विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान की 37 वीं (ध्वनि-संबंधी11विधियों) का विवेचन क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि (ध्वनि-संबंधी विधि)37;-
14 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
‘’हे देवी, बोध के मधु-भरे दृष्टि पथ में संस्कृत वर्णमाला के अक्षरों की कल्पना करो—पहले अक्षरों की भांति, फिर सूक्ष्मतर ध्वनि की भांति, और फिर सूक्ष्मतर भाव की भांति। और तब, उन्हें छोड़कर मुक्त होओ।‘’
2-शब्द ध्वनि है। विचार एक तर्कयुक्त अनुक्रम में बंधे, एक खास ढांचे में बंधे शब्द है। ध्वनि मूलभूत है। ध्वनि से शब्द बनते है और शब्दों से विचार बनते है। और तब विचार से धर्म ,दर्शनशास्त्र और सब कुछ बनता है। लेकिन मूल गहराई में 'ध्वनि' है।
यह विधि विपरीत प्रक्रिया का उपयोग करती है।हम दर्शनशास्त्रों में जीते है अथार्त विचार तंत्रों में जीते है। तर्कयुक्त ढंग से, व्यवस्था से ढांचे में विचारों के जमाव को हम दर्शनशास्त्र कहते है। व्यवस्था और अर्थ के साथ शब्दों के जमाव को हम विचार कहते है। और शब्द वे घ्वनियां है जिनके बारे में आम सहमति है कि उनका मतलब यह या वह होगा। और वे हमारे लिए इतने महत्वपूर्ण हो गए है कि हम उनके लिए अपनी जान दे सकते है। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान , कोई ईसाई तो कोई कुछ है। मनुष्य महज शब्द के लिए लड़ सकता है; हत्या कर सकता है। कोई उसके परमात्मा को, या उसकी परमात्मा की धारणा को अथार्त श्रीराम या ईसा मसीह या किसी ऐसी धारणा को गलत कह दे तो वह लड़ पड़ेगा।
3-शब्द बहुत महत्वपूर्ण हो गया है और यह मूढ़ता है। लेकिन यही मूढ़ता हमारा इतिहास है और हम अभी उसी भांति पेश आ रहे है। एक अकेला शब्द तुम्हारे भीतर इतना उपद्रव पैदा कर सकता है कि तुम मरने-मारने को तैयार हो जाते हो। हम
दर्शनशास्त्र में जीते है। लेकिन ध्वनि बुनियादी है, आधारभूत है। मन की बुनियादी संरचना में ध्वनि है। दर्शनशास्त्र उसका
शिखर है, लेकिन जिन ईंटों से पूरी इमारत बनी है वे घ्वनियां है। ध्वनि बस ध्वनि है। अर्थ हमारा दिया हुआ ..Projection है। अर्थ आम सहमति से तय होता है अन्यथा ध्वनि का कोई अर्थ नहीं है।उदाहरण के लिए राम शब्द मात्र ध्वनि है ...अर्थहीन । अर्थ हम उसे देते है। और वह शब्द बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। और तब हम उसके इर्द-गिर्द विचारों का तंत्र निर्मित करते है। तब तुम उसके लिए सब कुछ कर सकते हो ; जी मर सकते हो।
4-अगर कोई इस ध्वनि 'राम' का अपमान करे तो तुम क्रुद्ध हो जाओगे। और यह शब्द एक नियम गत सहमति है कि इसका यह अर्थ होगा। अन्यथा अपने आप में किसी शब्द का कोई अर्थ नहीं है। वह महज ध्वनि है।यह सूत्र
प्रतिक्रमण /RETROGRESSION करने को,विपरीत दिशा में चलने को कहता है। ध्वनि पर आ जाओ। फिर ध्वनि से भी ज्यादा बुनियादी चीज है भाव। जो कहीं गहरे में छिपा है। इसे समझना होगा।वास्तव में, मनुष्य ,पशु-पक्षी ..सभी ध्वनि
का प्रयोग करते है। लेकिन पशु-पक्षी की ध्वनि में कोई भाषा नहीं होती..वे मात्र भाव के साथ ध्वनि करते है। कोई पक्षी गाता है। उसके गाने में भाव है। वह किसी भाव को प्रकट कर रहा है। हो सकता है कि वह अपनी मां को पुकार रहा हो,या हो सकता है, बच्चा भूखा हो, और अपनी पीड़ा जता रहा हो। वह ध्वनि भाव-बोधक है।
5-ध्वनि के ऊपर शब्द है, विचार है, दर्शनशास्त्र है; ध्वनि के नीचे भाव है। और जब तुम भाव के नीचे नहीं उतरते तब तक मन के नीचे नहीं उतर सकते हो। सारा जगत ध्वनियों से भरा है। सिर्फ मनुष्य का जगत शब्दों से भरा है। मनुष्य का बच्चा भी जब तक भाषा नहीं सीखता है, ध्वनियों का ही प्रयोग करता है।सच तो यह है कि भाषा का सारा विकास उन ध्वनियों के
