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क्या रहस्य है प्राण और अपान का?PART-02

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Jun 3, 2020
  • 21 min read

क्या चौथी प्राण ऊर्जा ''उदना ऊर्जा -प्रवाहिनी'' को सिद्ध करने से योगी पृथ्वी से ऊपर उठ पाता हैं?-

15 FACTS;- 1-अगर तुम अपने शरीर को जान लो, तब तुम जानोगे कि शरीर एक लघु जगत है, जो कि संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतिनिधि है।संस्कृत में देह को पिंड कहते हैं, लघु ब्रह्मांड, और जो लघु ब्रह्मांड है, वही है संपूर्ण ब्रह्मांड।और व्यक्ति का शरीर ब्रह्मांड का ही एक लघु रूप है। उसमें वह सभी कुछ है जो इस संपूर्ण अस्तित्व में है, उससे कुछ भी कम नहीं है।अगर व्यक्ति अपनी समग्रता को, अपनी पूर्णता को जान ले, तो वह संपूर्ण अस्तित्व की समग्रता को जान सकता है। हमारी समझ उतनी ही होती है,जहां हम खड़े होते हैं।

2-अगर कोई कहता है कोई परमात्मा नहीं है, तो वह केवल इतना ही कह रहा है कि वह अपने ही अस्तित्व के किसी एकात्मक तत्व को, अपने ही परमात्मा को नहीं जान पाया है। ऐसे आदमी के साथ झगड़ा मत करना, उसके साथ किसी तर्क में मत पड़ना, क्योंकि विवाद, किसी भी तरह के प्रमाण या तर्क उस व्यक्ति को व्यान का कोई अनुभव नहीं दे सकते। उसे व्यान का अनुभव नहीं दे सकते। 3-योगी कभी तर्क में नहीं पड़ते। वे कहते हैं आओ,परिकल्पना के रूप में हमारे साथ प्रयोग में उतरो -हम जो कहते हैं, उसे मानने की कोई जरूरत नहीं। बस केवल यह समझने की कोशिश करो कि यह है क्या। जब तुम अपने व्यान को अनुभव कर लोगे, तो परमात्मा का आविर्भाव हो जाता है। तब परमात्मा ही चारों ओर, संपूर्ण अस्तित्व में फैलता चला जाता है। जो कुछ भी हमारे अनुभव में आता है, वही हमारे लिए सारे जगत की व्याख्या बन जाता है। हम अपने अनुभवों की सीमा में बंधे हुए हैं, हम उन्हीं सीमाओं में जीते हैं, उन्हीं बंधी /सीमित दृष्टि से संसार को देखते हैं।

4-कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को इस पर विश्वास नहीं दिलवा सकता कि परमात्मा है। विश्वास के साथ इसका कुछ लेना -देना नहीं है, उसका तो स्वयं के रूपांतरण के साथ संबंध है, वह तो एक रूपांतरण है।इसलिए अगर कोई कहता हो कि परमात्मा नहीं है, तो उसके प्रति करुणा का अनुभव करना। उस पर नाराज मत होना। ऐसा कहकर वह केवल इतना ही कह रहा है कि उसका अभी परमात्मा के साथ कोई संबंध स्थापित नहीं हो पाया है। उसने अपने भीतर, अपने अंतर -अस्तित्व में परमात्मा की रोशनी की एक किरण भी नहीं देखी है। तो वह कैसे भरोसा कर सकता है कि जीवन का और प्रकाश का स्रोत सूर्य वहां पर विद्यमान है। वह पूरी तरह से अंधा होता है, अभी उसने प्रकाश ’की एक भी किरण अपनी आंखों से नहीं देखी है। ऐसे व्यक्ति के ऊपर करुणा करना, उसकी मदद करना। 5-‘उदना ऊर्जा -प्रवाहिनी को सिद्ध करने से योगी पृथ्वी से ऊपर उठ पाता हैं, और किसी आधार, किसी संपर्क के बिना पानी, कीचड़, काँटों को पार कर लेता है।’अगर व्यक्ति स्वयं के साथ समस्वरता पा लेता है और उदना के नाम से पहचाने जाने वाले प्राण को सिद्ध कर लेता है, तो वह हवा में ऊपर उठ सकता है। क्योंकि यह उदना ही है जो व्यक्ति को गुरुत्वाकर्षण के साथ जोड़ कर रखती है।तुम आकाश में पक्षियों को, बड़े- बड़े पक्षियों को उड़ते हुए देखते हो। अभी भी वैज्ञानिकों के लिए यह एक रहस्य ही बना हुआ है कि पक्षी इतने भार के साथ कैसे उड़ते हैं। ये पक्षी प्रकृति की ओर से ही उदना के बारे में जानते हैं; इसलिए उनके लिए उड़ना सहज और स्वाभाविक होता है। वे एक विशेष ढंग से श्वास लेते हैं। अगर तुम भी उसी ढंग से श्वास को ले सको, तो तुम पाओगे कि तुम्हारा संबंध गुरुत्वाकर्षण से टूट गया है।

