top of page

Recent Posts

Archive

Tags

क्या है रंग और प्रकाश में अन्तर ?क्या प्रकाश में प्रवेश ही अध्यात्म है?


क्या है रंगो का इतिहास?

07 FACTS;-

1-रंग हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा हैं। रंगों के माध्यम से ही प्रकृति की हरियाली से लेकर सूरज की सुनहरी रोशनी, आसमान का नीलापन, बादलों की काली घटाएं और चंद्रमा का उजलापन देख पाते हैं। बादलों में खिंचती सात रंगों की इंद्रधनुषी रेखा प्रत्येक रंग की सुंदर कहानी बयां करती है। जिसे देखकर मन रंगीन दुनिया का हिस्सा बन जाता है। आज जो रंग या वर्ण हमारे जीवन को रंगीन बनाये हुए हैं और जिनके होने से रंग-बिरंगी उड़ती तितलियों का सुखद अहसास होता है। इनका जन्म कब कहां और कैसे हुआ इसकी जिज्ञासा हमेशा से बनी रही है।

2-क्या कहता है इतिहास...ऐसा माना जाता है कि रंगों का जन्म लगभग 2000 ईसा पूर्व हुआ। धीरे-धीरे रंगों की छटा पूरे विश्व में फैल गयी। भारत में प्रारंम्भिक काल से ही रंगों का विशेष महत्व रहा है। मोहन जोदड़ों एव हड़प्पा की खुदाई में सिंधु घाटी सभ्यता में बर्तन एवं मूर्तियां पायी गई। साथ ही लाल रंग का कपड़ा भी मिला।

3-इतिहास के जानकारों के मुताबिक इस पर मजीठ या मजीष्ठा की जड़ से तैयार किया गया रंग चढ़ हुआ था। पूर्व में हजारों वर्ष तक मजीठ की जड़ और बक्कम वृक्ष की छाल लाल रंग के स्रोत थे। पीपल, गूलर और पाकड़ जैसे वृक्षों पर लगने वाली लाख कृमियों की लाह से महाउर रंग तैयार किया जाता था। पीला रंग और सिंदुर हल्दी से प्राप्त होता था।

4-प्राचीन मिस्र में रंगो का उपयोग ‘उपचार रंग’ के रूप में भी किया गया। मिस्र निवासी सूर्य की उपासना किया करते थे। जिनका मानना था कि सूर्य के प्रकाश के बिना जीवन असम्भव है। उन्होंने प्रकृति के रंगो के मुताबिक ही अपने मंदिरों को भी रंगा हुआ था। नीले आसमानी रंग से उनको काफी लगाव था। इनके कक्ष भी विभिन्न रंगों से सजे होते थे।

5-न्यूटन ...रंगों की रहस्यमय रंगीन दुनिया को जानने के लिए वैज्ञानिक और दार्शनिक हमेशा से ही जिज्ञासु रहे। परंतु इसका सटीक अध्ययन सबसे पहले न्यूटन ने किया। जिन्होंने यह कहकर सनसनी फैला दी कि रंग एक नहीं सात होते हैं। इसको प्रमाणित करने के लिए उन्होंने एक प्रयोग किया जिसमें एक अंधेरे कमरे में छोटे से छेद द्वारा सूर्य का प्रकाश आता था। यह प्रकाश एक प्रिज्म़ कांच द्वारा अपवर्तित होकर सफेद पर्दे पर पड़ता था।

6-पर्दे पर सफेद प्रकाश के स्थान पर इद्रधनुष के सात रंग दिखाई दिये। ये रंग लाल, नारंगी, पीला, हरा, आसमानी, नीला तथा बैंगनी हैं। जब न्यूटन ने प्रकाश के मार्ग में एक और प्रिज्म़ पहले प्रिज्म़ से उलटा रखा, तो इन सात रंगों का प्रकाश मिलकर पुनः सफेद रंग प्रकाश बन गया। इन्हीं सात रंगों को इन्द्रधनुष नाम से जाना जाता है।

7-"जब भी कोई व्यक्ति अपनी स्वस्फुरणा से जीता है, कवि हो, चित्रकार हो, मूर्तिकार हो, नर्तक हो, या इनमें से कुछ भी न हो, दुनिया पहचान सके ऐसा कुछ भी न हो, बिल्कुल साधारण-सा व्यक्ति हो, फिर भी उसके जीवन में काव्य होता है, सौंदर्य होता है, संवेदनशीलता होती है, क्योंकि उसके भीतर समाधि होती है।"

क्‍या है रंग और प्रकाश में अन्तर?-

07 FACTS;-

1-इस जगत में किसी भी चीज में रंग नहीं है। पानी, हवा, अंतरिक्ष और पूरा जगत ही रंगहीन है। यहां तक कि जिन चीजों को आप देखते हैं, वे भी रंगहीन हैं। रंग केवल प्रकाश में होता है।

2-रंग वह नहीं है, जो वो दिखता है, बल्कि वह है जो वो त्यागता है। आप जो भी रंग बिखेरते हैं, वही आपका रंग हो जाएगा। आप जो अपने पास रख लेंगे, वह आपका रंग नहीं होगा। ठीक इसी तरह से जीवन में जो कुछ भी आप देते हैं, वही आपका गुण हो जाता है। अगर आप आनंद देंगे तो लोग कहेंगे कि आप एक आनंदित इंसान हैं।

3-प्रकाश स्वयं रंगहीन है। सारे रंग प्रकाश के हैं, परंतु प्रकाश का कोई रंग नहीं है। प्रकाश मात्र रंगों का अभाव है। प्रकाश सफेद है। सफेद कोई रंग नहीं होता। जब प्रकाश विभाजित किया जाता है, विश्लेषित, किया जाता है अथवा प्रिज्म में से गुजारा जाता है, तो वह सात रंगों में बंट जाता है। मन भी प्रिज्म की तरह ही काम करता है-एक आंतरिक प्रिज्म की भांति।

4-बाहर का प्रकाश यदि प्रिज्म में से निकाला जाए, तो सात रंगों में बंट जाता है। आंतरिक प्रकाश भी यदि मन से निकाला जाए, तो सात रंगों में बंट जाता है। इसलिए आंतरिक यात्रा में रंगों का अनुभव हो, तो इसका मतलब है कि आप अभी भी मन में ही है।

5-प्रकाश का अनुभव मन से अतीत है, किंतु रंगों का अनुभव मन के भीतर है। यदि आपको अभी भी रंग ही दिखलाई पड़ते हैं, तो आप अभी मन में ही हैं। मन का अतिक्रमण अभी नहीं हुआ। इसलिए, पहली बात जो स्मरण रखने की है, वह यह है कि रंगों का अनुभव मन के भीतर ही है, क्योंकि मन प्रिज्म की तरह काम करता है, जिसमें से कि आंतरिक प्रकाश को बांटा जा सकता है। इसलिए सबसे पहले कोई रंगों को अनुभव करना प्रारंभ करता है। फिर रंग विलीन हो जाते हैं और केवल प्रकाश ही रह जाता है।

6-प्रकाश सफेद होता है। सफेद कोई रंग नहीं है। जब सारे प्रकाश एक हो जाते हैं, जब सारे रंग एक हो जाते हैं, तब सफेद निर्मित होता है।

जब सारे रंग मौजूद हों-अविभाजित, तब आप सफेद का अनुभव करते हैं। जब कोई रंग न हो, तब आप काले का अनुभव करते हैं। काला व सफेद दोनों ही रंग नहीं है। जब कोई रंग नहीं है, तब काला होता है। जब सारे रंग उपस्थित हों तो फिर सफेद है। और बाकी सारे रंग केवल विभाजित प्रकाश हैं।

7-इसलिए यदि आप भीतर रंगों को अनुभव करते हैं, तो फिर आप मन में हैं। अतः रंगों का अनुभव मानसिक है, वह आध्यात्मिक नहीं है। प्रकाश का अनुभव आध्यात्मिक है, किंतु रंगों का नहीं, क्योंकि जब मन नहीं है तो आप रंगों का अनुभव नहीं कर सकते। तब केवल प्रकाश का अनुभव होता है।

