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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 48वीं(ऊर्ध्वगमन सम्बन्धी 5 विधियां) ‎विधि का क्या विवेचन है?


48-''प्रेम--आलिंगन में आरंभ में उसकी आरंभिक अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो''।

भगवान शिव 'ऊर्ध्वगमन' कीओर संकेत कर रहे है ;तो पहले हमें इस ऊर्ध्वगमन साधना के विषय में ज्ञान करना चाहिए।

क्या है प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग ?-

08 FACTS;-

1-भारतीय संस्कृति में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनाें मार्ग हैं।इसलिए ऊर्ध्वगमन साधना/कुण्डलिनी शक्ति साधना दो प्रकार की होती है...

A-निवृत्ति मार्ग /श्रेय मार्ग B-प्रवृत्तिमार्ग

निवृत्ति मार्ग में प्राणकी गति उलटी करके इन्द्रियों में मन न लगाकर कर्म करते रहता है-योगी।प्रवृत्ति मार्ग में इन्द्रियों में मन लगाकर कर्मेन्द्रियों से कार्य करता रहता है-भोगी ।बहुत कम लोगों की प्रवृत्ति श्रेय मार्ग में होती है जबकि प्रेय व सांसारिक मार्ग, धन व सम्पत्ति प्रधान जीवन में सभी मनुष्यों की प्रवृत्ति होती है। जहां प्रवृत्ति होनी चाहिये वहां नहीं है और जहाँ नहीं होनी चाहिये, वहां प्रवृत्ति होती है। यही मनुष्य जीवन में दुःख का प्रमुख कारण है।हनुमान जी निवृत्ति और भरत जी प्रवृत्ति मार्ग के आचार्य हैं। इन दोनों ही मार्गों में समानता यह है कि दोनों का लक्ष्य प्रभु को प्राप्त करना है।

2-श्रेय मार्ग में प्राणायाम और योग ,जिसमें शक्ति चालिनी मुद्रा ,उड्यान बंध तथा कुम्भक, प्राणायाम और ओज का महत्व प्रतिपादित किया गया है।ऐसी साधना प्रक्रिया अविवाहित, विधुर अथवा सन्यासियों के लिए महत्वपूर्ण है ।यह साधना उन लोगों के लिए उपयुक्त नहीं रही जो गृहस्थाश्रम में रहकर साधना करना चाहते हैं ।गृहस्थ बिना स्त्री के नहीं चलता है और संन्यास स्त्री के रहते कभी नहीं चलता है।परन्तु जहाँ तक साधना का प्रश्न है तो क्या गृहस्थ और क्या सन्यासी ;क्या स्त्री और क्या पुरुष

सभी समान अधिकार रखते हैं।ऐसे प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थों के लिए भी साधनारत होने का मार्ग है।निवृत्ति मार्ग में जो कार्य

शक्ति चालिनी मुद्रा ने किया वह कार्य प्रवृत्ति मार्ग में गृहस्थों के लिए रमण मुद्रा से संपन्न किया गया शेष बंध और कुम्भक समान रहे ।

3-इस प्रकार वीर्य को उर्ध्व गति देने के लिए जहाँ सन्यासी लोग भस्त्रिका प्राणायाम का प्रयोग करते थे ;वहां प्रवृत्ति मार्ग साधक दीर्घ रमण का उपयोग करने लगे।इस प्रकार कुण्डलिनी साधना का दूसरा प्रकार रमण मुद्राओं वाला बन गया।

रमण के कारण इस साधना में पति- पत्नी ,दोनों का बराबर का योगदान रहा ।साधक को यम व् नियम का तथा आसन प्राणायाम आदि बहिरंग साधना की उतनी ही तैयारी करनी पड़ती जितनी निवृति मार्ग अपनाने वाले साधक को करनी पड़ती

है।मनुष्य में कार्य करने के लिए ऊर्जा व् आभा तथा ज्योति का मिश्रण ही काम में लाना पड़ता है । मनुष्य में इन तीनों तत्वों का उदगम है उसका खानपान और उसके विचार । जैसा उसका खानपान होगा वैसी उसके शरीर की ऊर्जा होगी । सात्विक जीवन सात्विक ऊर्जा तथा तामसिक भोजन तो तामसिक ऊर्जा ।अतएव कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए सात्विक ऊर्जा अति आवश्यक है ।कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए उत्तम उम्र 25 वर्ष से 45 वर्ष तक मानी गई है ।

4-ऊर्ध्व =अतो ऊर्ध्व > यहाँ से ऊपर के अर्थ में ऊर्ध्वरेता वह होता है जो इस जन्म में मृत्यु हो जाने के बाद के अपने अगले जन्म (या मुक्ति) के लिए संकल्प कर सकता है ।पिप्पलाद और याज्ञवल्क्य दोनों ही ऋषि थे किन्तु पिप्पलाद ऊर्ध्वरेता थे और मृत्यु से भयभीत नहीं थे जबकि याज्ञवल्क्य का जीवन-मृत्यु पर ऐसा नियंत्रण नहीं था, जैसा पिप्पलाद का था, इसलिए महत्-तत्व

में प्रतिष्ठित होने से पिप्पलाद को महर्षि कहा जा सकता है। अगर पवित्र विचारों के जरिए ऊर्जा को ओजस या आध्यात्मिक ऊर्जा में बदल लिया जाए तो यह किसी तरह का दमन नहीं है बल्कि एक सकारात्मक और स्थानांतरण की प्रक्रिया है। काम -ऊर्जा पर अपना नियंत्रण स्थापित करके इसे संचित करके दूसरी तरफ मोड़ देना है। धीरे-धीरे आप इसे ओजस शक्ति में भी तब्दील कर लेंगे। जैसे ऊष्मा प्रकाश और विद्युत में परिवर्तित कर ली जाती है वैसे ही भौतिक ऊर्जा को आध्यात्मिक ऊर्जा में बदला जा सकता है। रासायनिक पदार्थों में होने वाले परिवर्तनों की तरह काम -ऊर्जा को साधना के जरिए आध्यात्मिक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है।