6-गुरुत्वाकर्षण के साथ जो व्यक्ति का संबंध है वह उसके अंतर -अस्तित्व से ही है, वह उसके भीतर से ही है। इसलिए इसे तोड़ा भी जा सकता है।और बहुत लोगों के साथ अनजाने में ऐसा घटित भी हुआ है। कई बार ध्यान करते समय बैठे -बैठे अचानक तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम ऊपर उठ रहे हो। जब अपनी आंखें खोलते हो, तो अपने को जमीन पर बैठा हुआ पाते हो। आंखें बंद करते हो, तो फिर ऐसा लगता है जैसे कि ऊपर उठ रहे हो। ऐसा संभव है कि तुम्हारा भौतिक शरीर ऊपर न भी उठता हो, लेकिन तुम्हारे भीतर गहरे में कुछ अलग हो गया होता है, कुछ टूट गया होता है और तब तुम अपने और गुरुत्वाकर्षण के बीच एक अंतराल का अनुभव करने लगते हो। इसीलिए तुम्हें ऐसा अनुभव होता है कि तुम ऊपर उठ रहे हो। यह बात अगर रोज-रोज गहरी होती चली जाए, तो एक दिन ऐसा संभव हो सकता है कि तुम ऊपर उठ सकी। 7-बोलीविया में एक स्त्री है। जिसका सभी तरह से वैज्ञानिक ढंग से निरीक्षण और परीक्षण किया गया है, वह स्त्री पृथ्वी से ऊपर उठ जाती है। वह कुछ क्षणों के लिए जमीन से चार फीट ऊपर उठ जाती है —बस ध्यान करने से। वह आँख बंद करके ध्यान में बैठ जाती है और वह ऊपर उठने लगती है।‘समान ऊर्जा प्रवाहिनी को सिद्ध करने से, योगी अपनी जठर अग्नि को प्रदीप्त कर सकता है।’तब भोजन को बड़ी आसानी से और पूरी तरह से पचाया जा सकता है। और केवल यही नहीं, जब जठर अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, तो पूरी देह के आसपास विशेष आभा मंडल बन जाता है। एक विशेष प्रकार की अग्नि, एक तरह की जीवंतता का आविर्भाव हो जाता है। 8-और यह जठर अग्नि शरीर के भीतर की सारी अशुद्धियों और विष -तत्वों को जलाकर नष्ट कर देती है। और यह अग्नि, अगर सच में ही इसे समग्ररूपेण प्रज्वलित किया जा सके, तो मन को भी जला सकती है। इस अग्नि में विचार जलकर राख हो सकते हैं, इच्छाएं जलकर भस्म हो सकती हैं। और महर्षि पतंजलि कहते हैं, अगर एक बार इस अग्नि को जान लो, एक विशेष ढग की श्वास प्रक्रिया के द्वारा एक विशेष प्राण ऊर्जा को पा लिया और उसे भीतर संचित कर लिया, तो जीने की आकांक्षा ही समाप्त हो जाती है -तब इच्छा का, आकांक्षा का बीज ही जलकर राख हो जाता है। फिर उसके बाद जन्म नहीं होता। इसे ही पतंजलि निर्बीज समाधि कहते हैं -जहां बीज भी जलकर समाप्त हो जाता है। 9-संस्कृत के आकाश शब्द को अंग्रेजी में ईथर कहते हैं। आकाश शब्द परमात्मा से कहीं अधिक व्यापक, विराट और बोधगम्य है। आकाश का अर्थ होता है वह अंतराल, वह शून्यता जो सभी को घेरे हुए है। आकाश का अर्थ होता है वह महाशून्य जिससे हर चीज आती है और उसी में विलीन हो जाती है। वह अनंत, अनादि शून्यता जो प्रारंभ से है और जो अंत में भी बच रहेगी। सभी कुछ इसी शून्यता में से आता है और इसी में समाहित हो जाता है। लेकिन इसका अभिप्राय किसी तरह के रिक्तता या खालीपन से नहीं हैं। यह शून्यता नकारात्मक नहीं है। यह शून्यता पूरी तरह से पोटेंनशियल है, जिसमें अनंत शक्ति ,अनंत संभावनाएं छिपी हुई हैं। यह सकारात्मक है, लेकिन फिर भी आकार विहीन है, उसका कोई रूप या आकार नहीं है। 10-योग की खोज है यह कि कान की समस्वरता आकाश से सधी हुई है, इसीलिए व्यक्ति को ध्वनियां सुनाई देती हैं। ध्वनियां आकाश में, ईथर में निर्मित होती हैं और देह के भीतर जो कान है, वह आकाश से जुड़ा होता है। आंखें सूर्य से जुड़ी हुई हैं, कान आकाश से, ईथर से जुड़े हुए हैं। अगर व्यक्ति अपनी समाधि को आकाश और कान से जोड़ ले, तो जो कुछ भी वह सुनना चाहता है, वह सब सुनने के योग्य हो जाएगा।इसी आकाश का जिसका कोई आकार नहीं है, जो चारों ओर से घेरे हुए है, और जो कान से संबंध है उस पर संयम पा लेने से .. भौतिक श्रवण उपलब्ध हो जाता है।’ 11-ऊपर से देखने पर यह चमत्कार लग सकता है, लेकिन फिर भी इसमें कोई चमत्कार नहीं है। इसके पीछे वैसे ही वैज्ञानिक नियम हैं जैसे किटेलीविजन, मोबाइल और इंटरर्नेट के पीछे हैं। बस एक तरह की समस्वरता की आवश्यकता होती है। अगर कान आकाश के साथ एक विशेष समस्वरता. को पा लेते हैं, तो व्यक्ति वह सुनने लगता है, जो सामान्यतया नहीं सुना जा सकता। तब दूसरे के विचारों को भी सुना जा सकता है।केवल इतना ही नहीं, उन विचारों को भी सुना जा सकता है जो कि हजारों साल पहले कहे और बोले गए थे।

