ब्रह्मज्ञान की परिभाषा क्या है?
ब्रह्म-विद्या का अर्थ वह विद्या है, जिससे हम उसे जानते है, जो सब जानता है। गणित आप जिससे जानते है, फ़िज़िक्स आप जिससे जानते है, केमिस्ट्री आप जिससे जानते है। उस तत्व को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है। जानने वाले को जान लेना ब्रह्म विद्या है। ज्ञान के स्त्रोत को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है। भीतर जहां चेतना को केंद्र हे, जहां से मैं जानता हूं आपको, जहां से मैं देखता हूं आपको; उसे भी देख लेना, उसे भी जान लेना, उसे भी पहचान लेना, उसकी प्रत्यभिज्ञा, उसका पुनर् स्मरण ब्रह्म विद्या है।
कृष्ण कहते है, विद्याओं में मैं ब्रह्म विद्या हूं।
इसलिए भारत ने फिर बाकी विद्याओं की बहुत फ्रिक नहीं की। भारत के और विद्याओं में पिछडे जाने का बुनियादी कारण यही है। भारत ने फिर और विद्याओं की फिक्र नहीं कि, ब्रह्म-विद्या की फिक्र की।
लेकिन उसमें अड़चन है, क्योंकि ब्रह्म-विद्या जानने को कभी लाखों-करोड़ो में एक आदमी उत्सुक होता है। पूरा देश ब्रह्म-विद्या जानने को उत्सुक नहीं होता। और भारत के जो श्रेष्ठतम मनीषी थे, वे ब्रह्म-विद्या में उत्सुक थे। और भारत का जो सामान्य जन था। उसकी कोई उत्सुकता ब्रह्म-विद्या में नहीं थी। उसकी उत्सुकता तो और विधवाओं में थी। लेकिन सामान्य जन और विद्याओं को विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते है। और परम मनीषी उन विद्याओं में उत्सुक ही न थे।
इसलिए भारत ने बुद्ध को जाना, महावीर को, कृष्ण को, पतंजलि को, कपिल को, नागराजन को, वसु बंध को, शंकर को जाना भारत ने। ये सारे, इनमें से कोई भी अल्बर्ट आइंस्टीन हो सकता है, इनमें से कोई भी प्लांक हो सकता है। इनमें से कोई भी किसी भी विधा में प्रवेश कर सकता है। लेकिन भारत का जो श्रेष्ठतम मनीषी था, वह परम विद्या में उत्सुक था। और भारत का जो सामान्य जन था। उसकी तो परम विद्या में कोई उत्सुकता ही नहीं थी। उसकी उत्सुकता दूसरी विद्याओं में है। लेकिन वह विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते है।
पश्चिम में दूसरी विद्याओं को विकसित किया, क्योंकि पश्चिम के बड़े मनीषी और विद्याओं में उत्सुक थे। इसलिए एक अद्भुत घटना घटी। पश्चिम ने सब विद्याएँ विकसित कर लीं और आज पश्चिम को लग रहा है। कि वह आत्म-अज्ञान से भरा हुआ है। और पूरब ने आत्म-ज्ञान विकसित कर लिया और आज पूरब को लग रहा है। कि हमसे ज्यादा दीन और दरिद्र और भुखमरा दुनिया में कोई नहीं है।
हमने एक अति कर ली, परम विद्या पर हमने सब लगा दिया दांव। उन्होंने दूसरी अति कर ली। उन्होंने आत्म विद्या को छोड़कर बाकी सब विद्याओं पर दांव लगा दिया। बड़ी उलटी बात है। वे आत्म-अज्ञान से पीड़ित है और हम शारीरिक दीनता और दरिद्रता से पीड़ित हे।
वह जो परम विद्या है, इस परम विद्या और सारी विद्याओं का जब संतुलन हो, तो पूर्ण संस्कृति विकसित होती है। इसलिए न तो पूरब और न पश्चिम ही पूर्ण है। फिर भी अगर चुनाव करना हो अगर तो परम विद्या ही चुनने जैसी है। सारी बिद्याएं छोड़ी जा सकती है। क्योंकि और सब पा कर कुछ भी पाने जैसा नहीं है।
कृष्ण कहते है। मैं परम विद्या हूं सब विद्याओं में।
लेकिन यह बात आप ध्यान रखना, और विद्याओं का वे निषेध नहीं करते है। और विद्याओं में जो श्रेष्ठ है, उसकी सुचना भर दे रहे है। वे यह नहीं कह रहे है कि सिर्फ अध्यात्म-विद्या को खोजना है, बाकी सब छोड़ देना है।
यह भी सोचने जैसा है। कि अध्यात्म-विद्या परम विद्या तभी हो सकती है। जब दूसरी बिद्याएं भी हो। नहीं तो यह परम विद्या नहीं रह जाएगी। आप कोई मंदिर का अकेला सोने का शिखर बना लें और दीवालें न हों तो समझ लेना शिखर जमीन पर पडा हुआ लोगों के पैरो की ठोकर खाए गा। मंदिर का स्वर्ण-शिखर आकाश में उठता ही इसलिए है कि पत्थर की दीवालें उसे सम्हालती है। अध्यात्म-विद्या का शिखर भी तभी सम्हलता है, जब और सारी बिद्याएं दीवालें बन जाती है। और सम्हालती है।
अब तक हम कहीं भी मंदिर नहीं बना पाए। हमने शिखर बना लिया, पश्चिम ने मंदिर की दीवालें बना ली। जब तक हमारी शिखर पिश्चम के मंदिर पर न चढ़े, तब तक दुनिया में पूर्ण संस्कृति पैदा नहीं हो सकती। ये विरोध भास नहीं समन्वय को दोर है। हम यहां पर दीवालों का जिर्णधार करने में लगे है। कलस तो है पर दीवालें हमें पश्चिम से ही लेनी है।
सत्य की परिभाषा क्या है? सत्य की इतनी ही परिभाषा है कि जो सदा था, जो सदा है और सदा रहेगा। असत्य की इतनी ही परिभाषा है कि जो कल नहीं था, अभी है, कल फिर नहीं हो जाएगा। असत्य का अर्थ है, दो नहीं के बीच थोड़ी देर को होना है; दो न होने के बीच थोड़ी देर को होने का भ्रम है। थोड़ा सोचो, जब दोनों तरफ नहीं है, तो बीच में हो कैसे सकेगा! माया का मतलब यह है: कल नहीं थी, आज है, कल फिर नहीं हो जाएगी। तो जो दो कोनों पर नहीं है, वह बीच में हो नहीं सकती, सिर्फ दिखाई पड़ती होगी, भास होता होगा। क्योंकि 'नहीं' से 'है' कैसे पैदा हो सकता है? और जो 'है', वह फिर 'नहीं' में कैसे खो सकता है? तुम नहीं थे एक दिन। जन्म के पहले तुम कहां थे? मृत्यु के बाद तुम कहां रहोगे? थोड़ी सी देर का सपना है। आंख लगी, सपना देख लिया है; आंख खुलते ही खो जाएगा। सत्य की परिभाषा क्या है? सत्य की इतनी ही परिभाषा है कि जो सदा था, जो सदा है और सदा रहेगा। असत्य की इतनी ही परिभाषा है कि जो कल नहीं था, अभी है, कल फिर नहीं हो जाएगा। असत्य का अर्थ है, दो नहीं के बीच थोड़ी देर को होना है; दो न होने के बीच थोड़ी देर को होने का भ्रम है। थोड़ा सोचो, जब दोनों तरफ नहीं है, तो बीच में हो कैसे सकेगा! इसलिए शंकर संसार को माया कहते हैं। माया का मतलब यह है: कल नहीं थी, आज है, कल फिर नहीं हो जाएगी। तो जो दो कोनों पर नहीं है, वह बीच में हो नहीं सकती, सिर्फ दिखाई पड़ती होगी, भास होता होगा। क्योंकि 'नहीं' से 'है' कैसे पैदा हो सकता है? और जो 'है', वह फिर 'नहीं' में कैसे खो सकता है? तुम नहीं थे एक दिन। जन्म के पहले तुम कहां थे? मृत्यु के बाद तुम कहां रहोगे? थोड़ी सी देर का सपना है। आंख लगी, सपना देख लिया है; आंख खुलते ही खो जाएगा। सहजो ने कहा है: जगत तरैया भोर की। जैसे सुबह का तारा होता है, आखिरी--अब डूबा, तब डूबा। डबडबाता है। तुम देखते ही रहोगे और देखते ही देखते खो जाएगा। जगत तरैया भोर की--ऐसा सारा जीवन है। महावीर ने कहा है: जैसे घास के पत्ते पर ओस की बूंद--ऐसा जीवन है। घास के पत्ते पर ओस की बूंद को कभी गौर से देखा? अब ढलकी, तब ढलकी। तुम्हारे देखते-देखते ही ढल जाएगी; हवा का जरा सा झोंका काफी है। सूरज का निकलना--भाप बन जाएगी--काफी है। जरा सा धक्का, और गई। जब होती है, तब तो मोतियों कोर् ईष्या होती है। जब होती है बूंद ओस की, तब तो मोती भी शरमाते होंगे, झेंप जाते होंगे, ऐसी चमकती है। पर उसका होना क्या है? न जैसा है; हुई, न हुई, बराबर है। जीवन क्षणभंगुर है तो सत्य नहीं हो सकता। तुमने जो भी जाना है, अगर वह जाना और फिर खो जाता है, वह सत्य नहीं हो सकता। वह मन की ही भावना रही होगी; वह मन की ही कल्पना रही होगी; वह तुम्हारा ही प्रक्षेपण रहा होगा। वैसी सच्चाई नहीं है, तुमने मान लिया होगा। वह तुम्हारी मान्यता है। मान्यता माया है। तुम्हारे भीतर की कामना को तुम जीवन के पर्दे पर आरोपित करके देखते चले जाते हो।
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ब्रह्मज्ञान क्या है?-
तैत्तिरीय उपनिषद के अनुसार''मैं इस बात को जान गया कि आनन्द ही ब्रह्म है।''
ब्रह्मज्ञान के नाम पर हम लोग भ्रान्तियों से घिरे हुए हैं। हम सोचते हैं कि ब्रह्मज्ञान कोई हौव्वा है — इससे दूर ही रहना चाहिए।
ब्रह्मज्ञान की बातें अधिकतर हम साधु-महात्माओं से सुनते हैं, इसलिये हम लोग समझते हैं कि ब्रह्मज्ञान तो साधु-महात्मा हो जाने पर ही हो सकता है और ब्रह्मज्ञान हो जाने पर हमारा जीवन भी उन की तरह शुष्क और अर्थहीन हो जायेगा। फिर तो उनकी तरह हम भी संसार में कोई सुख नहीं भोग पायेंगे। हम सोचते हैं कि ब्रह्मज्ञान हम से हमारा सुख छीन लेगा और हमारे पास रह जायेगी एक नीरस और बोरिंग जिन्दगी।
लेकिन यह हमारी भ्रान्ति है।
जब “मैं” और “तू” के एक हो जाने से हमारी दिव्यता प्रकट होती है, तो फिर दिक्कत किस बात की है?
हम लोग अपने अस्तित्व की सच्चाई को देखने से क्यों कतराते हैं?
