क्या है मनोमय कोश की या मनोलय योग की साधनायें तथा सिद्धियाँ अथार्त ध्यान ,त्राटक, जप, और तन्मात्रा स
क्या है मनोमय कोश का मनोलय योग ?-
09 FACTS;-
1-पंचकोशों में तीसरा मनोमय कोश है।मन में प्रचण्ड प्रेरक शक्ति है।वश में किया हुआ मन भूलोक का कल्प-वृक्ष है।यह सुख प्राप्ति की अनेक कल्पनाएँ किया करता है।इस प्रेरक शक्ति से अपने कल्पना चित्रों को वह ऐसा सजीव कर देता है कि मनुष्य बालक की तरह उसे प्राप्त करने के लिए दौड़ने लगता है।मन में जैसी कल्पनाएँ, इच्छाएँ, वासनाएँ आकांक्षाएँ, तृष्णाएँ उठती हैं उसी ओर शरीर चल पड़ता है।
2-पातंजलि ऋषि ने योग की परिभाषा करते हुए कहा कि 'चित्त की वृत्तियों का निरोध करना, रोककर एकाग्र करना ही योग है। योग साधना ही इसलिए है कि चित्त वृत्तियाँ एक बिन्दु पर केन्द्रित होने लगें तथा आत्मा के आदेशानुसार उनकी गतिविधि हो। इस कार्य में सफलता मिलते ही आत्मा अपने पिता परमात्मा में सन्निहित समस्त ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। वश में किया हुआ मन ऐसा शक्तिशाली अस्त्र है कि उसे जिस ओर भी प्रयुक्त किया जायेगा उसी ओर आश्चर्यजनक चमत्कार उपस्थित हो जायेंगे।
3-संसार के किसी कार्य में प्रतिभा, यश विद्या, स्वास्थ्य, भोग, अन्वेषण आदि जो भी वस्तु अभीष्ट होगी, वह वशवर्ती मन के प्रयोग से निश्चित ही प्राप्त होकर रहती है। उसकी प्राप्ति में संसार की कोई शक्ति बाधक नहीं हो सकती।सांसारिक उद्देश्य ही नहीं, वरन् उससे परमार्थिक आकांक्षाएँ भी पूरी होती हैं।
4-मेस्मरेजम, हिम्नोटिज्म, परसन मैग्नेटिज्म ,मेण्टलथैरेपी, आकल्ट साइन्स, मेण्टल हीलिंग, स्प्रिचुअलिज्म और समाधि सुख आदि भी
'मनोबल' का ही एक चमत्कार है। तन्त्र क्रिया, मन्त्र-शक्ति, प्राण विनियम और चमत्कारी शक्तिया आदि सब खिलौने एकाग्र मन की प्रचण्ड संकल्प शक्ति के छोटे-छोटे मनोविनोद मात्र हैं।
5-संकल्प की पूर्ण शक्ति से हमारे पूजनीय पूर्वज परिचित थे, उस शक्ति के थोड़े-थोड़े भौतिक चमत्कारों को लेकर अनेकों व्यक्तियों ने रावण जैसी उधम मचायी थी, परन्तु अधिकांश योगियों ने मन की एकाग्रता से उत्पन्न होने वाली प्रचण्ड शक्ति को परकल्याण में लगाया था।
6-अर्जुन को पता था कि मन को वश करने से कैसी अद्भुत सिद्धियाँ मिल
सकती हैं।इसलिए उसने गीता में भगवान् क्या से पूछा- ''हे अच्युत्! मन को वश में करने की विधि मुझे बताइये, क्योंकि वह वायु को वश में करने के समान कठिन है।''अर्जुन ने ठीक कहा है कि मन को वश में करना वायु को वश में करने के समान कठिन है। वायु को तो यंत्रों द्वारा किसी डिब्बे में बन्द भी किया जा सकता है, पर मन को वश में करने का तो कोई यन्त्र भी नही है।
7-भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को दो उपाय मन को वश में करने के बताये।
(1) अभ्यास और (2) वैराग्य। अभ्यास का अर्थ है- वे योग साधनायें जो मन को रोकती हैं।वैराग्य का वास्तविक तात्पर्य है- राग से निवृत्त होना.. व्यावहारिक जीवन को संयमशील और व्यवस्थित बनाना।बुरी भावनाओं
और आदतों से बचने का अभ्यास करने के लिए ऐसे वातावरण में रहना पड़ता हैं, जहाँ उनसे बचने का अवसर हो।पानी से दूर रहकर तैरना नहीं आ सकता। इसी प्रकार राग- द्वेष जहाँ उत्पन्न होता है उस क्षेत्र में रहकर उन बुराइयों पर विजय प्राप्त करना ही वैराग्य की सफलता है।
8-कोई व्यक्ति जंगल में एकान्तवासी रहे तो नहीं कहा जा सकता कि वैराग्य हो गया क्योंकि जंगल में वैराग्य की अपेक्षा ही नहीं होती। जब तक परीक्षा द्वारा यह नहीं जान लिया गया कि हमने राग उत्पन्न करने वाले अवसर होते हुए भी उस पर विजय प्राप्त कर ली तब तक यह नहीं समझना चाहिए कि कोई एकान्तवासी वस्तुत: वैरागी ही है। प्रलोभन को जीतना ही वैराग्य है और यह विजय वहीं हो सकती है, जहाँ वे बुराइयाँ मौजूदा हों। इसलिए गृहस्थ में, सांसारिक जीवन में सुव्यवस्थित रहकर मन पर विजय प्राप्त करने को वैराग्य कहना चाहिए।
9-अभ्यास के लिए योगशास्त्रों में ऐसी कितनी ही साधना का वर्णन है, जिनके द्वारा मन की चंचलता, विषय लोलुपता और एषणा प्रवृत्ति को रोककर उसे ऋतम्भरा बुद्धि के, अंतरात्मा के अधीन किया जा सकता है। इन साधनाओं को मनोलय योग कहते हैं।मनोलय के अंतर्गत चार
साधन प्रधान रूप से आते हैं।इन चारों का मनोमय कोश की साधना में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है ।
9-1- ध्यान
9-2- त्राटक
9-3- जप
9-4- तन्मात्रा साधना
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
1- ''ध्यान'';-
04 FACTS;-
1-ध्यान वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके अनुसार किसी वस्तु की स्थापना अपने मन:क्षेत्र में की जाती है। मानसिक क्षेत्र में स्थापित की हुई वस्तु हमारे आकर्षण का प्रधान केन्द्र बनती है। उस आकर्षण की ओर मस्तिष्क की अधिकांश शक्तियाँ खिंच जाती हैं। फलस्वरूप एक स्थान पर उनका केन्द्रीयकरण होने लगता है। चुम्बक पत्थर अपने चारों ओर बिखरे हुए लौहकणो को सब दिशाओं से खींचकर अपने पास जमा कर लेता है। इसी प्रकार ध्यान द्वारा मन सब ओर से खींचकर एक केन्द्र बिन्दु पर एकाग्र होता है, बिखरी हुई चित्त-प्रवृतियाँ एक जगह सिमट जाती हैं।
2-कोई आदर्श, लक्ष्य इष्ट निधारित करके उसमें तन्मय होने को ध्यान कहते हैं। जैसा ध्यान किया जाता है मनुष्य वैसा ही बनने लगता है। साँचे में गीली मिट्टी को दबाने से वैसी आकृति बन जाती है, जैसी उस साँचे में होती है। कीट-भृंग का उदाहरण प्रसिद्ध है। भृंग, झींगुर को पकड़ ले जाता है और उसके चारों ओर लगातार गुंजन करता है। झींगुर इस गुंजन को तन्मय होकर सुनता है और भृंग के रूप को उसकी चेष्टाओं को एकाग्र भाव से निहारता है। झींगुर का मन भृंगमय हो जाने से उसका शरीर भी उसी ढाँचे में ढलना आरम्भ हो जाता है। उसके रक्त, माँस, नस, नाड़ी, त्वचा आदि में मन के साथ ही परिवर्तन आरम्भ हो जाता है और थोड़े समय में वह झींगुर मन से और शरीर से भी असली भृंग के समान बन जाता है। इसी प्रकार ध्यान शक्ति द्वारा साधक का सर्वागपूर्ण काया-कल्प होता है।
3-साधारण ध्यान से मनुष्य का शरीर परिवर्तन नहीं होता। इसके लिए विशेष रूप से गहन साधनाएँ करनी पड़ती हैं। परन्तु मानसिक काया-कल्प करने में हर मनुष्य ध्यान-साधना से भरपूर लाभ उठा सकता है। ऋषियों ने इस बात पर जोर दिया है कि हर साधक को इष्टदेव चुन लेना चाहिए। इष्टदेव चुनने का अर्थ है- जीवन का प्रधान लक्ष्य निर्धारित करना। इष्टदेव उपासना का अर्थ है- उस लक्ष्य में अपनी मानसिक चेतना को तन्मय कर देना। इस प्रकार की तन्मयता का परिणाम यह होता है कि मन की बिखरी हुई शक्तियाँ एक बिन्दु पर एकत्रित हो जाती हैं। एक स्थानीय एकाग्रता के कारण उसी दिशा में सभी मानसिक शक्तियाँ लग जाती हैं, फ्लस्वरूप साधक के गुण, स्वभाव, विचार उपाय एवं काम अद्भुत गति से बढ़ते हैं, जो उसे अभीष्ट लक्ष्य तक सरलतापूर्वक स्वल्प काल में ही पहुँचा देते हैं। इसी को इष्ट सिद्धि कहते हैं।
4-ध्यान साधना के लिए ही आदर्शो को दिव्य रूपधारी देवताओं के रूप में मानकर उनमें मानसिक तन्मयता स्थापित करने का यौगिक विधान है।प्रीति सजातियों में होती है। इसलिए लक्ष्य रूप इष्ट को दिव्य देहधारी देव मानकर उसमें तन्मय होने का गूढ़ एवं रहस्यमय मनोवैज्ञानिक आधार स्थापित करना पड़ा है।यहाँ किसी को भ्रम में पड़ने की
आवश्यकता नहीं। अनेक देवताओं का कोई स्वतन्त्र आधार नहीं है। ईश्वर एक है। उसकी अनेक शक्तियाँ ही अनेक देवों के नाम से पुकारी जाती हैं। अपनी इच्छा, रुचि और आवश्यकतानुसार उन शक्तियों को प्राप्त करने के लिए अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अपना इष्ट लक्ष्य चुनता है और उनमें तन्मय होते ही मनोवैज्ञानिक उपासना पद्धति द्वारा उन शक्तियों को अपने अन्दर प्रचुर परिमाण में धारण कर लेता है।
5-ध्यान-योग साधना में मन की एकाग्रता के साथ-साथ लक्ष्य को, इष्ट को भी प्राप्त करके योगस्थिति उत्पन्न करने का दुहरा लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इसलिए इष्टदेव का मन:क्षेत्र में उसी प्रकार ध्यान करने का विधान किया गया है।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
ध्यान के अंग;-
05 FACTS;-
ध्यान के पाँच अंग हैं...