5-इस प्रक्रिया से गुजरते हुए आत्मा के स्तर को ऊपर उठाना, शुद्ध विचारों की तरफ बढ़कर ऊर्जा को ओजस शक्ति में परिवर्तित होकर दिमाग में संचित होती जाती है। इस संचित ऊर्जा को आप बड़े से बड़े कामों में लगा सकते हैं। अगर आपको बहुत क्रोध आता है या आपके पास शारीरिक बल ज्यादा है तो उसे भी ओजस शक्ति में ट्रांसफॉर्म किया जा सकता है। जिसके दिमाग में ओजस शक्ति संचित हुई रहती है, उसकी मानसिक ताकत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। वह बहुत ही बुद्धिमान हो जाता है। उसके चेहरे के पास एक दैवीय तेज झलकने लगता है. वह कुछ शब्द बोलकर ही दूसरों पर अपना प्रभाव छोड़ सकता है।उसका व्यक्तित्व फिर सामान्य नहीं रह जाता है, वह आसाधारण हो जाता है।

6-आदि शंकराचार्य, ईसा मसीह आदि महापुरुष जीवन भर ब्रह्मचारी रहे।ऊँचे उठे हुए बुद्धिजीवी लोग अधिकतर संयमी जीवन ही बिताने की चेष्टा किया करते हैं। वैज्ञानिक, दार्शनिक, विचारक, सुधारक तथा ऐसी ही उच्च चेतना वाले लोग संयम का ही जीवन जीते दृष्टिगोचर होते हैं ।संयम से तात्पर्य मात्र शारीरिक ही नहीं, मानसिक व आध्यात्मिक ब्रह्मचर्य से भी है।

यह एक सत्य है कि भोगों की अधिकता मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों प्रकार की शक्तियों का नुकसान कर देती है। यह रोग युवावस्था में ही अधिक लगता है।यद्यपि उठती आयु में शारीरिक शक्ति ज्यादा होती है, साथ ही कुछ-न-कुछ जीवन तत्व का नव निर्माण होता रहता है।इसलिए उसका बुरा असर शीघ्र नहीं दिखलाई पड़ता; लेकिन युवावस्था के ढलते ही इसके बुरे परिणाम सामने आने लगते हैं।

7-निवृत्ति मार्ग में जो कार्य शक्ति चालिनी मुद्रा ने किया वह कार्य प्रवृत्ति मार्ग में गृहस्थों के लिए रमण मुद्रा से संपन्न किया गया शेष बंध और कुम्भक समान रहे ।इस प्रकार वीर्य को उर्ध्व गति देने के लिए जहाँ सन्यासी लोग भस्त्रिका प्राणायाम का प्रयोग करते थे ;वहां प्रवृत्ति मार्ग साधक दीर्घ रमण का उपयोग करने लगे।इस प्रकार कुण्डलिनी साधना का दूसरा प्रकार रमण मुद्राओं वाला बन गया ।अमेरिकी प्राकृतिक चिकित्सक डॉ. बेनीडिक्ट लुस्टा ने अपनी पुस्तक 'नेचुरल लाइफ' में कहा है कि जितने अंशों तक जो मनुष्य ब्रह्मचर्य की विशेष रूप से रक्षा और प्राकृतिक जीवन का अनुसरण करता है, उतने अंशों तक वह विशेष महत्व का कार्य कर सकता है। 8-ऋषभ और ऋषि एक ही धातु से ब्युत्पन्न होने से ऋ’ अर्थात् ’रे’ होने से ’रेतस्’ > ऋषभ अर्थत् ’काम’ हो जाता है जो संतति का कारक है । ’रेतस्’ से ’ऊर्ध्व’ अर्थात् वृषभारूढ वह है जिसने ’काम’ को वश में कर रखा है । इसलिए उसे भी ऊर्ध्वरेतस् / ऊर्ध्वरेता कहा जाता है ।तथा उसे पशुपति शिव के रूप में देखा जाता है।लोक में भी वृषभ (सांड या बैल) की पीठ

पर स्थित पिंड को देखकर भी इस तथ्य को सरलता से समझा जा सकता है ।ब्रह्मचर्य काम -ऊर्जा का विरोध नहीं है, बल्कि इसका ट्रांसफॉर्मेशन है।नीचे की तरफ बह जाना काम ऊर्जा का अधोगमन है।ब्रह्मचर्य /ऊर्ध्वरेता ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन है, ऊपर की तरफ उठ जाना है।