हम लोग ब्रह्मज्ञान से डरते क्यों हैं?हम लोग ब्रह्मज्ञान से इसलिये डरते हैं क्योंकि हम ब्रह्मज्ञान का अर्थ नहीं समझते।
ऐसी भ्रान्ति के लिये आप का कोई दोष नहीं है। जो लोग ब्रह्मज्ञान की बातें करते हैं, अक्सर वे तोते की तरह एक ही रट लगाये रहते हैं — जीवन का कोई अर्थ नहीं है... संसार में तो दुख ही दुख है... जीवन तो विकारों से भरा पड़ा है, आदि आदि। क्योंकि अधिकतर तो संसार को छोड़ने वाले ही ब्रह्मज्ञान की बातें करते हैं, इसलिये हमें लगता है कि ब्रह्मज्ञान किसी प्रकार के त्याग पर आधारित है। इसलिये ब्रह्मज्ञान से हमें भय लगने लगता है।
लेकिन यह भय निराधार है। हम आप को यह बताना चाहते हैं कि ब्रह्मज्ञान कोई त्याग नहीं है — यह तो एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। ब्रह्मज्ञान आपको संपूर्ण सुख देता है — भौतिक भी और अध्यात्मिक भी। ब्रह्म का तो अर्थ ही आनन्द है।
ब्रह्मज्ञान कोई हौव्वा नहीं है। यह तो एक व्यवहारिक सूत्र है जो हमारी उच्चतम सफलता का मार्ग खोलता है।
ब्रह्म के अर्थ को समझने के लिये हम आप को ले चलते हैं तैत्तिरीय उपनिषद की एक प्रसिद्ध कथा की ओर। भृगुवल्ली नाम के अध्याय में चर्चित यह कथा है तो थोड़ी लम्बी, पर हम आपके समक्ष उसक संक्षिप्त भाषान्तर (version) प्रस्तुत करते हैं।
प्रसिद्ध ऋषि भृगु के मन में जिज्ञासा उठी कि ब्रह्म को जाना जाये — ब्रह्म को समझा जाये। उनके पिता वरुण जी वेदों को जानने वाले ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष थे। भृगुजी ने अपने ब्रह्मज्ञानी पिता वरुण जी से प्रार्थना की —
“भगवन, मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूँ, अतेव आप कृपा कर के मुझे ब्रह्म का अर्थ समझाइये।”
तब वरुण जी ने भृगु से कहा, “तातन्न अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत्र, मन और वाणी — ये सब ब्रह्म की उपलब्धि के द्वार हैं। इन सब में ब्रह्म की सत्ता स्फ-रित हो रही है।” फिर साथ में यह भी बताया कि सब प्रत्यक्ष दिखने वाले प्राणी जिस से उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीते हैं, तथा प्रयाण करते हुए जिस में विलीन हो जाते हैं, वही ब्रह्म है।
भृगु जी कुछ समझ नहीं पाये। उन्होंने वरुण जी से विस्तार पूर्वक समझाने की विनती की।
“मेरे समझाने से कुछ नहीं होगा”, वरुण जी बोले, “यह तुम्हें स्वयं ही समझना होगा। जाओ, तपस्या करो और स्वयं जानो इसका अर्थ।”
भृगु जी ने निष्ठापूर्वक पिता के कथन पर विचार किया, मनन किया। यही उनका तप था।
मनन के बाद भृगु जी इस निश्चय पर पहुँचे कि अन्न ही ब्रह्म है। उन्हें अन्न में वे सारे लक्षण नजर आये जो पिता जी ने बताये थे —
समस्त प्राणी अन्न से ही (अन्न के परिणार्मभूत वीर्य से) उत्पन्न होते हैं, अन्न खा कर ही जीवित रहते हैं और मरणोपरान्त अन्न देने वाली पृथ्वी में ही प्रविष्ट हो जाते हैं।
लेकिन वरुण जी ने भृगु महाराज के इस निश्चय का समर्थन नहीं किया। वे जानते थे कि पुत्र ने ब्रह्म के स्थूल रूप को ही समझा है। ब्रह्म के वास्तविक रूप तक उसकी बुद्धि अभी हीं पहुँची है।
भृगु जी ने फिर प्रार्थना की, “भगवन्! यदि मैं ठीक नहीं समझा तो आप ही मुझे ब्रह्मतत्त्व समझाइये।” लेकिन वरुण जी नहीं माने। उन्होंने कहा, “तू तप के द्वारा ब्रह्म को समझने की कोशिश कर। तेरा तप ब्रह्म का बोध कराने में सर्वथा समर्थ है।”
पिता की आज्ञा पाकर भृगु जी ने फिर तप शुरू किया। इस बार उन्होंने निश्चय किया —
प्राण ही ब्रह्म है।
लेकिन इस बार भी वरुण जी ने न तो उनके निश्चय का समर्थन किया और न ही उसे ब्रह्म का अर्थ समझाया।
“तुम्हारा तप ही ब्रह्म की प्राप्ति का साधन है।” — ऐसा कह कर उन्होंने भृगु जी को फिर से तपस्या करने के लिए कहा।
अगली दो बार भृगु जी के निश्चय थे —
मन ही ब्रह्म है।
विज्ञान ही ब्रह्म है।
लेकिन वरुण जी ने इन दोनों का भी समर्थन नहीं किया। उन्होंने सोचा — इस बार बेटा ब्रह्म के निकट आ गया है। उसका विचार स्थूल और सूक्ष्म दोनों जड़ तत्त्वों से ऊपर उठ कर चेतन तक तो पहुँच गया है, किन्तु ब्रह्म का स्वरूप तो इससे भी विलक्षण है। इसे अभी और तपस्या की आवश्यकता है।
जब इस बार भी भृगु जी के निश्चय को समर्थन नहीं मिला तो वे पुनः तप करने चले गये।
पाँचवीं बार भृगु जी ने अन्तिम रूप से निश्चर्यपूर्वक जाना—
आनन्द ही ब्रह्म है।
सचमुच में आनन्द से ही सारे प्राणी उत्पन्न होते हैं, आनन्द के सहारे ही वे जीते हैं, तथा इस लोक से प्रयाण करते हुए अन्त में आनन्द में ही विलीन हो जाते हैं।
इस प्रकार जान लेने पर भृगु जी को ब्रह्म का पूरा ज्ञान हो गया। तब से भृगु महाराज ब्रह्मज्ञानी कहलाने लगे।
आनन्द ही ब्रह्म है — इस बोध में ब्रह्मज्ञान है।
यहाँ पर एक बात को ठीक से समझना है — ब्रह्म और आनन्द एक ही तत्त्व के दो नाम हैं। ब्रह्म आनन्द से अलग नहीं है, आनन्द ब्रह्म से अलग नहीं है। ऐसा नहीं है कि ब्रह्म में आनन्द है, और ऐसा भी नहीं है कि आनन्द में ब्रह्म है। तथ्य यह है कि आनन्द ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही आनन्द है।
इसे समझने के लिये एक छोटा सा उदाहरण लेते हैं —
जब हम कहते हैं कि गिलास में पानी है तो इसका अर्थ होता है कि गिलास और पानी दो अलग-अलग चीजें हैं। एक ओर जहाँ पानी के बिना भी गिलास हो सकता है, वहीं दूसरी और गिलास के बिना भी पानी हो सकता है। लेकिन जब पानी की अधिकता इतनी बढ जाये कि हम उसे समुद्र कहने लगें,तब यह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि समुद्र में पानी भरा है। समुद्र का अर्थ ही है — अथाह पानी। इसी प्रकार ब्रह्म का अर्थ ही है — अथाह आनन्द। ब्रह्म का अर्थ ही है — आनन्द का समुद्र।
आनन्द का अपार सागर ही परमात्मा है। कोई इसे गा—ड़ कहता है, तो कोई खुदा कहता है। कोई उसे ओंकार कहता है तो कोई उसे महाशक्ति कहता है। कोई इसी को कर्त्तापुरख कहता है तो कोई सुप्रीम पावर कहता है। नाम चाहे जो भी हो किन्तु ब्रह्म एक ही है — आनन्द का सागर! अनन्त सुख का महासमुद्र!
तुलसीदास जी ने भी अपने परमात्मा (राम) को आनन्द-सिंधु ही कहा है। पुत्रों के जन्म के अवसर पर मुनि वसिष्ठ जी भी दशरथ के घर आये थे। देखिये! नामकरण के समय वसिष्ठ जी दशरथ महाराज से क्या कहते हैं —
जो आनन्द सिन्धु सुख रासी।
सी करते त्रैलोकी सुपासी।।
सो सुखधाम राम असनामा।
अखिल लोक दायक बिश्रामा।।
यह जो आनन्द के समुद्र और सुख की राशि हैं, और जिस (आनन्द सिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आप के सबसे बड़े बेटे) का नाम राम है। राम सुख का भवन हैं और वे तीनों लोकों को शांति देने वाले हैं।
परमात्मा सुख से ओत-प्रोत है। परमात्मा सुख का अथाह सागर है। अनन्त सुख ही परमात्मा है। वेदान्त में परमात्मा की यही परिभाषा दी गई है।
परमात्मा में केवल सुख होता है — इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। जो परमात्मा में डूबता है, वह भी सुख से सरोबार हो जाता है। सुख में डूब जाने का ज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है।
आनन्द में डूब जाने का ज्ञान ब्रह्मज्ञान है।
भृगुवल्ली की कथा में दो बातें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पहली बात तो यह है कि ब्रह्मज्ञान केवल अपने ही अन्दर से हो सकता है, किसी और उपाय से नहीं। इसीलिये तो इसे आत्मज्ञान कहा जाता है। भृगु जी बार-बार विनती करते रहे कि वरुण जी उसे ब्रह्म का अर्थ समझाएँ, लेकिन वरुण जी एक ही बात पर अड़े रहे — ब्रह्मज्ञान तो केवल अपने स्वयं के मनन से ही हो सकता है। ब्रह्मज्ञान कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका लड्रडू बनाकर किसी दूसरे के मुँह में ड़ाला जा सके। जो सच्चा ब्रह्मज्ञानी है, वह जानता है कि ब्रह्मज्ञान तो अपने पुत्र को भी नहीं दिया जा सकता, दूसरों को देने की बात तो दूर रही।
लेकिन फिर भी हमारे बहुत सारे महात्मा “ब्रह्मज्ञान” को प्रसाद की तरह बाँटने में लगे हुए हैं,और बहुत सारे लोग उसे बटोर कर ले जाने में लगे हुए हैं।
सोचिये जरा—
कैसा होगा यह प्रसाद!
कैसे होंगे बाँटने वालेन्!
कैसे होंगे बटोरने वाले!
भृगुवल्ली की दूसरी उल्लेखनीय बात कथा की विवेचना में कही गई है। कथा के अन्त में दी गई यह टिप्पणी ध्यानपूर्वक पढने योग्य है —
जो कोई मनुष्य भृगु की भान्ति तपस्यापूर्वक विचार कर आनन्द-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा को जान लेता है, वह भी आनन्द-स्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाता है। इतना ही नहीं, वह इस लोक में भी बहुत अन्न वाला और अन्न को भली भान्ति पचाने की शक्ति वाला हो जाता है।। ऐसा ब्रह्मज्ञानी नाना प्रकार के जीवनयात्रोपयोगी भोगों से सम्पन्न हो जाता है और उन सब को सेवन करने की सामर्थ्य भी उसमें आ जाती है। उस के मन, शरीर और इन्दि्रयाँ सर्वथा निर्विकार और निरोग हो जाते हैं। वह सन्तान से, पशुओं से (धन-सम्पत्ति), ब्रह्म तेज से और बड़ी भारी कीर्ति से समृद्ध होकर जगत में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है।
अब देखिये जरा! ब्रह्मज्ञानी को माया भी मिलती है और राम भी। ब्रह्मज्ञानी के पास धन भी होता है, स्वास्थ्य भी। ब्रह्मज्ञानी को भोग भी उपलब्ध होते हैं और उन के सेवन के सामर्थ्य भी। ब्रह्मज्ञानी को भौतिक सुख भी मिलता है और अध्यात्मिक सुख भी। ब्रह्मज्ञानी को संसार भी मिलता है और परमात्मा भी — क्योंकि संसार परमात्मा से अलग नहीं है । ब्रह्मज्ञान वह पूर्ण ज्ञान है जिसके लिये देवता यात्रा करते हैं।
ब्रह्मज्ञान वह पूर्ण ज्ञान है जिसके लिये देवता यात्रा करते हैं।
संसार को छोड़कर पाया गया परमात्मा अधूरा है। भौतिकता अपूर्ण है तो अध्यात्मिकता भी अपूर्ण है। एक अपूर्णता को छोड़कर दूसरी अपूर्णता के पीछे भागने का क्या लाभ?
