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क्या सूक्ष्म शरीर की अनुभूति—प्राणायाम से हो सकती है?


प्राणायाम क्या है?-

09 FACTS;-

1-प्राणायाम साधारणतया श्वास-प्रश्वास का एक व्यायाम प्रतीत होता है।परन्तु प्राणायाम

का प्रयोजन तो निखिल ब्रह्माण्ड में से प्राणतत्व की अभीष्ट मात्रा को आकर्षित करने की तथा उस उपलब्धि को अभीष्ट संस्थानों में पहुंचाने की विशिष्ट कला के रूप में ही समझा जाना चाहिए। सांस के सहारे प्राणतत्व को आकर्षित कर सकना एक बात है और मात्र श्वास-प्रश्वास क्रिया करना सर्वथा दूसरी।श्वसन क्रिया के साथ-साथ प्रचण्ड मनोबल का समावेश करने से ...उसी के चुम्बकत्व से व्यापक प्राणत्व को आकाश से खींच सकने में सफलता मिलती है।

2-प्राणायाम की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए स्वामी विवेकानन्द ने एक बार एक कथा सुनाई। एक राजा ने किसी बात पर अप्रसन्न होकर अपने मंत्री को बंदी बनाकर किले में कैद कर दिया। मंत्री किसी तरह किले से भाग निकलता चाहता था, अपनी इच्छा उसने भेंट के लिये आई अपनी धर्म पत्नी से प्रकट की। कठोर पहरे के कारण कोई उक्ति समझ में नहीं आ रही थी।

3-मंत्राणी ने तब एक युक्ति खोज निकाली। एक गोबरैली की पीठ पर एक तिनके को इस तरह चिपकाया कि उसका एक किनारा गोबरैले के मुंह की ठीक सामने आ जाता था तिनके के सिरे पर शहद लगा कर उसे किले की दीवार पर रख दिया गया उसकी पूंछ में रेशम का धागा बांध दिया। शहद देखकर गोबरैले के मुंह में पानी भर आया वह शहद चाटने के लिये चल पड़ा शहद उतना ही आगे बढ़ता जाता इस तरह कीड़ा लगातार ऊपर चढ़ता चला गया। दीवार की ऊंचाई चढ़ जाने के बाद उतरने का क्रम प्रारम्भ हुआ कीड़ा किले के नीचे उतर गया इधर मंत्राणी रेशम के धागे को क्रमशः मोटा और मजबूत लगाती गई जब धागा मंत्री के हाथ पहुंच गया तब उसने मोटा रस्सा बांध दिया। मंत्री ने रस्सा खींच लिया और पहरा लगा रहा, वह उस रस्से के सहारे बाहर निकल गया।

4-प्राण इस ब्रह्मांड में सर्वत्र संव्याप्त है। वह मनुष्य के साथ संकल्प बल के सहारे जुड़ता है। शरीर में उसका प्रवेश वायु के साथ होता है। विज्ञानी आक्सीजन को प्राण कहते थे और सोचते थे कि रक्त उसी के कारण शुद्ध रहता है और वही जीवनी शक्ति है। पर जब यह सोचा गया कि साँस में ऑक्सीजन घुली रहने और फेफड़े ठीक काम करने पर भी मनुष्य मर क्यों जाता है तो समझ में आया कि प्राण और आक्सीजन दो पृथक वस्तुएँ हैं। प्राण के निकल जाने पर शरीर में आक्सीजन सिलेंडरों के माध्यम से साँस पहुँचाई जाती रहे तो भी उसे जीवित नहीं किया जा सकता। 5-इतने पर भी गहरी साँस का अपना महत्व है। आक्सीजन जीवनी शक्ति बढ़ाती है, रक्त को शुद्ध करती है, तापमान बनाये रखती है आदि बातें सही हैं। इसलिए यह भी सही है कि मनुष्य को गहरी साँस लेने की आदत डालनी चाहिए। फेफड़ों को पूरी तरह हवा से भरना चाहिए और उन्हें पूरी तरह खाली करना चाहिए। इस प्रकार फेफड़ों में एक बार में 200 से सी.सी. तक हवा शरीर में भरी जा सकती है और उसमें समाविष्ट आक्सीजन का लाभ उठाया जा सकता है, किन्तु देखा गया है कि लोग आलस्य वश उथली साँस लेते हैं और एक बार में प्रायः 500 सी.सी. ही हवा भीतर ले जा पाते हैं।

6-इसका परिणाम यह होता है कि फेफड़ों का मध्य भाग ही क्रियाशील रहता है और इर्द-गिर्द के कोष्ठक निष्क्रिय पड़े रहते हैं, जिनमें क्षय आदि के जीवाणु-विषाणु आसानी से टिक जाते हैं और वंश वृद्धि करते हुए जीवन के लिए संकट बन जाते हैं। कुछ दिन पूर्व तक भारतीय

योग पद्धति के महत्वपूर्ण अंश प्राणायाम का लाभ ‘डीप ब्रीदिंग’ के आधार पर माना जाता था और जो लाभ मिलते थे उन्हें गहरी साँस लेने का प्रतिफल माना जाता था।पर अब समझा

जाने लगा है कि प्राण एक जीवन्त विद्युत है, जो शरीर से भी अधिक मनःक्षेत्र को प्रभावित करती है। मनुष्य को साहनी, पराक्रमी, तेजस्वी और स्फूर्तिवान बनाती है।