1-स्थिति 2-संस्थिति 3-विगति 4-प्रगति 5-सस्मिति
1-स्थिति;-
स्थिति का तात्पर्य हैं- साधक की उपासना करते समय की स्थिति। मन्दिर में, नदी, तट पर एकान्त में, श्मशान में स्नान करके, बिना स्नान किए पद्मासन से, सिद्धासन से किस ओर मुँह करके, किस मुद्रा में, किस समय, किस प्रकार ध्यान किया जाय ... इस सम्बन्ध की व्यवस्था को स्थिति कहते है।
2-संस्थिति;-
संस्थिति का अर्थ है...इष्टदेव की छवि का निर्धारण। उपास्य देव का मुख आकृति, आकार मुद्रा, वस्त्र, आभूषण, वाहन, स्थान, भाव को निश्चित करना संस्थिति कहलाती है।
3-विगति;-
विगति कहते हैं...गुणावली को। इष्टदेव में क्या विशेषताएँ, शक्तियाँ, सामर्थ्य, परम्पराएँ एवं गुणावलियाँ हैं ... उनको जानना विगति कहा जाता है।
4-प्रगति;-
प्रगति कहते हैं- उपासना काल में साधक के मन में रहने वाली भावना को। दास्य, सखा, गुरु, बन्धु मित्र, माता-पिता, पति, पुत्र, सेवक, शत्रु आदि जिस रिश्ते को उपास्य देव को मानना हो उस रिश्ते की स्थिरता तथा उस रिश्ते को प्रणाढ़ बनाने के लिए इष्टदेव को प्रमुख ध्यानावस्था में, अपनी आन्तरिक भावनाओं को विविध शब्दों तथा चेष्टाओं द्वारा उपस्थित करना प्रगति कहलाती है।
5-सस्मिति;-
'सस्मिति' वह व्यवस्था है जिसमें साधक और साध्य उपासक और उपास्य, एक हो जाते हैं। दोनों में कोई भेद नहीं रहता है। भृंग कीट की सी तन्मयता द्वैत के स्थान पर अद्वैत की झाँकी, उपास्य और उपासक का अभेद, मैं स्वयं इष्टदेव हो गया हूँ या इष्टदेव में पूर्णतया लीन हो गया हूँ ऐसी अनुभूति का होना। अग्नि में पड़कर जैसे लकड़ी भी अग्निमय लाल वर्ण हो जाती है, वैसी ही अपनी स्थिति जिन क्षणों में अनुभव होती है उसे 'संस्मिति' कहते हैं।
NOTE;-
एक ही इष्टदेव के अनेक प्रयोजनों के लिए अनेक प्रकार से ध्यान किए जाते हैं। साधक की आयु, स्थिति, मनोभूमि, वर्ण, संस्कार आदि के विचार से भी ध्यान की विधियों में स्थिति, संस्थिति, विगति, प्रगति एवं संस्मिति की जो कई महत्वपूर्ण पद्धति हैं, उनका सविस्तार वर्णन नहीं हो सकता।
ध्यान द्वारा मन को एकाग्र करने की विधि(FOR BEGINNERS);-
10 FACTS;-
ध्यान द्वारा मन को एकाग्र करने की, वश में करने की विधि के लिए कुछ ध्यान नीचे दिये जा रहे हैं...
1- चिकने पत्थर की या धातु की सुन्दर-सी इष्टदेव की प्रतिमा लीजिए। उसे एक सुसज्जित आसन पर स्थापित कीजिए। प्रतिदिन उसका जल, धूप, दीप, गन्ध, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प आदि मांगलिक द्रव्यों पूजन कीजिए। इस प्रकार नित्य-प्रति पूजन आरम्भिक साधकों के लिए श्रद्धा बढ़ाने वाला मन की प्रवृत्तियों को इस ओर झुकाने वाला होता है। साधक में अरुचि को हटाकर रुचि उत्पन्न करने का प्रथम सोपान, यह पार्थिव पूजन ही है। मन्दिरों में मूर्ति पूजा का आधार यह प्राथमिक शिक्षा के रूप में साधना का आरम्भ करना ही है।
2-पूर्व को ओर मुँह करके, आसन पर बैठिए। सामने इष्टदेव का चित्र रख लीजिए। विशेष मनोयोगपूर्वक उसकी मुखाकृति या अंग-प्रत्यंगों को देखिये। फिर नेत्र बन्द कर लीजिए। ध्यान द्वारा उस चित्र की बारीकियाँ भी ध्यानावस्था में भली-भाँति परिलक्षित होने लगेंगी। इस प्रतिमा को मानसिक साष्टाग प्रणाम कीजिए और अनुभव कीजिए कि उत्तर में आपको आर्शीर्वाद प्राप्त हो रहा है।
3- एकान्त स्थान में सुस्थिर होकर बैठिए।ध्यान कीजिए कि निखिल नील आकाश में और कोई वस्तु नहीं है, केवल एक स्वर्णिम वर्ण का सूर्य दिशा में चमक रहा है। उस सूर्य को ध्यानावस्था में मनोयोगपूर्वक देखिए। उसके बीच में इष्टदेव की धुँधली-सी छवि दृष्टिगोचर होगी, अभ्यास से धीरे-धीरे यह छवि स्पष्ट दीखने लगेगी।
4- भावना कीजिए कि इस सूर्य की स्वर्णिम किरणें मेरे नग्न शरीर पर पड़ रही हैं और वे रोमकूपों में होकर प्रवेश हुई आभा से देह के समस्त स्थूल एवं सूक्ष्म अंगों को अपने प्रकाश से पूरित कर रही हैं।दिव्य तेजयुक्त,
अत्यन्त सुन्दर, इतनी जितनी कि आप अधिक-से-अधिक कल्पना कर सकते हों।
5-आकाश में दिव्य वस्त्रों, आभूषणों से सुसज्जित इष्टदेव का ध्यान कीजिए। किसी सुन्दर चित्र के आधार पर ऐसा ध्यान करने की होती है। इष्टदेव के एक-एक अंग को विशेष मोनोयोगपूर्वक देखिए। उसकी मुखाकृति, चितवन, मुसकान, भाव-भंगिमा पर विशेष ध्यान दीजिए।इष्टदेव अपनी अस्पष्ट वाणी, चेष्टा तथा संकेतों द्वारा आपके मन:क्षेत्र में नवीन भावों का संचार करेंगे।
6- शरीर को बिल्कुल ढीला कर दीजिए। आराम कुर्सी, मसनद या दीवार का सहारा लेकर, शरीर की नस-नाडि़यों को निर्जीव की भाँति शिथिल कर दीजिए। भावना कीजिए कि सुन्दर आकाश में अत्यधिक ऊँचाई पर अवस्थित ध्रुव तारे से निकल कर एक नीलवर्ण की शुभ्र किरण सुधा धारा अपनी ओर चली आ रही है और अपने मस्तिष्क या हृदय में ऋतुम्भरा बुद्धि के रूप में ..तरणतारिणी प्रज्ञा के रूप में प्रवेश कर रही है।उस परम दिव्य परम प्रेरक शक्ति को पाकर अपने हृदय और मस्तिष्क में सद्विचार उसी प्रकार उमड़ रहें है जैसे समुद्र में ज्वार-भाटा उमड़ते हैं।वह ध्रुव तारा जो इस धरा में प्रेरक है ...सत्लोकवासी इष्टदेव ही है और भावना कीजिए कि आप उनकी गोद में खेल और क्रीड़ा कर रहे हैं।
7- मेरुदण्ड को सीधा करके पद्मासन से बैठिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। भू-मध्य भाग (भृकुटी) में शुभ्र वर्ण दीपक की लौ के समान दिव्य ज्योति का ध्यान कीजिए। यह ज्योति विद्युत की भांति क्रियाशील होकर अपनी शक्ति से मस्तिष्क क्षेत्र में बिखरी हुई अनेक शक्तियों का पोषक एवं जागरण कर रही है ऐसा विश्वास कीजिए।
8- भावना कीजिए कि आपका शरीर एक सुन्दर रथ है। उसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी घोड़े जुते हैं। इस रथ में दिव्य तेजोमय इष्टदेव विराजमान हैं और घोड़ों की लगाम उसने अपने हाथ में थाम रखी है।जो घोड़ा बिचकता है वह चाबुक से उसका अनुशासन करते है और लगाम झटककर उसको सीधे मार्ग पर ठीक रीति से चलने में सफल पथ-प्रदर्शन करते है। घोड़े भी इष्टदेव से आतंकित होकर उसके अंकुश को स्वीकार करते हैं।
9- हृदय स्थान के निकट, सूर्य चक्र में सूर्य जैसे छोटे प्रकाश की ध्यान कीजिए यह आत्मा का प्रकाश है। इसमें इष्टदेव की शक्ति मिलती है और प्रकाश बढ़ता है। इस बढ़े हुए प्रकाश में आत्मा से वस्तु स्वरूप की झाँकी होती है। आत्मा साक्षात्कार का केन्द्र यह सूर्य चक्र है।
10- ध्यान कीजिए कि चारों ओर अन्धकार है। उसमें होली की तरह पृथ्वी से लेकर आकाश तक प्रचण्ड तेज जाज्वल्यमान हो रहा है। उसमें प्रवेश करने से अपने शरीर का प्रत्येक अंग, मन: क्षेत्र से उस परम तेज के समान अग्निमय हो गया है अपने समस्त पाप-ताप, विकार-संस्कार जल गये हैं और शुद्ध सच्चिदानन्द शेष रह गया है।
NOTE;-
ऊपर कुछ सुगम एवं सर्वोपरि ध्यान हैं जो सरल हैं और प्रतिबन्ध रहित हैं। इनके लिए किन्हीं विशेष नियमों के पालन की आवश्यकता नहीं होती। साधना के समय उनका करना उत्तम है... वैसे अवकाश में ,अन्य समयों में भी.. जब चित्त शान्त हो तो, इन ध्यानों में से, अपनी रुचि के अनुकूल ध्यान किया जा सकता है। इन ध्यानों में मन को संयत, एकाग्र करने की बड़ी शक्ति है। साथ ही उपासना का आध्यात्मिक लाभ भी मिलने से यह ध्यान दुहरा हित साधन करते हैं।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
2-त्राटक;-
10 FACTS;-
