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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित विधि -14 क्या है[13-24 केंद्रित होने की विधियां ]?


विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि-14

14 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है:-

''अपने पूरे अवधान को अपने मेरुदंड के मध्‍य में कमल-तंतु सी कोमल स्‍नायु (Attention in the nerve, delicate as the lotus thread)में स्‍थित करो और इसमे रूपांतरित हो जाओ।''

2- इस सूत्र के लिए भी ध्यान विधि 13, वही वैज्ञानिक आधार, वही प्रक्रिया काम करती है।ध्‍यान की इस विधि के लिए तुम्‍हें अपनी आंखे बंद कर लेनी चाहिए और अपने मेरुदंड को, अपनी रीढ़ की हड्डी को देखने का भाव करना चाहिए। अच्‍छा हो कि किसी शरीर शास्‍त्र की पुस्‍तक में या किसी चिकित्‍सालय या मेडिकल कालेज में जाकर शरीर की संरचना को देखो-समझ लो, तब आंखे बंद करो और मेरुदंड पर अवधान लगाओ। उसे भीतर की आँखो से देखो और ठीक उसके मध्‍य से जाते हुए कमल तंतु जैसे कोमल स्‍नायु का भाव करो और इसमे रूपांतरित हो जाओ।

3-अगर संभव हो तो इस मेरुदंड पर अवधान/Attention को एकाग्र /Concentrate करो और तब भीतर से, मध्‍य से जाते हुए कमल तंतु जैसे स्‍नायु (The nerve, delicate as the lotus thread) पर एकाग्र होओ। और यही एकाग्रता तुम्‍हें तुम्‍हारे केंद्र

पर आरूढ़ कर देगी। क्‍योंकि मेरुदंड तुम्‍हारी समूची शरीर-संरचना का आधार है।सब कुछ उससे संयुक्‍त है, जुड़ा हुआ है। सच तो यह है कि तुम्‍हारा मस्‍तिष्‍क इसी मेरुदंड का एक छोर है। शरीर शास्‍त्री कहते है कि मस्‍तिष्‍क मेरुदंड का ही विस्‍तार है। तुम्‍हारा मस्‍तिष्‍क मेरुदंड का विकास है और तुम्‍हारी रीढ़ तुम्‍हारे सारे शरीर से संबंधित है... सब कुछ उससे संबंधित है। यही कारण है कि उसे रीढ़ /आधार कहते है।इस रीढ़ के अंदर एक तंतु जैसा है लेकिन शरीर शास्‍त्री इसके संबंध में कुछ नहीं कह सकते क्योंकि यह भौतिक नहीं है। इस मेरुदंड के ठीक मध्‍य में एक रजत-रज्‍जु है, एक बहुत कोमल नाजुक स्‍नायु है। शारीरिक अर्थ में वह स्‍नायु भी नहीं है क्‍योंकि तुम उसे काट-पीट कर नहीं निकाल सकते। वह वहां नहीं मिलेगा। लेकिन वह है, वह अपदार्थ है, अवस्‍तु है और गहरे ध्‍यान में वह देखा जाता है।

4- वास्तव में,वह पदार्थ नहीं, ऊर्जा है और यथार्थत: तुम्‍हारे मेरुदंड की वही ऊर्जा-रज्‍जु तुम्‍हारा जीवन है। उसके द्वारा ही तुम अदृश्‍य अस्‍तित्‍व के साथ संबंधित हो। वही दृश्‍य और अदृश्‍य के बीच सेतु है। उस तंतु के द्वारा ही तुम अपने शरीर से संबंधित हो, और उस तंतु के द्वारा ही तुम आत्‍मा से संबंधित हो।तो पहले मेरुदंड की कल्‍पना करो, उसे मन की आंखों से देखो।

और तुम्‍हें अद्भुत अनुभव होगा। अगर तुम मेरुदंड का मनोदर्शन करने की कोशिश करोगे, तो यह दर्शन बिलकुल संभव है। और अगर तुम निरंतर चेष्‍टा में लगे रहे, तो कल्‍पना में ही नहीं, यथार्थ में भी तुम अपने शरीर और आत्‍मा से संबंधित हो जाओगे ।

