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स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर में क्या अंतर है।क्या साधना का उद्देश्य सूक्ष्म शरीरों की बलिष्ठता को सम


स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर में अंतर;-

14 FACTS;-

1-आत्‍मा तो वस्‍तुत: एक ही है। लेकिन शरीर दो प्रकार के है। एक शरीर जिसे हम स्‍थूल शरीर कहते है, जो हमें दिखाई देता है। एक शरीर जो सूक्ष्‍म शरीर है जो हमें दिखाई नहीं पड़ता है। एक शरीर की जब मृत्‍यु होती है, तो स्‍थूल शरीर तो गिर जाता है। लेकिन जो सूक्ष्‍म शरीर(Subtle body) है , वह नहीं मरती है।

2-शरीर केवल एक ही नहीं है। जिसे हम धारण किए हुए हैं और जो दीखता अनुभव होता है, उसके भीतर दो और शरीर हैं जिन्हें सूक्ष्म और कारण शरीर कहते हैं। इनमें सूक्ष्म शरीर अधिक सक्रिय और प्रभावशाली है। मरण के उपरान्त उसी का अस्तित्व रह जाता है और उसी के सहारे नया जन्म होने तक की समस्त गतिविधियाँ चलती रहती हैं।

3-आत्‍मा दो शरीरों के भीतर वास कर रही है। एक सूक्ष्‍म और दूसरा स्‍थूल। मृत्‍यु के समय स्‍थूल शरीर गिर जाता है। यह जो मिट्टी पानी से बना हुआ शरीर है यह जो हड्डी मांस मज्‍जा की देह है... यह गिर जाती है। फिर अत्‍यंत सूक्ष्‍म विचारों का, सूक्ष्‍म संवेदनाओं का, सूक्ष्‍म वयब्रेशंस का शरीर शेष रह जाता है, सूक्ष्‍म तंतुओं का।

4-वह तंतुओं से घिरा हुआ शरीर आत्‍मा के साथ फिर से यात्रा शुरू करता है। और नया जन्‍म फिर नए स्‍थूल शरीर में प्रवेश करता है। तब एक मां के पेट में नई आत्‍मा का प्रवेश होता है, तो उसका अर्थ है सूक्ष्‍म शरीर का प्रवेश। मृत्‍यु के समय सिर्फ स्‍थूल शरीर गिरता है ..सूक्ष्‍म शरीर नहीं।

5-लेकिन परम मृत्‍यु के समय ...जिसे हम मोक्ष कहते है ...उस परम मृत्‍यु के समय स्‍थूल शरीर के साथ ही सूक्ष्‍म शरीर भी गिर जाता है। फिर आत्‍मा का कोई जन्‍म नहीं होता। फिर वह आत्‍मा विराट में लीन हो जाती है। वह जो विराट में लीनता है, वह एक ही है। जैसे एक बूंद सागर में गिर जाती है।

6-तीन बातें समझनी जरूरी है। आत्‍मा का तत्‍व एक है। उस आत्‍मा के तत्‍व के संबंध में आकर दो तरह के शरीर सक्रिय होते है। एक सूक्ष्‍म शरीर, और एक स्‍थूल शरीर। स्‍थूल शरीर से हम परिचित है, सूक्ष्‍म से योगी परिचित होता है। और योग के भी जो ऊपर उठ जाते हैं, वे उससे परिचित होते है जो आत्‍मा है।

7-सामान्‍य आंखें ही देख पाती है इस शरीर को। योग-दृष्‍टि, ध्‍यान देख पाता है सूक्ष्‍म शरीर को। लेकिन ध्‍यानातीत (Beyond yog) सूक्ष्‍म के भी पार, उसके भी आगे जो शेष रह जाता है, उसका तो समाधि में अनुभव होता है। ध्‍यान से भी जब व्‍यक्‍ति ऊपर उठ जाता है तो समाधि फलित होती है। और उस समाधि में जो अनुभव होता है, वह परमात्‍मा का अनुभव है।

8-साधारण मनुष्‍य का अनुभव शरीर का अनुभव है, साधारण योगी का अनुभव सूक्ष्‍म शरीर का अनुभव है, परम योगी का अनुभव परमात्‍मा का अनुभव है। परमात्‍मा एक है, सूक्ष्‍म शरीर अनंत हैं, स्‍थूल शरीर अनंत हैं। वह जो सूक्ष्‍म शरीर है वह है कारण शरीर (Causal body)। वह जो सूक्ष्‍म शरीर है, वही नए स्‍थूल शरीर ग्रहण करता है।उदाहरण के लिए, आपके घर में कि बहुत से बल्‍ब जले हुए हैं। विद्युत तो एक है ... बहुत नहीं है। वह ऊर्जा, वह शक्‍ति, वह एनर्जी एक है। लेकिन दो अलग बल्‍ब/ट्यूब लाइट से वह प्रकट हुई है। बल्‍ब का शरीर अलग-अलग है, परन्तु उसकी आत्‍मा एक है।

9-हमारे भीतर से जो चेतना झांक रही है, वह चेतना एक है। लेकिन उस चेतना के झांकने में दो उपकरणों का, प्रयोग किया गया है। एक सूक्ष्‍म उपकरण है सूक्ष्‍म देह, दूसरा उपकरण है, स्‍थूल देह। हमारा अनुभव स्‍थूल देह तक ही रूक जाता है। यह जो स्‍थूल देह तक रूक गया अनुभव है, यहीं मनुष्‍य के जीवन का सारा अंधकार और दुख है। लेकिन कुछ लोग सूक्ष्‍म शरीर पर भी रूक सकते हैं। जो लोग सूक्ष्‍म शरीर पर रूक जाते हैं, वे ऐसा कहेंगे कि आत्‍माएं अनंत हैं। लेकिन जो सूक्ष्‍म शरीर के भी आगे चले जाते है, वे कहेंगे कि परमात्‍मा एक है। आत्‍मा एक, ब्रह्म एक है। इन दोनों बातों में कोई विरोधाभास नहीं है।

10-जो आत्‍मा परम मुक्‍ति को उपलब्‍ध हो जाती है, उसका जन्‍म-मरण बंद हो जाता है। आत्‍मा का तो कोई जन्‍म-मरण है ही नहीं। वह न तो कभी जन्‍मी है और न कभी मरेगी। वह जो सूक्ष्‍म शरीर है, वह भी समाप्‍त हो जाने पर कोई जन्‍म-मरण नहीं रह जाता। क्‍योंकि सूक्ष्‍म शरीर ही कारण बनता है नए जन्‍मों का।

11-सूक्ष्‍म शरीर का अर्थ है, हमारे विचार, हमारी कामनाएँ, हमारी वासनाएं, हमारी इच्‍छाएं, हमारे अनुभव, हमारा ज्ञान, इन सबका जो संग्रहीभूत (integrated seed) है, इन सबका जो बीज है, वह हमारा सूक्ष्‍म शरीर है। वही हमें आगे की यात्रा करता है। लेकिन जिस मनुष्‍य के सारे विचार नष्‍ट हो गए, जिस मनुष्‍य की सारी वासनाएं क्षीण हो गई, जिस मनुष्‍य की सारी इच्‍छाएं विलीन हो गई, जिसके भीतर अब कोई भी इच्‍छा शेष न रही, उस मनुष्‍य को जाने के लिए कोई जगह नहीं बचती, जाने का कोई कारण नहीं रह जाता। जन्‍म की कोई वजह नहीं रह जाती।

