विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 51वीं, 52 वीं विधियों का क्या विवेचन है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 51;-
(ऊर्ध्वगमन सम्बन्धी पाँच विधियां ) 13 FACTS;- 1-भगवान शिव कहते है:-
‘’बहुत समय बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन होओ।‘’
2-तुम्हें अचानक कोई मित्र मिल जाता है जिसे देखे हुए बहुत दिन, या वर्ष हो गए है। और तुम अचानक हर्ष से, आह्लाद से भर जाते हो। उस हर्ष में प्रवेश करो और उसके साथ एक हो जाओ।किसी भी हर्ष से काम चलेगा। यह एक उदाहरण है ’बहुत समय बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है।'लेकिन अगर तुम्हारा ध्यान मित्र पर है, हर्ष पर नहीं तो तुम चूक रहे
हो और यह हर्ष क्षणिक होगा। तुम्हारा सारा ध्यान मित्र से बातचीत करने में या पुरानी स्मृतियों को ताजा करने में होगा तो
तुम इस हर्ष को चूक जाओगे और हर्ष भी विदा हो जाएगा। इसलिए जब किसी मित्र से मिलना हो और अचानक तुम्हारे ह्रदय में हर्ष उठे तो उस हर्ष पर अपने को एकाग्र करो। उस हर्ष को महसूस करो। उसके साथ एक हो जाओ। और तब हर्ष से भरे हुए और बोधपूर्ण रहते हुए अपने मित्र को मिलो। मित्र को बस परिधि पर रहने दो और तुम अपने सुख के भाव में केंद्रित हो जाओ।
3-अन्य अनेक स्थितियों में भी यह किया जा सकता है। सूरज उग रहा है और तुम अचानक अपने भीतर भी कुछ उगता हुआ अनुभव करते हो। तब सूरज को भूल जाओ, उसे परिधि पर ही रहने दो और तुम उठती हुई ऊर्जा के अपने भाव में केंद्रित हो जाओ। जब तुम उस पर ध्यान दोगे, वह भाव फैलने लगेगा। और वह भाव तुम्हारे सारे शरीर पर, तुम्हारे पूरे अस्तित्व पर फैल
जाएगा। और बस दर्शक ही मत बने रहो। उसमे विलीन हो जाओ।ऐसे क्षण बहुत थोड़े होते है, जब तुम हर्ष या आह्लाद अनुभव करते हो,या सुख और आनंद से भरते हो। और तुम उन्हें भी चूक जाते हो। क्योंकि तुम विषय केंद्रित होते हो। जब भी प्रसन्नता आती है ,या सुख आता है, तुम समझते हो कि यह बाहर से आ रहा है।किसी मित्र से मिलते हो, स्वभावत: लगता है
कि सुख मित्र के मिलने से आ रहा है। लेकिन यह हकीकत नहीं है। सुख सदा तुम्हारे भीतर है। मित्र तो सिर्फ परिस्थिति निर्मित करता है। मित्र ने सुख को बाहर आने का अवसर दिया। और उसने तुम्हें उस सुख को देखने में हाथ बंटाया है।
4-यह नियम सुख के लिए ही नहीं बल्कि क्रोध, शोक, संताप आदि सब पर लागू होता है। दूसरे केवल परिस्थिति बनाते है जिसमे जो तुम्हारे भीतर छिपा है वह प्रकट हो जाता है। वे कारण नहीं है। वे तुम्हारे भीतर कुछ पैदा नहीं करते है। जो भी घटित हो रहा है वह तुम्हें घटित हो रहा है और वह सदा है। मित्र का मिलन सिर्फ अवसर बना, जिसमे अव्यक्त व्यक्त /
