विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 79,80 वीं (अग्नि-संबंधी दो विधियां )विधियां क्या है?
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 79 ;-
14 FACTS;-
(अग्नि- संबंधी पहली विधि)
1-भगवान शिव कहते है:-
'‘भाव करो कि एक आग तुम्हारे पाँव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरीर में ऊपर उठ रही है। और अंतत: शरीर जलकर राख हो जाता है। लेकिन तुम नहीं।’'
2-यह बहुत सरल विधि है और बहुत अद्भुत है, प्रयोग करने में भी सरल है। लेकिन पहले कुछ बुनियादी जरूरतें पूरी करनी होती है।गौतम बुद्ध को यह विधि बहुत प्रीतिकर थी और वे अपने शिष्यों को इस विधि में दीक्षित करते थे। जब भी कोई व्यक्ति गौतम बुद्ध से दीक्षित होता था तो वे उससे पहली बात यही कहते थे; कि मरघट चले जाओ और वहां किसी जलती चिता को देखो।जलते हुए मरघट में बैठकर देखना था ;तो साधक गांव के मरघट में चला जाता था और तीन महीने तक दिन-रात वही रहता था।जब भी कोई मुर्दा आता,तो साधक बैठकर उस पर ध्यान करता था। वह पहले शव को देखता; फिर आग जलाई जाती और शरीर जलने लगता और वह देखता रहता। तीन महीने तक वह इसके सिवाय कुछ और नहीं करता। वह मुर्दों को जलते देखता रहता।गौतम बुद्ध कहते थे, ‘उसके संबंध में विचार मत करना, उसे बस देखना।’और यह कठिन है कि साधक के मन में यह विचार न उठे कि देर-अबेर मेरा शरीर भी जला दिया जायेगा... तीन महीने लंबा समय है। और साधक को रात दिन निरंतर जब भी कोई चिता जलती, उस पर ध्यान करना था। देर अबेर उसे दिखाई देने लगता कि चिता पर मेरा शरीर ही जल रहा है... चिता पर मैं ही जलाया जा रहा हूं।
3-लोग अपने सगे-संबंधियों को जलाने ले जाते है। लेकिन वे कभी उस घटना को नहीं देखते है। वे दूसरी चीजों के संबंध में या मृत्यु के संबंध में ही बातचीत करने लगते है। वे विवाद करते है ,विवेचन करते है, वे बहुत कुछ करते है, गपशप करते है, लेकिन वे कभी दाह-संस्कार क्रिया का निरीक्षण नहीं करते है। इसे तो ध्यान बना लेना चाहिए। वहां बातचीत की इजाजत नहीं होनी चाहिए। अपने किसी प्रिय को जलते हुए देखना दुर्लभ अनुभव है। वहां तुम्हें यह भाव अवश्य उठेगा कि मैं जल रहा हूं। अगर तुम अपनी मां को जलते हुए देख रहे हो, या पिता को, या पत्नी को, या पति को, तो यह असंभव है कि तुम अपने को भी उस चिता में जलते हुए न देखो।यह अनुभव इस विधि के लिए सहयोगी होगा ...यह है पहली बात।दूसरी बात कि अगर तुम मृत्यु से बहुत भयभीत हो तो तुम इस विधि का प्रयोग नहीं कर सकोगे। क्योंकि यह भय ही अवरोध बन जाएगा। तुम उसमें प्रवेश न कर सकोगे। या तुम ऊपर-ऊपर कल्पना करते रहोगे। मगर तुम अपने गहन प्राणों से उसमें प्रवेश नहीं करोगे।तब तुम्हें कुछ भी नहीं होगा। तो यह दूसरी बात स्मरण रहे कि तुम चाहे भयभीत हो या नहीं हो, मृत्यु निश्चित है। केवल मृत्यु निश्चित है। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम भयभीत हो या नहीं; यह अप्रासंगिक है।