12-मरने के उपरान्त इन्द्रियाँ, मन, संस्कार तथा पाप पुण्य साथ जाते हैं।

मरण से पूर्व वाले जन्म का स्मरण भी इसी शरीर में बना रहता है इसलिए अपने परिवार वालों को पहचानता और याद भी करता है। अगले जन्म में इस पिछले जन्म के संस्कारों को ढो कर ले जाने में भी यह सूक्ष्म शरीर ही काम करता है। वस्तुतः मरण के पश्चात एक विश्राम जैसी स्थिति आती है उसमें लम्बे जीवन में जो दिन रात काम करना पड़ता है उसकी थकान दूर होतीं हैं।

13-जैसे रात को सो लेने के पश्चात् सवेरे ताजगी आती है उसी तरह नए जन्म के लिए इस मध्य काल के विश्राम से फिर कार्य क्षमता प्राप्त हो जाती है। जिनका मृत्यु के उपरान्त तुरन्त पुनर्जन्म हो जाता है। उन्हें पूरा विश्राम न मिल पाने से थकान बनी रहती है और शरीर तथा मन में अस्वस्थता देखी जाती है।

14-सूक्ष्म शरीर इस जन्म में भी स्थूल शरीर के साथ ही सक्रिय रहता है। रात्रि को सो जाने के उपरान्त जो स्वप्न दीखते हैं वह अनुभूतियाँ सूक्ष्म शरीर की ही हैं। दिव्य दृष्टि, दूर श्रवण, दूरदर्शन, विचार संचालन भविष्य ज्ञान, देव दर्शन आदि उपलब्धियों भी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ही होती हैं। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की उच्चस्तरीय योग साधना द्वारा इसी शरीर को समर्थ बनाया जाता है ऋद्धियों और सिद्धियों का स्रोत इस सूक्ष्म शरीर को माना जाता है।

सूक्ष्म शरीर का स्वरूप तथा कार्य क्षेत्र;-

07 FACTS;-

1-भारतीय योग शास्त्रों में सूक्ष्म शरीर को भी स्थूल शरीर की तरह ही प्रत्यक्ष और प्रमाणित माना गया है और उसका स्वरूप तथा कार्य क्षेत्र विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वह दुर्बल कैसे हो जाता है और उसे सशक्त कैसे बनाया जा सकता है इसका विस्तृत विवेचन किया गया है। कहा गया कि सूक्ष्म शरीर में विकार उत्पन्न हो जाने से स्थूल शरीर भी अस्वस्थ्य और खिन्न रहने लगता है इसलिए समग्र समर्थता के लिए स्थूल शरीर की ही तरह सूक्ष्म शरीर का भी ध्यान रखना चाहिए।

2-यदि आत्मा को अमर माना जाय, मरणेत्तर जीवन को मान्यता दी जाय तो सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व भी मानना पड़ेगा। स्थूल शरीर तो मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। नया शरीर तुरन्त ही नहीं मिलता, उसमें देर लग जाती है। इस मरण और जन्म के बीच की अवधि में प्राणी को सूक्ष्म शरीर का सहारा लेकर ही रहना पड़ता है। शरीर धारण कर लेने के बाद भी उसके अन्तर्गत सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों का अस्तित्व बना रहता है। अतीन्द्रिय ज्ञान उन्हीं के द्वारा होता है और उपासना साधना द्वारा इन्हीं दो अप्रत्यक्ष शरीरों को परिपुष्ट बनाया जाता है।

3-यह अन्तर शरीर यदि बलवान हो तो बाह्य शरीर में तेज, शौर्य, प्रकाश, बल और ज्ञान की आभा सहज ही प्रस्फुटित दीखती है। उत्साह और उल्लास भी सूक्ष्म शरीर की निरोगता का ही परिणाम है। स्वर्ग और नरक का जैसा वर्णन है उसका उपभोग सूक्ष्म शरीर द्वारा ही सम्भव है। पिछले जन्म के ज्ञान, सूक्ष्म, संस्कार, गुण, रुचि आदि का अगले जन्म में उपलब्ध होने का आधार भी यह सूक्ष्म शरीर है।

4-भूत-प्रेतों का अस्तित्व इसी परोक्ष शरीर पर निर्भर है और दिव्य अनुभूतियाँ, योग की सिद्धियाँ, स्वप्नों पर परिलक्षित सच्चाइयाँ आदि प्रक्रियाँ सूक्ष्म शरीर से ही सम्भव हो सकती हैं। यदि स्थूल शरीर मात्र का अस्तित्व माना जाय तो फिर नास्तिकों का वही मत प्रतिपादित होगा जिसमें कहा गया है कि मृत्यु के बाद फिर आना कहाँ होगा जब तक जीना है सुख से जियो और ऋण लेकर मद्य पियो।

5-इतिहास, पुराणों में सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व सिद्ध करने वाली अनेक घटनाओं का वर्णन मिलता है।आदि शंकराचार्य ने राजा अमरूक के मृत शरीर में अपना सूक्ष्म शरीर प्रबुद्ध करके गृहस्थ जीवन सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त किया था। रामकृष्ण परमहंस ने महाप्रयाण के उपरान्त भी विवेकानन्द को कई बाद दर्शन तथा परामर्श दिये थे। पुराणों में तो पग-पग पर ऐसे कथानकों का उल्लेख है।थियोसोफिकल सोसाइटी की जन्मदात्री

मैडम ब्लावटस्की के बारे में कहा जाता है कि वे अपने को कमरे में बन्द करने के उपरान्त भी जनता को सूक्ष्म शरीर से दर्शन और उपदेश देती थीं।

6-विराट् ब्रह्माण्ड का वास्तविक स्वरूप उसका सूक्ष्म ‘शक्ति अंश’ ही है। जिसे परा और अपरा प्रकृति के नाम से जाना जाता है। उसके कर्तृत्व का नन्हा सा अंश ही स्वतः हमारी मनःचेतना की पकड़ में आता है। जो दृश्य है उसके इर्द-गिर्द अदृश्य शक्ति स्रोत की असीम प्रवाह धारा बहती रहती है। ग्रह नक्षत्रों से लेकर वन, पर्वत, सागर, सरिता तक सब पर यही बात लागू होती है।

7-मानव शरीर और भी अधिक विचित्र है। उसकी संवेदनशीलता—चुम्बक क्षमता इतनी अधिक है कि वह अपनी कोमल ग्रहण शक्ति के कारण इस अदृश्य जगत की किन्हीं भी अद्भुत शक्तियों को अभीष्ट परिमाण में अपने अन्दर खींच सकता है ...ग्रहण और धारण कर सकता है।शरीर शास्त्री

जितना ज्ञान अब तक देह के भीतरी और बाहरी अंगों के सम्बन्ध में प्राप्त कर चुके हैं, उससे कहीं अधिक गंभीर ज्ञान हमें अपने ‘सूक्ष्म’ और ‘कारण’ शरीर के सम्बन्ध में प्राप्त करना चाहिए।