7-शरीर और मस्तिष्क में बिजली के असाधारण आवेश पाये गये हैं।यह विद्युत शक्ति

आक्सीजन से सर्वथा भिन्न है। वह अनन्त आकाश से मस्तिष्कीय केन्द्र संस्थानों द्वारा अवतरित और आकर्षित होती है। इसे खींचने में मन को गंगावतरण के लिए किये गये भागीरथी तप की भाँति निरत होना पड़ता है।

8-बाइलर की पुरानी राख गिराई न जाय तो भाप बनना बन्द हो जाता है। इससे इंजन का काम रुक जाता है। हमारे फेफड़े ठीक बाइलर का काम करते हैं। इससे इंजन अर्थात् हृदय की क्रिया प्रभावित होती है। दूषित मल विकार जो रक्त के साथ हृदय से फेफड़ों में पहुंचाया जाता है। उसकी पूरी वह गहरी सांस द्वारा सफाई न कर दी जाय तो फिर वही अशुद्ध रक्त हृदय को लौट आता है। यह गन्दगी धमनियों द्वारा शरीर में फैल जाती है और बीमारी, रोग व दुर्बलता

के रूप में फूट पड़ती है। किन्तु पूरी सांस का यदि अभ्यास डाल लें तो इससे छाती चौड़ी होती है? फेफड़े मजबूत होते हैं और वजन बढ़ता है। शुद्ध रक्त-संचार से हृदय की दुर्बलता दूर होने लगती है। इसलिए प्राणायाम द्वारा गहरी सांस लेने का अभ्यास बना लेना स्वास्थ्य के लिये अति लाभदायक होता है।

9-साधारण अवस्था में सांस के साथ 30 घन इंच हवा फेफड़ों में पहुंचती है। इससे अधिक गहरी सांस लें तो कुछ मिलाकर 130 घन इंच तक वायु फेफड़ों में पहुंच जाती है किन्तु सांस छोड़ते समय 100 घन इंच वायु छाती में रह जाती है। इस प्रकार कुछ 230 घन इंच की जगह शरीर में होती है। तात्पर्य यह है कि साधारण सांस की अपेक्षा आठ गुना सांस ली जा सकती है। इससे आठ गुना ऑक्सीजन शरीर को मिलेगा तो आठ गुना स्वास्थ्य का सुधार भी होगा ही।

प्राणायाम का क्या उद्देश्य है?-

11 FACTS;-

1-प्राणायाम के दो उद्देश्य हैं एक श्वास की गति का नियन्त्रण दूसरा अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त प्राण चेतना को आकर्षित करके स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को उस अद्भुत शक्ति से ओत-प्रोत करना। मनोनिग्रह में भी प्राणायाम से आशाजनक सहायता मिलती है। चंचल और उच्छृंखल मन निर्दिष्ट केन्द्र पर स्थिर होना दिखता है। इतना ही नहीं मनोविकारों के निराकरण का भी पथ-प्रशस्त होता है। साधन जगत में तथा शारीरिक और मानसिक आरोग्य की दृष्टि से प्राणायाम की महत्ता एक स्वर से स्वीकार की गई है।

2-श्वास की गति में तीव्रता रहने से जीवन का शक्तिकोष जल्दी चुक जाता है और दीर्घजीवन सम्भव नहीं रहता। श्वास की चाल जितनी धीमी होगी शरीर उतने ही अधिक दिनों जीवित रह सकेगा और कई प्राणियों की श्वास का तुलनात्मक अध्ययन करने से तथ्य

बिलकुल स्पष्ट हो जाता है।शारीरिक श्वास की चाल और जीवन अवधि का लेखा-जोखा इस प्रकार है...

2-1-खरगोश- श्वास 38, आयु 8 साल।

2-2-कबूतर- श्वास 37, आयु 8 वर्ष।

2-3-कुत्ता- श्वास 28, आयु 13।

2-4-बकरी- श्वास 24, आयु 14।

2-5-घोड़ा- श्वास 18, आयु 50।

2-6-मनुष्य- श्वास 12, आयु 100।

2-7-हाथी- श्वास 11 आयु 100।

2-8-सर्प- श्वास 7 आयु 120।

2-9-कछुआ- श्वास 4, आयु 150 वर्ष।

3-भूतकाल में मनुष्यों की श्वास 11-12 बार प्रति मिनट के हिसाब से चलती थी अब वह बढ़कर 15-16 पहुंच गई है। इसी अनुपात से उसकी आयु भी घट गई है।श्वास की गति बढ़ने

से तापमान बढ़ता है। बढ़ा हुआ तापमान आयु क्षय करता है। जो जानवर कुत्ते की तरह हांफते हैं—जिनकी हांफने की गति जितनी तीव्र होती है वे उतनी ही जल्दी मरते हैं। स्मरण रहे हांफना और तापमान की वृद्धि दोनों एक दूसरे से सम्बन्धित है। ज्वर आने पर आदमी भी हांफने लगता है। इसी बात को यों भी कह सकते हैं जिसकी सांस तेज चलेगी उसके शरीर की गर्मी बढ़ जायगी पर गर्मी की बढ़ोत्तरी और सांस की चाल में तीव्रता दोनों ही जीवन का जल्दी अन्त करने वाले हैं।