त्राटक भी ध्यान का एक अंग है या त्राटक का ही एक अंग ध्यान है। आन्तर-त्राटक और बाह्य-त्राटक दोनों का उद्देश्य मन को एकाग्र करना है। नेत्र बन्द करके किसी एक वस्तु पर भावना को जमाने और उसे आन्तरिक नेत्रों से देखते रहने की क्रिया आन्तर-त्राटक कहलाती है।ऊपर जो दस ध्यान लिखे गये हैं, वे सभी आन्तर-त्राटक हैं। मैस्मरेजम के ढंग से जो लोग अन्तर-त्राटक करते हैं वे केवल प्रकाश बिन्दु पर ध्यान करते हैं। इससे एकांगी लाभ होता है। प्रकाश बिन्दु पर ध्यान करने से मन तो एकाग्र होता है, पर उपासना का आत्म-लाभ नही मिल पाता। इसलिए भारतीय योगी सदा ही आन्तर-त्राटक का इष्ट ध्यान के रूप में प्रयोग करते रहे हैं।
त्राटक क्या है?‘त्रि’ और ‘टकटकी बंधने’ से मिलकर बना शब्द त्राटक वास्तव में त्र्याटक है, जिसके विश्लेषण में कहा गया है कि जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु पर अपनी नजर और मन को बांध लेता है, तो वह क्रिया त्राटक कहलाती है। उस वस्तु को कुछ समय तक देखने पर द्वाटक और उसे लगातार लंबे समय तक देखते रहना ही त्राटक है। इसके लिए दृष्टि की शक्ति को जाग्रत करते हुए मजबूत बनानी होती है। यह क्रिया हठ योग के अंतरगत आती है। यह कहें कि त्राटक से किसी वस्तु को अपलक देखते रहने की अद्भुत शक्ति हासिल होती है। ऐसी स्थिति में एकाग्रता आती है और मन का भटकाव नहीं होने पाता है।त्राटक साधना से अगर शरीर की सुप्त शक्तियां जागृत हो जाती हैं और निर्मल-निरोगी काया में सम्मोहन, आकर्षण और वशीकरण जैसे भाव भी समाहित हो जाते हैं। इस अनुसार त्राटक का वास्तविक रूप अपनी चेतना को भटकने से रोकने के संघर्ष में जीत हासिल कर लेती है। आईए, जानते हैं कुछ ऐसी विधियों के बारे में जिनसे इस शक्ति को हासिल कर विचार-प्रक्रिया को मजबूत बनाया जा सकता है।
त्राटक साधनाकोई भी व्यक्ति अपनी प्रबल इच्छा शक्ति के जरिए त्राटक साधन की अद्भुत सिद्धियां हासिल कर सकता है। मन की एकाग्रता प्राप्त करने के लिए बताई गई अनेकों योग पद्धतियों में त्राटक साधना को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। इसके लिए व्यक्ति में असीम श्रद्धा, धैर्य और मन की शुद्धता का होना जरूरी है। यह कई तरह से किया जा सकता है। जिसमें ज्योति त्राटक, बिंदु त्राटक और दपर्ण त्राटक मुख्य हैं।बिंदु त्राटकः यह त्राटक साधना का एक असान तरीका है, जिसके द्वारा इस क्रिया की शुरुआत की जाती है। इसके लिए किसी वस्तु, जैसे पेंसिल, फूल या कोई छोटी वस्तु को एकटक देखकर साधना की जाती है। यह एक ऐसी साधना है, जिसे सिद्ध करने वाले व्यक्ति में ऐसी शक्ति आ जाती है कि वह अपने विचारों से दूसरों के मन में पहुंच जाता है और वह व्यक्ति वशीभूत हो जाता है। इसतरह से वशीकरण होने पर दूसरों के मनोभावों या विचारों को पढ़ा-समझा जा सकता है। इसकी मुख्य बात यह है कि इसके लिए किसी भी तरह के तंत्र-मंत्र संबंधी अनुष्ठान आदि नहीं किए जाते हैं। यह एक तरह से आभासी ज्ञान, वशीकरण की अद्भुत शक्ति, प्रभाव, तेज और आत्मविश्वास को बढ़ा देता है।इसके लिए एक वर्गफूट के आकार का एक सफेद कागज लें, जो ड्राईंग पेपर हो सकता है। उसके बीच में काली स्याही से भरा हुआ तीन इंच व्यास का एक वृत बना लें। उस पेपर को अपने बैठने वाले आसन के सामने करीब तीन फीट की दूरी लिए हुए कमरे की दीवार पर इस तरह से टांग दें कि उसका वृत्त आपकी आंखों के ठीक सामने रहे। कमरे में हल्की रोशनी का होनी चाहिए। इस प्रयोग को रा़ित्र के समय शांत वातावरण में करने से अच्छा रहता है। उस वृत्त पर तब तक दृष्टि जमाए रहें जबतक कि उसपर कोई चमकीली न दिखने लगे। अर्थात ज्यों-ज्यों एकाग्रता बढ़ेगी, त्यों-त्यों वृत्त का कालापन खत्म होता चला जाएगा और एक स्थिति ऐसी भी आएगी जब वह एकदम से गायब ही हो जाएगा। इस अभ्यास को प्रतिदिन पंद्रह मिनट तक करते हुए लगातार 51 दिनों तक करने के बाद त्राटक साधना की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इस दौरान मन में बाहरी विचारों को नहीं आने देना चाहिए।ज्योति त्राटक का तरीकाः इसकी सिद्धि रात्रि या घुप्प अंधेरे में प्रतिदिन करीब एक निश्चित समय पर बीस मिनट तक कर प्राप्त की जा सकती है। इस साधना के दौरान किसी भी प्रकार की बाधा या अशांति नहीं पैदा होनी चहिए। ढीलेढाले परिधानों में असान लगाकर करीब तीन फुट की दूरी पर एक दीपक या मोमबत्ती को जलाकर उपासना की जानी चाहिए। ध्यान रहे दीपक या मोमबत्ती की लौ में हवा या दूसरी वजहों से कंपन नहीं होने पाए या वह ध्यान के बीच में ही बुझे नहीं। उसे लौ की ज्योति या कहें मधुर प्रकाश पुंज को स्थिर आंखों से एकाग्रता के साथ देखना चाहिए। आंखों की पलकें नहीं झपकनी चाहिए। ऐसा तबतक करना चाहिए, जबतक कि आंखों में किसी भी तरह की पीड़ा या असहनशीलता की स्थिति नहीं आए।इस सिलसिले को प्रतिदिन जारी रखने पर ज्योति का तेज बढ़ता हुए ऐहसास होगा। कुछ दिनों के बाद तो साधना के दौरान ज्योति के प्रकाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखेगा। साथ ही प्रकाश पुंज में संकल्पित कार्य या व्यक्ति का स्वरूप दिखेगा, तो उस आकृति के अनुरूप घटित घटनाओं से आंखों की गजब के तेज की अनुभूति होगी और मनोवांछित कार्यों में सफलता मिलेगी। इस तरह से मिलने वाली सिद्धि सकारात्मक कार्यों के लिए हो तो बेहतर परिणाम मिल सकते हैं। एक मान्यता के अनुसार सिद्ध योगियों में दृष्टिमात्र से ही अग्नि उत्पन्न करने की क्षमता त्राटक सिद्धि से ही हासिल होती है।दर्पण त्राटकः इस तरीके में दर्पण का उपयोग किया जाता है, जिसमें अभ्यास के दौरान चेहरा नहीं दिखता है। इस साधन के दौरान व्यक्ति की स्थिति गहन ध्यान अर्थात शून्य मे विचरण की होती है और उसके द्वारा विचारी जाने वाली बातें साकार होने लगती हैं। इस साधना को संपन्न करने वाला व्यक्ति के चेहरे पर जहां तेज और आत्मविश्वास झलकता है, वहीं लंबे समय तक विचारशून्य बना रहता है। वह किसी को भी आसानी से सम्मोहित या वशीभूत कर लेता है। इसके अभ्यास के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है।दर्पण का आकार आठ इंच लंबा और छह इंच चैड़ा होना चाहिए। यानि कि उसमें नजदीक से केवल चेहरा दिखने लायक हो। उसके सामने इस तरह से बैठना चाहिए ताकि दर्पण में सिर्फ आपकी दोनों आंखों की पुतली ही दिखाई दे।दर्पण को एकटक से निहारते समय अपनी सांसों को नियंत्रित रखना चाहिए। उसमे उतार-चढ़ाव आने से एकाग्रता भंग हो सकती है। यदि आपकी सांस एकदम रूकी हुई तो इससे आपकी वैचारिकता में स्थिरता आने की संभावना प्रबल हो जाती है।
दर्पण में दिखने वाली सिर्फ पुतली पर ही ध्यान देना चाहिए, न कि दर्पण की फ्रेम या आस-पास की दीवारों पर।यह त्राटक लंबे समय तक प्रभावकारी रह सकता है। इस दौरान समय का अंदाजा लगाना मुश्किल है।दर्पण त्राटक से आत्मविश्वास, विचार शून्यता, सम्मोहन और प्राण ऊर्जा के अभ्यास किए जा सकते हैं। विशेषः त्राटक साधन के लिए खुद को अगर नियामों से बंधना होगा, तो इस उगते सूर्य, मोमबत्ती या दीपक की लौ, कोई यंत्र, दीवार या सफेद कागज पर बना बिंदु आदि को देखकर किया जा सकता है। इसक लिए आंखों की स्वस्थता का होना अति आवश्यक है। इससे आंखों और मस्तिष्क के भीतर गर्मी बढ़ जाती है और अधिक देर तक करने से आंखों से आंसू तक निकल आते हैं। इस स्थिति में अभ्यास थोड़े समय के लिए रोक देना चाहिए।
बाह्य त्राटक का उद्देश्य बाह्य-साधकों के आधार पर मन को वश में करना एवं चित्त प्रवृत्तियों का एकीकरण करना है। मन की शक्ति प्रधानतया नेत्रों द्वारा बाहर आती है। दृष्टि को किसी विशेष वस्तु पर जमाकर उसमें 'मन को तन्मयतापूर्वक प्रवेश कराने से नेत्रों द्वारा विकीर्ण होने वाला मन:तेज एवं विद्युत प्रवाह एक स्थान पर केन्द्रीभूत होने लगता है। इससे एक तो एकाग्रता बढ़ती है। दूसरे नेत्रों का प्रवाह-चुम्बकत्व बढ़ जाता है। ऐसी बढ़ी हुई आकर्षण शक्ति वाली दृष्टि को 'बेधक-दृष्टि' कहते हैं।