सूक्ष्म और कारण शरीरों की स्थिति, शक्ति, संभावना और उपयोग की प्रक्रिया ;-

06 FACTS;-

1-स्थूल दृश्य शरीर की गति विधियां इस भूलोक तक सीमित हैं। सूक्ष्म शरीर-भुवः लोक तक। और कारण शरीर स्वः लोक तक अपनी सक्रियता फैलाये हुए हैं। इन भूः भुवः स्वः लोकों को ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र, आदि समझने की आम तौर से भूल की जाती है। लोक और ग्रह सर्वथा भिन्न हैं। ग्रह स्थूल हैं लोक सूक्ष्म।

2-सप्तलोक ;-

भू: ,भुवः, स्व:, महः, जनः, तपः और सत्य।।

सप्तलोक जिनका दिग्दर्शन वेद तथा पुराणों में किया गया है।

2-1-भू: -

अर्थात् मर्त्यों का लोक।इस दृश्यमान अनुभव गम्य भूलोक के भीतर अदृश्य स्थिति में दो अन्य लोक समाये हुए हैं। भुवः लोक और स्व लोक। वहां की स्थिति भू लोक से भिन्न है। यहां पदार्थ का प्राधान्य है। जो कुछ भी सुख दुख हमें मिलते हैं वे सब अणु पदार्थों के माध्यम से मिलते हैं। यहां हम जो कुछ चाहते या उपलब्ध करते हैं वह पदार्थ ही होता है। स्थूल शरीर चूंकि स्वयं पदार्थों का बना है इसलिए उसकी दौड़ या पहुंच पदार्थ तक ही सीमित हो सकती है।

2-2-भुवः -

अर्थात् मृतकों का लोक।लोक विचार प्रधान होने से उसकी अनुभूतियां, शक्तियां, क्षमतायें, संभावनायें सब कुछ इस बात पर निर्भर करती हैं कि व्यक्ति का बुद्धि संस्थान विचार स्तर क्या था।

2-3-स्व: -

03 POINTS;-

1-अर्थात् दिव्यगुणों से विभूषितों का लोक।स्व लोक भावना लोक है। यह भावना प्रधान है। भावनाओं में रस है। प्रेम का रस प्रख्यात है। माता और बच्चे के बीच, पति और पत्नी के बीच, मित्र और मित्र के बीच कितनी प्रगाढ़ता, घनिष्ठता, आत्मीयता होती है यह हम प्रत्यक्ष देखते हैं। वे संयोग में कितना सुख और वियोग में कितना दुख अनुभव करते हैं इसे कोई सहृदय व्यक्ति अपनी अनुभूतियों की तथा उन स्थितियों के ज्वार भाटे से प्रभावित लोगों की अन्तःस्थिति का अनुमान लगाकर वस्तुस्थिति की गहराई जान सकते हैं।

2-यह भाव-संवेदना इतनी सघन होती है कि शरीर और मन को किसी विशिष्ट दिशा में घसीटती हुई कहीं से कहीं ले पहुंचती है। श्रद्धा और विश्वास के उपकरणों से देवताओं को विनिर्मित करना और उन पर अपना भावारोपण करके अभीष्ट वरदान प्राप्त कर लेना यह सब भाव संस्थान का चमत्कार है। देवता होते हैं या नहीं। उनमें वरदान देने की सामर्थ्य है या नहीं। इस तथ्य को समझने के लिये हमें मनुष्य की भाव सामर्थ्य की प्रचंडता को समझना पड़ेगा।

3- श्रद्धा का बल असीम है। जिसकी जितनी श्रद्धा होगी जिसका जितना गहरा विश्वास होगा, जिसने जितना प्रगाढ़ संकल्प कर रक्खा होगा, और जिसने जितनी गहरी भक्ति भावना को संवेदनात्मक बना रक्खा होगा देवता उसकी मान्यता के अनुरूप बन कर खड़ा हो जायगा। वह उतना ही शक्ति सम्पन्न होगा और उतने ही सच्चे वरदान देगा।

2-4-महः -

अर्थात् यक्ष-गन्धर्व आदि अंशावतारों का लोक।

2-5-जनः -

अर्थात् ऐसी दैवी-विभूतियों का लोक। जो कि साधारण अहं भाव से कुछ ऊपरी सतह के है।

2-6-तपः -

अर्थात् ऐसे दिव्यालोक से ज्योतिमान ऐसी आत्माओं का लोक, जिनमें देवताओं के जैसी शक्ति व परमानन्द है और वे परमपिता परमेश्वर की उस अभूतपूर्व शक्ति से परिचित है, जिससे की इस सृष्टि का उदय हुआ है।

2-7-सत्य; -

अर्थात् सर्वोच्च स्तरीय प्राणियों का लोक। जिसमें अवस्थित होकर वो सदैव ईश्वरीय भाव का रसास्वादन किया करते है - जो की सदैव ही ईश्वर से एकात्मभाव में बद्ध रहते है और जो सदैव ईश्वर के अंशभूत होकर वहां अवस्थित है। सर्वोच्च सत्य और ज्ञान से उनका साक्षात्कार हुआ रहता है।आत्मा के भी यही सप्तस्तर अर्थात् सप्तलोक है।

3-हर चीज सूक्ष्म होने पर अधिक शक्तिशाली बनती चली जाती है। मिट्टी में वह बल नहीं जो उसके अति सूक्ष्म अंश अणु में है। हवा में वह सामर्थ्य नहीं जो ईथर में है। पानी में वह क्षमता नहीं जो भाप में है। स्थूल शरीर के गुण धर्म से हम परिचित हैं। वह सीमित कार्य ही अन्य जीव जन्तुओं की तरह पूरे कर सकता है। जो अतिरिक्त सामर्थ्य अतिरिक्त प्रतिभा, अतिरिक्त प्रखरता मनुष्य के अन्दर देखी जाती है वह उसके सूक्ष्म और कारण शरीरों की ही है। बाहर से सब लोग लगभग एक से दीखने पर भी भीतरी स्थिति के कारण उनमें जमीन आसमान जितना अन्तर पाया जाता है यह रक्त मांस का फर्क नहीं वरन् सूक्ष्म शरीर की अन्तःचेतना में सन्निहित समर्थता और असमर्थता के कारण ही होता है।

4-पंच भौतिक स्थूल काया को जिस प्रकार आहार, व्यायाम, चिकित्सा आदि उपायों से सामर्थ्यवान बनाया जाता है उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर तथा कारण शरीर को भी योग साधना द्वारा परिपुष्ट बनाया जाता है। मनोबल और आत्मबल के कारण जो अद्भुत विशेषताएं लोगों में देखी जाती हैं उन्हें इन सूक्ष्म शरीरों की बलिष्ठता ही समझना चाहिए। साधना का उद्देश्य उसी बलिष्ठता को सम्पन्न करना है।

5-स्थूल शरीर की शोभा, तृप्ति और उन्नति के लिये हमारे प्रयत्न निरन्तर चलते रहते हैं। यदि सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों को अपेक्षित और पड़े रहने देने की हानि को हम समझें और उन्हें भी स्थूल शरीर की ही तरह समुन्नत करने का प्रयत्न करें तो ऐसे असाधारण लाभ प्राप्त कर सकते हैं, जिनके द्वारा जीवन कृतकृत्य हो सके।

6-भूलोक में प्राप्त पदार्थ ‘सम्पदाओं से प्राप्त थोड़े से सुख का हमें ज्ञान है अस्तु उसी की उधेड़ बुन में लगे रहते हैं। भुवः और स्वः लोकों की विभूतियों को भी जान सकें तो सच्चे अर्थों में सम्पन्न बन सकते हैं। योग साधना का प्रयोजन मनुष्य को ऐसी ही समग्र सम्पन्नता से लाभांवित करता है।’