4-दीर्घ-आयु का रहस्य बताते हुए विज्ञानी जेक्टलूवे ने बताया है इन दिनों मनुष्यों का शारीरिक ताप 98.6 रहता है। इसे आधा घटाया जा सके अर्थात् 49 बना दिया जाय तो आदमी मजे से 1000 वर्ष जी सकता है।साधारणतया हर मिनट में 18 बार हमारे

फेफड़े फूलते सिकुड़ते हैं। 4 घण्टे में एक प्रक्रिया को 25920 बार पुनरावृत्ति होती है। प्रति श्वास में प्रायः 500 सी.सी. वायु का प्रयोग होता है। क्योंकि लोग उथला श्वास लेते हैं। सामान्यतया एक स्वस्थ शरीर की आवश्यकता पूर्ति के लिए हर सांस में 1200 सी.सी. वायु का उपयोग होना चाहिए।

5-गहरी सांस लेने का लाभ यह है कि फेफड़ों को जल्दबाजी की भगदड़ से थोड़ी राहत मिलती है और वह उस अवकाश का उपयोग रक्त को अधिक शुद्ध करने में कर सकता है। इससे हृदय पर कम बोझा पड़ेगा और वह अधिक निरोग रह सकेगा। इंग्लैंड का विख्यात फुटबाल खिलाड़ी भिड़लोथियन अपने गवीले मन और फुर्तीलेपन का कारण गहरी सांस लेने का अभ्यास ही बताया करता है वह प्रायः 2000 सी.सी. वायु हर श्वास में लेता था जबकि औसत व्यक्ति 500 सी.सी. ही लेकर छुट्टी पाते हैं।वह स्वास्थ्य संरक्षण और दीर्घ जीवन का सस्ता किन्तु कारगर नुस्खा है।

6-स्थूल शरीर में वायु संचार के लिए फेफड़े प्रधान रूप से काम करते हैं। सूक्ष्म शरीर में यह कार्य भी नाभि केन्द्र को ही करना पड़ता है। प्रत्यक्ष शरीर नासिका द्वारा वायु खींचता-छोड़ता है, सूक्ष्म शरीर को प्राण वायु का संचार करना होता है। प्राण वस्तुतः एक विद्युत शक्ति है जो ऑक्सीजन की ही भांति वायु में घुली रहती है। श्वास-प्रश्वास के साथ ही उसका आवागमन भी होता है। वैसे उसकी सत्ता वायु से सर्वथा भिन्न है।समुद्र के पानी में नमक घुला रहती है यह ठीक है वस्तुतः वे दोनों एक दूसरे के भिन्न स्तर के ही हैं।

7-सूक्ष्म शरीर की नाड़ियां में प्रवाहित होने वाले शक्ति प्रवाह को प्राण कह सकते हैं। जिस प्रकार रक्त और रक्त वाहिनी शिरा इन दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध रहने पर भी उनकी सत्ता सर्वथा स्वतन्त्र है। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर की नाड़ियों और उनमें प्रवाहित होने वाले प्राणों को एक दूसरे से सम्बद्ध रहते हुए भी वह सत्ता की दृष्टि से प्रथक भी ठहराया जा सकता है।

क्या घर्षण एवं प्राण अनुदान से अभीष्ट ऊर्जा की उपलब्धि हो सकती है?-

10 FACTS;-

1-भौतिकी के छात्र जानते हैं कि घर्षण से ऊर्जा उत्पन्न होती है। दियासलाई घिसने से लेकर विशालकाय जनरेटरों द्वारा आग या विद्युत उत्पन्न होने के कारणों में घर्षण ही मुख्य है। निर्जन सुनसान जंगलों में कई बार भयंकर आग लगती है और विस्तृत क्षेत्र के गीले सूखे पेड़ों को जलाकर खाक कर देती है। यह मनुष्यों द्वारा लगाई गई नहीं होती, वह आग सूखे पेड़ों की टहनियों के तेज हवा से हिलने और आपस में रगड़ने के कारण उत्पन्न होती है। इस कार्य में बांस सब से अग्रणी है।

2-सूखे बांस आपस में रगड़ खाकर पहले गरम होते हैं फिर चिनगारियां निकालने लगते हैं। यह आग बढ़ती फैलती चली जाती है और दावानल का रूप धारण कर लेती है। यह घर्षण के

सिद्धांत का ही चमत्कार है।पत्थर के दो टुकड़े आपस में टकरा कर चिनगारियां उत्पन्न करने की कला ही आदि मानव ने सीखी थी, पीछे लोहे और पत्थर को टकरा कर भी आग निकालने की तरकीब निकाल ली गई। यज्ञ कार्यों में लकड़ियां रगड़कर अरणिमन्थन की क्रिया द्वारा अग्नि उत्पन्न की जाती थी।

3-चेतना और पदार्थ-ब्रह्म और प्रकृति के उद्गम स्रोत में देखा गया है कि वे परस्पर टकराते-घिसते हैं फलतः शब्द रूप में ऊर्जा उत्पन्न होती है और उसके सहारे सृष्टि क्रम चल पड़ता है। हवा चलती है, विभिन्न पदार्थों से टकराती है। समुद्र में लहरें उठती गिरती हैं मनुष्य शरीर में श्वास-प्रश्वास और आकुंचन प्रकुंचन चलता है फलतः घर्षण चलता है और ऊर्जा उत्पन्न होती है उसी के अपने-अपने प्रयोजन हर स्थान पर चल पड़ते हैं। पदार्थों और प्राणियों में चलती रहने वाली हलचलों को घर्षण की उत्पत्ति ही कहा जा सकता है।