ब्रह्मज्ञानी को संसार भी मिलता है और परमात्मा भी - क्योंकि संसार परमात्मा से अलग नहीं है।
ईशावास्योपनिषद की एक श्रुति की विवेचना करते हुए प्रो— सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार कहते हैं —
“इस श्रुति का तीसरा अर्थ भी है। इस अर्थ के अनुसार ‘अविद्या’ का अर्थ है भौतिकवाद (मद्देरालिस्म्) तथा ‘विद्या’ का अर्थ है अध्यात्मवाद (स्परित्ुालिस्म्)। जो ‘अविद्या’ अर्थात्र भौतिकवाद की उपासना करते हैं, वे गहन अन्धकार में जा पहुँचते हैं, और जो ‘विद्या’ अर्थात् निरे, कोरे अध्यात्मवाद की उपासना करते हैं, भौतिक-जगत् की परवाह नहीं करते, वे उससे भी गहरे अन्धकार में जा पहुँचते हैं, क्योंकि भौतिकवाद में कुछ हाथ आता है, कम-से-कम संसार हाथ आता है, निरे, थोथे अध्यात्मवाद में तो कुछ भी हाथ नहीं आता।”
हम दोनों यह मानते हैं कि अध्यात्मिकता के बिना भौतिकता लंगड़ी है। लेकिन, हम लोगों को यह भी समझना है कि भौतिकता के बिना अध्यात्मिकता अन्धी है। दोनों को एक साथ अपना कर ही हम पूर्ण हो सकते हैं।
आपको शायद बचपन की यह कहानी याद होगी —
एक दिन नदी में बाढ आई। किनारे पर बसे हुए गाँव में बाढ का पानी भरने लगा। लोगों ने गाँव छोड़ कर भागना शुरू कर दिया। सारा गाँव खाली हो गया, लेकिन दो लोग रह गये। एक लंगड़ा था जो बाढ के बढते हुए पानी को तो देख रहा था, लेकिन वह वहाँ से जा नहीं सकता था। दूसरा आदमी अंधा था जो चल तो सकता था लेकिन रास्ता नहीं देख सकता था। उन दोनों ने मिलकर योजना बनाई — अन्धे ने लंगड़े को अपने कंधों पर बिख दिया। फिर अन्धा चलता गया और लंगड़ा उसे राह दिखाता रहा। आपसी सहयोग से दोनों बच गये।
अध्यात्मिकता और भौतिकता को लेकर लड़ने की आवश्यकता नहीं है। इन दोनों के साथ हमें सहयोग का सम्बन्ध बनाना है, ठीक वैसे, जैसे प्रो— सत्यव्रत जी समझा रहे हैं —
“उपनिषद का ऋषि संसार को छोड़ने के लिये नहीं कहता, वह भोगने और त्यागने की, अविॅा और विद्या की, असम्भूति और संभूति की बात कहता है। विद्या भी ठीक, अविद्या भी ठीक, सम्भूति भी ठीक, असम्भूति भी ठीक — ये मिलकर चलें तो ठीक, एकुदूसरे से लडें तो ना-ठीक। इस प्रकार के समन्वय को ईशावास्योपनिषद का सार कहा जा सकता है।”
अध्यात्मिकता हमारी भौतिकता का पूरक है— उसका विकल्प नहीं।
अध्यात्मिकता का अर्थ त्याग नहीं है। अध्यात्मिकता का अर्थ संसार से विमुखता भी नहीं है। अध्यात्मिकता तो हमारी वह दृष्टि है जिस से हम यह देख लेते हैं कि हमारी धन-दौलत और हमारे घर-परिवार के पार भी बहुत कुछ है। इस का अर्थ यह नहीं कि यह बोध उसी को हो सकता है जो संसार का त्याग करता है, या संसार को तुच्छ और मिथ्या कहने लगता है।
अध्यात्मिक होने का अर्थ साधु-महात्मा हो जाने से नहीं है। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा के साथ एकात्मकता बनाकर जीने की कला सीख लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — इस अस्तित्त्व के साथ सहयोग का सम्बन्ध बना लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा को अपने जीवन में घोल लेना।
अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — सुख की अनुभूति को बनाये रखना। अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — ब्रह्म में स्थित हो जाना।
एक अध्यात्मिक व्यक्ति अपने हर सुख को परम सुख बना देता है। अध्यात्मिक व्यक्ति जानता है कि परम सुख कहीं आसमान से नहीं टपकता। वह जानता है कि आनन्द कहीं बाहर से नहीं आता। हमारी यात्रा ही हमारे छोटे से सुख को परम सुख बनाती है, हमारी यात्रा ही हमारे क्षणिक सुख को आनन्द बनाती है।
सारी महिमा यात्रा की है।
अध्यत्मिकता यह नहीं कहती कि हम दरिद्रता का जीवन-यापन करें। अध्यात्मिकता का यह अर्थ नहीं कि हम दीन-हीन बन कर जीवन काटें। अध्यात्मिकता तो हमारी भौतिकता की पूर्णता है। यह पूर्णता तभी पाई जा सकती है, जब हम संसार को छोड़ कर नहीं, संसार के साथ चलते हैं। हम पूर्ण तभी हो सकते हैं जब हम भौतिकता का त्याग नहीं, भौतिकता को साथ लेकर यात्रा करते हैं।
देवता भौतिकता की उपेक्षा नहीं करते — तभी तो इनका शरीर स्वस्थ और सुन्दर होता है। देवता संसार की उपेक्षा नहीं करते — तभी तो इनके साथ पत्नी भी होती है, वाहन भी होता है, मदिरा भी होती है। देवता सब को साथ लेकर स्वर्ग पहुँचते हैं, किसी को छोड़कर नहीं। देवता सब को साथ लेकर आनन्द तक पहुँचते हैं।
आनन्द तक पहुँचने की यात्रा वास्तव में पूर्ण होने की यात्रा है।
आप संसार में रहकर भी अध्यात्मिक सुख का अनुभव कर सकते हैं। संसार के त्याग का अध्यात्मिकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। सांसारिक सुख और अध्यात्मिक सुख परस्पर अपवर्जक (mutually exclusive) नहीं हैं। एक को पाने के लिये दूसरे को छोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। सांसारिकता और अध्यात्मिकता एक दूसरे को पूरक हैं। जो परमात्मा अध्यात्मिक सुख में है, वही परमात्मा भौतिक सुख में है। प्रश्न इस बात का नहीं कि सांसारिक सुख को छोड़ा जाये या अध्यात्मिक सुख को, प्रश्न तो यह है कि सांसारिकता और अध्यात्मिकता का सामंजस्य कैसे बिठाया जाये।
अध्यात्मिक सुख के लिये भौतिक सुख छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता तो भौतिकता और अध्यात्मिकता में सामंजस्य बिठाने की है।
यह जरूरी नहीं कि एक महात्मा आपसे अधिक अध्यात्मिक हो। हो सकता है कि वह आप से भी बड़ा संसारी हो। यदि आप भौतिक सुख को परमात्मा की कृपा समझ कर स्वीकार करते हैं तो आप उस महात्मा से अच्छे हैं जो संसार को कोसने में लगा हुआ है। यदि आप सांसारिक सुख को परमात्मा का आशीर्वाद समझ कर भोगते हैं, तो आप उस त्यागी से अच्छे हैं जो संसार और संसारियों को तुच्छ समझने में अपना बड़प्पन समझता है। हमारे साधु-महात्मा भी उतने अपूर्ण हैं, जितने कि हम संसारी।
हमारे एक परिचित हैं —श्री यश शारद। उन्होंने हमें एक दिलचस्प घटना सुनाई थी। घटना सुनाने से पहले हम आप को बताना चाहते हैं कि शारद जी वाटरलू (केनेड़ा) में रहते हैं। इनसे हमारा परिचय वहीं पर हुआ था। सरल हृदय और उन्मुक्त विचारों वाले शारद जी बहुगुणी प्रतिभा के मालिक हैं। एक ओर जहाँ वे बड़े अच्छे वक्ता हैं, कलाकार हैं, स्टेज और नाटक के दिग्दर्शन में निपुण हैं, वहीं दूसरी ओर वे उर्दू के बहुत अच्छे शायर भी हैं। कीनिया (अफ़्रीका) से आये हुए शारद जी पहले सेन्ट जान्स में रहते थे। सेन्ट-जान्स केनेडा के न्यू फाउंडलैं्ड नामक प्रांत की राजधानी है।
हाँ, तो वह घटना हम आप को शारद जी के शब्दों में ही सुनाते हैं —
काफी पुरानी बात है। उन दिनों सेन्ट-जान्स में एक बहुत बड़े स्वामी आये थे। (मैं चाहता हूँ कि स्वामी जी का नाम गुप्त रखा जाये।) वहाँ के मन्दिर में स्वामी जी का प्रवचन रखा गया। मुझे यह बताने में बड़ी खुशी है कि स्वामी जी ने बड़ा ही सुन्दर प्रवचन दिया था।
मैं मन्दिर का सेक्रेटरी था, इसलिये उन के स्वागत-सत्कार का भार मेरे ऊपर था। जब उन का प्रवचन समाप्त हुआ तो मेरे मन में विचार आया कि स्वामी जी से उनके मिशन के बारे में कुछ पूछा जाये। वे अपने मिशन के प्रचार के लिये हर साल आते थे। आप तो जानते ही हैं कि केवल वे ही नहीं और भी कई स्वामी, महात्मा अपने मिशन, अपनी संस्था के प्रचार के लिये केनेड़ा आते हैं, अमरीका जाते हैं, इंग्लैंड़ जाते हैं। मैं ने अपनी जिज्ञासावश तथा उपस्थित श्रोताओं के लाभ हेतु प्रश्न पूछा, “स्वामी जी, भारत के हालात देखते हुए ऐसा लगता है कि हम हिन्दुओं को संगठित होकर रहना चाहिए। लेकिन आजकल नए-नए मिशन, नई-नई संस्थाएँ बनती जा रही हैं। हर स्वामी अपना एक नया ग्रुप बना देता है, हर महात्मा अपना एक नया मिशन खड़ा कर देता है। क्या इतने सारे मिशन हिन्दू-एकता के लिये लाभदायक हैं? हमें तो लगता है कि जितने अधिक मिशन होंगे, जितनी अधिक संस्थाएँ होंगी, हिन्दू-एकता को उतना नुकसान होगा, हिन्दू-समाज उतना ही बँटता जायेगा।”
मेरे मन में यह जिज्ञासा काफी समय से थी। सोचा, स्वामी जी से अच्छा इस बात को और कौन समझा पायेगा। जो स्वयं इतना बड़ा मिशन चला रहे हैं, आज हमें उन से कुछ सीखने का अवसर मिला है। मुझे विश्वास था कि स्वामी जी सहर्थ मेरे प्रश्न का उत्तर देंगे।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उनकी प्रतिक्रिया तो उल्टी हुई। स्वामी जी बिगड़ कर बोले — “बैठ जाओ! यह तो बिल्क-ल व्यर्थ का प्रश्न है।” मैंने दोबारा बड़ी नम्रता से प्रार्थना की — “स्वामी जी, नाराज होने की बात नहीं है। हमें जिज्ञासा है कि आप हमारे प्रश्न का उत्तर दें। देखिये, उपस्थित श्रोता भी आपके विचार जानने के लिये कितने उत्सुक हैं!”