4-जीवन में मृत्यु के अतिरिक्त कुछ भी निश्चित नहीं है। सब कुछ अनिश्चित है। केवल मृत्यु निश्चित है। सब कुछ सांयोगिक है ..हो सकता है या नहीं भी हो सकता है। लेकिन मृत्यु सांयोगिक नहीं है।लेकिन मनुष्य के मन को देखो । हम सदा मृत्यु की चर्चा इस भांति करते है मानों वह दुर्घटना हो। जब भी किसी की मृत्यु होती है, हम कहते है कि वह असमय मर गया। जब भी कोई मरता है तो हम इस तरह की बातें करने लगते है। मानों यह कोई अनहोनी घटना है। सिर्फ मृत्यु अनहोनी नहीं है। सिर्फ मृत्यु सुनिश्चित है। बाकी सब कुछ सांयोगिक है। मृत्यु बिलकुल निश्चित है।तुम्हें मरना है ...और जब ये कहा जाता कि तुम्हें मरना है तो ऐसा लगता है कि यह मरना कहीं भविष्य में है, बहुत दूर है। ऐसी बात नहीं है। तुम मर ही चुके हो। जिस क्षण तुम पैदा हुए, तुम मर चुके। जन्म के साथ ही मृत्यु निश्चित है। उसका एक छोर, जन्म का छोर घटित हो चुका है। अब दूसरे छोर को, मृत्यु के छोर को घटित होना है। इसलिए तुम मर चुके हो, या आधे मर चुके हो। क्योंकि जन्म लेने के साथ ही तुम मृत्यु के घेरे में आ गए, दाखिल हो गए। अब कुछ भी उसे नहीं बदल सकता है।
5-और दूसरी बात कि मृत्यु अंत में नहीं घटेगी, वह घट ही रही है।जैसे जीवन प्रक्रिया है, वैसे ही मृत्यु भी प्रक्रिया है। द्वैत हम निर्मित करते है। लेकिन जीवन और मृत्यु ठीक तुम्हारे दो पाँवों की तरह है। जीवन और मृत्यु दोनों एक प्रक्रिया है। तुम प्रतिक्षण मर रहे हो। जब तुम श्वास भीतर ले जाते हो तो वह जीवन है; और जब तुम श्वास बाहर निकालते हो तो वह मृत्यु है। बच्चा जन्म लेने पर पहला काम करता है कि वह श्वास भीतर ले जाता है। उसका पहला काम श्वास लेना है।बच्चा पहले श्वास छोड़ नही सकता क्योंकि उसके सीने में हवा नहीं है। और मरता हुआ बूढ़ा आदमी अंतिम कृत्य करता है कि वह श्वास छोड़ता है। मरते हुए तुम श्वास ले नहीं सकते। या कि ले सकते हो ...जब तुम मर रहे हो तो तुम्हे श्वास छोड़ना ही होगा। पहला काम श्वास लेना है और अंतिम काम श्वास छोड़ना है। श्वास लेना जीवन और श्वास छोड़ना मृत्यु है। प्रत्येक क्षण तुम यही काम कर रहे हो।तुमने शायद यह निरीक्षण न किया हो, लेकिन यह निरीक्षण करने जैसा है।
6-जब भी तुम श्वास छोड़ते हो, तुम शांत अनुभव करते हो। लंबी श्वास बाहर फेंको और तुम्हें अपने भीतर एक शांति का अनुभव होगा। और जब भी तुम श्वास भीतर लेते हो ;तो तुम बेचैन , तनावग्रस्त हो जाते हो। भीतर जाती श्वास की तीव्रता ही तनाव पैदा करती है।और सामान्यत: हम सदा श्वास लेने पर जोर देते है। अगर तुमसे कहा जाये कि गहरी श्वास छोड़ो ; तो तुम सदा श्वास लेने से शुरू करोगे। सच तो यह है कि हम श्वास छोड़ने से डरते है। यही कारण है कि हमारी श्वास इतनी उथली हो गई है।तुम कभी श्वास छोड़ते नहीं, तुम श्वास लेते हो। सिर्फ तुम्हारा शरीर श्वास छोड़ने का काम करता है। क्योंकि शरीर सिर्फ श्वास लेने से ही जीवित नही रह सकता।एक प्रयोग करो। पूरे दिन जब भी तुम्हें स्मरण रहे... श्वास छोड़ने पर ध्यान दो। श्वास बाहर फेंको। और तुम श्वास भीतर मत लो। श्वास लेने का काम शरीर पर छोड़ दो; तुम केवल श्वास छोड़ते जाओ। लंबी और गहरी श्वास और तब तुम्हें एक गहन शांति का अनुभव होगा; क्योंकि मृत्यु मौन है, मृत्यु शांति है।
