विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान की ध्वनि-संबंधी "ग्यारह " विधि (44,45 वीं ) का विवेचन क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 44;-
(ध्वनि -संबंधी आठवीं विधि)
09 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
‘’अ और म के बिना ओम ध्वनि पर मन को एकाग्र करो।‘’
1-ओम ध्वनि पर एकाग्र करो; लेकिन इस 'ओम' में 'म' न रहें। तब सिर्फ 'उ 'बचता है। यह कठिन विधि है; लेकिन कुछ लोगों के लिए यह योग्य पड़ सकती है। खासकर जो लोग ध्वनि के साथ काम करते है। संगीतज्ञ, कवि, जिनके काम बहुत संवेदनशील है, उनके लिए यह विधि सहयोगी हो सकती है। लेकिन दूसरों के लिए जिनके कान संवेदनशील नहीं है, यह विधि
कठिन पड़ेगी। क्योंकि यह बहुत सूक्ष्म है।तो तुम्हें ओम का उच्चारण करना है और इस उच्चारण में तीनों ध्वनियों को ..अ, उ और म को महसूस करना है। ओम का उच्चारण करो और उसमें तीन ध्वनियों को ...अ, उ और म को अनुभव करो। वे तीनों ओम में समाहित है। बहुत संवेदनशील कान ही इन तीनों ध्वनियों को अलग-अलग सुन सकते है। वे अलग-अलग है, यद्यपि बहुत करीब-करीब भी है।अगर तुम उन्हें अलग-अलग नहीं सुन सकते तो यह विधि तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हारे कानों को उनके लिए प्रशिक्षित करना होगा।
2-कानों के प्रशिक्षण के उपाय है।जापान में, विशेषकर झेन परंपरा में, पहले कानों को प्रशिक्षित करते है। बाहर हवा चल रही है; उसकी एक ध्वनि है। गुरु शिष्य से कहता है कि इस ध्वनि पर अपने कान को एकाग्र करो; उसके सूक्ष्म भेदों को, उसकी बदलाहटों को समझो; देखो कि कब ध्वनि कुपित है और कब उन्मत्त, कब ध्वनि करुणावान है और कब प्रेमपूर्ण । कब वह शक्तिशाली है और कब नाजुक है। ध्वनि की बारीकियों को अनुभव करो। वृक्षों से होकर हवा गुजर रही है उसे
महसूस करो। नदी बह रही है; उसके सूक्ष्म भेदों को पहिचानों।और महीनों साधक नदी के किनारे बैठकर उसके कलकल स्वर को सुनता रहता है। नदी का स्वर भी भिन्न-भिन्न होता है। वह सतत बदलता रहता है। बरसात में नदी पूर्ण पर होती है; बहुत जीवंत होती है, उमड़ती होती है। उस समय उसके स्वर भिन्न होते है। और गर्मी में नदी नाकुछ होती है। उसका कलकल भी समाप्त हो जाता है। लेकिन अगर तुम सुनना चाहो तो वह सूक्ष्म स्वर भी सुना जा सकता है। साल भर नदी बदलती रहती है और साधक को सजग रहना पड़ता है।
3- एक उपन्यास में एक लड़के की आध्यात्मिक यात्रा का वर्णन किया गया है।वह एक माझी के साथ रहता है। नदी है, माझी है और वह है; उनके अतिरिक्त और कोई नहीं है। और माझी बहुत शांत व्यक्ति है। वह आजीवन नदी के साथ रहता है; वह इतना शांत हो गया है कि कभी-कभार ही बोलता है। और जब भी वह अकेलापन महसूस करता है, माझी उससे कहता है
कि तुम जाओ... नदी के किनारे और उसकी कल-कल ध्वनि को सुनो। मनुष्य की बकवास के बजाएं नदी को सुनना बेहतर है।और वह धीरे-धीरे नदी के साथ लयबद्ध हो जाता है। और तब उसे नदी की भाव दशा का बोध होने लगता है। नदी की भाव दशा बदलती रहती है। कभी वह मैत्रीपूर्ण है और कभी नहीं; कभी वह गाती है और कभी रोती-चीखती है; कभी वह हंसती है और कभी उसे उदासी घेर लेती है। और वह उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म भेदों को पकड़ने लगता है। उसके कान नदी के साथ लयबद्ध हो जाते है।
3-तो हो सकता है, आरंभ में तुम्हें यह विधि कठिन मालूम पड़े। लेकिन प्रयोग करो; ओम का उच्चार करो और उच्चार करते हुए ओम की ध्वनि को अनुभव करो।ओम तीन स्वरों का समन्वय है। और जब तुम इन तीन स्वरों को अलग-अलग अनुभव कर लो तो उनमें से अ और म को छोड़ दो। तब तुम ओम नहीं कह सकोगे; क्योंकि अ निकल गया, म भी निकल गया। तब सिर्फ
उ बच रहेगा। मंत्र ऊपरी आवरण है ,परंतु तुम्हारी संवेदनशीलता वास्तविक है। पहले तुम तीन ध्वनियों के प्रति संवेदनशील होते हो, जो कठिन काम है। और जब तुम इतने संवेदनशील हो जाते हो कि तुम उनमें से दो स्वरों को, अ और म को छोड़ सकते हो तो सिर्फ बीच का स्वर बचता है। और इस प्रयत्न में तुम्हारा मन विसर्जित हो जाता है। तुम उसमे इतने तल्लीन हो जाओगे, उसके प्रति इतने अवधान/Attention से भरे , इतने संवेदनशील हो जाओगे कि विचार विसर्जित हो जाएंगे। और अगर तुम सोच-विचार करते हो तो तुम स्वरों के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकते।
4-यह तुम्हें तुम्हारे सिर से बाहर निकालने का परोक्ष उपाय है। बहुत सारे उपाय प्रयोग में लाए गए है। और वे बहुत सरल प्रतीत होते है। तुम्हें आश्चर्य होता है कि इन सरल उपायों से क्या हो सकता है। लेकिन चमत्कार घटित होता है; क्योंकि वे उपाय परोक्ष है। तुम्हारे मन को बहुत सूक्ष्म चीज पर स्थिर किया जा सकता है। इस प्रयत्न में सोच-विचार नहीं चल सकता है। तुम्हारा मन खो जाएगा।और तब किसी दिन अचानक तुम्हें इस बात का पता चलेगा। और तुम चकित रह जाओगे कि क्या