12-बुद्ध को फिर से सुना जा सकता है। फिर से श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद सुना जा सकता है। जीसस को सर्मन आन माऊंट देते हुए फिर से सुना जा सकता है। क्योंकि जो कुछ भी इस अस्तित्व में कहा गया है, या बोला गया है, वह सब आकाश में रहता है। वह कभी भी इस अस्तित्व से बाहर नहीं जाता, वह कभी मिटता नहीं है; बहुत ही सूक्ष्म रूप से वह हमेशा विद्यमान रहता है। थियोसोफी में वे इसे आकाशी रिकार्ड कहते हैं। हर चीज आकाश के रिकार्ड में टेप है, बस एक बार उसकी कुंजी को खोज लो। और वह कुंजी कान और आकाश के बीच के संबंध पर संयम ले आने से उपलब्ध हो जाती है। 13-शरीर और आकाश के संबंध पर संयम ले आने से और साथ ही भार-विहीन चीजों जैसे रुई आदि से अपना तादात्म्य बना लेने से योगी आकाशगामी हो सकता है।और अगर व्यक्ति शरीर और आकाश के संबंध पर संयम ले आता है तो व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुरूप प्रकट या विलीन हो सकता है।आकाश का कोई आकार नहीं है, आकाश आकार विहीन है, निराकार है। आकाश हमको चारों ओर से घेरे हुए है, लेकिन उसकी कोई सीमा नहीं है। आकाश के सागर में हमारा शरीर एक लहर है। जन्म से पहले वह अप्रकट रूप से आकाश में था, और मृत्यु के पश्चात वह फिर आकाश ’ विलीन हो जाएगा। अभी भी लहर आकाश से जुड़ी है; वह उससे अलग नहीं है। बस, अपनी को उस लहर पर और संबंध पर केंद्रित करो जो संबंध लहर और सागर का है।

14-योगी स्वयं को एकसाथ कई जगह पर प्रकट कर सकता है; वह अपने एक शिष्य से कलकत्ता में मिल सकता है और दूसरे से बंबई में और किसी तीसरे से केलीफोर्निया में। एक बार व्यक्ति इस अनंत सागर के साथ समस्वर होना सीख ले, तो वह अपरिसीम रूप से शक्तिशाली हो जाता है।लेकिन इस बात को खयाल में ले लेना कि इन सभी बातों की आकांक्षा नहीं करनी है। अगर तुम इनकी आकांक्षा करोगे, तो ये बंधन बन जाएंगी। यह तुम्हारी लालसा नहीं होनी चाहिए। और जब यह अपने से घटित हो, तो उन्हें परमात्मा के चरणों में अर्पित कर देना। परमात्मा से कहना, मुझे इनका क्या करना है? जो कुछ भी तुम्हें मिले, उसे त्यागते चले जाना, उसे वापस परमात्मा के चरणों में ही चढ़ा देना।

15-क्योंकि उससे भी अधिक अभी आने को है, लेकिन उसे भी चढ़ा देना। फिर भी और बहुत कुछ आएगा; उसे भी चढ़ा देना। और फिर एक ऐसा बिंदु आता है, जहां तुमने सब कुछ त्याग दिया है, सब कुछ परमात्मा के चरणों में चढ़ा दिया है, तब परमात्मा स्वयं तुम्हारे पास चला आता है। जब तुम अपने पास कुछ भी बचाकर नहीं रखते हो, सभी कुछ परमात्मा के चरणों में चढ़ा देते हो, उस त्याग के परम क्षण में परमात्मा स्वयं तुम्हारे पास चला आता है।इसलिए मेहरबानी करके इनके लिए लालची और लोभी मत बन जाना। और इनका कोई विवरण भी नहीं दिया गया है। इसलिए अगर तुम लोभी बन भी जाओ, तो तुम्हें कुछ मिलने वाला नहीं है। उनके विवरण और ब्योरे तो परम स्व के क्षणों में ही दिए जा सकते हैं। जब भी तुम तैयार होगे, जहां भी तुम होंगे, वहीं वे तुम्हें दे दी जाएंगी। केवल बात तुम्हारी तैयारी की है। अगर तुम तैयार हो, तो वे तुम्हें दे दी जाएंगी। और वे केवल तुम्हारी तैयारी के अनुपात में ही दी जाएंगी, ताकि तुम्हें भी किसी तरह की हानि न पहुंचे और तुम दूसरों को भी किसी तरह की हानि न पहुंचा सको। वरना आदमी तो ....

कैसे जाग्रत करें छठी इंद्री ? मस्तिष्क के भीतर कपाल के नीचे एक छिद्र है, उसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं, वहीं से सुषुन्मा रीढ़ से होती हुई मूलाधार तक गई है। सुषुन्मा नाड़ी जुड़ी है सहस्रकार से। इड़ा नाड़ी शरीर के बायीं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दायीं तरफ अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर स्थित रहता है। सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः जब हमारी नाक के दोनों स्वर चलते हैं तो माना जाता है कि सुषम्ना नाड़ी सक्रिय है। इस सक्रियता से ही सिक्स्थ सेंस जाग्रत होता है।इड़ा, पिंगला और सुषुन्मा के अलावा पूरे शरीर में हजारों नाड़ियाँ होती हैं। उक्त सभी नाड़ियों का शुद्धि और सशक्तिकरण सिर्फ प्राणायाम और आसनों से ही होता है। शुद्धि और सशक्तिकरण के बाद ही उक्त नाड़ियों की शक्ति को जाग्रत किया जा सकता है।

क्या है दिव्य श्रवण शक्ति ?-

03 FACTS;-

1-समस्त स्रोत और शब्दों को आकाश ग्रहण कर लेता है, वे सारी ध्वनियां आकाश में विद्यमान हैं। आकाश से ही हमारे रेडियो टेलीविजन या इंटरनेट यह शब्द पकड़ कर उसे पुन: प्रसारित करते हैं। कर्ण-इंद्रियां और आकाश के संबंध पर संयम करने से योगी दिव्यश्रवण को प्राप्त होता है।अर्थात यदि हम लगातार ध्‍यान करते हुए अपने आसपास की ध्वनि को सुनने की क्षमता बढ़ाते जाएं और सूक्ष्म आयाम की ध्वनियों को सुनने का प्रयास करें तो योग और टेलीपैथिक विद्या द्वारा यह सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।

2-दिव्य श्रवण शक्ति योग से हम दूर से दूर, पास से पास और धीमी से धीमी आवाज को आसानी से सुन और समझ पाते हैं। वह ध्वनि या आवाज किसी भी पशु, पक्षी या अन्य भाषी लोगों की हो, तो भी हम उसके अर्थ निकालने में सक्षम हो सकते हैं।अर्थात हम पशु-पक्षियों