कुंडलिनी ऊर्ध्वगमन क्या है?- 03 FACTS;- 1-पुरुष का ऊर्जा केंद्र मूलाधार है जबकि स्त्री का केंद्र ह्दय प्रधान है ! पुरुष को मूलाधार से ऊर्जा उठा कर ह्द्य्गामी बनना होता है।जबकि स्त्री को और गहरे ह्दय में ही ठहराव करना पड़ता है।मूलाधार ऊर्जा जब पुरुष के आगे के भाग से उपर उठती है तब संसार की माया पैदा करती है।आगे से उपर उठने वाली कुंडलिनी ऊर्जा पुरुष प्रधान होती है।जब काम के रूप में बहती है तो काम सुख कहलाती है और जब मूलाधार ऊर्जा पीछे रीढ़ से उपर उर्ध्गमन होती है तो उसे योग ,अध्यात्म, दर्शन या धर्म की यात्रा समझ सकते है या सूक्ष्म जगत की यात्रा समझ सकते है।जब मूलाधार ऊर्जा आगे से उपर उठती है तब वह दस प्रकार की प्रकृति बनाती है काम ,क्रोध, मोह ,लोभ इत्यादि।कई जन्मो तक प्रयास करते रहो; परंतु आगे से जो ऊर्जा उपर उठती है ;उसमे संसारी के गुण ही प्रकट होंगे और जब ऊर्जा पीछे से उर्द्ध्गमन होगी तब देवतत्व ,देवगुण विकसित होते है।पीछे से ऊर्जा सूक्ष्म रूप में उठती है और काम और अर्थ के लिए ऊर्जा जड़ता के रूप में उठती और बहती है। 2-अधिकतर बुद्धिमान लोग संसार में अर्थ ,प्रसिद्धि ,पद पाने के लिए योग ,अध्यात्म में प्रवेश पाना चाहते है लेकिन भूल जाते है कि योग का मार्ग और संसार पाने के लिए ..ऊर्जा तो एक ही है।जब मूलाधार की ऊर्जा रीढ़ से उपर उठती है तब स्वत ही आगे से ऊर्जा उठना कम हो जाती है। जब ऊर्जा को उर्ध्गमन मिलता है तब काम को, संसार के लिए धीरे धीरे ऊर्जा का पोषण मिलना कम हो जाता है।इसलिए केवल काम ,क्रोध ,मोह,भोग का विरोध करने से कभी भी उर्ध्गमन नही मिलता है।क्योकि काम,क्रोध, मोह के विरोध में भी वही ऊर्जा काम आती है जो काम,क्रोध ,मोह में काम आती है। इसलिए बिना विरोध के, ऊर्जा के बहाव को नया मार्ग देने से योग,अध्यात्म की दिशा मिलती है।

