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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 74,75वीं, (प्रकाश-संबंधी छह विधियां ) विधियां क्या है?


NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...

विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 74 ;-

09 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है:-—

‘हे शक्‍ति, समस्‍त तेजोमय अंतरिक्ष मेरे सिर में ही समाहित है, ऐसा भाव करो।’

2-जब इस प्रयोग को करो तोअपनी आंखें बंद कर लो और भाव करो कि सारा अंतरिक्ष मेरे सिर में ही समाहित है।आरंभ में यह कठिन होगा। यह विधि उच्‍चतर विधियों में से एक है। इसलिए इसे एक-एक कदम समझना अच्‍छा होगा। यदि इस विधि को प्रयोग में लाना चाहते हो तो एक-एक कदम ,क्रम से चलो।पहला चरण... सोते समय, जब तुम सोने जाओ तो विस्‍तर पर लेट जाओ। और आंखे बंद कर लो और महसूस करो कि तुम्‍हारे पाँव कहां है, अगर तुम छह फिट लंबे हो या पाँच फीट हो, बस यह महसूस करो कि तुम्‍हारे पाँव कहां है, उनकी सीमा क्‍या है। और फिर भाव करो कि मेरी लंबाई छह इंच बढ़ गई है। मैं छह इंच और लंबा हो गया हूं। आंखें बंद किए बस यह भाव करो। कल्‍पना में महसूस करो कि मेरी लंबाई छह इंच बढ़ गई है।

3-फिर दूसरा चरण... अपने सिर को अनुभव करो कि वह कहां है। भीतर-भीतर अनुभव करो कि वह कहां है और फिर भाव करो कि सिर भी छह इंच बड़ा हो गया है। अगर तुम इतना कर सके तो बात बहुत आसान हो जाएगी। फिर उसे और भी बड़ा किया जा सकता है। भाव करो कि तुम बारह फीट हो गए हो। और तुम पूरे कमरे में फैल गए हो। अब तुम अपनी कल्‍पना में दीवारों को छू रहे हो; तुमने पूरे कमरे को भर दिया है।और एक बार तुमने भाव करना जान लिया तो ये बहुत आसान है।अगर तुम छह इंच बढ़ सकते हो तो कितना भी बढ़ सकते हो। अगर तुम भाव कर सके कि मैं बारह फीट लंबा हूं तो फिर कुछ भी कठिन नहीं है।अंत में तीसरा चरण... और तब क्रमश: भाव करो कि मैं आकाश हो गया हुं। तुम इतने फैल गये हो कि पूरा मकान तुम्‍हारे अंदर आ गया है। तब यह विधि बहुत ही आसान है।

4-पहले तीन दिन लंबे होने का भाव करो और फिर तीन दिन भाव करो कि मैं इतना बड़ा हो गया हूं कि कमरे में भर गया हूं। यह केवल कल्‍पना का प्रशिक्षण है। फिर और तीन दिन यह भाव करो कि मैंने फैलकर पूरे घर को घेर लिया है। फिर तीन दिन भाव करो कि मैं आकाश हो गया हुं। तब यह विधि बहुत ही आसान हो जाएगी।‘हे शक्‍ति, समस्‍त तेजोमय अंतरिक्ष मेरे सिर में ही समाहित है, ऐसा भाव करो।’तब तुम आंखें बंद करके अनुभव कर सकते हो कि सारा आकाश, सारा अंतरिक्ष तुम्‍हारे सिर में समाहित है। और जिस क्षण तुम्‍हें यह अनुभव होगा, मन विलीन होने लगेगा। क्‍योंकि मन बहुत क्षुद्रता में जीता है। आकाश जैसे विस्‍तार में मन नहीं टिक सकता; वह खो जाता है। इस महाविस्‍तार में मन असंभव है। मन क्षुद्र और सीमित में ही हो सकता है। इतने विराट आकाश में मन को जीने के लिए कही जगह नहीं मिलती है।यह विधि सुंदरतम विधियों में से एक है।मन अचानक बिखर जाता है और आकाश प्रकट हो जाता है। तीन महीने के भीतर यह अनुभव संभव है और तब तुम्‍हारा संपूर्ण जीवन रूपांतरित हो जाएगा।