की भाषा भी समझ सकते हैं।हमारे कानों की क्षमता अपार है, लेकिन हम सिर्फ वही सुन पाते हैं जो हमारे आस-पास घटित हो रहा है या दूर से जिसकी आवाज जोर से आ रही है। अर्थात ना तो हम कम से कम आवाज को सुन पाते हैं और ना ही अत्यधिक तेज आवाज को सहन कर पाते हैं।

3-दूसरी बात कि हम जो भी सुन रहे हैं यदि वह हमारी भाषा से मेल खाता है तो ही हम उसे या उसके अर्थ को समझ पाते हैं, जैसे यदि आपको तमिल नहीं आती है तो आपके लिए उनका भाषण सिर्फ एक ध्वनि मात्र है। दूसरी ओर ब्रह्मांड से धरती पर बहुत सारी आवाजें आती हैं, लेकिन हमारा कान उन्हें नहीं सुन पाता।समस्त स्रोत और शब्दों को आकाश ग्रहण

कर लेता है, वे सारी ध्वनियां आकाश में विद्यमान हैं।कर्ण-इंद्रियां और आकाश के संबंध पर संयम करने से योगी दिव्य श्रवण को प्राप्त होता है।

कैसे होगा कानों पर संयम :-

06 FACTS;-

1-आकाश अथार्त जो सभी तरह की ध्वनि को ग्रहण करने की क्षमता रखता है। आपका मन आकाश की भांति होना चाहिए। कानों पर संयम करने से साधक को दिव्य श्रवण की शक्ति प्राप्त होती है। जाग्रत अवस्था में कानों को स्वत: ही बंद करने की क्षमता व्यक्ति के पास नहीं है। जब व्यक्ति सो जाता है तभी उसके कान बाहरी आवाजों के प्रति शून्य हो जाते हैं।इससे यह सिद्ध हुआ की कान भी स्वत: बंद हो जाते हैं, लेकिन इन्हें जानबूझकर बगैर कानों में अंगुली डाले बंद कर बाहरी आवाज के प्रति ध्वनि शून्य कर देना ही कानों पर संयम करना है। कानों पर संयम करने से ही व्यक्ति दिव्य श्रवण की शक्ति को प्राप्त कर सकता है।

2-धारणा और ध्यान के माध्यम से कानों पर संयम प्राप्त किया जा सकता है। धारणा से चित्त में एकाग्रता आती है और ध्यान से पांचों इंद्रियों में संयम प्राप्त होता है। श्रवण क्षमता बढ़ाने के लिए ध्यान से सुनने पर ध्यान देना चाहिए। कहने या बोलने से ज्यादा सुनना महत्वपूर्ण होता है। श्रवणों का धर्म मानता है कि सुनने से ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।सीधा सा योग सूत्र है कि जब तक आप बोल रहे हैं तब तक दूसरों की नहीं सुन सकते। मन के बंद करने से ही दूसरों के मन सुनाई देंगे।

3-किसी सुगंधित वातावण में मौन ध्यान के साथ अच्छा संगीत सुनने का अभ्यास करें। रात में मन को ज्यादा से ज्यादा शांत रखकर दूर से आ रही ध्वनि या पास के किसी झिंगुर की आवाज पर चित्त को एकाग्र करें। आवाजों का विश्लेषण करना सिखें। हमारे आस-पास असंख्‍य आवाजों का जाल बिछा हुआ है, लेकिन उनमें से हम 20 से 30 प्रतिशत ही आवाज इसलिए सुन पाते हैं क्योंकि उन्हीं पर हमारा ध्यान होता है, हमें यातायात के शोर में चिड़ियों की आवाज नहीं सुनाई देती।

4-इसका सांसारिक लाभ यह कि सुनने की शक्ति पर लगातार ध्यान देने से व्यक्ति को बढ़ती उम्र के साथ श्रवण दोष का सामना नहीं करना पड़ता, अर्थात बुढ़ापे तक भी सुनने की क्षमता बरकरार रहती है।इसका आध्यात्मिक लाभ यह कि व्यक्ति दूसरे की भाषा को ग्रहण कर उसके अर्थ निकालने में तो सक्षम हो ही जाता है साथ ही वह अनंत दूर तक की आवाज को भी आसानी से सुन सकता है और चिंटी की आवाज को भी सुनने में सक्षम हो जाता है। यह कहना नहीं चाहिए कि सिर के बालों के धरती पर गिरने की आवाज भी सुनी जा सकती है।

5-जब तक आप स्वयं को शरीर, मन या बुद्धि समझते हैं तब तक यह ज्ञान संभव नहीं। शरीर से पृथक समझना, मन के खेल को समझकर उससे अलग हो जाना और बुद्धि के द्वंद्व या तर्क के जाल से अलग हटकर स्वयं को बोध रूप में स्थिर करने से होश का स्तर बढ़ता जाता है तथा धीरे-धीरे ऐसे व्यक्ति भूत, भविष्य वर्तमान सहित अन्य विषयों को जानने वाला त्रिकालदर्शी बन जाता है।

6-दृष्य का अर्थ है कि हम जो भी देख रहे हैं वह, और दृष्टा का अर्थ है हम स्वयं। जो व्यक्ति इस भेद को समझकर दृष्य से स्वयं को अलग करने लग जाता है वही सर्वज्ञ शक्ति योग का ज्ञान प्राप्त करता है।प्राणायाम में शीतली, भ्रामरी और भस्त्रिका या नाड़ी शोधन तो नियमित करें। भूत और भविष्य का ज्ञान होना बहुत ही आसान है बशर्ते की व्यक्ति अपने मन से मुक्त हो जाए।