हुआ।झेन में 'कोआन' का/पहेली का प्रयोग होता है। एक बहुत प्रचलित 'कोआन' है जो नए साधकों को दिया जाता है। उन्हें कहा जाता है कि एक हाथ की ताली सुनो। अब ताली तो दो हाथों से बजती है। लेकिन उन्हें कहा जाता है कि एक हाथ से बजने वाली ताली को सुनो।
5-किसी झेन गुरु की सेवा में एक लड़का रहता था। वह देखता था कि अनेक लोग आते है, गुरु के पैर पर सिर रखते है और कहते है कि हमे बताएं कि हम किस पर ध्यान करें। गुरु उन्हें कोई 'कोआन' दिया करता था।वह लड़का गुरु के छोटे-
मोटे काम कर दिया करता था। वह उसकी सेवा में था। उसकी उम्र नौ साल की रही होगी। रोज-रोज साधकों को आते-जाते देखकर वह भी एक दिन बहुत गंभीरता के साथ गुरु के निकट गया और उसके चरणों में सिर रखकर निवेदन किया कि मुझे भी ध्यान करने के लिए कोई 'कोआन' दें।गुरु हंसा। लेकिन लड़का गंभीर बना रहा।तो गुरु ने उसे कहा कि ठीक है,
एक हाथ की ताली सुनने की चेष्टा करो। और जब सुनाई पड़ जाए तो आकर मुझे बताना।
6-लड़के ने बहुत प्रयत्न किया। रात-रात भर उसे नींद नहीं आई। कुछ दिनों बात वह आकर कहता है मैंने सुन ली। वह वृक्षों से गुजरती हवा है। लेकिन गुरु ने पूछा; इसमें हाथ कहा है? जाओ और फिर प्रयत्न करो। ऐसे लड़का रोज आता ही रहा। वह कोई ध्वनि खोज लेता और गुरु को बताता। लेकिन हर बार गुरु कहता कि यह भी नहीं है; और प्रयत्न करो।फिर एक
दिन लड़का गुरु के पास नहीं आया। गुरु ने उसकी बहुत प्रतीक्षा की; लेकिन वह नहीं आया। तब उसने अपने दूसरे शिष्यों से कहा कि जाकर पता करो कि क्या हुआ। गुरु ने कहा कि मालूम होता है कि उसने एक हाथ की ताली सुन ली है। शिष्य गए। लड़का एक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ बैठा था।
7-उन्होंने लौटकर गुरु को खबर दी। उन्होंने कहा कि हमें उसे हिलाने में डर लगा; वह तो नवजात बुद्ध मालूम होता है। मालूम पड़ता है कि उसने ताली सुन ली। तब गुरु स्वयं आया, उसने लड़के के चरणों में सिर रखा और पूछा: ‘’क्या तुमने सुना?’’ मालूम होता है कि तुमने सुन लिया। लड़के ने स्वीकृति से सिर हिलाते हुए कहा: ‘’हां, लेकिन वह तो मौन है।
इस लड़के की संवेदनशीलता विकसित हुई। उसने प्रत्येक ध्वनि को सुनने की चेष्टा की और उसने बहुत अवधान से सुना। उसका अवधान विकसित हुआ। उसकी नींद जाती रही। वह रात भर जाग कर सुनता कि एक हाथ की ताली क्या है। वह तुम्हारे जैसा बुद्धिमान नहीं था। उसने यह सोचा ही नहीं कि एक हाथ की ताली नहीं हो सकती।वही पहेली तुम्हें दी जाए
तो तुम प्रयोग करने वाले नहीं हो। तुम कहोगे कि यह मूढता है; एक हाथ की ताली नहीं हो सकती।
8-लेकिन उस लड़के ने प्रयोग किया। उसने सोचा कि जब गुरु ने कहा है तो उसमें जरूर कुछ होगा; उसमे श्रम किया क्योकि वह सरल था। जब भी उसे लगता है। कि कोई नई चीज है तो वह दौड़कर गुरु के पास जाता। इस ढंग से उसकी संवेदनशीलता विकसित होती गई। वह और ज्यादा सजग और बोध पूर्ण होता गया। वह एकाग्र हो गया। वह लड़का खोज में
लगा था। इसलिए उसका मन विसर्जित हो गया।गुरु ने उससे कहा था कि अगर तुम सोच विचार करते रहोगे ,तो तुम चूक जाओगे। कभी-कभी ऐसी ध्वनि होती है कि जो एक हाथ की होती है। इसलिए सजग रहना ताकि चूक न जाओ। और उसने
प्रयत्न किया।एक हाथ की ताली नहीं होती है।लेकिन यह तो संवेदनशीलता को, बोध को पैदा करने का एक परोक्ष उपाय था। और एक दिन अचानक सब कुछ विलीन हो गया।
9-वह इतना अवधान पूर्ण हो गया कि अवधान ही रह गया। वह इतना संवेदनशील हो गया कि संवेदनशीलता ही रह गई। वह इतना बोधपूर्ण हो गया कि बोध ही रह गया। वह सिर्फ बोधपूर्ण था; किसी चीज के प्रति बोधपूर्ण नहीं। और तब उसने कहा:
‘मैंने सुन लिया। लेकिन यह तो मौन है, शून्य है।‘लेकिन इसके लिए तुम्हें सतत और होश पूर्ण होने का अभ्यास करना होगा।
'अ और म के बिना ओम ध्वनि पर मन को एकाग्र करो।'यह विधि है जो तुम्हें ध्वनि के सूक्ष्म भेदों के प्रति नाजुक भेदों के प्रति सजग बनाती है। इसका प्रयोग करते-करते तुम ओम को भूल जाओगे। न सिर्फ अ गिरेगा। न सिर्फ म गिरेगा। बल्कि किसी दिन तुम भी अचानक खो जाओगे। तब शून्य का, मौन का जन्म होगा। और तब तुम भी किसी वृक्ष के नीचे बैठे नवजात बुद्ध हो जाओगे।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 45;-
(ध्वनि -संबंधी नौवीं विधि)
10 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