सूक्ष्म शरीर का आधार ;-

02 FACTS;-

1-मनुष्य शरीर जिन सूक्ष्म कणों से बना है उन्हें कोशिका (सेल) कहते हैं सारे शरीर को एक कोशिका जाल या भवन कह सकते हैं। इस कोशिका (सेल) को दो भागों में विभाजित किया जाता है।

(1) साइटो प्लाज्मा

(2) नाभिक (न्युक्लियस) साइटोप्लाज्मा

इस कोशिका को रसायन भाग और नाभिक संस्कार भाग कह सकते हैं जीवन की प्रमुख चेतना इसी नाभिक में प्रकाश, ताप चुम्बकत्त्व, विद्युत, ध्वनि और गति के रूप में विद्यमान रहता है।

2-इस तरह शरीर के स्थूल अणुओं में व्याप्त इस दूसरे जाल की सम्मिलित इकाई का नाम ही सूक्ष्म शरीर है। भारतीय योग विज्ञान में इस तत्व का नाम प्राण और उससे बने सूक्ष्म शरीर को प्राणमय कोश कहा गया है।बायोलॉजिकल प्लाज्मा बाडी प्राणमय कोश ही है।

बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी क्या है?-

09 FACTS;-

1-वैज्ञानिकों ने इस शरीर को ‘द बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी’ नाम दिया है। इस शरीर के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि यह केवल उत्तेजित विद्युत अणुओं से बने प्रारम्भिक जीवाणुओं के समूह का योग भर नहीं है वरन् एक व्यवस्थित तथा स्वचालित घटक हैं जो अपना स्वयं का चुम्बकीय क्षेत्र निःसृत करता है।

2-अध्यात्म विज्ञान ने चेतना को स्थूल की पकड़ से सर्वथा परे बताया है उसे केवल अनुभव ही किया जा सकता है। फिर भी प्राणियों का शरीर निर्मित करने वाले घटकों का जितना विवेचन, विश्लेषण अभी तक हुआ है, उससे प्रतीत होता है कि आज नहीं तो कल विज्ञान भी इस तथ्य को अनुभव कर सकेगा कि चेतना को स्थूल यन्त्रों से नहीं, विकसित चेतना के माध्यम से ही अनुभव किया जा सकेगा।

3-‘द बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी’ का अध्ययन करते हुए वैज्ञानिकों ने उसके तत्वों का भी विश्लेषण किया। बायोप्लाज्मा की संरचना और कार्यविधि का अध्ययन करने के लिए सोवियत वैज्ञानिकों ने कई प्रयोग किये और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बायोप्लाज्मा का मूल स्थान मस्तिष्क है और यह तत्व मस्तिष्क में ही सर्वाधिक सघन अवस्था में पाया जाता है तथा सुषुम्ना नाड़ी और स्नायविक कोशाओं में सर्वाधिक सक्रिय रहता है।

4-शास्त्रकार ने इस शरीर की तुलना एक ऐसे वृक्ष से की है जिसकी जड़ें ऊपर और शाखायें नीचे की ओर हैं। जिस प्राण ऊर्जा के अस्तित्व को वैज्ञानिकों ने अनुभव किया वह आत्मचेतना नहीं है बल्कि सूक्ष्म शरीर के स्तर की ही शक्ति है जिसे मनुष्य शरीर की विद्युतीय ऊर्जा भी कहा जाता है यह ऊर्जा प्रत्येक जीवधारी के शरीर में विद्यमान रहती है।

5-थेल विश्वविद्यालय में न्यूरो अकादमी के प्रोफेसर डा. हेराल्डवर ने सिद्ध किया है कि प्रत्येक जीवित प्राणी चाहे वह क्रीड़ा ही क्यों न हो ‘इलेक्ट्रोडायन मिक’ क्षेत्र से आवृत्त रहता है।बाद में इसी विश्वविद्यालय

के एक अन्य वैज्ञानिक डा. लियोनार्ड राबित्ज ने इस खोज को आगे बढ़ाया और कहा इस क्षेत्र को मस्तिष्क के द्वारा प्रभावित किया जा सकता है। भारतीय अध्यात्म ने इन शक्तियों के विकास हेतु ध्यान धारणा का मार्ग बताया है।

6- पुराणों और धर्मग्रन्थों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिन्हें चमत्कारी

घटनायें कहा जाता है।सूक्ष्म की सत्ता और सामर्थ्य को देखते हुए यह भी असम्भव नहीं लगता कि प्राचीनकाल में ऋषि, महर्षि, देवता, असुर आदि संकल्प बल से या सूक्ष्म के माध्यम से सुदूर ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा पलक झपकते ही सम्पन्न कर लेते हों। कौन जाने अगले कुछ ही वर्षों में विज्ञान ही ग्रह-नक्षत्रों पर खर्चीले तथा भारी यन्त्रों से लदे यान की अपेक्षा सूक्ष्म के माध्यम से वहां पहुंचने की विधि खोज निकाल ले।

7-प्रसिद्ध इलेक्ट्रानिक विशेष डा. निकोलसन ने तो यहां तक कहा है कि अगले सौ पचास वर्षों में इलेक्ट्रानिकी इतनी विकसित हो जायगी कि किसी भी वैज्ञानिक को किसी भी ग्रह पर भेजा जा सकेगा। करोड़ों मील दूर स्थित ग्रह पर बैठा कोई वैज्ञानिक किसी गुत्थी के बारे में पूछेगा तो उसे कहा जा सकेगा कि एक मिनट रुकिये अभी पहुंच रहा हूं। और यह सब सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही सम्भव हो सकेगा।

8-भौतिक विज्ञान पदार्थ का विश्लेषण करते-करते इस बिन्दु तक तो पहुंच ही गया है कि जिन्हें हम पदार्थ कहते हैं वह वस्तुतः कोई स्वतन्त्र इकाई नहीं है बल्कि किसी भी पदार्थ का छोटे से छोटा कण भी असंख्य सूक्ष्माति सूक्ष्म कणों का संघटक है। इन घटकों को अणु कहा जाता है। इससे आगे शोध करने पर वैज्ञानिकों ने चेतना के दर्शन आरम्भ किये हैं कि जीव-

जन्तुओं का शरीर मात्र भौतिक अणु-परमाणुओं से ही नहीं बना है बल्कि इसके अतिरिक्त एक ऊर्जा शरीर भी है।

9-जो कार्य हम स्थूल जीवन में करते हैं या मस्तिष्क में जैसे विचार भरे रहते हैं उनकी छाप सूक्ष्म शरीर पर पड़ती रहती है और वह छाप ही संस्कार बन जाती है। मनुष्य का चिंतन और कर्म जिस दिशा में चलता रहता है कालान्तर में वही स्वभाव बन जाता है और बहुत समय तक जिस स्वभाव को अभ्यास में लाया जाता रहता है उसी तरह के संस्कार बन जाते हैं। यह संस्कार ही परिपक्व होकर शुभ अशुभ प्रारब्ध एवं कर्मफल का रूप धारण करते रहते हैं। इस प्रकार कर्मफल प्रदान करने की स्वसंचालित प्रक्रिया भी इसी सूक्ष्म शरीर से सम्पन्न होती रहती है।