5-एक साधक को इस विधि का प्रयोग करवाया गया । उसे शरीर-संस्‍थान का एक चित्र देखने को दियागया। ताकि वह उसके जरिए अपने भीतर के मेरुदंड को मन की आंखों से देखने में समर्थ हो सके। उसने प्रयोग शुरू किया और सप्‍ताह भर के अंदर आकर उसने कहा, ''आश्‍चर्य की बात है कि मैने दिए चित्र को देखने की कोशिश की, लेकिन अनेक बार वह चित्र मेरी आंखों के सामने से गायब हो गया और एक दूसरा मेरुदंड मुझे दिखाई दिया। यह मेरुदंड चित्र वाले मेरुदंड जैसा नहीं था। ''वह साधक सही रास्‍ते पर था। उसे बताया गया कि अब चित्र को बिलकुल भूल जाओ और उस मेरुदंड को देखा करो जो उसके

लिए दृश्‍य हुआ है। मनुष्‍य भीतर से अपने शरीर संस्‍थान को देख सकता है। हम इसको देखने की कोशिश नहीं करते। क्‍योंकि वह दृश्‍य डरावना है, वीभत्‍स है। जब तुम्‍हें तुम्‍हारे रक्‍त मांस और अस्‍थिपंजर दिखाई पड़ेंगे तो तुम भयभीत हो जाओगे। इसलिए हमने अपने मन को भीतर देखने से बिलकुल रोक रखा है। वास्तव में, हम भी अपने शरीर को उसी तरह बाहर से देखते है जैसे दूसरे लोग देखते है।

6- तुम तो सिर्फ बाहर से अपने शरीर को इस तरह देखते हो जिस तरह कोई दूसरा आदमी उसे देखता हो। भीतर से तुमने अपने शरीर को नहीं देखा है। हम देख सकते है लेकिन भय के कारण वह हमारे लिए आश्‍चर्य बना है। योग को शरीर की

बुनियादी और महत्‍वपूर्ण चीजों के विषय में सब कुछ मालूम रहा है। लेकिन योग चीर फाड़ नहीं करता था। सच तो यह है

कि शरीर को देखने जानने का एक दूसरा ही रास्‍ता उसे अंदर से देखना है। अगर तुम भीतर एकाग्र हो सको तो तुम अचानक अंदरूनी शरीर को, उसके भीतर रेखा चित्र को देखने लगोगे।योग इन सारी स्‍नायुओं को सभी केंद्रों को, शरीर के पूरी आंतरिक संस्‍थान को जान गया जो आज विज्ञान की खोज है।लेकिन विज्ञान यह समझने में असमर्थ है कि योग को इनका पता

कैसे चला। यह विधि उन लोगो के लिए उपयोगी है जो शरीर से जुडे है। अगर तुम भौतिकवादी हो, अगर तुम सोचते हो कि तुम शरीर के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं हो, तो यह विधि तुम्‍हारे बहुत काम की होगी। अगर तुम चार्वाक या मार्क्‍स के मानने वाले हो, अगर तुम मानते हो कि मनुष्‍य शरीर के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम्‍हें यह विधि बहुत सहयोगी होगी। तुम जाओ और मनुष्‍य के अस्‍थि संस्‍थान को देखो।

7-तंत्र या योग की पुरानी परंपराओं में वे अनेक तरह की हड्डियों का उपयोग करते थे। अभी भी तांत्रिक अपने पास कोई न कोई हड्डी या खोपड़ी रखता है। दरअसल वह भीतर से एकाग्रता साधने का उपाय है। पहले वह उस खोपड़ी पर एकाग्रता साधता है। फिर आंखें बंद करता है। और अपनी खोपड़ी का ध्‍यान करता है। वह बाहर की खोपड़ी की कल्‍पना भीतर करता जाता है और इस तरह धीरे-धीर अपनी खोपड़ी की प्रतीति उसे होने लगती है। उसकी चेतना केंद्रित होने लगती है।

वह बाहरी खोपड़ी उसका मनोदर्शन, उस पर ध्‍यान, सब उपाय है और अगर तुम एक बार अपने भीतर केंद्रीभूत हो गए तो तुम अपने अंगूठे से सिर तक यात्रा कर सकते हो। तुम भीतर चलो, वहां एक बड़ा ब्रह्मांड है। तुम्‍हारा छोटा शरीर एक बड़ा ब्रह्मांड है।

8-यह सूत्र मेरुदंड का उपयोग करता है, क्‍योंकि मेरुदंड के भीतर ही जीवन रज्‍जु / Life thread छिपा है। यही कारण है कि सीधी रीढ़ पर इतना जोर दिया जाता है। क्‍योंकि अगर रीढ़ सीधी न रही तो तुम भीतरी रज्‍जु को नहीं देख पाओगे। वह बहुत नाजुक है। बहुत सूक्ष्‍म है। वह ऊर्जा का प्रवाह है। इसलिए अगर तुम्‍हारी रीढ़ सीधी है, बिलकुल सीधी, तभी तुम्‍हें उस सूक्ष्‍म