इन्द्रधनुषी रंगो के नामः-

विश्व की प्रत्येक सभ्यता ने रंगों का नामकरण अपनी समझ के अनुसार किया है। जिसका विभाजन दो भागों में किया गया है पहला हल्का यानि सफेद, दूसरा काला अर्थात चटक।

1-लालः

लाल रंग को रक्त रंग भी कहा जाता है। लाल रंग प्रकाश का संयोजी प्राथमिक रंग है। यह वर्ण हमारे मन आत्मविश्वास और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।

2-नारंगीः

यह रंग नारंगी फल के छिलके के रंग जैसा दिखता है। भारतीय तिरंगे में इस रंग का प्रयोग किया गया है। इस रंग से हमें त्याग की भावना आती है।

3-पीलाः

इस रंग में लाल और हरे रंग की मात्रा ज्यादा होती है एवं नीला वर्ण कम होता है। पीला रंग शुद्ध एवं सात्विक प्रवृत्ति का परिचायक है। यह रंग शुद्धता एवं निर्मलता का प्रतीक है।

4-हराः

यह इंद्रधनुष का चौथा रंग है। भारतीय तिरंगे में भी इस रंग का उपयोग किया गया है। यह रंग प्रकृति से संबंध और सम्पन्नता को दर्शाता है।

5-आसमानी रंगः

आसमान का रंग होने के कारण इसे आसमानी रंग कहा जाता है। इस रंग में नीले और सफेद रंग का मिश्रण होता है। यह द्वितीयक रंग के नाम से भी जाना जाता है।

6-नीलाः

इस रंग को प्राथमिक रंग भी कहा जाता है। भारत के राष्ट्रीय खेलों में भी नीला रंग प्रयोग किया जाता है। यह धर्म-निरपेक्षता को दर्शाता है।

7-बैंगनी रंगः

इन्द्रधनुष के रंगो का यह सातवां और अंतिम रंग है। जिसका नाम एक सब्जी बैंगन के आधार पर रखा गया है।

क्‍या है रंगों का असर?-

03 FACTS;-

1-रंगों में तीन रंग सबसे प्रमुख हैं- लाल, हरा और नीला। इस जगत में मौजूद बाकी सारे रंग इन्हीं तीन रंगों से पैदा किए जा सकते हैं।हर रंग का आपके ऊपर एक खास प्रभाव होता है ।कुछ लोग रंग-चिकित्सा यानी कलर-थेरेपी भी कर रहे हैं। वे इलाज के लिए अलग-अलग रंगों के पानी की बोतलों का प्रयोग करते हैं, क्योंकि रंगों का आपके ऊपर एक खास किस्म का प्रभाव होता है।

2-यह दुनिया रंग-बिरंगी या कहें कि सतरंगी है। सतरंगी अर्थात सात रंगों

वाली।लेकिन रंग तो मूलत: पांच ही होते हैं- कला, सफेद, लाल, नीला और पीला। काले और सफेद को रंग मानना हमारी मजबूरी है जबकि यह कोई रंग नहीं है। इस तरह तीन ही प्रमुख रंग बच जाते हैं- लाल, पीला और नीला।

3-आपने आग जलते हुए देखी होगी- उसमें यह तीन ही रंग दिखाई देते हैं। हालांकि विज्ञान पीले की जगह हरे रंग को मान्यता देता है।

जब कोई रंग बहुत फेड हो जाता है तो वह सफेद हो जाता है और जब कोई रंग बहुत डार्क हो जाता है तो वह काला पड़ जाता है। लाल रंग में अगर पीला मिला दिया जाए, तो वह केसरिया रंग बनता है। नीले में पीला मिल जाए, तब हरा रंग बन जाता है। इसी तरह से नीला और लाल मिलकर जामुनी बन जाते हैं। आगे चलकर इन्हीं प्रमुख रंगों से हजारों रंगो की उत्पत्ति हुई।

क्‍या है सात चक्र के रंग?-

05 FACTS;-

1-शास्त्र अनुसार हमारे शरीर में स्थित है सात प्रकार के चक्र। यह सातों चक्र हमारे सात प्रकार के शरीर से जुड़े हुए हैं। सात शरीर में से प्रमुख है तीन शरीर- भौतिक, सूक्ष्म और कारण। भौतिक शरीर लाल रक्त से सना है जिसमें लाल रंग की अधिकता है। सूक्ष्म शरीर सूर्य के पीले प्रकाश की तरह है और कारण शरीर नीला रंग लिए हुए है।

2-चक्रों के नाम ...मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार। मूलाधार चक्र हमारे भौतिक शरीर के गुप्तांग, स्वाधिष्ठान चक्र उससे कुछ ऊपर, मणिपुर चक्र नाभि स्थान में, अनाहत हृदय में, विशुद्धि चक्र कंठ में, आज्ञा चक्र दोनों भौंओ के बीच जिसे भृकुटी कहा जाता है और सहस्रार चक्र हमारे सिर के चोटी वाले स्थान पर स्थित होता है। प्रत्येक चक्र का अपना रंग है।

3-कहते हैं कि आत्मा का कोई रंग नहीं होता वह तो पानी की तरह रंगहीन है। लेकिन नहीं ... 'आत्मा' का भी रंग होता है। यह शोध और शास्त्र कहते हैं कि आत्मा का भी रंग होता है! -कुछ ज्ञानीजन मानते हैं कि नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं आत्मा का रंग है। नीले रंग के प्रकाश के रूप में आत्मा ही दिखाई पड़ती है और पीले रंग का प्रकाश आत्मा की उपस्थिति को सूचित करता है।संपूर्ण जगत में नीले रंग की अधिकता है। धरती पर 75

प्रतिशत फैले जल के कारण नीले रंग का प्रकाश ही फैला हुआ है तभी तो हमें आसमान नीला दिखाई देता है। कहना चाहिए ‍कि कुछ-कुछ आसमानी है आत्मा।

4-ध्यान के द्वारा आत्मा का अनुभव किया जा सकता है। शुरुआत में ध्यान करने वालों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं। पहले भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर अंधेरा दिखाई देने लगता है। अंधेरे में कहीं नीला और फिर कहीं पीला रंग दिखाई देने लगता है।

5-यह गोलाकार में दिखाई देने वाले रंग हमारे द्वारा देखे गए दृश्य जगत का रिफ्‍लेक्शन भी हो सकते हैं और हमारे शरीर और मन की हलचल से निर्मित ऊर्जा भी। गोले के भीतर गोले चलते रहते हैं जो कुछ देर दिखाई देने के बाद अदृश्य हो जाते हैं और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है। यह क्रम चलता रहता है।जब नीला रंग आपको

अच्छे से दिखाई देने लगे तब समझे की आप स्वयं के करीब पहुंच गए हैं।

क्‍या है रंगो का महत्व?-

1-लाल रंग;-

03 FACTS;-

1-जो रंग सबसे ज्यादा आपका ध्यान अपनी ओर खींचता है वो है लाला रंग, क्योंकि सबसे ज्यादा चमकीला लाल रंग ही है।बहुत सी चीजें जो आपके लिए महत्वपूर्ण होती हैं, वे लाल ही होती हैं। रक्त का रंग लाल होता

है।उगते सूरज का रंग भी लाल होता है। मानवीय चेतना में अधिकतम कंपन लाल रंग ही पैदा करता है। जोश और उल्लास का रंग लाल ही है।

2-आप कैसे भी व्यक्ति हों, लेकिन अगर आप लाल कपड़े पहनकर आते हैं तो लोगों को यही लगेगा कि आप जोश से भरपूर हैं, भले ही आप हकीकत में ऐसे न हों। इस तरह लाल रंग के कपड़े आपको अचानक जोशीला बना देते है।

3-देवी (चैतन्य का नारी स्वरूप) इसी जोश और उल्लास का प्रतीक हैं। उनकी ऊर्जा में भरपूर कंपन और उल्लास होता है। देवी से संबंधित कुछ खास किस्म की साधना करने के लिए लाल रंग की जरूरत होती है।