आधार पर हुआ है जो दुनियाभर में बच्चें बोलते है। उदाहरण के लिए किसी भी भाषा में मां के लिए शब्द किसी न किसी रूप में मां ध्वनि से जुड़ा है। चाहे वह मातृ, मदर, मां; सब कमोवेश मां ध्वनि से जुड़ा है। बच्चा मां ध्वनि अत्यंत सरलता से बोल सकता है। यह वह पहली ध्वनि है जो बच्चा बोल सकता है। फिर सारी इमारत मां ध्वनि पर उठती है। बच्चा मां कहना शुरू करता है; क्योंकि यह पहली ध्वनि है जिसे बच्चा आसानी से बोल सकता है। यह नियम सब देश और सब समय के लिए लागू है।
6-शरीर और गले की संरचना ही ऐसी है कि मां बोलना उसके लिए सबसे आसान है। और बच्चे के लिए उसकी मां निकटतम व्यक्ति होती है। सबसे महत्वपूर्ण होती है। इसलिए पहली ध्वनि, पहले अर्थपूर्ण व्यक्ति के साथ जुड़ गई और उससे ही मातृ,
मदर, मां शब्द बने।लेकिन बच्चा जब पहली दफा ‘मां’ कहता है तो उसमे कोई भाषागत अर्थ नहीं होता। पर भाव अवश्य रहता है। और उसी भाव के कारण यह ध्वनि मां का पर्याय बन गयी। वह भाव ध्वनि से ज्यादा बुनियादी है।यह सूत्र कहता है
कि ‘’संस्कृत वर्णमाला के अक्षरों की कल्पना करो।‘’कोई भी भाषा काम दे देगी। क्योंकि भगवान शिव मां पार्वती से बोल रहे थे। इसलिए उन्होंने देव भाषा संस्कृत का नाम लिया। तुम अंग्रेजी, लैटिन या अरबी भाषा भी इस्तेमाल कर सकते हो। किसी भाषा से भी काम चल जाएगा। संस्कृत यहां इसलिए कही गई है कि क्योंकि भगवान शिव मां पार्वती से संस्कृत में चर्चा कर रहे थे।
7-पहले अपने भीतर, अपनी चेतना में, ‘’बोध के मधु-भरे दृष्टि पथ’’ में अ, ऊ , म आदि अक्षरों को अनुभव करो। किसी भी भाषा के अक्षरों से काम चल जाएगा। और यह किया जा सकता है। यह बहुत सुंदर प्रयोग है। अगर तुम इसे प्रयोग करना चाहो तो पहले आँख बंद कर लो और भीतर अपने चेतना को इन अक्षरों से भर जाने दो। चेतना को काली पट्टी समझो और तब उस पर अ, ऊ , म अक्षरों की कल्पना करो। कल्पना में उन्हें सावचेत होकर और साफ-साफ लिखो और उनको देखो। फिर धीरे-धीरे अक्षर 'अ 'को भूल जाओ और उसकी ध्वनि को स्मरण रखो ...सिर्फ ध्वनि को।लेकिन पहले कल्पना की आंखों से देखना
जरूरी है; क्योंकि हमारे लिए आँख बहुत महत्वूर्ण है। कान उतने महत्वपूर्ण नहीं है। हम आँख-केंद्रित है। कारण वही है कि आँख अन्य किसी भी चीज से ज्यादा हमें जीने में सहयोग देती है; हमारी नब्बे प्रतिशत चेतना आंखों में बसती है। आँख को हटाकर अपने संबंध में कल्पना करो और तुम मरे-मरे से हो जाओगे। बहुत न्यून बच रहेगा।
8-इसलिए पहले देखो। दृष्टि को भीतर ले जाओ और अक्षरों को देखो। वैसे अक्षर आंखों की बजाय कानों से ज्यादा संबंधित है; क्योंकि वे घ्वनियां है। लेकिन हमारे लिए वे आँख से जुड़ गए है। क्योंकि हम पढ़ने के इतने आदी हो गए है। बुनियादी रूप से वे कान से संबंधित है, वे घ्वनियां है। तो आँख से शुरू करो। और फिर धीरे-धीर आँख को भूल जाओ। और आँख से कान पर चले जाओ। पहले उन्हें अक्षरों के रूप में कल्पना करो, फिर उन्हें देखो और फिर उन्हें सूक्ष्मतर ध्वनियों की भांति सुनो और
अंत में सूक्ष्मतम भाव की भांति 'भाव' करो।यह एक बहुत सुंदर प्रयोग है। जब तुम 'अ' कहते हो तो तुम्हारे भीतर क्या भाव होता है। हो सकता है, तुम्हें इसका बोध न हो कि जब भी तुम कोई ध्वनि करते हो तो तुम्हारे भीतर कैसे भाव का उदय होता है?वास्तव में, हम इतने भाव शून्य हो गये है कि भूल ही गये है। जब तुम कोई ध्वनि देखते हो तो तुम उसका उपयोग किए जाते हो और ध्वनि को बिलकुल भूल जाते हो। उसे तुम निरंतर देखते हो।