मेरा इतना कहना था कि स्वामी जी क्रोध से उबल पड़े। “किस बात का उत्तर दूँ?” गुस्से से लाल होकर वे मुझ पर बरस पड़े, “तुम्हें तो किसी महात्मा से बात करने की तमीज भी नहीं है।”
मैं हक्का-बक्का रह गया। स्वामी जी ने सीधे-सीधे मुझ पर प्रहार कर दिया। वे तो हमारे महमान थे, हमारे आदरणीय थे। प्रवचन के बाद मुझे धन्यवाद का प्रस्ताव रखना था। लेकिन अब काहे का धन्यवाद? अब तो मेरा शांत रहना मुश्किल हो गया। स्वामी जी का इतना क्रोध! अब मैं इनका धन्यवाद कैसे कर सकता था? मैं भी तैश में आकर बोल गया, “स्वामी जी, बोलने की तमीज तो आप में भी नहीं है। अभी तक आपने भी कुछ नहीं सीखा। आप जो पाना चाहते हैं, हम जो पाना चाहते हैं, उससे तो हम दोनों ही दूर हैं। मुझ में और आप में कोई अन्तर नहीं है। आपने भगवे कपड़े जरूर ड़ाल रखे हैं, किन्तु अपने क्रोध पर तो जरा भी निंत्रण नहीं रख सकते। मैं भी क्रोध कर रहा हूँ, लेकिन मैं अपने आप को महात्मा तो नहीं कहता।”
गरमा-गरम विवाद हुआ। स्वामी जी बर्दाश्त नहीं कर पाये कि हम दोनों बराबर हैं। एक संसारी महात्मा से बराबरी की जुर्रत ही कैसे कर सकता है? वे इतने बड़े स्वामी हैं!
“देखिये चाचरा जी! कोई छोटा नहीं होता, कोई बड़ा नहीं होता। हम सब ने अपना-अपना परिश्रम करना है और अपने परिश्रम से ही पाना है। उनकी प्राप्ति उनकी अपनी है, हमारी प्राप्ति हमारी अपनी। यदि वे मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहते थे तो शिष्टता-पूर्वक उसे टाल सकते थे। ‘आज समय नहीं है, फिर किसी समय इस की चर्चा करेंगे’ या ‘मैं ने इस प्रश्न पर कभी विचार नहीं किया, सोच कर इसका उत्तर देंगे’, इस प्रकार का कोई कारण देकर वे मेरे प्रश्न को टाल सकते थे। लेकिन नहीं! वे तो ऐसे क्रोधित हो उठे, जैसे मैंने कोई भयंकर अपराध कर डाला हो।”
शारद जी थोड़ी देर चुप रहे। फिर अपनी बात को आगे बढाते हुए बोले —
“मैं नहीं समझता कि ये लोग कोई स्वामी हैं, या कोई महात्मा हैं। ये लोग तो स्वयं अन्धेरे में हैं — दूसरों को क्या राह दिखायेंगे? हाँ, इनके पास एक खूबी है — ये लोग जानते हैं कि लोगों को अपने पीछे कैसे लगाया जाये। वास्तव में यही इनका पेशा है — यही इनका व्यवसाय है। परमात्मा तो इन से कोसों दूर है।”
शारद जी की बात तो ठीक मालूम पड़ती है। यह कोई धार्मिकता नहीं है — यह तो धर्म का व्यवसाय है। और व्यवसाय करने वाला हर व्यक्ति संसारी है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्यवसाय किस चीज का है। व्यवसाय तो व्यवसाय है — चाहे वह आटे-दाल का हो या कपड़े का, चाहे सोने-चाँदी का हो या जूतों का, चाहे वह रोगोपचार का हो या धर्म-प्रचार का। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि धर्म का व्यवसाय भी सांसारिकता है।
हमारे बहुत सारे धर्म-गुरु संसार की निन्दा करते हैं। संसार और संसारियों की बुराई करना ही इन का व्यवसाय बन गया है। कोई कहता है कि संसारी काम में लिप्त रहता है, तो कोई कहता है कि संसारी मोह-जाल में अन्धा हो गया है तो कोई कहता है कि संसारी कीचड़ में धँसा हुआ है। लेकिन, इन सबका एक ही उद्देश्य होता है — परमात्मा के बनाये हुए संसार के विरोध में खड़े हो जाना। तभी तो इनकी अपनी यात्रा नहीं हो पाती। तभी तो इन्हें शांति नहीं मिलती। तभी तो ये क्रोध से भरे होते हैं। दुर्वासा ऋषि तो अपने क्रोध के लिये ही विख्यात हैं।
हमारा उद्देश्य किसी की बुराई करने का नहीं है। हम तो आप से इतना कहना चाहते हैं कि बात महात्मा होने की नहीं है, बात धर्मात्मा होने की नहीं है। बात गुरु होने की नहीं है, बात संसारी होने की नहीं है। बात चलते रहने की है — बात सीखते रहने की है। बात तो शिष्यत्व बनाये रखने की है — बात जागरण की है।
जब तक जागरण नहीं होता, तब तक किसी को कोई उपलब्धि नहीं होती। जब तक आत्मज्ञान नहीं होता, तब तक सब एक बराबर हैं।
सौ साल पहले स्वामी विवेकानन्द ने अपने एक प्रवचन में साधु महात्माओं को इसी बात पर फटकारा था। अंग्रेजी भाषा में कहे गये उन के शब्दों का भावार्थ इस प्रकार है —
अब (जागने का) समय आ गया है... ए साधुओ! अपनी कुटिया से बाहर आओ। ए तपस्वियो! पर्वत से नीचे उतरो। ए ऋषियो! जंगल में जाकर मत छुपो। ए महात्माओ! शास्त्रों और ग्रंथों से बाहर निकलो... धर्म को दर्शन-शास्त्र मत बनाओ... धर्म किसी की जागीर नहीं है... सत्य किसी की बपौती नहीं है... सत्य तो पापी के लिये भी है, दुष्ट के लिये भी है, चोर के लिये भी है... सत्य ज्ञानी के लिये ही नहीं, अज्ञानी के लिये भी है... ज्ञानी अज्ञानी से अलग नहीं है।
इसीलिये महात्मा गाँधी कहते हैं — पाप से नफरत करो पापी से प्रेम करो। पापी किसी पुण्यात्मा से अलग नहीं है। यह सारा अस्तित्त्व एक है — अद्वैत वेदान्त का यही सन्देश है!
परमात्मा हर एक में है, परमात्मा हर जगह है, परमात्मा हर समय है। ऐसा नहीं कि वह किसी एक निर्दिष्ट व्यक्ति के अन्दर हो और न ही ऐसा है कि वह किसी निर्दिष्ट व्यक्ति के अन्दर न हो। परमात्मा हर देश में है, हर धर्म-सम्प्रदाय में है, हर काल में है। परमात्मा को किसी एक धर्म के साथ नहीं बाँधा जा सकता। परमात्मा को किसी एक देश में छुपा कर नहीं रखा जा सकता। अपने सम्प्रदाय में हम जिसे देखते हैं, वह परमात्मा का एक हिस्सा होता है। जिस देश में जो भी परमात्मा देखा जा सकता है, वह पूरा परमात्मा नहीं होता — पूरा हो ही नहीं सकता। उसकी अनन्तता का कोई रूर्परंग नहीं है। उसकी व्यापकता का कोई अन्त नहीं है। देखिये, तुलसीदास जी इस बात को कितनी सुन्दरता से कह रहे हैं —
हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम ते प्रगट होंहि मैं जाना।।
देस काल दिसि बिदिसहु माहीं।
कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं।।
भगवान तो सब जगह समान रूप से मौजूद हैं। जहाँ भी आप उसे प्रेम से पुकारोगे, वे प्रगट हो जायेंगे। क्या कोई ऐसा देश बता सकता है, जहाँ प्रभु न हों? क्या कोई ऐसी दिशा बता सकता है, जहाँ ईश्वर न हों? क्या कोई ऐसा स्थान बता सकता है, जहाँ परमात्मा न हो? क्या कोई ऐसा समय बता सकता है जब परमात्मा न हो?
जो जाग जाता है वह समदर्शी हो जाता है। फिर उसे माया और राम में, भौतिकता और अध्यात्मिकता में,लोक और परलोक में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता।
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आध्यात्मिक चेतना से परब्रह्म ज्ञान Knowledge of Param Brahma through spiritual consciousness-
परब्रह्म सता को प्रदर्शित करता है शास्त्रों द्वारा उस अनंत, अव्यक्त तत्व को समझने का प्रयास किया गया है जिसे संन्यास धर्म का पालन करके प्राप्त किया जा सकता है. संन्यास के शुद्ध कर्मों द्वारा एवं योग साधना के मंत्रों अभिमंत्रित होकर ही उस परम तत्व के ज्ञान को जान सकते हैं केवल वाणी द्वारा ही हम इसे जान नहीं सकते. किंतु संन्यासी जो ब्रह्म को जानने कि जिज्ञासा को अपने भीतर लिए उसे पाने का संकल्प करते हुए मोक्ष के मार्ग में खुद को समर्पित करके ही परब्रह्म के सानिध्य को प्राप्त करने में सक्ष्म होता है.
ब्रह्म के विषय में मुख्य सिंद्धातों को बताया गया है उनकी शक्ति एवं उनकी सर्वव्याप्त सत्ता का उल्लेख किया गया है. परब्रह्म जो ब्रह्म से भी परे है समस्त सृष्टि ब्रह्म के अंतर्गत मानी गई है मन, विचार, ज्ञान भाव ,वेद, शास्त्र मंत्र, आधुनिक विजान ज्योतिष आदि सभी कुछ इसी में समाहित हैं परब्रह्म के बारे में ज्ञान पाना एक असंभव सी बात है किसी भी माध्यम से इसकी परिभाषा नही हो सकती.
परब्रह्म गुणातीत, भावातीत, माया, प्रकृति और ब्रह्म से भी परे है, वह एक ही है अजन्मा, अव्यक्त, सनातन ज्ञानियों ने उसे ब्रह्म से भी परे एक सत्ता रूप में माना है जो शब्दों के द्वारा व्यक्त नही किया जा सकता. वेदों में उस परम तत्व की महिमा का विशद विवरण प्राप्त होता है उसे नेति नेति कह कर व्यक्त किया गया है जिसे वाणी द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता है. परब्रह्म ही समस्त जीव निर्जीव का अस्तित्व है यही एकमात्र परम कारण सर्वसमर्थ सर्वज्ञानी है.
वेदों में परब्रह्म की प्राप्ति का मार्ग दर्शाया गया है. ऋषियों के प्रश्न द्वारा परब्रह्म को जानने का प्रयास संभव हो पाया है इसमें ऋषियों के प्रश्नों के उत्तर स्वरूप परब्रह्म के विषय में बताने का प्रयास संभव हो पाया है.
ब्रह्म विद्या के ज्ञान को समझाने हेतु उस परम सत्ता का ज्ञान करना आवश्यक होता है जो सभी में व्याप्त है जिसके द्वारा सृष्टि का संचार संभव हो पाता है जो मुक्त प्रकाशवान चैतन्य एवं शाश्वत है.ब्रह्म एक सबसे उत्कृष्ट विद्या जिसे मैं आपके सम्मुख प्रस्तुत करता हूँ. यह उत्कृष्ट ब्रह्म एक प्रकाश का क्षेत्र है जो सदैव फैलाता रहता है. वह राजाओं से परे जा रहा है गुणों मुक्त शुद्ध, अविनाशी और इंद्रियों की शक्ति को बनाए रखने वाला है .
