प्राण विद्या का क्या महत्व है?क्या है जैव/ प्राण विद्युत ?क्या प्राण विद्युत ही ''औरा'&#
प्राण विद्या का क्या महत्व है?
20 FACTS;-
1-भारतीय दर्शन में प्राण विद्या का विशेष महत्व है इस विद्या का जितना चिंतन तथा अध्ययन हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों ने किया था उतना शायद ही किसी अन्य देश के विद्वानों ने किया होगा । प्राण के वास्तविक महत्व को समझना, इस शरीर तथा बाहरी जगत में उसके सच्चे कार्य तथा व्यापक प्रभाव को परखना, तथा किसी देवता का जप कर उस की उपासना करना । यह सब सिद्धांत इस भारत भूमि पर ही हमारे पूर्वजों की सात्विक बुद्धि तथा उर्वर मस्तिष्क के कारण ही प्राचीन काल में उत्पन्न हुए तथा अब भी हमें किसी न किसी रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। 2-हमारी वैदिक संहिताओं में ऋग्वेद व अथर्ववेद की संहिता में सबसे पहले वर्णन किया गया मिलता है ।विद्वानों से यह अपरिचित नहीं कि उपनिषद में प्राण विद्या भरी पड़ी है। परंतु उपनिषदों में नहीं आरण्यक तथा संहिता में इस विद्या का यथेष्ट वर्णन उपलब्ध होता है। इस महत्वपूर्ण प्राण विद्या के प्रथम निर्देश तथा संकेत उपनिषदों से पूर्व वैदिक संहिताओं तथा आरण्यकों में भी मिलते हैं ।राजा दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन को एक बार स्वर्ग देखने की इच्छा हुई। पिता की आज्ञा लेकर वे स्वर्ग गये।
3-प्रतर्दन के पुरुषार्थ और रण-चातुर्य से- इन्द्र अत्यन्त प्रभावित थे। उन्होंने प्रतर्दन का आदर-सत्कार किया और कहा- ‘‘मैं आपको क्या वर दूँ?” प्रतर्दन ने कहा- ‘‘भगवन्! मैं धन-धान्य, प्रजा-पुत्र, यश-वैभव-सब प्रकार से परिपूर्ण हूँ। आपसे क्या माँगू मुझे कुछ नहीं
चाहिये।”इन्द्र विहँस कर बोले- ‘‘वत्स, यह मैं जानता हूँ कि पुरुषार्थी व्यक्ति को संसार में कोई अभाव नहीं रहता। अपने सुख-समृद्धि के साधन वह आप जुटा लेता है तो भी उसे विश्व-हित की कामना करनी चाहिये। लोक-सेवा के पुण्य से बढ़कर पृथ्वी में और कोई सुयश नहीं तुम उससे ब्रह्म को प्राप्त होंगे। इसलिये मैं तुम्हें लोक का कल्याण करने वाली प्राण विद्या सिखाता हूँ।”
4-इसके बाद इन्द्र ने प्रतर्दन को प्राण तत्व का उपदेश दिया। उन्होंने कहा- ‘‘प्राण की ब्रह्म है। साधनाओं द्वारा योगी, ऋषि-मुनि अपनी आत्मा में प्राण धारण करते और उससे विश्व का
कल्याण करते हैं।”‘कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद्’ के दूसरे अध्याय में भगवान् इन्द्र ने प्रतर्दन को यह प्राण विद्या सिखाई है, उसका बड़ा ही मार्मिक एवं महत्त्वपूर्ण उल्लेख है।
5-इसी संदर्भ में इन्द्र ने, एक व्यक्ति अपनी असीम प्राण-शक्ति को दूसरों तक कैसे पहुँचाता है, प्राण-शक्ति के माध्यम से दूसरों तक अंतःप्रेरणायें और विचार किस तरह पहुँचाता है, इस रहस्य का उद्घाटन करते हुए बताया है-
''जब मन विचार करता है, तब अन्य सभी प्राण उसके सहयोगी होकर विचारवान् हो जाते हैं, नेत्र किसी वस्तु को देखने लगते हैं तो अन्य प्राण उनका अनुसरण करते हैं। वाणी जब कुछ कहती है, तब अन्य प्राण उसके सहायक होते हैं। मुख्य प्राण के कार्य में अन्य प्राणों का पूर्ण सहयोग होता है।''
6-अन्यत्र श्लोक में बताया है कि मन सहित सभी इन्द्रियों को निष्क्रिय करके आत्म-शक्ति (संकल्प-शक्ति) को प्राणों में मिला देते हैं। ऐसा पुरुष ‘दैवी परिमर’ का ज्ञाता होता है। वह अपनी प्राण-शक्ति से किसी को भी प्रभावित और प्रेरित कर सकता है। उसके संदेश को कहीं भी सुना और हृदयंगम किया जा सकता है। उसके प्राणों में अपने प्राण जागृत कर सकते हैं। जिस पुरुष को दैवी परिमर का ज्ञान होता है। उसकी आज्ञा को पर्वत भी अमान्य नहीं कर सकते। उससे द्वेष रखने वाले सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।
7-इसी उपनिषद् में यह भी निर्देश है कि जब पिता को अपने अन्तकाल का निश्चय हो जाय तो पुत्र (अथवा गुरु, शिष्य या शिष्यों) में अपनी प्राण-शक्ति को प्रतिष्ठित कर दे। वह वाक् प्राण, धारण, चक्षु, क्षोभ, गतिशक्ति, बुद्धि आदि प्रदान करें और पुत्र उसे ग्रहण करे। इसके बाद पिता या गुरु संन्यासी होकर चला जाये और पुत्र या शिष्य उसका उत्तराधिकारी हो जाये।
8-प्राचीनकाल में यह परम्परा आधुनिक सशक्त यन्त्रों की बेतार-के-तार की भाँति प्रचलित थी। प्राण विद्या के ज्ञाता गुरु अपने प्राण देकर शिष्यों के व्यक्तित्व और उनकी क्षमतायें बढ़ाया करते थे। इसी कारण श्रद्धा विनत होकर लोग ऋषि आश्रमों में जाया करते थे। ऋषि अपने प्राण देकर उन्हें तेजस्वी, मेधावान् और पुरुषार्थी बनाया करते थे। महर्षि धौम्य ने आरुणी को, गौतम ने जाबालि को, इन्द्र ने अर्जुन को, यम ने नचिकेता को, शुक्राचार्य ने कच का इसी तरह उच्च स्थिति में पहुँचाया था।
9-योग्य गुरुओं द्वारा यह परम्परायें, अब भी चलती रहती हैं। परमहंस स्वामी रामकृष्ण ने विवेकानन्द को शक्तिपात किया था। स्वामी विवेकानन्द ने सिस्टर निवेदित में प्राण प्रत्यार्पित किये थे। महर्षि अरविन्द ने प्राण शक्ति द्वारा ही सन्देश भेजकर पाँडिचेरी आश्रम की संचालिका मदिति-सह भारत-माता की सम्पादिका ‘श्री यज्ञ शिखा पां’ को पेरिस से बुलाया था और उन्हें योग विद्या देकर भारतीय दर्शन का निष्णात बनाया था।
10-कहते हैं जब राम वनवास में थे, तब लक्ष्मण अपने तेजस्वी प्राणों का संचालन करके प्रत्येक दिन की स्थिति के समाचार अपना धर्मपत्नी उर्मिला तक पहुँचा देते थे। उर्मिला उन सन्देशों को चित्रबद्ध करके रघुवंश परिवार में प्रसारित कर दिया करती थी और बेतार-के-तार की तरह के सन्देश सबको मिल जाया करते थे।
11-अनुसुइया आश्रम में अकेली थीं। भगवान् ब्रह्मा, विष्णु और महेश वेष बदलकर परीक्षार्थ आश्रम में पहुँचे। अत्रि मुनि बाहर थे। उन्होंने ही भगवान् के त्रिकाल रूप को पहचाना था और वह गुप्त सन्देश अनुसुइया को प्राण-शक्ति द्वारा ही प्रेषित किया था। ऐसी कथा-गाथाओं से सारा हिन्दू-शास्त्र भरा पड़ा है।आज का विज्ञान सुखी समाज इन उपाख्यानों की तर्क की
दृष्टि से देखता है। लोग शक और सन्देह करते हैं, कहते हैं, ऐसा भी कहीं सम्भव है कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को बिना किसी उपकरण या माध्यम के सन्देश पहुँचा सके।