2-नीला रंग;-

02 FACTS;-

1-नीला रंग सबको समाहित करके चलने का रंग है। आप देखेंगे कि इस जगत में जो कोई भी चीज बेहद विशाल और आपकी समझ से परे है, उसका रंग आमतौर पर नीला है, चाहे वह आकाश हो या समुंदर।

जो कुछ भी आपकी समझ से बड़ा है, वह नीला होगा, क्योंकि नीला रंग सब को शामिल करने का आधार है।

2- श्रीकृष्ण के शरीर का रंग नीला माना जाता है। इस नीलेपन का मतलब जरूरी नहीं है कि उनकी त्वचा का रंग नीला था। हो सकता है, वे श्याम रंग के हों, लेकिन जो लोग जागरूक थे, उन्होंने उनकी ऊर्जा के नीलेपन को देखा और उनका वर्णन नीले वर्ण वाले के तौर पर किया। श्रीकृष्ण की प्रकृति के बारे में की गई सभी व्याख्‍याओं में नीला रंग आम है, क्योंकि उनका स्वभाव सभी को साथ लेकर चलने वाला था।

3-काला रंग;-

02 FACTS;-

1- काला रंग कुछ भी परावर्तित नहीं करता , सब कुछ सोख लेता है।

अगर आप लगातार लंबे समय तक काले रंग के कपड़े पहनते हैं और तरह-तरह की स्थितियों के संपर्क में आते हैं तो आप देखेंगे कि आपकी ऊर्जा कुछ ऐसे घटने-बढऩे लगेगी कि वह आपके भीतर के सभी भावों को सोख लेगी और आपकी मानसिक हालत को बेहद अस्थिर और असंतुलित कर देगी।

2-लेकिन अगर आप किसी ऐसी जगह हैं, जहां एक विशेष कंपन और शुभ ऊर्जा है तो आपके पहनने के लिए सबसे अच्छा रंग काला है क्योंकि ऐसी जगह से आप शुभ ऊर्जा ज्यादा से ज्यादा आत्मसात करना चाहेंगे। शिव को हमेशा काला माना जाता है क्योंकि उनमें खुद को बचाए रखने की भावना नहीं है, इसलिए वह हर चीज को ग्रहण कर लेते हैं, किसी भी चीज का विरोध नहीं करते। यहां तक कि जब उन्हें विष दिया गया तो उसे भी उन्होंने सहजता से पी लिया।

4-सफेद रंग;-

02 FACTS;-

1-सफेद यानी श्वेत दरअसल कोई रंग ही नहीं है। कह सकते हैं कि अगर कोई रंग नहीं है तो वह श्वेत है। लेकिन साथ ही श्वेत रंग में सभी रंग होते हैं। तो जो लोग आध्यात्मिक पथ पर हैं और जीवन के तमाम दूसरे पहलुओं में भी उलझे हैं, वे अपने आसपास से कुछ बटोरना नहीं चाहते।

वे जीवन में हिस्सा लेना चाहते हैं, लेकिन कुछ भी इकट्ठा करना नहीं चाहते। आप इस दुनिया से निर्लिप्त होकर निकल जाना चाहते हैं। इस काम में श्वेत रंग आपकी मदद करता है, क्योंकि सफेद रंग सब कुछ बाहर की ओर बिखेरता है, कुछ भी पकडक़र नहीं रखता है।

2-ऐसे बन कर रहना अच्छी बात है। इसलिए जब आप आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ते हैं और कुछ खास तरह से जीवन के संपर्क में आते हैं, तो सफेद वस्त्र पहनना सबसे अच्छा होता है। पहनावे के मामले में या आराम के मामले में, आप पाएंगे कि अगर एक बार आप सफेद कपड़े पहनने के आदी हो गए, तो दूसरे रंग के कपड़े पहनने में कहीं न कहीं अंतर आ ही जाएगा।

5-गेरुआ रंग;-

02 FACTS;-

1-यह रंग एक प्रतीक है। सुबह-सुबह जब सूर्य निकलता है, तो उसकी किरणों का रंग केसरिया होता है या जिसे भगवा, गेरुआ या नारंगी रंग भी

कह सकते हैं ।यही दिखाने के लिए आप गेरुआ रंग पहनते हैं कि आपके जीवन में एक नया सवेरा हो गया है। दूसरी चीज है बाहरी दुनिया। जब आप यह रंग पहनते हैं तो लोग जान जाते हैं कि यह सन्यासी है। ऐसे में आप से क्या बात करनी है और क्या बात नहीं करनी है, इसे लेकर भी वे थोड़े सावधान रहते हैं, तो इस तरह दुनिया से आपको मदद मिलती है।

2- हर चक्र का एक रंग होता है। हमारे शरीर में मौजूद सातों चक्रों का अपना एक अलग रंग है। भगवा या गेरुआ रंग आज्ञा चक्र का रंग है और आज्ञा ज्ञान-प्राप्ति का सूचक है। तो जो लोग आध्यात्मिक पथ पर होते हैं, वे उच्चतम चक्र तक पहुंचना चाहते हैं इसलिए वे इस रंग को पहनते हैं। साथ ही आपके आभामंडल का जो काला हिस्सा होता है, उसका भी इस रंग से शु़द्धीकरण हो जाता है।

क्या है वैराग्य -जो रंगों से परे है?

03 FACTS;-

1-। 'वैराग्य', वि+राग से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ राग से विलग होना है।वैराग्य का अर्थ है, खिंचाव का अभाव।राग का अर्थ है रंग। रंग से जो परे है, वह रंगहीन नहीं है, वह पारदर्शी है।

वैराग्य का मतलब है कि आप न तो कुछ रखते हैं और न ही कुछ परावर्तित करते हैं, यानी आप पारदर्शी हो गए हैं। अगर आप पारदर्शी हो गए हैं तो आपके पीछे की कोई चीज अगर लाल है, तो आप भी लाल हो जाते हैं। अगर आपके पीछे मौजूद कोई चीज नीली है, तो आप भी नीले हो जाते हैं। आपके भीतर कोई पूर्वाग्रह होता ही नहीं। आप जहां भी होते हैं, उसी का हिस्सा हो जाते हैं, लेकिन किसी भी चीज में फंसते नहीं हैं। 2-अगर आप लाल रंग के लोगों के बीच हैं, तो आप पूरी तरह से लाल हो सकते हैं, क्योंकि आप पारदर्शी हैं लेकिन वह रंग एक पल के लिए भी आपसे चिपकता नहीं। इसीलिए अध्यात्म में वैराग्य पर इतना जोर दिया जाता है।दुनिया के रंगमंच पर शानदार अभिनय के लिए इंसान को खुद को उच्चतर आयामों में विकसित करना होगा। हम जीवन की संपूर्णता को, जीवन के असली आनंद को तब तक नहीं जान पाएंगे जब तक हम उस आयाम तक न पहुंच जाएं जो राग व रंगों से परे है।

3-वैराग्य-महल की बुनियादी ईंट निष्काम चित्त है। कामना-शून्य होना एक कठिन काम है। हर आदमी कामनाओं की एक हरीभरी फसल होता है।

गीता में दो मार्ग है...