3-जो ऊर्जा रीढ़ से उर्ध्गमन होती है वह स्त्री ऊर्जा ,पोजिटिव ऊर्जा बनकर उठती है ।तब पुरुष के अंदर स्त्री गुणों का विकास होता है और स्त्री के अंदर पुरुष गुणों का विकास होता हैअर्थात पुरुष व् स्त्री दोनों का संतुलन बनता है उसे अर्द्ध नारीश्वर होना,या शिवशक्ति बनना समझ सकते है।वास्तव में ,हमारे शरीर में ,इड़ा पिंगला सुषुम्ना का एक सर्किट है ;अथार्थ शिव शक्ति और निराकार का एक सर्किट है।जो तभी पूरा होता है जब हम दोनो की साधना करे।यदि शिव की भक्ति करी है ,तो शक्ति की भक्ति करो।और शक्ति की भक्ति करी है तो शिव की भक्ति करो ;तभी सर्किट पूरा होगा। विशेष बात यह है की शक्ति, शिव की साधना से प्रसन्न होती हैऔर शिव शक्ति की साधना से। उभय लिंग सत्ता क्या है?(पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार);- 13 FACTS;- 1-कुण्डलिनी महाशक्ति को ‘काम कला’ कहा गया है। इस तत्व को समझने के लिये हमें अधिक गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा और अधिक सूक्ष्म दृष्टि से देखना पड़ेगा। नर-नारी के बीच चलने वाली ‘काम क्रीड़ा’ और कुण्डलिनी साधना में सन्निहित ‘काम कला’ में भारी अन्तर है। मानवीय अन्तराल में उभयलिंग विद्यामान हैं।हर व्यक्ति अपने आप में आधा नर और आधा नारी है। अर्ध नारी नटेश्वर भगवान् शंकर को चित्रित किया गया है। श्रीकृष्ण और श्रीराधा का भी ऐसा ही एक समन्वित रूप चित्रों में दृष्टिगोचर होता है। पति-पत्नी दो शरीर एक प्राण होते हैं। यह इस चित्रण का स्थूल वर्णन है। सूक्ष्म संकेत यह है कि हर व्यक्ति के भीतर उभय लिंग सत्ता विद्यमान है। जिसमें जो अंश अधिक होता है उसकी रुझान उसी ओर ढुलकने लगती है। 2-उसकी चेष्टायें उसी तरह की बन जाती हैं। कितने ही पुरुषों में नारी जैसा स्वभाव पाया जाता है और कई नारियों में पुरुषों जैसी प्रवृत्ति, मनोवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति बढ़ चले तो इसी जन्म में शारीरिक दृष्टि से भी लिंग परिवर्तन हो सकता है। अगले जन्म में लिंग बदल सकता है अथवा मध्य सन्तुलन होने से नपुंसक जैसी स्थिति बन सकती है।नारी लिंग का सूक्ष्म स्थल जननेन्द्रिय मूल है। इसे ‘योनि’ कहते हैं। मस्तिष्क का मध्य बिन्दु ब्रह्मरंध्र-‘लिंग’ है। इसका प्रतीक प्रतिनिधि सुमेरु-मूलाधार चक्र के योनि गह्वर में ही काम बीज के रूप में अवस्थित है।’ अर्थात् एक ही स्थान पर वे दोनों विद्यमान है ,पर प्रसुप्त पड़े हैं। उनके जागरण को ही कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। इन दोनों के संयोग की साधना ‘काम-कला’ कही जाती है। इसी को कुण्डलिनी जागरण की भूमिका कह सकते हैं। शारीरिक काम सेवन-इसी आध्यात्मिक संयोग प्रयास की छाया मात्र है। आन्तरिक काम शक्ति को दूसरे शब्दों में महाशक्ति—महाकाली कह सकते हैं। 3-एकाकी नर या नारी भौतिक जीवन में अस्त-व्यस्त रहते हैं। आन्तरिक जीवन में उभयपक्षी विद्युत शक्ति का समन्वय न होने से सर्वत्र नीरस नीरवता दिखाई पड़ती है। इसे दूर करके समग्र समर्थता एवं प्रफुल्लता उत्पन्न करने के लिये कुण्डलिनी साधना की जाती है। इसी संदर्भ में शास्त्रों में साधना विज्ञान का जहां उल्लेख किया है वहां काम क्रीड़ा जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। वस्तुतः यह आध्यात्मिक काम कला की ही चर्चा है। योनि-लिंग, काम बीज, रज, वीर्य, संयोग आदि शब्दों में उसी अन्तःशक्ति के जागरण की विधि व्यवस्था सन्निहित है— 4-शिव संहिता के अनुसार;- ''अपने शरीर में अवस्थित शिव को त्याग कर जो बाहर-बाहर पूजते फिरते हैं। वे हाथ के भोजन को छोड़कर इधर-उधर से प्राप्त करने के लिये भटकने वाले लोगों में से हैं। आलस्य त्यागकर ‘आत्म-लिंग’ शिव की पूजा करे। इसी से समस्त सफलताएं मिलती हैं।'' 5-मूलाधार में कुण्डलिनी शक्ति शिव लिंग के साथ लिपटी हुई प्रसुप्त सर्पिणी की तरह पड़ी रहती है। समुन्नत स्थिति में इसी मूल स्थिति का विकास हो जाता है। मूलाधार मल- मूत्र स्थानों के निष्कृष्ट स्थान से ऊँचा उठकर मस्तिष्क के सर्वोच्च स्थान पर जा विराजता है। छोटा सा शिव लिंग मस्तिष्क में कैलाश पर्वत बन जाता है।छोटे से कुण्ड को मान सरोवर रूप धारण करने का अवसर मिलता है प्रसुप्त सर्पिणी जागृत होकर शिव कंठ से जा लिपटती है और शेषनाग के परिक्रमा रूप में दृष्टि गोचर होती है।मुँह बन्द कली खिलती है और खिले हुए शतदल कमल के सहस्रार के रूप में उसका विकास होता है। मूलाधार में तनिक सा स्थान था, पर ब्रह्मरंध्र का विस्तार तो उससे सौ गुना अधिक है। 6-सहस्रार को स्वर्ग लोक का कल्पवृक्ष ;प्रलय काल में बचा रहने वाला अक्षय वट; गीता का ऊर्ध्व मूल अधःशाखा वाला ;अश्वत्थं- भगवान बुद्ध को महान् बनाने वाला बोधि वृक्ष कहा जा सकता है। यह समस्त उपमाएँ ब्रह्मरन्ध्र में निवास करने वाले ब्रह्म बीज की ही है। वह अविकसित स्थिति में मन बुद्धि के छोटे मोटे प्रयोजन पूरे करता है, पर जब जागृत स्थिति में जा पहुँचता है तो सूर्य के समान दिव्य सत्ता सम्पन्न बनता है। उसके प्रभाव से व्यक्ति और उसका संपर्क क्षेत्र दिव्य आलोक से भरा पूरा बन जाता है।ऊपर उठना पदार्थ और प्राणियों का धर्म है। ऊर्जा का ऊष्मा का स्वभाव ऊपर उठना और आगे बढ़ना है। प्रगति का द्वार बन्द रहे तो कुण्डलिनी शक्ति कामुकता के छिद्रों से रास्ता बनाती है और पतनोन्मुख रहती है। किन्तु यदि ऊर्ध्वगमन का मार्ग मिल सके तो उसका प्रभाव परिणाम प्रयत्न कर्ता को परम तेजस्वी बनने और अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न कर सकने की क्षमता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। 7-रुद्रयामल तंत्र के अनुसार;- ''महाविन्दु उसका मुख है। सूर्य चन्द्र दोनों स्तन हैं, सुमेरु उसकी अर्ध कला है, पृथ्वी उसकी शोभा है। चर-अचर सब में काम कला के रूप में जगती है। सबमें काम कला होकर व्याप्त है। यह गुह्य से भी गुह्य है।'' 