विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 13वीं विधि [13-24 केंद्रित होने की विधियां ] क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि-13;-
भगवान शिव कहते है:- ''या कल्पना करो कि मयूर पूंछ के पंचरंगे वर्तुल निस्सीम अंतरिक्ष में तुम्हारी पाँच इंद्रियाँ है।अब उनके सौंदर्य को
भीतर ही घुलने दो।उसी प्रकार शून्य में या दीवार पर किसी बिंदु के साथ कल्पना करो, जब तक कि वह बिंदु विलीन न हो जाए। तब दूसरे के लिए तुम्हारी कामना सच हो जाती है।''
परन्तु मोर पंख ही क्यों ?-
03 POINTS;-
1-इसके कई कारण हैं.सारे संसार में मोर ही एकमात्र ऐसा प्राणी माना जाता है जो अपने सम्पूर्ण जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है। मोरनी का गर्भ धारण मोर के आँसुओ को पीकर होता है। जब नर मोर मगन होकर नाचता है तो उसके मुंह से कुछ गिरता है जिसे खाकर मादा मोर बच्चे को जन्म देती है। अतः इतने पवित्र पक्षी के पंख को स्वयं भगवान श्री कृष्ण अपने मष्तक पर धारण करते है। 2-मोर पंख में सभी तरह के गहरे और हलके रंग पाए जाते है। भगवान श्री कृष्ण मोर पंख के इन रंगो के माध्यम से यही संदेश देना चाहते है कि हमारा जीवन भी इसी तरह के सभी रंगो से भरा पडा है ..कभी चमकीला तो कभी हल्का।इसी तरह जीवन में भी इन रंगो के भाति कभी सुख आते है और कभी दुःख। आपको दुःख के कारण घबराना नहीं है और सुख में डूबना नहीं है। इनको जीवन में अपनाओ और इसका सामना करो।इस सूत्र में भगवान शिव त्राटक साधना के बारे में भी बता रहे है....
3-क्या है त्राटक साधना?-
03 POINTS;-
आँखों को आत्मा का प्रवेशद्वार माना जाता है ।त्राटक साधना द्वारा आँखों को आत्माऔर मन के बीच संपर्क स्थापित करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। त्राटक मेडिटेशन शरीर को शक्ति और शुद्धी प्रदान करने के लिए की जाती है। त्राटक साधना के तीन प्रकार होते है...
1-INNER TRATAK ( अंतर्मुखी त्राटक)
यह साधना आँखों को बंद करके की जाती है. इस मेडिटेशन में आपको अपने अन्दर ही ध्यान एकाग्र करना होता है। इसमें पीठ को सीधा रखते हुए बैठ जाए और अपनी तीसरी आँख (दोनों आँखों के बीच का हिस्सा) पर फोकस करना होता है। इससे आपको तीसरी आँख में थोडा दर्द अनुभव होगा जो की समय के साथ धीरे धीरे गायब होता जायेगा। यह मैडिटेशन नकारात्मक विचारो को दूर करने, बुधिमत्ता बढ़ाने में उपयोगी होता है।
2-MIDDLE TRATAK (मिडिल त्राटक)
त्राटक मेडिटेशन में आपको अपनी आँखों को खुला रखना होता है। इसमें आपको किसी मोमबत्ती या लैंप फ्लेम या किसी बिंदु पर बिना पलके झपकाए ध्यान केन्द्रित करना होता है। इससे आपकी आँखों को थोडा जलन का अनुभव हो सकता है। इसमें बाधा पहुचने पर आप इसे बंद करके दोबारा ध्यान कर सकते है। इसके नियमित अभ्यास से आँखों में कम जलन होना शुरू हो जाता है। इससे आपकी आँखों की रोशनी बढती है और स्मरण शक्ति तेज होती है। यह साधना ध्यान लगाने वाली वस्तु को अपनी आँखों से लगभग बीस बाईस इंच की दूरी पर रखकर की जानी चाहिए।