'बेधक दृष्टि' से देखकर किसी व्यक्ति को प्रभावित किया जा सकता है। मैस्मरेजम करने वाले अपने नेत्रों में त्राटक द्वारा ही इतना विद्युत प्रवाह उत्पन्न कर लेते हैं कि उसे जिस किसी शरीर में प्रवेश कर दिया जाय, वह तुरन्त बेहोश एवं वशवर्ती हो जाता है। उस बेहोश या अर्द्धानद्रित व्यक्ति के मस्तिष्क पर बेधक दृष्टि वाले व्यक्ति का कब्जा हो जाता है और उसमें जो चाहे वह काम ले सकता है। मैस्मरेजम करने वाले किसी व्यक्ति को अपनी त्राटक शक्ति से पूणनिद्रित या अद्धानिद्रित करके उसे नाना प्रकार के नाच नचाते हैं।
मैस्मरेजम द्वारा सत्संकल्प, दान, रोग निवारण, मानसिक त्रुटियों का परिमार्जन आदि लाभ हो सकते हैं और उससे ऊँची अवस्था में जाकर अज्ञात वस्तुओं का पता लगाना, अप्रकट बातों को मालूम करना आदि कार्य भी हो सकते हैं। दुष्ट प्रकृति के बेधक दृष्टि वाले अपने दृष्ट तेज से कहीं स्त्री-पुरुषों के मस्तिष्क पर अपना अधिकार करके उन्हें भ्रमग्रस्त कर देते हैं और उनका सतीत्व तथा धन लूटते हैं। कई बेधक दृष्टि से खेल- तमाशे करके पैसा कमाते हैं यह इस महत्वपूर्ण शक्ति का दुरुपयोग है।
बेधक दृष्टि द्वारा किसी के अन्तःकरण में भीतर तक प्रवेश करके उसकी सारी मन स्थिति को, मनोगत भावनाओं को जाना जा सकता है। बेधक दृष्टि फेंक कर दूसरों को प्रभावित किया जा सकता है। नेत्रों में ऐसा चुम्बकत्व त्राटक द्वारा पैदा हो सकता है। मन की एकाग्रता, चूँकि त्राटक के अभ्यास में अनिवार्य रूप से करनी पड़ती है, इसलिए उसका साधन साथ-साथ होते चलने से मन पर बहुत कुछ काबू हो सकता है।
१- एक हाथ लम्बा एक हाथ चौड़ा, चौकोर कागज का पुट्टा लेकर उसके बीच में रुपये के बराबर एक काला गोल निशान बना लें। स्याही एक-सी हो, कहीं कम ज्यादा न हो। इसके बीच में सरसों के बराबर निशान छोड़ दो और उसत्रें पीला रंग भर दो और तुम उससे चार फीट दूरी पर इस प्रकार बैठो कि वह काला गोला तुम्हारी आँखों के सामने, सीध में रहे।
साधना का कमरा ऐसा होना चाहिए कि जिसमें न अधिक प्रकाश रहे न अंधेरा। न अधिक सर्दी हो, न गर्मी। पालथी मारकर, मेरुदण्ड सीधा रखते हुए बैठो और काले गोले के बीच में जो पीला निशान हो उस पर दृष्टि जमाओ। चित्त की सारी भावनायें एक़त्रित करके, उस बिन्दु को इस प्रकार देखो, मानो तुम अपनी सारी शक्ति नेत्रों द्वारा उसमें प्रवेश कर देना चाहते हो। ऐसा सोचते रहो कि मेरी तीक्ष्ण दृष्टि से इस बिन्दु में छेद हुआ जा रहा है, कुछ देर इस प्रकार देखने से आँखों में दर्द होने लगेगा और पानी बहने लगेगा, तब अभ्यास बन्द कर दो।
अभ्यास के लिए प्रातःकाल का समय ठीक है। पहले दिन देखो कि कितनी देर में आँखें थक जाती हैं और पानी आ जाता है। पहले दिन जितनी देर अभ्यास किया है प्रतिदिन उससे एक या आधी मिनट बढा़ते जाओ।
दृष्टि को स्थिर करने पर देखेंगे कि उस काले गोले में तरह-तरह की आकृतियों पैदा होती हैं। कभी वह सफेद रंग का हो जायेगा तो कभी सुनहरा। कभी छोटा मालूम पड़ेगा, कभी चिन्गारियाँ-सी उड़ती दीखेगी, कभी बादल से छाये हुए प्रतीत होंगे। इस प्रकार यह गोला अपनी आकृति बदलता रहेगा, किन्तु जैसे-जैसे दृष्टि स्थिर होना शुरू हो जायेगी उसमें दीखने वाली विभिन्न आकृतियाँ बन्द हो जायेंगी और बहुत देर तक देखते रहने पर भी गोला ज्यों का ज्यों बना रहेगा।
२- एक फुट लम्बे-चौड़े दर्पण के बीच चाँदी की चवन्नी के बराबर काले रंग के कागज का एक गोल टुकड़ा काटकर, चिपका दिया जाता है। उस कागज के मध्य में सरसों के बराबर पीला बिन्दु बनाते हैं। इस बिन्दु पर दृष्टि स्थिर करते हैं। इस अभ्यास को एक-एक मिनट बढ़ाते जाते हैं। जब इस तरह की दृष्टि स्थिर हो जाती है, तब और भी आगे का अभ्यास शुरू हो जाता है। दर्पण पर चुपके हुए कागज को छुड़ा देते हैं और उसमें अपना मुँह देखते हुए अपनी बाई आँरव की पुतली पर दृष्टि जमा कर लेते हैं और उस पुतली में ध्यानपूर्वक अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं।
३- गो घृत का दीपक जलाकर नेत्रों की सीध में चार फुट की दूरी पर रखिए। दीपक की लौ आध इन्च से कम उठी हुई न हो इसलिए मोटी बत्ती डालना और पिघला हुआ घृत भरना आवश्यक है। बिना पलक झपकाये इस अग्नि-शिखा पर दृष्टिपात कीजिए और भावना कीजिए कि आपके नेत्रों की ज्योति दीपक की लौ से टकराकर उसी में घुली जा रही है।
४- प्रातःकाल के सुनहरे सूर्य पर या रात्रि को चन्द्रमा पर भी त्राटक किया जाता है। सूर्य या चन्द्रमा जब मध्य आकाश में होंगे तब त्राटक नहीं हो सकता। कारण कि उस समय तो सिर ऊपर को करना पड़ेगा या लेटकर ऊपर को आँखें करनी पड़ेगी, यह दोनों ही स्थितियाँ हानिकारक हैं। इसलिए उदय होता सूर्य या चन्द्रमा ही त्राटक के लिए उपयुक्त माना जाता है।
५- त्राटक के अभ्यास के लिए स्वस्थ नेत्रों का होना आवश्यक है। जिनके नेत्र कमजोर हों या कोई रोग हो, उन्हें बाह्य-त्राटक की अपेक्षा आन्तर-त्राटक उपयुक्त है, जो कि ध्यान प्रकरण में लिखा जा चुका है। आन्तर-त्राटक को पाश्चात्य योगी इस प्रकार करते हैं कि दीपक की अग्नि-शिखा, सूर्य-चन्द्रमा आदि कोई चमकता प्रकाश पन्द्रह सैकण्ड खुले नेत्रों से देखा, फिर आँखें बन्द कर ली और ध्यान किया कि वह प्रकाश मेरे सामने मौजूद है। एकटक दृष्टि से मैं उसे घूर रहा हूँ तथा अपनी सारी इच्छा शक्ति को तेज नोंकदार कील की तरह उसमें घुसाकर आर-पार कर रहा हूँ।
अपनी सुविधा स्थिति या रुचि के अनुरूप इन त्राटकों में से किसी को चुन लेना चाहिए और उसे नियत समय पर नियमपूर्वक करते रहना चाहिए मन एकाग्र होता है और दृष्टि में बेधकता, पारदर्शिता एवं प्रभावोत्पादकता की अभिवृद्धि होती है।
त्राटक पर से उठने के पश्चात् गुलाब जल से आँखों को धो डालना चाहिए। गुलाब जल न मिले तो स्वच्छ छना हुआ ताजा पानी भी काम में लाया ला सकता है। आँख धोने के लिए छोटी काँच की प्यालियाँ अंग्रेजी दवा बेचने वालों की दुकान पर मिलती हैं, वह सुविधाजनक होती हैं। न मिलने पर कटोरी में पानी भरके उसमें आँख खोलकर डुबाने और पलक हिलाने से आँख धुल जाती हैं। इस प्रकार के नेत्र स्नान से त्राटक के कारण उत्पन्न हुई आँखों की उष्णता शान्त हो जाती है। त्राटक का अभ्यास समाप्त करने के उपरान्त साधना के कारण बढ़ी हुई मानसिक गर्मी के समाधान के लिए दूध, दही, लस्सी, मक्ख्न, मिश्री, फल, शर्बत, ठण्डाई आदि कोई ठण्डी पौष्टिक चीजें, ऋतु का ध्यान रखते हुए सेवन करनी चाहिए। जाड़े के दिनों में बादाम की हलुआ, च्यवनप्राश अवलेह आदि वस्तुएँ भी उपयोगी होती हैं।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
जप साधना
मनोमय कोश स्थिति एवं एकाग्रता के लिए जप का साधन बड़ा ही उपयोगी है। इसकी उपयोगिता इससे निर्विवाद है कि सभी धर्म, मजहब, सम्प्रदाय इसकी आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। जप करने से मन की प्रवृत्तियों को एक ही दिशा में लगा देना सरल हो जाता है।
कहते हैं कि एक बार एक मनुष्य ने किसी भूत को सिद्ध कर लिया। भूत बड़ा बलवान था उसने कहा - मैं तुम्हारे वश में आ गया ठीक है, जो आज्ञा होगी सो करूँगा, मुझसे बेकार नहीं बैठा जाता है। यदि बेकार रहा तो आपको ही खा जाऊँगा। यह मेरी शर्त अच्छी तरह समझ लीजिए। उस आदमी ने भूत को बहुत काम बताये, उसने थोड़ी-थोड़ी देर में सब काम कर दिये। भूत की बेकारी से उत्पन्न होने वाला संकट उस सिद्ध को बेतरह परेशान कर रहा था। तब वह दुःखी होकर अपने गुरु के पास गया। गुरु ने सिद्ध को बताया कि आँगन में एक बाँस गाढ़ दिया जाय और भूत से कह दो कि जब तक दूसरा काम न बताया जाया करे, तब तक उस बाँस पर बार-बार चढ़े और बार-बार उतरे। यह काम मिल जाने पर भूत से काम लेते रहने की भी सुविधा हो गई और सिद्ध के आगे उपस्थिति रहने वाला संकट हट गया।