12-यदि विचारपूर्वक देखें तो विज्ञान भी इसकी पुष्टि ही करेगा। बेतार-के-तार के सिद्धान्त को कौन नहीं जानता? शब्द को विद्युत तरंगों में बदल देते हैं। यह विद्युत तरंगें ईथर तत्त्व में धारायें बनकर प्रवाहित होती हैं। ट्रान्समीटर जितना शक्तिशाली होता है, विद्युत तरंगें उतनी ही दूर तक दरदराती चली जाती हैं। उसी फ्रीक्वेंसी में लगे हुये दूसरे वायरलेस या रेडियो उन ध्वनि तरंगों को पकड़ते हैं और पुनः शब्दों में बदल देते हैं, जिससे वे पास बैठे हुए लोगों को सुनाई देने लगती हैं।अब इस बात में तो कोई अविश्वास कर ही नहीं सकता।
13-जो बात बोली जाती है, वह पहले विचार रूप में आती है, अर्थात् विचारों का अस्तित्व संसार में विद्यमान है। ऊपर बताया गया है कि मन या विचार शक्ति प्राण में मिल जाती है तो सभी प्राण उसके सहायक हो जाते हैं, अर्थात् प्राणों के माध्यम से अपने शरीर की संपूर्ण चेतना को जिसमें हाव-भाव, क्रिया-कलाप, विचार भावनायें सम्मिलित होती हैं, किसी भी दूरस्थ व्यक्ति तक पहुँचाया जा सकता है।
14-19 जुलाई 1964 धर्मयुग के पेज 20 में श्री अजीतकृष्ण वसु ने अपने जीवन की एक घटना का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं- ‘‘हमारे एक मित्र के घर पार्टी थी। उसमें हमारे अनेक मित्र सम्मिलित थे। हमारे साथ एक जादूगर भी थे। संयोगवश टेलीपैथी पर बात चल पड़ी। गृहस्वामी ने बताया कि उनका टेलीपैथी में कोई विश्वास नहीं। एक साथी ने कहा कि भाई दूर बैठे व्यक्ति को केवल मानसिक शक्ति द्वारा ही संदेश दिया जा सकता है, उन्होंने ईथर में तरंगों वाली बात भी बताई तो भी कोई उसे मानने को तैयार न हुआ।
15-इसी बीच जादूगर मित्र ने कहा- क्यों न प्रत्यक्ष देख लिया जाये कि विचार संचालन और प्रेषण संभव है क्या? उसके लिये सब लोग तैयार हो गये।पहला प्रयोग गृहस्वामी
और उक्त मित्र ने किया जो काफी दिनों से विचार प्रेषण का अभ्यास कर रहे थे। उन्होंने अपने प्रयोग के लिये अपना एक साथी भी चुना था पर वे उस समय उपस्थित न थे। जादूगर ने कहा- ‘‘मैं अपने मन में एक रंग निश्चित करूंगा, फिर संकल्प द्वारा उसे मन-ही-मन में तुम्हें बताऊँगा। मेरा प्रसारण इतना तीव्र होगा कि तुम्हारे मन में भी उसी रंग का नाम और छाया-चित्र आयेगा।”
16-इसके बाद उन्होंने एक चिट में कुछ लिखा और उसे एक मित्र की जेब में डाल दिया। दोनों व्यक्ति 50 गज के फासले पर बैठे। जादूगर ने ध्यान-मग्न होकर सन्देश भेजा। इसके बाद गृहस्वामी से पूछा गया तुम्हारे मन में कौन-सा रंग आया तो उन्होंने कहा- ‘‘हरा” इसके बाद वह चिट निकालकर देखी गई तो लोग आश्चर्य चकित रह गये कि उसमें भी ‘हरा’ ही लिखा है।
17-इतने पर भी गृहस्वामी सन्तुष्ट न हुये उन्होंने कहा- ‘‘संयोग से ही ऐसा हुआ।” इस पर जादूगर ने कहा- ‘‘अब आप लोग मुझे कोई भी गिनती दीजिये। मैं उसे अपने ‘प्रयोग वाले मित्र’ को प्रेषित करूंगा, आप फोन पर पता लगाइये, वह घर हैं या नहीं।” संयोग से वह घर पर ही थे। 9 की संख्या दी गई। इधर जादूगर ने ध्यान मग्न होकर अपने मित्र को वह संख्या विचार संचालन द्वारा मन-ही-मन सुनाई। जब वे उठ बैठे तो फोन से पूछा गया, आपने कौन-सी संख्या सुनी तो उधर से उत्तर आया- ऐसा लगता है 9 की संख्या भेजी गई है। इस पर सभी लोग दंग रह गये और उपस्थित सभी व्यक्तियों ने यह मान लिया कि विचार संचालन विद्या गलत नहीं है।
18-एक ही समय में परस्पर उन्मुख या याद करते हुए व्यक्ति को चलते-फिरते कितनी ही दूरी पर प्राण प्रेषित करने का एक उदाहरण मालवीय जी के परिवार में घटित हुआ। “एक दिन स्वर्गीय मदनमोहन मालवीय जी के पुत्र श्री गोविन्द मालवीय एकाएक बेचैन हो उठे। सर्दी के दिन थे पर उनका शरीर एकाएक आग की तरह गर्म हो उठा। बहुत जाँच की गई पर पता न चला ऐसा क्यों हो रहा है? रात के नौ बजे तक उनकी बेचैनी बढ़ती ही गई।”
19-मालवीय जी की धर्मपत्नी इलाहाबाद में थीं। रात नौ बजे यहाँ से टेलीफोन गया और तब पता चला कि वे (श्री गोविंद मालवीय की माताजी) आग सेंकते हुये बुरी तरह जल गई हैं। दादी जी उन्हें बहुत प्यार करती थीं। इसलिये जलने के बाद से ही वे बराबर इन्हीं का ध्यान करती रहीं। उनकी मृत्यु भी तभी हुई जब श्री गोविन्द मालवीय प्रयाग आ गये। जैसे ही उनकी मृत्यु हुई उनकी जलन और बुखार एकदम समाप्त हो गया। इस घटना से यह पुष्टि होती है कि तीव्र स्मृति और ध्यान के माध्यम से अपने समीपवर्ती वातावरण तक चित्रण किया जा सकता है।
20- जो ऐसी विद्यायें जानते हैं, वह दूर के सन्देश प्राप्त भी कर सकते हैं और लोगों को दे
भी सकते हैं।यह तब ध्यान और प्राण विद्या के छोटे-छोटे चमत्कार हैं। उसकी संपूर्ण और अगाध जानकारी तो किन्हीं योग और साधना-निष्ठ व्यक्तियों को होती है। ऐसे महापुरुष का सान्निध्य उनके समीप्य और ध्यान का लाभ लेकर कोई प्राणवान बन सकता है।
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05 FACTS;- 1-प्राणियों में काम करने वाली ऊर्जा को वैज्ञानिकों ने जैव विद्युत नाम दिया है। शरीर संचार की समस्त गतिविधियाँ तथा मस्तिष्कीय हलचलें रक्तमाँस जैसे साधनों से नहीं शरीर में संव्याप्त विद्युत प्रवाह द्वारा परिचालित होती है। यही जीवन−तत्व बनकर रोम−रोम में व्याप्त है। मानवी विद्युत की यह मात्रा जिसमें जितनी अधिक होगी वह उतना ही ओजस्वी, तेजस्वी और मनस्वी होगा। प्रतिभाशाली, प्रगतिशील, शूरवीर, साहसी लोगों में इसी क्षमता की बहुलता होती है। शरीर संस्थान में इसकी न्यूनता होने पर विभिन्न प्रकार के रोग शीघ्र ही आ दबोचते हैं। मनःसंस्थान में इसकी कमी होने से अनेकों प्रकार के मनःरोग परिलक्षित होने लगते हैं।
2-मनुष्य शरीर में बिजली का कितना भण्डार है इसकी नाप-तौल अब होने लगी है। देखा गया है कि उससे 60 वाट का बल्ब तक जल सकता है। समस्त शरीर में संव्याप्त और कार्यरत बिजली का यदि पूरा आँकलन किया जा सके तो प्रतीत होगा कि व्यक्ति चलते-फिरते जनरेटर के रूप में गतिशील रहता है। अभी अमेरिका में ऐसे 20 से अधिक मनुष्य जीवित हैं, जिनका शरीर झटके देता है। वस्तुओं को इधर-उधर उठक-पटक कर देता है।
कई व्यक्ति इस भीतरी विद्युत के उबल पड़ने पर अकारण ही जलकर भस्म हो चुके हैं। इससे हर मनुष्य में बिजली जैव विद्युत की एक अच्छी खासी मात्रा होने की सम्भावना देखी जा रही है और यह सोचा जा रहा है कि उसको बढ़ाने या लाभ उठाने का तरीका क्या हो सकता है?