5-लेकिन एक-एक कदम चलना होगा। क्‍योंकि कभी-कभी इस विधि से लोग विक्षिप्‍त भी हो जाते है। अपना संतुलन खो देते है। यह प्रयोग और इसका प्रभाव बहुत विराट है। अगर अचानक यह विराट आकाश तुम पर टूट पड़े और तुम्‍हें बोध हो कि तुम्‍हारे सिर में समस्‍त अंतरिक्ष समाहित हो गया है और तुम्‍हारे सिर में चाँद-तारे और पूरा ब्रह्मांड घूम रहा है। तो तुम्‍हारा सिर चकराने लगेगा। इसलिए अनेक परंपराओं में इस विधि के प्रयोग में बहुत सावधानियां बरती जाती है।इस सदी में एक संत, स्वामी राम तीर्थ ने इस विधि का प्रयोग किया था। और अनेक लोगों को, जो जानते है, संदेह है कि इसी विधि के कारण उन्‍होंने आत्‍मघात कर लिया।स्वामी राम तीर्थ के लिए आत्‍मघात नहीं था। क्‍योंकि उसने जान लिया था कि सारा अंतरिक्ष उसमें समाहित है। उनके लिए आत्‍मघात असंभव है ..वह आत्‍मघात नहीं कर सकते थे। वहां कोई आत्‍मघात करने वाला ही नहीं बचा। लेकिन दूसरों के लिए, जो बाहर से देख रहे थे, यह आत्‍मघात है।

6-स्वामी राम तीर्थ को ऐसा अनुभव होने लगा कि सारा ब्रह्मांड उनके भीतर, उनके सिर के भीतर घूम रहा है। उनके शिष्‍यों ने पहले तो सोचा कि वे काव्‍य की भाषा में बोल रहे है। लेकिन फिर उन्‍हें लगने लगा कि वे पागल हो गये है। क्‍योंकि उन्‍होंने दावा करना शुरू कर दिया कि मैं ब्रह्मांड हूं और सब कुछ मेरे भीतर है। और फिर एक दिन वे एक पहाड़ की चोटी से नदी में

कूद गये।स्वामी राम तीर्थ ने नदी में कूदने के पहले एक सुंदर कविता लिखी। जिसमें उन्‍होंने कहा है: ‘मैं ब्रह्मांड हो गया हूं,अब मेरा शरीर भार हो गया है, इस शरीर को मैं अब अनावश्‍यक मानता हूं। इसलिए मैं इसे वापस करता हूं। अब मुझे किसी सीमा की जरूरत नहीं है। मैं निस्‍सीम ब्रह्म हो गया हूं।’मनोचिकित्‍सक तो सोचते है कि वे विक्षिप्‍त हो गए। वह पागल हो गए। लेकिन जिन्‍हें मनुष्‍य चेतना के गहन आयामों का पता है, वे कहते है कि मुक्‍त हो गये। लेकिन सामान्‍य चित के लिए यह आत्‍मघात है।तो ऐसी विधि से खतरा हो सकता है। इस कारण उनकी तरफ क्रमश: बढ़ो, धीरे-धीरे चलो।तुम्‍हें इसका पता नहीं है, अपनी संभावनाओं का ज्ञान नहीं है..अत: कुछ भी संभव है और सावधानीपूर्वक इस प्रयोग को करने की जरूरत है।