3-OUTER TRATAK ( बहिर्मुखी त्राटक)
इस साधना में चाँद सूरज या सितारों को देखकर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। यह दोपहर या रात के समय किया जा सकता है। यह मन को शांत रखता है, एकाग्रता बढ़ाता है ,मानसिक विकारो को दूर करता है।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि-13
15 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
''या कल्पना करो कि मयूर पूंछ के पंचरंगे वर्तुल निस्सीम अंतरिक्ष में तुम्हारी पाँच इंद्रियाँ है।अब उनके सौंदर्य को भीतर
ही घुलने दो।उसी प्रकार शून्य में या दीवार पर किसी बिंदु के साथ कल्पना करो, जब तक कि वह बिंदु विलीन न हो जाए। तब दूसरे के लिए तुम्हारी कामना सच हो जाती है।''
2-ये सारे सूत्र, भीतर के केंद्र को कैसे पाया जाए, उससे संबंधित है। उसके लिए जो बुनियादी विधि काम में लायी गयी है, वह यह है कि तुम अगर बाहर कहीं भी, मन में, ह्रदय में या बाहर की किसी दीवार में एक केंद्र बना सके और उस पर समग्रता से अपने अवधान को केंद्रित कर सके और उस बीच समूचे संसार को भूल सके और एक वहीं बिंदु तुम्हारी चेतना में रह जाए तो तुम अचानक अपने आंतरिक केंद्र पर फेंक दिए जाओगे।परन्तु यह कैसे काम करता है, इसे समझना है।वास्तव में,तुम्हारा
मन एक भगोड़ा है, वह कभी एक बिंदु पर नहीं टिकता है।वह निरंतर कहीं जा रहा है ,गति कर रहा है ,पहुंच रहा है।लेकिन वह कभी एक बिंदु पर नहीं टिकता है। वह निरंतर गतिमान है।वह कहीं पहुंचने की आशा तो करता है, लेकिन कहीं पहुंचता नहीं है।
3-मन केवल गति करता है ;क्योंकि उसकी संरचना ही गतिमय है।गति ही उसकी प्रक्रिया है;उसका अंतर्भूत स्वभाव है।मन का अर्थ ही प्रक्रिया है। अगर तुमने गति नहीं की और तुम रूक गये तो मन अचानक समाप्त हो जायेगा , तुरंत मर जायेगा। केवल चेतना बचेगी जो तुम्हारी स्वभाव है। मन तुम्हारा कर्म है ..चलने जैसा। इसे समझना कठिन है। क्योंकि हम समझते है कि मन कोई ठोस वास्तविक वस्तु है।जबकि वह नहीं है ;मन महज एक क्रिया है। यह कहना बेहतर होगा कि यह मन नहीं,
मनन है। अगर तुम कहीं रूक जाओ तो मन संघर्ष करेगा, कहेगा, बढ़े चलो। मन हर तरह से तुम्हें आगे या पीछे या कहीं भी ले जाने की चेष्टा करेगा। कहीं भी सही, लेकिन चलते रहो। अगर तुम जिद्द करो, अगर तुम मन की न मानना चाहों, तो वह कठिन होगा क्योंकि तुमने सदा मन का हुक्म माना है।
4-जब चेतना एक जगह से दूसरी जगह जाती है तब वह प्रक्रिया मन है। जब चेतना Left to Right और Right to को जाती है तब यह गति मन है। अगर तुम गति को बंद कर दो, तो मन नहीं रहेगा। तुम चेतन हो, लेकिन मन नहीं हो। जैसे पैर तो है,
लेकिन चलना नहीं है। चलना क्रिया है ,कर्म है;उसी प्रकार मन भी क्रिया है, कर्म है।यदि तुमने कभी मन पर हुक्म नहीं किया ; कभी उसके मालिक नहीं रहे हो तो तुम हो भी नहीं सकते, क्योंकि तुमने कभी अपने को मन से तादात्म्य रहित नहीं किया है।