3-जैव विद्युत भौतिक बिजली से सर्वथा भिन्न है जो विद्युत यन्त्रों को चालित करने के लिए प्रयुक्त होती है। मानवी विद्युत का सामान्य उपयोग शरीर को गतिशील तथा मन, मस्तिष्क को सक्रिय रखने में होता है। असामान्य पक्ष मनोबल, संकल्पबल, आत्मबल के रूप में परिलक्षित होता है, जिसके सहारे असम्भव प्रतीत होने वाले काम भी पूरे होते देखे जाते हैं। “ट्रान्सफार्मेशन ऑफ एनर्जी” सिद्धान्त के अनुसार मानवी विद्युत सूक्ष्मीभूत होकर प्राण ऊर्जा और आत्मिक ऊर्जा के रूप में संग्रहित और परिशोधित परिवर्तित हो सकती है। इस ट्रान्सफार्मेशन के लिए ही प्राणानुसन्धान करना और प्राण साधना का अवलम्बन लेना पड़ता है।
4-शरीर में काम करने वाली जैव विद्युत में कभी−कभी व्यतिरेक होने से गम्भीर संकटों का सामना करना पड़ता है। भौतिक बिजली का जैव विद्युत में परिवर्तन असम्भव है, पर जैव विद्युत के साथ भौतिक बिजली का सम्मिश्रण बन सकता है। कईबार ऐसी विचित्र घटनाएँ देखने में आयी हैं जिनमें मानवी शरीरों को एक जेनरेटर−डायनेमो के रूप में काम करते पाया गया है।
5-आयरलैंड की एक युवती जे. स्मिथ के. शरीर को छूते ही बिजली के नंगे तारों की भाँति तेज झटका लगता था। जब तक वह जिन्दा रही , घर के सदस्यों के लिए एक समस्या बनी हुई थी। डॉ. एफ. क्राफ्ट ने उसके शरीर का परीक्षण किया तथा यह बताया कि उक्त युवती की काया से निरन्तर भौतिक बिजली की भाँति विद्युत प्रवाहित होती रहती है।
शरीर से विद्युत भौतिक बिजली की तरह क्यों प्रवाहित होती है?-
11 FACTS;-
1-शरीर से विद्युत भौतिक बिजली की तरह क्यों प्रवाहित होती है, इस सम्बन्ध में अनेकों स्थानों पर खोजबीन हुई है तथा महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलें हैं। कोलोराडो के डॉ. डब्ल्यू पी. जेन्स और उनके मित्र डॉ. नार्मलोंग ने विस्तृत खोज के बाद बताया कि मनुष्य शरीर की प्रत्येक कोशिका एक छोटी किन्तु सजीव विद्युत घर है। कोशिका के नाभिक में विद्युत की प्रचण्ड मात्रा भरी पड़ी है। किसी अविज्ञात व्यतिरेक के कारण सन्निहित कोशिकाओं की विद्युतधारा फूटकर बाहर निकलने लगती है।
2-‘सोसाइटी ऑफ फिजीकल रिसर्च’ की रिपोर्ट है कि शरीर की कोशाओं के नाभिकों के आवरण ढीले पड़ने के कारण बिजली उसे चीरती हुई बाहर प्रवाहित होने लगती है। शरीर विद्युत पर शोध करने वाले डॉ. ब्राउन का मत है कि मनुष्य शरीर की प्रत्येक कोशिका में विद्युत भण्डार भरा पड़ा है। उनके अनुसार शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियों के संचालन के लिए जितनी बिजली खर्च होती है उससे एक बड़ी कपड़ा मिल चल सकता है। छोटे बच्चे के शरीर में संव्याप्त विद्युत शक्ति से रेल इंजन को चलाना सम्भव है।
3-प्रसिद्ध ‘टाइम्स’ पत्रिका में ओण्टोरियो (कनाडा) की कैरोलिन क्लेयर नामक एक महिला विस्तृत वृत्तान्त छपा था, जिसमें उल्लेख था कि यह महिला डेढ़ वर्ष तक बीमार पड़ी रही, पर जब स्थिति सुधरी तो उसमें एक नया परिवर्तन यह हुआ कि उसके शरीर से विद्युतधारा बहने लगी। यदि वह किसी धातु से बनी वस्तु को छूती, उसी से चिपक जाती। छुड़ाने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता।
4-फ्रांस से प्रकाशित होने वाले ‘मेडिकल टाइम एण्ड गजट’ में एक ऐसे ही लड़के का विवरण छपा था जिसके शरीर से सतत् विद्युत धाराएँ निकलती थीं। लियोन्स नामक व्यक्ति के घर जन्मा शिशु जब सात माह का हुआ तभी से उसको छूने से झटके लगते थे। माँ जब उसे दूध पिलाने के लिए अपनी छाती से चिपकाती तो उसे तेज झटक लगता था। कितनी बार वे बेहोश हो गयीं। बाद में उन्होंने बच्चे को अपना दूध पिलाना ही बन्द कर दिया। उसके लिए बाहरी दूध की व्यवस्था बनानी पड़ी। माँ−बाप के प्यार से वंचित यह दुर्भाग्यशाली लड़का कमरे के एक कोने में पड़ा रहता। भय वश उसे कोई उठाता नहीं था। इस माह तक यह बालक किसी तरह जीवित रहा, पर मरते समय उसके शरीर से नीले वर्ण का प्रकाश निकलते देखा गया जिसका फोटो भी खींचा गया था।
5-कुमारी जेनी मार्गन को चलते−फिरते पावर हाउस के रूप में ख्याति मिली। 13 वर्ष की आयु के बाद उसके शरीर से विद्युत शक्ति प्रचण्ड रूप से उभर कर प्रकट हुई। एक वैज्ञानिक ने प्रयोग करने के लिए जेनी को छुआ तो इतना तीव्र झटका लगा कि वे घण्टों बेहोश रहे। एक लड़के ने प्रेमवश उसका हाथ पकड़ा तो दूर जा गिरा। स्नेहवश जेनी ने एक बिल्ली को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया पर बिल्ली के लिए जेनी का प्रेम अत्यन्त महंगा पड़ा। वह न केवल मूर्च्छित हो गयी बल्कि कुछ ही समय बाद चल बसी। जेनी अपने हाथ के स्पर्श से सौ वाट का बल्ब जला देती थी।
6-आस्ट्रेलिया के एक बाईस वर्षीय युवक को उपचार के लिए न्यूयार्क लाया गया। उसका शरीर विद्युत बैटरी की भाँति काम करता था। छोटे−छोटे बल्ब उसके शरीर से स्पर्श कराके जलाये गये। पर उसके शरीर में विद्युत प्रवाह पूरे दिन एक समान नहीं रहता अपितु सूर्य के ताप की भाँति घटता−बढ़ता रहता था। जब आवेश कम होता तो बेचैनी और थकान महसूस करता। वह प्रायः अधिक फास्फोरस युक्त खाद्य−पदार्थों को खाना पसन्द करता था।
शरीर विद्युत का असन्तुलन कभी−कभी भयंकर विग्रह खड़ा करता देखा गया है तथा जीवन−मरण जैसे संकट प्रस्तुत कर देता है।
7-अमेरिका के सेण्ट पीटर्स (फ्लोरिडा)की रहने वाली महिला श्रीमती मेरीहार्ड रोजर अपने मकान में विचित्र रूप से जली पायी गयीं। दिन के 10 बजे तक दरवाजा न खुलने पर पड़ौसियों ने कमरे का दरवाजा खटखटाना चाहा पर कुन्दा छूते ही एक पड़ौसी छिटककर दूर जा गिरा। उपस्थित लोगों ने समझा सम्भवतः मकान में बिजली का करेंट दौड़ गया हो। मेन स्विच ऑफ किया गया पर विद्युतधारा अभी भी प्रवाहित हो रही थी। बिजली के विशेषज्ञों ने पूरी जाँच−पड़ताल कर ली पर कहीं भी गड़बड़ी नहीं पायी गयी। किसी प्रकार दरवाजा तोड़ा गया। श्रीमती रोजर्स का शरीर राख का ढेर बना फर्श पर पड़ा था। कमरा अभी भी भट्टी जैसा गरम था।
8-पुलिस को सूचना मिली। साथ ही शरीर शास्त्रियों का एक विशेष दल अध्ययन के लिए आया। डॉ. विल्टन क्राग ने लम्बी खोजबीन की। उन्होंने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा कि शरीर को भस्मीभूत करने के लिए तीन हजार फारेनहाइट तापमान चाहिए। यह केस ‘स्पान्टेनियस ह्युमन कम्बशन’ (अपने आप जल उठाना) का है। श्रीमती रोजर्स अपनी ही शरीराग्नि से जलकर मरी हैं न कि भौतिक विद्युत से।
9-फ्लोरिडा की सड़क पर जाते समय एक व्यक्ति के शरीर से अचानक आग की–नीली लपटें निकलने लगीं। उसके साथ चलने वालों में से एक ने बाल्टी भर पानी डाल दिया तो आग कुछ क्षणों के लिए थम गयी पर थोड़े ही देर बाद पुनः भभक उठीं और देखते ही देखते कुछ ही मिनटों में वह व्यक्ति राख की ढेर में परिवर्तित हो गया।
10-एक स्थानीय मेडिकल जनरल में छपी इस घटना पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए फ्लोरिडा के वैज्ञानिकों ने कहा कि–शरीर में नब्बे प्रतिशत जल की मात्रा विद्यमान होते हुए भी अपनी ही शरीराग्नि द्वारा कुछ ही क्षणों में जलकर मरना विज्ञान जगत के लिए एक अनोखी घटना है जो यह बताती है कि शरीर शास्त्रियों को शरीर के विषय में जितना ज्ञान है उसकी तुलना में कई गुना अधिक अभी रहस्यमय है।