7-पहले छोटी-छोटी चीजों पर अपनी कल्‍पना का प्रयोग करो। भाव करो कि शरीर बड़ा हो गया है। छोटा हो रहा है। तुम दोनों तरफ जा सकते हो। तुम यदि पाँच फीट छह इंच के हो तो भाव करो कि चार फीट का हो गया हूं , तीन फीट का हो गया हूं ….दो फीट का हो गया हूं… एक फीट का हो गया हूं….एक बिंदू मात्र रह गया हूं।यह तैयारी भर है, इस बात की तैयारी है कि धीरे-धीरे तुम जो भी भाव करना चाहों वह कर सकते हो। तुम्‍हारा आंतरिक चित भाव करने के लिए बिलकुल स्‍वतंत्र है। उसे कुछ भी भाव करने में कोई बाधा नहीं है। यह तुम्‍हारा भाव है, तुम चाहों तो फैल कर बड़े हो सकते हो और चाहो तो सिकुड़कर छोटे हो सकते हो। और तुम्‍हें वैसा बोध भी होने लगेगा।और अगर तुम इस प्रयोग को ठीक से करो तो तुम बहुत आसानी से अपने शरीर से बाहर आ सकते हो। अगर तुम कल्‍पना से शरीर को छोटा-बड़ा कर सकते हो ;तो तुम शरीर से बाहर आने में समर्थ हो। तुम सिर्फ कल्‍पना करो कि मैं अपने शरीर के बाहर खड़ा हूं, और तुम बाहर खड़े हो जाओगे।

8-लेकिन यह इतनी जल्‍दी नहीं होगा। पहले छोटे-छोटे चरणों में प्रयोग करने होगें। और जब तुम्हें लगे कि तुम शांत रहते हो, घबराते नही हो, तब भाव करो कि तुम पूरे कमरे में फैल गए हो। और तुम वास्‍तव में दीवारों का स्‍पर्श अनुभव करने लगोगे।

और तब भाव करो कि पूरा मकान तुम्‍हारे भीतर समा गया है। और तुम उसे अपने भीतर अनुभव कर रहे हो। इस भांति एक-एक कदम आगे बढ़ो। और तब, धीरे-धीरे आकाश को अपने सिर के भीतर अनुभव करो। और जब तुम आकाश को अपने भीतर अनुभव करते हो। तो तुम आकाश को अपने साथ महसूस करते हो, उसके साथ एक हो जाते हो।तब मन एक दम विदा हो जाता है। अब वहां उसका कोई काम नहीं है।इस विधि को किसी गुरु या मित्र के साथ रह कर करना अच्‍छा होगा। अकेले में प्रयोग करना खतरनाक भी हो सकता हे। तुम्‍हारे पास कोई होना चाहिए। जो तुम्‍हारी देखभाल कर सके। यह समूह विधि है। गुरूकुल या आश्रम में प्रयोग करने की विधि है। किसी आश्रम में जहां अनेक लोग मिलकर काम करते हों। वहां इस विधि का प्रयोग आसान है। कम खतरनाक और कम हानिकारक है।

9-क्‍योंकि जब भीतर का आकाश विस्‍फोटित होता है तो संभव है कि कई दिनों तक तुम्‍हें अपने शरीर की सुध ही न रहे। तुम भाव में इतने आविष्‍ट हो जाओगे कि तुम्‍हारा बाहर आना ही संभव न हो। क्‍योंकि उस विस्‍फोट के साथ 'समय' विलीन हो जाता है। तो तुम्‍हें पता ही नहीं चलेगा कि कितना समय व्‍यतीत हो गया है। शरीर का पता ही नहीं चलेगा। शरीर का बोध ही नहीं रहता।वास्तव में, तुम तो आकाश ही हो जाते हो।तो कोई चाहिए जो तुम्‍हारे शरीर की देखभाल करे।बहुत ही प्रेमपूर्ण देखभाल की जरूरत होगी। समूह भी ऐसा होना चाहिए, जो जानता हो कि इस विधि में क्‍या-क्‍या संभव है, क्‍या-क्‍या घटित हो सकता है और तब क्‍या किया जा सकता है।क्‍योंकि मन की इस अवस्‍था में अगर तुम्‍हें अचानक जगा दिया जाए तो तुम विक्षिप्‍त भी हो सकते हो। क्‍योंकि मन को वापस आने के लिए समय की जरूरत होती है।अगर झटके से तुम्‍हें शरीर में वापस आना पड़े तो संभव है कि तुम्‍हारा स्‍नायु संस्‍थान उसे बर्दाश्‍त न कर सके। उसे कोई अभ्‍यास नहीं है। उसे प्रशिक्षित करना होगा।तो अकेले प्रयोग न करें;समूह में या मित्रों के साथ एकांत जगह में यह प्रयोग कर सकते है। और धीरे-धीरे, एक-एक कदम बढ़े, जल्‍दबाजी न करे।