परा प्रकृति की चेतना शक्ति ''प्राण ''क्या है?-

21 FACTS;-

1-शरीर में मन की चेतना पंचतत्वों के सम्मिलन की चेतना मानी जाती है। आत्मा में प्रकाश प्राप्त करते हुए भी वह आत्मा का नहीं, शरीर का ही अंश माना जाता है। इसी प्रकार विश्वव्यापी पंच-तत्वों की, महाभूतों की सम्मिलित चेतना का नाम ''प्राण ''है। प्राण को ही जीवनी शक्ति कहते हैं। वह वायु में, आकाश में घुला तो रहता है पर इनसे भिन्न है। जिसे जड़ प्रकृति कहते हैं, वस्तुतः वह भी जड़ नहीं है। उसमें प्राण की एक स्वल्प मात्रा भरी रहती है।प्राण के अभाव में कोई वस्तु अपना स्वरूप धारण किये नहीं रह सकती, उसके जो स्वाभाविक गुण हैं वे भी स्थिर नहीं रहते।

2-प्राण को एक प्रकार की सजीव विद्युत-शक्ति कह सकते हैं जो समस्त संसार में वायु, आकाश, गर्मी एवं ईथर की तरह समाई हुई है। यह तत्व जिस प्राणी में जितना अधिक होता है वह उतना ही स्फूर्तिवान्, तेजस्वी, साहसी एवं सुदृढ़ दिखाई देता है। शरीर में व्याप्त इसी तत्व को जीवनीशक्ति एवं ‘ओज’ कहते हैं और मन में व्यक्त होने पर यही तत्व प्रतिभा एवं तेज कहलाता है। वीर्य में यही विद्युत शक्ति अधिक मात्रा में भरी रहने से ब्रह्मचारी लोग मनस्वी एवं तेजस्वी बनते हैं। इसी के अभाव से चमड़ी गोरी पीली होने पर भी, नख-शिख का ढांचा सुन्दर दीखने पर भी मनुष्य निस्तेज, उदास, मुरझाया हुआ और लुंज-पुंज सरीखा लगता है।

3-भीतरी तेजस्विता के अभाव से चमड़ी की सुन्दरता निर्जीव जैसी लगती है। मन को लुभाने वाले सौंदर्य में जो तेजस्विता एवं मृदुलता बिखरी होती है वह और कुछ नहीं प्राण का ही उभार है। वृक्ष, वनस्पतियों, पुष्पों से लेकर शिशु और शावकों, किशोरों-किशोरियों में जो कुछ आह्लाद दीख पड़ता है वह सब प्राण का ही प्रताप है। यह शक्ति कहीं चेहरे के सौन्दर्य में, कहीं वाणी की मृदुलता में, कहीं प्रतिभा में, कहीं बुद्धिमता में, कहीं कला-कौशलता में, कहीं भक्ति में, कहीं अन्य किसी रूप में देखी जाती है।

4-दुर्गा के रूप में अध्यात्म जगत् में इसी तत्व को पूजा जाता है। शक्ति यही है। दुर्गा शप्तशती में ‘‘या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण तिष्ठति’’ आदि श्लोकों में अनेक रूप से, उसी तत्व के लिए ‘‘नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोनमः’’ कह कर अभिवन्दन किया गया है। विजय दशमी की शक्ति पूजा के रूप में हम इस प्राणतत्व का ही आह्वान और अभिनन्दन करते हैं।

5-विश्व सृष्टि में समाया हुआ यह प्राण जब दुर्बल पड़ जाता है तो हीनता का युग आ जाता है, सब जीव जन्तु दुर्बल काय, अल्पजीवी, मन्दबुद्धि और हीन भावनाओं वाले हो जाते हैं। किन्तु जब इसकी प्रौढ़ता रहती है तो इस सृष्टि में सब कुछ उत्कृष्ट रहता है। सतयुग और कलियुग का भेद इस विश्व-प्राण की प्रौढ़ता और वृद्धता पर निर्भर है। जब सृष्टि में से यह प्राण होते-होते मरण की, परिसमाप्ति की स्थिति में पहुंचता है तो प्रलय की घड़ी प्रस्तुत हो जाती है।

6-परमाणुओं के एक दूसरे के साथ सम्बद्ध रखने वाला चुम्बकत्व-प्राण ही नहीं रहा तो वे सब बिखर कर धूलि की तरह छितरा जाते हैं। जितने स्वरूप बने हुए थे वे सब नष्ट हो जाते हैं इसी का नाम प्रलय है। जब दीर्घकाल के पश्चात यह प्राण चिर निद्रा में से जागकर नवजीवन ग्रहण करता है तो सृष्टि उत्पादन की प्रक्रिया पुनः आरंभ हो जाती है। जीवात्माओं को इस परा और अपरा प्रकृति का आवरण धारण करके कोई स्वरूप ग्रहण करने का अवसर मिलता है और वे पुनः जीव जन्तुओं के रूप में चलते फिरते दृष्टिगोचर होने लगते हैं।

7-यह प्राणतत्व किन्हीं प्राणियों को पूर्व संग्रहीत संस्कार एवं पुण्यों के कारण जन्म जात रूप से अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। इसे उनका सौभाग्य ही कहना चाहिए। पर जिन्हें वह न्यून मात्रा में प्राप्त है उन्हें निराश होने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। प्रयत्नों के द्वारा इस तत्व को कोई भी—अभीष्ट आकांक्षा के अनुरूप अपने अन्दर धारण कर सकता है। जिसमें कम है वह उसकी पूर्ति, इस विश्वव्यापी प्राणतत्व में से बिना किसी रोक-टोक के चाहे जितनी मात्रा में लेकर कर सकता है। जिनमें पर्याप्त मात्रा है वह और भी अधिक मात्रा में उस ग्रहण करके अपनी तेजस्विता और प्रतिभा में अभीष्ट अभिवृद्धि कर सकते हैं।

8-भारतीय योगियों ने इस सम्बन्ध में अद्भुत प्रयोग किये हैं। योग विज्ञान के सारे चमत्कार इसी इस प्राणतत्व के ही क्रिया कलाप हैं। यह सृष्टि परा और अपरा प्रकृति के दो भागों में विभक्त है। एक को जड़ दूसरे को चेतन कहते हैं। जड़ के सूक्ष्म अंश को परमाणु जिसके संयोग से स्थूल अवयवों का निर्माण होता है चेतन को प्राण कहते हैं जिससे सूक्ष्म शरीर बनता है शरीर में यह प्राण ही सूक्ष्म शरीर के रूप में विद्यमान रहता है इसी से उसमें गति और सक्रियता उत्पन्न होती है जिससे प्राणि जगत हलचल करता हुआ दिखाई देता है उसके अभाव में इस बौद्धिक चेतना के दर्शन संभव नहीं हो सकते हैं

9-प्रश्नोपनिषद् के अनुसार,...

''यह प्राण ही शरीर में अग्नि रूप धारण करके तपता है यही सूर्य, मेघ, इन्द्र, वायु, पृथ्वी तथा भूत समुदाय है सत असत तथा अमृत स्वरूप ब्रह्म भी यही हैं''।

10-वृहदारण्य के अनुसार,...

''मनुष्य में रहने वाली दस इन्द्रियां और ग्यारहवां मन यह सब प्राण हैं।

इतने पर भी उसने वायुः इन्द्रियां या मन नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः वह इस सबके भीतर काम करने वाली जीवनी शक्ति है''।.