11-सेनफ्रांसिस्को में 31 जनवरी 1959 को लैगूना होम नामक स्थान पर जहाँ वृद्धों की देखरेख काम एक सरकारी संस्था करती है, कार्यकर्त्ताओं द्वारा शाम को दूध वितरित किया जा रहा था। अचानक लाइन में दूध के लिए लगे वृद्ध जैक लार्चर के शरीर से अग्नि की ज्वालाएं निकलने लगीं। बचाव के लिए ऊपर कम्बल डाला गया पर कुछ ही सेकेंडों में वह भस्मी भूत हो गया। अग्नि बुझाने के अन्यान्य प्रयास भी असफल सिद्ध हुए। मात्र पाँच मिनट में ही जैक लार्चर का शरीर राख की ढेरी में बदल चुका था।
NOTE;-
ये घटनाएँ मानव शरीर में सन्निहित प्रचण्ड−प्राण शक्ति का परिचय देती हैं। जिसके व्यतिरेक द्वारा गम्भीर संकटों का सामना भी करना पड़ सकता है। प्राण पर नियंत्रण–परिशोधन और उसका संचय अभिवर्धन किया जा सके तो मनुष्य असामान्य शक्ति का स्वामी बन सकता है।
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क्या प्राण विद्युत ही ''औरा'' है?-
08 FACTS;-
1-''औरा'' का अर्थ होता है प्राणों का तेजोवलय। ''औरा'' व्यक्ति के आभामंडल को कहते हैं। हर व्यक्ति का अपना एक प्रभाव होता है और उसमें इस औरा का खास महत्व होता है। स्वयं को प्रभावशाली बनाने के लिए ओराऔरा का प्रभावी होना आवश्यक है। बल्ब की रौशनी की तरह स्थूल शरीर के बाहर भी प्राणों का तेजोवलय/औरा होता है। जो आधुनिक औरा उपकरणों के माध्यम से देखा या मापा जा सकता है। जर्मन विद्युत विज्ञानी रीकन वेक इसे एक विशेष प्रकार की ‘अग्नि’ मानते हैं। उसका बाहुल्य वे चेहरे के इर्द-गिर्द मानते हैं। और ‘ओरा’ नाम देते हैं।
2-शरीर में तापमान भी होता है और हलचल भी। इन्हीं के आधार पर जीवनचर्या चलती है। इन दोनों प्रयोजनों को साधने वाली शक्ति का नाम है ''जैव विद्युत''। इसका भण्डार जिसमें जितना अधिक है वह उतना ही ओजस्वी, तेजस्वी माना जाता है। सूक्ष्म शरीर का प्रतीक तेजोवलय/प्राण ऊर्जा/औरा होती है।
3-जीवित व्यक्ति के चारों ओर इसे छाया हुआ देख सकना अब सम्भव हो गया है। यह चेहरे के इर्द-गिर्द अधिक स्पष्ट और घनीभूत होता है।प्रजनन अंगों में उन्होंने इस अग्नि की मात्रा चेहरे से भी अधिक परिमाण में पाई है। दूसरे शोधकर्ताओं ने नेत्रों में तथा उँगलियों के पोरवों में उसका अधिक प्रवाह माना है।
4-देवी देवताओं के चित्रों में उनके चेहरों के इर्द-गिर्द यह तेजस् आभा मण्डल के रूप में देखा जा सकता है। महामानवों- ऋषियों के चेहरे पर एक विशेष ज्योति छाई रहती है। इसका प्रभाव क्षेत्र दूर-दूर तक होता है। वे उसके द्वारा दूसरों को प्रभावित कर लेते हैं, आकर्षित एवं सहमत भी। विरोधियों को सहयोगी बना लेना इनके बाँये हाथ का खेल होता है। आक्रमणकारी उनके निकट पहुँचते-पहुँचते हक्का-बक्का हो जाते हैं।
5-इस तेजस् को अध्यात्मवादी साधक अपनी खुली आँखों से भी देख सकते हैं और उसका स्तर देखकर किसी के व्यक्तित्व एवं मनोभावों का पता लगा लेते हैं। अब नई वैज्ञानिक खोजों के आधार पर इस तेजोवलय के आधार पर मनुष्य की शारीरिक और मानसिक रुग्णता का पता लगाने और तद्नुरूप उपचार करने लगे हैं। अध्यात्मवादी इसी तेजोवलय को देखकर उसके चिन्तन, चरित्र एवं स्तर का पता लगा लेते हैं।
6-प्राण विश्वव्यापी है। उसी का एक अंश जब जीवधारी को मिल जाता है तो वह प्राणियों की तरह अपनी क्षमता का परिचय देने लगता है। यह प्राण प्रत्यक्ष शरीर में तो होता ही है उसे यन्त्र उपकरणों से जैव विद्युत के रूप में आँका और मापा जा सकता है। इसकी घट-बढ़ भी विदित होती रहती है। घटने पर दुर्बलता आ दबोचती है। इन्द्रियों में तथा उत्साह में शिथिलता प्रतीत होती है। इसकी पर्याप्त मात्रा रहने पर मन और बुद्धि अपना काम करती है। उत्साह और साहस- पराक्रम और पुरुषार्थ- अपनी प्रदीप्त गतिविधियों का परिचय देने लगता है।
7-शरीर जल, अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी से बना है। अतः प्राण के तेजोवलय में वृद्धि इनमें से किसी भी माध्यम से किया जा सकता है...
7-1- पहाड़ो की शुद्ध वायु स्नान से तेजोवलय बढ़ता है।
7-2- खुले आकाश को निहारने से उसके नीचे बैठने से भी यह चार्ज होता है।
7-3- स्वच्छ जल में स्नान या शॉवर से स्नान पर भी तेजोवलय स्थिर होता है, अच्छा महसूस होता है। गंगा नदी जैसी पवित्र और औषधीय गुण सम्पन्न नदियों में स्नान से भी प्राणों का तेजोवल बढ़ता है।
7-4- शुद्ध मिट्टी से स्नान से भी प्राण के तेजोवलय में वृध्दि होती है।
8- लेकिन उपरोक्त में से सबसे ज्यादा प्रभावी और प्राण विद्युत चार्ज करने का माध्यम अग्नि है। इसलिए यज्ञ में सम्मिलित होने से औषधीय धूम्र वायु स्नान और अग्नि के ताप का स्नान और घी का ऑक्सीकरण स्नान और मन्त्र तरंगों का प्रभाव प्राण का तेजोवलय रिचार्ज करता है। इसलिए यज्ञ एक समग्र उपचार के साथ साथ प्राण के तेजोवलय को बढ़ाने और शुद्ध करने का उत्तम माध्यम है। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
क्या प्राण विद्युत चमत्कारी है ? 14 FACTS;- 1-शरीर के अवयवों के संचालन एवं क्रिया-कलाप में आमतौर से रक्त की प्रधान भूमिका मानी जाती है। यदि थोड़ी गहराई में घुसकर देखा जाय तो प्रतीत होता है कि समूचे काय तन्त्र की अनेकानेक गतिविधियों का उत्तेजन एवं नियमन एक विशेष प्रकार की बिजली के सहारे होता है जो मस्तिष्क में उत्पन्न होता और नाड़ी तन्तुओं द्वारा समस्त अवयवों के भीतर तथा बाहर छाई रहती है। बिजली की शरीर में वही भूमिका होती है जो मोटर में बैटरी डायनेमो की। रक्त पैट्रोल है, तो जैव विद्युत। दोनों के संयोग से ही जीवन धारण बन पड़ता है।
2-यह कायिक बिजली मशीनी बिजली से भिन्न है। यन्त्र विद्युत झटका मारती और मशीनें चलाती है। कायिक बिजली शरीर और मस्तिष्क के अवयवों को सम्भालती है। बाहरी क्षेत्र में अपने प्रभाव का परिचय देती है। इसे प्राण कहते हैं। वह ब्रह्माण्डव्यापी महाप्राण का एक अंश है जो मनुष्य शरीर में काम करता है। इसे घटाया बढ़ाया जा सकता है। संकल्प बल एवं अभ्यास से जिस प्रकार अनेक कला-कौशलों की प्रवीणता प्राप्त होती है, उसी प्रकार प्राण विद्युत को भी योग साधनों के सहारे समुन्नत किया जा सकता है।
3-यों छोटी बैटरी भी विद्युत भाण्डागार का एक घटक ही है और टार्च जलाने जैसे छोटे काम वह भी कर सकती है पर यदि किसी नगर या कारखाने की मशीनें चलानी हों तो बड़ा जनरेटर चाहिए। इसी प्रकार सामान्य प्राण से शरीर निर्वाह एवं उपार्जन की आवश्यकता पूरी होती रहती है। पेट प्रजनन के लिए अनिवार्य साधन सधते रहते हैं किन्तु यदि उच्चस्तरीय क्रिया कलाप सम्पादित हों तो उसके लिए महाप्राण स्तर की प्राण-शक्ति चाहिए और वह साधनात्मक विशेष उपाय उपचारों से ही अर्जित करनी पड़ती है।