8-गोरक्ष पद्धति के अनुसार;- ''गुदा स्थान में जो चतुर्दल कमल विख्यात है उसके मध्य में त्रिकोणाकार योनि है जिसकी वन्दना समस्त सिद्धजन करते हैं, पंचाशत वर्ण से बनी हुई कामाख्या पीठ कहलाती है।उस योनि के मध्य पश्चिम की ओर अभिमुख ‘महालिंग’है। उसके मस्तक में मणि की तरह प्रकाशवान बिम्ब है। जो इस तथ्य को जानता है वही योगविद् है।लिंग स्थान से नीचे, मूलाधार कर्णिका में अवस्थित तपे सोने के समान आभा वाला ,विद्युत जैसी चमक से युक्त ,जो त्रिकोण है उसी को ‘कालाग्नि’ कहते हैं।इसी विश्वव्यापी परमज्योति में तन्मय होने में महायोग की समाधि प्राप्त होती है और जन्म-मरण से छुटकारा मिलता है। इसी त्रिकोण विषय समाधि में अनन्त विश्व में व्याप्त होने वाली परम ज्योति प्रकट होती है वही कालाग्नि रूप है जब योगी ध्यान, धारण, समाधि—द्वारा उक्त ज्योति देखने लगता है तब उसका जन्म मरण नहीं होता।इन दोनों का परस्पर अति घनिष्ठ सम्बन्ध है।वह सम्बन्ध जब मिला रहता है तो आत्म-बल समुन्नत होता चला जाता है और आत्मशक्ति सिद्धियों के रूप में विकसित होती चलती है। जब उनका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है तो मनुष्य दीन-दुर्बल, असहाय-असफल जीवन जीता है। कुंडलिनी रूपी योनि और सहस्रार रूपी लिंग का संयोग मनुष्य की आन्तरिक अपूर्णता को पूर्ण करता है। साधना का उद्देश्य इसी महान प्रयोजन की पूर्ति करता है। इसी को शिव शक्ति का संयोग एवं आत्मा से परमात्मा का मिलन कहते हैं। इस संयोग का वर्णन साधना क्षेत्र में किया गया है।'' 9-त्रिपुरीपनिषद के अनुसार;- ''भग शक्ति है। काम रूप ईश्वर भगवान है। दोनों सौभाग्य देने वाले हैं। दोनों की प्रधानता समान है। दोनों की सत्ता समान है। दोनों समान ओजस्वी हैं।उनकी अजरा शक्ति विश्व का निमित्त कारण है।शिव और शक्ति के सम्मिश्रण को शक्ति का उद्भव आधार माना गया है। इन्हें बिजली के ‘धन’ और ‘ऋण’ भाग माना जाना चाहिये। बिजली इन दोनों वर्गों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होती है। अध्यात्म विद्युत् के उत्पन्न होने का आधार भी इन दोनों शक्ति केन्द्रों का संयोग ही है। शिव पूजा में इसी आध्यात्मिक योनि- लिंग का संयोग प्रतीक रूप से लिया गया है।'' 10-लिंग पुराण के अनुसार;- ‘'लिंग वेदी’ देवी उमा है और लिंग साक्षात् महेश्वर हैं।वह महादेवी भग संज्ञा वालीऔर इस जगत् की धात्री हैं तथा लिंग रूप वाले शिव की त्रिगुणा प्रकृति रूप वाली है। हे द्विजोत्तमो! लिंग रूप वाले भगवान् शिव नित्य ही भग से युक्त रहा करते हैं और इन्हीं दोनों से इस जगत् की सृष्टि होती है। लिंग स्वरूप शिव स्वतः प्रकाश रूप वाले, हैं और यह माया के तिमिर से ऊपर विद्यमान रहा करते हैं''कुण्डलिनी साधना इस प्रकार आत्मा के उभय पक्षी लिंगों का समन्वय सम्मिश्रण ही है। इसकी जब जागृति होती है तो रोम-रोम में अन्तःक्षेत्र के प्रत्येक प्रसुप्त केन्द्र में हलचल मचती है और आनन्द उल्लास का प्रवाह बहने लगता है। 11-इस समन्वय केन्द्र—काम बीज का वर्णन इस प्रकार मिलता है ..शक्ति तंत्र के अनुसार;- 'स्वयंभू लिंग से लिपटी हुई कुण्डलिनी महाशक्ति का ध्यान श्यामा सूक्ष्मा सृष्टि रूपा, विश्व को उत्पन्न और लय करने वाली, विश्वातीत, ज्ञान रूप ऊर्ध्ववाहिनी के रूप में करें।वहीं ब्रह्म डाकिनी शक्ति है। कर्णिका में त्रिकोण है। इसके मध्य में एक सूक्ष्म विवर है। रक्त आभा वाला काम बीज ,स्वयंभू ,अधोमुख महालिंग यहीं है।'' एक ही शरीर में विद्यमान इन ‘उभय’ रसों का वर्णन साधना विज्ञानियों ने इस प्रकार किया है...स्थूल शरीर में नारी का प्रजनन द्रव ‘रज’ कहलाता है। नर का उत्पादक रस ‘वीर्य’ है। सूक्ष्म शरीर में इन दोनों की प्रचुर मात्रा एक ही शरीर में विद्यमान है। उनके स्थान निर्धारित हैं। इन दोनों के पृथक रहने के कारण जीवन में कोई बड़ी उपलब्धि नहीं होती, पर जब इनका संयोग होता है तो जीवन पुष्प का पराग मकरन्द परस्पर मिलकर फलित होने लगता है और सफल जीवन की अगणित सम्भावनाएं प्रस्फुटित होती हैं। 12- ध्यान बिन्दु उपनिषद् के अनुसार;- ''बिन्दु दो प्रकार का होता है—एक तो पाण्डु वर्ग जिसे शुक्र कहते हैं और दूसरा (लोहित) रक्त वर्ण जिसे महारज कहते हैं।सहस्रार से क्षरित गलित होने पर जब वीर्य योनि स्थान पर ले जाया जाता है तो वहां कुण्डलिनी अग्नि कुण्ड में गिरकर जलता हुआ वह वीर्य योनि मुद्रा के अभ्यास से हठात् ऊपर चढ़ा लिया जाता है और प्रचण्ड तेज के रूप में परिणत होता है यही आध्यात्मिक काम सेवन एवं गर्भ धारण है।'' 13-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार;- ''शारीरिक काम सेवन की तुलना में आत्मिक काम सेवन असंख्य आनन्ददायक है। शारीरिक काम-क्रीड़ा को विषयानन्द और आत्मरति को ब्रह्मानन्द कहा गया है। विषयानन्द से ब्रह्मानन्द का आनन्द और प्रतिफल कोटि गुना है। शारीरिक संयोग से शरीर धारी सन्तान उत्पन्न होती है। आत्मिक संयोग प्रचण्ड आत्मबल और विशुद्ध विवेक को उत्पन्न करता है। उमा, महेश विवाह के उपरांत दो पुत्र प्राप्त हुए थे। एक स्कन्द (आत्मबल) दूसरा गणेश (प्रज्ञा प्रकाश) ।कुण्डलिनी साधक इन्हीं दोनों को अपने आत्म लोक में जन्मा बढ़ा और परिपुष्ट हुआ देखता है।स्थूल काम सेवन की ओर से विमुख होकर यह आत्म रति अधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न हो सकती है। इसलिये इस साधना में शारीरिक ब्रह्मचर्य की आवश्यकता प्रतिपादित की गई है।और वासनात्मक मनोविचारों से बचने का निर्देश दिया गया है। शिवजी द्वारा तृतीय नेत्र तत्व विवेक द्वारा स्थूल काम सेवन को भस्म करना—उसके सूक्ष्म शरीर को अजर-अमर बनाना इसी तथ्य का अलंकारिक वर्णन है तथा शारीरिक काम सेवन से विरत होने की और आत्म रति में संलग्न होने की प्रेरणा है।काम दहन के पश्चात् उसकी पत्नी रति की प्रार्थना पर शिवजी ने काम को अशरीरी रूप से जीवित रहने का वरदान दिया था और रति को विधवा नहीं होने दिया था परन्तु उसे आत्म रति बना दिया था। वासनात्मक अग्नि का कालाग्नि के रूप में परिणत होने का प्रयोजन भी यही है''।