11-कई उदाहरण ऐसे देखे गये हैं जो यह बताते हैं कि इस शरीर में असाधारण विद्युत प्रवाह का संचार हो रहा है। यों यह विद्युत शक्ति हर किसी में होती है पर वह अपनी मर्यादा में रहती है और अभीष्ट प्रयोजन में इस प्रकार निरत रहती है कि अनावश्यक स्तर पर उभर पड़ने के कारण उसका अपव्यय न होने लगे। छूने से किसी शरीर में बिजली जैसे झटके प्रतीत न होते हों तो भी यह नहीं समझना चाहिए कि उस शक्ति का किसी प्रकार अभाव है। हर किसी में पाई जाने वाली मानवी विद्युत जिसे अध्यात्म की भाषा में प्राण कहते हैं कभी कभी किसी के प्रतिबन्ध कलेवर भेद कर बाहर निकल आती है तब उसका स्पर्श भी भौतिक बिजली जैसा ही बन जाता है।

12-आयरलैण्ड की एक युवती जे. स्मिथ के शरीर में इतनी बिजली थी कि उसे छूते ही झटका लगता था। डा. एस. क्रापट के तत्वावधान में इस पर काफी खोज की गई, उसमें कोई छल नहीं था। हर दृष्टि से यह परख लिखा गया कि वह शरीरगत बिजली ही है, पर इस अतिरिक्त उपलब्धि का आधार क्या है इसका कारण नहीं समझा जा सका।लम्बी शोधें से इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इसमें कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। सामान्य सा शारीरिक व्यतिक्रम है। शरीर की कोशाओं के नाभिकों की बिजली-आवरण ढीले पड़ने पर ‘लीक’ करने लगती है। तब शरीर की बाहरी परतों पर उसका प्रवाह दौड़ने लगता है।

13-वस्तुतः नाभिकों में अनन्त विद्युत शक्ति का भण्डार तो पहले से ही विद्यमान है। इन शोधकर्ताओं का कथन है कि स्थान और उपयोग की भिन्नता से प्राणि विद्युत और पदार्थ विद्युत के दो भेद हो जरूर गये हैं, पर तात्विक दृष्टि से उनमें मूलभूत एकता ही पाई जाती है। शोधकर्ता जोन्स स्वयं भी एक विद्युत मानव थे। उन्होंने नंगे पैरों धरती पर चलकर भू-गर्भ की अनेकों धातु खदानों का पता लगाने में भारी ख्याति प्राप्त की थी। उनके स्पर्श से धातुओं से बनी वस्तुएं जादूगरों के खिलौनों की तरह उछलने खिसकने की विचित्र हलचलें करने लगती थीं। छूते ही बच्चे झटका खाकर चिल्लाने लगते थे।

14-अमेरिका के मोन्टाना राज्य के मेडालिया कस्बे की जेनी मोरन नामक लड़की एक चलती फिरती बैटरी थी। जो उसे छूता वही झटका खाता। अंधेरे में उसका शरीर चमकता था। अपने प्रकाश से वह घोर अंधेरे में भी मजे के साथ यात्रा कर लेती थी। उसके साथ चलने वाले किसी जीवित लालटेन के साथ चलने का अनुभव करते थे। उसके शरीर के स्पर्श से 100 वाट तक का बल्ब जल उठता था। यह लड़की 30 वर्ष की आयु तक जीवित रही और अस्पर्श्य बनी एकान्त कोठरी में दिन गुजारती रही।

15-भारतवर्ष की तरह जापान भी धार्मिक आस्थाओं, योग साधनाओं का केन्द्र है। सामान्य भारतीय की तरह उनमें भी आध्यात्मिक अभिरुचि स्वाभाविक है। एक घटना के माध्यम से जापानी वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकालने का भी प्रयास किया है कि शरीर में विद्युत की उपस्थिति का कारण तो ज्ञात नहीं किन्तु जिनमें भी यह असामान्य स्थिति पाई गई उनके मनोविश्लेषण से पता चलता है कि ऐसे व्यक्ति या तो जन्म-जात आध्यात्मिक प्रकृति के थे या कालान्तर में उनमें विलक्षण अतीन्द्रिय क्षमताओं का भी विकास हो जाता है।

16-इस सन्दर्भ में जेनेबा की एक युवती जेनेट डरनी का उदाहरण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जेनेट 1948 में जब वह 16-17 वर्षीय युवती थी किसी रोग से पीड़ित हुई। उनका वजन बहुत अधिक गिर गया। अब तक उनके शरीर में असाधारण विद्युत भार था वह काफी मन्द पड़ गया था किसी धातु की वस्तु का स्पर्श करने पर अब भी उनकी उंगलियों से चिनगारियां फूट पड़ती थीं। अब वह अनायास ही ध्यानस्थ हो जाने लगीं। ध्यान की इस अवस्था में उन्हें विलक्षण अनुभूतियां होतीं वह ऐसी घटनाओं का पूर्व उल्लेख कर देतीं तो कालान्तर में सचमुच घटित होतीं। व्यक्तियों के बारे में वह जो कुछ बता देतीं वह लगभग वैसा ही सत्य हो जाता। वे सैकड़ों मील दूर की वस्तुओं का विवरण नितान्त सत्य रूप में इस तरह वर्णन कर सकती थीं मानो वह वस्तु प्रत्यक्ष ही उनके सामने है। पता लगाने पर उस स्थान या वस्तु की बताई हुई सारी बातें सत्य सिद्ध होतीं।

17-काफी समय तक वैज्ञानिकों ने जेनेट की इन क्षमताओं पर अनुसन्धान किये और उन्हें सत्य पाया किन्तु वे कोई वैज्ञानिक निरूपण नहीं कर सके कि इस अचानक प्रस्फुटित हो उठने वाली आग या विद्युत का कारण क्या है?रासायनिक विश्लेषण से भले ही यह

बात सिद्ध न हो पर जो वस्तु अस्तित्व में है वह किसी न किसी रूप में कभी न कभी व्यक्त होती ही रहती है। लन्दन के सुप्रसिद्ध स्नायु रोग विशेषज्ञ डा. जान ऐश क्राफ्ट को जब यह बताया गया कि उनके नगर में ही एक 11 वर्षीय किशोरी कन्या जेनी मार्गन के शरीर में असाधारण विद्युत शक्ति है और कोई व्यक्ति उसका स्पर्श नहीं कर सकता। तो उनको एकाएक विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि हाड़-मांस के शरीर में अग्नि जैसा कोई तेजस् तत्व और विद्युत जैसी क्षमतावान शक्ति भी उपलब्ध हो सकती है उसके परीक्षण का निश्चय कर वे जेनी मार्गन को देखने उसके घर पर जा पहुंचे।

18-बड़े आत्मविश्वास के साथ जेनी से हाथ मिलाने के लिए उन्होंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। जेनी बचना चाहती थी किन्तु डॉक्टर ने स्वयं आगे बढ़ कर उसके हाथ का स्पर्श किया उसके बाद जो घटना घटी वह डा. ऐश के लिए बिलकुल अनहोनी और विलक्षण घटना थी। एक झटके के साथ वे दूर फर्श पर जा गिरे, काफी देर बाद जब होश आया तो उन्होंने अपने आपको एक अन्य डॉक्टर द्वारा उपचार करते हुए पाया। उन्होंने स्वीकार किया कि इस लड़की के शरीर में हजारों वोल्ट विद्युत प्रभार से कम शक्ति नहीं है। सामान्य विद्युत धारा से साधारण झटका लग सकता है किन्तु 150 पौण्ड के आदमी को दूर पटक दे इतनी असामान्य शक्ति इतने से कम विद्युत भार में नहीं हो सकती।