‘’अ: से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार चुपचाप करो।और तब हकार में अनायास सहजता को उपलब्ध होओ''
2-कोई भी शब्द जिसका अंत अ: से होता है, उसका उच्चार चुपचाप करो। शब्द के अंत में अ: के होने पर जोर है। क्योंकि जिस क्षण तुम अ: का उच्चार करते हो, तुम्हारी श्वास बाहर जाती है। तुमने ख्याल नहीं किया होगा। अब ख्याल करना कि जब भी तुम्हारी श्वास बाहर जाती है, तुम ज्यादा शांत होते हो। और जब भी श्वास भीतर जाती है, तुम ज्यादा तनावग्रस्त होते हो। कारण यह है कि बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु है। और भीतर आने वाली श्वास जीवन है।तनाव जीवन का हिस्सा है।मृत्यु
का नहीं। विश्राम मृत्यु का अंग है, मृत्यु का अर्थ है पूर्ण विश्राम। जीवन पूर्ण विश्राम नहीं बन सकता। वह असंभव है। जीवन का
अर्थ है तनाव, प्रयत्न;सिर्फ मृत्यु विश्राम पूर्ण है।तो जब भी कोई व्यक्ति पूरी तरह विश्राम पूर्ण हो जाता है, वह दोनों हो जाता है ..बाहर से वह जीवित होता है और भीतर से मृत। तुम भगवान शिव के चेहरे पर जीवन- मृत्यु एक साथ देख सकते हो। इसलिए उनके चेहरे पर इतना मौन, इतनी शांति है ..क्योकि मौन और शांति मृत्यु के अंग है।
3-जीवन विश्राम पूर्ण नहीं है, रात में जब तुम सो जाते हो तो तुम विश्राम में होते हो। इसीलिए पुरानी परंपराएं कहती है कि मृत्यु और नींद समान है। नींद अस्थायी मृत्यु है। और यही कारण है कि रात्रि विश्रामदायी होती है। वह बाहर जाने वाली श्वास है। सुबह भीतर आने वाली श्वास है। दिन तुम्हें तनाव से भर देता है। रात तुम्हें विश्राम से भरती है। प्रकाश तनाव पैदा करता है, अंधकार विश्राम लाता है। यही वजह है कि तुम दिन में नहीं सो सकते। दिन में विश्राम करना कठिन है। प्रकाश जीवन जैसा है,
वह मृत्यु विरोधी है। अंधकार मृत्यु जैसा है। वह मृत्यु के अनुकूल है।तो अंधकार में गहरी विश्रांति है। और जो लोग अंधकार से
डरते है, वे विश्राम में नहीं उतर सकते। यह असंभव है।विश्राम अंधेरे में घटित होता है।और तुम्हारे जीवन के दोनों छोरों पर अंधरा है। जन्म के पहले तुम अंधेरे में होते हो। और मृत्यु के बाद तुम फिर अंधेरे में होते हो। अंधकार असीम है। और यह प्रकाश, यह जीवन उस अंधकार के भीतर एक क्षण जैसा है।
4-अंधकार के समुद्र में प्रकाश लहर जैसा है जो उठता-गिरता रहता है। अगर तुम जीवन के दोनों छोरों को घेरने वाले अंधकार को स्मरण रख सको तो तुम यहीं और अभी विश्राम में हो सकते हो।जीवन और मृत्यु अस्तित्व के दो छोर है।भीतर आने वाली
श्वास जीवन है, बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु है। ऐसा नहीं है कि तुम किसी दिन मरोगे, तुम प्रत्येक श्वास के साथ मर रहे हो।
यही कारण है कि हिंदू जीवन को श्वासों की गिनती कहते है, वे उसे वर्षों की गिनती नहीं कहते। तंत्र, योग आदि सभी भारतीय परंपराएं जीवन को श्वासों में गिनती है। वे कहती है कि तुम्हें इतनी श्वासों का जीवन मिला है। वे कहती है कि अगर तुम तेजी से श्वास लोगे, थोड़े समय में ज्यादा श्वासें लोगे तो तुम बहुत जल्दी मरोगे। और अगर तुम बहुत धीरे-धीरे श्वास लोगे, अगर एक निश्चित समय में कम श्वास लोगे तो तुम ज्यादा समय तक जीओगे।
5-और बात ऐसी ही है। अगर तुम पशुओं का निरीक्षण करोगे तो पाओगे कि बहुत धीमी श्वास लेने वाले पशु लंबी उम्र जीते है। उदाहरण के लिए हाथी है, हाथी की उम्र बड़ी है। क्योंकि उसकी श्वास धीमी चलती है। फिर कुत्ता है, उसकी श्वास तेज चलती है। और उसकी उम्र बहुत कम है। जो भी पशु बहुत तेज श्वास लेता होगा, उसकी उम्र लम्बी नहीं हो सकती। लंबी उम्र
सदा धीमी श्वास के साथ जुड़ी है।तंत्र, योग और अन्य भारतीय साधना पथ तुम्हारे जीवन का हिसाब तुम्हारी श्वासों से लगाते है। सच तो यह है कि तुम हरेक श्वास के साथ जन्मते हो और हरेक श्वास के साथ मरते हो। यह विधि बाहर जाने वाली श्वास को गहरे मौन में उतरने का माध्यम बनाती है। उपाय बनाती है। यह एक मृत्यु-विधि है।
‘’अ से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार चुपचाप करो।‘’
6-श्वास बाहर गई है—इसलिए अ: से अंत होने वाले शब्द का उपयोग है यह अ: अर्थपूर्ण है; क्योंकि जब तुम अ: कहते हो वह तुम्हें पूरी तरह खाली कर देता है। उसके साथ पूरी श्वास बाहर निकल जाती है। कुछ भी भीतर बची नहीं रहती है। तुम बिलकुल खाली हो जाते हो—खाली और मृत। एक क्षण के लिए, बहुत थोड़ी देर के लिए जीवन तुमसे बाहर निकल गया है और