NOTE;-

जमीन पर फैले हुए पानी की भाप ऐसे ही उड़ती और बिखरती भटकती रहती है, पर यदि उसका विवेकपूर्ण उपयोग किया जा सके तो भाप द्वारा भोजन पकाने से लेकर रेल का इंजन चलाने जैसे असंख्यों उपयोगी काम लिये जा सकते हैं।उसी प्रकार काम शक्ति के उच्चस्तरीय सृजनात्मक प्रयोजन अनेकों हैं ।कलात्मक गतिविधियों में- काव्य जैसी कल्पना ;सम्वेदनाओं में - दया, करुणा एवं उदार आत्मीयता की साकार बनाने वाली सेवा साधना आदि।

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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 48;-

13 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है:-

1-यह पहला सूत्र कहता है: ‘’ प्रेम-आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।‘’हमारा प्रत्‍येक कोश ईड़ा और पिंगला के मिलन से ही निर्मित हुआ है।यही कारण है कि हम जीवन भर एक दूसरे को खोजा करते है और अधूरा महसूस करते है।ईड़ा और पिंगला का वास्तिविक मिलन क्या है और कैसे हो सकता है इस सूत्र में यही बताया गया है।

2-प्रवृत्तिमार्ग के गृहस्थ और-निवृत्ति मार्ग /श्रेय मार्ग के योगी के 'ऊर्ध्वगमन' में सारा फर्क है, भेद है। साधारण गृहस्थ काम-कृत्‍य,को अपने को तनाव-मुक्‍त करने का उपाय मानते है। ऊर्जा की अधिकता तनाव पैदा करती है।और तुम्‍हें लगता है कि उसे फेंकना जरूरी है। जब वह ऊर्जा बह जाती है तो तुम कमजोरी अनुभव करते हो। और तुम उसी कमजोरी को विश्राम मान लेते हो। क्‍योंकि ऊर्जा की बाढ़ समाप्‍त हो गई, इसलिए तुम्‍हें विश्राम मालूम पड़ता है।लेकिन यह विश्राम नकारात्‍मक

विश्राम है।अगर सिर्फ ऊर्जा को बाहर फेंककर तुम विश्राम प्राप्‍त करते हो तो यह विश्राम बहुत महंगा है।और यह सिर्फ शारीरिक विश्राम होगा। वह गहरा नहीं होगा ;वह आध्‍यात्‍मिक नहीं होगा।यह पहला सूत्र कहता है कि अंत के लिए

मत सोचो ,आरंभ में बने रहो।मिलन कृत्‍य के दो भाग है: आरंभ और अंत। तुम आरंभ के साथ रहो। आरंभ का भाग ज्‍यादा विश्राम पूर्ण है। ज्‍यादा उष्‍ण है। लेकिन अंत को बिलकुल भूल जाओ।

3-तीन संभावनाएं है। दो प्रेमी ,प्रेम में तीन आकार या ज्यामितिक आकार निर्मित कर सकते है। एक आकार चतुर्भुज है, दूसरा त्रिभुज है, और तीसरा वर्तुल/सर्किल है।अल्केमी और तंत्र की भाषा में काम -क्रोध का बहुत पुराना विश्‍लेषण है। 'चतुर्भुजी

मिलन' अथार्त उसमे चार कोने है,क्‍योंकि तुम दो हिस्‍सों में बंटे हो। तुम्‍हारा एक हिस्‍सा विचार करने वाला है और दूसरा हिस्‍सा भावुक हिस्‍सा है। वैसे ही तुम्‍हारा साथी भी दो हिस्सों में बंटा है। तुम चार व्‍यक्‍ति हो ;दो नहीं। चार व्‍यक्‍ति प्रेम कर रहे है। यह एक भीड़ है, और इसमें वस्‍तुत: प्रगाढ़ मिलन की संभावना नहीं है। इस मिलन के चार कोने है और मिलन झूठा है। वह मिलन जैसा मालूम होता है ;लेकिन मिलन है नहीं। इसमें प्रगाढ़ मिलन की कोई संभावना भी नहीं है। क्‍योंकि तुम्‍हारा गहन भाग दबा पडा है। केवल दो सिर, दो विचार की प्रक्रियाएं मिल रही है।भाव की प्रक्रियाएं अनुपस्थित है। वे दबी छिपी है।