साधारण श्वास प्रश्वास क्रिया से जीवनचर्या चलती है।

4-पेण्डुलम हिलना बन्द हो जाय तो घड़ी के सारे पुर्जे ठप्प हो जाते हैं। सांस रुकी तो मरण निश्चित है। घर्षण बन्द तो जीवन भी समाप्त। सांस के साथ जीवन जुड़ा हुआ है क्योंकि प्रत्यक्षतः ऊर्जा की उत्पत्ति उसी से होती है, यों गहराई में जाने पर सहस्रार से उठने वाले विद्युत स्फुल्लिंग भी उसके मूल कारण समझे जाते हैं। वहां भी रुक-रुककर उछलने की क्रिया ही घर्षण उत्पन्न करती है।

5-अधिक सशक्तता प्राप्त करने के लिए हमें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। बड़ा कारखाना चलाने के लिए बड़ी मशीनें गतिशील बना सकने वाली बड़ी मोटर फिट करनी पड़ती है। छोटी मोटरें तो छोटी मशीन ही चला पाती हैं। महत्वपूर्ण शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक कार्य करने के लिए अधिक उच्चस्तरीय ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। यह खाने पीने या आग तापने जैसे प्रयत्नों से नहीं वरन् वहां से प्राप्त करनी होती है वहां चेतना और पदार्थ दोनों को प्रभावित करने वाला क्षमता का उद्गम है। कहना न होगा कि यह आधार ‘प्राण’ ही है।

6-प्राण वह तत्व है जो अन्तरिक्ष में जीवन और पदार्थ दोनों की संयुक्त शक्ति के रूप में प्रवाहित रहता है। शुद्ध चेतना ब्रह्म है। प्रशुद्ध प्रकृति ऊर्जा है दोनों ही अपने मूल रूप में अपूर्ण हैं। प्राणि जगत की उत्पत्ति इन दोनों धाराओं के मिलने पर ही सम्भव होती है। इसीलिए जीवधारियों को प्राणी कहते हैं। विज्ञान के बढ़ते हुए चरण परमाणु, परमाणु से तरंग -तरंग से ऊर्जा-ऊर्जा से क्वान्टा तक जा पहुंचना है।

7-घर्षण के महत्व को हमें और भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। क्रिया सामान्य है, पर उसकी प्रतिक्रिया से ऊर्जा की उत्पत्ति असामान्य है। चलती रेल के पहियों की चिकनाई समाप्त हो जाती है। अथवा अन्य किसी कारण उनमें घिसाव पड़ने लगता है, तो उतने भर से उत्पन्न होने वाली गर्मी पहिये के धुरे तक को गला देती है और और दुर्घटना की स्थिति बन जाती है।

8-आकाश में कभी-कभी प्रचण्ड रेखा बनाते हुए -‘तारे टूटते’ देखते हैं। यह तारे नहीं उल्का पिण्ड होते हैं अन्तरिक्ष में छितराये हुए धातु पाषाण जैसे छोटे-छोटे टुकड़े कभी-कभी पृथ्वी के वायु मण्डल में घुस पड़ते हैं और हवा से टकराने पर जल कर खाक हो जाते हैं। इसी जलने का तेज प्रकाश देखकर ‘तारा टूटने’ का अनुमान लगाया जाता है। यह मात्र घर्षण किया का चमत्कार है।रति क्रिया में चुम्बकीय अवयवों का घर्षण विशिष्ट स्तर की ऊर्जा उत्पन्न करता है। उसी की अनुभूति सरस सम्वेदना के रूप में होती है और उसी से उत्तेजित होकर शुक्राणु डिम्बाणु संयोग के लिए दौड़ पड़ते हैं। यह घर्षण ही प्राणियों की उत्पत्ति का कारण बनता है।

9-दही मथने में रई को रस्सी के दो छोर पकड़कर उलटा सीधा घुमाया जाता है। रई घूमती है। ऊर्जा उत्पन्न होती है और उसकी उत्तेजना से दही में घुला हुआ, घी उभर कर बाहर आ जाता है। दांये बांये नासिका स्वरों के चलने वाले विशेष प्रकार मेरुदण्ड के इड़ा पिंगली विद्युत प्रवाही को उत्तेजित करते हैं और उनकी सक्रियता दही मथने जैसी हलचल उत्पन्न करती है। फलतः ओजस् तत्व उभर कर ऊपर आता है। इसको विधिवत् उत्पन्न और धारण किया जा सके तो साधक को मनस्वी, तेजस्वी और ओजस्वी बनने का अवसर मिलता है।

10-प्राणवान का अर्थ जीवित ही नहीं साहसी भी होता है। इस उपलब्धि को अन्य सांसारिक सम्पदाओं की तुलना में कम नहीं अधिक ही माना जा सकता है।इस उपलब्धि के सहारे प्रखरता की अनेक चिनगारियां फूटती हैं। साहस, स्फूर्ति, पराक्रम, निष्ठा आदि अनेकों आन्तरिक विशेषताओं के रूप में इनका प्रभाव उत्पन्न होता है। उनसे लाभान्वित होने पर व्यक्तित्व में अनेकों विभूतियां उभरती दिखाई देती हैं।