तुम मृत और खाली हो।अगर इस रिक्तता ,इस खाली पन को तुम जान लो। उसके प्रति बोधपूर्ण हो जाओ तो तुम पूर्णत: रूपांतरित हो जाओगे। तुम और ही व्यक्ति हो जाओगे। तब तुम भली भांति जान लोगे कि न यह जीवन तुम्हारा जीवन है और न यह मृत्यु ही तुम्हारी मृत्यु है। तब तुम उसे जान लोगे जो आती-जाती श्वासों के पास है, तब तुम साक्षी आत्मा को जान लोगे। और साक्षित्व उस समय आसानी से घट सकता है जब तुम श्वासों से खाली हो, क्योंकि तब जीवन उतार पर होता है। और सारे तनाव भी उतार पर होते है। तो इस सुंदर विधि को प्रयोग में लाओ।
7-लेकिन आमतौर से, सामान्य आदत के मुताबिक, हम सदा भीतर आने वाली श्वास को ही महत्व देते है। हम बाहर जाने वाली श्वास को कभी महत्व नहीं देते। हम सदा, श्वास भीतर लेते है। उसे बाहर नहीं छोड़ते। हम श्वास लेते है और शरीर उसे छोड़ता है। तुम अपनी श्वसन क्रिया का निरीक्षण करो और तुम्हें यह पता चल जाएगा।हम सदा श्वास लेते है।हम उसे छोड़ते
नहीं। छोड़ने का काम शरीर करता है।और इसका कारण यह है कि हम मृत्यु से भयभीत है। बस यही कारण है। अगर हमारा बस चलता तो हम कभी श्वास को बाहर जाने ही नहीं देते। हम श्वास को भीतर ही रोक रखते। कोई भी व्यक्ति श्वास छोड़ने पर जोर नहीं देता। सब लोग श्वास लेने की ही बात करते है। लेकिन श्वास को भीतर लेने के बाद उसे बाहर निकालना अनिवार्य हो जाता है। इसलिए हम मजबूरी में उसे बाहर जाने देते है। उसे हम किसी तरह बरदाश्त कर लेते है। क्योंकि श्वास छोड़े बगैर श्वास लेना असंभव है। इसलिए श्वास छोड़ना आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकृत है। लेकिन बुनियादी तौर से श्वास छोड़ने में हमारा कोई रस नहीं है।
8-और यह बात श्वास के संबंध में ही सही नहीं है। पूरे जीवन के प्रति हमारी दृष्टि यही है। जो भी हमें मिलता है, उसे हम मुट्ठी में बाँध लेते है। उसे छोड़ने का नाम ही नहीं लेते। यही मन का कृपणता है। और याद रहे, इसके बहुत परिणाम होते है। अगर तुम कब्जियत से पीडित हो तो उसका कारण यह है कि तुम श्वास तो लेते हो, लेकिन उसे छोड़ते नहीं। जो व्यक्ति श्वास लेना जानता है। लेकिन छोड़ना नहीं, वह कब्जियत से पीड़ित होगा। कब्जियत उसी चीज का दूसरा छोर है। वह किसी भी चीज को अपने से बाहर जाने देने के लिए राज़ी नहीं है। वह सिर्फ इकट्ठा करता जाता है। यह भयभीत है और भय के कारण
यह इकट्ठा किए जाता है।लेकिन जो चीज रोक ली जाती है वह विषाक्त हो जाती है। तुम श्वास तो लेते हो लेकिन अगर उसे छोड़ते नहीं तो वह श्वास जहर बन जाएगी और तुम उसके कारण मरोगे। अगर तुमने कंजूसी की तो तुम एक जीवनदायी तत्व को जहर में बदल दोगे। क्योंकि श्वास का बाहर जाना नितांत जरूरी है। बाहर जाती श्वास तुम्हारे भीतर से सब जहर को बाहर निकाल फेंकती है।
9-इसीलिए ध्यान के भस्त्रिका प्राणायाम का बहुत ज्यादा महत्व हैं।भस्त्रिका का शाब्दिक अर्थ है 'धौंकनी' अर्थात एक ऐसा प्राणायाम जिसमें लोहार की धौंकनी की तरह आवाज करते हुए वेगपूर्वक शुद्ध प्राणवायु को अन्दर ले जाते हैं और अशुद्ध वायु
को बाहर फेंकते हैं।प्राणायाम जीवन का रहस्य है। श्वासों के आवागमन पर ही हमारा जीवन निर्भर है और ऑक्सीजन की अपर्याप्त मात्रा से रोग और शोक उत्पन्न होते हैं। प्रदूषण भरे महौल और चिंता से हमारी श्वासों की गति अपना स्वाभाविक रूप
खो ही देती है जिसके कारण प्राणवायु संकट काल में हमारा साथ नहीं दे पाती।भस्त्रिका प्राणायाम की विधि ...सिद्धासन या सुखासन में बैठकर कमर, गर्दन और रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए शरीर और मन को स्थिर रखें। आंखें बंद कर दें। फिर तेज गति से श्वास लें और तेज गति से ही श्वास बाहर निकालें। श्वास लेते समय पेट फूलना चाहिए और श्वास छोड़ते समय पेट पिचकना चाहिए। इससे नाभि स्थल पर दबाव पड़ता है।
10-इस प्राणायाम को करते समय श्वास की गति पहले धीरे रखें, अर्थात दो सेकंड में एक श्वास भरना और श्वास छोड़ना। फिर मध्यम गति से श्वास भरें और छोड़ें, अर्थात एक सेकंड में एक श्वास भरना और श्वास छोड़ना। फिर श्वास की गति तेज कर दें अर्थात एक सेकंड में दो बार श्वास भरना और श्वास निकालना। श्वास लेते और छोड़ते समय एक जैसी गति बनाकर रखें।
वापस सामान्य अवस्था में आने के लिए श्वास की गति धीरे-धीरे कम करते जाएं और अंत में एक गहरी श्वास लेकर फिर श्वास निकालते हुए पूरे शरीर को ढीला छोड़ दें।
क्या मृत्यु शुद्धि की प्रक्रिया है?-
10 FACTS;-
1-तो सच तो यह कि मृत्यु शुद्धि की प्रक्रिया है और जीवन अशुद्धि की, विषाक्त करने की प्रक्रिया है। यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ेगी। जीवन विषाक्त करने की प्रक्रिया है, क्योंकि जीने के लिए बहुत सी चीजों को उपयोग में लाना पड़ता है। और जैसे ही तुम उनका उपयोग करते हो। वे विष में बदल जाती है। तब तुम श्वास लेते हो तो तुम आक्सीजन का उपयोग कर रहे हो, लेकिन उपयोग करने के बाद जो चीज बच रहती है वह विष है। आक्सीजन के कारण ही वह जीवन था। लेकिन जब तुमने उसका उपयोग कर लिया तो शेष विष हो जाता है। ऐसे ही जीवन हर चीज को जहर में बदलता रहता है।मृत्यु शुद्ध की