मन ऐसा ही भूत है, जो जब भी निरर्थक बैठता है, तभी कुछ- न- कुछ खुराफात करता है। इसलिए यह जब भी कम से छुट्टी पावे तभी इसे जप पर लगा देना चाहिए। जप केवल समय काटने के लिए ही नहीं है, वरन् वह एक बड़ा ही उत्पादक एवं निर्माणात्मक, मनोवैज्ञानिक श्रम है। निरन्तर पुनरावृत्ति करते रहने से मन में उस प्रकार का अभ्यास एवं संस्कार बन जाता है, जिससे वह स्वभावत: उसी ओर चलने लगता है।
पत्थर को बार-बार रस्सी की रगड़ लगने से उसमें गड्ढा पड़ जाता है। पिंजड़े में रहने वाला कबूतर बाहर निकाल देने पर भी लौटकर उसी में वापस आ जाता है। गाय को जंगल में छोड़ दिया जाय, तो भी वह रात को स्वयमेव लौट आती है। निरन्तर अभ्यास से मन भी ऐसा अभ्यस्त हो जाता है कि अपने दीर्घकाल तक सेवन किए गये कार्यक्रम में अनायास ही प्रवृत्त हो जाता है।
अनेक निरर्थक कल्पना-प्रपंचों में उछलते कूदते फिरने कि अपेक्षा आध्यात्मिक भावना की एक सीमित परिधि में भ्रमण करने के लिए जप का अभ्यास करने से मन का एक ही दिशा में प्रवृत्त होने लगता है। आत्मिक क्षेत्र में मन लगा रहना, उस दिशा में एक दिन पूर्ण सफलता प्राप्त होने का सुनिश्चित लक्षण है। मन रूपी भूत बड़ा बलवान है। यह सांसारिक कार्यों को भी बड़ी सफलतापूर्वक करता है और जब आत्मिक क्षेत्र में जुट जाता है, तो भगवान के सिंहासन को हिला देने में भी नहीं चूकता। मन की उत्पादक रचनात्मक एवं प्रेरक शक्ति इतनी विलक्षण है कि उसके लिए संसार की कोई वस्तु असम्भव नहीं। भगवान को प्राप्त करना भी उसके लिए बिलकुल सरल है,। कठिनाई केवल एक नियत क्षेत्र में जमने की है, सो जप के व्यवस्थित विधान से वह भी दूर हो जाती है।
हमारा मन कैसा ही उच्छ्रंखल क्यों न हो, पर जब उसको बार-बार किसी भावना पर केन्द्रित किया जाता रहेगा, तो कोई कारण नहीं कि कालान्तर में उसी प्रकार का न बनने लगे। लगातार प्रयत्न करने से सरकस में खेल दिखाने वाले बन्दर, सिंह, बाघ, रीक्ष जैसे उद्दण्ड जानवर मालिक की मर्जी पर काम करने लगते हैं, उसके इशारे पर नाचते हैं तो कोई कारण नहीं कि चंचल और कुमार्गगामी मन को वश में करके इच्छानुवर्ती न बनाया जा सके। पहलवान लोग नित्यप्रति अपनी नियत मार्यादा में दण्ड-बैठक आदि करते हैं, उनकी इस क्रिया पद्धति से उनका शरीर दिन-दिन हष्ट-पुष्ट होता जाता है और एक दिन वे अच्छे पहलवान बन जाते हैं। नित्य का जप एक आध्यात्मिक व्यायाम है जिससे आध्यात्मिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ और सूक्ष्म शरीर को बलवान बनाने में महत्वपूर्ण सहायता मिलती है।
एक-एक बूँद जमा करने से घड़ा भर जाता है। चींटी एक-एक दाना ले जाकर अपने बिलों में मनों अनाज जमा कर लेती है। एक-एक अक्षर पढ़ने से थोड़े दिनों में विद्वान बना जा सकता है। एक-एक कदम चलने से लम्बी मंजिल पार हो सकती है, एक-एक पैसा जोड़ने से खजाने जमा हो जाते हैं, एक-एक तिनका मिलने से मजबूत रस्सी बन जाती है। जप में भी वही होता है। माला का एक-एक दाना फेरने से बहुत जमा हो जाता है। इसलिए योग ग्रन्थों में जप को, यज्ञ बताया गया है। उसकी बड़ी महिमा गाई है और आत्म-मार्ग पर चलने की इच्छा करने वाले पथिक के लिए जप करने का कर्तव्य आवश्यक रूप से निर्धारित किया गया है।
गीता के अध्याय १० श्लोक २५ में कहा गया है कि 'यज्ञों में जप-यज्ञ श्रेष्ठ हैं।' मनुस्मृति में, अध्याय २ श्लोक ८६ में बताया गया कि होम, बलिकर्म, श्राद्ध, अतिथि- सेवा, पाकयज्ञ, विधियज्ञ, दर्शपौर्ण- मासादि यज्ञ, सब मिलकर भी जप-यज्ञ के सोलहवें भाग के बराबर नहीं होते। महर्षि भारद्वाज ने गायत्री व्याख्या में कहा है कि “समस्त यज्ञों में जप-यज्ञ श्रेष्ठ है। अन्य यज्ञों में हिंसा होती है, पर जप-यज्ञ में नहीं होती। जितने कर्म, यज्ञ, दान तप हैं, सब जप-यज्ञ की सोलहवीं कला के समान भी नहीं होते। समस्त पुण्य साधना में जप-यज्ञ सर्वश्रेष्ठ हैं।'' इस प्रकार की अगणित प्रमाण शास्त्रों में उपलब्ध है। उन शास्त्र वचनों में, जप-यज्ञ की उपयोगिता एवं महत्ता को बहुत जोर देकर प्रतिपादन किया गया है। कारण यह है कि जप, मन को वश में करने का रामवाण अस्त्र है और यह सर्वविदित तथ्य है कि मन को वश में करना इतनी बड़ी सफलता है कि उसकी प्राप्ति होने पर जीवन को धन्य माना जा सकता है। समस्त आत्मिक और भौतिक सम्पदायें, संयत मन से ही तो उपलब्ध की जाती हैं।
जप-यज्ञ के सम्बन्ध में कुछ आवश्यक जानकारियाँ नीचे दी गयी हैं-
१- जप के लिए प्रातःकाल एवं सर्वोत्तम काल है। दो घण्टे रात में रहने से सूर्योदय तक ब्रह्म-मुहूर्त कहलाता है। सूर्योदय से दो घण्टे दिन चढ़े तक प्रातःकाल होता है। प्रातःकाल से भी ब्रह्म-मुहूर्त अधिक श्रेष्ठ है।
२- जप के लिए पवित्र, एकान्त स्थान चुनना चाहिए। मन्दिर, तीर्थ, बगीचा, जलाशय आदि एकान्त के शुद्ध स्थान जप के लिए अधिक उपयुक्त हैं। घर में यह करना हो, तो भी ऐसी जगह चुननी चाहिए जहाँ अधिक खटपट न हो। ३- सन्ध्या को जप करना हो, तो सूर्य अस्त से एक घण्टा उपरान्त तक जप समाप्त कर लेना चाहिए। प्रातःकाल के दो घण्टे और सायंकाल का एक घण्टा इन तीनों घण्टों को छोड़कर रात्रि के अन्य भागों में गायत्री मन्त्र नहीं जपा जाता है।
४- जप के लिए शुद्ध शरीर और शुद्ध वस्त्रों से बैठना चाहिये। साधारणत: स्नान द्वारा ही शरीर की शुद्धि होती है पर किसी विवशता ऋतु प्रतिकूलता या अस्वस्थता की दशा में हाथ मुँह धोकर या गीले कपड़ों से शरीर पोंछकर भी काम चलाया जा सकता है, नित्य धुले वस्त्रों की व्यवस्था न हो सके तो रेशमी या ऊनी वस्त्रों से काम लेना चाहिए।
५- जप के लिए बिना बिछाये न बैठना चाहिये। कुश का आसन, चटाई आदि घास के बने आसन अधिक उपयुक्त हैं। पशुओं के चमड़े, मृगछाला आदि आजकल उनकी हिंसा से प्राप्त होते हैं, इसलिए वे निषिद्ध हैं।
६- पद्मासन में पालती मारकर मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए जप के लिए बैठना चाहिए। मुँह प्रात: पूर्व की ओर सायंकाल पश्चिम की ओर रहे।
७- माला तुलसी या चन्दन की लेनी चाहिए। कम-से-एक माला नित्य जपनी चाहिये। माला पर जहाँ बहुत आदमियों की दृष्टि पड़ती हो वहाँ हाथ कपड़े से या गौ मुखी से ढक लेना चाहिए।
८- माला जपते समय सुमेरु (माला के प्रारम्भ का सबसे बड़ा केन्द्रीय दाना का) उल्लंघन न करना चाहिए। एक माला पूरी करके उसे मस्तिष्क तथा नेत्रों से लगाकर पीछे की तरफ उल्टा ही वापिस कर लेना चाहिये। इस प्रकार माला पूरी होने पर हर बार उलट कर ही नया आरम्भ करना चाहिए।
९- लम्बे सफर में, स्वयं रोगी हो जाने पर, किसी रोगी की सेवा में संलग्न होने पर, जन्म- मृत्यु का सूतक लग जाने पर स्नान आदि पवित्रताओं की सुविधा नहीं रहती है। ऐसी दशा में मानसिक जप चालू रखना चाहिये। मानसिक जप बिस्तर पर पड़े-पड़े, रास्ता या किसी भी पवित्र, अपवित्र दशा में किया जा सकता है।
१०- जप नियत समय पर, नियत संख्या में, नियत स्थान पर, शान्त चित्त एवं एकाग्र मन से करना चाहिये। पास में जलाशय या जल से भरा पात्र होना चाहिये। आचमन के पश्चात् जप आरम्भ करना चाहिए। किसी दिन अनिवार्य कारण से जप स्थगित करना पड़े तो दूसरे दिन प्रायश्चित स्वरूप एक माला अधिक जपनी चाहिए।