4-यों मन शरीर में एक प्रथम सत्ता की भाँति दिखाई देता है, पर वैज्ञानिक जानते हैं कि शरीर के प्रत्येक कोश में एक पृथक मन होता है। कोशों के मनो का समुदाय ही अवयव समग्र मन का निर्माण करता है। प्रत्येक अवयव का क्रिया क्षेत्र अलग-अलग है, पर वह सब मन अवयव के अधीन है। मान लीजिए यौन केन्द्रों के समीपवर्ती न जीवकोश (सैल्स) अपनी तरह के रासायनिक पदार्थ ढूँढ़ते और ग्रहण करते हैं। उनकी उत्तेजना काम वासना को भड़काने का काम करती है, किन्तु समग्र मन नहीं चाहता कि इन यौनावस्थित जीवकोशों की इच्छा को पूरा किया जाय, तो वह काम वासना पर नियन्त्रण कर लेगा।
5-इसी प्रकार शरीर के हर अंग के मन अपनी-अपनी इच्छाएं प्रकट करते हैं। पर समग्र मन उन सबको काटता-छाँटता रहता है। जो इच्छा पूर्ण नहीं होने की होती, उसे दबाता रहता है और दूसरों को सहयोग देकर वैसा काम करने लगता है।यह जीवकोशों के मन ही मिलकर
समग्र मन का निर्माण करते हैं, इसीलिए मन को एक वस्तु न मानकर अध्यात्म शास्त्र में उसे ‘मनोमय कोश’ कहा गया है। एक अवस्था ऐसी होती है जब शरीर के सब मन उसके आधीन काम करते हैं, जब यह अनुमान स्थापित हो जाता है तो मन की क्षमता बड़ी प्रचण्ड हो जाती है और उसे जिस ओर लगा दिया जाय वहीं तूफान की सी तीव्र हलचल पैदा कर देता है।
6-प्रत्युत्पन्न मन जब एकाग्र और संकल्पशील होता है तो सभी कोश स्थित मन जो विभिन्न गुणों और स्थानों की सुरक्षा करने वाले होते हैं, उसी के आधीन होकर कार्य करने में लग जाते हैं, फिर उस संग्रहित शक्ति से किसी भी स्थान के जीवकोशों को किसी दूसरे के शरीर में पहुँचा कर उस व्यक्ति की किसी भी रोग से रक्षा की जा सकती है, सुनने-समझने वाले मनों में हलचल पैदा करके उन्हें सन्देश दिया जा सकता है, किसी को पीड़ित या परेशान भी किया जा सकता है।
7-चौथी सदी में एक युवक जिसे प्रेतबाधा थी उसके पिता उसे अच्छा करने के लिए सन्त मकारियस के पास ले गये जो मिश्र के मरुस्थल में रहते थे। उन्होंने एक हाथ युवक के सिर पर और एक छाती पर रखा और प्रार्थना करने लगे। धीरे-धीरे युवक का शरीर फूलने लगा और इतना फूला कि ऐसा लगने लगा कि युवक अधर में लटका हो। फिर अचानक युवक चीखा और उसके शरीर से पानी निकला। इसके बाद युवक अपनी स्वाभाविक अवस्था में आ गया और रोग मुक्त होकर अच्छा हो गया।
8-सन्त आगस्टाइन, मिलान के सन्त एम्ब्रोज, टूर के सन्त मार्टिन, विशिष्ट हस्तियाँ थीं, जिन्होंने प्रार्थना एवं सिर पर हाथों के स्पर्श द्वारा रोगोपचार की परम्परा को जीवित रखा।
शताब्दियों तक ऐसे अनेक सन्त होते रहे हैं। जिनके पास अपने हाथों के स्पर्श एवं प्रार्थना के द्वारा रोगमुक्त करने की ईश्वरी शक्ति रही है। इन सन्तों की वजह से लोगों में धर्म के प्रति झुकाव बना रहा।
9-बारहवीं सदी में असीसी के सन्त फ्रान्सिस और क्लेअर बाक्स के सन्त बरनार्ड ने अनेकों को अपनी रोगमुक्त करने का शक्ति से अच्छा किया। चौदहवीं सदी में सियेना के सन्त केथराइन तथा सन्त फ्राँसिस जेवियर, सोलहवीं शताब्दी में अपनी रोगमुक्त करने की शक्तियों के लिए बहुत प्रख्यात रहे और अनेकों को इसका लाभ पहुँचाया। जार्ज फाक्स जिसने सत्रहवीं सदी में ‘सोसायटी ऑफ फ्रैन्डस” की स्थापना की थी, ने इंग्लैंड और अमेरिका में अनेक रोगियों को अपनी रोगमुक्त करने की शक्ति से अच्छा किया। इन्होंने अपने द्वारा आध्यात्मिक उपचार से रोगमुक्त करने के अनुभवों का वर्णन, अप्रकाशित पुस्तक ‘बुक आफ निरकेल्स” में किया है।
10-सेंटपाल के समय से ही प्रसिद्ध सन्तों, आत्म बलिदानियों, अथवा शहीदों के द्वारा उपयोग में लाये गये रुमालों और एप्रनों को रोगी के अंगों पर रखकर उन्हें दबाया जाता जिससे उन्हें रोगमुक्ति से छुटकारा मिलाता था। ऐसा लिखित रिकार्ड उपलब्ध है। बाद में यह सुरक्षित महसूस किया गया कि आत्म बलिदानी धर्म-प्रचारकों के अवशेष उसकी कब्र से निकालकर उन्हें नये चर्चों में स्थापित किया जावे। सेंट स्टीफन के ऐसे रखे हुये अवशेषों से अनेक रोगियों को बहुत लाभ हुआ है। सन्त कोसमास तथा सन्त डाभियन, दो चिकित्सक भाइयों एवं अनेक धर्म प्रचारक सन्तों के अवशेषों का उपयोग इस प्रकार लगातार रोग मुक्ति के लिए होता रहा।
11-बहुत सारी कब्रों को समाधियों का रूप दिया गया, जहाँ बहुत से रोगी उन समाधियों के पास, जिनमें संतों के शव अथवा उनके अवशेष रखे होते थे, के नजदीक श्रद्धा से पूरी रात गुजारते थे। ईसामसीह का “काँटों का ताज” जिसे उन्हें सूली पर चढ़ाते समय पहनाया गया था एक अतिमहत्वपूर्ण और प्रभावकारी अवशेष सिद्ध हुआ। जिसके द्वारा अनेकों रोगियों को लाभ मिला।
12-प्राण का बाहुल्य ही विशिष्ट प्रतिभा के रूप में परिलक्षित होता है। प्राणवान व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से सामान्य होते हुये भी ऐसे पराक्रम करते देखे गये हैं मानों उन्हें कोई दैवी वरदान उपलब्ध हो। व्यक्तित्व का विशिष्टता प्राण वैभव की बहुलता पर ही निर्भर है।
जियान्गी प्रान्त में रहने वाला 101 वर्षीय चीनी किसान को अपने द्वितीय बचपन की दाँत समस्या का सामना करना पड़ रहा है। अब कुल उसके 16 दाँत नीचे 11 दाँत ऊपर वाले जबड़े में सबके सब नये चमकीले उग आये हैं। किसान अब प्रसन्नतापूर्वक अपने भोजन को चबाने लगा है। यह समाचार “वेनहू वाओ” नामक दैनिक पत्र ने दिया है।
13-मैक्सिस जर्मनी का प्रसिद्ध भारोत्तोलक हुआ है। उसका निज का वजन 147 पौंड था। पर एक प्रदर्शन में उसने अपने से 40 पौंड भारी 187 पौंड के व्यक्ति को एक हाथ पर बिठाकर 16 बार अपने सिर से ऊपर तक उठाया। दूसरे हाथ में वह पानी से लबालब भरा गिलास इसलिए थामे रहा कि कोई यह न सोचे कि इतना वजन उठाने में उसके ऊपर कोई खिंचाव पड़ता है। खिंचाव पड़ेगा तो पानी फैलेगा यह प्रमाण देने के लिए उसने दूसरे हाथ में गिलास थामे रहने का प्रदर्शन किया।
14-प्राणवानों में शारीरिक ही नहीं मानसिक विशिष्टता भी पाई जाती है। मस्तिष्कीय संरचना में कोई अन्तर न होने पर भी कोई-कोई व्यक्ति ऐसे देखे गये हैं जिनकी मानसिक क्षमता सामान्यजनों की तुलना में असाधारण रूप से बढ़ी-चढ़ी होती है। प्रयत्न करने पर प्राणशक्ति का अभिवर्धन हर कोई कर सकता है।
क्या है जैव विद्युत/प्राण विद्युत का रहस्य ?-
37 FACTS;-
1-मनुष्य यों देखने में एक दुर्बल-सा प्राणी मालूम पड़ता है, पर वह प्राणि विद्युत की दृष्टि से सृष्टा की अद्भुत एवं अनुपम संरचना है। विशेषतया मस्तिष्क इतनी विलक्षणताओं का केन्द्र है जिसके आगे आविष्कृत हुए समस्त मानवकृत यन्त्रों का एकत्रीकरण भी हलका पड़ेगा। उसमें अगणित चुम्बकीय केन्द्र हैं जो विविध-विधि रिसीवरों, ट्रान्सफार्मरों का कार्य सम्पादित करते हैं। ब्रह्माण्ड में असंख्य प्रकार के एक से एक रहस्यमय प्रवाह स्पन्दन गतिशील रहते हैं इनमें से मनुष्य को मात्र कुछेक की ही आधी अधूरी जानकारी है।
2-यह जानकारी का क्षेत्र जितना-जितना विस्तृत होता जाता है उससे असीम शक्ति की—असंख्य धाराओं की हलकी-फुलकी झांकी मिलती है। कदाचित अबकी अपेक्षा मनुष्य के हाथ दूना चौगुना भी और लग गया तो सृष्टा की प्रतिद्वंदिता करने लगेगा। इतना होते हुए भी जो कुछ जानना और पाना शेष रह जायगा जिसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है। ब्रह्माण्ड की भौतिकाएं और चेतनात्मक सम्भावनाएं इतनी अधिक हैं कि उन्हें अचिन्त्य, असीम, अनन्त, अनिर्वचनीय आदि कहकर ही सन्तोष किया जा सकता है।