प्राणायामों के भेद;-

02 FACTS;-

1-प्राणायामों के अनेकों भेद हैं। शीतली, शीतकारी, भ्रामरी, उज्जाई, लोम-विलोम, सूर्य वेधक, प्राणाकर्षक तथा नाड़ी-शोधन आदि अनेकों प्राणायाम की विधियां भारतीय आध्यात्म ग्रन्थों में भरी पड़ी हैं।परन्तु सर्व सुलभ और सर्वथा हानि-रहित प्राणाकर्षण प्राणायाम की विधि है; जिन्हें बालक वृद्ध स्त्री व पुरुष कोई भी कर लें, यहां दी जा रही है ...

2-प्राणायाम के चार भाग हैं;-

2-(1) पूरक;-

सांस को खींचकर भीतर धारण करने को पूरक कहते हैं। यह क्रिया तेजी या झटके के साथ नहीं की जानी चाहिये। धीरे-धीरे फेफड़ों में जितनी सांस भर सकें, इस क्रिया को पूरक कहते हैं।

2-(2) अन्तर कुम्भक;-

अन्तर कुम्भक वायु को भीतर रोके रहने को कहते हैं। जब तक सरलता पूर्वक रोके रख सकें उतनी ही देर अन्तर कुम्भक करते हैं जबर्दस्ती प्राण-वायु को नहीं रोकना चाहिये। धीरे-धीरे समय बढ़ाने का अभ्यास किया जा सकता है।

2-(3) रेचक ;-

वायु को बाहर निकालने को रेचक कहते हैं। पूरक के समान ही यह क्रिया भी धीरे-धीरे करनी चाहिये। सांस एकदम या झटके के साथ छोड़ना ठीक नहीं होता।

2-(4) बाह्य कुम्भक;-

बाहर सांस रोक कर बाह्य कुम्भक करते हैं अर्थात् कुछ देर बिना सांस के रहते हैं। पूरक और रेचक का समय, बाह्य-कुम्भक और अन्तर कुम्भक का समय समान होना चाहिये।

अभ्यास;-

03 FACTS;-

1-अभ्यास करने के पूर्व किसी स्वच्छ पवित्र व शान्त स्थान पर आसन, तख्त या कम्बल आदि पर पूर्वाभिमुख बैठें। स्थान जितना ही एकान्त हो उतना ही अच्छा है ताकि बाहरी शोरगुल से अपनी एकाग्रता भंग न हो। पालथी मारकर सरल पद्मासन पर बैठिये।

2-दांये हाथ के अंगूठे से नासिका के दांये छिद्र को बन्द कर बांये से पूरक कीजिये। फिर मध्यमा तथा अनामिका उंगलियों से बांये छिद्र को भी बन्द कर अन्तर कुम्भक पूरा कीजिये। अब दांये छिद्र से अंगूठे को हटाकर रेचक कीजिये, फिर दूसरी बार जैसी क्रिया की थी दोनों नासिका छिद्र बन्द करके बाह्य-कुम्भक कीजिये। यह आपका एक प्राणायाम हुआ आरम्भ में पांच प्राणायाम करें, धीरे-धीरे आधा घण्टा तक समय बढ़ा सकते हैं।

3-आगे चलकर प्राणायाम से प्राण पर नियन्त्रण प्राप्त करते हैं और शरीरस्थ प्राणों

को जागृत करते हैं। इनका स्वास्थ्य पर विलक्षण प्रभाव पड़ता है जिसे एक प्रकार से चमत्कार ही माना जा सकता है।

NOTE;-

हठयोग में ऐसे प्राणायाम बहुत प्रचलित हैं और आये दिन इस तरह के चमत्कार देखे जाते हैं।किन्तु उस तरह के प्राणायाम जितने शक्ति संवर्धन होते हैं उतने ही भूल हो जाने पर अनिष्ट कारक भी हो सकते हैं। परमाणु शक्ति का दुरुपयोग स्वतः के लिए उतना ही घातक होता है जितना शत्रु के लिए। भारतीय योग तत्व वेत्ताओं ने कुछ ऐसे प्राणायाम खोजे है जो कोई भी, किसी भी शारीरिक मानसिक स्थिति का व्यक्ति कभी भी कर सकता है। इस तरह के तीन प्राणायाम यहां दिए जा रहे हैं प्रति वर्ष एक प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिये। समय मिले तो यह अधिक अभ्यास बढ़ाकर 6-6 माह में भी सम्पन्न किये जा सकते हैं चौथे वर्ष तीनों प्राणायामों का सम्मिलित अभ्यास करना चाहिये। तीनों का सम्मिश्रित स्वरूप पांच मिनट -कुल मिलाकर पन्द्रह मिनट करना होगा।

1-प्रथम वर्ष का प्राणाकर्षण प्राणायाम; -

05 FACTS;-

(1) ‘‘प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख पालथी मारकर बैठिए। दोनों हाथ घुटनों पर रखिए। मेरुदण्ड सीधा रखिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। ध्यान कीजिए कि अखिल आकाश में तेज और शक्ति से ओत-प्रोत प्राणतत्व व्याप्त हो रहा है। गरम भाप के, सूर्य के प्रकाश में चमकते हुए जैसी बादलों शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है और उस प्राण उफान के बीच हम निश्चिन्त, शान्त-चित्त एवं प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए हैं।’’