प्रकिया है। जब सारा शरीर विषाक्त हो जाता है। तब मृत्यु तुम्हें उस शरीर से मुक्त कर देती है। मृत्यु तुम्हें फिर से नया बना देती है। तुम्हें नया जन्म दे देगी। तुम्हें नया शरीर मिल जाएगा। मृत्यु के द्वारा शरीर का सब संग्रहीत विष प्रकृति में विलीन हो जाता है। और तुम्हें एक नया शरीर उपलब्ध होता है।
2-और यह बात प्रत्येक श्वास के साथ घटित होती है। बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु के समान है, वह विष को बाहर ले जाती है। और जब वह श्वास बाहर जाती है। तो तुम्हारे भीतर सब कुछ शांत होने लगता है। अगर तुम सारी की सारी श्वास बाहर फेंक दो, कुछ भी भीतर न रहने पाए तो तुम शांति के उस बिंदु को छू लोगे जो श्वास के भीतर रहते हुए कभी नहीं छुआ जा सकता था। यह ज्वार-भाटे जैसा है। आती हुई श्वास के साथ तुम्हारे पास जीवन-ज्वार आती है और जाती हुई श्वास के साथ सब कुछ शांत हो जाता है। ज्वार चला गया तब, तुम खाली, रिक्त सागर तट भर रह जाते हो। इस विधि का यही उपयोग करो।
‘’अ से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार चुपचाप करो।‘’बाहर जाने वाली श्वास पर जोर दो। और तुम इस विधि का उपयोग मन में अनेक परिवर्तन लाने के लिए कर सकते हो।
3-अगर तुम कब्जियत से पीड़ित हो तो श्वास भूल जाओ। सिर्फ श्वास को बाहर फेंको। श्वास भीतर ले जाने का काम शरीर को करने दो। तुम छोड़ने भर का काम करो। तुम श्वास को बाहर निकाल दो और भीतर ले जाने की फिक्र ही मत करो। शरीर वह काम अपने आप ही कर लेगा, तुम्हें उसकी चिंता नहीं लेनी है। उससे तुम मर नहीं जाओगे। शरीर ही श्वास को भीतर ले जाएगा। तुम छोड़ने भर का काम करो, शेष शरीर कर लेगा। और तुम्हारी कब्जियत जाती रहेगी।अगर तुम ह्रदय
रोग से पीड़ित हो तो श्वास को बाहर छोड़ो। लेने की फिक्र मत करो। फिर ह्रदय रोग तुम्हें कभी नहीं होगा। अगर सीढ़ियां चढ़ते हुए या कहीं जाते हुए तुम्हें थकावट महसूस हो, तुम्हारा दम घुटने लगे तो तुम इतना ही करो: श्वास को बाहर छोड़ो, लो नहीं। और तब तुम कितनी ही सीढ़ियां चढ़ जाओगे और नहीं थकोंगे।वास्तव में, जब तुम श्वास छोड़ने पर जोर देते हो तो उसका मतलब है कि तुम अपने को छोड़ने , अपने खोने को राज़ी हो। तब तुम मरने को राज़ी हो, तब तुम मृत्यु से भयभीत नहीं हो। और यही चीज तुम्हें खोलती है। अन्यथा तुम बंद रहते हो।
4-भय बंद करता है।जब तुम श्वास छोड़ते हो तो पूरी व्यवस्था बदल जाती है। और वह मृत्यु को स्वीकार कर लेती है। भय
जाता रहता है और तुम मृत्यु के लिए राज़ी हो जाते हो।और वही व्यक्ति जीता है जो मरने के लिए तैयार है। सच तो यह है कि वही जीता है जो मृत्यु से राज़ी है। केवल वही व्यक्ति जीवन के योग्य है क्योंकि वह भयभीत नहीं है। जो व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार करता है, मृत्यु का स्वागत करता है, मेहमान मानकर उसकी आवभगत करता है और उसके साथ रहता है। वही व्यक्ति जीवन में गहरे उतर सकता है। पशु को मृत्यु का बोध नहीं होता। जब एक कुत्ता मरता है तो दूसरे कुत्ते को कभी पता नहीं होता कि मैं भी मर सकता हूं। जब भी मरता है, कोई दूसरा ही मरता है। तो कोई कुत्ता कैसे कल्पना करे कि मैं भी मरने वाला हूं। उसने कभी अपने को मरते नहीं देखा। सदा कोई दूसरे ही मरते है। वह कैसे कल्पना करे, कि मैं भी मरूंगा।इसलिए कोई पशु संसार का त्याग नहीं करता और कोई पशु संन्यासी नहीं हो सकता है।
5-केवल एक बहुत ऊंच्ची कोटि की चेतना ही तुम्हें संन्यास की तरफ ले जा सकती है। मृत्यु के प्रति जागने से ही संन्यास घटित होता है। और अगर आदमी होकर भी तुम मृत्यु के प्रति जागरूक नहीं हो तो तुम अभी पशु ही हो ..मनुष्य नहीं हुए हो। मनुष्य तो तुम तभी बनते हो जब मृत्यु का साक्षात्कार करते हो। अन्यथा तुममें और पशु में कोई फर्क नहीं है। पशु और मनुष्य में सब कुछ समान है, सिर्फ मृत्यु फर्क लाती है। मृत्यु का साक्षात्कार कर लेने के बाद तुम पशु नहीं रहते। तुम्हें कुछ घटित हुआ है जो कभी किसी पशु को घटित नहीं होता है। अब तुम एक भिन्न चेतना हो।ऐसा ही इन विधियों के साथ है। वे सरल
मालूम होती है। लेकिन वे बुनियादी सत्य को स्पर्श करती है। जब श्वास बाहर जा रही है, जब तुम जीवन से सर्वथा रिक्त हो, तब तुम मृत्यु को छूते हो, तब तुम उसके बहुत करीब पहुंच जाते हो। तब तुम्हारे भीतर सब कुछ मौन और शांत हो जाता है।