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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 75 ;-

10 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है:-—

‘जागते हुए सोते हुए, स्‍वप्‍न देखते हुए, अपने को प्रकाश समझो।’

2-पहले जागरण से शुरू करो। योग ओर तंत्र.. मनुष्‍य के मन के जीवन को तीन भागों में बाँटता है। वे मन को तीन भागों में बांटते है: जाग्रत,सुषुप्‍ति और स्‍वप्‍न। ये तुम्‍हारी चेतना के नहीं,बल्कि तुम्‍हारे मन के भाग है।चेतना चौथी है—तुरीय।इसे कोई नाम नहीं दिया गया है ... सिर्फ तुरीय या चतुर्थ कहा गया है। तीन के नाम है। वे बादल है जिनके नाम हो सकते है। कोई जागता हुआ बादल है, कोई सोया हुआ बादल है तो कोई स्‍वप्‍न देखता हुआ बादल है। और जिस आकाश में वह घूमते है, वह अनाम है, उसे मात्र तुरीय कहा जाता है।मनोविज्ञान अभी स्‍वप्‍न के आयाम से परिचित हो रहा है।मनोवैज्ञानिक फ्रायड के साथ 'स्‍वप्‍न' अत्यन्त महत्‍वपूर्ण हुआ। लेकिन हिंदुओं के लिए यह अत्‍यंत प्राचीन धारणा है। तुम तब तक किसी मनुष्‍य को सच में नहीं जान सकते ;जब तक तुम यह नहीं जानते कि वह अपने स्‍वप्‍नों में क्‍या करता है। क्‍योंकि वह जागते समय में जो भी करता है वह अभिनय हो सकता है ,झूठ हो सकता है। वह जो करता है, बहुत मजबूरी में करता है;वह स्‍वतंत्र नहीं है।समाज है, नियम है, नैतिक व्‍यवस्‍था है।

3-वह निरंतर अपनी कामनाओं के साथ संघर्ष करता है, उनका दमन करता है ;उनमें हेर-फेर करता है और समाज के ढांचे के अनुरूप उन्‍हें बदलता है। समाज तुम्‍हें कभी तुम्‍हारी समग्रता में स्‍वीकार नहीं करता है। वह चुनाव करता है, काट-छांट करता है।संस्‍कृति का यही अर्थ है; संस्‍कृति चुनाव है। प्रत्‍येक संस्‍कृति एक संस्‍कार है। कुछ चीजें स्‍वीकृत है और कुछ चीजें अस्‍वीकृत है। कहीं भी तुम्‍हारे समग्र अस्‍तित्‍व को, तुम्‍हारी निजता को स्‍वीकृति नहीं दी जाती है। तो जाग्रत अवस्‍था में तुम प्रामाणिक या सहज नहीं हो सकते, अभिनेता भर हो सकते हो। तुम अंत:प्रेरणा से नहीं चलते, बाहर से धकाए जाते हो।केवल अपने स्‍वप्‍नों में तुम प्रामाणिक हो सकते हो।वहां तुम अकेले हो और तुम्‍हारे सिवाय कोई भी उसमें प्रवेश नहीं कर सकता है। कोई भी तुम्‍हारे स्‍वप्‍नों में नहीं झांक सकता है।और किसी को इसकी चिंता भी नहीं है।इससे किसी को क्‍या लेना-देना।क्‍योंकि सपने बिलकुल निजी है और उनका किसी से कोई लेना देना नहीं है ; इसलिए तुम स्‍वतंत्र हो सकते हो।तो जब तक तुम्‍हारे सपनों को नहीं जाना जाता, तुम्‍हारे असली चेहरे से भी परिचित नहीं हुआ जा सकता है। हिंदुओं को इसका बोध था कि सपनों में प्रवेश करना अनिवार्य है। लेकिन सपने भी बादल ही है। यद्यपि ये बादल निजी है, कुछ स्‍वतंत्र है; फिर भी वे है तो बादल ही .. उनके भी पार जाना है।