(2) ‘‘नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे-धीरे सांस खींचना आरम्भ कीजिए और भावना कीजिए कि प्राणतत्व के उफनते हुए बादलों को हम अपनी सांस द्वारा भीतर खींच रहे हैं। जिस प्रकार पक्षी अपने घोंसले में, सांप अपने बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार वह अपने चारों और बिखरा हुआ प्राण-प्रवाह हमारी नासिका द्वारा सांस के साथ शरीर के भीतर प्रवेश करता है और मस्तिष्क, छाती, हृदय, पेट, आंतों से लेकर समस्त अंगों में प्रवेश कर जाता है।’’

(3) जब सांस पूरी खिंच जाय तो उसे भीतर रोकिये और भावना कीजिए कि—‘‘जो प्राणतत्व खींचा गया है, उसे हमारे भीतरी अंग-प्रत्यंग सोख रहे हैं। जिस प्रकार मिट्टी पर पानी डाला जाय तो वह उसे सोख जाती है, उसी प्रकार अपने अंग सूखी मिट्टी के समान हैं और जलरूपी इस खींचे हुए, प्राण को सोख कर अपने अन्दर सदा के लिए धारण कर रहे हैं। साथ ही प्राणतत्व में सम्मिश्रित चैतन्य, तेज, बल, उत्साह, साहस, धैर्य, पराक्रम सरीखे अनेक तत्व हमारे अंग-प्रत्यंग में स्थिर हो रहे हैं।’’

(4) ‘‘जितनी देर सांस आसानी से रोकी जा सके उतनी देर रोकने के बाद धीरे-धीरे सांस बाहर निकालिए साथ ही भावना कीजिए कि प्राणवायु का सारतत्व हमारे अंग-प्रत्यंगों के द्वारा खींच लिए जाने के बाद अब वैसा ही निकम्मा वायु बाहर निकाला जा रहा है जैसा कि मक्खन निकाल लेने के बाद निस्सार दूर हटा दिया जाता है। शरीर और मन में जो विकार थे वे सब इस निकलती हुई सांस के साथ घुल गये हैं और काले धुंए के समान अनेक दूषणों को लेकर वह बाहर निकल रहे हैं।’’

(5) ‘‘पूरी सांस बाहर निकल जाने के बाद कुछ देर बाहर सांस रोकिए अर्थात् बिना सांस के रहिए और भावना कीजिए कि अन्दर के जो दोष बाहर निकाले गये थे उनको वापिस न लौटने देने की दृष्टि से दरवाजा बन्द कर दिया गया है और वे बहिष्कृत होकर हमसे बहुत दूर उड़े जा रहे हैं।’’

NOTE;-

इस प्रकार पांच अंगों में विभाजित इस प्राणाकर्षण प्राणायाम को नित्य ही जप से पूर्व करना चाहिए। आरम्भ 5 प्राणायाम से किया जाय। अर्थात् उपरोक्त क्रिया पांच बार दुहराई जाय। इसके बाद हर महीने एक प्राणायाम बढ़ाया जा सकता है। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे बढ़ाते हुए एक वर्ष में आधा घण्टा तक पहुंचा देनी चाहिए।

2 -द्वितीय वर्ष में लोम-विलोम सूर्य वेधन प्राणायाम;-

11 FACTS;-

द्वितीय वर्ष में लोम-विलोम सूर्य भेदन प्राणायाम की अभ्यास पद्धति निम्न प्रकार है—

(1) किसी शान्त एकान्त स्थान में प्रातः काल स्थिर चित्त होकर बैठिए। पूर्व की ओर मुख, पालथी मारकर सरल पद्मासन से बैठना, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र अधखुले, घुटनों पर दोनों हाथ। यह प्राण मुद्रा कहलाती है, इसी पर बैठना चाहिए।

(2) बांए हाथ को मोड़कर तिरछा कीजिए। उसकी हथेली पर दाहिने हाथ की कोहनी रखिए। दाहिना हाथ ऊपर उठाइए। अंगूठा दाहिने नथुने पर और मध्यमा तथा अनामिका उंगलियां बाएं नथुने पर रखिए।

(3) बाएं नासिका के छिद्र को मध्यमा (बीच की) और अनामिका (तीसरे नम्बर की) उंगली से बन्द कर लीजिए। सांस फेफड़े तक ही सीमित न रहे, उसे नाभि तक ले जाना चाहिए और धीरे-धीरे इतनी वायु पेट में ले जानी चाहिए, जिससे वह पूरी तरह फूल जाय।

(4) ध्यान कीजिए कि सूर्य की किरणों जैसा प्रकाश वायु में सम्मिश्रित होकर दाहिने नासिका छिद्र में अवस्थित पिंगला नाड़ी द्वारा अपने शरीर में प्रवेश कर रहा है और उसकी ऊष्मा अपने भीतरी अंग-प्रत्यंगों को तेजस्वी बना रही है।