तुम सोचते हो कि तुम मन ही हो।यह भूल है कि "तुम मन ही हो''.. और तब मन को पूरी स्वतंत्रता मिल जाती है।क्योंकि तब उसे नियंत्रण में रखने वाला कोई न रहा और जब कोई रहा ही नहीं, तो मन ही मालिक रह जाता है।लेकिन मन का यह
स्वामित्व झूठा है।
5-एक बार प्रयोग करो और तुम उसके स्वामित्व को नष्ट कर सकते हो। मन महज गुलाम है जो मालिक होने का दावा करता है। लेकिन उसकी यह दावेदारी इतनी पुरानी है, इतने जन्मों से है कि वह अपने को मालिक मानने लगा है। गुलाम मालिक हो गया है। वह एक महज विश्वास है, धारणा है। तुम उसके विपरीत प्रयोग करके देखो और तुम्हें पता चलेगा कि यह धारणा
सर्वथा निराधार थी। यह सूत्र कहता है: ‘’या कल्पना करो कि मोर की पूंछ के पंचरंगे वर्तुल निस्सीम अंतरिक्ष में तुम्हारी पाँच इंद्रियाँ है। अब उनके सौंदर्य को भीतर ही घुलने दो।''भाव करो की तुम्हारी पाँच इंद्रियाँ पाँच रंग है। और वे पाँच रंग समस्त
अंतरिक्ष को भर रहे है। सिर्फ कल्पना करो कि तुम्हारी पंचेंद्रियां पाँच सुंदर ,सजीव रंग है और वे अनंत आकाश में फैले है। और तब उन रंगों के बीच भ्रमण करो, उनके बीच गति करो और भाव करो कि तुम्हारे भीतर एक केंद्र है, जहां ये रंग मिलते है। यह मात्र कल्पना है, लेकिन यह सहयोगी है।
6-भाव करो कि ये पांचों रंग तुम्हारे भीतर प्रवेश कर रहे है और किसी बिंदु पर मिल रहे है।ये पाँच रंग जैसे ही किसी बिंदु
पर मिलेंगे तो सारा जगत विलीन हो जाएगा। तुम्हारी कल्पना में ही रंग है। तुम्हारी कल्पना के ये पाँच रंग आकाश को भर देंगे ;तुम्हारे भीतर गहरे उतर जाएंगे,और किसी बिंदु पर मिल जाएंगे।किसी भी बिंदु से काम चलेगा। लेकिन नाभि केंद्र बेहतर
रहेगा। भाव करो कि सारा जगत रंग ही रंग हो गया है। और वे रंग तुम्हारे नाभि केंद्र पर बिंदु पर मिल रहे है। उस बिंदु को देखो, उस बिंदु पर अवधान ( Attention) को एकाग्र करो और तब तक एकाग्र करो जबतक वह बिंदु विलीन न हो जाए। वह विलीन हो जाता है। क्योंकि वह भी कल्पना है। याद रहे कि जो कुछ भी हमने किया है सब कल्पना है। अगर तुम उस पर एकाग्र होओ, तो तुम अपने केंद्र पर स्थिर हो जाओगे। तब संसार विलीन हो जायेगा ...तुम्हारे लिए संसार नहीं रहेगा।
7-इस ध्यान में केवल रंग है। तुम समूचे संसार को भूल गये हो ;सारे विषयों को भूल गए हो। तुमने केवल पाँच रंग चुने है।ये ध्यान केवल उन लोगों के लिए है जिनकी दृष्टि पैनी है, जिनकी रंग की संवेदना गहरी है। यह सबके लिए नहीं है। ये उन्ही लोगों के लिए सहयोगी है, जिसके पास चित्रकार की पैनी निगाह हो। यदि तुम्हें हरे एक हजार हरे रंग नजर नहीं आते तो तुम