9-यदि कोई'अ' कहता है तो तुम पहले 'अ' को देखोगें, तुम्हारे मन में 'अ' दृश्य हो जाएगा। लेकिन अब जब कोई'अ 'कहे तो उसे देखो नहीं, सुनो। और तब अनुभव करो कि तुम्हारे भाव-केंद्र में क्या घटित होता है।भगवान शिव कहते है कि अक्षरों से
ध्वनि की तरफ चलो; इन अक्षरों के जरिए पहले ध्वनि को महसूस करो और फिर ध्वनि के जरिए भाव को महसूस करो। फिर तुम भाव के प्रति सजग होओ। वास्तव में, अब मनुष्य बहुत संवेदन शून्य हो गया है;वह अभी धरती पर सब से संवेदन
शून्य पशु है। उदाहरण के लिए एक कवि अपने बचपन की एक घटना बताता है। उसके पिता को घोड़ों का बहुत शौक होता है। उसके घर में अनेक घोड़े थे; एक बड़ा अस्तबल था। लेकिन उसका पिता उसे घोड़ों के पास नहीं जाने देता था। पिता डरता था; क्योंकि बच्चा अभी बहुत छोटा था। लेकिन कभी-कभी जब पिता घर पर नहीं होता तो बच्चा चुपचाप अस्तबल में चला जाता था। वहां उसकी एक घोड़े से दोस्ती हो गई। और जब वह लड़का वहां पहुंचता तो घोड़ा हिनहिनाने लगता था।
10-उस कवि ने लिखा है कि तब मैं भी घोड़े के साथ कुछ ध्वनि करने लगा; क्योंकि उससे भाषा में बोलने का तो कोई उपाय न था। और तब घोड़े के साथ इस तरह संवाद करते हुए मुझे पहली बार ध्वनियों का बोध हुआ, उनके सौंदर्य का, उनके भाव का
बोध हुआ।तुम्हें किसी मनुष्य के साथ संवाद करके यह बोध नहीं हो सकता। क्योंकि मनुष्य मुर्दा हो चला है। घोड़ा ज्यादा जीवंत है क्योंकि उसके पास भाषा नहीं है। उसके पास शुद्ध ध्वनि है। वह ह्रदय से भरा है ...मन से नहीं।तो कवि ने संस्मरण में
कहा है कि पहली बार मुझे ध्वनि के सौंदर्य का, उसके अर्थ का बोध हुआ। यह वह अर्थ नहीं था जो शब्दों और विचारों से आता है। यह अर्थ भाव से भरा था। अगर वहां और कोई मौजूद होता तो घोड़ा नहीं हिनहिनाता; उससे बच्चा समझ जाता कि यहां मत आओ। यहां कोई है और तुम्हारे पिता नाराज हो जायेगे। और जब वहां कोई नहीं होता तो घोड़ा हिनहिनाता, जिसका मतलब होता कि आ जाओ, यहां कोई नहीं है।
11-कवि याद करता है कि यह एक विधि थी जिससे उसे बहुत सहायता मिली।उसने यह भी बताया कि जब मैं जाता था
और घोड़े को प्रेम करता था तो यदि मेरा प्रेम घोड़े को पसंद आता तो वह एक ढंग से सिर हिलाता था। और यदि नहीं पसंद आता तो वह सिर ही नहीं हिलाता था। घोड़ा अपनी पसंदगी उसे प्रकट करता था। और जब उसका मूड उसकी भाव दशा और होती तो वह उस ढंग से सिर नहीं हिलाता था। और कवि कहता है कि यह सिलसिला वर्षों चला कि मैं जाता और घोड़े को सहलाता और घोड़े के साथ यह प्रेम इतना प्रगाढ़ था कि मुझे कभी किसी और के साथ उस घनिष्ठता का एहसास नहीं हुआ।
कवि आगे कहता है कि एक दिन मैं घोड़े की गरदन सहला रहा था और वह मस्ती में डोलकर उसका आनंद ले रहा था कि मैं अचानक पहली बार अपने हाथ के प्रति सजग हो गया। और मुझे ख्याल हुआ कि मैं घोड़े को सहला रहा हूं। इसके साथ ही घोड़े ने डोलना बंद कर दिया। और गरदन हिलाना बिलकुल बंद कर दिया। और वह कवि कहता है, फिर तो मैंने वर्षों कोशिश की; लेकिन घोड़े से कोई प्रत्युतर नहीं मिला। बहुत समय बीतने पर मुझे बोध हुआ। कि मेरे हाथ के प्रति, मेरे अहंकार के प्रति सजग होते ही मेरा घोड़े के साथ संवाद समाप्त हो गया। और उसे मैं फिर कभी प्राप्त नहीं कर सका।
12-वास्तव में ,वह भाव का संवाद था। ज्यों ही अहंकार आता है, शब्द आता है, भाषा आती है। विचार आता है, त्यों ही पूरा तल ही बदल जाता है। अब तुम ध्वनि के ऊपर हो; पहले ध्वनि के नीचे थे। वे घ्वनियां भाव है और घोड़ा भाव समझ सकता था। वह अहंकार की भाषा नहीं समझ सकता था, इसलिए संवाद टूट गया।कवि ने बहुत चेष्टा की; लेकिन कोई चेष्टा सफल