जीवन रज्‍जु की झलक मिल सकती है।लेकिन हमारे मेरुदंड सीधे नहीं है। हिंदू बचपन से ही मेरुदंड को सीधा रखने का उपाय करते है। उनके बैठने, उठने चलने सोने तक के ढंग सीधी रीढ़ पर आधारित थे।और अगर रीढ़ सीधी नहीं है तो उसके भीतर तत्‍वों को देखना बहुत कठिन बहुत होगा।क्योंकि वह नाजुक है, सूक्ष्‍म है, अपौदगलिक है, शक्‍ति है।इसलिए जब मेरुदंड बिलकुल सीधा होता है तो वह रज्‍जुवत शक्‍ति देखने में आती है।

9-''और इसमे रूपांतरित हो जाओ।''और अगर तुम इस Silver thread पर एकाग्र हुए, तुमने उसकी अनुभूति और उपलब्‍धि की, तब तुम एक नए प्रकाश से भर जाओगे। वह प्रकाश तुम्‍हारे मेरुदंड से आता है जो तुम्हारे पूरे शरीर पर फैल

जाएगा। वह तुम्‍हारे शरीर के पार भी चला जाएगा।और जब प्रकाश शरीर के पार जाता है तब प्रभामंडल दिखाई देते है। हरेक आदमी का प्रभामंडल है। लेकिन साधारणत: तुम्‍हारे प्रभामंडल छाया की तरह है। जिनमे प्रकाश नहीं होता। वे तुम्‍हारे चारों और काली छाया की तरह फैले होते है। और वे प्रभामंडल तुम्‍हारे प्रत्‍येक मनोभाव को अभिव्‍यक्‍त करते है।जब तुम क्रोध में

होते हो तो तुम्‍हारा प्रभामंडल रक्‍त रंजित जैसा हो जाता है। उसमे क्रोध लाल रंग में अभिव्‍यक्‍त होता है। जब तुम उदास, बुझे-बुझे हतप्रभ होते हो तो तुम्‍हारा प्रभामंडल काले तंतुओं से भरा होता है। मानों तुम मृत्‍यु के निकट हो ..सब मृत और बोझिल। और जब यह मेरुदंड के भीतर का तंतु उपलब्‍ध होता है तब तुम्‍हारा प्रभामंडल सचमुच में प्रभा मंडित होता है।

10-इसलिए श्रीराम , श्रीकृष्‍ण क्राइस्ट, बुद्ध, महावीर आदि के लिए प्रभामंडल चित्रित किए जाते है।जब तुम भीतर तुम बुद्धत्‍व को प्राप्‍त होते हो, तो बाहर तुम्‍हारा सारा शरीर प्रकाश, प्रकाश शरीर हो उठता है...तुम्‍हारा मेरुदंड प्रकाश विकिरणित करने लगता है। और तब उसकी प्रभा बाहर भी फैलने लगती है। इसलिए किसी बुद्ध पुरूष के लिए किसी से यह पूछना जरूरी नहीं है कि तुम क्‍या हो क्योंकि तुम्‍हारा प्रभामंडल सब बता देता है। और जब कोई शिष्‍य बुद्धत्‍व प्राप्‍त करता है तो उसका प्रभामंडल सब प्रकट कर देता है।एक महापंडित ने लिखा-''मन एक दर्पण है, जिस पर धूल जम जाती है;धूल को साफ कर दो,तो सत्‍य अनुभव में आ जाता है और बुद्धत्‍व की प्राप्‍ति हो जाती है।'' यही तो सब शास्‍त्रों का ,वेदों का सार था।परन्तु एक पूर्ण प्रभामंडल, ब्रह्मज्ञानी ने लिखा ''न कोई मन है,न कोई दर्पण,फिर धूल कहां जमेगी ?जो यह जान गया वह धर्म को उपलब्ध हो गया ''।

11-वास्तव में, जब Spine का यह Silver thread देख लिया जाता है, तब तुम्‍हारे चारों और एक प्रभामंडल बढ़ने लगता है। इसमें रूपांतरित हो जाओ ,उस प्रकाश से भर जाओ और रूपांतरित हो जाओ।यह भी Spine में केंद्रित होना है।अगर तुम