(1) प्रवृत्ति मार्ग (2)निवृत्ति मार्ग

प्रवृत्ति मार्ग में इन्द्रियों में मन लगाकर कर्मेन्द्रियों से कार्य करता रहता है-'भोगी' ,निवृत्ति मार्ग में प्राण की गति उलटी करके इन्द्रियों में मन न लगाकर कर्म करते रहता है-'योगी'।हमें श्रेय व प्रेय मार्ग वाले जीवनों में से से किसी एक का चयन करना है। दोनों का सन्तुलन ही सामान्य मनुष्य के लिए उत्तम है। जिनमें इस संसार को जानकर वैराग्य उत्पन्न हो जाता है।

क्या है रंगों का मनोविज्ञान ?-

10 FACTS;-

1-प्रकाश का अनुभव एक जैसा है, किंतु रंगों का अनुभव भिन्न-भिन्न है और श्रंखला भी भिन्न है।रंगों की कोई निश्चित श्रंखला नहीं है। हो भी नहीं सकती, क्योंकि प्रत्येक मन भिन्न है। किंतु प्रकाश का अनुभव भिन्न नहीं हो सकता,बिल्कुल एक जैसा है। प्रकाश का अनुभव चाहे बुद्ध करते हों,या जीसस, अनुभव वही है।

2-मन ही भेद निर्मित करता है ।हम सब अलग-अलग हैं-हमारे मन के कारण। यदि मन नहीं है तो वह जो कि बांटता है जो कि भिन्नता पैदा

करता है, नहीं है। प्रत्येक धर्म में अलग-अलग श्रंखला दी गई है। कोई विश्वास करते हैं कि यह रंग पहले आता है और वह रंग आखिर में आता है। दूसरे बिल्कुल ही अलग विश्वास करते हैं। वह भेद वस्तुतः मनों का भेद है।

3-उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति जो कि भयभीत है, जो कि गहराई से जड़ों तक भयातुर है, वह पीले रंग का सबसे पहले अनुभव करेगा। पहला जो रंग आएगा वह पीला होगा, क्योंकि पीला मृत्यु का रंग है-प्रतीकात्मक

रूप से नहीं, वरन वस्तुतः भी।यदि आप तीन बोतलें लें-एक लाल, एक पीली, और एक सफेद बिना किसी रंग की-और इसमें खाली पानी भर दें, तो पीले रंग की बोतल का पानी सब से पहले सड़ेगा, फिर बाद में दूसरी बोतलों का सड़ेगा। लाल रंग की बोतल का पानी सबसे अंत में सड़ेगा।

4-पीला मृत्यु का रंग है। इसीलिए बुद्ध ने अपने भिक्षुओं के लिए पीले रंग के वस्त्र चुने, क्योंकि बुद्ध कहते हैं कि इस अस्तित्व से बिल्कुल मर जाना ही निर्वाण है। इसलिए पीला रंग मृत्यु-रंग की तरह चुना गया।हिंदुओं

ने अपने संन्यासियों के लिए गेरुए रंग को चुना जो कि लाल का ही शेड (प्रकार) है, क्योंकि लाल अथवा गेरुआ प्रकाश का रंग है, जो कि पीले के विपरीत है। यह आपको अधिक जीवंत, अधिक चमकीला होने में मदद करता है।

5-गेरुआ रंग ज्यादा ऊर्जा पैदा करता है-प्रतीकात्मक रूप से नहीं बल्कि वास्तव में, भौतिक रूप से तथा रासायनिक रूप से भी। इसलिए जो व्यक्ति ज्यादा शक्तिशाली जीवंत व जीवन के प्रति अधिक प्रेम से भरा हो, वह सर्वप्रथम लाल रंग का अनुभव करेगा, क्योंकि उसका मन लाल के प्रति ज्यादा खुला होगा। एक भय-केंद्रित व्यक्ति पीले के प्रति ज्यादा खुला होगा। इसलिए श्रंखला भिन्न-भिन्न होगी। एक बहुत शांत आदमी, जो कि बहुत कुछ स्थिर है वह नीले रंग का सर्वप्रथम अनुभव करेगा। अतः यह सब निर्भर करेगा मन की वृत्ति पर, स्थिति पर।

6-यह कोई निश्चित श्रंखला नहीं है, क्योंकि तुम्हारे मन की कोई निश्चित श्रंखला नहीं है। प्रत्येक चित्त भिन्न है अपने केंद्र में, अपनी प्रवृत्तियों में, अपनी बनावट में, अपने चरित्र में। प्रत्येक मन अलग-अलग है। इन भिन्नताओं के कारण, श्रंखला भी भिन्न होगी। किंतु एक बात तय है कि प्रत्येक रंग का एक निश्चित अर्थ है।

7-श्रंखला निश्चित नहीं है; वह हो भी नहीं सकती। लेकिन रंग का अर्थ निश्चित है। उदाहरण के लिए, पीला मृत्यु का रंग है। इसलिए जब कभी वह पहला हो, तो उसका अर्थ होता है कि आप भय-केंद्रित व्यक्ति हैं। आपके मन का प्रथम द्वार भय के लिए है। अतः आप जब भी चल रहे होंगे, तो पहली चीज जो आपके ध्यान में आएगी वह भय होगा, अथवा आपके मन की पहली प्रतिक्रिया जो कि किसी भी नई स्थिति में होगी, वह भय की होगी। जब कभी कुछ भी विचित्र होगा, तो प्रथम संवेदन उसके प्रति भयपूर्ण होगा।

8-यदि लाल रंग प्रथम है आपकी अंतर्यात्रा में, तो आप जीवन के प्रति अधिक प्रेम से भरे हैं, और आपकी प्रतिक्रियाएं भिन्न होंगी। आप अधिक जीवंत होंगे, और आपकी प्रतिक्रियाएं जीवन के प्रति अधिक सहमति की

होंगी।एक व्यक्ति जिसका कि प्रथम अनुभव पीले का है, वह प्रत्येक चीज की मृत्यु के अर्थों में विवेचना करेगा, और जो व्यक्ति लाल रंग का प्रथम अनुभव करेगा, वह सदैव अपने अनुभवों को जीवन के अर्थों में बतलाएगा। 9-यहां तक कि यदि एक आदमी मर भी रहा हो, तो भी वह सोचेगा कि वह कहीं न कहीं फिर से पैदा होगा। मृत्यु में भी वह पुनर्जन्म की विवेचना करेगा। परंतु जिस व्यक्ति का पहला अनुभव पीले का होगा, यदि कोई जन्म भी ले रहा होगा, तो भी वह सोचने लगेगा कि वह एक दिन मर रहा होगा..ये रुख होंगे। अतः लाल रंग-केंद्रित व्यक्ति मृत्यु में भी प्रसन्न रह सकता है, किंतु पीला रंग-केंद्रित व्यक्ति जन्म में भी प्रसन्न नहीं हो सकता। वह निषेधात्मक होगा।

10-भय निषेधात्मक भाव है। सब जगह वह कुछ न कुछ ऐसा खोज लेगा, जो कि उदासीनता पूर्ण व निषेधात्मक हो।उदाहरण के लिए,एक बहुत शांत

व्यक्ति नीले रंग का अनुभव करेगा, किंतु इसका अर्थ है एक शांत व्यक्ति जो ..निष्क्रिय भी है।परंतु एक और शांत व्यक्ति जो सक्रिय भी है, वह हरे रंग का अनुभव पहले करेगा।

11-मोहम्मद साहब ने अपने फकीरों के लिए हरे रंग का चुनाव किया। इस्लाम का प्रतीकात्मक रंग हरा है। वह उनके झंडे का रंग है। हरा दोनों हैः शांत, स्थिर, किंतु सक्रिय भी। नीला शांत है, परंतु निष्क्रिय। अतएव इसलिए लाओत्सू जैसा व्यक्ति नीला रंग सबसे पहले अनुभव करेगा। एक मोहम्मद साहब की तरह का व्यक्ति सबसे पहले हरे रंग का अनुभव करने लगेगा। इसलिए रंगों का प्रतीकात्मक ढंग एक निश्चित चीज है, किंतु श्रंखला निश्चित नहीं है।

12-एक और बात भी ख्याल में रखनी है और वह है सात रंग शुद्ध रंग हैं। किंतु आप दो को या तीन रंगों को मिला सकते हैं और एक नया रंग उससे निकल सकता है। इसलिए ऐसा हो सकता है कि आपको प्रारंभ में शुद्ध रंग का अनुभव न हो। आप दो, तीन या चार रंगों का मिश्रण अनुभव कर सकते हैं। फिर यह आपके मन पर निर्भर करता है। यदि आपका मन बहुत ज्यादा उलझन से भरा है, तो आपका यह उलझाव रंगों में दिखलाई पड़ेगा।

13-मनोविज्ञान में मनोविदों ने रंग-परीक्षण की विधि बताई है और वह बहुत अर्थपूर्ण सिद्ध हो रही है। आपको रंग दे दिए जाते हैं और फिर उनमें से अपनी पसंद के अनुसार पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा रंग चुनने को कहा जाता है और यह बहुत कुछ बतलाता है। यदि आप सच्चे व ईमानदार हैं, तो यह आपके मन के बाबत कुछ खबर देता है, क्योंकि आप बिना आंतरिक कारण के चुनाव नहीं कर सकते। यदि आप प्रथम पीला चुनते हैं, तो लाल अंतिम होगा। यह उनका अपना तर्क है।

14-यदि मृत्यु (रंग) आपका प्रथम है तो जीवन आपका अंतिम होगा। और आप लाल को अंत में रखेंगे। और जो कोई लाल को प्रथम चुनेगा, वह अपने आप ही पीले को अंतिम चुनेगा। और वह जो क्रम होगा, वह मन की बनावट को बतलाएगा। परंतु आपको बार-बार अवसर दिया जाता है कि आप एक बार, दो बार, तीन बार चुनाव करें।और यह बड़ा विचित्र है...