नहीं हुई। कारण यह है कि तुम्हारी चेष्टा भी तुम्हारे अहंकार का ही हिस्सा है। कवि ने अपने हाथ को भूलने की चेष्टा की; लेकिन भूल न सका। यह भूलना असंभव है। तुम जितनी भूलने की कोशिश करोगे उतनी ही हाथ की याद आयेगी। चेष्टा से कुछ भी भूला नहीं जा सकता है। चेष्टा स्मृति को और भी सबल बना देगी। कवि कहता है कि मैं अपने हाथ में उलझ गया; मैं घोड़े को फिर उद्वेलित न कर सका। मैं अपने हाथ ले जाता था, लेकिन उससे कोई उर्जा घोड़े की और नहीं बहती थी। और घोड़े को इसका पता चल गया।
13-अगर एक व्यक्ति अचानक कोई दूसरी भाषा बोलने लगे तो संवाद बंद हो जाएगा। तब तुम उसे नहीं समझ सकोगे। और अगर यह भाषा तुम्हारे लिए परिचित नहीं है तो तुम अचानक रूक जाओगे। तुम्हें भाषा ही नहीं समझ पड़ेगी। घोड़ा ऐसे ही
रूक गया था।प्रत्येक बच्चा भाव के साथ जीता है। पहले ध्वनि आती है। तब वह ध्वनि भाव से भरती है। तब शब्द , विचार, व्यवस्था, धर्म और दर्शनशास्त्र आते है। और तब आदमी भाव के केंद्र से दूर-दूर हटता जाता है।
यह सूत्र कहता है कि ध्वनि से भाव पर लौट आओ, भाव की भूमि पर खड़े होओ। भाव तुम्हारा मन नहीं है। यही कारण है कि तुम भाव से डरते हो। तुम तर्क से नहीं डरते। लेकिन तुम भाव से सदा डरते हो। क्योंकि भाव तुम्हें अराजकता में ले जा सकता है। जिस पर तुम्हारा काबू नहीं है।
14-तर्क तुम्हारे नियंत्रण में है। सिर के तुम मालिक हो। सिर के नीचे उतरते ही तुम्हारी मलकियत खत्म हो जाती है। तब तुम्हारा नियंत्रण नहीं रहता; तब तुम मनमानी नहीं कर सकते। भाव ठीक मन के नीचे है; भाव तुम्हारे और तुम्हारे मन के बीच
की कड़ी है।फिर भगवान शिव कहते है: ‘’तब उन्हें अलग छोड़कर मुक्त हो जाओ।‘’तब भाव को भी छोड़ दो।ध्यान रहे,
भाव के गहनत्म तल पर पहुंचकर ही तुम भाव को छोड़ सकते हो। अगर तुम उनके गहन तल पर नहीं हो तो उन्हें कैसे छोड़ सकते हो? पहले तुम्हें दर्शनशास्त्र को छोड़ना होगा;अर्थात हिन्दू धर्म, ईसाइयत धर्म, इस्लाम धर्म के सतही तल, को छोड़ना होगा। पहले दर्शन और तब विचार छोड़ना होगा। फिर क्रमश: शब्द, अक्षर, ध्वनि और भाव को छोड़ना है।
क्या शब्द, अक्षर, ध्वनि और भाव को छोड़ना सम्भव है ?-
03 FACTS;-
1-तुम उसी जगह को छोड़ सकते हो जहां तुम हो। तुम उसी सीढ़ी को छोड़ सकते हो जिस पर तुम खड़े हो। उस सीढ़ी को कैसे छोड़ सकते हो, जिस पर तुम खड़े ही नहीं हो, तुम दर्शनशास्त्र की सीढी पर खड़े हो। यह सबसे दूर की सीढी है। यही कारण है कि जब तक तुम धर्मों के सतही तल को नहीं छोड़ते, तुम धार्मिक नहीं हो सकते।यह सूत्र, यह विधि बहुत आसानी से
प्रयोग की जा सकती है। कठिनाई भाव के साथ नहीं है; कठिनाई शब्दों के साथ है। किसी भाव को तुम वैसे ही छोड़ सकते हो जैसे तुम अपने कपड़े बदलते हो। जैसे तुम अपने शरीर के पुराने कपड़े फेंक देते हो। ठीक वैसे ही तुम अपने भावों को अपने से अलग कर सकते हो। लेकिन अभी तुम यह नहीं कर सकते, अभी यह करना असंभव है। इसलिए कदम-कदम चलना ठीक है।
2- अ, ऊ , म आदि अक्षरों को कल्पना की आंखों से देखो, और तब उनके लिखित रूप से हटकर उनके सुने हुए स्वर पर ध्यान दो। अब तुम गहराई में उतर रहे हो। सतह पीछे छूट रहा है। तुम गहराई में डूब रहे हो। और अब देखो कि किसी विशेष
ध्वनि से क्या भाव पैदा होता है।ऐसी विधियों के कारण ही भारत अनेक चीजों का अविष्कार कर सका। जो भाव-विशेष से संबंधित है। इन विज्ञान के कारण ही मंत्र का विकास हुआ। एक खास ध्वनि एक खास भाव के साथ जुड़ी है; इसके अन्यथा नहीं हो सकता। तो तुम अपने भीतर वह ध्वनि पैदा करो तो उससे उस विशेष भाव का जन्म होगा। तुम एक मंत्र के द्वारा उससे संबंधित भाव पैदा कर सकते हो। मंत्र से वह वातावरण पैदा होता है। जिसमे वह विशेष भाव जन्म लेता है।