अप्रकट हो गया।जब भी यह सुख घटित हो, उसके आंतरिक भाव में स्थित रहो और तब जीवन में सभी चीजों के प्रति तुम्हारी दृष्टि भिन्न हो जाएगी। नकारात्मक भावों के साथ भी यह प्रयोग किया जा सकता है। जब क्रोध आए तो उस व्यक्ति की फिक्र मत करो जिसने क्रोध करवाया, उसे परिधि पर छोड़ दो और तुम क्रोध ही हो जाओ। क्रोध को उसकी समग्रता में अनुभव करो, उसे अपने भीतर पूरी तरह घटित होने दो।उसे तर्क-संगत बनाने की चेष्टा मत करो। यह मत कहो कि इस व्यक्ति ने क्रोध करवाया। उस व्यक्ति की निंदा मत करो। वह तो निर्मित मात्र है। उसका उपकार मानों कि उसने तुम्हारे भीतर दमित भावों को प्रकट होने का मौका दिया। उसने तुम पर कहीं चोट की। और वहां पर एक घाव छिपा पडा था। अब तुम्हें उस घाव का पता चल गया है। अब तुम वह घाव ही बन जाओ।
5-सकारात्मक या नकारात्मक, किसी भी भाव के साथ प्रयोग करो और तुममें भारी परिवर्तन घटित होगा। अगर भाव नकारात्मक है तो उसके प्रति सजग होकर तुम उससे मुक्त हो जाओगे। और अगर भाव सकारात्मक है तो तुम भाव ही बन जाओगे। अगर यह सुख है तो तुम सुख बन जाओगे। लेकिन यह क्रोध विसर्जित हो जाएगा। और नकारात्मक और सकारात्मक भावों का भेद भी यही है। अगर तुम किसी भाव के प्रति सजग होते हो और उससे वह भाव विसर्जित हो जाता है तो समझना कि वह नकारात्मक भाव है। और यदि किसी भाव के प्रति सजग होने से तुम वह भाव ही बन जाते हो और वह भाव फैलकर तुम्हारे तन-प्राण पर छा जाता है तो समझना कि वह सकारात्मक भाव है।
6-दोनों मामलों में बोध अलग-अलग ढंग से काम करता है। अगर कोई जहरीला भाव है तो बोध के द्वारा तुम उससे मुक्त हो सकते हो। और अगर भाव शुभ है, आनंदपूर्ण है, सुंदर है तो तुम उससे एक हो जाते हो। बोध उसे प्रगाढ़ कर देता है।अगर
कोई वृति बोध से सघन होती है तो वह शुभ है और अगर बोध से विसर्जित हो जाती है तो उसे अशुभ मानना चाहिए। जो चीज होश के साथ न जी सके वह पाप है और जो होश के साथ वृद्धि को प्राप्त हो वह पुण्य है। पुण्य और पाप सामाजिक धारणाएं
नहीं है। वे आंतरिक उपलब्धियां है।अपने बोध को जगाओं, उसका उपयोग करो। यह ऐसा ही है जैसे कि अंधकार है और तुम दीया जलाये हो।दीए के जलते ही अंधकार विदा हो जाएगा। प्रकाश के आने से अँधेरा नहीं हो जाता है। क्योंकि वस्तुत: अँधेरा नहीं था।
7-अंधकार प्रकाश का आभाव है। वह प्रकाश की अनुपस्थिति था। लेकिन प्रकाश के आने से वहां मौजूद अनेक चीजें प्रकाशित भी हो जाएंगी। प्रकट हो जायेगी। प्रकाश के आने से ये अलमारियां, किताबें, दीवारें विलीन नहीं हो जाएंगी। अंधकार में वे छिपी थी, तुम उन्हें नहीं देख सकते थे। प्रकाश के आने से अंधकार विदा हो गया लेकिन उसके साथ ही जो यथार्थ था वह प्रकट हो
गया।बोध के द्वारा जो भी अंधकार की तरह नकारात्मक है ;घृणा , क्रोध, दुःख, हिंसा ...वह विसर्जित हो जाएगा और उसके
साथ ही प्रेम, हर्ष, आनंद जैसी सकारात्मक चीजें पहली बार तुम पर प्रकट हो जाएंगी।इसलिए ‘’बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन होओ।‘’