4-दूसरा मिलन त्रिभुज जैसा होगा। तुम दो हो, आधार के कोने और किसी क्षण अचानक तुम दोनों एक हो जाते हो—त्रिभुज के तीसरे कोने की तरह। किसी आकस्‍मिक क्षण में तुम्‍हारी दूरी मिट जाती है।और तुम एक हो जाते है। लेकिन तीसरा मिलन

सर्वश्रेष्‍ठ है और यह वास्तिविकमिलन है या तांत्रिक मिलन है। इसमें तुम एक वर्तुल हो जाते हो, इसमें कोने नहीं रहते। और यह मिलन क्षण भर के लिए नहीं है, वस्‍तुत: यह मिलन समयातीत है। उसमें समय नहीं रहता और यह मिलन तभी संभव है जब तुम ऊर्जा नहीं फेंकते हो। अन्यथा यह त्रिभुजीय मिलन हो जाएगा। क्‍योंकि ऐसे में संपर्क का बिंदु, मिलन का बिंदु ... खो जाता है।आरंभ के साथ रहो, अंत की फिक्र मत करो।

5- इस आरंभ में कैसे रहा जाए? इस संबंध में बहुत सी बातें ख्‍याल में लेने जैसी है। पहली बात कि मिलन कृत्‍य को कहीं जाने का, पहुंचने का माध्‍यम मत बनाओ। मिलन को साधन की तरह मत लो, वह आपने आप में साध्‍य है। उसका कहीं लक्ष्‍य नहीं है, वह साधन नहीं है। और दूसरी बात कि भविष्‍य की चिंता मत लो, वर्तमान में रहो। अगर तुम मिलन के आरंभिक भाग में ,वर्तमान में नहीं रह सकते, तब तुम कभी वर्तमान में नहीं रह सकते। क्‍योंकि इसकी प्रकृति ही ऐसी है कि तुम वर्तमान में फेंक दिए जाते हो।

6-तो वर्तमान में रहो। दो आत्‍माओं के मिलने का आनंद लो। और एक दूसरे में खो जाओ ...एक हो जाओ। भूल जाओ कि तुम्‍हें कहीं जाना है। वर्तमान क्षण में जीओं, जहां से कहीं जाना नहीं है। और एक दूसरे से मिलकर एक हो जाओ। उष्‍णता और प्रेम वह स्‍थिति बनाते है जिसमें दो व्‍यक्‍ति एक दूसरे में पिघलकर खो जाते है। यही कारण है कि यदि प्रेम न हो,और तुम दूसरे में डूब नहीं रहे हो;तो इसका अर्थ है कि तुम दूसरे का उपयोग कर रहे हो।केवल प्रेम के साथ ही तुम दूसरे में डूब सकते हो।

आरंभ का यह एक दूसरे में डूब जाना अनेक अंतदृष्‍टियां प्रदान करता है।तब दो शरीर,दो ऊर्जाओं के बीच एक गहन

मौन मिलन घटित होता है। और तब तुम घंटों साथ रह सकते हो। यह समय के साथ-साथ गहराता जाता है।

7-लेकिन सोच-विचार मत करो, वर्तमान क्षण में प्रगाढ़ रूप से विलीन होकर रहो। वही समाधि बन जाती है। और अगर तुम इसे जान सके, इसे अनुभव कर सके, इसे उपलब्‍ध कर सके तो तुम्‍हारा कामुक चित अकामुक हो जाएगा। एक गहन ब्रह्मचर्य उपलब्‍ध हो सकता है। मिलन से ब्रह्मचर्य उपलब्‍ध हो सकता है।यह वक्‍तव्‍य विरोधाभासी मालूम होता है कि मिलन से

ब्रह्मचर्य उपलब्‍ध हो सकता है। क्‍योंकि हम सदा से सोचते आए है कि अगर किसी को ब्रह्मचारी रहना है तो उसे विपरीतलिंगी के सदस्‍य को नहीं देखना चाहिए। उससे नहीं मिलना चाहिए। उससे सर्वथा बचना चाहिए, दूर रहना चाहिए। लेकिन उस हालत में एक गलत किस्‍म का ब्रह्मचर्य घटित होता है।तब चित विपरीतलिंगी के संबंध में सोचने में संलग्‍न हो जाता है। जितना ही तुम दूसरे से बचोगे उतना ही ज्‍यादा उसके संबंध में सोचने को विवश हो जाओगे।

8-तंत्र कहता है कि बचने की, भागने की चेष्‍टा मत करो, बचना संभव नहीं है। अच्‍छा है कि प्रकृति को ही उसके अतिक्रमण का साधन बना लो। लड़ों मत ;प्रकृति के अतिक्रमण के लिए प्रकृति को स्वीकार करो।अगर तुम अपने साथी के साथ,

इस मिलन के अंत की फिक्र किए बिना लंबा जा सके ;तो तुम आरंभ में ही बने रहे सकते हो।शिखर पर जाकर तुम ऊर्जा खो सकते हो। ऊर्जा के खोने से गिरावट आती है। कमजोरी पैदा होती है। तुम उसे विश्राम समझ सकते हो। लेकिन वह ऊर्जा का

अभाव है।तंत्र तुम्‍हें उच्‍चतर विश्राम का आयाम प्रदान करता है। पति- पत्नी एक दूसरे में विलीन होकर एक दूसरे को शक्‍ति प्रदान करते है। तब वे एक वर्तुल बन जाते है और उनकी ऊर्जा वर्तुल में घूमने लगती है। वह दोनों एक दूसरे को जीवन ऊर्जा दे रहे है ,नव जीवन दे रहे है। इसमे ऊर्जा का ह्रास नहीं होता है। वरन उसकी वृद्धि होती है। क्‍योंकि विपरीतलिंगी के साथ संपर्क के द्वारा तुम्‍हारा प्रत्‍येक कोश ऊर्जा से भर जाता है ;उसे चुनौती मिलती है। अगर ऊर्जा नष्‍ट होती है ; तब अग्‍नि नहीं बचती। तुम कुछ प्राप्‍त किए बिना ऊर्जा खो देते हो।