११- जप इस प्रकार करना चाहिए कि कण्ठ से ध्वनि होती रहे, होठ हिलते रहें परन्तु समीप बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से मन्त्र को न सुन सके। मल-मूत्र त्याग या किसी अनिवार्य कार्य के लिये साधना के बीच में ही उठना पड़े तो शुद्ध जल से साफ होकर तब दुबारा बैठना चाहिये। जपकाल में यथासम्भव मौन रहना उचित है। कोई बात कहना आवश्यक हो तो इशारे से कह देनी चाहिये।
१२- जप के समय मस्तिष्क के मध्य भाग में इष्टदेव को, प्रकाश ज्योति का ध्यान करते रहना चाहिए। साधक का आहार तथा व्यवहार सात्विक होना चाहिये। शारीरिक एवं मानसिक दोषों से बचने का यथासम्भव पूरा प्रयत्न करना चाहिये।
१३- जप के लिये गायत्री मन्त्र सर्वश्रेष्ठ है। गुरु द्वारा ग्रहण किया हुआ मन्त्र ही सफल होता है। स्वेच्छापूर्वक मनचाही विधि से मनचाहा मन्त्र जपने से विशेष लाभ नहीं होता। इसलिए अपनी स्थिति के अनुकूल आवश्यक विधान, किसी अनुभवी पथ प्रदर्शक से मालूम कर लेना चाहिये। उपर्युक्त नियमों के आधार पर किया हुआ गायत्री जप मन को वश में करने एवं मनोमय कोश को सुविकसित करने में बड़ा महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है।
क्या हैं तन्मात्रा साधना?-
11 FACTS;-
1-हमारा शरीर एवं समस्त संचार तन्त्र पंचतत्वों का बना हुआ है। पृथ्वी, जल, वायु अग्नि और आकाश इन पाँच तत्वों की मात्रा में अन्तर होने के कारण विविध आकार प्रकार और गुणधर्म की वस्तुएँ बन जाती हैं।
इन पाँच तत्वों की जो सूक्ष्म शक्तियाँ हैं, इनकी इन्द्रियजन्य अनुभूति को 'तन्मात्रा' कहते हैं। शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। यह पाँच तत्वों से बने हुए पदार्थों के संसर्ग में आने पर जैसा अनुभव करती हैं, उस अनुभव को 'तन्मात्रा' नाम से पुकारते हैं। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ये पाँच तन्मात्राएँ हैं।
2-आकाश की तन्मात्रा 'शब्द' है। वह कान द्वारा हमें अनुभव होता है। कान भी आकाश तत्व की प्रधानता वाली इन्द्रिय हैं।इसी प्रकार वायु की तन्मात्रा 'स्पर्श' का ज्ञान त्वचा को होता है। त्वचा में फैले हुए ज्ञान तन्तु दूसरी वस्तुओं का ताप, भार, घनत्व एवं उसके स्पर्श की प्रतिक्रिया का अनुभव कराते हैं।
3-अग्नि तत्व की तन्मात्रा 'रूप' है। यह अग्नि- प्रधान इन्द्रिय नेत्र द्वारा अनुभव किया जाता है। रूप को आँखें ही देखती हैं। जल तत्व की तन्मात्रा 'रस' है। रस का जल-प्रधान इन्द्रिय जिह्वा द्वारा अनुभव होता है, षटरसों का खट्टे, मीठे, खारी, तीखे, कड़ुवे, कसैले का स्वाद जीभ पहचानती है। पृथ्वी तत्व की तमन्मात्रा 'गन्ध' को पृथ्वी गुण प्रधान नासिका इन्द्रिय मालूम करती है।
3-परमात्मा ने पंच तत्वों में तन्मात्रायें उत्पन्न कर और उनके अनुभव के लिये शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ बनाकर, शरीर और संसार को आपस में घनिष्ठ आकर्षण के साथ सम्बद्ध कर दिया है।यदि तत्वों में तन्मात्रायें होती पर शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ न होतीं तो जैसे वायु में फिरते रहने वाले कीटाणु केवल जीवन धारण ही करते हैं उन्हें संसार में किसी प्रकार की रसानुभूति नहीं होती, इसी प्रकार मानव-जीवन भी नीरस हो जाता है।
4-इन्द्रियों की संवेदना-शक्ति और तत्वों की तन्मात्रायें मिलकर प्राणी को ऐसे अनेक शारीरिक और मानसिक रस अनुभव कराती हैं जिनके लोभ से वह जीवन धारण किये रहता है। इस संसार को छोड़ना नहीं चाहता। उसकी यह चाहना ही जन्म-मरण के चक्र में भव-बन्धन में बँधे रहने के लिए बाध्य करती है।
6-आत्मा की ओर न मुड़कर, आत्म-कल्याण में प्रवृत्त न होकर सांसारिक वस्तुओं को संग्रह करने की, उनका स्वामी बनने की, उनके सम्पर्क की रसानुभूति को चखते रहने की लालसा में मनुष्य डूबा रहता है। रंग-बिरगे खिलौने से खेलने में जैसे बच्चे बेतरह तन्मय हो जाते हैं और खाना-पीना सभी भूलकर खेल में लगे रहते हैं, उसी प्रकार तन्मात्राओं के खिलौने मन में ऐसे बस जाते हैं, इतने सुहावने लगते हैं कि उनसे खेलना छोड़ने की इच्छा नहीं होती।
7-कई दृष्टियों से कष्टकर जीवन व्यतीत करते हुए भी लोग मरने को तैयार नहीं होते, मृत्यु का नाम सुनते ही काँपते हैं, इसको एकमात्र कारण यही है कि सांसारिक पदार्थों की तन्मात्राओं में जो मोहक आकर्षण हैं, वह कष्ट और अभाव की तुलना में मोहक और सरल है। कष्ट सहते हुए भी प्राणी उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं होता।
8-पाँच इन्द्रियों के खूँटे से, पाँच तन्मात्राओं के रस्सों से जीव बँधा हुआ है। यह रस्से बड़े ही आकर्षक हैं,खूँटे चाँदी सोने के बने हुए हैं, उनमें हीरे जवाहरात जगमगा रहे हैं।जीवन रूपी घोड़ा इन रस्सों से बँधा है। वह बन्धन के दुःख को भूल जाता है और रस्सों तथा खूँटों की सुन्दरता को देखकर छुटकारे की इच्छा तक करना छोड़ देता है। उसे वह बन्धन भी अच्छा लगता है।
9-दिन भर गाड़ी में जुतने और चाबुक खाने के कष्टों को भी इन चमकीले रस्सों और खूँटों की तुलना में कुछ नहीं समझता। इसी बुद्धि की अदूरदर्शिता की, वास्तविकता न समझने को शास्त्रों में अविद्या माया, भ्रान्ति आदि नियमों को पुकारा गया है और इस भूल से बचने के लिए अनेक प्रकार की धार्मिक कथा, गाथाओं, उपासनाओं एवं साधनाओं का विधान किया गया है।
10-तन्मात्राओं की रसानुभूति घोड़े की रस्सी अथवा खुजली के समान है। यह बहुत ही हल्की, छोटी और महत्व हीन वस्तु है। यह भावना अन्त:भूति में जमाने के लिए मनोमय कोश की सुव्यवस्था के लिए तन्मात्राओं की साधना के अभ्यास बताये गये हैं। इन साधनाओं से अन्तःकरण यह अनुभव कर लेता है कि ''तन्मात्रायें अनात्म वस्तु हैं।'' यह जड़ पंच-तत्वों की सूक्ष्म प्रक्रिया मात्र है। यह मनोमय कोश में खुजली की तरह चिपट जाती है और एक निरर्थक से झमेले गोरखधन्धे में हमें फँसा कर लक्ष्य प्राप्ति से वंचित कर देती है। इसलिए इनकी वास्तविकता व्यर्थता एवं तुच्छता को भली प्रकार समझ लेना चाहिए।
11- वास्तव में, मन स्वयं एक इन्द्रिय है। उसका लगाव सदा तन्मात्राओं की ओर रहता है। मन का विषय ही रसानुभूति है। साधनात्मक रसानुभूति में उसे लगा दिया जाय तो वह अपने विषय में भी लगता है और जो सूक्ष्म परिश्रम करना पड़ता है उसके कारण अति सूक्ष्म मनःशक्तियों का जागरण होने से अनेक प्रकार के मानसिक लाभ भी होते हैं।पाँचों तन्मात्राओं की छोटी- सरल साधनायें करने से बुद्धि यह अनुभव कर लेती है कि शब्द रूप रस, गंध, स्पर्श का जीवन को चलाने में केवल उतना ही उपयोग है, जितना मशीन के पुर्जों में तेल का। इनमें आसक्त होने की आवश्यक नहीं है।
तन्मात्रा साधना
पंच ज्ञानेन्द्रियों के पाँच प्रकार की पंच तन्मात्राओं की साधनायें इस प्रकार हैं-
1-शब्द साधना
एकान्त स्थान में जाइये जहाँ किसी प्रकार शब्द या कोलाहल न होते हों। बाहर के शब्द भी न सुनाई पड़ते हों। रात्रि को जब चारों ओर शांति हो जाती हो तब इस साधना के लिए बड़ा अच्छा अवसर मिलता है। दिन में करना हो तो कमरे के किवाड़ बन्द कर लेना चाहिए ताकि बाहर से शब्द भीतर न आवें।
१- शांत चित्त से पद्मासन लगाकर बैठिये। नेत्र बन्द कर लीजिए। एक छोटी घड़ी कान के पास ले जाइये और उसक टिक-टिक की ध्यानपूर्वक सुनिये। अब धीरे- धीरे घड़ी को कान से दूर हटाते जाइये और ध्यान देकर उसकी टिक-टिक को सुनने का प्रयत्न कीजिए। घड़ी और कान की दूरी को बढ़ाते जाइये। धीरे-धीरे अभ्यास से बड़ी बहुत दूर रखी होने पर भी टिक-टिक कान में आती रहेगी। बीच में जब ध्वनि प्रभाव शिथिल हो जाय, तो घड़ी को कान के पास लगाकर कुछ देर तक उस ध्वनि को अच्छी तरह सुन लेना चाहिए और फिर दूर हटा कर सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से उस शब्द प्रवाह को सुनने का प्रयत्न करना चाहिए।