वह आत्माओं के रूप में समूह का निर्माण करता है तथा उनकी दृष्टि को सीमित कर देता है जिससे व्यक्ति उसकी लीला को जान न पाए परब्रह्म स्वयं के शहर में अकेला है वह वहां रहकर कोई भी सांसारिक काम नहीं करता जैसे एक संन्यासी अपने को संसार की मोह माया से अलग रखता है.
संन्यासी का यह रूप ब्रह्म के साथ एकता का एहसास है. परब्रह्म एक कर्ता के रूप में कर्मों के फलों को देने वाला है वह एक किसान की तरह फल को काटने वाला है. वह बिना किसी से जुडे अपना कार्य करता जाता है जैसे एक संन्यासी बिना भेद भाव के एवं लगाव के अपने कार्य में रत रहता है उसी प्रकार परब्रह्म का रूप स्पष्ट होता है.
परब्रह्म की प्राप्ति हेतु संन्यास कर्म का विस्तृत विवेचन भी प्रस्तुत किया गया है. सृष्टि से पूर्व परम सत्ता अकेली थी उसने इच्छा स्वरूप सृष्टि का निर्माण किया. वही सत्य है वह सूक्ष्म रूप में सभी में विराजमान है उसे जानने के लिए योग साधना कि जाती है प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि द्वारा उस परब्रह्म को जाना जा सकता है.
संन्यास धर्म के पालन द्वारा परब्रह्म के समीप पहुँचा जा सकता है. सत्य का अनुसरण करके शुद्ध मन से आंतरिक शिखा और बाह्य यज्ञोपवीत द्वारा परब्रह्म को जाना जा सकता है संन्यासी इसी ब्रह्म स्वरूप यज्ञोपवीत को बाहरी एवं भीतर रूप में दोनों प्रकार परब्रह्म को जानने की जिज्ञास को धारण करके परमात्मा के साक्ष्य को प्राप्त कर सकता है.ह
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सर्वसार-उपनिषदसूत्र:
सूत्र:12;- ''उत्पत्ति और विनाश से रहित नित्य चैतन्य को ज्ञान कहते हैं। मिट्टी से बनी हुई वस्तुओं में मिट्टी की तरह, सोने से बनी हुई वस्तुओं में सोने की तरह, और सूत से बनी हुई वस्तुओं में सूत की तरह, समस्त सृष्टि में पूर्ण और व्यापक बना हुआ जो चैतन्य है, वह अनंत कहलाता है। जो सुखमय चैतन्य स्वरूप है, अपरिमित आनंद का समुद्र है, और शेष रहे सुख का स्वरूप है, वह आनंद कहलाता है''।
उस परम सत्ता को, उस ब्रह्म को, उस अविनाशी को ऋषि ने ज्ञान कहा है। लेकिन जिस ज्ञान को हम जानते हैं, उस ज्ञान से उसका कोई भी संबंध नहीं है। हम किसे ज्ञान कहते हैं उसे ठीक से समझ लें, तो ऋषि किसे ज्ञान कहता है उसे समझना आसान हो जाएगा।
हमारा ज्ञान--पहली बात तो यह है--सदा किसी ज्ञेय का होता है; अकेला ज्ञान हमें कभी नहीं होता। हम सदा किसी वस्तु के संबंध में ज्ञान को उपलब्ध होते हैं; अकेला ज्ञान कभी नहीं होता। वृक्ष को जानते हैं, मनुष्य को जानते हैं, राह पर पड़े पत्थर को जानते हैं, आकाश के सूर्य को जानते हैं; लेकिन जब भी जानते हैं तो कुछ जानते हैं, जानना शुद्ध कभी नहीं जानते।
और जब भी हम कुछ जानते हैं तो उसे ऋषियों ने अशुद्ध ज्ञान कहा है; क्योंकि वह जो कुछ है, वह महत्वपूर्ण होता है, ज्ञान महत्वपूर्ण नहीं होता। आकाश में सूर्य को देखते हैं, सूर्य को जानते हैं, तो सूर्य महत्वपूर्ण होता है, जानना महत्वपूर्ण नहीं होता।
हमारा यह जो ज्ञान है, अगर सारे विषय हम से छीन लिए जाएं तो तत्काल खो जाएगा; क्योंकि विषय के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि यह ज्ञान हम पर निर्भर नही है, विषय पर निर्भर है। अगर सारे विषय अलग कर लिए जाएं और चारों तरफ शून्य हो तो हमारा ज्ञान खो जाएगा; क्योंकि हमने ऐसा कोई ज्ञान तो जाना ही नहीं है जो अपने में ही ठहरा हुआ हो; हमारा सारा ज्ञान वस्तुओं में ठहरा हुआ है-- ऑब्जेक्टसमें।
तो यह बिलकुल सीधा सा.. सीधा सा, स्पष्ट सा विचार है कि अगर सारे पदार्थ अलग कर लिए जाएं तो हमारा ज्ञान भी खो जाएगा। यह तो बड़े मजे की बात है. इसका अर्थ हुआ कि ज्ञान हममें निर्भर नहीं है, जो पदार्थ हम जानते थे उसमें निर्भर था। यह है हमारा ज्ञान।
जब ब्रह्म को ज्ञान कहता है ऋषि तो ऐसे ज्ञान से प्रयोजन नहीं है; क्योंकि जो ज्ञान पर-निर्भर हो, उसको ऋषियों ने अज्ञान कहा है। जो ज्ञान दूसरे पर निर्भर है, अगर ज्ञान के लिए भी मैं स्वतंत्र और मालिक नहीं हूं तो फिर और किस चीज के लिए स्वतंत्रता और मालकियत हो सकती है?
यह ज्ञान हमारे और -सारे अनुभवों के साथ जुड़ा हुआ है। हमारे सारे अनुभव इस ज्ञान जैसे ही हैं। कोई प्रेम करने को न हो तो क्या आप उस समय प्रेम के क्षण में हो सकते हैं? कोई प्रेमी न हो, तो क्या आप प्रेम कर सकते हैं? शायद आप सोचेंगे, कर सकते हैं; लेकिन आपको खयाल होना चाहिए, तब भी आप तभी कर सकेंगे जब चित्त में आप पहले प्रेमी की कल्पना कर लें, नहीं तो नहीं कर सकेंगे। वह कल्पना सहारा बनेगी फिर भी। आप अकेले होकर प्रेमपूर्ण नहीं हो सकते हैं। तो ऐसा प्रेम भी क्या आपका स्वभाव होगा? ऐसा प्रेम भी दूसरे पर निर्भर हो गया।
इसलिए प्रेमी जिस बुरी तरह गुलाम हो जाते हैं इस जमीन पर और कोई गुलाम नहीं होता -हालांकि प्रेम से मिलनी चाहिए मालकियत, प्रेम से हो जाना चाहिए व्यक्ति परम स्वतंत्र, क्योंकि प्रेम तो बड़ी संपदा है। लेकिन उस संपदा को हम जानते ही नहीं। हम जिसे प्रेम कहते हैं, वह प्रेम सदा दूसरे पर निर्भर होता है। वह इतना निर्भर हो जाता है दूसरे पर कि प्रेम गुलामी बन जाती है। और प्रेम स्वतंत्रता है। तो हमारा प्रेम, और जिस प्रेम को स्वतंत्रता कहते हैं जीसस या बुद्ध, उसमें कोई संबंध नहीं है।
फूल को देखते हैं तो हमें सौंदर्य का बोध होता है, सूरज को डूबते देखते हैं तो हमें सौंदर्य का बोध होता है; लेकिन हमने क्या कभी ऐसा सौंदर्य जाना है जो किसी वस्तु पर निर्भर न हो--सीधा, शुद्ध सौंदर्य हो? नहीं, हमने ऐसा कोई सौंदर्य नहीं जाना। हमारी सब अनुभूतियां पर-निर्भर हैं, और इन्हीं अनुभूतियों का हम जोड़ हैं।
तो हमारा कोई होना भी है, हमारा कोई व्यक्तित्व भी है, या हम केवल जोड़ हैं?... जोड़ अनुभवों के जो दूसरों पर निर्भर हैं। अगर फूल न खिलें तो हमारा सौंदर्य खो जाए, अगर वस्तुएं न, हों तो हमारा ज्ञान खो जाए, अगर प्रेम-पात्र न हो तो हमारा प्रेम खो जाए।
हममें जो भी है वह दूसरे से मिला है, हम बिलकुल उधार हैं। और इसीलिए हमें जीवन भर दूसरों की तरफ मोहताज होकर खड़ा रहना पड़ता है, क्योंकि डर लगा रहता है पूरे समय कि अगर दूसरे ने हाथ खींच लिया तो हम खिसके और गए!