6-1-ज्योतिष शक्ति : -

ज्योति का अर्थ है प्रकाश अर्थात प्रकाश स्वरूप ज्ञान। ज्योतिष का अर्थ होता है सितारों का संदेश। संपूर्ण ब्रह्माण्ड ज्योति स्वरूप है। ज्योतिष्मती प्रकृति के प्रकाश को सूक्ष्मादि वस्तुओं में न्यस्त कर उस पर संयम करने से योगी को सूक्ष्म, गुप्त और दूरस्थ पदार्थों का ज्ञान हो जाता है।

6-1-लोक ज्ञान शक्ति :-

सूर्य पर संयम से सूक्ष्म और स्थूल सभी तरह के लोकों का ज्ञान हो जाता है।

6-1-नक्षत्र ज्ञान सिद्धि : चंद्रमा पर संयम से सभी नक्षत्रों को पता लगाने की शक्ति प्राप्त होती है।

6-1-तारा ज्ञान सिद्धि :-

ध्रुव तारा हमारी आकाश गंगा का केंद्र माना जाता है। आकाशगंगा में अरबों तारे हैं। ध्रुव पर संयम से समस्त तारों की गति का ज्ञान हो जाता है।

ये साधनाये कठिन जरूर है, लेकिन योगाभ्यासी के लिए सरल।

सांस लेने का सही तरीका;-

04 FACTS;-

1-योग सांस लेने की पवित्रता पर बहुत जोर देता है, क्योंकि प्राणमय कोष एक सूक्ष्म ऊर्जा है जो कि सांस लेने के साथ आपके भीतर यात्रा करती है। अगर आप सही सांस लेते हैं तो आपका प्राणमय कोष स्वस्थ, अखंड और प्राणवान रहता है।'इस तरह का व्यक्ति कभी नहीं थकता। इस तरह का व्यक्ति हमेशा कुछ भी करने के लिए उपलब्ध है।'प्राकृतिक सांस' लेने को समझना जरूरी है।ऊर्जा 'कहां से' आती है.. यह प्राणमय कोष से आती है। बच्चा स्वाभाविक रूप से सांस लेता है, और निश्चित रूप से अधिक प्राण और अधिक ची ऊर्जा सांस के द्वारा लेता है, और यह उसके पेट में जमा होती है। पेट इकट्ठा करने की जगह है, भंडार है। बच्चे को देखो, वह सांस लेने का सही तरीका है। जब एक बच्चा सांस लेता है, उसकी छाती पूरी तरह से अप्रभावित होती है। उसका पेट ऊपर और नीचे होता है। मानो वह पेट से सांस ले रहा है। सभी बच्चों का पेट निकला होता है, वह उनके पेट से सांस लेने की वजह से है और वह ऊर्जा का भंडार है।

2-'यह सांस लेने का सही तरीका है।यही कारण है कि छोटे बच्चे ऊर्जा से भरे हुए होते हैं। माता-पिता थक गए हैं, लेकिन वे थके नहीं हैं।ध्यान रहे, अपनी छाती का बहुत ज्यादा उपयोग नहीं करना है। कभी-कभी यह आपातकालीन समय में किया जा सकता है। आप अपने जीवन को बचाने के लिए दौड़ रहे हैं, तब छाती का उपयोग किया जा सकता है। यह एक आपातकालीन उपाय है। तो आप उथले, तेजी से सांस लेने का उपयोग कर सकते हैं और दौड़ सकते हैं। लेकिन आमतौर पर छाती का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।वास्तव में, छाती आपात स्थितियों के लिए ही होती है क्योंकि आपात स्थिति में स्वाभाविक रूप से सांस लेना मुश्किल है; क्योंकि अगर आप स्वाभाविक रूप से सांस लेते हैं तो आप इतने शांत और मौन होते हो कि आप दौड़ नहीं सकते, आप लड़ नहीं सकते। आप इतने शांत और केंद्रित होते हैं--एकदम बुद्ध जैसे।

3-और एक आपात स्थिति में--जैसे घर में आग लगी है--यदि आप स्वाभाविक रूप से सांस लेंगे तो आप कुछ भी बचा नहीं पाएंगे। या जंगल में एक बाघ आप पर कूदता है और आप स्वाभाविक रूप से सांस लेते रहें तो आप फिक्र ही नहीं करेंगे। आप कहेंगे, 'ठीक है, उसे करने दो जो भी वह चाहता है।' आप अपने खुद को बचाने के लिए सक्षम नहीं होंगे।

'तो प्रकृति ने एक आपातकालीन उपकरण दिया है, छाती एक आपातकालीन उपाय है। जब आप पर एक बाघ हमला करता है, तो आपको प्राकृतिक सांस छोड़ देनी होती है और आप को छाती से सांस लेनी होती है। तब दौड़ने के लिए , लड़ने के लिए, ऊर्जा को तेजी से जलाने के लिए आपके पास अधिक क्षमता होगी। और आपात स्थिति में केवल दो ही विकल्प होते हैं: भाग जाना या लड़ाई करना। दोनों के लिए बहुत उथली लेकिन तीव्र ऊर्जा की जरूरत है, उथली लेकिन एक बहुत परेशान, तनावग्रस्त स्थिति।

4-अगर आप लगातार सीने से सांस लेते हैं तो, आपके मन में तनाव होगा ,आप हमेशा भयभीत होंगे क्योंकि सीने से सांस लेना खतरनाक परिस्थितियों के लिए ही होता है। और यदि आपने इसे एक आदत बनाया है तो आप लगातार भयभीत, तनावग्रस्त, हमेशा भागने की तैयारी में होंगे। वहां दुश्मन नहीं है, लेकिन आप दुश्मनों की कल्पना करेंगे। इसी तरह पैरानोया, व्यामोह निर्मित होता है।'एक बच्चे को देखें और वही प्राकृतिक सांस है,