पहली बार आप पीले का चुनाव प्रथम करते हैं। दूसरी बात फिर आपको वे ही कार्ड दिए जाते हैं। परंतु आप पीले को प्रथम नहीं चुनते और तीसरी बार आप कुछ और ही चुन लेते हैं और तब सारी श्रंखला ही बदल जाती है।

15-इसलिए सात बार कार्ड दिए जाते हैं। यदि कोई आदमी सातों बार पीले को ही चुनता चलता जाता है, अपनी प्रथम पसंदगी की तरह तो फिर यह एक बहुत निश्चित मन को दर्शाता है-बहुत कुछ स्थिर-तय। यह आदमी बराबर भय में डूबा रहता है। यह बहुत प्रकार के भयों में रह रहा होगा, क्योंकि उसके समक्ष हर चीज भयप्रद रूप ले लेगी। किंतु उसे पुनः सात बार कार्ड चुनवा करने को दिए जाएं और अब वह बदल जाता है कि एक बार नीला, एक बार हरा और फिर कुछ और तो फिर दो धाराएं हैं।

16-एक रंग को ही सात की पहली धारा में सात बार चुना गया और दूसरी धारा में हर बार अलग-अलग रंग चुने गए, यह भी बहुत कुछ बतलाता है। यदि दूसरी धारा में वह दोबारा एक ही रंग प्रथम पसंद की तरह नहीं दोहराता है तो वह यह बतलाता है कि वह बहुत डांवांडोल आदमी है और निश्चित होकर उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। उसके बारे में पहले से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। धारा भी बदल जाती है, क्योंकि उसका मन निरंतर बदलता रहता है।

17- ड्रग्‍स आदि नशीले पदार्थों की वजह से बहुत-सी बातें अचेतन मन से ऊपर आई हैं।ड्रग्‍स लेने के बाद ,जब एक व्यक्ति ने स्वयं के अनुभव कहे, तो उसने बतलाया कि जैसे वह स्वर्ग में पहुंच गया। प्रत्येक चीज बहुत सुंदर रंगीन, कल्पनाजन्य, और काव्यात्मक थी। उसमें कुछ भी तो बुरा नहीं था। उसमें कुछ भी दुःस्वप्न जैसा-कुछ भी भयपूर्ण या मृत्यु के जैसा नहीं था। हर चीज जीवंत थी, भरपूर जीवंत व समृद्ध। किंतु जब दूसरे ने ड्रग्‍स लिया तो वह नरक में प्रवेश कर गया। और वह एक लंबा दुःस्वप्न था जो कि भय से भरा हुआ था।

18-दोनों ने अपने-अपने अनुभवों को बतलाया है।एक ने स्वर्ग का अनुभव बतलाया और दूसरे ने बिल्कुल ही विपरीत बात कही । उसने कहा कि यह मात्र एक दुःस्वप्न है, एक गहन भय। किसी को भी इसमें नहीं जाना चाहिए। यह पागल कर सकती है। परंतु दोनों की विवेचना एक समान बात बतलाती है कि 'ड्रग्‍स' वह वस्तु है, जिसके कारण से यह अनुभव हुआ है।

19-वास्तविकता बिल्कुल भिन है। 'ड्रग्‍स' एक कैटेलिटिक एजेंट की तरह से कार्य करती है।न स्वर्ग निर्मित कर सकती है और न किसी नरक का निर्माण कर सकती है।यह तो सिर्फ आपको उघाड़ सकती है, और जो कुछ भी आपके भीतर छिपा है, प्रक्षेपित हो जाता है। इसलिए यदि एक का अनुभव रंगहीन है, तो उसके अपने मन के कारण है। और यदि दूसरे का अनुभव रंगपूर्ण है, तो वह भी उसके मन के कारण है।

20-नशीले पदार्थ तो सिर्फ आपको अपने मन की आंतरिक खबर देती है। वह आपके अपने मन की गहरी पर्तों को खोल सकती है। यदि आपके भीतर बहुत दबाया गया अचेतन मन है, तो आप नरक में प्रवेश कर सकते हैं; और यदि आपके पास कुछ भी दमित नहीं है, एक सहज मन है तो आप स्वर्ग में प्रवेश कर जाते हैं। परंतु यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपके पास किस तरह का मन है।

21-जब कोई आंतरिक यात्रा पर जाता है, तो वही बात होती है।इसे याद रखें कि जो कुछ भी आप देखते हैं, वह आपका ही मन होता है।

रंग पर श्रंखला भी आपके अपने मन की श्रंखला ही है। किंतु रंगों के पार जाना होता है। कुछ भी क्रम क्यों न हो, उसके पार जाना ही पड़ता है। इसलिए एक बात का सदैव स्मरण रखना चाहिए कि रंग केवल मानसिक हैं। वे बिना मन के नहीं हो सकते मन ही है जो प्रिज्म की तरह काम कर रहा होता है।

22-जब आप मन के पार जाते हैं, तो प्रकाश होता है-बिना किसी रंग के, बिल्कुल सफेद। और जब यह सफेदपन होने लगे, तभी समझें कि आप मन के पार जाने लगे। जैनों ने अपने साधुओं व साध्वियों के लिए सफेद रंग चुना, और यह चुनाव अर्थपूर्ण है। जैसे कि बौद्धों ने पीला और हिंदुओं ने गेरुआ चुना, जैनों ने सफेद चुना, क्योंकि वे कहते हैं, जब सफेद शुरू होता है, तभी केवल अध्यात्म का प्रारंभ होता है।

23-मोहम्मद साहब ने हरा रंग चुना, क्योंकि उन्होंने कहा कि यदि शांति मृत है, तो फिर अर्थहीन है। शांति को सक्रिय होनी चाहिए। उसे तो जगत में भाग लेना चाहिए। इसलिए एक साधु को सिपाही भी होना चाहिए। अतएव मोहम्मद साहब ने हरा चुना। सारे रंग अर्थपूर्ण है।

24-एक सूफी परंपरा है जो कि काले का इस्तेमाल करता हैं-काले कपड़े काम में लाता है अपने फकीरों के लिए। काला भी बहुत ही अर्थपूर्ण है। यह अभाव बतलाता है-कोई रंग नहीं। सब कुछ गैर-हाजिर है। यह सफेद का बिल्कुल उलटा है। सूफी कहते हैं कि जब तक हम बिल्कुल ही अनुपस्थित न हो जाएं, परमात्मा हमारे लिए उपस्थित नहीं हो सकता। इसलिए काले की तरह होना चाहिए-बिल्कुल गैर-हाजिर, कुछ नहीं होना, न कुछ हो जाना, एक शून्य की भांति।

25-इसलिए, उन्होंने काले रंग को चुना ...काले की तरह होना चाहिए-बिल्कुल गैर-हाजिर, कुछ नहीं होना, न कुछ हो जाना, एक शून्य की

भांति। रंग बड़े महत्वपूर्ण हैं। आप जो कुछ भी चुनते हैं, उससे बहुत कुछ पता चलता है। यहां तक कि आपके कपड़े भी बहुत कुछ संकेत करते हैं। कुछ भी सांयोगिक नहीं है। यदि आपने अपने कपड़ों के लिए कोई खास रंग चुना है, तो वह संयोगिक नहीं है। आपको भले ही पता न हो कि आपने वह रंग क्यों चुना, परंतु विज्ञान को पता है और वह बहुत कुछ बतलाता है।