7-अगर तुम श्वास छोड़ने पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान दे सके, तो तुम अहंकार रहित अनुभव करोगे। श्वास लेने से तुम ज्यादा अहंकारी अनुभव करोगे। और श्वास छोड़ने से ज्यादा अहंकार रहित। तो पूरे दिन जब भी याद आए, गहरी श्वास बाहर फेंको ..लो मत, श्वास लेने का काम शरीर को करने दो; तुम कुछ मत करो।श्वास छोड़ने पर यह जोर तुम्हें इस विधि के प्रयोग में बहुत सहयोगी होगा; क्योंकि तुम मरने के लिए तैयार होगे।मरने की तैयारी जरूरी है।अन्यथा यह विधि बहुत काम की नहीं होगी। और तुम मृत्यु के लिए तैयार तभी हो सकते हो जब तुमने या किसी ने किसी तरह से एक बार उसका स्वाद लिया हो। गहरी श्वास छोड़ो और तुम्हें उसका स्वाद मिल जायेगा।हम मृत्यु से भयभीत है, इसका कारण मृत्यु नहीं है। मृत्यु को तो हम जानते ही नहीं है। तुम उस चीज से कैसे भयभीत हो सकते हो; जिसका तुम्हें कभी सामना ही नहीं हुआ ...जिसे तुम जानते ही नहीं। किसी चीज से भयभीत होने के लिए उसे जानना जरूरी है।तो असल में तुम मृत्यु से भयभीत नहीं हो, यह भय कुछ और है। तुम वस्तुत: कभी जीए ही नहीं; और इससे ही मृत्यु का भय पैदा होता है।
8-मृत्यु का भय पकड़ता है क्योंकि तुम जी नहीं रहे हो।और तुम्हारा भय यह है: ‘अब तक मैं जीया ही नहीं,और मृत्यु आ गई तो क्या होगा? मैं तो अतृप्त अनजीया ही मर जाऊँगा।’ मृत्यु का भय उन्हें ही पकड़ता है जो वस्तुत: जीवित नहीं है।यदि तुमने जीवन को जीया है, जीवन को जाना है, तो तुम मृत्यु का स्वागत करोगे। तब कोई भय नहीं है। तुमने जीवन को जान लिया; अब तुम मृत्यु को भी जानना चाहोगे। लेकिन हम जीवन से ही इतने डरे हुए है कि हम उसे नहीं जान पाए है; हम उसमें गहरे नहीं उतरे है। वही चीज मृत्यु का भय पैदा करती है।अगर तुम इस विधि में प्रवेश करना चाहते हो तो तुम्हें मृत्यु के प्रति इस सघन भय के प्रति जागना होगा, बोधपूर्ण होना होगा। और इस सघन भय को विसर्जित करना होगा। तो ही तुम इस विधि में प्रवेश कर सकते हो।इससे मदद मिलेगी; सारा ध्यान श्वास छोड़ने पर दो, श्वास लेना भूल जाओ और डरो मत कि मर जाओगे।शरीर का अपना विवेक है। अगर तुम गहरी श्वास बाहर फेंकोगे तो शरीर खुद गहरी श्वास भीतर लेगा। तुम्हें हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है। और तुम्हारी समस्त चेतना पर एक गहरी शांति फैल जाएगी। सारा दिन विश्राम अनुभव करोगे और एक आंतरिक मौन घटित होगा।