और उसी तरह सांस लें।जब आप सांस लें तब पेट ऊपर आए और जब आप सांस छोड़ें तब पेट नीचे जाए। और यह एक ऐसी लय हो कि यह आपकी ऊर्जा में लगभग एक गीत बन जाता है, एक नृत्य ताल के साथ, सामंजस्य के साथ--और आप इतने निश्चिंत महसूस करेंगे, इतने जीवंत, जीवन-शक्ति से ओतप्रोत कि आप कल्पना नहीं कर सकते कि ऐसी जीवन-शक्ति हो सकती है।

क्या रहस्य है आर्गन ऊर्जा का?-

11 FACTS;-

1-योग उस ऊर्जा को प्राण कहता है, यह प्राण शब्द बहुत महत्वपूर्ण है, बहुत अर्थपूर्ण है। यह संस्कृत की दो मूल धातुओं से आया है। एक है प्रा... प्रा का अर्थ होता है ऊर्जा की प्राथमिक इकाई, ऊर्जा की सर्वाधिक आधारभूत इकाई। और ण का अर्थ होता है ऊर्जा। प्राण का अर्थ है ऊर्जा की सर्वाधिक आधारभूत इकाई। पदार्थ तो केवल सतह पर है, ऊपर -ऊपर है। प्राण ही है जो वास्तविक है -और वह वस्तु की भांति तो बिलकुल भी नहीं है या फिर उसे ना-कुछ कह सकते हैं —नथिंग। नथिंग का मतलब है नो -थिंग... तो केवल इतना ही अर्थ है कि वह कुछ नहीं है, कोई वस्तु नहीं है। वह ठोस नहीं है, वह स्थिर नहीं है, वह प्रकट नहीं है, वह साकार नहीं है। वह मौजूद है, लेकिन फिर भी उसे छुआ नहीं जा सकता। वह मौजूद है, लेकिन फिर भी उसे देखा नहीं जा सकता। वह प्रत्येक घटना के साथ भी है और प्रत्येक घटना के पार भी है। फिर भी वह सर्वाधिक आधारभूत इकाई है, उसके बाहर नहीं हुआ जा सकता। 2-संपूर्ण जीवन की आधारभूत इकाई प्राण ही है।पेड़ -पौधे, पशु -पक्षी, कंकड़ -पत्थर परमात्मा, सभी अलग -अलग तल पर, अलग -अलग समझ लिए गए हैं, जबकि वे सभी एक ही प्राण की अभिव्यक्ति हैं। वही प्राण अलग -अलग रूपों में, अलग-अलग ढंगों में अभिव्यक्त होता है...लेकिन फिर भी आधारभूत इकाई एक ही है। जब तक तुम स्वयं के भीतर प्राण को नहीं जान लेते, तब तक परमात्मा को भी नहीं जान सकोगे। और अगर तुम उसे स्वयं के भीतर नहीं जान सकते, तो तुम उसे बाहर भी नहीं जान सकते, क्योंकि भीतर तो वह तुम्हारे निकटतम है। 3-इसीलिए महर्षि पतंजलि ने इसे अल्वर्ट आइंस्टीन से भी पांच हजार वर्ष पूर्व जान लिया था। इस बात को समझने के लिए विज्ञान के लिए पांच हजार वर्ष का समय काफी लंबा समय है। लेकिन विज्ञान ने इस बात को समझने के लिए जो भी प्रयास किए बाहर से किए। पतंजलि ने अपने ही अस्तित्व की गहराई में डुबकी लगाकर उसे जाना, उनका वह आत्मगत अनुभव था। और विज्ञान उसे जानने की कोशिश वस्तुगत रूप से करता रहा। अगर किसी के बारे में वस्तुगत ढंग से कुछ जानना चाहा तो फिर तुमने बहुत लंबा रास्ता पकड़ लिया। इसीलिए विज्ञान को इतनी देर लगी। अगर तुम अपने भीतर उतर जाओ, तो तुमने उसे जानने का सबसे छोटा मार्ग खोज लिया। 4-योग को कार्य करने के लिए कृत्रिम और जटिल चीजें नहीं चाहिए। योग सरलतम है। योग के लिए दो बातें पर्याप्त हैं कि तुम हो और तुम्हारी जागरूकता है।प्रत्येक व्यक्ति के पास यह दोनों बातें हैं। किसी भी व्यक्ति में इन दोनों की कमी नहीं है। तुम्हारे पास एक सुनिश्चित अनुभूति है कि तुम हो। और निस्संदेह तुम उस सुनिश्चित अनुभूति के प्रति सचेत भी हो। यह दोनों बातें पर्याप्त हैं। इसीलिए योगियों के पास कोई प्रयोगशालाएं नहीं थीं, कोई परिष्कृत उपकरण भी नहीं थे। उन्हें थोड़े से ’भोजन और पानी की आवश्यकता होती थी, और इसी के लिए वे शहर में भिक्षा मांगने के लिए आते थे, और फिर कई -कई दिनों के लिए अंतर्धान हो जाते थे। एक या दो सप्ताह के बाद वे फिर भिक्षा मांगने के लिए आते, और फिर अंतर्धान हो जाते। 5-योग ने मनुष्य जाति के यथार्थ के जगत का सबसे बड़ा प्रयोग किया है। और केवल दो छोटी सी बातों को लेकर, लेकिन वे बातें कोई छोटी नहीं हैं। जब कोई व्यक्ति उन्हें जान लेता है, तो वह सर्वाधिक विराट घटनाओं में से एक घटना है।प्राण का आविष्कार योग के मंदिर की आधारशिला है। योग का कहना है कि हम केवल वायु को ही श्वास में नहीं भर रहे हैं, हम प्राण को भी श्वास में भर रहे हैं। असल में वायु तो प्राण के लिए एक वाहन मात्र है, एक माध्यम मात्र है। हम केवल श्वास के द्वारा जीवित नहीं रह सकते। श्वास तो घोड़े की तरह है, और हमने अभी तक घुड़सवार को जाना ही नहीं है। उस पर सवारी करने वाला प्राण है। अब बहुत से मनस्विद इस रहस्य से परिचित हो गए हैं , जो श्वास पर सवारी करता हुआ आता है,जो निरंतर भीतर बाहर ;आता जाता रहता है।