(5) सांस को कुछ देर भीतर रोकिये। दोनों नासिका छिद्र बन्द कर लीजिए और ध्यान कीजिए कि नाभि चक्र के प्राण वायु द्वारा एकत्रित हुआ तेज नाभि चक्र में एकत्रित हो रहा है। नाभि स्थान में चिरकाल से प्रसुप्त पड़ा हुआ सूर्य चक्र इस आगत प्रकाशवान प्राण वायु से प्रभावित होकर चमकीला हो रहा है और उसकी दमक बढ़ती जा रही है।

(6) दाहिने नासिका छिद्र को अंगूठे से बन्द कर लीजिए। बांया खोल दीजिए। सांस को धीरे-धीरे बांए नथुने से बाहर निकालिए और ध्यान कीजिए कि चक्र को सुषुप्त और धुंधला बनायें रहने वाले कल्मष इस छोड़ी हुई सांस के साथ बाहर निकल रहे हैं। इन कल्मषों के मिल जाने के कारण सांस खींचते समय जो शुभ्र वर्ण तेजस्वी प्रकाश भीतर गया था वह अब मलीन हो गया और पीत वर्ण होकर सांस के साथ बांए, नथुने की इड़ा नाड़ी द्वारा बाहर निकल रहा है।

(7) दोनों नथुने फिर बन्द कर लीजिए। फेफड़ों को बिना सांस के खाली रखिए। ध्यान कीजिए कि बाहरी प्राण बाहर रोक दिया गया है। उसका दबाव भीतरी प्राण पर बिलकुल भी न रहने से वह हल्का हो गया है। नाभि चक्र में जितना प्राण सूर्य पिण्ड की तरह एकत्रित था वह तेज-पुंज की तरह ऊपर की ओर अग्नि शिखाओं की तरह ऊपर उठ रहा है। उसकी लपटें पेट के ऊर्ध्व भाग, फुफ्फुस को बेधती हुई कण्ठ तक पहुंच रही है। भीतरी अवयवों में सुषुम्ना नाड़ी में से प्रस्फुटित हुआ यह प्राण-तेज अन्तःप्रदेश को प्रकाशमान बना रहा है।

(8) अंगूठे से दाहिना छिद्र कीजिए और बांए नथुने से सांस खींचते हुए ध्यान कीजिए कि इड़ा नाड़ी द्वारा सूर्य प्रकाश जैसा प्राणतत्व सांस से मिलकर शरीर में भीतर प्रवेश कर रहा है और वह तेज सुषुम्ना विनिर्मित नाभिस्थल के सूर्य चक्र में प्रवेश करके वहां अपना भण्डार जमा कर रहा है। तेज संचय से सूर्यचक्र क्रमशः अधिक तेजस्वी बनता चला जा रहा है।

(9) दोनों नासिका छिद्रों को बन्द कर लीजिए। सांस को भीतर रोकिए। ध्यान कीजिए कि सांस के साथ एकत्रित किया हुआ तेजस्वी प्राण नाभि स्थित सूर्यचक्र में अपनी तेजस्विता को चिर-स्थायी बना रहा है। तेजस्विता निरन्तर बढ़ रही है और वह अपनी लपटें पुनः ऊपर की ओर अग्नि शिखा की तरह ऊर्ध्वगामी बना रही है। इस तेज से सुषुम्ना नाड़ी निरन्तर परिपुष्ट हो रही है।

(10) बांया नथुना बन्द कीजिए और दाहिने से सांस धीरे-धीरे बाहर निकालिये। ध्यान कीजिए कि सूर्य चक्र का कल्मष धुंए की तरह तेजस्वी सांस में मिलकर उसे धुंधला पीला बना रहा है और पीली प्राण-वायु पिंगला नाड़ी द्वारा बाहर निकल रही है। भीतरी कषाय कल्मष बाहर निकालने से अन्तःकरण बहुत हल्का हो रहा है।

(11) दोनों नासिका छिद्रों को पुनः बन्द कीजिए और उपरोक्त नं. 6 की तरह फेफड़ों को सांस से बिल्कुल खाली रखिए। नाभि चक्र से कण्ठ तक सुषुम्ना का प्रकाश पुंज ऊपर उठता देखिए। भीतरी अवयवों में दिव्य ज्योति जगमगाती अनुभव कीजिए।

NOTE;-

-यह एक लोम-विलोम सूर्य बेधन प्राणायाम हुआ। सांस के साथ खींचा हुआ प्राण नाभि में स्थित सूर्य चक्र को जागृत करता है। उसके आलस्य और अन्धकार को बेधता है और वह सूर्यचक्र अपनी परिधि को बेधन करता हुआ सुषुम्ना मार्ग से उदर, छाती और कण्ठ तक अपना तेज फेंकता है। इन कारणों से इसे सूर्य बेधन कहते हैं। लोम कहते हैं सीधे को, विलोम कहते हैं उल्टे को। एक बार सीधा, एक बार उल्टा। फिर उल्टा, फिर सीधा। फिर उल्टा, बांए से खींचना, दांये से निकालना। दाहिने से खींचना बांये से निकालना। यह उल्टा सीधा चक्र रहने से इसे लोम विलोम कहते हैं। प्राणायाम की प्रकृति के अनुसार इसे लोम-विलोम सूर्य-बेधन प्राणायाम कहा जाता है।

3-तीसरे वर्ष के लिए ‘नाड़ी शोधन प्राणायाम’;-

09 FACTS;-

(1) प्रातःकाल पूर्व को मुख करके कमर सीधी रखकर सुखासन से ..पालथी मारकर बैठिये। नेत्रों को अधखुले रखिए।