शरीर वादी कल्‍पनाशील हो तो यह तुम्‍हारे काम आयेगी।अगर नहीं तो यह कठिन है। तब भीतर से शरीर को देखना कठिन होगा।लेकिन जो कोई भी आँख बंद कर अंदर शरीर को देख सकता है, उसके लिए यह विधि बहुत सहयोगी है।पहले अपने Spine को देखो, फिर उसके बीच से जाती हुई Silver thread को। पहले तो वह कल्‍पना ही होगी। लेकिन धीरे-धीरे तुम पाओगे कि कल्‍पना विलीन हो गई है और जिस क्षण तुम आंतरिक तत्‍व को देखोगें, अचानक तुम्‍हें तुम्‍हारे भीतर प्रकाश का विस्‍फोट अनुभव होगा। पहले तो वह रज्जु में सर्प अथार्त रस्सी में साँप का भ्रम अथवा शुक्ति/सीप में रजत/Silver

के भ्रम की तरह कल्पना माना जा सकता है।परन्तु कभी-कभी यह घटना प्रयास के बिना भी घटती है।कई बार ऐसा हुआ है कि किसी दृश्‍य कारण के बिना ही कमरे की मेज पर से अचानक चीजें उछल कर नीचे गिर गई है। बिजली की तरंगें छूटती है। और उसके कई प्रभाव और परिमाण हो सकते है। चीजें अचानक गिर सकती है ,हिल सकती है ,टूट सकती है।ऐसे प्रकाश के फोटो भी लिए गए है।लेकिन यह प्रकाश सदा Spine के इर्द-गिर्द इकट्ठा होता है।

12-भक्ति कहती है कि अध्यात्म के जिस जादू को आप खोज रहे हैं, उसे आप कहीं पढ़ नहीं सकते, देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते, उसे तो केवल अनुभव किया जा सकता है… शब्दों में उसे वर्णित करना भी उसके साथ अन्याय होता है…

किताबों में दर्ज ज्ञान व्यर्थ नहीं, लेकिन वो सिर्फ एक दिशा मापक है जो आपको उस ओर इंगित करता है जहां आपको जाना है, चलना तो खुद ही पड़ेगा। वास्तव में, यात्रा का आनंद तभी ले सकोगे जब यात्रा पर निकलोगे, केवल किताबों में किसी स्थान

के सुन्दर चित्र को देखने को आप यात्रा नहीं कह सकते।सृष्टि में जो कुछ है.. सबको हमारे ऋषि मुनियों ने शब्दों में

वर्णित किया है; जिसे पढ़कर कोई भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है।लेकिन भक्ति के प्रेम और समर्पण के साथ बहुत सी बातें हैं जो वास्तव में इतनी रहस्यपूर्ण हैं कि शब्दों में नहीं उतर सकती बल्कि कुछ विशेष तरंगों को शब्द देना उन तरंगों को विकृत कर सकता है।

13-किसी विशेष स्थान पर ,विशेष समय में दो चेतनाओं का मिलना उन तरंगों को उत्पन्न करता है जिसे हम शिव और शक्ति का मिलना कहते हैं, और उस समय ऊर्जा का वह वर्तुल पूरा होता है जहां कोई कायनाती घटना घटित होती है और आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं रह जाता। और इस घटना के लिए ये कतई आवश्यक नहीं कि ये आत्मिक मिलन दैहिक भी हो , केवल उन चेतनाओं को उस समय सृष्टि की छत के नीचे प्रेमपूर्ण हो जाना ही काफी होता है ।प्रेम ही जीवन की पूर्णता है। प्रेम हृदय का अनुराग और करुणा है। प्रेम हृदय को सरल बनाने की विधि है। जीवन के ऊबड़-खाबड़ पथ का अंतिम

किनारा प्रेम है।भक्ति के प्रेम और समर्पण के साथ जब ज्ञान होता है.... तब भक्ति मोक्ष का हाथ थामे आसमान की ओर बढ़ जाती है और धीरे धीरे एक प्रकाश पुंज में परिवर्तित हो जाती है ;जहाँ पर वो प्रकाश पुंज जाकर आकाश में विलीन हो जाता है …और वहां से एक नया सूर्य उदय हो जाता है.

14-भगवान विष्णु सनातन धर्म में त्रिदेवों में से एक हैं। उन्हें जगत का पालनकर्ता भी कहा जाता है।सभी पुराणों में भगवान विष्णु की महत्वत्ता का वर्णन किया गया है। भगवान विष्णु के 24 अवतार माने गये हैं। हिंदू धम्र में ईश्वर के पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अवतरित होने की मान्यता है। धरती पर अधर्म, अत्याचार, एवं अव्यवस्था बढऩे पर ईश्वर मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं। विष्णु भगवान के मानव रूप के दस अवतार माने गए हैं परन्तु सबसे पहले मत्स्य अवतार है;तो मत्स्य अवतार का क्या रहस्य है?