इस ध्यान को भूल जाओ और आगे बढ़ो।और जो व्यक्ति रंग के प्रति संवेदनशील नहीं है उसको तुम कहो कि समूचे आकाश को रंग से भरा होने की कल्पना करो, तो वह यह कल्पना नहीं कर पाएगा। वह यदि कल्पना करने की कोशिश भी करेगा। वह लाल रंग की सोचेगा। तो लाल शब्द को देखेगा, लेकिन उसे कल्पना में लाल रंग दिखाई नहीं पड़ेगा। वह हरा शब्द तो कहेगा। शब्द भी वहां होगा, लेकिन हरियाली वहां नहीं होगी।
8-तो तुम अगर रंग के प्रति संवेदनशील हो, तो इस विधि का प्रयोग करो। समूचा जगत पाँच रंग है। और वे रंग तुममें मिल रहे है। तुम्हारे भीतर कही गहरे में वे पांचों रंग मिल रहे है। उस बिंदु पर चित को एकाग्र करो और उससे हटो नहीं, उस पर डटे रहो। मन को मत आने दो। रंगों के संबंध में हरे , लाल और पीले रंगों के बारे में विचार मत करो। सोचो ही मत। बस, उन्हें अपने भीतर मिलते हुए देखो उनके बारे में विचार मत करो। अगर विचार किया, तो मन प्रवेश कर गया। सिर्फ रंगों से भर जाओ। उन रंगों को अपने भीतर मिलने दो और तब उस मिलन बिंदु पर अवधान को केंद्रित करो।सोचना ,विचारना या मनन
करना एकाग्रता नहीं है। तुम अगर सचमुच रंगों से भर जाओ और तुम एक इंद्रधनुष ,एक मोर ही बन जाओ और तुम्हारा आकाश रंगमय हो जाए, तो उसमें तुम्हें एक गहरा सौंदर्य-बोध होगा। लेकिन उसके संबंध में विचार मत करो। यह मत कहो कि यह सुंदर है। विचारणा में मत चले जाओ। उस बिंदु पर एकाग्र होओ जहां, ये रंग मिल रहे है। और एकाग्रता को बढ़ाते जाओ, गहराते हो, तो कल्पना नहीं टिक सकती। वह विलीन हो जाएगी।
9-अगर तुम रंगों की कल्पना नहीं कर सकते, तो दीवार पर किसी बिंदु से काम चलेगा।कोई भी चीज एकाग्रता के विषय के रूप में ले लो। अगर वह आंतरिक हो, अंतस का हो तो बेहतर।एकाग्रता से वह बिंदु भी विलीन हो जाएगा। अब तुम कहां रहोगे..केवल अपने केंद्र में स्थित हो जाओगे।इस लिए सूत्र कहता है: ‘’शून्य में या दीवार में किसी बिंदु पर…यह सहयोगी होगा । अगर तुम रंगों की कल्पना नहीं कर सकते, तो दीवार पर किसी बिंदु से काम चलेगा।कोई भी चीज एकाग्रता के विषय के रूप में ले लो। परन्तु वह आंतरिक हो तो बेहतर रहेगा।इस संसार में दो तरह के व्यक्तित्व होते है।जो लोग अंतर्मुखी है
उनके लिए उनके भीतर ही सब रंगों के मिलने की धारणा आसान है। लेकिन जो लोग बहिर्मुखी है वे भीतर की धारणा नहीं बना सकते।वे बाहर की ही कल्पना कर सकते है। उनकी चित बाहर ही यात्रा करता है। वे भीतर नहीं गति कर सकते।
10-एक दार्शनिक ने कहा है, ''जब भी मैं भीतर जाता हूं वहां मुझे कोई आत्मा नहीं मिलती। जो भी मिलता है वह बाहर के प्रतिबिंब है—कोई विचार, कोई भाव या कभी किसी आंतरिकता का दर्शन नहीं होता। सदा बाहरी जगत ही वहां प्रतिबिंबित
मिलता है''। यह श्रेष्ठतम बहिर्मुखी चित है।इसलिए अगर तुम्हें भी कुछ धारणा के लिए न मिले और तुम्हारा मन पूछे कि यह आंतरिकता क्या है तो अच्छा है कि दीवार पर किसी बिंदु का प्रयोग करो।अगर तुम बहिर्मुखी हो, तो भीतर इस बिंदु का प्रयोग मत करो। उसे बाहर करो ..नतीजा वही होगा।क्योंकि अगर तुम बहिर्गामिता ही जानते हो, तुम्हें अगर बाहर-बाहर गति करना ही आता है तो तुम्हारे लिए भीतर जाना कठिन होगा। दीवार पर एक बिंदु बनाओ और उस पर चित को एकाग्र करो। लेकिन तब खुली आँख से एकाग्रता साधनी होगी।अगर तुम भीतर केंद्र बनाते हो, तो बंद आँखो से एकाग्रता साधनी है।