3-सर्वविदित है कि पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र एवं सौरमण्डल के अन्य ग्रहों से बहुत कुछ अनुदान प्राप्त करती है और उस उधार की पूंजी से अपनी दुकान चलाती है। सौर मण्डल से बाहर के ग्रह-नक्षत्र भी उसे बहुत कुछ देते हैं। वह हलका होने के कारण विनिर्मित यन्त्रों की पकड़ में नहीं आता तो भी वह स्वल्प या नगण्य नहीं है। कोई वस्तु हलकी होने के कारण उपहासास्पद नहीं बन जाती वरन् सच तो यह है कि सूक्ष्मता के अनुपात में शक्ति की गरिमा बढ़ती जाती है।
4-ब्रह्माण्ड में बिखरे पड़े कोटि-कोटि ग्रह-नक्षत्र अपनी-अपनी उपलब्धियां मिल बांटकर खाते हैं। तभी तो वे सब एक सूत्र में ‘मणिगण’ एवं पिरोये हुए हैं। यदि उनमें से प्रत्येक ने अपनी उपलब्धियों को अपने ही सीमित क्षेत्र में समेट सिकोड़ कर रखा होता तो ब्रह्माण्ड में केवल धूलि के बादल इधर-उधर मारे-मारे फिरते दिखाई पड़ते। पृथ्वी की अगणित शक्ति केन्द्रों के छोटे बड़े उपहार मिलते रहते और वह उन खिलौनों से खेलती हुई अपना विनोद-प्रमोद स्थिर रखे रहती।
5-जिस प्रकार पृथ्वी अन्य ग्रहों से लेती है उसी प्रकार वह अपना उपार्जन ब्रह्माण्ड परिवार को बांटती भी है। ‘दो और लो’ का विनिमय क्रम ही इस सृष्टि की धुरी बनकर काम कर रहा है। पृथ्वी और ब्रह्माण्ड के बीच जो आदान-प्रदान क्रम चल रहा है वह चेतना के घटाकाश—मनुष्य और महादास—विश्व मानव के बीच भी चल रहा है। पिण्ड शब्द का प्रयोग ग्रह-नक्षत्रों की तरह मानव शरीर के लिए भी होता है।
6-मनुष्य एक पिण्ड है उसका ब्रह्माण्ड व्यापी असंख्य चेतना पिण्डों के साथ वैसा ही सम्बन्ध है जैसा पृथ्वी का—सौरमण्डल से—देवयानी नीहारिका से अथवा ब्रह्माण्ड केन्द्र महा ध्रुव अनन्त शेष से। मनुष्य की चेतना अपनी उपलब्धियां विश्व चेतना को प्रदान करती है और वहां से अपने लिए उपयोगी अनुदान प्राप्त करती है।यों चेतना शरीर के कण
कण में बिखरी पड़ी है पर उसका उद्गम निर्झर मस्तिष्क से ही फूटता है। ध्रुवीय चुम्बक शक्ति की तरह मस्तिष्क में भी आकर्षक और विकर्षक केन्द्र हैं। वे ब्रह्माण्ड से बहुत कुछ ग्रहण करते और देते हैं। इन्हीं क्रिया केन्द्रों की रिसीवरों एवं ट्रान्सफार्मरों के रूप में व्याख्या की जाती है।
7-मनुष्य की स्वास्थ्य, चरित्र, संस्कार, शिक्षा आदि विशेषताएं मिलकर समग्र व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं और उसी के आधार पर उसकी प्रतिभा निखरती है। प्रतिभा न केवल सामने आने वाले कामों की सफलता के लिए वरन् दूसरों पर प्रभाव डालने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होती है। व्यक्तिगत जीवन में यह प्रतिभा धैर्य, साहस, सन्तुलन, विवेक, दूरदर्शिता एवं शालीनता के रूप में दृष्टिगोचर होती है। सामाजिक जीवन में वह सम्बन्धित लोगों को प्रभावित करती है। उन पर छाप डालती है—एवं सहयोग, उद्भव सम्मान प्रदान करने के लिए आकर्षित करती है। प्रतिभा प्रयत्नपूर्वक बढ़ाई जा सकती है। इन प्रयत्नों में लौकिक गतिविधियां भी शामिल हैं और आध्यात्मिक साधनाएं भी।
8-साधनारत मनुष्य अपनी संकल्प शक्ति और उपासनात्मक तपश्चर्याओं द्वारा अतीन्द्रिय शक्ति का उद्भव करते हैं। अन्तराल में प्रसुप्त पड़ी क्षमताओं को जगाया जाना और इस विशाल ब्रह्माण्ड में बिखरे हुए शक्तिशाली चेतन तत्वों को खींचकर अपने में धारण करना यह दोनों ही प्रयत्न अध्यात्म साधनाओं द्वारा किये जाते हैं। जिनमें यह उभयपक्षीय विशेषताएं बढ़ती हैं उन्हें कई दृष्टियों से चमत्कारी विशेषताओं से सुसम्पन्न पाया जाता है।
9-जिस प्रकार हृदयस्पंदन की गतिविधियों की जानकारी इलेक्ट्रो कार्डियोग्राम यन्त्र से होती है। उसी प्रकार मस्तिष्क विद्युत् के आधार पर चलने वाली विचार-तरंगों का अंकन इलेक्ट्रो ऐसेंफैलो ग्राम यन्त्र से होता है। मनः क्षेत्र से चिन्तन स्तर के अनुरूप कितनी ही प्रकार की अल्फाबीटा, डेल्टा आदि किरणें निकलती हैं। उनके आयाम और दैर्ध्य चिन्तन का—स्थिति का विवरण प्रस्तुत करते हैं।
10-किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों की शारीरिक बनावट सामान्य होती है, देखने में उनका व्यक्तित्व सीधा सरल सा लगता है, पर उनमें विशिष्ठ विद्युत् शक्ति इतनी भरी होती है कि जो भी काम हाथ लेते हैं उसे संभालते चले जाते हैं जिसके भी सम्पर्क में आते हैं उन्हें प्रभावित किये बिना नहीं रहते।किस व्यक्ति में कितनी अतिमानवी विद्युत शक्ति है
उसका परिचय उसके चेहरे के इर्द-गिर्द और शरीर के चारों ओर बिखरे हुए तेजोवलय को देखकर जाना जा सकता है।
11-यह तेजोवलय खुली आंखों से दिखाई नहीं पड़ता, पर उसे सूक्ष्मदर्शी दृष्टि से अनुभव किया जा सकता है। अब ऐसे यन्त्र भी बन गये हैं जो मानव शरीर में पाई जाने वाली विद्युत् शक्ति और उसके एक सीमा तक निकलने वाले विकरण का विवरण प्रस्तुत कर सकते हैं। देवी देवताओं के चेहरे पर एक प्रभामण्डल चित्रित किया जाता है यह विशिष्ठ मानवी विद्युत शक्ति है। इसका सम्बन्ध भौतिक प्रतिभा और आध्यात्मिक शक्ति धाराओं के साथ जुड़ा रहता है।
12- उदाहरण के लिए,डा. चार्ल्स फारे ने अपने ग्रन्थ ‘एनल्स डिस साइन्सेज साइकिक्स’ नामक ग्रन्थ में अपने कुछ रोगियों के सिरोभाग पर छाये प्रभा मण्डल का विवरण दिया है और बताया है कि रोगों के कारण इस तेजोवलय में क्यों और क्या अन्तर उत्पन्न होते रहते
हैं।इटली में पिरानो अस्पताल में अन्नामोनारी नामक महिला के शरीर में डाक्टरों ने खुली आंखों से झिलमिलाता नील वर्ण प्रभा मण्डल देखा था। जब वह दीप्ति अधिक तीव्र होती थी तब वह महिला पसीने से लथपथ हो जाती थी सांसें तेजी से चलती और दिल की धड़कन बढ़ जाती थी। उस महिला की इस विद्युत स्थिति को देखने के लिए विश्व भर के जीव विज्ञानी, भौतिक शास्त्री और पत्रकार पहुंचे थे।
13-‘फिजीकल फेनासेना आफ मिस्टिसिज्म’ ग्रन्थ के लेखक हरबर्ट थर्स्टन ने अपनी खोजों में ऐसे ईसाई सन्तों का विवरण छापा है जिनके चेहरे पर लम्बे उपवास के उपरान्त दीप्तिमान, तेजोवलय देखे गये। उन्होंने अन्नामोनारो का विवरण विशेष रूप से लिखा जिनके शरीर में उपवास के उपरान्त सल्फाइडो की असाधारण वृद्धि हो गई थी। अल्ट्रावायलेट तरंगें अधिक बहने लगी थीं जिनका आभास दीप्तिमान चक्र के रूप में होता था। विद्वान थर्स्टन ने भी अपने विवरणों में ऐसे ही कई दीप्तिवान् सन्तों की चर्चा की है और उनकी विद्युतीय स्थिति में असामान्यता होने का उल्लेख किया है।
14-अमेरिकी वैज्ञानिक मनुष्य शरीर के चारों और बिखरे रहने वाले—विशेषतया चेहरे के इर्द-गिर्द अधिक प्रखर पाये जाने वाले तेजोवलय के सम्बन्ध में अपनी शोधें बहुत पहले प्रकाशित कर चुके हैं। अब रूसी वैज्ञानिकों ने भी उस प्रभामण्डल के छाया-चित्र उतारने में सफलता प्राप्त करली है। ‘सोवियत यूनियन’ पत्र के 145 वें अंक में इन खोजों का विस्तृत विवरण छपा है। यह प्रभामण्डल सदा एक रस नहीं रहता उसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं जिनसे विदित होता है कि व्यक्ति के भीतर क्या-क्या विद्युतीय हलचलें हो रही हैं।