क्या है मत्स्यावतार ,मत्स्यमानव या मत्स्यपरी का रहस्य?

05 FACTS;-

1-पुराणों में भगवान विष्णु के मत्स्यावतार/जलमानव का उल्लेख है जिसके शरीर का उपरी भाग मानव का व निछला भाग

मछली का है।जलपरियों/जलमानवों के सबसे पहली कहानियां असायरिया में 1000 ईसा पूर्व पाई गई है। जलपरी ( Mermaid) एक म्रिथक जलीय जीव है जिसका सिर एवं धड़ महिला का होता है और निचले भाग में पैरों के स्थान पर मछली की दुम होती है।अन्य कहानियों के विपरीत यह इंसानो से मिलते जुलते है

लेकिन पानी में रहने और सांस लेने की काबिलियत रखते हैं।

2-भारतीय रामायण के थाई व कम्बोडियाई संस्करणों में भी रावण की बेटी सुवर्णमछा (सोने की जल परी) का उल्लेख किया गया है। वह हनुमान का लंका तक सागर सेतू बनाने का प्रयास विफ़ल करने की कोशिश करती है।यथार्थ में मत्स्यावतारजलपरी/जलमानव अथवा ऊर्ध्वरेता निचले छोर के चक्रों को समाप्त करना और चेतना की शुद्ध, उत्क्रांति का प्रारंभ

है;महासाधनाका आवश्यक चरण है साधक/साधिका का MERMAID बनना।अर्थात ऊर्जा को उच्च चक्रों में स्थानांतरित

करना...यही है प्रेम का प्रारंभ..।

3-ऊर्ध्वरेता बनना अर्थात् जीवन को, ओज को अपने उद्गम स्थल ललाट में लाना, जहाँ से वह मूलाधार तक आया था, योग विद्या का काम है। कुण्डलिनी साधना में विभिन्न प्राणायाम साधनाओं द्वारा सूर्य चक्र की ऊष्मा को प्रज्ज्वलित कर ऊर्जा को पकाया जाता है और उसे सूक्ष्म शक्ति का रूप दिया जाता है, तब फिर उसकी प्रवृत्ति ऊर्ध्वगामी होकर मेरु दण्ड से ऊपर चढ़ने लगती है। साधक उसे क्रमशः अन्य चक्रों में ले जाता हुआ फिर से ललाट में पहुँचाता है। शक्ति बीज का मस्तिष्क में पहुँच जाना और सहस्रार चक्र की अनुभूति कर लेना ही ब्रह्म निर्वाण है।

4-MERMAID / ऊर्ध्वरेता का गहरा आध्‍यात्‍मिक मिलन एक शारीरिक कर्म नहीं होता है। तब यथार्थ में वह दो देहों के द्वारा दो आंतरिकताओं का, दो आत्‍माओं का एक दूसरे में प्रवेश होता है।यही है 'राधाभाव'।श्रीराधाकृष्ण का निष्काम प्रेम-आलिंगन

ही प्रेम की परिभाषा है...जहाँ शांति मधुरता,और अक्रियता है।यह ईड़ा और पिंगला का मिलन है ..सुष्म्ना की अवस्था है।जहाँ क्रियाशीलता है वो आकर्षण-विकर्षण हो सकता हैं परन्तु प्रेम नहीं ।प्रेम श्रीकृष्ण को समर्पित हैं, राधा श्रीकृष्ण से कोई कामना की पूर्ति नहीं चाहतीं। इसी प्रकार जब मनुष्य सर्वस्व समर्पण की भावना के साथ श्रीकृष्ण प्रेम में लीन होता है, तभी वह राधाभाव ग्रहण कर पाता है।

5-प्रेम का शिखर राधाभाव है।श्रीकृष्ण की भक्ति, प्रेम और रस की त्रिवेणी जब हृदय में प्रवाहित होती है, तब मन तीर्थ बन जाता है। 'सत्यम शिवम सुंदरम' का यह महाभाव ही 'राधाभाव' कहलाता है। आनंद ही उनका स्वरूप है। श्रीकृष्ण प्रेम की

सर्वोच्च अवस्था ही 'राधाभाव' है।प्रेम गहरे से गहरा विश्राम है,राधाभाव की ऊष्‍मा में, जब तुम भरे-भरे और शिथिल हो, आंखें

बंद कर लो ;विश्राम में उतर जाओ और मेरूदंड पर चित एकाग्र करो। और यह सूत्र बहुत सरल ढंग से कहता है:''इसमें रूपांतरित हो जाओ।''तुम इसके द्वारा रूपांतरित हो जाओगे..।

...SHIVOHAM...


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