6-इसे मंत्र की तरह उपयोग करो। जब भी तुम्हें थकावट महसूस हो, तनाव महसूस हो तो अ: से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार करो।कोई शब्द जो तुम्हारी श्वास को समग्ररतः से बाहर ले आए। जो तुम्हें श्वास से बिलकुल खाली कर दे। जिस क्षण तुम श्वास से रिक्त होते हो उसी क्षण तुम जीवन से भी रिक्त हो जाते हो।और तुम्हारी सारी समस्याएं जीवन की समस्याएं
है, मृत्यु की कोई समस्या नहीं हे। तुम्हारी चिंताएं, तुम्हारे दुःख-संताप, तुम्हारा क्रोध, सब जीवन की समस्याएं है। मृत्यु तो समस्याहीन है। मृत्यु असमस्या है। मृत्यु कभी किसी को समस्या नहीं देती है।तुम भला सोचते हो कि मैं मृत्यु से डरता हूं,
कि मृत्यु समस्या पैदा करती है। लेकिन हकीकत यह है कि मृत्यु नहीं जीवन के प्रति तुम्हारा आग्रह, जीवन के प्रति तुम्हारा लगाव समस्या पैदा करता है। जीवन ही समस्या खड़ी करता है। मृत्यु तो सब समस्याओं का विसर्जन कर देती है।
7-तो जब श्वास बिलकुल बाहर निकल जाए ...अ: ...तुम जीवन से रिक्त हो गए। उस क्षण अपने भीतर देखो। जब श्वास बिलकुल बाहर निकल जाए। दूसरी श्वास लेने के पहले उस अंतराल में गहरे उतरो जो रिक्त है और उसके आंतरिक मौन
और शांति के प्रति सजग होओ।उस क्षण तुम बुद्ध हो और अगर तुम उस क्षण को पकड़ लो तो तुम्हें वह स्वाद मिल जाएगा जिसे बुद्ध ने जाना। और एक बार यह स्वाद जान लिया गया तो फिर तुम उसे आने-जाने वाली श्वास से अलग कर ले सकते हो। फिर श्वास आती-जाती रह सकती है। और तुम चेतना की उस अवस्था में रह सकते हो। वह तो सदा है, फिर उसे उघाड़ना है। और उसे उस समय उघाड़ना आसान होता है जब तुम जीवन से, श्वास से रिक्त होते हो।
8-और जब श्वास बाहर निकल जाती है, तब सब कुछ निकल जाता है। इस क्षण किसी प्रयास की जरूरत नहीं है। इस क्षण अनायास बिना प्रयास के सजगता को, बोध को उपल्बध हुआ जा सकता हे। मृत्यु के इस क्षण को उपलब्ध होओ। यही वह क्षण है जब तुम द्वार के बिलकुल करीब होते हो, परमात्मा के द्वार के बिलकुल पास होते हो। जो प्रकट है, जा असार है, वह बाहर चला गया; इस क्षण मे तुम लहर नहीं रहे। सागर हो गए। अभी तुम बिलकुल सागर के निकट हो। अगर तुम बोधपूर्ण हो सके, सजग हो सके, तो तुम भूल जाओगे कि मैं लहर हूं। फिर लहर आएगी। लेकिन अब तुम लहर के साथ कभी तादात्म्य नहीं बनाओगे। तुम सागर बने रहोगे। एक बार तुमने जान लिया कि तुम सागर हो, फिर तुम लहर नहीं हो सकते।
9-जो प्रकट है, जो असार है, वह बाहर चला गया; इस क्षण मे तुम लहर नहीं रहे। सागर हो गए। अभी तुम बिलकुल सागर के निकट हो। अगर तुम बोधपूर्ण हो सके, सजग हो सके, तो तुम भूल जाओगे कि मैं लहर हूं। फिर लहर आएगी। लेकिन अब तुम लहर के साथ कभी तादात्म्य नहीं बनाओगे। तुम सागर बने रहोगे। एक बार तुमने जान लिया कि तुम सागर हो, फिर तुम
लहर नहीं हो सकते।जीवन लहर है, मृत्यु सागर है। इस कारण ही गौतम बुद्ध इस बात पर जोर देते है कि मेरा निर्वाण मृत्यु वत है। वे कभी नहीं कहते कि तुम अमरत्व को प्राप्त हो जाओगे। वे इतना ही कहते है कि तुम मिटोगे, समग्ररतः। जीसस कहते है; मेरे पास आओ और मैं तुम्हें विराट जीवन दूँगा।गौतम बुद्ध कहते है: मेरे पास मिटने के लिए आओ, मैं तुम्हें समग्र मृत्यु दूँगा। और दोनों एक ही बात है। लेकिन गौतम बुद्ध की शब्दावली ज्यादा बुनियादी है। मगर तुम उससे भयभीत हो।
10-यही कारण है कि गौतम बुद्ध का भारत में प्रभाव नहीं पड़ सका।कारण यह था कि गौतम बुद्ध ने मृत्यु
की भाषा उपयोग की।जो जीवन की भाषा उपयोग करते है ; वे कहते है ब्रह्म;। बुद्ध ने कहा निर्वाण। ब्रह्म का अर्थ जीवन,
अनंत जीवन है; और निर्वाण का अर्थ है परिसमाप्ति, मृत्यु , समग्र मृत्यु।गौतम बुद्ध कहते है कि तुम्हारी सामान्य मृत्यु समग्र नहीं होती। तुम्हें फिर-फिर जन्म लेना होता है। साधारण मृत्यु समग्र नहीं है। तुम पुन: संसार में आना पड़ता है।गौतम बुद्ध कहते थे कि मैं तुम्हें ऐसी समग्र मृत्यु दूँगा कि तुम्हें फिर कभी जन्म लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। समग्र मृत्यु का अर्थ है कि अब
दुबारा जन्म संभव नहीं है।इसलिए गौतम बुद्ध कहते है कि यह तथाकथित मृत्यु-मृत्यु नहीं है। यह विश्राम है, तुम फिर जीवित हो उठते हो। यह मृत्यु तो बाहर गई श्वास जैसी है। तुम फिर श्वास भीतर लोगे। और तुम्हारा पुन: जन्म हो जाएगा। गौतम बुद्ध कहते है कि मैं तुम्हें वह उपाय बताता हूं कि बाहर गई श्वास फिर वापस नहीं लौटेंगी। वही समग्र मृत्यु है , निर्वाण है।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
क्या अ: से अंत होने वाले ही है सभी मंत्र?-