3-इसलिए यूं ही किसी मंत्र का उपयोग मत करो। वह ठीक नहीं है; वह तुम्हारे लिए खतरनाक सिद्ध हो सकता है। अगर तुम नहीं जानते हो या वह व्यक्ति नहीं जानता है जिससे तुम मंत्र लेते हो किस ध्वनि से कौन-कौन भाव निर्मित होता है। या अगर तुम नहीं जानते हो कि तुम्हें उस भाव की जरूरत है या नहीं; तो मंत्र का उपयोग मत करो। मारण मंत्र जैसे भी मंत्र है। अगर तुम मारण मंत्र का जाप करोगे तो एक निश्चित अवधि के भीतर तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। वह मंत्र तुम्हारे भीतर मृत्यु की कामना पैदा कर देगा। और एक निश्चित समय के अंदर तुम समाप्त हो जाओगे। मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्ति
में दो बुनियादी वृतियां है। उनमें एक है जीवेषणा, ..इरोस; (Eros)यानि जीने की कामना अर्थात राग। और दूसरी है मृत्यु एषणा ..थानाटोस (Thanatos); यानी मरने की कामना, मृत्यु की चाह अर्थात विराग।औरअंतिम है सिन्थिसिस/संश्लेषण अर्थात मध्यकी स्थिति 'वीतराग'।
क्या अर्थ है राग/Attachment, विराग/ Detachment और वीतराग/State of Equanimity का?
05 FACTS;-
1-राग का अर्थ मोह अथवा किसी व्यक्ति, वस्तु से जुड़ाव होता है। जब आप किसी भी इंसान या वस्तु से इतना जुड़ जाते हैं कि उसके छूटने का दुःख होने लगे तो ये राग की अवस्था है।वहीं विराग उसी अपनी सबसे प्यारी वस्तु को त्यागने का
एहसास है। यह वह अवस्था है जबकि आप किसी भी इंसान, परिवार, समाज अथवा वस्तु को त्याग कर संन्यास अपनाने का प्रयत्न कर रहे होते हैं। इस अवस्था में आपको हर वक्त उस चीज से बिछुड़ने का दुःख अथवा गर्व बना रहता है।ऐसी अवस्था
में वस्तुतः आप उस चीज से अलग तो बिल्कुल नहीं हो पाते वरन् आपके मन में यह भाव जरूर बना रहता है कि आपने कोई खास या विशेष वस्तु छोड़ी है। यानि ऐसे भाव को लेकर आपके भीतर हमेशा द्वन्द की स्थिति बनी रहती है।
2-इसके ठीक विपरीत वीतराग है जहां पर आप किसी वस्तु या इंसान को बिल्कुल सम्यक दृष्टि से देखते हैं। आप जुड़कर भी निरपेक्ष भाव में होते हैं और किसी भी दशा में आपके मन में ऐसे भावों का सृजन नहीं होता कि आपने किसी वस्तु को छोड़ा या
पकड़ा है।वीतरागता मनुष्यत्व की वह परम अवस्था है जहां पर आप राग व विराग के भाव से मुक्त होकर परम तत्व से
साक्षात्कार करने लगते हैं। यह उदाहरण एक फ़कीर व उसके बेटे से संबंधित है। वाराणसी में रहने वाले एक संत के बारे में ,वहां के राजा ने बहुत-कुछ सुन रखा था। उन्होंने सोचा क्यों न फ़कीर की जिंदगी में कुछ बदलाव लाया जाए। इसके अतिरिक्त राजा के मन में फ़कीर के बेटे की परीक्षा लेने का भी ख्याल आया। उस संत का बेटा अपनी वीतरागता के लिए बेहद विख्यात था।
3-राजा उस संत के बेटे की कुटिया में जाते हैं। उस समय संत का पुत्र समाधिस्थ था। उसने राजा के आने की आहट सुनी तो आंखें खोल कर उसका स्वागत किया। राजा ने कहा, हे संत पुत्र आपकी ख्याति चारो ओर है। मैं आपकी जिंदगी में बदलाव लाना चाहता हूं इसलिए मेरे द्वारा लाए गए बहुमूल्य उपहार ग्रहण करने की कृपा करें!संत पुत्र ने जवाब दिया कि जैसी आपकी
मर्ज़ी! राजा ने मन में सोचा कि यह संत पुत्र तो बेहद लालची है। उसने पुनः कहा कि ये उपहार मैं कहां रखवा दूं?संत पुत्र ने
कहा कि कहीं भी रख दो, क्या फ़र्क पड़ता है... अंततः राजा ने उसी कुटिया के एक कोने में बहुमूल्य उपहार रखवा दिए। साथ ही उसने यह भी सोचा जब ये संत पुत्र इतना लालची है तो फिर इसकी प्रसिद्धि का कारण क्या है?