11-असली बात एकाग्रता के कारण घटती है। बिंदु के कारण नहीं। बाहर है या भीतर यक प्रासंगिक नहीं है। यह तुम पर निर्भर है। अगर दीवार पर देख रहे हो, एकाग्र हो रहे हो, तो तब तक एकाग्रता साधो जब तक वह बिंदु विलीन न हो जाए।
पलकों को मत बंद करो क्योंकि उससे मन को फिर गति करने के लिए जगह मिल जाती है। इसलिए अपलक देखते रहो। पलक के गिरने से मन विचार में संलग्न हो जाता है ;अंतराल पैदा होता है और एकाग्रता नष्ट हो जाती है।इसलिए पलक नहीं
झपकाना है। बोधिधर्म - इतिहास के एक बड़े ध्यानी के संबंध में एक बहुत सुंदर कथा है। कि वह बाहर की किसी वस्तु पर ध्यान कर रहे थे और ध्यान बार- बार टूट जाता था।उसकी आंखें झपक जाती थी तो उसने अपनी पलकों को उखाड़कर फेंक दिया और फिर ध्यान करना शुरू किया। कुछ हफ्तों के बाद उसने देखा कि जहां उसकी पलकें गिरी थी उस स्थान पर कोई पौधे उग आए थे।
12-यह घटना चीन के एक पहाड़ पर घटित हुई थी। उस पहाड़ का नाम टा था। इसलिए जो पौधे वहां उग आए थे उनका नाम टी पडा और यही कारण है कि चाय जागरण में सहयोगी होती है। चाय कोई मामूली चीज नहीं है। वह पवित्र है, बोधिधर्म की
आँख की पलक है।झेन संत चाय को पवित्र मानते है।जापान में तो वे चायोत्सव करते है। प्रत्येक परिवार में एक चायघर होता है। जहां धार्मिक अनुष्ठान के साथ चाय पी जाती है और बहुत ही ध्यान पूर्ण मुद्रा में चाय पी जाती है। जापान ने चाय के इर्द-गिर्द बड़े सुंदर अनुष्ठान निर्मित किये है। वे चाय घर में ऐसे प्रवेश करते है जैसे वे किसी मंदिर में प्रवेश करते हो। तब चाय तैयार की जाएगी। और हरेक व्यक्ति मौन होकर बैठेगा। उबलती चाय का, उसके वाष्प का गीत सब सुनेंगे।अगर तुम बाहर
एकाग्रता साध रहे हो, तो अपलक देखना जरूरी है। समझो कि तुम्हारे पलकें नहीं है। पलकों को उखाड़ फेंकने का यही अर्थ है। तुम्हें आंखें तो है, लेकिन उनके ऊपर झपकने को पलकें नहीं है। और तब तक एकाग्रता साधो जब तक बिंदु विलीन नहीं हो जाता।
13- अगर तुमने संकल्प के साथ मन को चलायमान नहीं होने दिया तो बिंदु विलीन हो जाता है। अगर तुम्हारे लिए संसार में इस बिंदु के अलावा कुछ भी नहीं था ; सारा संसार पहले ही विलीन हो चुका था तो यह बिंदु भी विदा हो गया। अब चेतना कहीं और गति नहीं कर सकती। उसके लिए जाने के सारे आयाम बंद हो गए। अब चेतना अपने आप में लौट आती है और तब तुम
केंद्र में प्रविष्ट हो गए।तो चाहे भीतर हो या बाहर, तब तक एकाग्रता साधो जब तक बिंदु विसर्जित नहीं होता। यह बिंदु दो कारणों से विसर्जित होगा। अगर वह भीतर है, तो काल्पनिक है और इसलिए विलीन हो जाएगा। और अगर यह बाहर है, तो वह काल्पनिक नहीं असली है। तुमने दीवार पर बिंदु बनाया है और उस पर अवधान को एकाग्र किया है। तो यह बिंदु