05 FACTS;-
1- तुम किसी भी धर्म से संबंध रखते हों... लेकिन यह बात दावे से कही जा सकती है कि आप जब कभी किसी धार्मिक स्थल में प्रवेश करते हैं, तो वहां का वातावरण आपको मानसिक शांति प्रदान करता है। इसका सबसे बड़ा कारण है उस विशेष धार्मिक स्थल में उच्चारित किए जाने वाले मंत्र, धार्मिक उपदेश एवं श्लोक।धार्मिक एवं वैज्ञानिक दोनों कारणों से यह मंदिर में उच्चारित होने वाले मंत्रों की वजह से होता है। मंत्र, उपदेश या श्लोक... यह सभी कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करके बने हैं जो चमत्कारी हैं तथा मनुष्य को विभिन्न कठिनाइयों से लड़ने की ताकत प्रदान करते हैं।हिन्दू धर्म में ‘ॐ’, सिख धर्म में ‘वाहेगुरु’, इस्लाम में ‘अल्लाह’ तथा ईसाई धर्म में ‘गॉड’, यह कुछ ऐसे शब्द हैं जो मंत्र एवं उपदेशों के साथ जुड़कर व्यक्ति पर एक चमत्कारी असर छोड़ जाते हैं। स्वयं विज्ञान ने यह माना है कि ‘ॐ’ शब्द में ब्रह्मांड जितनी चमत्कारी ताकतें हैं।
2-दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है संस्कृत, और ऐसा माना गया है कि इसका सही उच्चारण कर सकना हर किसी के बस की बात नहीं है। लेकिन हिन्दू धर्म में सभी मंत्र इसी संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं। कहते हैं कि जब तक मंत्रों का सही उच्चारण ना हो, चाहे उसे जितनी मर्जी पढ़ लिया जाए, वह निष्फल ही रहता है।आप सही उच्चारण तभी कर सकते हैं,
जब आप इन मंत्रों को पढ़ते समय ‘ध्वनि’ पर ध्यान दें।लेकिन केवल धार्मिक ग्रंथ ही नहीं, बल्कि स्वयं मनुष्य भी मानता है कि मंत्रों का उच्चारण उन्हें तन एवं मन की शांति प्रदान करता है। यह मंत्र मानसिक स्फूर्ति प्रदान करते हैं तथा अनेक दुविधाओं से बचाते हैं। साइंस ने भी यह माना है कि दवाओं की तुलना में मंत्रों का उच्चारण रोगों से लड़ने की अधिक शक्ति प्रदान करता है।
3-मंत्र उच्चारण एक चमत्कार जरूर है, एक ऐसा चमत्कार जो कुछ समय के साथ ही अपना प्रभाव दिखाता है।
भगवान शिव जब अग्रि स्तंभ के रुप में प्रकट हुए ;तब उनके पांच मुख थे। जो पांचों तत्व पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि तथा वायु के रूप थे। सर्वप्रथम जिस शब्द की उत्पत्ति हुई वह शब्द था --ॐ; बाकी पांच शब्द नम: शिवाय की उत्पत्ति उनके पांचों मुखों से हुई जिन्हें सृष्टि का सबसे पहला मंत्र माना जाता है ।इसी से अ इ उ ऋ लृ इन पांच मूलभूत स्वर तथा व्यंजन जो पांच वर्णों से पांच वर्ग वाले हैं; वे प्रकट हुए। त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य भी इसी शिरोमंत्र से हुआ इसी गायत्री से वेद और वेदों से करोड़ो मंत्रों का प्राकट्य हुआ।ॐ के तीन तत्व हैं अ, उ और म , जिन्हें वेद से लिया गया है।
4- यह तीन वर्ण परम ब्रह्म को दर्शाते हैं।ॐ मंत्र के उच्चारण के लाभ: ॐ का ओ; अ और उ से मिलकर बनता है।हिन्दू धर्म में विसर्ग वाले मंत्रो का ही प्रयोग किया जाता है..जैसे की ॐ गं गणपतये नम: ,ॐ नम: शिवाय:.क्रीं, हूं, ह्रीं ,स्वाहा: आदि।‘’तब हकार में अनायास सहजता को उपलब्ध होओ।‘’इसका प्रयोग करो। किसी भी समय यह प्रयोग कर सकते हो।बस या रेलगाड़ी में यात्रा कराते हुए, या अपने आफिस जाते हुए।जब भी तुम्हें समय मिले अल्लाह शब्द बड़ा काम का है—इस कारण नहीं कि वहां आसमान में कोई अल्लाह है। वरन इस अ: के कारण। यह शब्द सुंदर है।और जितना कही कोई, अल्लाह-अल्लाह कहता है ;उतना ही वह शब्द छोटा होता जाता है। अल्लाह से वह लाह हो जाता है। और फिर लाह से आह रह जाता है। यह अच्छा है। लेकिन तुम अ: से अंत होने वाले किसी भी शब्द को काम में ला सकते हो,केवल अ: से भी चलेगा।बच्चा सदा श्वास
छोड़ता है लेता नहीं। लेने का काम सदा शरीर करता है।
5-जब बच्चा जन्म लेता है तो वह जो पहला काम करता है वह रोना है। उसे रोने के साथ ही उसका कंठ खुलता है। रोने के
साथ ही वह पहल अ: बोलता है, उस रोने के साथ ही मां के द्वारा भीतर ली गई हवा बाहर निकल जाती है। वह उसकी पहल श्वास क्रिया है। श्वास क्रिया का आरंभ।बच्चा सदा श्वास छोड़ता है। और जब बच्चा श्वास लेने लगे, जब उसका जोर छोड़ने
से हटकर लेने पर चला जाए तो सावधान हो जाना; तब बच्चा बूढ़ा होने लगा। उसका अर्थ है कि बच्चे ने वह तुमसे सीखा है, वह तनावग्रस्त हो गया है।जब तुम तनाव ग्रस्त होते हो तो तुम गहरी श्वास नहीं ले सकते हो। क्योकि जब तुम तनाव में होते हो तो तुम्हारा पेट सख्त होता है। वह सख्ती श्वास को गहरे नहीं जाने देती। तब तुम उथली श्वास ही लेने लगते हो।
क्या अ: का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करना चाहिए?-
05 FACTS;-
