाल में भी वास्तुकला अत्यन्त समृद्व थी। श्रीयंत्र में सर्वप्रथम धुरी में एक बिन्दु और चारो तरफ त्रिकोण है, इसमें पांच त्रिकोण बाहरी और झुकते है जो शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और चार ऊपर की तरफ त्रिकोण है, इसमें पांच त्रिकोण बाहरी और झुकते हैं जो शक्ति का प्रदर्शन करते है और चार ऊपर की तरफ शिव ती तरफ दर्शाते है।

7-अन्दर की तरफ झुके पांच-पांच तत्व, पांच संवेदनाएँ, पांच अवयव, तंत्र और पांच जन्म बताते है। ऊपर की ओर उठे चार जीवन, आत्मा, मेरूमज्जा व वंशानुगतता का प्रतिनिधत्व करते है। चार ऊपर और पांच बाहारी ओर के त्रिकोण का मौलिक मानवी संवदनाओं का प्रतीक है। यह एक मूल संचित कमल है। आठ अन्दर की ओर व सोलह बाहर की ओर झुकी पंखुड़ियाँ है। ऊपर की ओर उठी अग्नि, गोलाकर पवन,समतल पृथ्वी व नीचे मुडी जल को दर्शाती है।

8-ईश्वरानुभव, आत्मसाक्षात्कार है। यही सम्पूर्ण जीवन का द्योतक है।

यह सर्वाधिक लोकप्रिय प्राचीन यन्त्र है,इसकी अधिष्टात्री देवी स्वयं श्रीविद्या अर्थात त्रिपुर सुन्दरी हैं,और उनके ही रूप में इस यन्त्र की मान्यता है। यह बेहद शक्तिशाली ललितादेवी का पूजा चक्र है,इसको त्रैलोक्य मोहन अर्थात तीनों लोकों का मोहन यन्त्र भी कहते है। यह सर्व रक्षाकर सर्वव्याधिनिवारक सर्वकष्टनाशक होने के कारण यह सर्वसिद्धिप्रद सर्वार्थ साधक सर्वसौभाग्यदायक माना जाता है।

9-सर्वाधिक रहस्यमय श्रीविद्या के यंत्र स्वरूप को ‘श्रीयंत्र’ या ‘श्रीचक्र’ कहते हैं। यह एक मात्र ऐसा यंत्र है, जो समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक है। श्री शब्द का अर्थ लक्ष्मी, सरस्वती, शोभा, संपदा, विभूति से किया जाता है। यह यंत्र ‘श्री विद्या’ से संबंध रखता है। साधक को लक्ष्मी़, संपदा, विद्या आदि की ‘श्री’ देने वाली विद्या को ही ‘श्रीविद्या’ कहा जाता है।

10-श्रीयंत्र को यंत्रराज भी कहा जाता है, इसे यंत्रों में सर्वोत्तम माना गया है। कलियुग में कामधेनु के समान ही है जो साधक को पूर्ण मान-सम्मान और प्रतिष्ठा प्रदान करता है। श्री यंत्र को कल्पवृक्ष भी कहा गया है, जिसके सान्निध्य में सारी कामनाएं पूर्ण होती हैं।

11-यह परम ब्रह्म स्वरूपिणी आदि प्रकृतिमयी देवी भगवती महात्रिपुर सुंदरी का आराधना स्थल है। यह चक्र ही उनका निवास एवं रथ है। यह ऐसा समर्थ यंत्र है कि इसमें समस्त देवों की आराधना-उपासना की जा सकती है। सभी वर्ण संप्रदाय का मान्य एवं आराध्य है।

12-इस महाचक्र का बहुत विचित्र विन्यास है। यंत्र के मध्य में बिंदु है, बाहर भूपुऱ, भुपुर के चारों तरफ चार द्वार और कुल दस प्रकार के अवयय हैं, जो इस प्रकार हैं- बिंदु, त्रिकोण, अष्टकोण, अंतर्दशार, वहिर्दशार, चतुर्दशार, अष्टदल कमल, षोडषदल कमल, तीन वृत्त, तीन भूपुर। इसमें चार उर्ध्व मुख त्रिकोण हैं, जिसे श्री कंठ या शिव त्रिकोण कहते हैं। पांच अधोमुख त्रिकोण होते हैं, जिन्हें शिव युवती या शक्ति त्रिकोण कहते हैं।

13-नवचक्रों से बने इस यंत्र में चार शिव चक्र, पांच शक्ति चक्र होते हैं। इस प्रकार इस यंत्र में 43 त्रिकोण, 28 मर्म स्थान, 24 संधियां बनती हैं। तीन रेखा के मिलन स्थल को मर्म और दो रेखाओं के मिलन स्थल को संधि कहा जाता है।

14-श्रीयंत्र का उल्लेख तंत्रराज, ललिता सहस्रनाम, कामकला विलास, त्रिपुरोपनिषद आदि विभिन्न प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मिलता है। महापुराणों में श्री यंत्र को देवी महालक्ष्मी का प्रतीक कहा गया है। महालक्ष्मी स्वयं कहती हैं ;-श्री यंत्र मेरा प्राण, मेरी शक्ति, मेरी आत्मा तथा मेरा स्वरूप है। श्री यंत्र के प्रभाव से ही मैं पृथ्वी लोक पर वास करती हूं।

15-श्रीयंत्र को यंत्रराज, यंत्र शिरोमणि, षोडशी यंत्र व देवद्वार भी कहा गया है। ऋषि दत्तात्रेय व दुर्वासा ने श्रीयंत्र को मोक्षदाता माना है। जैन शास्त्रों ने भी इस यंत्र की प्रशंसा की है। जिस तरह शरीर व आत्मा एक दूसरे के पूरक हैं उसी तरह देवता व उनके यंत्र भी एक दूसरे के पूरक हैं। यंत्र को देवता का शरीर और मंत्र को आत्मा कहते हैं। यंत्र और मंत्र दोनों की साधना उपासना मिलकर शीघ्र फल देती है। जिस तरह मंत्र की शक्ति उसके शब्दों में निहित होती है उसी तरह यंत्र की शक्ति उसकी रेखाओं व बिंदुओं में होती है।

श्रीयंत्र की मूल पौराणिक कथा;-

श्री यंत्र के संदर्भ में एक कथा का वर्णन मिलता है। उसके अनुसार एक बार आदि शंकराचार्यजी ने कैलाश मान सरोवर पर भगवान शंकर को कठिन तपस्या कर प्रसन्न कर दिया। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने के लिए कहा। आदि शंकराचार्य ने विश्व कल्याण का उपाय पूछा। भगवान शंकर ने शंकराचार्य को साक्षात लक्ष्मी स्वरूप श्री यंत्र की महिमा बताई और कहा- यह श्री यंत्र मनुष्यों का सर्वथा कल्याण करेगा। श्री यंत्र परम ब्रह्म स्वरूपिणी आदि प्रकृतिमयी देवी भगवती महा त्रिपुर सुदंरी का आराधना स्थल है क्योंकि यह चक्र ही उनका निवास और रथ है। श्री यंत्र में देवी स्वयं मूर्तिवान होकर विराजती हैं इसीलिए श्री यंत्र विश्व का कल्याण करने वाला है।

....SHIVOHAM...

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