4-एक वर्ष बाद राजा को ख्याल आया कि अब तो संत पुत्र एक उन उपहारों की बिक्री करके संपन्न व साधन युक्त जीवन बिता रहा होगा। इसी उत्सुकता में वह पुनः संत पुत्र की कुटिया की ओर चल पड़ा। कुटिया के पास पहुंचने पर उसने देखा कि संत पुत्र फिर वैसे ही समाधि अवस्था में मौज़ूद है। उसकी कुटिया वैसे ही टूटी-फूटी पड़ी थी जैसा उस राजा ने उससे पिछले वर्ष
देखा था। राजा सोच में पड़ गया।वह सोचता है कि या तो संत पुत्र पागल है या फिर फिर बेहद दिखावे में यकीन करने वाला। उसने अपनी जिज्ञासा को शांत करने के उद्देश्य से संत पुत्र से पूछ ही लिया कि आखिर उसके दिए उपहारों का उसने
क्या किया?संत पुत्र ने जवाब दिया, जहां आपने रखा होगा वहीं देखें। राजा कुटिया के कोने में जाकर देखता है कि उसके दिए बहुमूल्य हीरे-जवाहरात वैसे ही उसी हालत में पड़े हैं, जैसा वह रख कर गया था। अद्भुत और हैरान कर देने वाला दृश्य था वह...।
5-राजा तुरंत उसके पिता के पास जाता है और इस घटना को बताकर इसका रहस्य जानना चाहता है। तब संत कहते हैं कि यही “वीतरागता” है और वह स्वयं अभी विराग की अवस्था तक पहुंच सके हैं जबकि उनका पुत्र वीतरागता को प्राप्त कर चुका
है।वीतरागी वो होता है जिसके लिए स्वर्ण व धूलि एक समान होते हैं। वह कुछ पकड़ता नहीं, वह कुछ छोड़ता नहीं, वरन् वह बोध की अवस्था में होता है। इसीलिए उसके लिए समस्त संसार एक माया है और समस्त जीव-अजीव समान।स्वर्ण और धूल, इसका भेद पूर्णतया मिट जाता है तथा वह चिरंतन की उपासना में लीन होता है। राग, विराग की अवस्था मीलों दूर वीतराग की अवस्था तक पहुंचने के लिए मन की समस्त वृत्तियों पर अंकुश लगाने की जरूरत नहीं बल्कि इसे सहज बोध से प्राप्त किया जा सकता है।
मंत्र का राग, विराग और वीतराग से क्या सम्बन्ध है?-
05 FACTS;-
1-ऐसी घ्वनियां है जिनके सतत उच्चारण से तुम्हारे भीतर मरण-कामना का जन्म होगा, तुम मृत्यु में समा जाना चाहोगे। वैसे ही ऐसी घ्वनियां है जो तुम्हें अधिक जीवेषणा प्रदान करेंगी। जिनसे जीने से जीवन में तुम्हारा रस बढ़ जाएगा; तुम ज्यादा जीवित रहना चाहोगे। तो अगर तुम अपने भीतर उन ध्वनियों को पैदा करोगे तो उनसे संबंधित भाव तुम्हें अभिभूत कर देंगे। ऐसी घ्वनियां है जिनसे मौन और शांति प्राप्त होती है और ऐसी घ्वनियां भी है जिनसे क्रोध का जन्म होता है। इसलिए जब तक किसी योग्य गुरु से मंत्र न मिले तब तक मंत्र का प्रयोग करना ठीक नहीं है।
2-जब तुम ध्वनि से नीचे उतरते हो तो तुम्हें पता चलता है कि प्रत्येक ध्वनि का अपना एक भाव है, जो उसके साथ चलता है। राग, विराग और वीतराग का अपना एक भाव है,जो उसके पीछे रहता है। जब तुम भाव में गति कर जाओ, जब तुम ध्वनि को भूल जाओ और भाव में सरक जाओ। इसे समझना कठिन है; लेकिन यह तुम कर सकते हो।और इसके लिए विशेष
विधियां है। किसी साधक को एक खास मंत्र दिया जाता है। और अगर वह उसका ठीक प्रयोग करता है तो यह बात गुरु उसके चेहरे से जान लेता है। चेहरा देखकर ही गुरु जान जाता है कि साधक ठीक प्रयोग कर रहा है या नहीं। क्योंकि ठीक प्रयोग से एक भाव विशेष का उदय होता है। अगर ध्वनि ठीक से पैदा की जाए तो भाव का आविर्भाव निश्चित है। और यह भाव चेहरे पर प्रकट होगा; तुम महान गुरु को धोखा नहीं दे सकते। वह तुम्हारे चेहरे से जान लेगा। कि तुम्हारे भीतर क्या घट रहा है।