6-लेकिन फिर भी इसे वैज्ञानिक तथ्य के रूप में मान्यता नहीं मिली है क्योंकि आधुनिक विज्ञान का कहना है कि पदार्थ का अस्तित्व नहीं है, हर चीज ऊर्जा के रूप में ही अस्तित्व रखती है। चाहे पत्थर हो या चट्टान हो सभी ऊर्जा के रूप हैं, हम भी वही ऊर्जा हैं। इसलिए हमारे भीतर भी बहुत सी ऊर्जाओं की लहरें लहरा रही हैं। जब प्राण गतिवान नहीं होता, जब प्राण ऊर्जा रुक जाती है, जब प्राण ऊर्जा अवरुद्ध हो जाती है, इसी तथ्य को रुग्ण प्राण कहते है।रुग्ण प्राण अथार्त प्राण के साथ कुछ गलत घट गया है। योगी तो इस पर सदियों से काम करते आए हैं। इसीलिए योगी छोटी -छोटी गुफाओं में रहते थे जो बाक्स के जैसी होती थीं। गुफा में केवल एक छोटा सा दरवाजा होता था और कोई खिड़की या झरोखा इत्यादि नहीं होता था।

7-अब देखने में तो वे गुफाएं स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिप्रद मालूम पड़ती हैं और कैसे योगी उन गुफाओं में कई कई वहाँ वर्षों तक रहते रहे? भीतर हवा जाने का कोई साधन नहीं था, क्योंकि गुफा में कहीं कोई खिड़की, झरोखे इत्यादि नहीं होते थे, क्रास वेंटिलेशन बिलकुल भी नहीं होता था। वे गुफाएं एकदम अंधेरे से, सीलन से और गंदगी से भरी होती थीं और योगी उन गुफाओं में एकदम अच्छे से और स्वस्थ जीते थे। यह एक चमत्कार ही था। योगी वहां क्या कर रहे थे और वे कैसे वहा रह रहे थे? आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार तो उनकी मृत्यु हो जानी चाहिए थी, या फिर उन्हें रुग्ण लोगों की तरह उदास और दुखी होना चाहिए था; लेकिन योगी कभी दुखी नहीं रहे। बल्कि योगी एक सामान्य आदमी की अपेक्षा कहीं अधिक प्राण -ऊर्जा से भरे हुए ओजस्वी और तेजस्वी थे। ऐसा क्यों था? वे क्या कर रहे थे? उनके साथ क्या हौ रहा था?

8-वे ऑरगन निर्मित कर रहे थे और ऑरगन को एक सुनिश्चित स्थान में रहने देने के लिए क्रास वेंटिलेशन, वायु की आवश्यकता नहीं होती; असल में तो क्रास वेंटिलेशन ऑरगान को एकत्रित होने ही न देगा, क्योंकि अगर वहां पर हवा होती है तो ऑरगान ऊर्जा तो घुड़सवार की तरह है ...वह हवा पर सवार होकर बाहर निकल जाती है।इसलिए किसी तरह के द्वार -दरवाजों

की आवश्यकता नहीं होती थी; किसी भी तरह से वायु नहीं आनी चाहिए; तब ऑरगान की पर्तों पर पर्तें एकत्रित होती चली जाती हैं और उससे व्यक्ति का विकास होता है, और उस ऑरगान के आधार पर वह जीवित रह सकता है।

9-आर्गन एक रासायनिक तत्व है। यह एक निष्क्रिय गैस है। नाइट्रोजन और ओक्सीजन के बाद यह पृथ्वी के वायुमण्डल की तीसरी सबसे अधिक मात्रा की गैस है। औसतन पृथ्वी की वायु का 0. 93% आर्गन है। यह अगली सर्वाधिक मात्रा की गैस, कार्बन डायोक्साइड, से लगभग 23 गुना अधिक है। यह पृथ्वी की सर्वाधिक मात्रा में मौजूद निष्क्रिय गैस भी है और अगली सबसे ज़्यादा मात्रा की निष्क्रिय गैस, नीयोन, से 500 गुना अधिक मात्रा में वायुमण्डल में उपस्थित है। आर्गन को वायु से प्रभाजी आसवन (फ़्रैक्शनल डिस्टिलेशन) की प्रक्रिया द्वारा अलग किया जाता है। इसे उद्योग में और बिजली के बल्ब आदि में काफ़ी प्रयोग किया जाता है। 10-अमेरिका के विलियम रेक ने छोटे -छोटे ऑरगान बाक्सेज बनाए थे, और उनके माध्यम से उसने बहुत से लोगों की मदद भी की थी। वह रोगी से कहता था, ऑरगान बाक्स में लेट जाओ और वह बाक्स को बंद कर देता था और उस बाक्स में वह रोगी को आराम करने के लिए कहता था। और एक घंटे के बाद जब व्यक्ति उससे बाहर आता, तो अपने को अधिक प्राणवान, जीवंत, रोएं -रोएं में ऊर्जा के प्रवाह को अनुभव करता था। और बहुत से लोगों ने कहा भी कि ऑरगान बाक्स के साथ थोड़े से प्रयोग के बाद उनकी बीमारिया गायब हो गईं। ऑरगान बाक्स इतना प्रभावशाली और इतना असरकारी था कि देश के कानून की फिकर किए बिना विलियम रेक ने उनको विशाल पैमाने पर बनाकर बेचना शुरू कर दिया। अंत में फूड और ड्रग विभाग वालों ने उसे पकड़ लिया, और उसे अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए कहा गया। 11-अब इस बात को प्रमाणित करना थोड़ा कठिन है, क्योंकि ऊर्जा दिखाई तो देती नहीं है। ऊर्जा किसी को दिखायी नहीं जा सकती है। उसे तो अनुभव किया जा सकता है, और यह एक बहुत ही आंतरिक अनुभव है।अलबर्ट आइंस्टीन से किसी ने नहीं कहा इलेक्ट्रान दिखाने के लिए, लेकिन फिर भी उसकी बात पर भरोसा किया गया, क्योंकि लोगों ने हिरोशिमा और नागासाकी को देखा है। उसके परिणाम को देखा जा सकता है, कारण को नहीं देखा जा सकता। अब तक किसी ने भी अणु को नहीं देखा है, फिर भी अणु है, क्योंकि उसके परिणाम को देखा जा सकता है।बुद्ध ने सत्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि ''सत्य वह है जो परिणाम ले आए..अगर परिणाम ला सके तो वह सत्य है''।बुद्ध की सत्य की यह परिभाषा बहुत ही सुंदर है। सत्य की इतनी सुंदर परिभाषा इसके पहले और इसके बाद कभी नहीं की गई. कि सत्य वह जो परिणाम ले आए।