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 52;-
12 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
''भोजन करते हुए या पानी पीते हुए भोजन या पानी का स्वाद ही बन जाओ, और उससे भर जाओ।''
2-हम खाते रहते है, हम खाए बगैर नहीं रह सकते। लेकिन हम बहुत बेहोशी में भोजन करते है ..यंत्रवत। और अगर स्वाद न
लिया जाए तो तुम सिर्फ पेट को भर रहे हो।तो धीरे-धीरे भोजन करो, स्वाद लेकर करो और स्वाद के प्रति सजग रहो।और स्वाद के प्रति सजग होने के लिए धीरे-धीरे भोजन करना बहुत जरूरी है। तुम भोजन को बस निगलने मत जाओ। आहिस्ता-
आहिस्ता उसका स्वाद लो और स्वाद ही बन जाओ। जब तुम मिठास अनुभव करो तो मिठास ही बन जाओ।और तब वह मिठास सिर्फ मुंह में नहीं, सिर्फ जीभ में नहीं, पूरे शरीर में अनुभव की जा सकती है। वह सचमुच पूरे शरीर में फैल जायेगी। तुम्हें लगेगा कि मिठास ...या कोई भी चीज ...लहर की तरह फैलती जा रही है। इसलिए तुम जो कुछ खाओ, उसे स्वाद लेकर खाओ और स्वाद ही बन जाओ।
3- तंत्र दूसरी परंपराओं से सर्वथा भिन्न /विपरीत मालूम पड़ता है। तंत्र कहता है कि जितना स्वाद ले सको ,उतना स्वाद लो। ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील बनो, जीवंत बनो। इतना ही नहीं कि संवेदनशील बनो, स्वाद ही बन जाओ। अस्वाद से तुम्हारी इंद्रियाँ मर जाएंगी। उनकी संवेदनशीलता जाती रहेगी। और संवेदनशीलता के मिटने से तुम अपने शरीर को, अपने भावों को अनुभव करने में असमर्थ हो जाओगे। और तब फिर तुम अपने सिर में केंद्रित होकर रह जाओगे। और सिर में केंद्रित होना विभाजित होना है।जैन अस्वाद की बात करते है। महात्मा गांधी ने तो अपने आश्रम में अस्वाद को एक नियम बना लिया था। नियम था कि खाओ ,स्वाद के लिए मत खाओ। स्वाद मत लो, स्वाद को भूल जाओ। वे कहते थे कि भोजन आवश्यक है, लेकिन यंत्रवत भोजन करो। स्वाद वासना है, स्वाद मत लो।
4-तंत्र कहता है कि अपने भीतर विभाजन मत पैदा करो। स्वाद लेना सुंदर है, संवेदनशील होना सुंदर है। और तुम जितने संवेदनशील होगे, उतने ही जीवंत होगे। और जितने तुम जीवंत होगे, उतना ही अधिक जीवन तुम्हारे अंतस में प्रविष्ट होगा।
तुम अधिक खुलोगें;स्वतंत्र अनुभव करोगे।तुम स्वाद लिए बिना कोई चीज खा सकते हो। यह कठिन नहीं है। तुम किसी को छुए बिना छू सकते हो। यह भी कठिन नहीं है। हम वही तो करते है, तुम किसी के साथ हाथ मिलाते हो और उसे स्पर्श नहीं करते। स्पर्श करने के लिए तुम्हें हाथ तक आना पड़ेगा। हाथ में उतरना पड़ेगा। स्पर्श करने के लिए तुम्हें तुम्हारी हथेली, तुम्हारी अगुलियां बन जाता पड़ेगा ..मानो तुम, तुम्हारी आत्मा तुम्हारे हाथ में उतर आयी है। तभी तुम स्पर्श कर सकते हो, वैसे तुम किसी का हाथ अपने हाथ में लेकर भी उससे अलग रह सकते हो। तब तुम्हारा मुर्दा हाथ किसी के हाथ में होगा। वह छूता हुआ मालूम पड़ेगा। लेकिन वह छूता नहीं है।