२- घड़ियाल में एक चोट मारकर, उसकी आवाज को बहुत देर तक सुनते रहना और फिर बहुत देर तक उसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से सुनने का प्रयत्न करना। जब पूर्व ध्यान शिथिल हो जाय तो फिर घड़ियाल में हथौड़ी मारकर, फिर उस ध्यान को ताजा कर लेना, इसी साधना का 'मुष्टि योग' नाम से योग ग्रन्थों में वर्णन है।
किसी झरने के निकट या नहर की झील के निकट जाइये जहाँ प्रपात का शब्द हो रहा हो। शान्त चित्त से इस शब्द-प्रवाह को कुछ देर सुनते रहिए। फिर कानों को उँगली डालकर बन्द कर लीजिए और सूक्ष्म कणन्द्रिय द्वारा उस ध्वनि को सुनिये। बीच में जब शब्द शिथिल हो जाय तो उँगली ढीली करके उसे सुनिये और कान बन्द करके फिर उसी प्रकार ध्यान द्वारा ध्वनि ग्रहण कीजिए। इन शब्द साधनाओं में लगे रहने से मन एकाग्र होता है। साथ ही सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय जाग्रत होती है, जिनके कारण दूर बैठकर बात करने वाले लोगों के शब्द सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आ जाते हैं। सुदूर हो रही गुप्त वार्ताओं का अभ्यास हो जाता है। देश-विदेश में हो रहे नृत्य, गीत, वाद्य आदि की ध्वनि तरंगे कानों में आकर चित्त को उल्लास-आनन्द से भर देती हैं। आगे चलकर यही साधना 'कर्ण पिशाचिनी' सिद्धि के रूप में प्रकट होती है। कहाँ क्या हो रहा है, किसके मन में क्या विचार उठ रहा है, किसकी वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणियाँ क्या-क्या कर रही हैं, भविष्य में क्या होने वाला है ? आदि बातों को कोई शक्ति सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आकर इस प्रकार कह जाती है मानो कोई अदृश्य प्राणी कान पर मुँह रखकर सारी बात कह रहा है। इस सफलता को 'कर्ण पिशाचिनी सिद्धि' कहते हैं।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
रूप साधना
१- वेदमाता गायत्री का या सरस्वती, दुर्गा, लक्ष्मी राम, कृष्ण, आदि इष्टदेव का जो सबसे सुन्दर चित्र या प्रतिमा मिले, उसे लीजिए। एकान्त स्थान में ऐसी जगह बैठिये जहाँ पर्याप्त प्रकाश हो, इस चित्र या प्रतिमा के अंग-प्रत्यंगों को मनोयोगपूर्वक देखिये, इसके सौन्दर्य एवं विशेषताओं को खूब बारीकी के साथ देखिये, एक मिनट इस प्रकार देखने के बाद नेत्रों को बन्द कर लीजिये, अब उस चित्र के रूप का ध्यान कीजिए और जो बारीकियाँ, विशेषताएँ अथवा सुन्दरताएँ चित्र में देखी थीं उन सबको कल्पनाशक्ति द्वारा ध्यान के चित्र में आरोपित कीजिए। फिर नेत्र खोल लीजिए और उस छवि को देखिए ध्यान के साथ-साथ ॐ मन्त्र जपते रहिए। इस प्रकार बार-बार करने से वह रूप मन में बस जायेगा। उसका दिव्य नेत्रों से दर्शन करते हुए बड़ा आनन्द आवेगा। धीरे-धीरे इस चित्र की मुखाकृति बदलती मालूम देगी, हँसती मुस्कराती, नाराज होती उपेक्षा करती हुई भावभंगी दिखाई देगी। यह प्रतिमा स्वप्न में अथवा जागृति अवस्था में, नेत्रों के सामने आवेगी और कभी ऐसा अवसर आ सकता है, जिसे प्रत्यक्ष साक्षात्कार कहा जा सके आरम्भ में यह साक्षात्कार धुंधला होता है। फिर धीरे-धीरे ध्यान सिद्ध होने से वह छवि अधिक स्पष्ट होने लगती है। पहले दिव्य दर्शन ध्यान क्षेत्र में ही रहता है, फिर प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगता है।
२- किसी मनुष्य के रूप का ध्यान, जिन भावनाओं के साथ, प्रबल मनोयोगपूर्वक किया जायेगा, उन भावनाओं के अनुरूप उस व्यक्ति पर प्रभाव पड़ेगा। किसी के विचारों को बदलने, द्वेष मिटाने मधुर संबन्ध उत्पन्न करने, बुरी आदतें छुड़ाने, आशीर्वाद या शाप से लाभ हानि पहुँचाने आदि के प्रयोग इस साधना के आधार पर होते हैं । तान्त्रिक लोग विशेष कर्मकाण्डों एवं मन्त्रों द्वारा किसी मनुष्य का रूप आकर्षण करके उसे रोगी, पागल एवं वशवर्ती करते देखे गये हैं।
३- छाया पुरुष की सिद्धि भी रूप-साधना का एक अंग है। शुद्ध शरीर और शुद्ध वस्त्रों से बिना भोजन किये मनुष्य की लम्बाई के दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी आकृति ध्यानपूर्वक देखिये थोड़ी देर बाद नेत्र बन्द कर लीजिए और उस दर्पण की आकृति का ध्यान कीजिए अपनी छवि आपको दृष्टिगोचर होने लगेगी। कई व्यक्ति दर्पण की अपेक्षा स्वच्छ पानी में, तिली के तेल या पिघले हुए पूत में अपनी छवि को देखकर उसका ध्यान करते हैं। दर्पण की साधना-शान्तिदायक तेल की संहारक और मृत की उत्पादक होती है। सूर्य और चन्द्रमा जब मध्य आकाश में ऐसे स्थान पर हों कि उनके प्रकाश में खड़े होने पर अपनी छाया ३.५ हाथ रहे उस समय अपनी छाया पर भी उस प्रकार साधन कल्याणकारक माना गया है।
दर्पण, जल, तेल, घृत आदि में मुखाकृति स्पष्ट दीखती है और नेत्र बन्द करके वैसा ही ध्यान हो जाता है। सूर्य-चन्द्र की ओर पीठ करके खड़े होने से अपनी छाया सामने आती है। उसे खुले नेत्रों से भली प्रकार देखने के उपरान्त आँखें बन्द करके उसकी छाया का ध्यान करते हैं। कुछ दिनों के नियमित अभ्यास से उस छाया में अपनी आकृति भी दिखाई देने लगती है।
कुछ काल निरन्तर इस छाया- साधना को करते रहा जाय तो अपनी आकृति की एक अलग सत्ता बन जाती है और उसमें अपने संकल्प एवं प्राण का सम्मिश्रण होते जाने से वह एक स्वतंत्र चेतना का प्राणी बन जाता है। उसके अस्तित्व को 'अपना जीवित भूत' कह सकते हैं। आरम्भिक अवस्था में यह आकाश में उड़ता या अपने आस-पास फिरता दिखाई देता है। फिर उस पर जब अपना नियंत्रण हो जाता है तो आज्ञानुसार प्रकट होता तथा आचरण करता है। जिनका प्राण निर्बल है उनका यह मानस-पुत्र, (छाया पुरुष) भी निर्बल होगा और अपना रूप दिखाने के अतिरिक्त और कुछ विशेष कार्य न कर सकेगा। पर जिनका प्राण प्रबल होता है उनका छाया पुरुष दूसरे अदृश्य शरीर की भाति कार्य करता है। एक स्थूल और दूसरी सूक्ष्म देह दो प्रकट देहें पाकर साधक बहुत से महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त कर लेता है। साथ ही रूप- साधना द्वारा मन का वश में होना तथा एकाग्र होना तो प्रत्यक्ष लाभ ही हैं।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
रस साधना
जो फल आपको सबसे स्वादिष्ट लगता हो उसे इस साधना के लिए लीजिए। जैसे आपको कलमी आम अधिक रुचिकर है, तो उसके छोटे-छोटे पाँच टुकड़े कीजिए। एक टुकड़ा जिह्वा के अग्रभाग पर एक मिनट तक रखा रहने दें और उसके स्वाद का स्मरण इस प्रकार करें कि बिना आम के भी आम का स्वाद जिह्वा को होता रहे। दो मिनट में वह अनुभव शिथिल होने लगेगा, फिर दूसरा टुकड़ा जीभ पर रखिये और पूर्ववत् उसे फेंक कर आम के स्वाद का अनुभव कीजिए। इस प्रकार पाँच बार करने में पन्द्रह मिनट लगते हैं।
धीरे- धीरे जिह्वा पर कोई वस्तु रखने का समय कम करना चाहिए और बिना किसी वस्तु के रस के अनुभव करने का समय बढ़ाना चाहिए। कुछ समय पश्चात् बिना किसी वस्तु को जीभ पर रखे भी केवल भावना मात्र से इच्छित वस्तु का पर्याप्त समय तक रसास्वादन किया जा सकता।