26-आपके कपड़े बहुत कुछ बतलाते हैं, क्योंकि वे आपके मन के हिस्से हैं और आपका मन चुनाव करता है।आप बिना अपने मन के झुकाव के,

कुछ आदतों के, कुछ भी चुन नहीं सकते। इसलिए श्रंखला भिन्न होगी, किंतु सारी श्रंखलाएं और सारे रंग आपके मन से संबंधित हैं। इसलिए उनकी ज्यादा परवाह न करें।जो भी रंग प्रतीत हो बस गुजर जाए

उससे, उसे पकड़ें नहीं। उसको पकड़ रखना प्राकृतिक स्वभाव है।

27-यदि कोई सुंदर रंग नजर आता है, तो हम फौरन उससे चिपक जाते हैं। ऐसा न करें। नहीं। इसे स्मरण रखें कि रंग मन से संबंधित है, और यदि कोई रंग भयपूर्ण है, तो कोई उससे लौट सकता है, ताकि वह अनुभव में न आए। यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि आप वापस लौट जाते हैं तो कोई रूपांतरण संभव नहीं है। उससे गुजर जाएं। कोई रंग चाहे भयपूर्ण, बदसूरत, अराजक, सुंदर या लयबद्ध जो कुछ भी क्यों न हो, उसके पार चले जाएं।आपको उस बिंदु को पहुंच जाना है,जहां कि रंग नहीं हैं वरन

खाली प्रकाश बच रहता है। उस प्रकाश में प्रवेश ही अध्यात्म है, उसके पहले कुछ भी नहीं।

....SHIVOHAM...

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;''''

तेज, पदम और शुक्ल–ये तीन धर्म-लेश्याएं हैं।इन तीनों से युक्त जीव सदगति में उत्पन्न होता है।’ ध्यान रहे, शुभ्र लेश्या के पैदा हो जाने पर भी जन्म होगा। अच्छी गति होगी, सदगति होगी, साधु का जीवन होगा। लेकिन जन्म होगा क्योंकि लेश्या अभी भी बाकी है, थोड़ा-सा बंधन शुभ्र का बाकी है। इसलिए पूरा विज्ञान विकसित हुआ था प्राचीन समय में–मरते हुए आदमी के पास ध्यान रखा जाता था कि उसकी कौन सी लेश्या मरते क्षण में है, क्योंकि जो उसकी लेश्या मरते क्षण में है, उससे अंदाज लगाया जा सकता है कि वह कहां जायेगा, उसकी कैसी गति होगी।सभी लोगों के मरने पर लोग रोते नहीं थे, लेश्या देखकरअगर कृष्ण-लेश्या हो तो ही रोने का कोई अर्थ है। अगर कोई अधर्म लेश्या हो तो रोने का अर्थ है, क्योंकि यह व्यक्ति फिर दुर्गति में जा रहा है, दुख में जा रहा है, नरक में भटकने जा रहा है। तिब्बत में बारदो पूरा विज्ञान है, और पूरी कोशिश की जाती थी कि मरते क्षण में भी इसकी लेश्या बदल जाये, तो भी काम का है। मरते क्षण में भी इसकी लेश्या काली से नील हो जाए, तो भी इसके जीवन का तल बदल जायेगा। क्योंकि जिस क्षण में हम मरते हैं–जिस ढंग से, जिस अवस्था में–उसी में हम जन्मते हैं। ठीक वैसे, जैसे रात आप सोते हैं, तो जो विचार आपका अंतिम होगा, सुबह वही विचार आपका प्रथम होगा।इसे आप प्रयोग करके देखें। बिलकुल आखिरी विचार रात सोते समय जो आपके चित्त में होगा, जिसके बाद आप खो जायेंगे अंधेरे में नींद के–सुबह जैसे ही जागेंगे, वही विचार पहला होगा। क्योंकि रातभर सब स्थगित रहा, तो जो रात अंतिम था वही पहले सुबह प्रथम बनेगा। बीच में तो गैप है, अंधकार है, सब खाली है। इसलिए हमने मृत्यु को महानिद्रा कहा है। इधर मृत्यु के आखिरी क्षण में जो लेश्या होगी, जन्म के समय में वही पहली लेश्या होगी।इसलिए मरते समय जाना जा सकता है कि व्यक्ति कहां जा रहा है। मरते समय जाना जा सकता है कि व्यक्ति जायेगा कहीं या नहीं जायेगा और महाशून्य के साथ एक हो जायेगा। जन्म के समय भी जाना जा सकता है। ज्योतिष बहुत भटक गया, और कचरे में भटक गया। अन्यथा जन्म के समय सारी खोज इस बात की थी कि व्यक्ति किस लेश्या को लेकर जन्म रहा है। क्योंकि उसके पूरे जीवन का ढंग और ढांचा वही होगा।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

कृष्‍ण, नील, कापोत—ये तीन अधर्म लेश्‍याएं है। इन तीनों से युक्‍त जीव दुर्गति में उत्‍पन्‍न होता है।

तेज ,पद्म और शुक्‍ल—ये तीन धर्म लेश्‍याएं है। इन तीनों से युक्‍त जीव सदगति में उत्‍पन्‍न होता है।

1) पहली लेश्‍या – कृष्‍ण लेश्‍या

तो पहले समझें कि लेश्‍या क्‍या है? ऐसा समझें कि सागर शांत है। कोई लहर नहीं है,फिर हवा का एक झोंका आजा है, लहरें उठनी शुरू हो जाती है, तरंगें उठती है। सागर डांवांडोल हो जाता है, छाती अस्‍त वस्‍त हो जाती है। सब अराजक हो जाता है। उन लहरों का नाम लेश्‍या है। तो लेश्‍या का अर्थ हुआ चित की वृतियां। जिसको पतंजलि ने चित-वृति कहा है। उसको महावीर ‘’लेश्‍या’’ कहा हे। चित की वृतियां चित के विचार, वासनायें, कामनायें लोभ, अपेक्षायें, ये सब लेश्‍यायें है।

कृष्‍ण लेश्‍या का आदमी अपनी आँख फोड़ सकता है,अगर दूसरे की फूटती हों। अपने लाभ का कोई सवाल नहीं है, दूसरे की हानि ही जीवन का लक्ष्‍य है। ऐसे व्‍यक्‍ति के आस-पास काल वर्तुल होगा।

महावीर कहते है, यह निम्‍नतम दशा है, जहां दूसरे का दुःख ही एकमात्र सुख मालूम पड़ता है। ऐसा आदमी सुखी हो नहीं सकता। सिर्फ वहम में जीता है। क्‍योंकि हमें मिलता वही है जो हम दूसरों को देते है—वही लौट कर आता है। जगत एक प्रतिध्‍वनि है।

इसलिए हमने यम को , मृत्‍यु को काले रंग में चित्रित किया है; क्‍योंकि उसका कुल रस इतना है कि कब आप मरे, कब आपको ले जाया जाये। आपकी मृत्‍यु ही उसके जीवन का आधार है, इसलिए काले रंग में हमने यम को पोता है। आपकी मृत्‍यु उसके जीवन का आधार है—कुल काम इतना है कि आप कब मरे, प्रतीक्षा इतनी सी है।

यह जो काला रंग है, इसकी कुछ ख़ूबियाँ, वैज्ञानिक ख़ूबियाँ समझ लेनी जरूरी है। काला रंग गहन भोग का प्रतीक है। काले रंग को वैज्ञानिक अर्थ होता है जब सूर्य की किरण आप तक आती है, तो उसमें सभी रंग होते है। इसलिए सूर्य की किरण सफेद है, शुभ्र है। सफेद सभी रंगों का जोड़ है, एक अर्थ में अगर आपकी आँख पर सभी रंग एक साथ पड़ें तो सफेद बन जायेंगे। छोटे बच्‍चों को स्‍कूल में एक रंगों का वर्तुल दे दिया जाता है। जब उस वर्तुल को जोर से घुमाया जाता है, तो सभी रंग गड्ड-मड्ड हो जाते है। और सफेद बन जाता है।