9-अगर तुम एक और प्रयोग करो तो विश्रांति और मौन का यह भाव और भी प्रगाढ़ हो सकता है। दिन में सिर्फ पंद्रह मिनट के लिए कुर्सी पर या जमीन पर बैठ जाओ फिर गहरी श्वास छोड़ो और शरीर को श्वास लेने दो।और जब श्वास भीतर जाये, आंखें खोल लो और तुम बाहर चले जाओ। ठीक उलटा करो: जब श्वास बाहर आये तुम भीतर चले जाओ। और जब श्वास भीतर आये तो तुम बाहर चले आओ।जब तुम श्वास छोड़ते हो तो भीतर खाली स्थान, अवकाश निर्मित होता है।क्योंकि श्वास जीवन है। जब तुम गहरी श्वास छोड़ते हो तो तुम खाली हो जाते हो। जीवन बाहर निकल गया।एक ढंग से तुम क्षण भर के लिए मर गए। मृत्यु के उस मौन में अपने भीतर प्रवेश करो। श्वास बाहर जा रही है। आंखें बंद करो और भीतर सरक जाओ। वहां अवकाश है; तुम आसानी से सरक सकते हो।स्मरण रहे, जब तुम श्वास ले रहे हो तो तब भीतर जाना बहुत कठिन है। वहां जाने के लिए जगह कहां। तुम श्वास छोड़ते हुए ही तुम भीतर जा सकते हो। और जब श्वास भीतर हो तो तुम बाहर चले जाओ। आंखें खोलों और बाहर निकल जाओ। इन दोनों के बीच एक लयवद्यिता निर्मित करो लो।पंद्रह मिनट के इस प्रयोग से तुम गहन विश्राम में उतर जाओगे। और तब तुम इस विधि के प्रयोग के लिए अपने को तैयार पाओगे।
10-इस विधि में उतरने के लिए पहले पंद्रह मिनट के लिए यह प्रयोग जरूर करे। ताकि तुम तैयार हो सको ..तैयार ही नहीं उसके प्रति स्वागत पूर्ण हो सको,खुले हो सको। मृत्यु का भय खो जाये क्योंकि अब मृत्यु प्रगाढ़ विश्राम मालूम पड़ेगी। अब मृत्यु जीवन के विरूद्ध नहीं,वरन जीवन का स्त्रोत जीवन की ऊर्जा मालूम पड़ेगा। जीवन तो झील की सतह पर लहरों की भांति है और मृत्यु स्वयं झील है। और जब लहरें नहीं है तब भी झील है। और झील तो लहरों के बिना हो सकती है, लेकिन लहरें झील के बिना नहीं हो सकती। जीवन मृत्यु के बिना नहीं हो सकता।लेकिन मृत्यु जीवन के बिना हो सकती है क्योंकि मृत्यु स्त्रोत है। और तब तुम इस विधि का प्रयोग कर सकते हो।‘प्रयोग करो कि एक आग तुम्हारे पाँव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरीर में ऊपर उठ रही है……।’बस लेट जाओ। पहले भाव करो कि तुम मर गए हो। शरीर एक शव मात्र है। लेटे रहो और अपने ध्यान को पैर के अंगूठे पर ले जाओ। आंखें बंद करके भीतर गति करो। अपने ध्यान को अँगूठों पर ले जाओं और भाव करो कि वहां से आग ऊपर बढ़ रही है। और सब कुछ जल रहा है……जैसे-जैसे आग बढ़ती है वैसे-वैसे तुम्हारा शरीर विलीन हो रहा है। अंगूठे से शुरू करो और ऊपर बढ़ो।
11-अंगूठे से शुरू करो क्योंकि यह आसान होगा। क्योंकि अंगूठा तुम्हारे ‘मैं’ से, तुम्हारे अहंकार से बहुत दूर है। तुम्हारा अहंकार सिर में केंद्रित है; वहां से शुरू करना कठिन होगा। तो बिंदु से शुरू करो; भाव करो कि अंगूठे जल रहे है। और वहां अब राख ही बची है।और फिर धीरे-धीरे ऊपर बढ़ो और जो भी आग की राह में पड़े उसे जलाते जाओ। सारे अंग ..पैर,जांघ ..विलीन हो जाएंगे। और देखते जाओ कि अंग-अंग राख हो रहे है; जिन अंगों से होकर आग गुजरी है वे अब नहीं है। वे राख हो गए है।