5-वास्तव में, हम स्पर्श करना भूल गए है ,क्योंकि डरते है ; स्पर्श करना कामुकता का प्रतीक बन गया है। तुम किसी भीड़ में, बस या रेल में अनेक लोगों को छूते हुए खड़े हो सकते हो, लेकिन वास्तव में न तुम उन्हें छूते हो और न वे तुम्हें छूते है; मानो तुम शरीर में नहीं हो, मानो कोई मुर्दा शरीर स्पर्श कर रहा है।। सिर्फ शरीर एक दूसरे को स्पर्श कर रहा है। लेकिन तुम दूर-
दूर हो। और तुम इस फर्क को समझ सकते हो।यह संवेदनहीनता बुरी है क्योंकि तुम अपने को जीवन से बचा रहे हो। तुम मृत्यु से इतने भयभीत हो और तुम मरे हुए हो। सच तो यह है कि तुम्हें भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि कोई भी मरने वाला नहीं है। तुम तो पहले से ही मरे हुए हो। और तुम्हारे भयभीत होने का कारण भी यही है कि तुम कभी जीए ही नहीं। तुम जीवन से चूकते रहे और मृत्यु करीब आ रही है।
6-जो व्यक्ति जीवित है वह मृत्यु से नहीं डरेगा क्योंकि वह जीवित है। जब तुम वास्तव में जीते हो तो मृत्यु का भय नहीं रहता। तब तुम मृत्यु को भी जी सकते हो। जब मृत्यु आएगी तो तुम इतने संवेदनशील होगे कि मृत्यु का भी आनंद लोगे ।मृत्यु एक महान अनुभव बनने वाली है। अगर तुम सचमुच जिंदा हो तो तुम मृत्यु को भी जी सकते हो। और तब मृत्यु-मृत्यु नहीं रहेगी। अगर तुम मृत्यु को भी जी सको तो तुम अपने केंद्र को लौट रहे हो। जब तुम विलीन हो रहे हो, उस क्षण यदि तुम अपने मरते हुए शरीर के प्रति भी सजग रह सको, इसको भी जी सको तो तुम अमृत हो गए।पानी पीते हुए पानी का ठंडापन अनुभव
करो। भोजन करते हुए या पानी पीते हुए भोजन या पानी का स्वाद ही बन जाओ और उससे भर जाओ।आंखे बंद कर लो, धीरे-धीरे पीनी पीओ और उसका स्वाद लो। पानी की शीतलता को महसूस करो और महसूस करो कि तुम शीतलता ही बन गए हो। जब तुम पानी पीते हो तो पानी की शीतलता तुममें प्रवेश करती है। तुम्हारे अंग बन जाती है।
7-तुम्हारा मुंह शीतलता को छूता है। तुम्हारी जीभ उसे छूती है। और ऐसे वह तुममें प्रवेश हो जाती है। उसे तुम्हारे पूरे शरीर में प्रविष्ट होने दो। उसकी लहरों को फैलने दो और तुम अपने पूरे शरीर में वह शीतलता महसूस करोगे। इस भांति तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ेगी। विकसित होगी। और तुम ज्यादा जीवंत, ज्यादा भरे पूरे हो जाओगे।हम हताश, रिक्त और खाली
अनुभव करते है। और हम कहते है कि जीवन रिक्त है। लेकिन जीवन के रिक्त होने का कारण हम स्वयं है। हम जीवन को भरने ही नहीं देते है। हमने अपने चारों ओर एक सुरक्षा कवच लगा रखा है । हम अपने को हर चीज से बचाकर रखते है। और तब हम कब्र बन जाते है .. मृत लाश।तंत्र कहता है: जीवंत बनो,क्योंकि जीवन ही परमात्मा है।जीवन के
अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं है। तुम जितने जीवंत होगे उतने ही परमात्मा होगे। और जब समग्र रूप से जीवंत होगे तो तुम्हारे लिए कोई मृत्यु नहीं है।
.....SHIVOHAM....