सफेद सभी रंग का जोड़ है। जीवन समग्र स्‍वीकार सफेद में है, कुछ अस्‍वीकार नहीं है, कुछ निषध नहीं है, काला सभी रंगों का आभाव है, वहां कोई रंग नहीं है। जीवन में रंग होते है, मौत में कोई रंग नहीं….वहां कोई रंग नहीं है। मौत रंग विहीन है।

काले रंग का अर्थ है…दूःख का रंग, ध्‍यान रहे, रंग आपको दिखाई पड़ते है उन किरणों से जो आपकी आंखों तक आती है। अगर आपको लाल साड़ी दिखाई पड़ रही है, तो उसका मतलब है कि उस कपड़े से लाल किरण वापस आ रही है। एक अर्थ में काला रंग सभी रंगों का अभाव है। इसी लिए महावीर ने सफेद को त्‍याग का प्रतीक कहा है और काले को भोग का प्रतीक कहा है। उसने सभी पी लिया,कूद भी छोड़ा नहीं—सभी किरणों को पी गया। तो जितना भोगी आदमी होगा, उतनी कृष्‍ण लेश्‍या में डूबा हुआ होगा। जितना त्‍यागी व्‍यक्‍ति होगा, उतना ही कृष्‍ण लेश्‍या से दूर उठने लगेगा।

दान और त्‍याग की इतनी महिमा लेश्‍याओं को बदलने का एक प्रयोग है। जब आप कुछ देते है किसी को, आपकी लेश्‍या तत्क्षण बदलती है, लेकिन जैसा मैंने कहा कि अगर आप व्‍यर्थ चीज देते है तो लेश्‍या नहीं बदल सकती। कुछ सार्थक,जो प्रतिकर हे, जो आपके हित का था और काम का था। और दूसरे के भी काम पड़ेगा—जब भी आप ऐसा कुछ देते है। आपकी लेश्‍या तत्‍क्षण परिवर्तित होती है। क्‍योंकि आप शुभ्र की तरफ बढ़ रहे है, कुछ छोड़ रहे है।

महावीर ने अंत में वस्‍त्र भी छोड़ दिये,सब छोड़ दिया। उस सब छोड़ने का केवल इतना अर्थ है कि कोई पकड़ न रही। और जब कोई पकड़ नहीं रहती तो स्‍वेत, शुक्‍ल लेश्‍या का जन्‍म होता है।

काली लेश्‍या। ये सधनतम लेश्‍या है। काली निम्नतम स्‍थिति है।

महावीर ने रंग के आधार पर विश्लेष ण किया है, शायद वहीं एकमात्र रास्‍ता हो सकता है। जब भी चित में कोई वृति होती है तो उसके चेहरे के आस पास उसके रंग की आभा आ जाती है। आपको दिखाई नहीं पड़ती। छोटे बच्‍चों को ज्‍यादा प्रतीत होती है। आपको भी दिखाई पड़ सकती है। अगर आप थोड़े सरल हो जायें। जब कोई व्‍यक्‍ति सच में साधु चित हो जाता है, तो वह आपकी आभा से ही आपको नापता है; आप क्‍या कहते है, उससे नहीं, वह आपको नहीं देखता, आपकी आभा को देखता है।

अब एक आदमी आ रहा है। उसके आस-पास कृष्‍ण लेश्‍या की आभा है, काला रूप है चारों तरफ; उसके चेहरे के आस-पास एक पर्त है काली तो वह कितनी ही शुभ्रता की बातें करे, वे व्‍यर्थ है, क्‍योंकि वह काली पर्त असली खबर दे रही है। अब तो सूक्ष्‍म कैमरे विकसित हो गये है। जिनसे उसका चित्र भी लिया जा सकता है। वह चित्र बातयेगा कि आपकी क्‍या भीतरी अवस्‍था चल रही है। और यह आभा प्रतिपल बदलती रहती है।

महावीर, बुद्ध, कृष्‍ण और राम, क्राइस्‍ट के आस-पास सारी दूनिया के संतों के आस-पास हमने उनके चेहरे के प्रभा मंडल बनाया है। हमारे कितने ही भेद हो—ईसाई में,मुसलमान में, हिन्दू में,जैन में बौद्ध में—एक मामले में हमारा भेद नहीं है कि इन सभी ने जाग्रत महापुरुषों के चेहरों के आस पास प्रभा मंडल बनाया है। वह प्रभा-मंडल शुभ्र आभा प्रगट करता है।

हमारे चेहरे के आस पास सामान्‍यतया काली आभा होती है। और या फिर बीच की आभायें होती है। प्रत्‍येक आभा भीतर की अवस्‍था की खबर देती है। अगर आपके आस पास काली आभा मंडल है, आरा है, तो आपके भीतर भंयकर हिंसा, क्रोध,भंयकर कामवासना होगी। आप उस अवस्‍था में होंगे, जहां आपको खुद भी नुकसान हो तो कोई हर्ज नहीं दूसरे को नुकसान हो तो आपको आनंद मिलेगा।

आप जैसे कपड़े पहनते हे, वे भी आपके चित की लेश्‍या की खबर देते है। ढीले कपड़—कामुक आदमी एक तरह के कपड़े पहनेगा। कामवासना से हटा हुआ आदमी दूसरी तरह के कपड़े पहने गा। रंग बदल जायेंगे,कपड़े के ढंग बदल जायेंगे। कामुक आदमी चुस्‍त कपड़े पहनेगा। गैर-कामुक आदमी ढीले कपडे पहनने शुरू कर देगा। क्‍योंकि चुस्‍त कपड़ा शरीर को वासना देता है,हिंसा देता है।

सैनिक को हम ढीले कपड़े नहीं पहना सकते। ढीले कपडे पहनकर सैनिक लड़ने जायेगा तो हारकर वापस लौटेगा। साधु को चुस्‍त कपड़े पहनाना बिलकुल नासमझी की बात है। क्‍योंकि चुस्‍त कपड़े का काम नहीं साधु के लिए। इसलिए साधु निरंतर ढीले कपड़े चूनेगा। जो शरीर को छूते भर रहे, बाँधते नहीं रहे।

आपको पता है छोटी-छोटी बातें आपके जीवन को संचालित करती है; क्‍योंकि चित क्षुद्र चीजों से ही बना हुआ है। अगर आप चुस्‍त कपड़े पहने हुए हे तो आप दो-दो सीढ़ियां चढ़ने लगते है। एक साथ। अगर आप ढीले कपड़े पहने हुए है तो आपकी चाल शारी होती है। एक सीढ़ी भी आप मुश्‍किल से चढ़ते है। चुस्‍त कपड़े पहन कर आप में गति आ जाती है।

जब आप रंग चुनते है, वह भी खबर देता है आपके चित की। क्‍योंकि चुनाव अकारण नहीं है। चित चुन रहा है। रंग चुनने का कारण यह है कि जब आपके चित में एक वृति होती है तो आपके चेहरे के आसपास एक आरा एक प्रभा मंडल निर्मित होता है। इस प्रभा मंडल के चित्रों से ये भी पता लगाया जा सकता है, आपके भीतर अब क्‍या चल रहा है। कारण क्‍या है, क्‍योंकि आपका पूरा शरीर विद्युत का एक प्रवाह है। आपको शायद ख्‍याल न हो कि पूरा शरीर वैद्युतिक यंत्र है। तो ध्‍यान रहे, जो अपराधी इतने अदालत-कानून के बाद भी अपराध करते है, उनके पास निश्‍चित ही कृष्‍ण लेश्‍या पाई जायेगी। और आप अगर डरते है अपराध करने से कि नुकसान न पहुंच जाए। और आप देख लेते है कि पुलिसवाला रास्‍ते पर खड़ा है,तो रूक जाते है लाल लाइट देखकर। कोई पुलिसवाला नहीं है—नीली लेश्‍या—कोई डर नहीं है, कोई नुकसान हो नहीं सकता है। कृष्ण लेश्या का आदमी है उसको कोई दंड नहीं रोक सकता, पाप से क्‍योंकि होगा इसकी उसे जरा भी फिक्र नहीं होती। वह खोया है अंधेरी घाटियों में। दूसरों को क्‍या होता है, उसको इससे कुछ लेना देना नहीं है, उसे रस है तो दूसरों को केवल नुकसान पहुंचाने मात्र से है।