एक विशेष कारण से विलीन होता है। अगर तुम किसी बिंदु पर चित को एकाग्र करते हो, तो यथार्थ में वह बिंदु विसर्जित नहीं होता ; केवल तुम्हारा मन ही विसर्जित होता है।
14-अगर तुम किसी बह्म बिंदु पर एकाग्र हो रहे हो, तो मन की गति बंद हो जाती है और मन गति के बिना जी नहीं सकता। वह रूक जाता है ,मर जाता है और जब मन रूक जाता है तो तुम बाहर की किसी भी चीज के साथ संबंधित नहीं हो सकते हो। तब अचानक सभी सेतु टूट जाते है, क्योंकि मन ही तो सेतु है।जब तुम दीवार पर, किसी बिंदु पर मन को एकाग्र
कर रहे हो, तो तुम्हारा मन निरंतर तुमसे बिंदु तक और बिंदु से तुम तक उछलकूद करता रहता है। एक सतत उछलकूद की प्रक्रिया चलती है। जब मन विचलित होता है, तो तुम बिंदु को नहीं देख सकते। क्योंकि तुम यथार्थ आँख से नहीं ;बल्कि मन से और आँख से बिंदु को देखते हो। अगर मन वहां न रहे, तो आंखें काम नहीं कर सकती। तुम दीवार को घूरते रह सकते हो। लेकिन बिंदु नहीं दिखाई पड़ेगा। क्योंकि मन न रहा, सेतु टूट गया। बिंदु तो सच है, वह है। इसलिए जब मन लौट आएगा। तो फिर उसे देख सकोगे। लेकिन अभी नहीं देख सकते, अभी तुम बाहर गति नहीं कर सकते और अचानक तुम अपने केंद्र पर आ जाते हो।
15-यह केंद्र में स्थिति तुम्हें तुम्हारे अस्तित्वगत आधार के प्रति जागरूक बना देगी। तब तुम जानोंगे कि कहां से तुम अस्तित्व के साथ संयुक्त हो।वास्तव में, तुम्हारे भीतर ही वह बिंदु है जो समस्त अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ है और जो उसके साथ एक है। जब एक बार तुम इस केंद्र को जान गए तो तुम घर आ गए। तब यह संसार परदेश नहीं रहा और तुम परदेशी नहीं रहे। तब तुम जान गए ,घर आ गए ,और संसार के हो गए। तब किसी संघर्ष की, किसी लड़ाई की जरूरत नहीं रही। तब तुम्हारे और
अस्तित्व के बीच शत्रुता न रही क्योंकि यह अस्तित्व ही है जो तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हुआ और बोधपूर्ण हुआ है।यह अनुभूति, यह प्रतीति, यह घटना और फिर दुःख नहीं रहेगा। तब आनंद कोई ऐसी घटना नहीं है , जो आती है और चली जाती है। तब आनंद तुम्हारा स्वभाव है। जब कोई अपने केंद्र में स्थित होता है तो आनंद स्वाभाविक है। तब वह स्वयं आनंदपूर्ण हो जाता है।
फिर धीरे-धीरे उसे यह बोध भी जाता रहता है कि वह आनंदपूर्ण है। क्योंकि बोध के लिए विपरीत का होना जरूरी है। अगर तुम दुःखी हो, तो आनंदित होने पर तुम्हें आनंद की अनुभूति होगी। लेकिन जब दुःख नहीं है तो धीरे-धीरे तुम दुःख को पूरी तरह भूल जाते हो। और तब तुम अपने आनंद को भी भूल जाते हो। और जब तुम अपने आनंद को भी भूलते हो; तभी तुम सच में आनंदित हो। तब यह स्वाभाविक है कि जैसे तारे चमकते है, नदिया बहती है वैसे ही तुम आनंदपूर्ण हो। तुम्हारा होना ही आनंदमय है।वास्तव में, तब यह कोई घटना नहीं है क्योंकि तब तुम ही आनंद हो।
......SHIVOHAM...