शरीर के लिए जिन रसों की आवश्यकता है, वे पर्याप्त मात्रा में आकाश में भ्रमण करते रहते हैं। संसार में जितने पदार्थ हैं उनका कुछ अंश वायु रूप में, कुछ तरल रूप में और कुछ ठोस आकृति में रहता है। अन्न को हम ठोस आकृति में ही देखते हैं। भूमि में, जल में वह परमाणु रूप से रहता है और आकाश में अन्न का वायु अंश उड़ता रहता है। साधना की सिद्धि हो जाने पर आकाश में उड़ते फिरने वाले अन्नों को मनोबल द्वारा, संकल्प-शक्ति के आकर्षण द्वारा खींचकर उदरस्थ किया जा सकता है। प्राचीनकाल में ऋषि लोग दीर्घकाल तक बिना अन्न जल के तपस्यायें करते थे। वे इस सिद्धि द्वारा आकश में से ही अभीष्ट आहार प्राप्त कर लेते थे, इसलिए बिना अन्न जल के भी उनका काम चलता था। इस साधना का साधक बहुमूल्य पौष्टिक पदार्थ, औषधियों एवं स्वादिष्ट रसों का उपभोग अपने साधन बल द्वारा ही कर सकता है तथा दूसरों के लिए वह वस्तुयें आकाश में उत्पन्न करके इस तरह दे सकता है, मानो किसी के द्वारा कहीं से मँगाकर दी हों।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
गंध साधना
नासिक के अग्र भाग पर त्राटक रचना इस साधना में आवश्यक है। दोनों नेत्रों से एक साथ नासिका के अग्र भाग पर त्राटक नहीं हो सकता इसलिए एक मिनट दाहिनी ओर तथा एक मिनट बाई ओर करना उचित है। दाहिने नेत्र को प्रधानता देकर उससे नाक के दाहिने हिस्से को और फिर बाएँ नेत्र को प्रधानता देकर बाएँ हिस्से को गम्भीर दृष्टि से देखना चाहिए। आरम्भ में एक-एक मिनट से करके अन्त में पाँच-पाँच मिनट तक बढ़ाया जा सकता है। इस त्राटक में नासिका की सूक्ष्म शक्तियों जाग्रत होती हैं।
इस त्राटक के बाद कोई सुगन्धित तथा सुन्दर पुष्प लीजिए। उसे नासिका के समीप ले जाकर कर एक मिनट तक धीरे-धीरे सूँघिये और उसी गन्ध का भली प्रकार स्मरण कीजिए। इसके बाद फूल को फेंक दीजिए और बिना फुल के ही उस गन्ध का दो मिनट तक स्मरण कीजिए इसके बाद दूसरा फूल लेकर फिर इसी क्रम की पुनरावृत्ति कीजिए। पाँच फूलों पर पन्द्रह मिनट प्रयोग करना चाहिए। स्मरण रहे कम-से-कम एक सप्ताह तक एक ही फूल का प्रयोग होना चाहिए। इसी प्रकार रस साधना में एक फल का एक सप्ताह तक प्रयोग होना चाहिए।
कोई भी सुन्दर पुष्प गन्ध- साधना पुष्पों के लिए लिया जा सकता। भिन्न जो के भिन्न गुण हैं। गुलाब- प्रेमोत्पादक, चमेली- बुद्धिवर्धक, गेंदा- उत्साह बढ़ाने वाला, चम्पा- सौन्दर्यदायक, मोगरा- सन्तानवर्धक, केतकी- रोग नाशक, कदम्ब- शान्तिदायक, कन्नेर- उष्ण, सूर्यमुखी- ओजवर्धक है। प्रत्येक पुष्प में कुछ सूक्ष्म गुण होते हैं। जिस पुष्प को सामने रखकर उसका ध्यान किया जायेगा उसी सूक्ष्म गुण अपने में बढ़ेंगे।
हवन, गन्ध- योग से सम्बन्धित है। किन्हीं पदार्थों की सूक्ष्म प्राण शक्ति को प्राप्त करने के लिए उनसे विधिपूर्वक हवन किया जाता है। जिससे उनका स्थूल रूप तो जल जाता है, पर सूक्ष्म रूप से वायु के साथ चारों ओर फैलकर निकटस्थ लोगों की प्राण-शक्ति में अभिवृद्धि करता है। सुगन्धित वातावरण में अनुकूल प्राण की मात्रा अधिक होती है इससे उसे नासिका द्वारा प्राप्त करते हुए अन्तःकरण प्रसन्न होता है।
गन्ध- साधना से मन की एकाग्रता के अतिरिक्त भविष्य का आभास प्राप्त करने की शक्ति बढ़ती है। सूर्य स्वर (बायाँ) और चन्द्र स्वर (दायाँ) सिद्ध हो जाने पर साधक अच्छा भविष्य- ज्ञाता हो सकता है। नासिका द्वारा साधा जाने वाला स्वर-योग भी गन्ध-साधना की एक शाखा है।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
स्पर्श साधना;-
१- बर्फ या कोई अन्य शीतल वस्तु शरीर पर एक मिनट लगा कर फिर उसे उठावें और दो मिनट तक अनुभव करें कि वह ठण्डक मिल रही है। सह्य उष्णता का गरम किया हुआ पत्थर का टुकड़ा शरीर से स्पर्श कराकर उसकी अनुभूति कायम रहने की भावना करनी चाहिए। पंखा झलकर हवा करना, चिकना काँच का ध्यान रखना भी इस प्रकार का अभ्यास है। ब्रुश से रगड़ना, लोहे का गोला उठाना, जैसे अभ्यासों से इसी प्रकार की जान भावना की जा सकती है।
२- किसी समतल भूमि पर एक बहुत ही मुलायम गद्दा बिछाकर उस पर चित्त लेटे रहिये, कुछ देर तक उसकी कोमलता का स्पर्श सुख अनुभव करते रहिये, इसके बाद बिना गद्दा की कठोर जमीन या तख्त पर लेट जाइये। कठोर भूमि पर पड़े रहकर कोमल गद्दे के स्पर्श की भावना कीजिए फिर पलटकर गद्दे पर आ जाइये और कठोर भूमि की कल्पना कीजिए। इस प्रकार भिन्न परिस्थिति में भिन्न वातावरण की भावना से तितिक्षा की सिद्धि मिलती है। स्पर्श- साधना की सफलता से शारीरिक कष्टों को हँसते-हँसते सहने की शक्ति पैदा होती है।
स्पर्श-साधना से तितिक्षा की सिद्धि मिलती है। सर्दी गर्मी, वर्षा, चोट, फोड़ा, दर्द आदि से जो शरीर को कष्ट होते हैं। उनका कारण त्वचा में जल की तरह फैले हुए ज्ञान- तन्तु ही हैं यह ज्ञान तन्तु छोटे से आघात, कष्ट या अनुभव को मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं, तद्नुसार मस्तिष्क को पीड़ा का भान होने लगता है। कोकीन का इन्जेक्शन लगाकर इन ज्ञान तन्तुओं को शिथिल कर दिया जाय तो ऑपरेशन करने में भी उस स्थान पर पीड़ा नहीं होती। कोकीन इन्जेक्शन तो शरीर को पीछे से हानि भी पहुँचाता है पर स्पर्श साधना द्वारा प्राप्त हुई ज्ञान- तन्तु नियन्त्रण शक्ति किसी प्रकार की हानि पहुँचाना तो दूर उल्टी नाड़ी संस्थान के अनेक विकारों को दूर करने में सफल होती है, साथ ही शारीरिक पीड़ाओं का भान भी नहीं होने देती।
भीष्म पितामह उत्तरायण सूर्य आने की प्रतीक्षा में कई महीने वाणों से छिदे हुए पड़े रहे थे। तिल-तिल शरीर में बाण लगे थे फिर भी कष्ट से चिल्लाना तो दूर वे उपस्थित लोगों को बड़े ही गढ़ विषयों का उपदेश देते रहे। ऐसा करना उनके लिए तभी सम्भव हो सका जब उन्हें तितिक्षा की सिद्धि थी अन्यथा हजारों बाणों में छिदा होना तो दूर एक सुई या काँटा लग जाने पर लोग होश हवास भूल जाते हैं
स्पर्श- साधना से चित्त की वृत्तियाँ एकाग्र होती हैं मन को वश में करने से जो लाभ मिलते हैं उनके अतिरिक्त तितिक्षा की सिद्धि भी साथ में हो जाती है जिससे कर्मयोग एवं प्रकृति प्रवाह से शरीर को होने वाले कष्टों को भोगने से साधक बच जाता है।
मन को आज्ञानुवर्ती नियन्त्रित अनुशासित बनाना जीवन को सफल बनाने की अत्यन्त महत्वपूर्ण समस्या है। अपना दृष्टिकोण चाहे आध्यात्मिक हो, चाहे भौतिक, चाहे अपनी प्रवृत्तियों परमार्थ की ओर हों या स्वार्थ की ओर, मन का नियन्त्रण हर स्थिति में आवश्यक है। उच्छ्रंखल चंचल या अव्यवस्थित मन से न लोक न परलोक, कुछ भी नहीं मिल सकता। मनोनिग्रह प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है।
मानसिक अव्यवस्था दूर करके मनोबल प्राप्त करने के लिए इस प्रकार जो साधनायें बताई गई हैं, वे बड़ी उपयोगी सरल एवं सर्व- सुलभ हैं। ध्यान त्राटक जप एवं तन्मात्रा साधना से मन की चढ़ता दूर होती है साथ ही चमत्कारी सिद्धियाँ भी मिलती हैं। इस प्रकार पाश्चात्य योगियों की मैस्मरेजम के तरीके से की गई मन साधनाओं की अपेक्षा भारतीय विधि की योग पद्धति से की गई साधना, द्विगुणित लाभदायक होती है।
वश में किया हुआ मन सबसे बड़ा मित्र है वह सांसारिक और आत्मिक दोनों ही प्रकार के अनेक ऐसे अद्भुत उपहार निरन्तर प्रदान करता रहता है जिन्हें पाकर मानव- जीवन धन्य हो जाता है। सुरलोक में ऐसा कल्पवृक्ष बताया जाता है जिसके नीचे बैठकर मनचाही कामनायें पूरी हो जाती हैं। मृत्युलोक में, वश में किया मन ही कल्पवृक्ष है। यह परम सौभाग्य जिसे प्राप्त हो गया अनन्त ऐश्वर्य का आधिपत्य ही प्राप्त हो गया समझिये।
अनियन्त्रित मन अनेक विपत्तियों की जड़ है। अग्नि जहाँ रखी जायेगी उसी स्थान को जलावेगी। जिस देह में असंयत मन रहेगा उसमें नित नई विपत्तियों, कठिनाइयाँ, आपदायें, बुराइयाँ बरसती रहेंगी। इसलिए अध्यात्म विद्या के विद्वानों ने मन को वश में करने की साधना को बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना है। गायत्री का तृतीय मुख मनोमय कोश है। इस कोश को सुव्यवस्थित कर लेना मानो तीसरे बन्धन को खोल लेना है, आत्मोन्नति की तीसरी कक्षा पार कर लेना है।