19-एक घटना सोलह वर्षीय लुई हेवर्गर की है। इस लड़के में शक्तिशाली चुम्बक पाया गया। वह जिन धातु पदार्थों को छूता वे उससे चिपक जाते और किसी दूसरे द्वारा बलपूर्वक छुड़ाये जाने पर ही छूटते। मेरीलेण्ड कालेज आफ फार्मेसी के तत्वावधान में इस लड़के के सम्बन्ध में भी बहुत दिन तक खोज-बीन की गई। पर निश्चित निष्कर्ष उसके सम्बन्ध में भी व्यक्त न किया जा सका।

20-यह उदाहरण इस बात के प्रतीक हैं कि मनुष्य शरीर प्राण-विद्युत का खजाना है। हम सामान्य आहार-विहार साधारण श्वास और निर्बल इच्छा शक्ति के कारण न तो उस शक्ति को जगा पाते हैं न कोई विशिष्ट उपयोग ही कर पाते हैं, पर यह विद्युत ही है जिसे विभिन्न योग साधनाओं द्वारा जागृत और नियन्त्रित करके योगीजन अपने लोग और परलोक दोनों को समर्थ बनाते थे। वह कार्य करने में सफल होते थे जो साधारण व्यक्तियों को कोई प्रताप और चमत्कार जैसा लगता है।

21-इस तरह अनायास ही जाग पड़ने वाली शरीर विद्युत की तरह कई शरीरों में प्राण शक्ति अग्नि के रूप में प्रकट होने की भी घटनाएं घटती हैं। वास्तव में सभी भौतिक शक्तियां परस्पर परिवर्तनीय हैं अतएव दोनों तरह की घटनाएं एक ही परिप्रेक्ष्य में आती हैं।

प्रश्नोपनिषद् के अनुसार,...

''इस ब्रह्मपुरी अर्थात् शरीर में प्राण ही कई तरह की अग्निायों के रूप में जलता है''।

तेजस्विता की साधना क्या है?-

14 FACTS;-

1-सिर और नेत्रों में मानवी विद्युत का सबसे अधिक अनुभव होता है। वाणी की मिठास, कड़क अथवा प्रभावी प्रामाणिकता में भी उसका अनुभव किया जा सकता है। तेजस्वी मनुष्य के विचार ही प्रखर नहीं होते उसकी आंखें भी चमकती हैं और उनकी जीभ के अन्तर में गहराई तक घुस जाने वाला विद्युत प्रवाह उत्पन्न करती है। आत्मबल की साधना को प्रकारान्तर से तेजस्विता की साधना ही कह सकते हैं।

2-मानवी विद्युत के दो प्रवाह हैं एक ऊर्ध्वगामी दूसरा अधोगामी। ऊर्ध्वगामी मस्तिष्क में केन्द्रित है। उस मर्मस्थल के प्रभाव से व्यक्तित्व निखरता और प्रतिभाशाली बनता है। बुद्धि कौशल, मनोबल के रूप में शौर्य, साहस और आदर्शवादी उत्कृष्टता के रूप में यही विद्युत काम करती है। योगाभ्यास के—ज्ञान साधना के समस्त प्रयोजन इस ऊर्ध्वगामी केन्द्र द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। स्वर्ग और मुक्ति का—ऋद्धियों और सिद्धियों का आधार इसी क्षेत्र की विद्युत के साथ जुड़ा हुआ है। मनुष्य के चेहरे के इर्द-गिर्द छाये हुए तेजोबल को—ओजस् को इस ऊर्ध्वगामी विद्युत का ही प्रतीक समझना चाहिए।

3-अधोगामी विद्युत जननेन्द्रिय में केन्द्रित रहती है। रति सुख का आनन्द देती है और सन्तानोत्पादन की उपलब्धि प्रस्तुत करती है। विविध कला विनोदों का ...हर्षोल्लासों का उद्भव यहीं होता है। ब्रह्मचर्य पालन करने के जो लाभ गिनाये जाते हैं वे सब जननेन्द्रिय में सन्निहित विद्युत के ही चमत्कार हैं। आगे चलकर मूलाधार चक्र में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति का जागरण करने साधनारत मनुष्य अपने को ज्योतिर्मय तेज पुंज के रूप में परिणत कर सकते हैं।

4-ऊर्ध्वगामी और अधोगामी विद्युत प्रवाह यों उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की तरह भिन्न प्रकृति के हैं और एक दूसरे से दूर हैं फिर भी वे सघनता पूर्वक मेरुदण्ड के माध्यम से परस्पर जुड़े हुए हैं। जननेन्द्रिय उत्तेजना से मस्तिष्क में संक्षोभ उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट चिन्तन से कामविकारों का सहज शयन सम्भव हो जाता है। यदि यह उभय-पक्षीय शक्ति प्रवाह ठीक तरह संजोया, संभाला जा सके तो उसका प्रभाव व्यक्तित्व के समान विकास में चमत्कारी स्तर का देखा जा सकता है।

5-मानवी तत्व की व्याख्या, विवेचना अनेक आधारों पर की जाती है अध्यात्म एवं तत्व दर्शन के आधार पर मनुष्य को ईश्वरीय सत्ता का प्रतिनिधि और अगणित दिव्य संभावनाओं का भाण्डागार माना गया है, भौतिक विश्लेषण के अनुसार वह रासायनिक पदार्थ और पंचतत्व समन्वय का एक हंसता, बोलता पादप है। विद्युत विज्ञान के अनुसार उसे एक जीवित जागृत बिजली घर भी कहा जा सकता है। रक्त संचार, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन जैसे क्रिया-कलाप पेंडुलम गति से स्वसंचालित रहते हैं और जीवनी शक्ति के नाम से पुकारी जाने वाली विद्युत शक्ति की क्षति पूर्ति करते हैं। मस्तिष्क अपने आप में एक रहस्य पूर्ण बिजली घर है। जिसमें जुड़े हुए तार समस्त काया को कठपुतली की तरह नचाते हैं।

6-मनुष्य शरीर की बिजली एक प्रत्यक्ष सचाई है। उसे यन्त्रों से भी देखा जाना जा सकता है। वह अपने ढंग की अनोखी है। भौतिक विद्युत से उसका स्तर बहुत ऊंचा है। बल्ब में जलने और चमकने वाली बिजली की तुलना में नेत्रों में चमकने वाली बिजली की गरिमा और जटिलता अत्यन्त ऊंचे स्तर की समझी जानी चाहिए। तारों को छूने पर जैसा झटका लगता है वैसा आमतौर से शरीरों के छूने से नहीं लगता है तो भी काया संस्पर्श के दूरगामी कायिक और मानसिक प्रभाव उत्पन्न होते हैं। महामानवों के चरण-स्पर्श जैसे धर्मोपचार इसी दृष्टि से प्रचलित हैं। यह कायिक बिजली कभी-कभी भौतिक बिजली के रूप में देखने में आती है उससे उस रहस्य पर पड़ा हुआ पर्दा और भी स्पष्ट रूप से उतर जाता है जिसके अनुसार मनुष्य को चलता-फिरता बिजली घर ही माना जाना चाहिए।