15-यदि इस प्रभामण्डल के बारे में अधिक जाना जा सके तो न केवल शारीरिक स्थिति के बारे में वरन् मस्तिष्कीय हलचलों के बारे में भी वरन् मस्तिष्कीय हलचलों के बारे में भी किसी व्यक्ति का पूरा गहरा और विस्तृत परिचय प्राप्त हो सकता है।शरीर संचार की समस्त
गतिविधियां तथा मस्तिष्कीय उड़ान रक्त, मांस जैसे साधनों से नहीं उस विद्युत प्रवाह के द्वारा संभव होती हैं जो जीवन तत्व बनकर रोम-रोम में संव्याप्त हैं। इसी को मानवीय विद्युत कहते हैं। ओजस्वी, मनस्वी और तेजस्वी उसी विशेषता से सुसम्पन्न लोगों को कहते हैं। प्रतिभाशाली प्रगतिशील लोगों और शूरवीर साहसी लोगों में इसी क्षमता की बहुलता पाई जाती है।
16-यह जैव विद्युत उस भौतिक बिजली से भिन्न है जो विद्युत यन्त्रों में प्रयुक्त होती है। बैटरी, मैग्नेट, जनरेटर आदि का स्पर्श करने पर बिजली का झटका लगता है। उसके सम्पर्क से बल्ब, पंखे, रेडियो, हीटर आदि काम करने लगते हैं। जीव विद्युत का स्तर भिन्न है इसलिए वह यह कार्य तो नहीं करती पर अन्य प्रकार के प्राणी की अति महत्वपूर्ण आवश्यकता पूरी करने वाले कार्य सम्पन्न करती देखी जा सकती है।
17-कोशिकाओं की आन्तरिक संरचना में एक महत्वपूर्ण आधार है—माईटो कोन्द्रिया। इसे दूसरे शब्दों में कोशिका का पावर हाउस—विद्युत भण्डार कह सकते हैं। भोजन, रक्त, मांस, अस्थि आदि से आगे बढ़ते-बढ़ते अन्ततः इसी संस्थान में जाकर ऊर्जा का रूप होता है। यह ऊर्जा ही कोशिका को सक्रिय रखती है और उनकी सामूहिक सक्रियता जीव संचालक के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इस ऊर्जा को लघुत्तम प्राणांश कह सकते हैं। काय-कलेवर में इसका एकत्रीकरण महाप्राण कहलाता है और उसी को ब्रह्माण्डव्यापी चेतना विश्व प्राण या विराट् प्राण के नाम से जानी जाती है।
18-प्राणांश की लघुत्तम ऊर्जा इकाई कोशिका के अन्तर्गत ठीक उसी रूप में विद्यमान है जिसमें कि विराट् प्राण गतिशील है। बिन्दु-सिन्धु जैसा अन्तर इन दोनों बीच रहते हुए भी वस्तुतः वे दोनों अन्योन्याश्रित हैं। कोशिका के अन्तर्गत प्राणांश के घटक परस्पर संयुक्त न हों तो महाप्राण का अस्तित्व न बने। इसी प्रकार यदि विराट् प्राण की सत्ता न हो तो भोजन पाचन आदि का आधार न बने और वह लघु प्राण जैसी विद्युतधारा का संचार भी सम्भव न हो।
19-इसी मानवी विद्युत का ही यह प्रभाव है जो एक दूसरे को आकर्षित करता है। उभरती आयु में यह बिजली काय आकर्षण की भूमिका बनती है, पर यदि उसका सदुपयोग किया जाय तो बहुमुखी प्रतिभा, ओजस्विता, प्रभावशीलता के रूप में विकसित होकर कितने ही महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है। ऊर्ध्व रेता, संयमी, ब्रह्मचारी लोग अपने ओजस् को मस्तिष्क में केन्द्रित करके उसे ब्रह्मवर्चस के रूप में परिणत करते हैं। विद्वान दार्शनिक, वैज्ञानिक, नेता, वक्ता, योद्धा, योगी, तपस्वी जैसी विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्तियों के संबंध में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने ओजस् का प्राण तत्व का अभिवर्धन, नियन्त्रण एवं सदुपयोग किया है। यों यह शक्ति किन्हीं-किन्हीं में अनायास भी उभर पड़ती देखी गई है और उसके द्वारा उन्हें कुछ अद्भुत काम करते भी पाया गया है।
20-योग-साधना का उद्देश्य इस चेतना विद्युत शक्ति का अभिवर्धन करना भी है। इसे मनोबल, प्राणबल और आत्मबल भी कहते हैं। संकल्प शक्ति और इच्छा शक्ति के रूप में इसी के चमत्कार देखे जाते हैं।अध्यात्म शास्त्र में प्राण-विद्या का एक स्वतन्त्र प्रकरण
एवं विधान हैं इसके आधार पर साधनारत होकर मनुष्य इस प्राण विद्युत की इतनी अधिक मात्रा अपने में संग्रह कर सकता है कि उस आधार पर अपना ही नहीं अन्य अनेकों का भी उपकार, उद्धार कर सके।
21-योग-साधना इस मानवी विद्युत भण्डार को असाधारण रूप से उत्तेजित करती और उभारती है। यदि सही ढंग से साधना की जाय तो मनुष्य प्राणवान और ओजस्वी बनता है। उपार्जित प्राण विद्युत की ऊर्जा के सहारे स्वयं कितनी ही अद्भुत सफलताएं प्राप्त करता है और दूसरों को सहारा देकर ऊंचा उठाता है।प्राण विद्युत के सम्बन्ध में शरीर विज्ञानी
इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पेशियों में काम करने वाली स्थिति तक ऊर्जा-पोटोन्शियल का तथा उसके साथ जुड़े रहने वाले आवेश—इन्टेन्सिटी का जीवन संचार में बहुत बड़ा हाथ है।मानव शरीर का सारा क्रिया कलाप इसी विद्युतीय संचार के माध्यम से गतिशील रहता है।
22-मनुष्य शरीर में बिजली काम करती है, यह तथ्य सर्व विदित है। इलैक्ट्रो कर्डियो ग्राफी तथा इलैक्ट्रो इनसिफैलो ग्राफी द्वारा इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। हमारी रक्त नलिकाओं में लौह युक्त हैमोग्लोबिन भरा पड़ा है। लौह चूर्ण और चुम्बक जिस प्रकार परस्पर चिपके रहते हैं उसी प्रकार हमारी जीवन सत्ता भी जीव कोशों को परस्पर सम्बद्ध किये रहती है। उनकी सम्मिश्रित चेतना से वे समस्त क्रिया कलाप चलते हैं जिन्हें हम जीवन संचार व्यवस्था कहते हैं।
23-शरीर में जो चमक, स्फूर्ति, ताजगी, उमंग, साहस, उत्साह, निष्ठा, तत्परता जैसी विशेषताएं दिखाई पड़ती हैं—वे प्राण ऊर्जा की ही प्रतिक्रियाएं हैं। मनस्वी, ओजस्वी, तेजस्वी, तपस्वी आदि शब्द इसी क्षमता का बाहुल्य व्यक्त करते हैं। ऐतिहासिक महामानवों में यही
विशेषता प्रधान रूप से रही है।ऊर्जा के सहारे ही यंत्रों का संचालन होता है। मनुष्य शरीर भी एक यंत्र है। उसके संचालन में जिस विद्युत की आवश्यकता पड़ती है उसे प्राण कहते हैं। प्राण एक अग्नि है जिसे ज्वलंत रखने के लिए आहार की आवश्यकता पड़ती है। आधुनिक वैज्ञानिक ने इसे ‘जीव विद्युत’ नाम दिया है।
24-निद्रा मात्र थकान मिटाने की, विश्राम प्रक्रिया मात्र नहीं है। वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार निद्रा में मस्तिष्क का सचेतन भाग अचेतन की स्थिति में इसलिए जाता है कि उस स्थिति में अन्तरिक्ष में प्रवाहित रहने वाली विद्युत धाराओं में से अपने उपयोग का अंश संग्रह सम्पादित कर सकने का अवसर मिल जाय ‘एरियल’ रेडियो तरंगों को पकड़ता है। निद्रावस्था में हमारा अचेतन मस्तिष्क उसी स्थिति का बन जाता है और आकाश से इतनी विद्युतीय खुराक प्राप्त कर लेता है जिससे शारीरिक और मानसिक क्रिया कलापों का संचालन ठीक प्रकार संभव हो सके।
25-निद्रा की पूर्ति न होने पर शारीरिक और मानसिक स्थिति में जो गड़बड़ी उत्पन्न होती है उसे अभीष्ट मात्रा में विद्युतीय खुराक न मिलने को चेतनात्मक ‘वुभुक्षा’ कहते हैं। इसके बने रहने पर मनुष्य विक्षिप्त या अर्ध विक्षिप्त बन जाता है। पागलपन छा जाने से पूर्व प्रायः कुछ दिन पहले से अनिद्रा रोग उत्पन्न होता है। अनिद्रा में इस विद्युतीय आहार की ही कमी पड़ती है।
26-ठीक इससे विपरीत इस शक्ति का विकास होने अर्थात् सूक्ष्म शरीर के बलवान् होने पर वह सारी क्षमतायें उपार्जित हो सकती हैं, वह ऋतम्भरा प्रज्ञा जागृत की जा सकती है जिससे बिना किसी भौतिक माध्यम से भी व्यक्ति दूरवर्ती वस्तुओं, सम्बन्धियों का ज्ञान भविष्यवाणी, ऋतुओं का पूर्वानुमान सच सच कर सके। यह सारे क्रिया कलाप चेतना के अति गहन स्तर पर सम्पादित होते हैं। इस बात को तो कोई भी व्यक्ति प्राणायाम के थोड़े समय के अभ्यास से भी ज्ञात कर सकता है कि जैसे जैसे प्राणायाम का अभ्यास बढ़ता है बुद्धि तीक्ष्ण होती है और गहरी निद्रा आती है। गहन निद्रा का एक गुण शारीरिक हलकापन