4-ये तीन अवस्‍थाएं है: जाग्रत सुषुप्‍ति और स्‍वप्‍न। मनोवैज्ञानिक फ्रायड के साथ सपनों पर काम शुरू हुआ। अब सुषुप्‍ति पर, गहरी नींद पर काम होने लगा है। पश्‍चिम में अनेक प्रयोगशालाओं में यह जानने के लिए काम हो रहा है कि नींद क्‍या है। क्‍योंकि यह बहुत आश्‍चर्य की बात लगती है कि हमें यह भी नहीं पता कि नींद क्‍या है?और नींद में यथार्थत: क्‍या घटित होता है। यह अभी वैज्ञानिक ढंग से नहीं जाना गया है।और अगर हम नींद को नहीं जान सकते तो मनुष्‍य को जानना बहुत कठिन होगा। क्‍योंकि मनुष्‍य अपने जिंदगी का एक तिहाई हिस्‍सा नींद में गुजारता है। जीवन का एक तिहाई हिस्‍सा, अथार्त अगर तुम साठ साल जीने वाले हो तो बीस साल तुम सोकर गुज़ारते हो। जागरण की अवस्‍था में तुम समाज के साथ होते हो। स्‍वप्‍न की अवस्‍था में तुम अपनी कामनाओं के साथ होते हो। और गहरी नींद में तुम प्रकृति के साथ होते हो। प्रकृति के गहन गर्भ में होते हो। योग और तंत्र का कहना है कि इन तीनों के पार जाने पर ही तुम ब्रह्म में प्रवेश कर सकते हो। इन तीनों से गुजरना होगा।

5-इनके पार जाना होगा, इनका अतिक्रमण करना होगा। मनोविज्ञान इन अवस्‍थाओं के अध्‍ययन में उत्‍सुक हो रहा है। पूर्व के साधक इन अवस्‍थाओं में उत्‍सुक थे लेकिन इनके अध्‍ययन में नहीं। वे इसमे उत्‍सुक थे कि कैसे इनका अतिक्रमण किया जाए। यह विधि अतिक्रमण की विधि है।‘जागते हुए, सोते हुए,स्‍वप्‍न देखते हुए, अपने को प्रकाश समझो।’यह बहुत कठिन है।तुम्हे जागरण से शुरू करना होगा। तुम स्‍वप्‍नों को कैसे स्‍मरण रख सकते हो? क्‍या तुम सचेतन रूप से कोई स्‍वप्‍न पैदा कर सकते हो? क्‍या तुम स्‍वप्‍न को व्‍यवस्‍था दे सकते हो। उसमें हेर-फेर कर सकते हो?वास्तव में, तुम अपने स्‍वप्‍न भी नहीं निर्मित कर सकते हो। वे भी अपने आप आते है; तुम बिलकुल असहाय हो।लेकिन कुछ विधियां है जिनके द्वारा स्‍वप्‍न निर्मित किए जा सकते है। और ये विधियां अतिक्रमण करने में बहुत सहयोगी है। क्‍योंकि अगर तुम स्‍वप्‍न निर्मित कर सकते हो तो तुम उसका अतिक्रमण भी कर सकते हो। लेकिन आरंभ तो जाग्रत अवस्‍था से ही करना होगा।

6-जागते समय ..चलते समय, खाते समय,काम करते समय ;अपने को प्रकाश रूप में स्‍मरण रखो। मानो तुम्‍हारा ह्रदय में एक ज्‍योति जल रही है और तुम्‍हारा शरीर उस ज्‍योति का प्रभामंडल भर है। कल्‍पना करो कि तुम्‍हारे ह्रदय में एक लपट जल रही है। और तुम्‍हारा शरीर उस लपट के चारों ओर प्रभामंडल के अतिरिक्‍त कुछ नहीं है; तुम्‍हारा शरीर उस लपट के चारों ओर फैला हुआ प्रकाश है। इस कल्‍पना को, इस भाव को अपने मन ओर चेतना की गहराई में उतरने दो। इसे आत्‍मसात करो।