(2) दाहिना नासिका छिद्र बन्द कीजिए। बांए छिद्र से सांस खींचिए और उसे नाभि चक्र तक खींचते जाइए।

(3) ध्यान कीजिए कि नाभि स्थान में पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा के समान पीतवर्ण शीतल प्रकाश विद्यमान है। खींचा हुआ सांस उसे स्पर्श कर रहा है।

(4) जितने समय में सांस खींचा गया था, उतने ही समय भीतर रोकिये और ध्यान करते रहिए कि नाभिचक्र में स्थित पूर्ण चन्द्र के प्रकाश को खींचा हुआ श्वास स्पर्श करके स्वयं शीतल और प्रकाशवान् बन रहा है।

(5) जिस नथुने से सांस खींचा था, उसी बांये छिद्र से ही सांस बाहर निकालिये और ध्यान कीजिए कि नाभिचक्र के चन्द्रमा को छूकर वापिस लौटने वाली प्रकाशवान् एवं शीतल वायु इडा नाड़ी की छिद्र नलिका को शीतल एवं प्रकाशवान् बनाती हुई वापिस लौट रही है।

(6) कुछ देर सांस बाहर रोकिए और फिर उपरोक्त क्रिया आरम्भ कीजिए। बांये नथुने से ही सांस खींचिए और उसी से निकालिए। दाहिने छिद्र को अंगूठे से बन्द देखिए। इसी को तीन बार कीजिए।

(7) जिस प्रकार बांये नथुने से पूरक, कुम्भक, रेचक बाह्य कुम्भक किया था, उसी प्रकार दाहिने नथुने से भी कीजिए। नाभिचक्र में चन्द्रमा के स्थान पर सूर्य का ध्यान कीजिए और सांस छोड़ते समय भावना कीजिए कि नाभि स्थित सूर्य को छूकर वापिस लौटने वाली वायु श्वास नली के भीतर उष्णता और प्रकाश उत्पन्न करती हुई लौट रही है।

(8) बांये नासिका स्वर को बन्द रखकर दाहिने छिद्र से भी इस क्रिया को तीन बार कीजिए।

(9) अब नासिका के दोनों छिद्र खोल दीजिए। दोनों से सांस खींचिए और भीतर रोकिए और मुंह खोल कर सांस बाहर निकाल दीजिए। यह विधि एक बार ही करनी चाहिए।

तीन बार बांये नासिका छिद्र से सांस खींचते और छोड़ते हुये नाभि चक्र में चन्द्रमा का शीतल ध्यान तीन बार दाहिने नासिका छिद्र से सांस खींचते छोड़ते हुए सूर्य का उष्ण प्रकाश वाला ध्यान, एक बार दोनों छिद्रों से सांस खींचते हुए मुख से सांस निकालने की किया यह सात विधान मिलकर एक नाड़ी-शोधन प्राणायाम बनता है।

चतुर्थ वर्ष का सम्मिलित अभ्यास; -

02 FACTS;-

1-तीनों प्राणायाम सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लेने के बाद चौथे वर्ष तीनों प्राणायामों का सम्मिलित अभ्यास किया जाता है। प्रारम्भ में तीन प्राणाकर्षण, दो लोम विलोम सूर्य वेधन और एक नाड़ी शोधन किया जाये। पीछे इनकी संख्या इसी अनुपात से बढ़ाई जा सकती है।

2-इनका अभ्यास कर लेने तक साधक को विलक्षण अनुभूतियां अवश्य होंगी। वह किसी विश्वासपात्र को बताई भी जा सकती हैं मार्गदर्शन भी लिया जा सकता है पर इन बातों को नितान्त सामान्य चर्चा का विषय नहीं बनाना चाहिये।

प्राणायाम-साधना के कुछ आवश्यक नियम;-

06 FACTS;-

(1) प्राणायाम खाली पेट में करना चाहिये।

(2) स्थान ऐसा हो जहां शुद्ध व ताजी वायु मिल सके। दुर्गन्धित स्थानों में प्राणायाम नहीं करना चाहिये।

(3) प्रारम्भ एक दो प्राणायाम से करें पीछे समय और संख्या क्रमशः बढ़ायें।

(4) प्राणायाम कर लेने के बाद 1 घंटे तक भारी वजन की वस्तुयें न उठायें।

(5) प्राण शक्ति विशुद्ध रूप से विद्युत क्षमता सम्पन्न होती है अतएव विद्युत नियमों के समान ही जब तक नव-उपार्जित प्राण पूरी तरह पच न जाये तब तक कुचालक धातुओं को स्पर्श न करे। स्वर्ण, रजत आभूषण तथा इसी श्रेणी के उच्च आभूषण स्पर्श में कोई दोष नहीं है।

(6)-प्राणायाम एक प्रत्यक्ष विज्ञान है जिसका लाभ कोई भी व्यक्ति चाहे वह श्रद्धालु हो या अश्रद्धालु सहर्ष ले सकता है, चमत्कारिक लाभ मिलें या न मिलें, दीर्घजीवन, आरोग्य निरालस्य, स्फूर्ति, साहस, नेत्रों में चमक, गहरी नींद शरीर में हलकेपन जैसे अनेक भौतिक लाभ तो उससे सुनिश्चित ही हैं।

....SHIVOHAM...


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