9-यदि ऊर्जा को फेंका न जाए तो मिलन ध्‍यान बन जाता है। और तुम पूर्ण हो जाते हो। इसके द्वारा तुम्‍हारा विभाजित व्‍यक्‍तित्‍व अविभाजित हो जाता है। अखंड हो जाता है। चित की सब रूग्‍णता इस विभाजन से पैदा होती है। और जब तुम जुड़ते हो, अखंड होते हो तो तुम फिर बच्‍चे हो जाते हो,निर्दोष हो जाते हो।और एक बार अगर तुम इस निर्दोषता को उपलब्‍ध

हो गए तो फिर तुम अपने समाज में उसकी जरूरत के अनुसार जैसा चाहो वैसा व्‍यवहार कर सकते हो। लेकिन तब तुम्‍हारा यह व्‍यवहार महज अभिनय होगा, तुम उससे ग्रस्‍त नहीं होगे। तब यह एक जरूरत है जिसे तुम पूरा कर रहे हो। तब तुम उसमे नहीं हो। तुम मात्र एक अभिनय कर रहे हो। तुम्‍हें झूठा चेहरा लगाना होगा। क्‍योंकि तुम एक झूठे संसार में रहते हो। अन्‍यथा संसार तुम्‍हें कुचल देगा...मार डालेगा।

10-हमने अनेक सच्‍चे चेहरों को मारा है। हमने जीसस को सूली पर चढ़ा दिया, क्‍योंकि वे सच्‍चे मनुष्‍य की तरह व्‍यवहार करने लगे थे। झूठा समाज इसे बर्दाश्‍त नहीं कर सकता है। हमने सुकरात को जहर दे दिया। क्‍योंकि वह भी सच्‍चे मनुष्‍य की तरह पेश आने लगे थे। समाज जैसा चाहे वैसा करो, अपने लिए और दूसरों के लिए व्‍यर्थ की झंझट मत पैदा करो। लेकिन जब तुमने अपने सच्‍चे स्‍वरूप को जान लिया, उसकी अखंडता को पहचान लिया तो यह झूठा समाज तुम्‍हें फिर रूग्‍ण नहीं कर सकता, विक्षिप्‍त नहीं कर सकता।‘’प्रेम-आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।परन्तु‘’अग्‍नि पर अवधान केवल वही साधक कर सकता है ;जिसकी ऋतम्भरा जाग्रत हो।

11-बुद्धि चार प्रकार की होती है-

1)विवेक बुद्धि

2) मेधा बुद्धि

3) ऋतम्भरा बुद्धि

4) प्रज्ञा बुद्धि

12-हमारा विज्ञानं दो प्रकार का होता है पहला भौतिक विज्ञानं और दूसरा आध्यात्मिक विज्ञानं । भौतिक विज्ञानं को समझने तथा रिसर्च करने के लिए हमें विवेक बुद्धि और मेधा बुद्धि की आवश्यकता होती है तथा आध्यात्मिक विज्ञानं में घुसने के लिये

हमें ऋतम्बरा और प्रज्ञा बुद्धि की आवस्यकता होती है।मेधावी बुद्धि उसको कहते है जिसके आने के पश्चात मानव के जन्म जन्मान्तरों के संस्कार जाग्रत हो जाते है । मेधावी बुद्धि का सम्बन्ध अंतरिक्ष से होता है ।ऋतम्भरा बुद्धि उसको कहते है जब मानव योगी और जिज्ञासु बनने के लिए परमात्मा की गोद में जाने के लिए लालयित होता है तो वही मेधावी बुद्धि , ऋतम्भरा बुद्धि बन जाती है । पांचो प्राण ऋतम्भरा बुद्धि के अधीन हो जाते है । योगी जब इन पांचो प्राण को अपने अधीन करके उनसे मिलान कर लेता है तो आत्मा इन प्राणो पर सवार हो जाता है और सर्वप्रथम मूलाधार में रमण करता है ।

13-अधिकांश लोग यह समझ ही नहीं पाते कि कहां बुद्धि का दायरा खत्म होता है और कहां से प्रज्ञा का आयाम शुरू होता है।

बुद्धि और मेधा बुद्धि हमें यन्त्र विज्ञानं के सहारे ग्रहों तक पहुंचा देती है तथा ऋतम्भरा बुद्धि और प्रज्ञा बुद्धि हमें गृह मंडल से

आगे क्या है ; उस क्षेत्र की जानकारी देती हैं। ऋतम्भरा बुद्धि 5 इंद्री और 5 प्राणो को एक सूत्र में बाँध कर उन पर सवार होकर अंतरिक्ष में रमन करती है । और ऋतम्भरा बुद्धि जानकारी देती है कि अंतरिक्ष लोक में क्या है। इसके बाद काम शुरू

होता है प्रज्ञा बुद्धि का ।प्रज्ञा बुद्धि ऋतम्भरा बुद्धि को छोड़ 3 नाड़ियों इडा, पिंगला और सुषुम्ना पर सवार होकर कुंडली को जागृत करती हुई ब्रह्मरन्द्र को पार करती हुई जब समाधि में लीन हो जाती है।तो प्रज्ञा बुद्धि ही.. फिर वहाँ क्या हो रहा है ;उसकी जानकारी देती है ।ऋतम्भरा बुद्धि और प्रज्ञा बुद्धि वाले साधक ही ऊर्ध्वरेता हो सकते है और समाधि में जा सकते है।

....SHIVOHAM...


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