ऊपर बढ़ते जाओ; और अंत में सिर भी विलीन हो जाता है। प्रत्येक चीज राख हो गई है; धूल-धूल में मिल रही है। और तुम देख रहे हो।‘और अंतत: शरीर जलकर राख हो जाता है। लेकिन तुम नहीं।’तुम शिखर पर खड़े द्रष्टा रह जाओगे, साक्षी रह जाओगे। शरीर वहां पड़ा होगा, मृत जला हुआ, राख ..और तुम द्रष्टा होगे, साक्षी होगे। इस साक्षी का कोई अहंकार नहीं है।यह विधि निरहंकार अवस्था की उपलब्धि के लिए बहुत उपयोगी है क्योंकि इसमें बहुत सी बातें घटती है।
12-यह विधि सरल मालूम पड़ती है। लेकिन यह उतनी सरल है नहीं। इसकी आंतरिक संरचना बहुत जटिल है।पहली बात यह है कि तुम्हारी स्मृतियां शरीर का हिस्सा है। स्मृति पदार्थ है; यही कारण है कि उसे संग्रहीत किया जा सकता है। स्मृति मस्तिष्क के कोष्ठों में संग्रहीत है। स्मृतियां भौतिक है,पदार्थ है, शरीर का हिस्सा है। तुम्हारे मस्तिष्क का आपरेशन करके अगर कुछ कोशिकाओं को निकाल दिया जाए तो उनके साथ कुछ स्मृतियां भी विदा हो जायेगी। स्मृतियां मस्तिष्क में संग्रहीत रहती है
और शरीर का हिस्सा है। अगर सारा शरीर जल जाए, राख हो जाए,तो कोई स्मृति नहीं बचेगी।अगर स्मृति रह जाती है तो शरीर अभी बाकी है और तुम धोखे में हो। अगर तुम सचमुच गहराई से इस भाव में उतरोगे कि शरीर नहीं है ,जल गया है, आग ने उसे पूरी तरह राख कर दिया है। तो उसे क्षण तुम्हें कोई स्मृति नहीं रहेगी।
13-साक्षित्व के उस क्षण में कोई मन नहीं रहेगा। सब कुछ ठहर जाएगा। विचारों की गति रूक जाएगी। केवल दर्शन,मात्र देखना रह जाएगा कि क्या हुआ है।और एक बार तुमने यह जान लिया तो तुम इस अवस्था में निरंतर रह सकते हो।एक बार सिर्फ यह जानना है कि तुम अपने को अपने शरीर से अलग कर सकते हो। यह विधि तुम्हें अपने शरीर से अलग जानने का, तुम्हारे और तुम्हारे शरीर के बीच एक अंतराल पैदा करने का, कुछ क्षणों के लिए शरीर से बाहर होने का एक उपाय है। अगर तुम इसे साध सको तो तुम शरीर में होते हुए भी शरीर में नहीं होगे। तुम पहले की तरह ही जीए जा सकते हो; लेकिन अब तुम फिर कभी वही नहीं हो सकते हो।इस विधि में कम से कम तीन महीने लगेंगे ; यह एक दिन में नहीं होगी।लेकिन यदि तुम प्रतिदिन इसे एक घंटा देते हो तो तीन महीने के भीतर किसी दिन अचानक तुम्हारी कल्पना सफल होगी। और एक अंतराल निर्मित हो जाएगा। और तुम सचमुच देखोगें कि तुम्हारा शरीर राख हो रहा है। तब तुम उसका निरीक्षण कर सकते हो। और उस निरीक्षण में एक गहन तथ्य को बोध होगा कि अहंकार असत्य है, झूठ है; उसकी कोई सत्ता नहीं है।