और प्रसन्नता भी है दूसरे इसी स्तर पर भविष्यदर्शी स्वप्न भी दिखाई देते हैं।
27-‘नोवोत्सी न्यूज एजेन्सी ने—सोते समय ‘अंग्रेजी पढ़ाने का परीक्षण’ शीर्षक से समाचार छापा । समाचार पीछे.. पहले शीर्षक पढ़कर ही पाठक चौंक पड़ें। जागृत अवस्था में कई बार पुस्तकें पढ़ते हैं, अध्यापक पाठ याद कराते हैं तो भी विद्यार्थियों को एक ही रोना बना रहता है, पाठ याद नहीं होता। फिर सोते हुए व्यक्ति को पढ़ाना तो असम्भव बात है। इसी बात को हम यह कहते हैं कि आत्मा इतनी संवेदनशील है कि अपने सूक्ष्म प्रकाश-शरीर से वह सोते-जागते किसी भी अवस्था में पढ़ती और ज्ञान सम्पादन करता रह सकता है।
28-कोई सामर्थ्यवान् व्यक्ति अपने विचार, ज्ञान, प्रज्ञायें और सन्देश कैसी भी अवस्था में किसी और को भी दे सकता है। तब तो लोग यह बात न मानते पर मास्को के पास दूबना स्थान पर विज्ञान इस बात को प्रत्यक्ष सत्य सिद्ध करने में लगा हुआ है, लगभग एक हजार लोगों को सोते समय गहरी निद्रा में अंग्रेजी सिखाई जा रही है। प्रयोग कर्त्ताओं का कहना है कि ये लोग 40 दिन में सोते-सोते ही अंग्रेजी सीख जायेंगे।इस प्रणाली के अन्तर्गत गहरी
नींद में सोने वाले लोग ही भाषा शिक्षण के लिये छांटे जाते हैं, उन्हें सोते समय भाषा के टेप-रिकार्ड सुनाये जाते हैं। वे नींद में ही व्याकरण के नियम और शब्द और उनका प्रयोग सीख लेते हैं। अब तक यें परीक्षण बहुत सफल हुये हैं।
29-एक ओर यह प्रयोग और दूसरी ओर वैज्ञानिकों की निरन्तर शोध की दोनों प्रक्रियाओं ने यह सिद्ध करना प्रारम्भ कर दिया है कि स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व और उस सूक्ष्म शरीर में मन आदि सम्पूर्ण इन्द्रियों व चेष्टाओं को पाया जाना असम्भव नहीं।
इन घटनाओं के कारण जो अनेक देशों एवं अनेक लोगों के साथ घटी हैं, वैज्ञानिकों का ध्यान भी इस ओर जाने लगा है। विज्ञान भी यह सोचने के लिए विवश हुआ है कि क्या स्थूल शरीर से परे भी मनुष्य का कोई अस्तित्व है, जो उसके संदेशों को सुदूर क्षेत्रों में पहुंचाता है। तथा ऐसे-ऐसे काम कर डालता है, जो शरीर द्वारा ही किये जा सकते हैं।
30-बिना किसी स्थूल माध्यम के एक मनुष्य के विचारों ओर संदेशों को पहुंचाने की इस प्रक्रिया का नाम है, परामानसिक संचार (टैलीपैथी)। रूस के लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में फिजियोलौजी विभाग के अध्यक्ष प्रो. लियोनिद वासिलयेव ने एक अनूठा प्रयोग किया है। स्मरणीय रूस का शासन-तन्त्र, धर्म, ईश्वर और आत्मतत्व की मान्यता की न केवल अनावश्यक मानता है वरन् उसे अफीम भी बताता है। फिर भी इस तरह की घटनाओं के कारण वास्तविकता की ओर उनका ध्यान गये बिना नहीं रहा।
31-प्रो. वासिलयेव ने टेलीपैथी द्वारा कई मील दूर स्थित एक प्रयोगशाला में कार्यरत अनुसंधानकर्ताओं को सम्मोहित कर दिया और वे लोग जो प्रयोग कर रहे थे, उनसे वह प्रयोग छुड़वा कर किसी दूसरे प्रयोग में लगा दिया। अनुसंधानकर्त्ता वैज्ञानिक अनजाने ही परवश से होकर वासिलयेव के सन्देशों का पालन करने लगे और उन्हें यह भान तक नहीं हुआ कि वे क्या कर रहे हैं।
32-इस प्रयोग के द्वारा प्रो. वासिलयेव इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को केवल अपने संकल्पों के द्वारा ही प्रभावित कर सकता है और उसे अपना आज्ञानुवर्ती बना लेता है। इसके लिए न किसी भौतिक माध्यम की आवश्यकता होती है तथा न ही किसी और साधन की। यहां तक कि स्थान की दूरी भी इस प्रक्रिया में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करती।
33-चेतना का केन्द्र मस्तिष्क माना गया है और उसका पोषक रक्त संस्थान हृदय कहा गया है। हृदय को सामग्री पेट से मिलती है। पेट को भरना मुंह का काम है। मुंह से लिए साधन हाथ जुटाते हैं। यह चक्र तो चलता ही है, पर असल में पूरा शरीर ही शक्ति भण्डार है। यह शक्ति असामान्य विद्युत स्तर की है। असामान्य इस अर्थ में है कि वह भौतिक बिजली की तरह अन्धी दौड़ नहीं लगती वरन् सामने वाले को देखकर ही अपनी गतिविधियां फैलाती, सिकोड़ती है।
34-मानवी विद्युत हर व्यक्ति की अपनी विशिष्ट संपत्ति है। वह इसी के आधार पर ऐसे अनुदान देता है—ऐसे आदान-प्रदान करता है जो पैसे या किसी वस्तु के आधार पर उपलब्ध नहीं हो सकते। एक व्यक्ति से दूसरा प्रभाव ग्रहण करता है यह तथ्य सर्वविदित है। संगति की महिमा गाई गई है। कुसंग के दुष्परिणाम और सत्संग के सत्परिणामों को सिद्ध करने वाले उदाहरण हर जगह पाये जाते हैं। यह प्रभाव मात्र वार्तालाप व्यवहार, लोभ या दबाव से उतना नहीं पड़ता जितना मनुष्य के शरीर में रहने वाली बिजली के आदान-प्रदान से सम्भव होता है।
35-ताप और बिजली का गुण है कि जहां अनुकूलता होती है वह वहां अपना विस्तार करती और प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती है। प्राणवान शक्तिशाली व्यक्तित्व अपने से दुर्बलों को प्रभावित करते हैं। यों दुर्बल भी अपनी न्यूनता के कारण समर्थों में सहज करुणा उत्पन्न करते हैं और उन्हें कुछ देने के लिए विवश करते हैं। बच्चे को देखकर माता की छाती से दूध उतरने लगता है—मन हुलसने लगता है इस प्रकार शक्तिवान अपने से दुर्बलों को अनुदान देकर घाटे में नहीं रहते। उदारताजन्य आत्म-सन्तोष से उनकी क्षति पूर्ति भी हो जाती है। दूध पिलाने में माता को प्रत्यक्षतया घाटा ही है, पर वात्सल्यजन्य तृप्ति से उसकी भी भावनात्मक पूर्ति हो जाती है।
36-भावोद्रेक प्राणवान होने का ही लक्षण है ऐसे व्यक्ति शरीर से दुर्बल भी दिखाई दें तो भी उनका आत्मबल सब प्रकार से बढ़ा चढ़ा हुआ होता है और वे उन मोटे ताजे लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक नीरोग और सुखी होते हैं जो मांस की दृष्टि से तो बहुत भारी होते हैं पर प्राणवान् न होने के कारण न तो नीरोग रह पाते हैं न ही दूसरों के भावात्मक स्पर्श का आनन्द ले पाते हैं।
37-शरीर बल, बुद्धि बल, धन बल, शस्त्र बल, सत्ता बल आदि कितनी ही सामर्थ्यों के लाभ सर्वविदित हैं। यदि आत्मबल की क्षमता एवं उपयोगिता का भी लोगों को पता होता तो वे जानते कि यह उपलब्धि भी इन सबसे कम नहीं, वरन् कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। आत्मशक्ति न केवल व्यक्तित्व को तेजस्वी बनाती है वरन् बाह्य जगत में लोगों को प्रभावित करने—उनका सहयोग सम्पादन करने में समर्थ रहती है। कठिन कामों को सरलता पूर्वक सम्पन्न करने की विशेषता जिनमें देखी जाती है उनकी प्रमुख विशेषता यही आन्तरिक प्रतिभा होती है, जिस सर्वतोमुखी सफलताओं का आधार कह सकते हैं। हमारे प्रयत्न यदि उस क्षमता को प्राप्त करने की दिशा में चल पड़े तो सचमुच हम सच्चे अर्थों में सामर्थ्यवान कहे जा सकने योग्य बन सकते हैं।
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