थोड़ा समय लगेगा। लेकिन यदि तुम यह स्‍मरण करते रहे,कल्‍पना करते रहे,तो धीरे-धीरे तुम इसे पूरे दिन स्‍मरण रखने में समर्थ हो जाओगे। जागते हुए, सड़क पर चलते हुए, तुम एक चलती फिरती ज्‍योति हो जाओगे। शुरू-शुरू में किसी दूसरे को इसका बोध नहीं होगा; लेकिन अगर तुमने यह स्‍मरण जारी रखा तो तीन महीनों में दूसरों को भी इसका बोध होने लगेगा।

और जब दूसरों को आभास होने लगे तो तुम निश्‍चिंत हो सकते हो। किसी से कहना नहीं है। सिर्फ ज्‍योति का स्‍मरण करना है। और भाव करना है कि तुम्‍हारा शरीर उसके चारों और फैला प्रभामंडल है।

7-यह स्‍थूल शरीर नहीं है ...विद्युत शरीर है ,प्रकाश शरीर है। अगर तुम धैर्य पूर्वक लगे रहे तो करीब तीन महीनों में दूसरों को बोध होने लगेगा कि तुम्‍हें कुछ घटित हो रहा है । वे तुम्‍हारे चारों और एक सूक्ष्म प्रकाश महसूस करेंगें। जब तुम निकट जाओगे,उन्‍हें एक तरह की अलग उष्‍मा महसूस होगी। तुम यदि उन्‍हें स्‍पर्श करोगे तो उन्‍हें उष्‍मा स्‍पर्श महसूस होगी। उन्‍हें पता चल जायेगा कि तुम्‍हें कुछ अद्भुत घटित हो रहा है। पर किसी से कहो मत और जब दूसरों को पता चलने लगे तो तुम आश्‍वस्‍त हो सकते हो। और तब तुम दूसरे चरण में प्रवेश कर सकते हो। उसके पहले नहीं।दूसरे चरण में इस विधि को स्‍वप्‍नावस्‍था में ले चलना है। अब तुम स्‍वप्‍न जगत में इसका प्रयोग शुरू कर सकते हो। यह अब यथार्थ है।अब यह कल्‍पना नहीं है। कल्‍पना के द्वारा तुम ने सत्‍य को उघाड़ लिया है। यह सत्‍य है। सब कुछ प्रकाश से बना है। सब कुछ प्रकाश मय है। तुम प्रकाश हो; हालांकि तुम्‍हें इसका बोध नहीं है। क्‍योंकि पदार्थ का कण-कण प्रकाश है। वैज्ञानिक कहते है कि पदार्थ इलेक्ट्रॉन से बना है । वह वही बात है। प्रकाश ही सब का स्‍त्रोत है। तुम भी घनीभूत प्रकाश हो। कल्‍पना के जरिए तुम सिर्फ सत्‍य को प्रकट कर रहे हो। इस सत्‍य को आत्‍मसात करो। और तब तुम दूसरे चरण में अथार्त स्‍वप्‍न में ले जा सकते हो। उसके पहले नही।

8-तो नींद में उतरते हुए ज्‍योति को स्‍मरण करते रहो। देखते रहो, भाव करते रहो कि मैं प्रकाश हूं। और इसी स्‍मरण के साथ नींद की ओर उतर जाओ, और नींद में भी यही स्‍मरण जारी रहता है। आरंभ में कुछ ही स्‍वप्‍न ऐसे होंगे जिनमें तुम्‍हें भाव होगा कि तुम्‍हारे भीतर ज्‍योति है ; कि तुम प्रकाश हो। पर धीरे-धीरे स्‍वप्‍न में भी तुम्‍हें यह भाव बना रहने लगेगा।और जब यह