जब आपका प्रेमी मरता है, तो जो आपको पीड़ा होती है वह प्रेमी के मरने की नहीं है, वह आपके प्रेम के मर जाने की है, क्योंकि बिना प्रेमी के आप कोई प्रेम तो जानते नहीं। जब आपसे धन छिनता है तो धन के छिनने की पीड़ा नहीं है, धन के छिनने के साथ ही आपका धनी होना छिन जाता है। अगर एक पंडित से उसकी किताब छीन लो तो किताब ही नहीं छिनती, पंडित का ज्ञान ही छिन जाता है। इसलिए पंडित अपनी किताब को अपने से भी ऊपर मान कर चलता है; अपने सिर पर रख कर चलता है। किताब के चरणों में सिर रखता है। किताब को पैर लग जाए तो घबडा जाता है। किताब पर इतना निर्भर है ज्ञान? तो यह ज्ञान ही नहीं है।
तो पहली बात तो यह कि हमारे सारे अनुभव उधार हैं.. हम ही उधार हैं। एक-एक अनुभव को हम खींच लें तो हम ऐसे ही समाप्त हो जाएंगे जैसे किसी मशीन से एक-एक पुर्जा अलग करते जाएं, थोड़ी देर में मशीन नदारद हो जाएगी। मशीन थी ही नहीं, सिर्फ जोड़ थी।
और जो व्यक्ति सिर्फ जोड़ है उसे उस आत्मा का कोई अनुभव नहीं होगा जो कि परम स्वतंत्र है।
तो जिस ज्ञान को ऋषि कहते हैं : ब्रह्म ज्ञान है, उस ज्ञान को हम समझें कि वह ज्ञान क्या है। तो पहली तो बात उस ज्ञान की यह है कि वह गेय पर निर्भर नहीं है, वह किसी वस्तु पर निर्भर नहीं है।
जब ज्ञान ज्ञेय पर निर्भर होता है तो ज्ञान एक संबंध होता है। और जब ज्ञान ज्ञेय पर निर्भर नहीं होता तो ज्ञान एक अवस्था होता है। अवस्था और संबंध का फर्क समझ लेना।
मैंने कहा कि मैं आपको प्रेम करता हूं। अगर आप नहीं हैं तो मेरा प्रेम खो जाएगा, क्योंकि मेरा प्रेम एक संबंध है, जिसमें दो का जुड़ना जरूरी है; दो हों तो बीच में प्रेम का संबंध जुड़ जाएगा; एक हट जहर तो संबंध तत्काल गिर जाएगा। हम नदी के एक किनारे पर थोड़े ही पुल खड़ाकर सकते हैं! दूसरा किनारा चाहिए। पुल केवल बीच का संबंध है।
लेकिन बुद्ध बैठे हैं एकांत में एक वृक्ष के तले, नहीं है कोई चारों तरफ--इस समय भी उनका प्रेम उतना ही है जब पास से हजारों लोग गुजरते हों। इस प्रेम में रत्ती भर भी भेद नहीं है। यह प्रेम संबंध नहीं है, यह बुद्ध की अवस्था है। यह प्रेमी से बंधा नहीं है, यह बुद्ध का स्वभाव है। यह प्रेम निर्जन में भी वैसा ही बरसता रहेगा जैसे अनजान-अपरिचित रास्ते पर, जहां कोई राही भी न गुजरता हो, कोई फूल खिले और उसकी सुगंध बरसती रहे। इसलिए नहीं कि कोई सुगंध लेने वाला गुजरेगा तब फूल की सुगंध घेरेगी। जैसे अंधेरे में एक दीया जले, कोई देखने वाला न हो और दीया जलता रहे, क्योंकि दीये के जलने का देखने वाले से कोई संबंध नहीं है, दीये का जलना उसका स्वभाव है।
हम पृथ्वी पर नहीं थे तब भी सूरज ऐसे ही चमकता था, और हम पृथ्वी पर नहीं होंगे तब भी ऐसा ही चमकता रहेगा, सूरज के उगने में हमारे देखने का कोई संबंध नहीं है, सूरज का चमकना उसका स्वभाव है।
बुद्ध जैसा व्यक्ति भी प्रेम से भरा है.. वही सच में प्रेम से भरा है, क्योंकि उसके प्रेम को छीना नहीं जा सकता; वह अकेला भी उतना ही प्रेमपूर्ण है। यह प्रेम सेतु नहीं है, संबंध नहीं है, यह प्रेम चित्त की अवस्था है; यह चैतन्य की अवस्था है।
जब ब्रह्म को कहा ज्ञान, या परम आत्मा को कहा ज्ञान तो उसका अर्थ है कि ज्ञान स्वभाव है; वह कोई संबंध नहीं है। इसलिए ऋषि कहता है:
''उत्पत्ति और विनाश से रहित नित्य चैतन्य को ज्ञान कहते हैं। ''
संबंध तो उत्पन्न होता है और विनष्ट होता है, सिर्फ स्वभाव उत्पन्न नहीं होता और विनष्ट नहीं होता।
मैं आपको प्रेम करता हूं कल नहीं करता था, आज करता हूं। जन्मा प्रेम। और बड़ा पागलपन तब पैदा होता है जब हम किसी जन्मी हुई चीज को शाश्वत बनाना चाहते हैं। तब पागलपन हो जाता है। जन्मी चीज तो मरेगी ही.. जिस दिन जन्मी उसी दिन जान लेना था कि मरेगी। जिस दिन हम जन्म के बैंड-बाजे बजाते हैं, उसी दिन अरथी उठने की तैयारी हो जाती है। समय का फासला थोड़ा लगेगा। फूल खिल रहा है.. तभी उसके गिरने की शुरुआत हो गई; झड्ने की शुरुआत हो गई।
जन्म के साथ तो मृत्यु बंधी है; जन्म है एक छोर, मृत्यु है दूसरा छोर। तो जो प्रेम जन्मता है वह मरेगा भी; और जिसकी उत्पत्ति होगी उसका विनाश भी हो जाएगा। जो ज्ञान पैदा होता है... और जान पैदा होता है। आख खोली, सामने फूल खिला हुआ दिखाई पड़ा--ज्ञान हुआ कि फूल है, सुंदर है, सुगंधित है--यह जन्म हुआ। यह ज्ञान भी मरेगा। यह फूल भी मरेगा, यह ज्ञान भी मरेगा।
ब्रह्म तो ऐसा ज्ञान होगा, जो न जन्मता है और न मरता है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह ज्ञान किसी वस्तु के संदर्भ में नहीं होगा, वह ज्ञान स्वभाव ही होगा; वह सदा से ही होगा।
झेन फकीर अपने साधकों को कहते हैं कि अपने ओरिजिनल फेस, अपने मौलिक चेहरे की खोज करो। जब तुम जन्मे नहीं थे तब तुम्हारा चेहरा कैसा था, और जब तुम मर जाओगे तब तुम्हारा चेहरा कैसा होगा? इस पर ध्यान करवाते हैं।
बड़ा कठिन है! क्या सोचिएगा? क्या ध्यान करिएगा? ध्यान करवाते हैं इसीलिए ताकि इसको सोचते-सोचते सोचना-विचारना बंद हो जाए; क्योंकि जो चीज नहीं सोची जा सकती, अगर उस पर सोचेंगे तो एक घड़ी आ जाएगी जब सोचना बंद हो जाएगा।
झेन फकीर कहते हैं, एक हाथ की ताली कैसे बजेगी, इस पर ध्यान करो। एक हाथ की ताली तो बज नहीं सकती; पर वे कहते हैं, इसी पर ध्यान करो। अगर साधक कहता है, यह तो बज ही नहीं सकती, तो वे कहते हैं, तुम इसकी फिकर छोड़ो कि बज सकती है कि नहीं बज सकती है, तुम पहले कोशिश करो, हम कहते हैं कि बज सकती है। तुम पहले कोशिश करो, ध्यान करो.. महीनों। इस बिलकुल फिजूल सी बात पर ध्यान करवाते हैं कि एक हाथ की ताली बज सकती है.. कैसे बजेगी? नहीं का तो सवाल ही नहीं है।
साधक लौट-लौट कर आता है और कहता है कि चौबीस घंटे हो गए.. नहीं बज सकती। गुरु कहता है : इसकी तुम फिकर ही मत करो कि नहीं बज सकती; मैं पूछता हूं :
कैसे बज सकती है? तुम जाओ और ध्यान करो।
महीनों बीत जाते हैं... सिर चकराने लगता है, बुद्धि घूमने लगती है, विचार काम नहीं आते, सब ठप्प हो जाता है भीतर--सोचते... सोचते... सोचते... और यह बिलकुल पागलपन मालूम पड़ने लगता है--एक घड़ी आती है कि इतना स्पष्ट हो जाता है कि इस दिशा में सोचना असंभव है। और सोचना एक क्षण को भी बंद अगर हो जाता है तो वह साधक भागा हुआ आता है और वह कहता है : ताली बज गई; क्योंकि जैसे ही विचार बंद होता है वैसे ही स्वभाव का दर्शन हो जाता है।
खोजो अपना चेहरा जो जन्म के पहले था। वह नहीं खोजा जा सकता, क्योंकि जन्म के पहले कोई चेहरा ही नहीं था। जन्म ही तो चेहरे को जन्म देता है। और मृत्यु के बाद कोई चेहरा नहीं होगा, क्योंकि मृत्यु चेहरे को छीन लेती है। सोचो! सोचते... सोचते... सोचते घडी आती है कि सोचना टूट जाता है, श्रृंखला बंद हो जाती है; और तब जो दिखाई पड़ता है वही मौलिक चेहरा है; वही ओरिजिनल फेस है--वह स्वभाव, वह स्वरूप जो जन्म के पहले था और मृत्यु के बाद भी होगा।
'जो उत्पत्ति को नहीं, विनाश को नहीं उपलब्ध होता, उस नित्य चैतन्य को ज्ञान कहा है।'
तो यहां ज्ञान का संबंध चैतन्य से है, जानने से नहीं; क्योंकि जानी तो सदा कोई चीज जाती है। यहां ज्ञान से हम अर्थ लें चैतन्य का, बुद्धत्व का।
'ज्ञान' शब्द तो हमारा विकृत हो गया है, क्योंकि हम उसे सदा किसी और चीज के जानने से बांधते हैं। अगर आपके बाबत कोई कहे कि बहुत बड़े ज्ञानी हैं तो कोई फौरन पूछेगा. किस बात के? अगर आप कहें, नहीं किसी बात के नहीं हैं, बस इतनी हैं। तो कोई भरोसा नहीं करेगा कि यह क्या मतलब हुआ? क्या जानते हैं? चिकित्साशास्त्र के ज्ञानी हैं कि अर्थशास्त्र के ज्ञानी हैं कि दर्शनशास्त्र के ज्ञानी हैं कि धर्मशास्त्र के ज्ञानी हैं? आप कहें कि नहीं, वे बस ज्ञानी हैं, तो बात बिलकुल अर्थहीन मालूम पड़ेगी, क्योंकि ज्ञान सदा हम किसी चीज का बांधते हैं; किसी से जोडते हैं ज्ञान को।
इस ज्ञान से ब्रह्म को दी गई परिभाषा वाले ज्ञान का संबंध नहीं है। वह ज्ञान है उत्पत्ति- विनाश से रहित नित्य चैतन्य। ' चैतन्य ' ठीक शब्द है उस ज्ञान के लिए... अवेयरनेस, या उससे भी बेहतर होगा. अलर्टनेस; क्योंकि अवेयरनेस में भी ऐसा लगता है किसी चीज के बाबत हम बंधे हुए हैं। अलर्टनेस... सिर्फ बोधमात्र। दीया जल रहा है, कोई चीज प्रकाशित नहीं हो रही है; सिर्फ दीया जल रहा है-- आस-पास कुछ भी नहीं है जिस पर प्रकाश पड़े। प्रकाशित कुछ भी नहीं हो रहा, बस प्रकाश है। उदाहरण के लिए कह रहा हूँ ताकि खयाल में आ जाए कि उस ज्ञान का क्या अर्थ है।
'' मिट्टी से बनी हुई वस्तुओं में मिट्टी की तरह, सोने से बनी हुई वस्तुओं में सोने की तरह और सूत से बनी हुई वस्तुओं में सूत की तरह समस्त सृष्टि में पूर्ण और व्यापक बना हुआ जो चैतन्य है, वह अनंत कहलाता है। ''
और यह जो चैतन्य है, यह व्यक्ति की सीमा में आबद्ध नहीं है। हम यहां बैठे हैं इतने लोग; हमारा इतना भिन्न- भिन्न होना हमारे शरीरों के कारण है, हमारे चैतन्य के कारण नहीं। एक कमरे में हम हजार दीये जला दें तो हजार दीयों में जो फर्क होगा वह मिट्टी के दीये, तेल, बाती के कारण होगा--लेकिन कमरे का जो प्रकाश है वह तो एक होगा। हजार दीये हमने जलाए एक कमरे में--हर दीया अलग है, क्योंकि मिट्टी का ढंग, आकार अलग है; हर दीये का तेल अलग है, हर दीये की बाती अलग है, लेकिन क्या कमरे में आप फर्क कर पाएंगे कि कौन से दीये का प्रकाश कौन सा है? प्रकाश तो एक होगा, व्यापक होगा-- दीये अलग, प्रकाश एक होगा।