3-उदाहरण के लिए एक महान गुरु जब शिष्य ही था तो उसे बड़ी हैरानी होती है कि मेरे गुरु यह कैसे जानते है कि मेरे भीतर क्या अनुभव घट रहा है।उसके गुरु अपने शिष्य के सिर पर डंडे से चोट कर देते थे। अगर तुम्हारे मंत्र के प्रयोग से कोई भूल हो रही है तो वह तुम्हारे सिर पर चोट कर देगा। तो उसने पूछा कि आप कैसे जान लेते है कि ठीक वक्त पर ही चोट
करते है। वास्तव में चेहरा भाव को प्रकट कर देता है। वह ध्वनि को नहीं प्रकट कर सकता, लेकिन भाव को प्रकट कर देता है। और तुम जितने गहरे जाओगे उतना ही तुम्हारा चेहरा अभिव्यक्ति के योग्य, नमनीय और तरल होता जाएगा। वह तुरंत बता देता है कि भीतर क्या हो रहा है। अभी जो तुम्हारा चेहरा है वह तो मुखौटा है, चेहरा नहीं। जब तुम भीतर जाते हो तो मुखौटे गिर जाते है। क्योंकि उनकी जरूरत नहीं रहती।
4-मुखौटे तो दूसरों के लिए होते है।यही कारण है कि पुराने गुरु संसार छोड़ने के लिए जोर देते थे। यह इसलिए कि
तुम आसानी से अपने मुखौटे से मुक्त हो जाओ। अन्यथा जब तक दूसरे रहेंगे तुम उनके लिए मुखौटे लगाते रहोगे। तुम अपने किसी को प्रेम नहीं करते हो; लेकिन तुम्हें एक मुखौटा पहने रहना होता है। एक प्रीति पूर्ण चेहरा बनाए रखना पड़ता है। जिस क्षण तुम अपने घर में प्रवेश करते हो, तुम अपना चेहरा सजाने लगते हो, तुम भीतर जाते ही मुस्कुराने लगते हो।परंतु वह
तुम्हारा असली चेहरा नहीं है। गुरु इस बात पर जोर देते थे कि पहले तुम जानो कि तुम्हारा मौलिक चेहरा क्या है। मौलिक चेहरे के साथ सब कुछ आसान हो जाता है। तब गुरु को सब पता चल जाता है कि क्या हो रहा है। इसलिए ज्ञानोपलब्धि की घटना बतानी नहीं पड़ती थी। अगर कोई साधक ज्ञान को उपलब्ध होता था तो उसे यह बात गुरु को बताने की जरूरत नहीं पड़ती थी। गुरु अपने आप ही जान लेता था। शिष्य को अपनी तरफ से जाकर गुरु को बताने की इजाजत नहीं थी क्योंकि उसकी जरूरत नहीं थी। चेहरा , आँख , चलने का ढंग ,उसका प्रत्येक कृत्य और भाव-भंगिमा बताती है कि वह पहुंच गया।
5-जब तुम ध्वनि से भाव पर जाते हो तो तुम बहुत ही आनंदित संसार में गति करते हो ..एक अस्तित्वगत संसार में। तुम मन से दूर हट जाते हो। भाव अस्तित्वगत है; भाव शब्द का अर्थ ही वह है। तुम भावों को अनुभव करते हो। तुम उन्हें देख नहीं सकते,
सुन नहीं सकते, सिर्फ अनुभव कर सकते हो।और जब तुम इस बिंदु पर पहुंचते हो तो छलांग लगा सकते हो। यह आखिरी कदम है। अब तुम अनंत खड्ड के पास खड़े हो; अब कूद सकते हो। और अगर तुम भाव से छलांग लगाते हो तो तुम अपने में छलांग लगाते हो। वह अनंत, वह अतल तुम हो ..मन की तरह नहीं... अस्तित्व की तरह; संचित भविष्य की तरह नहीं, बल्कि वर्तमान की तरह, यहां और अभी की तरह। तुम मन से अस्तित्व पर गति कर जाते हो; और भाव उनके बीच सेतु का काम
करता है।लेकिन भाव पर पहुंचने के लिए तुम्हें कुछ चीजें छोड़नी होगी। शब्द, ध्वनि और मन की सब प्रवंचना छोड़नी होगी।
‘’तब उन्हें अलग छोड़कर मुक्त हो जाओ।‘’
मन बंधन है..‘’मुक्त हो जाओ’’;-
05 FACTS;-
1- ‘’मुक्त हो जाओ’’ का यह मतलब नहीं है कि तुम्हें मुक्त होने के लिए कुछ करना होगा। ‘’तब उन्हें अलग छोड़ कर मुक्त हो