7-यह शक्ति इतनी प्रचण्ड होती है कि उससे संसार की आश्चर्यजनक मशीनरी का काम मनुष्य केवल अपनी इच्छा शक्ति से कर सकता है अर्थात् प्राण विद्युत पर नियन्त्रण इच्छा शक्ति का ही होता है। सामान्य स्थिति में तो अन्न और श्वासों से प्राप्त विद्युत ही काम करती रहती है पर जैसे-जैसे योगाभ्यासी उस सत्ता का आन्तरिक परिचय पाता चला जाता है। वह इस शक्ति का विकास भी इच्छा-शक्ति से ही करके कोई भी मनोरथ सफल करने और इच्छित आयु जीने में समर्थ होता है।

8-मनुष्य शरीर में बिजली की उपस्थिति न तो स्वल्प है और न महत्व हीन। बालों में कंघी करके उतनी भर रगड़ से उत्पन्न चुम्बक को देखा जा सकता है बालों से घिसने के बाद कंघी को लोहे की पिन से स्पर्श करें तो उसमें चुम्बक के गुण विद्यमान मिलेंगे। निर्जीव बालों में ही नहीं सजीव मस्तिष्क में भी बिजली की महत्वपूर्ण मात्रा विद्यमान है। अन्य बिजलीघरों की तरह वहां भी बनाव बिगाड़ का क्रम चलता रहता है। इस मरम्मत में चुम्बकीय चिकित्सा का आशाजनक उपयोग किया जा सकता है।

9-हमें शरीर एवं मन को सजीव स्फूर्तिवान एवं तेजस्वी बनाने के लिये अपनी विद्युत शक्ति को सुरक्षित रखने का ही नहीं इस बात का भी प्रयत्न करना चाहिये कि उसमें निरन्तर वृद्धि भी होती चले। क्षति पूर्ति की व्यवस्था बनी रहे। यह प्रयोजन, प्राणायाम षटचक्र वेधन, कुण्डलिनी योग एवं शक्तिपात जैसी साधनाओं से संभव हो सकता है।

10-इस मानवी विद्युत का ही यह प्रभाव है जो एक दूसरे को आकर्षित या प्रभावित करता है। उभरती आयु में यह बिजली काय-आकर्षण की भूमिका बनती है पर यदि उसका सदुपयोग किया जाय तो बहुमुखी प्रतिभा, ओजस्विता, प्रभावशीलता के रूप में विकसित होकर, कितने ही महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है। ऊर्ध्व रेता, संयमी ब्रह्मचारी लोग अपने ओजस् को मस्तिष्क में केन्द्रित करके उसे ब्रह्मवर्चस के रूप में परिणत करते हैं। विद्वान दार्शनिक, वैज्ञानिक, नेता, वक्ता, योद्धा, योगी, तपस्वी जैसी विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्तियों के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने ओजस का—प्राणतत्व का अभिवर्धन, नियन्त्रण एवं सदुपयोग किया है। यों यह शक्ति किन्हीं-किन्हीं में अनायास भी उभर पड़ती देखी गई है और उसके द्वारा उन्हें कुछ अद्भुत काम करते भी पाया गया है।

11-विश्वव्यापी विद्युत चुम्बक से कौन कितना लाभ उठाले यह उस प्राणी की शरीर रचना एवं चुम्बकीय क्षमता पर निर्भर है। कितने ही पक्षी ऋतु परिवर्तन के लिए झुण्ड बनाकर सहस्रों मील की लम्बी उड़ाने भरते हैं वे धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा पहुंचते हैं। इनकी उड़ाने प्रायः रात को होती हैं। उस समय प्रकाश जैसी कोई सुविधा भी उन्हें नहीं मिलती, यह कार्य उनकी अन्तः चेतना पृथ्वी के इर्द गिर्द फैले हुए चुम्बकीय घेरे में चल रही हलचलों के आधार पर ही पूरा करती है। इस धारा के सहारे वे इस तरह उड़ते हैं मानो किसी सुनिश्चित सड़क पर चल रहे हों।

12-टरमाइन कीड़े अपने घरों का प्रवेश द्वार सदा निर्धारित दिशा में ही बनाते हैं। समुद्री तूफान आने से बहुत पहले ही समुद्र बतख आकाश में उड़कर तूफानी क्षेत्र से पहले ही बहुत दूर निकल जाती हैं। चमगादड़ अंधेरी रात में आंख के सहारे नहीं अपनी शरीर विद्युत के सहारे ही वस्तुओं की जानकारी प्राप्त करते हैं और पतले धागों से बचकर उपयोगी रास्ते पर उड़ते हैं। मेढ़क मरे और जिन्दे शिकार का भेद अपनी शारीरिक विद्युत के सहारे ही जान पाता है। मरी और जीवित मक्खियों का ढेर सामने लगा देने पर वह मरी छोड़ता और जीवित खाता चला जायगा।

13-उल्लू की शिकार दबोचने की क्षमता उसकी आंखों पर नहीं विद्युत संस्थान पर निर्भर रहती है। सांप समीपवर्ती प्राणियों के शरीरों के तापमान का अन्तर समझता है और अपने रुचिकर प्राणी को ही पकड़ता है। भुनगों की आंखें नहीं होती वह अपना काम विशेष फोलो सेलों से बनाते हैं। अपने युग में अनेकों वैज्ञानिक यंत्र प्राणियों की अद्भुत विशेषताओं की छान-बीन करने के उपरान्त उन्हीं सिद्धान्तों के सहारे बनाये गये हैं। प्राणियों में पाए जाने वाली विद्युत शक्ति ही उनके जीवन निर्वाह के आधार बनाती है। इन्द्रिय शक्ति कम होने पर भी वे उसी के सहारे सुविधापूर्वक समय गुजारते हैं।

14-योग साधनाओं का एक उद्देश्य इस चेतना विद्युत शक्ति का अभिवर्धन करना भी है। इसे मनोबल, प्राणबल और आत्मबल भी कहते हैं। संकल्प शक्ति और इच्छा शक्ति के रूप में

इसी के चमत्कार देखे जाते हैं।आत्म शक्ति सम्पन्न व्यक्ति अपनी जन सम्पर्क गतिविधियों को निर्धारित एवं नियन्त्रित करते हैं। विशेषतया काम सेवन सम्बन्धी सम्पर्क से बचाव इसी आधार पर किया जाता है अत्यंत महत्वपूर्ण शक्ति को उपयोगी दिशा में ही नियोजित करने के लिए सुरक्षित रखा जा सके और उसका क्षुद्र मनोरंजन के लिये अपव्यय न होने पाये।

अध्यात्म शास्त्र में प्राण विद्या का एक स्वतन्त्र प्रकरण एवं विधान है। इसके आधार पर साधनारत होकर मनुष्य इस प्राप्त विद्युत की इतनी अधिक मात्रा अपने में संग्रह कर सकता है कि उस आधार पर अपना ही नहीं अन्य अनेकों का भी उपकार उद्धार कर सके।

....SHIVOHAM....

इस सबके भीतर काम करने वाली जीवनी शक्ति है''।

. SHIVOHAM....


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