हमारा भी जो भेद है वह दीयों का भेद है। शरीर की माटी अलग, आकृति अलग, शरीर में पडा हुआ ईंधन अलग, शरीर की बाती अलग, लेकिन वह जो चैतन्य है, वह जो प्रकाश है हम सबके भीतर वह एक है। जितने हम भीतर जाएंगे उतने हम ऐक्य को उपलब्ध होते चले जाते हैं और जितने हम बाहर आएंगे उतनी अनेकता को उपलब्ध होते चले जाते हैं।
तो ऋषि कहता है ' सोने में सोने की तरह, मिट्टी में मिट्टी की तरह है, लेकिन जो समाया है वह एक ही है। ' अब तो वैज्ञानिक भी इस बात के लिए राजी होंगे। आज से पचास साल पहले राजी नहीं होते थे, क्योंकि विज्ञान कहता था, एक चीज दूसरी में नहीं बदली जा सकती। और जो ऐसा मानते थे, बदली जा सकती है, वे सिर्फ नासमझ समझे जाते थे। पश्चिम में उस तरह के लोग कहे जाते थे : अल्केमिस्ट। पूरब में भी उस तरह के खोजी थे जिनको हम पारस- पत्थर के खोजी कहते थे। वे एक ऐसे पत्थर की तलाश मे लगे थे वे लोग... कि लोहे को छू दो तो सोना हो जाए। अल्केमिस्ट भी इस खोज में लगे थे कि कोई ऐसा राज मिल जाए कि कम कीमती धातुएं बहुमूल्य धातुओं में बदली जा सकें।
लेकिन विज्ञान पिछले दो सौ साल से कह रहा है कि यह सब पागलपन है, यह हो नहीं सकता। मिट्टी कैसे सोना हो सकती है? कोई उपाय नहीं दिखता। और जो भी इस तरह की बातें करते हैं, वे या तो नासमझ हैं, या चालाक हैं, और लोगों को धोखा देते हैं।
अगर वे लोहे को सोना भी बनाते हैं तो उसमें कोई तरकीब है। लोहा तो सोना बन नहीं सकता; वह किसी तरह का धोखा और चकमा है।
यहां तक घटनाएं घटीं कि वास्तविक प्रमाण उपलब्ध हो गए, लेकिन फिर भी भरोसे योग्य नहीं समझे जा सके। जर्मनी के एक बहुत बड़े विचारक और वैज्ञानिक, जो कि वर्षों से इस खोज में लगा था कि अल्केमी सरासर झूठ मालूम होती है, एक दिन सुबह बैठा है अपने द्वार पर--हेजन होफ उसका नाम है--और एक आदमी आया और उसने कहा कि मैंने सुना है कि तुम अल्केमी में विश्वास नहीं करते, लेकिन मैं यहीं इसी वक्त लोहे को सोना बना सकता हूं। हेजन होफ ने कहा कि.. मजेदार आदमी मालम पड़ते हो, लेकिन लोहा सोना नहीं बन सकता। या तो दिमाग तुम्हारा खराब है, क्योंकि मैं वर्षों से अध्ययन कर रहा हूं यह असंभव है।
उस आदमी ने कहा अगर मैं बनाऊंगा तो शायद तुम्हें भरोसा न हो। उसने एक छोटी सी डिब्बी खोली और कहा, इसमें जो चीज रखी है, इसके जरा से स्पर्श से लोहा सोना हो जाएगा।
हेजन होफ ने भरोसा ही नहीं किया कि यह आदमी बिलकुल पागल है। लोहा कैसे सोना.. और वह वर्षों से अध्ययन कर रहा है अल्केमी का। फिर भी उसने हाथ फिरा कर उस चीज को देखा, और अपने नाखून में थोड़ा सा खरोंच लिया। और उस आदमी से कहा कि तुम कल आ जाओ, मैं पूरा प्रयोग का इंतजाम करके रखूंगा ताकि कोई धोखा धड़ी न हो सके। और मैं लोहा बुला कर रखूँगा और सोने के पारखियों को बुला कर रखूंगा ताकि कल जांच हो जाए।
वह आदमी कल नहीं आया, लेकिन हेजन होफ हैरान हुआ और जिंदगी भर रोया, क्योंकि नाखून से उसने लोहे को छुआ और वह सोना हो गया। वह जितनी थोड़ी सी उसने खरोंच ले ली थी, वह आदमी दुबारा तो नहीं आया। लेकिन वह जो थोड़ा सा खरोंच लिया था, उससे लोहा सोना हो गया।
हेजन होफ ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि मैं जन्मों-जन्मों तक अब उसकी राह देखूंगा उस आदमी की.. लेकिन बड़ी मुश्किल हो गई। अगर धोखा भी है तो अदभुत है। और अब तो धोखे का कोई उपाय भी नहीं है, क्योंकि वह खरोंच मेरे ही पास थी। और मैंने अपना ही लोहा सोना किया और शुद्धतम सोना बन गया है। सारी परीक्षाएं हो गईं। और लोग हेजन होफ पर शक करने लगे कि यह बेईमानी कर रहा है। इसकी कोई मानने को तैयार नहीं, क्योंकि अब यह भी क्या सिद्ध करे? और यह बोला कि मैं भी नहीं मान सकता हूं घटना हो गई है। लेकिन अब मेरी भी कोई मानने को तैयार नहीं है। और लोगों ने लिखा कि हेजन होफ अल्केमी का अध्ययन करते-करते दिखता है पागल हो गया। इसने अपने को ही धोखा दे लिया है। आदमी ईमानदार है, सिसिंयर है, इस पर शक नहीं करना चाहिए। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है कि यह खुद ही धोखे में पड गया पढ़ते-पढ़ते दिमाग इसका विभ्रम हो गया। इतना शुद्धतम सोना!
लेकिन इधर बीस वर्षों में विज्ञान इस नतीजे पर पहुंच गया है कि इसमें कोई मौलिक कठिनाई नहीं है। अल्केमिस्ट जो खोजते थे, शायद ठीक ही खोजते थे। पारस-पत्थर की तलाश करने वाले शायद ठीक ही खोजते थे, क्योंकि अब विज्ञान का निर्णय यह है कि प्रत्येक वस्तु एक ही तरह के परमाणुओं से बनी हुई है.. सिर्फ परमाणुओं की मात्रा का भेद है। किसी में सौ--अनुमान कर लें--मात्रा है, तो किसी में एक सौ एक। परमाणु वही हैं-- मौलिक परमाणु जिससे वस्तुएं बनी हैं--इलेक्ट्रांस एक ही हैं।
तो अगर हम किसी भी तरह से एक सौ एक परमाणु वाली वस्तु में से एक परमाणु अलग कर दें, तो सौ परमाणु वाली वस्तु में वह रूपांतरित हो जाएगी।
सोने और लोहे में जो फर्क है, वह स्वभाव का नहीं है; सोने और लोहे में जो फर्क है वह मात्रा का है। अगर लोहे से हम कुछ परमाणु अलग कर लें तो लोहा तत्काल सोना हो जाएगा। या हम सोने में कुछ परमाणु जोड़ दें तो सोना तत्काल लोहा हो जाएगा।
विज्ञान अपनी तलाश से पदार्थ की उस गहराई में पहुंचा है जहां उसका अनुभव है कि पदार्थ का स्वभाव एक है, रूप अलग हैं। वह जो स्वभाव है उसे वह कहता है, वह विद्युत है; वह एक सी है सभी पदार्थों में। हालांकि विज्ञान अभी ऐसी विधि नहीं खोज पाया, जिससे लोहे को हम सोना बनाएं तो वह सस्ता पड़े। वह वास्तविक सोने से बहुत महंगा पड़ेगा, क्योंकि वह परमाणुओं को अलग करना बहुत महंगी प्रक्रिया है--अभी। लेकिन आज नहीं कल, हम कोई सस्ती प्रक्रिया खोज लेंगे, वह दूसरी बात है; उससे कोई संबंध नहीं है। और नहीं भी सस्ती खोज सकेंगे तो एक बात तय है कि लोहा सोना बन सकता है।
कोई भी वस्तु किसी दूसरी वस्तु में परिवर्तित हो सकती है; दूसरी वस्तु में ही नहीं, वस्तु ऊर्जा में परिवर्तित हो सकती है। वही एटामिक एनर्जी का रहस है.. वस्तु को शक्ति में परिवर्तित करना; तो अणु विस्फोट हो जाता है। और एक छोटा सा अणु जब विस्फोट होता है, तो विराट ऊर्जा पैदा होती है।
उपनिषद के ऋषि सदा से यह कहते रहे हैं कि व्यक्ति के भीतर भी जो चैतन्य का अणु है, वह अलग-अलग नहीं है, वह एक ही है--ऊपर के रूप अलग हैं, भीतर जो चेतना है वह एक है।
तो जैसे ही हम भीतर अपने में जाते हैं.. हम अपने के बाहर जाते हैं.. जैसे ही जितने भीतर हम प्रवेश करते हैं, उतने ही हम मिटते जाते हैं और विराट होता चला जाता है। ठीक अपने ही केंद्र पर अपनी मौत हो जाती है। ठीक अपने ही भीतर प्रवेश करना अपनी ही मृत्यु में समा जाना है; क्योंकि हम तो खो जाएंगे.. व्यक्ति की, दीये की तरह हम खो जाएंगे, प्रकाश की तरह हम रह जाएंगे।
वह प्रकाश असीम है।
'वह सोने में सोने की तरह है, मिट्टी में मिट्टी की तरह है, सूत में सूत ही तरह है; और समस्त सृष्टि में व्यापक जो बना है, उसी चैतन्य को हम अनंत कहते हैं।'
अनंत इसलिए कि सीमाओं में वह है जरूर, लेकिन सीमित नहीं है; सोने में है जरूर, लेकिन सोने पर समाप्त नहीं है; आपमें है जरूर, लेकिन आप पर समाप्त नहीं है--फैलता चला जाता है, फैलता चला जाता है; वह फैला ही हुआ है। वह व्यापक है।
हम ऐसा समझें कि हम एक विराट सागर में मछलियों की भांति हैं। मछली सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही समाप्त हो जाती है; सागर के जल सेही निर्मित होती है, सागर के जल में ही विसर्जित हो जाती है। लेकिन जब मछली होती है तो बिलकुल व्यक्ति होती है; फिर सागर में ही खो जाती है... और सागर से ही निर्मित होती है--सागर ही है। या मछली को थोड़ा समझना कठिन मालूम पड़े, तो ऐसा समझें कि सागर में बर्फ की एक चट्टान तैर रही है। बिलकुल अलग मालूम होती है। सिर उठाए रहती है। पानी से सब तरह से अलग मालूम होती है--ठोस है, सब है, लेकिन फिर भी सागर है... और जैसे ही पिघलेगी, लीन हो जाएगी।
इस पिघलने की प्रक्रिया को ही हम अहंकार का छोड़ना कहते रहे हैं। जैसे-जैसे हम पिघलते हैं, अहंकार बिखरता है, विराट सागर में एक हो जाते हैं।
चट्टान बर्फ की कितना ही अपने को भिन्न समझे, भिन्न नहीं है। हमारी भिन्नता हमारा अज्ञान है; और हमारा ज्ञान हमारी अभिन्नता की घोषणा हो जाता है।
इस अनंत, व्यापक को ब्रह्म कहा है। ' ब्रह्म' शब्द बहुत कीमती है; इसका अर्थ होता है, केवल परम विस्तार; ब्रह्म का अर्थ होता है. परम विस्तार। ' विस्तार' और ' ब्रह्म' एक ही शब्द से बने हैं। ब्रह्म का अर्थ है : जो विस्तीर्ण होता चला गया है; जो फैलता ही चला गया है; जो फैला हुआ है; जिसके फैलाव की कोई सीमा नहीं है।