जाओ।‘’ का मतलब है कि तुम मुक्त हो।मन बंधन है। इससे ही कहा है कि मन संसार है। संसार को मत छोड़ो; तुम उसे छोड़ भी नहीं सकते। अगर मन है तो तुम दूसरा संसार निर्मित कर लोगे क्योकि बीज बचा है।तुम पहाड़ पर जा सकते हो।
तुम भागकर किसी आश्रम में रह सकते हो। लेकिन मन तुम्हारे साथ जाएगा। मन को छोड़कर तो नहीं जा सकते ' और मन के साथ संसार चलता है। तुम फिर दूसरा संसार गढ़ लोगे। आश्रम में भी तुम संसार बनाने लगोगे; क्योंकि बीज साथ में है। तुम फिर संबंध बना लोगे। चाहे वो संबंध पेड़ से हो ,पशु पक्षियों से ही क्यों न हो। फिर तुम्हारी अपेक्षाएं खड़ी हो जाएंगी। जाल बढ़ता ही जाएगा। क्योंकि बीज मौजूद है। तुम फिर संसार में होगे। मन ही संसार है; मन को तुम कहीं नहीं छोड़ सकते हो।
2-तुम मन को तभी छोड़ सकते हो जब तुम अपने भीतर यात्रा करो। वही एक हिमालय है; कोई दूसरा हिमालय नहीं है। अगर तुम शब्द से भाव पर और भाव से होने पर आ जाओ तो तुम संसार से मुक्त हो जाओगे। और जब तुम इस अस्तित्व के अनंत विराट को जान लोगे तब तुम कही भी रह सकते हो। नरक में भी रह सकते हो। तब कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर मन नहीं है। तो नरक तुममें प्रवेश नहीं कर सकता और मन के साथ सिर्फ नरक आता है। मन नरक का द्वार है।
''उन्हें अलग छोड़कर मुक्त हो जाओ।''लेकिन भाव के साथ सीधा प्रयोग मत करो; तुम सफल न हो सकोगे। पहले शब्दों के साथ प्रयोग करो। लेकिन अगर तुमने दर्शनशास्त्र नहीं छोड़ा, विचारों को नहीं छोड़ा तो शब्दों के साथ भी सफल न हो पाओगे। शब्द सिर्फ इकाइयां है और अगर तुम शब्दों को महत्व दोगे तो तुम उन्हें नहीं छोड़ सकते हो।
3-यह भलीभाँति जान लो कि भाषा मनुष्य की बनाई हुई है। उसका उपयोग है; वह जरूरी है और ध्वनियों को जो अर्थ मिला है; वह भी हमारा दिया हुआ है। इस बात को भलीभाँति समझ लो तो यात्रा सरल हो जाएगी। अगर कोई कुरान या वेद के विरूद्ध बोलता है तो तुम्हें कैसा लगता है। क्या तुम उस पर हंस सकते हो? या कि तुम्हारे भीतर कुछ भिंच जाता है।
नहीं तुम्हें चोट लगेगी। और तब शब्दों को छोड़ना कठिन होगा। समझना होगा कि शब्द सिर्फ शब्द है। वे घ्वनियां है। जिन्हें सर्वसम्मत अर्थ दिया गया है।हकीकत यही है कि शब्द मात्र शब्द है;बात को ठीक से आत्मसात कर लो।
4-पहले शब्दों से विरक्त होओ। शब्दों से विरक्त होकर ही तुम जानोंगे कि वे घ्वनियां भर है। यह वैसे ही है जैसे मिलिट्री में संख्याओं का प्रयोग करते है। कोई सिपाही एक सौ एक नंबर का सिपाही है। वह एक सौ एक के साथ तादात्म्य/Identify कर ले सकता है। और अगर कोई व्यक्ति एक सौ एक नंबर के विरूद्ध कुछ कहेगा तो उसे बुरा लगेगा। वह झगडा करेगा। और एक सौ एक महज संख्या है। लेकिन उससे उसका तादात्म्य हो गया है।
5-तुम्हारा नाम भी संख्या जैसा ही है ..गिनती के लिए है। उसके बिना काम चलाना कठिन होगा वह बस एक लेबल है। कोई दूसर लेबल भी वही काम देगा। लेकिन तुम्हारे लिए वह लेबल ही नहीं रहा है। वह कुछ और हो गया है। तुम्हारा नाम तुममें गहरे उतर गया है। वह अब तुम्हारा अहंकार बन गया है।शब्दजाल महाजाल है,मायाजाल है।''शब्दों को देखो ,
उनकी व्यर्थता को, अर्थहीनता को देखो । उनसे आसक्त मत होओ, लगाव मत बनाओ। केवल तभी इस विधि का प्रयोग तुम कर सकोगे।''
...SHIVOHAM...