14-अहंकार था; क्योंकि तुम शरीर से विचारों से मन से तादात्म्य किए बैठे थे। तुम उनमें से कुछ भी नहीं हो ...न मन, न विचार, न शरीर।तुम उस सब से भिन्न हो जो तुम्हें घेरे हुए है।तुम अपनी परिधि से सर्वथा भिन्न हो।तो उपर से यह विधि सरल मालूम पड़ती है लेकिन यह तुम्हारे भीतर गहन रूपांतरण ला सकती है। लेकिन पहले मरघट में जाकर ध्यान करो,जहाँ लोगों को जलाया जाता है। देखो कि कैसे शरीर जलता है। कैसे शरीर फिर मिट्टी हो जाता है। ताकि तुम फिर आसानी से कल्पना कर सको।और तब अँगूठों से आरंभ करो और बहुत धीरे-धीरे उपर बढ़ो।और इस विधि में उतरने के पहले श्वास छोड़ने पर ज्यादा ध्यान दो। इस विधि को करने के ठीक पहले पंद्रह मिनट तक श्वास छोड़ो और आंखे बंद कर लो, फिर शरीर को श्वास लेने दो और आंखें खोल दो। पंद्रह मिनट तक गहन विश्राम में रहो और फिर विधि में प्रवेश करो।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 80 ;-
06 FACTS;-
(अग्नि- संबंधी दूसरी विधि)
1-भगवान शिव कहते है:-
‘यह काल्पनिक जगत जलकर राख हो रहा है, यह भाव करो; और मनुष्य से श्रेष्ठतर प्राणी बनो।’
2-अगर तुम पहली विधि कर सके तो यह दूसरी विधि बहुत सरल हो जाएगी।अगर तुम भाव कर सके कि तुम्हारा शरीर जल रहा है तो यह भाव करना कठिन नहीं होगा कि सारा जगत जल रहा है। क्योंकि तुम्हारा शरीर जगत का हिस्सा है।और तुम अपने शरीर के द्वारा ही जगत को जानते हो।उस से जुड़े हो।सच तो यह है कि अपने शरीर के कारण ही तुम इस जगत से जुड़े हो। जगत तुम्हारे शरीर का फैलाव है।अगर तुम अपने शरीर के जलने की कल्पना कर सकते हो तो जगत के जलने की कल्पना करना कठिन नहीं है।और सूत्र कहता है कि यह जगत काल्पनिक है; क्योंकि तुमने उसे माना हुआ है।और यह सारा जगत जल रहा है, विलीन हो रहा है।लेकिन अगर तुम्हें लगे कि पहली विधि कठिन है तो तुम दूसरी विधि से भी आरंभ कर सकते हो।पर पहली को साध लने से दूसरी बहुत आसान हो जाती है।और वास्तव में, पहली विधि को साध लेने से दूसरी विधि की जरूरत ही नहीं रहती।तुम्हारे शरीर के साथ सब कुछ अपने आप ही विलीन हो जाता है।
3-लेकिन यदि पहली विधि कठिन लगे तो तुम दूसरी विधि में सीधे भी उतर सकते हो।अँगूठों से आरंभ करना है ,क्योंकि वे सिर से, अहंकार से बहुत दूर है।लेकिन हो सकता है कि तुम्हें अँगूठों से आरंभ करने की बात भी न जमे।तो और दूर निकल जाओ ...संसार से शुरू करो। और तब अपनी तरफ ;अपने निकट आओ।और जब सारा जगत जल रहा हो तो तुम्हारे लिए उस पूरे जलते जगत में जलना आसान होगा।अगर तुम सारे संसार को जलता हुआ देख सके तो तुम मनुष्य के ऊपर उठ गए, तुम अतिमानव हो गए। तब तुम अति मानवीय चेतना को जान गए।तुम यह कल्पना कर सकते हो; लेकिन कल्पना का प्रशिक्षण जरूरी है। हमारी कल्पना कमजोर है, क्योंकि कल्पना के प्रशिक्षण की व्यवस्था ही नहीं है।बुद्धि प्रशिक्षित है; उसके लिए विद्यालय है और महाविद्यालय है। बुद्धि के प्रशिक्षण में जीवन का बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। लेकिन कल्पना का कोई प्रशिक्षण नहीं होता है।और कल्पना का अपना ही बहुत अद्भुत जगत है। यदि तुम अपनी कल्पना को प्रशिक्षित कर सको तो चमत्कार घटित हो सकते है।छोटी-छोटी चीजों से शुरू करो। क्योंकि बड़ी चीजों में कूदना कठिन है। और संभव है तुम्हें उनमें असफलता हाथ लगे।