ब्रह्म जैसा कोई शब्द दुनिया की दूसरी भाषा में नहीं है। ब्रह्म का अनुवाद नहीं हो सकता। ईश्वर, गॉड, ब्रह्म से कोई मतलब नहीं रखते।.. कोई मतलब नहीं रखते! इसलिए शंकर ने तो यहां तक कहने की हिम्मत की है कि ईश्वर भी माया का हिस्सा है-- ईश्वर भी। क्योंकि उसकी भी आकृति और रूप है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश.. सबकी आकृतियां और रूप हैं; वे भी माया के हिस्से हैं। जहां आकृति है, जहां रूप है, वहां माया है। उनके भी पार जो अरूप है, वह ब्रह्म है; वह सिर्फ विस्तार का नाम है-- अनंत विस्तार का... जो सबमें फैला हुआ है और कहीं रुकता ही नहीं, फैलता ही चला जाता है... इसलिए अनंत।
''जो सुखमय चैतन्य-स्वरूप है, अपरिमित आनंद है, शेष रहे सुख का स्वरूप है, इसलिए उसे आनंद कहते हैं। '' इसे समझना होगा।
'जो सुखमय चैतन्य स्वरूप है ' जब भी हमें सुख का अनुभव होता है तब हमें ऐसा अनुभव नहीं होता कि मैं सुख हूं ऐसा अनुभव होता है कि मैं हूं कुछ जिस पर सुख आया। सुख एक घटना होती है, स्वभाव नहीं, क्योंकि जो स्वभाव है उसे हम खो नहीं सकते लेकिन सुख तो खो जाता है। आज सुख है सुबह, सांझ दुख हो जाता है।
सुख आता है, दुख आता है--मेरे ऊपर आते हैं; मेरे ऊपर घटित होते हैं और विदा हो जाते हैं। वे घटनाएं हैं। तो जब ब्रह्म को सुख-स्वरूप कहा तो उसका अर्थ है कि ब्रह्म के लिए सुख घटना नही है, स्वभाव है; वह सुख में ही है... या सुख ही है। सुख जब स्वभाव होता है तब हम उसे आनंद कहते हैं।
और आनंद जब केवल एक घटना होती है तब हम उसे सुख कहते हैं। घटना का अर्थ है : विजातीय, फॉरेन। वह हमसे बाहर से होती है, बाहर ही होती है, हमारे घर के बाहर ही घटती है। हम कभी उससे एकात्म नहीं हो सकते--चाहे हम अपने को कितना ही समझें कि एकात्म हैं; हम कभी उससे एकात्म नहीं हो सकते।
डायोजनीज एक यूनानी फकीर नग्न घूमता था। किसी ने डायोजनीज से पूछा कि तुमने कपड़े क्यों छोड़ दिए? डायोजनीज ने कहा कि मैंने पकड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन पकड़ नहीं पाया इसलिए छोड़ दिए। बहुत कोशिश की कि कपड़ों को पकड़ लूं और कपड़ा हो जाऊं--नहीं हो पाया। फिर मैंने सोचा कि जो चीज मैं हो ही नहीं सकता, बाहर की ही घटना रह जाती है, उसे छोड़ ही दूं। नग्नता मेरा स्वभाव है, डायोजनीज ने कहा, और कपड़े ऊपर से थे--ऊपर भले कपड़े थे लेकिन भीतर मैं नग्न ही था।
कपड़ों के भीतर सभी नंगे हैं; कोई उपाय नहीं। तो कपड़े भला दूसरे की आख को धोखा दे जाते हों कि आप नग्न नहीं हैं लेकिन आपको तो धोखा नहीं दे पाते। लेकिन हमें भी दे देते हैं, यही खूबी है। आदमी कपड़ों के भीतर खुद को भी ऐसा समझता है कि अब मैं नग्न नहीं हूं। लेकिन कपड़े बाह्य घटना है।
तो डायोजनीज कहता है कि पकड़ने की बहुत कोशिश की, आखिर में पाया कि पकड़ ही नहीं पाता हूं वे छूटे ही रह जाते हैं, बाहर ही रह जाते हैं। कोई उपाय अपना बना लेने का नहीं है। तो जो अपना हो ही नहीं सकता उसको अपना मानने की भी क्या जरूरत है? इसलिए छोड़ दिए हैं।
डायोजनीज पड़ा है एक रास्ते के किनारे और सिकंदर हिंदुस्तान आ रहा है। तो डायोजनीज से मिलता है और डायोजनीज से कहता है बड़े प्रसन्न मालूम पड़ते हो, बड़े आनंदित मालूम पड़ते हो, लेकिन तुम्हारे पास कुछ दिखाई तो पड़ता नहीं, जिसके कारण तुम आनंदित हो।
क्योंकि सिकंदर सोच ही नहीं सकता कि अकारण कोई आनंदित हो सकता है। अकारण कैसे आनंदित होइएगा? हालांकि ऋषि कहते हैं, जिस दिन अकारण आनंद है, उसी दिन आनंद है। लेकिन हमारा तर्क कहता है, कुछ है तो नहीं तुम्हारे पास--कोई पत्नी नहीं, कोई बच्चा नहीं, कोई धन नहीं, कोई महल नहीं, कोई सुख-सुविधा नहीं--नंगे पड़े हो रेत पर सड़क के किनारे; बड़े प्रसन्न मालूम पड़ते हो! कारण क्या है?
तो डायोजनीज ने कहा. जब तक कारण से मैं प्रसन्न होता रहा तब तक प्रसन्न नहीं हो पाया। फिर मैंने सोचा कि कारण छोड़ कर देखूं. सब छोड़ कर देखूं; और उस प्रसन्नता को खोजूं जो अकारण हो; क्योंकि फिर वह मुझसे छीनी न जा सकेगी।
जिस चीज का कारण है वह छीना जा सकता है, क्योंकि कारण छीना जा सकता है। एक स्त्री है, उसके कारण मैं सुखी हूं स्त्री कल मर सकती है.. मरेगी; छीनी जा सकती है.. न मरे, न जाए कहीं, तो भी मेरे लिए खो जा सकती है; संबंध ही टूट जा सकता है। सुख खो जाएगा। धन आज है, कल नहीं होगा, सुख खो जाएगा। और हो भी तो भी खो जाएगा, क्योंकि जो सदा होता है उसमें सुख नहीं रह जाता।
जहां कारण है वहां सुख छिन जाएगा। कारण से पैदा हुआ सुख क्षणभंगुर होगा। लेकिन अकारण कोई सुख हो सकता है? उसी अकारण सुख को हम आनंद कहते हैं।
अकारण आनंद का अर्थ यह हुआ कि आनंद बाहर से नहीं आता, भीतर से आता है। सकारण आनंद का अर्थ हुआ कि आनंद बाहर से आता है। इसलिए बाहर निर्भर रहना पड़ता है, मोहताज रहना पड़ता है। कोई भी छीन सकता है। कोई भी छीन सकता है; कभी भी छीन सकता है। बाहर पर मेरी क्या मालकियत?
लेकिन एक और आयाम भी है : आनंद भीतर से बाहर जाता है। धारा बदल जाती है पूरी। कृष्ण की प्रेयसी का नाम है, राधा। वह धारा का उलटा है। यह बहुत मजे की बात है इस नाम के साथ, क्योंकि कृष्ण के जीवन में कहीं भी राधा का कोई उल्लेख नहीं है--कोई उल्लेख ही नहीं है.. शब्द का भी नहीं। किसी प्राचीन शास्त्र में राधा उल्लखित नहीं है;
राधा का कोई प्रसंग ही नहीं है। बहुत बाद में... बहुत बाद में-- अभी- अभी कहना चाहिए--मध्य-युग में राधा का जन्म हुआ; यह राधा जुड़ना शुरू हुआ।
ऐसा जरूर उल्लेख है कृष्ण के जीवन में कि कोई एक सखी है, लेकिन अनाम। अनाम सखी का उल्लेख है। उसका कोई नाम नहीं है। जान कर ही नाम नहीं है; क्योंकि नाम-रूप के बाहर ही वह सखी हो सकती है। उसके रूप की भी कोई चर्चा नहीं है; उसका कैसा चेहरा-मोहरा है, कुछ भी नहीं--नाम भी नहीं, चेहरा-मोहरा भी नहीं। उसको ही बाद में मध्य-युग के संतों ने राधा कहा। और राधा जान कर कहा, क्योंकि वह धारा का उलटा रूप है।
एक आनंद की धारा है जो बाहर से भीतर की तरफ आती है; वह धारा है। और जब आनंद भीतर से बाहर की तरफ जाता है तब वह राधा हो जाता है। और कृष्ण ऐसी ही राधा को प्रेम कर सकते हैं, जो भीतर से बाहर की तरफ जाती हुई... बाहर से भीतर की तरफ आती हुई का कृष्ण से कोई संबंध नहीं हो सकता। तो यह तो... आनंद जब भीतर से बाहर की तरफ जाने लगे, राधा बन जाए, तब आप ऐसी सखी को उपलब्ध हुए जिसे खोने की अब जरूरत नहीं पड़ेगी; जिसे नहीं खोजा जा सकता है।
'' सुखमय चैतन्य स्वरूप है उसका। अपरिमित आनंद का सागर है वह। और शेष रहे सुख का स्वरूप है। ''
जब सब छूट जाए--सब, जिससे सुख मिलता था, जब सब छूट जाए और फिर भी सुख शेष रह जाए, वही सुख उसका स्वरूप है। ऐसे स्वरूप को 'आनंद ' कहा है।
हम तो आनंद को जानते ही नहीं, हमें आनंद का कोई पता ही नहीं है, क्योंकि आनंद का तो पता ही तब चलेगा जब धारा राधा हो जाए; जब एक बिलकुल नया आयाम हमारे भीतर प्रकट हो।
तो डायोजनीज कहता है कि मैं आनंदित हूं क्योंकि मैं आनंद हूं; मैं इसलिए आनंदित नहीं हूं कि मेरा कोई कारण है। सिकंदर का भी मन ईर्ष्या से भर जाता है। और यही इस दुनिया में परम घटना है... जब कभी किसी एक भिखारी को देख कर और सम्राट का मन ईर्ष्या से भर जाता है। और सिकंदर भी कहता है कि अगर दुबारा मुझे जन्म मिले तो मैं सिकंदर नहीं, डायोजनीज होना चाहूंगा; इसी आनंद की तो मुझे भी तलाश है। तो डायौजनीज कहता है, तलाश है? तलाश से कभी न पा सकोगे। रुको; यहां जगह काफी है; तुम भी मेरे पड़ोस में विश्राम करो; हम बिना कहीं गए इसे पा लिए हैं-- यहीं; तुम कहां भागे चले जाते हो? और जगह यहां काफी है; तुम भी लेट जाओ।
सिकंदर ने कहा : अभी तो बहुत मुश्किल है; अभी तो मैं एक विजय-यात्रा पर निकला हूं। तो डायोजनीज ने कहा कि विजय-यात्रा पर जो निकला है उसे अभी मुश्किल नहीं है, सदा ही मुश्किल होगा; क्योंकि विजय की यात्रा दुख की खोज है। अगर जीतना ही है तो अपने को जीत लो, दूसरे को जीतने में अपनी हार है; दूसरे को जीतते जाने में आदमी भीतर हारता ही चला जाता है। आखिर में सिवाय पराजय के कुछ हाथ नहीं लगता है। दूसरे को छोड़ो, क्योंकि दूसरे के साथ आतरिक हार ही घटित होती है; अपने को ही जीत लो, अपने को ही जान लो।
सिकंदर ने कहा : लौटते में तुम्हारे पास थोड़ी देर फिर रुला। डायौजनीज ने कहा कि तुम शायद ही लौट सको; क्योंकि अभी इस क्षण को खो रहे हो--इस क्षण को जो कि निश्चित अभी है मौजूद; उस क्षण का विचार कर रहे हो जो अभी मौजूद नहीं!
और भाग्य की बात, सिकंदर वापस नहीं लौट सका; यह विजय-यात्रा में बीच में ही उसकी मृत्यु हो गई भारत से लौटते वक्त।
कोई विजय-यात्रा कभी पूरी नहीं होती, मौत बीच में ही हो जाती है। बहुत हम विजय-यात्राएं कर चुके अनेक- अनेक जन्मों में.. हर बार विजय-यात्रा अधूरी रह जाती है, मौत आ जाती है, फिर हम विजय-यात्रा को पूरा करने निकल जाते हैं, वही कभी पूरी नहीं होती, मौत बार-बार आ जाती है।
एक ही विजय पूरी हो सकती है, और एक ही आनंद उपलब्ध हो सकता है... और वह वह आनंद है जो हमें बाहर से नही मिल सकता--न मिलता है, न कभी मिला है, लेकिन भीतर इसी क्षण उपलब्ध है।
।
..... SHIVOHAM....