क्या रहस्य है पदार्थ की सात गतियां का?

05 FACTS;-

1-अगर गति अधिक हो जाए तो चीजें ठहरी हुई मालूम पड़ती है। अधिक गति के कारण ठहराव के कारण नहीं। जिस कुर्सी पर आप बैठे हे, उसकी गति बहुत है। उसका एक-एक परमाणु उतनी ही गति से दौड़ रहा है अपने केन्‍द्र पर जितनी गति से सूर्य की किरण चलती है—एक सैकंड में एक लाख छियासी हजार मील। इतनी गति से चलने की वजह से आप गिर नहीं जाते कुर्सी से, नहीं तो आप कभी के गिर गये होते। तीव्र गति आपको संभाले हुए है।

2-फिर यह गति भी बहु-आयामी / मल्‍टी डायमेंशन है। जिस कुर्सी पर आप बैठे है उसकी पहली गति तो यह है कि उसके परमाणु अपने भीतर धूम रहे है अथार्त कुर्सी की आन्‍तरिक गति है। हर परमाणु अपने न्यूक्लियस पर, आपने केन्‍द्र पर चक्र काट रहा है। फिर कुर्सी जिस पृथ्‍वी पर रखी है वह पृथ्‍वी अपनी कील पर धूम रही है। उसके घूमने की वजह से भी कुर्सी में दूसरी गति है ।दूसरी गति में पृथ्‍वी अपनी कील पर घूम रही है इसलिए कुर्सी भी पूरे समय पृथ्‍वी के साथ घूम रही है। तीसरी गति में पृथ्‍वी अपनी कील पर घूम रही है। और साथ ही पूरे सूर्य के चारों और परिभ्रमण कर रही है.. घूमते हुए अपनी कील पर सूर्य का चक्र लगा रही है।

3-यह तीसरी गति है। कुर्सी में भी वह गति काम कर रही है। चौथी गति में सूर्य अपनी कील पर घूम रहा है, और उसके साथ उसका सारा सौर परिवार घूम रहा है। और पांचवी गति में सूर्य वैज्ञानिक कहते है कि माह सूर्य का चक्‍कर लगा रहा है। बड़ा चक्‍कर है ...वह कोई बीस करोड़ वर्ष में एक चक्‍कर पूरा हो पाता है। जो वह पांचवी गति है कुर्सी की। और वैज्ञानिक कहते है छठवीं गति का भी हमे अहसास मिलता है। वह जिस सूर्य का परिभ्रमण कर रहा है। वह महा सूर्य भी ठहरा हुआ नहीं है। वह अपनी कील पर घूम रहा है। और सांतवीं गति का भी वैज्ञानिक अनुमान करते है कि वह महासूर्य जो अपनी कील पर घूम रहा है...वह दूसरे सौर परिवार से प्रतिक्षण दूर हटता जा रहा है। कोई और महा सूर्य या कोई महाशून्य सातवीं गति का इशारा करता है। वैज्ञानिक कहते है—ये सात गतियां पदार्थ की है।

4-आदमी में प्राण में, जीवन में,एक आठवीं गति भी है। कुर्सी चल नहीं सकती, जीवन चल सकता है। आठवीं गति शुरू हो जाती है। धर्म कहता है मनुष्‍य में एक नौवीं गति है और वह यह है कि आदमी चल भी सकता है और उसके भीतर जो उर्जा हे वह नीचे ऊपर जा भी सकता है। उस नौवीं गति से ही तप का संबंध है। आठ गतियां तक विज्ञान काम कर लेता है, उस नौवीं गति पर /दि नाइन्‍थ, चेतना के ऊपर नीचे जाने की जो परम गति है... उस पर ही धर्म की सारी प्रक्रिया है।

5-मनुष्‍य के भी जो ऊर्जा है, वह नीचे या ऊपर जा सकती है। जब आप कामवासना से भरे होते है तो वह ऊर्जा नीचे जाती है। जब आप आत्‍मा की खोज से भरे होते है तो वह ऊर्जा ऊपर की तरफ जाती है। जब आप जीवन से भरे होते है तो वह ऊर्जा भीतर की तरफ जाती है। धर्म की दृष्‍टि में भीतर और ऊपर एक ही दिशा का नाम है। और जब आप मरण से भरते है, मृत्‍यु निकट आती है तो वह ऊर्जा बाहर जाती है।

..SHIVOHAM..

SHIVOHAM...

व्‍यान है। वह संपूर्ण अस्‍तित्‍व को एकसाथ जोड़े हुए है—चाँद-तारें, सूरज, संपूर्ण ब्रह्मांड को, सब को एक दूसरे के साथ जोड़े हुए है।

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