4-उदाहरण के लिए, यह कल्पना कि सारा संसार जल रहा है, जरा कठिन है। यह भाव बहुत गहरा नहीं जा सकता है।पहली बात कि तुम जानते हो कि यह कल्पना है। और यदि कल्पना में तुम सोचो भी कि चारों और लपटें ही लपटें है तो भी तुम्हें लगेगा कि संसार जला नहीं है। वह अभी भी है। क्योंकि यह केवल तुम्हारी कल्पना है। और तुम नहीं जानते हो कि कल्पना कैसे यर्थाथ बनती है। तुम्हें पहले उसे महसूस करना होगा।इस विधि में उतरने के पहले एक सरल प्रयोग करो। अपने दोनों हाथों को एक दूसरे में गूँथ लो, आंखें बंद कर लो। और भाव करो कि अब वे ऐसे गूँथ गए है कि खुल नहीं सकते। और उन्हें खोलने के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता।शुरू-शुरू में तुम्हें लगेगा कि तुम केवल कल्पना कर रहे हो। और तुम उन्हें खोल सकते हो। लेकिन तुम सतत दस मिनट तक भाव करते रहो कि ''मैं उन्हें नहीं खोल सकता। मैं उन्हें खोलने के लिए कुछ नहीं कर सकता। मेरे हाथ खुल ही नहीं सकते''।
5-और फिर दस मिनट के बाद उन्हें खोलने कि कोशिश करो।दस में से चार व्यक्ति तुरंत सफल हो जाएंगे। चालीस प्रतिशत लोग तुरंत कामयाब हो जाएंगे ...दस मिनट के बाद वे अपने हाथ नहीं खोल सकते। कल्पना यथार्थ हो गई। वे जितना ही संघर्ष करेंगे। वे हाथ खोलने के लिए जितनी ताकत लगाएंगे उतना ही हाथों का खुलना कठिन होता जाएगा। तुम्हें पसीना आने लगेगा। तुम्हारे ही हाथ है। और तुम देख रहे हो कि वे बंध गए है और तुम उन्हें नहीं खोल सकते।लेकिन भयभीत मत होओ।पहले आंखें बंद कर लो और फिर भाव करो कि मैं उन्हें खोल रहा हूं ..खोल सकता हूं।और तुम उसे खोल सकते हो। चालीस प्रतिशत लोग तुरंत खोल लेंगे।ये चालीस प्रतिशत लोग इस विधि में आसानी से उतर सकते है। उनके लिए कोई कठिनाई नहीं है। बाकी साठ प्रतिशत के लिए यह विधि कठिन पड़ेगी; उन्हें समय लगेगा।जो लोग बहुत भाव प्रवण है वे कुछ भी कल्पना कर सकते है।और वह घटित होगा।
6-और एक बार उन्हें यह प्रतीति हो जाए कि कल्पना यथार्थ हो सकती है। कि भाव वास्तविक बन सकता है ,तो उन्हें आश्वासन मिल गया और वे आगे बढ़ सकते है।तब तुम अपने भाव के द्वारा बहुत कुछ कर सकते हो।तुम अभी भी भाव से बहुत कुछ करते हो, लेकिन तुम्हें उसका बोध नहीं है।शहर में कोई नया रोग फैलता है, और तुम उसके शिकार हो जाते हो। तुम कभी सोच भी नहीं सकते कि सौ में से सत्तर लोग सिर्फ कल्पना के कारण बीमार हो जाते है। चूंकि शहर में रोग फैला है।तुम कल्पना करने लगते हो कि मैं भी इसका शिकार होने वाला हूं ..और तुम शिकार हो जाओगे।तुम सिर्फ अपनी कल्पना से अनेक समस्याएं निर्मित कर लेते हो।तो तुम समस्याओं को हल भी कर सकते हो। यदि तुम्हें पता हो कि तुमने ही उन्हें निर्मित किया है।पहले, अपनी कल्पना को थोड़ा बढ़ाइये और तब यह विधि बहुत उपयोगी होगी।
....SHIVOHAM....