भाव स्‍वप्‍न में प्रवेश कर जाएगा। सपने विलीन होने लगेंगे। सपने खोने लगेंगे। सपने कम से कम होने लगेंगे। और गहरी नींद की मात्रा बढ़ने लगेगी। और जब तुम्‍हारी स्‍वप्‍नावस्‍था में यह सत्‍य प्रकट हो कि तुम प्रकाश हो, ज्‍योति हो प्रज्‍वलित ज्‍योति हो, तब स्‍वप्‍न विदा हो जायेंगे।और जब स्‍वप्‍न विदा हो जाते है, तभी इस भाव को सुषुप्‍ति में गहन नींद में लाया जा सकता है। उसके पहले नहीं। अब तुम द्वार पर हो। जब सपने विदा हो गए है और तुम अपने को ज्‍योति की भांति स्‍मरण रखते हो तो तुम नींद के द्वार पर हो। अब तुम इस भाव के साथ नींद में प्रवेश कर सकते हो। और यदि तुम एक बार नींद में इस भाव के साथ उतर गये। कि मैं ज्‍योति हूं तो तुम्‍हें नींद में भी बोध बना रहेगा। और अब नींद केवल तुम्‍हारे शरीर को घटित होगी। तुम्‍हें नहीं।

9-श्रीकृष्‍ण गीता में यही कहते है कि योगी कभी नहीं सोते; जब दूसरे सोते है तब भी वे जागते है। ऐसा नहीं है कि उनके शरीर को नींद नही आती। उनके शरीर तो सोते है। लेकिन केवल शरीर ही। शरीर को विश्राम की जरूरत है। चेतना को विश्राम की कोई जरूरत नहीं है। क्‍योंकि शरीर यंत्र है। चेतना यंत्र नहीं है। शरीर को ईंधन चाहिए। उसे विश्राम चाहिए। यही कारण है कि शरीर जन्‍म लेता है, युवा होता है, वृद्ध होता है और मर जाता है। चेतना न कभी जन्‍म लेती है, न कभी बूढी होती है,और न कभी मरती है। उसे न ईंधन की जरूरत है और न विश्राम की। यह शुद्ध ऊर्जा है; नित्‍य-शाश्‍वत ऊर्जा।अगर तुम इस ज्‍योति के, प्रकाश के बिंब को नींद के भीतर ले जा सके तो तुम फिर कभी नहीं सोओगे। सिर्फ तुम्‍हारा शरीर विश्राम करेगा। और जब शरीर सोया है तो तुम यह जानते रहोगे। और जैसे ही यह घटित होता है ..तुम तुरीय हो, चतुर्थ हो। स्‍वप्‍न और सुषुप्‍ति मन के अंश है। वे अंश है और तुम तुरीय हो गए हो ,चतुर्थ हो गए हो। तुरीय वह है जो उनमें से गुजरता है, लेकिन उनमें से कोई भी नहीं है।

10-वस्‍तुत: यह बिलकुल सरल है। अगर तुम जाग्रत हो और फिर तुम स्‍वप्‍न देखने लगते हो तो ...तुम दोनों नहीं हो सकते। अगर तुम जाग्रति अवस्‍था में हो तो तुम स्‍वप्‍न नहीं देख सकते। और अगर तुम स्‍वप्‍न हो तो तुम सुषुप्ति में कैसे उतर सकते हो, जहां कोई सपने नहीं होते?तुम एक यात्रा हो और ये अवस्‍थाएं पड़ाव है ...तभी तुम यहां से वहां जा सकते हो और फिर वापस आ सकते हो।सुबह तुम फिर जाग्रत अवस्‍था में वापस आ जाओगे। ये अवस्‍थाएं है; और जो इन अवस्‍थाओं से गुजरता है वह तुम हो। लेकिन वह तुम चतुर्थ हो। और इसी चतुर्थ को आत्‍मा कहते है।यही अमृत तत्‍व है, शाश्‍वत जीवन है।जागते हुए,सोते हुए,स्‍वप्‍न देखते हुए, अपने को प्रकाश समझो।यह बहुत सुंदर विधि है।लेकिन जाग्रत अवस्‍था से आरंभ करो। और स्‍मरण रहे कि जब दूसरों को इसका बोध होने लगे; तभी तुम सफल हुए। उन्‍हें बोध होगा और तब तुम स्‍वप्‍न में और फिर निद्रा में प्रवेश कर सकते हो।और अंत में तुम उसके प्रति जागोगे जो तुम हो ..''तुरीय''।

...SHIVOHAM....


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