1-तुमने देखा होगा कि जब भी तुम तनाव से भरते हो, तुम एक आह भरकर हलके हो जाते हो। या जब तुम खुशी से भरते हो... बहुत खुशी से, तब तुम अहा कहते हो और पूरी श्वास बाहर निकल जाती है। और तुम अपने भीतर एक अपूर्व शांति अनुभव करते हो। इसे प्रयोग करो। जब तुम खूब प्रसन्न हो तो श्वास अंदर लो और देखो कि क्या होता है। तुम स्वस्थ अनुभव नहीं करोगे। जितना 'अहा' कहने से करते हो। वह फर्क श्वास के कारण है।भाषाएं अलग-अलग है, लेकिन ये दो चीजें सभी
भाषाओं में समान हे। सारी धरती पर जहां भी कोई थकावट अनुभव करता है वह आह करता है। दरअसल वह मृत्यु को बुलाकर कहता है कि मुझे विश्राम दो। और जब वह आह्लादित होता है। आनंदित होता है, तब वह अहा कहता है। वह आनंद से इतना पूरित है कि वह मृत्यु से नहीं डरता। वह अपने को पूरी तरह छोड़ने को खोने को राज़ी है।
2-और अगर तुम इस विधि का निरंतर प्रयोग करते रहो तो उसके गहरे परिणाम होंगे। तब तुम्हारे भी जो सहज है, तुम उसके बोध से भर जाओगे। तब तुम अपनी सहजता को उपलब्ध हो जाओगे। तुम सहज ही हो, लेकिन तुम जीवन से इतने बंधे हो, ग्रस्त हो कि उसके पीछे खड़ी सहज सत्ता से अपरिचित रह जाते हो। लेकिन तब तुम जीवन से, आने वाली श्वास से ग्रस्त नही हो, तब वह सहज सत्ता प्रकट होती है। तब उसकी झलक मिलती है। और धीरे-धीरे वह झलक उपलब्धि में बदल जाती है।
तुम्हारी सिद्धि बन जाएगी।और तुमने उसे एक बार जान लिया तो फिर तुम उसे भुला नहीं सकोगे। वह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे तुम निर्मित करते हो। वह स्वाभाविक है, सहज है; उसे बनाना नहीं ,केवल अनावृत करना है। वह तो है ही, तुम भूल गए हो ;बस स्मरण करना है।
3-शरीर अपने विवेक से चलता है। वह उतना ही ग्रहण करता है जितना जरूरी है। जब उसे ज्यादा की जरूरत होती है तो वैसी स्थिति बना लेता है और कम की जरूरत होती है तो वैसी ही स्थिति बना लेता है। शरीर कभी अति पर नहीं जाता है। वह सदा संतुलित रहता है। जब तुम श्वास लेते हो तब वह संतुलित नहीं है। क्योंकि तुम्हें नहीं मालूम है कि शरीर की जरूरत क्या
है। और यह जरूरत क्षण-क्षण बदलती रहती है।इसलिए शरीर को मौका दो, तुम तो बस श्वास छोड़ने भर का काम करो, उसे बाहर फेंको। और तब शरीर खुद श्वास लेने का काम कर लेगा। और शरीर जब खुद श्वास अंदर लेता है तो वह धीरे-धीरे लेता है। और गहरे लेता है और पेट तक ले जाता है। वह श्वास ठीक नाभि-केंद्र पर चोट करती है। जिससे तुम्हारा पेट ऊपर नीचे होता है। और अगर श्वास लेने का काम भी तुम करोगे तो फिर समग्रता से श्वास छोड़ न सकोगे। तब श्वास भीतर बची रहेगी। और उपर से ली गई श्वास गहराई में न उतर सकेगी। इसीलिए श्वास क्रिया उथली हो जाती है। तुम श्वास भीतर लेते रहते हो और भीतर जहर इकट्ठा होता जाता है।
4- विज्ञान कहती है कि तुम्हारे फेफड़े में कई हजार छिद्र है। और उनमें से सिर्फ दो हजार छिद्रों तक ही श्वास पहुंच पाती है। बाकी चार हजार छिद्र तो सदा ज़हरीली गैस से भरे रहते है। जिन्हें सदा खाली करने की जरूरत है। वह जो तुम्हारी छाती का दो तिहाई हिस्सा जहर से भरा रहता है। वह तुम्हारे शरीर में मन में दुःख और चिंता और संताप लाता है।अ: का प्रयोग करो।
वह तुम्हारे चारो और एक सुंदर भाव निर्मित करता है। जब भी तुम थकावट महसूस करो, अ: कहकर श्वास को बाहर फेंको। और श्वास छोड़ने पर बल दो। तुम भिन्न ही व्यक्ति होगे और एक भिन्न ही मन विकसित होगा। श्वास लेने पर जोर देकर तुमने कंजूस मन और कंजूस शरीर विकसित किए है। श्वास छोड़ने पर बल देकर वह कंजूसी विदा हो जाएगी। और उसके साथ ही अन्य अनेक समस्याएं विदा हो जाएंगी। तब दूसरे पर मलकियत करने का भाव तिरोहित हो जायेगा।
5-तो तंत्र यह नहीं कहता है कि मलकियत का भाव छोड़ो, तंत्र कहता है कि अपने श्वास-प्रश्वास का ढंग बदल दो और मलकियत अपने आप छूट जायेगी। तुम अपनी श्वास को देखो, अपने भावों को देखो और तुम्हें बोध हो जाएगा। जो भी गलत है वह भीतर जाने वाली श्वास को महत्व देने के कारण है और जो भी शुभ और सत्य है ; शिव और सुंदर है ; वह बाहर जाने
वाली श्वास के साथ संबंधित है।जब तुम झूठ बोलते हो, तुम अपनी श्वास को रोक रखते हो, और जब सच बोलते हो तो श्वास को कभी नहीं रोकते। झूठ बोलते समय तुम्हें डर लगता है और उस डर के कारण तुम श्वास को रोक रखते हो। तुम्हें यह डर भी होता है कि बाहर जाने वाली श्वास के साथ कही छिपाया गया सत्य भी प्रकट न हो जाये।इस अ: का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग
करो और तुम शरीर और मन से ज्यादा स्वस्थ रहोगे। और तुम्हें एक विशेष ढंग की शांति और विश्राम का अनुभव होगा।
......SHIVOHAM.....