कृष्‍ण लेश्‍या ये पहली लेश्‍या है,

2) दूसरी लेश्‍या – नील लेश्‍या

नील लेश्‍या दूसरी लेश्‍या है। जो व्‍यक्‍ति अपने को भी हानि पहुँचाकर दूसरे को हानि पहुंचने में रस लेता है। वह कृष्‍ण लेश्‍या में डूबा है। जो व्‍यक्‍ति अपने को हानि न पहुँचाए, खुद को हानि पहुंचाने लगे तो रूक जाये। लेकिन दूसरे को हानि पहुंचाने की चेष्‍टा करे, वैसा व्‍यक्‍ति नील लेश्‍या में है।

नील लेश्‍या कृष्‍ण लेश्‍या में बेहतर हे। थोड़ा हल्‍का हुआ कालापन,थोड़ा नील हुआ। जो निहित स्‍वार्थ में जीते है…यह जो पहला आदमी है—जिसके बारे में मैंने कहा कि मेरी एक आँख फूट जाये—यह तो स्‍वार्थी नहीं है। यह तो स्‍वार्थी से नीचे गिर गया है। इसको अपनी आँख की फिकर ही नहीं है। इसको दूसरे की दो फोड़नें का रस है। यह तो स्‍वार्थ से भी नीचे खड़ा है।

नील लेश्‍या वाल आदमी वह है। जिसको हम सेल्‍फिस कहते है, जो सदा अपनी चिंता करता है। अगर उसको लाभ होता है तो आपको हानि पहुंचा सकता है। लेकिन खुद हानि होती हो तो वह आपको हानि पहुंचायेंगा। ऐसे ही आदमी को नील लेश्‍या के आदमी को हम दंड से रोक पाते है। पहले आदमी को दंड देकर नहीं रोका जा सकता। जो कृष्‍ण लेश्‍या वाला आदमी है, उसको कोई दंड नहीं रोक सकते पाप से क्‍योंकि उसे फिकर ही नहीं कि मुझे क्‍या होता है। दूसरे को क्‍या होता है उसका रस….उसको नुकसान पहुंचाना। लेकिन नील लेश्‍या वाले आदमी को पनिशमेंट से रोका जा सकता है। अदालत, पुलिस, भय….कि पकड़ा जाऊं, सज़ा हो जाये तो वह दूसरे को हानि करने से रूक सकता है।

तो ध्‍यान रहे,जो अपराधी इतने अदालत कानून के बाद भी अपराध करते है उनके पास निश्‍चित ही कृष्‍ण लेश्‍या पाई जायेगी। और आप अगर डरते है अपराध करने से कि नुकसान न पहुंच जाए। और आप देख लेते है कि पुलिसवाला रास्‍ते पर खड़ा है तो रूक जाते हे लाल लाइट देखकर। कोई पुलिसवाला नहीं है—नील लेश्‍या—कोई डर नहीं है, कोई नुकसान हो नहीं सकता। निकल जाओ, एक सेकेंड की बात है।

एक दिन मुल्‍ला नसरूदीन अपने मित्र के साथ कार से जा रहा था। मित्र कार को भगाये लिये जा रहा है। आखिर मोटर-साईकिल पर चढ़ा हुआ एक पुलिस का आदमी पीछा कर रहा है। जोर से साइरन बजा रहा है। लेकिन वह आदमी सुनता ही नहीं है। दस मिनट के बाद मुश्‍किल से वह पुलिस का आदमी जाकर पकड़ पाया और उसने कहा कि मैं गिरफ्तार करता हूं चार कारणों से। बीच बस्‍ती में पचास-साठ मील की रफ्तार से तुम गाड़ी चला रहे हो। तुम्‍हें प्रकाश(लाल बत्‍ती) कोई फ्रिक नहीं है। रेड लाईट है तो भी तुम चलाए जा रहे हो। जिस रास्‍ते से तुम जा रहे हो, यह वन-वे है और इसमें जाना निषिद्ध है। और मैं दस मिनट से साइरन बजा रहा हूं,लेकिन तुम सुनने को राज़ी नहीं हो।

नसरूदीन जो बगल में बैठा था मित्र के, खिड़की से झुका और उसने कहा, ‘यू मास्ट नाट माइंड हिम आफिसर,ही इज़ डैड ड्रिंक।‘ वह पाँचवाँ कारण बता रहा है। इस पर ख्‍याल मत करिए, यह बिलकुल बेहोश है, शराब में धुत हे। माफ करने योग्‍य है।

जब भी आप गलत करते है तो आप शराब में धुत होते ही है। क्‍योंकि गलत हो ही नहीं सकता मूर्छा के बिना। लेकिन मूर्छा भी इतना ख्‍याल रखती है कि खुद को नुकसान न पहुंचे, इतनी सुरक्षा रखती है। हममें से अधिक लोग कृष्‍ण लेश्‍या में उतर जाते है। कभी-कभी कृष्‍ण लेश्‍या में उतरते है। वह हमारे जीवन को रोजमर्रा का ढंग नहीं है। लेकिन कभी-कभी हम कृष्‍ण लेश्‍या में उतर जाते है।

कोई क्रोध आ जाये, तो हम उतर जाते है और इसलिए क्रोध के बाद हम पछताते है। और हम कहते है,जो मुझे नहीं करना था वह मैंने किया। जो मैं नहीं करना चाहता था। वह मैंने किया। बहुत बार हम कहते है, मेरे बावजूद यह हो गया। यह आप कैसे कह पाते है? क्‍योंकि यह आपने ही किया। आप एक सीढ़ी नीचे उतर गए। जो आपके जीवन का ढांचा था; जिस सीढ़ी पर आप सदा जीते है—नील लेश्‍या–उससे जब आप एक सीढ़ी नीचे उतरते है तो ऐसा लगता है। कि किसी और ने आप से करवा लिया। क्‍योंकि उस लेश्‍या से आप अपरिचित है। नील लेश्‍या शुद्ध स्‍वार्थ है, लेकिन कृष्‍ण लेश्‍या से बेहतर।

3) तीसरी लेश्‍या – कापोत लेश्‍या

तीसरी लेश्‍या को महावीर ने ‘’कापोत’’ कहा है—कबूतर के कंठ के रंग की। नीला रंग और भी फीका हो गया। आकाशी रंग हो गया। ऐसा व्‍यक्‍ति खुद को थोड़ी हानि भी पहुंच जाए, तो भी दूसरे को हानि नहीं पहुँचाता। खुद को थोड़ा नुकसान भी होता हो तो सह लेगा। लेकिन इस कारण दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचाएगा। ऐसा व्‍यक्‍ति प्रार्थी होने लगेगा। उसके जीवन में दूसरे की चिंतना और दूसरे का ध्‍यान आना शुरू हो जायेगा।

ध्‍यान रहे पहली दो लेश्‍याओं के व्‍यक्‍ति प्रेम नहीं कर सकते। कृष्‍ण लेश्‍या वाला तो सिर्फ घृणा कर सकता है। नील लेश्‍या वाला व्‍यक्‍ति सिर्फ स्‍वार्थ के संबंध बना सकता है। कापोत लेश्‍या वाला व्‍यक्‍ति प्रेम कर सकता है। प्रेम का पहला चरण उठा सकता है; क्‍योंकि प्रेम का अर्थ ही है कि दूसरा मुझसे ज्‍यादा मुल्‍य वान है। जब तक आप ही मूल्य वान है और दूसरा कम मूल्यवान है, तब तक प्रेम नहीं है। तब तक आप शोषण कर रहे है। तब तक दूसरे का उपयोग कर रहे है। तब तक दूसरा एक वस्‍तु है, व्‍यक्‍ति नहीं। जिस दिन दूसरा भी मूल्‍यवान है, और कभी आपसे भी ज्‍यादा मूल्‍यवान है कि वक्त आ जाये तो आप हानि सह लेंगे लेकिन उसे हानि न सहने देंगे। तो आपके जीवन में एक नई दिशा का उद्भव हुआ।

यह तीसरी लेश्‍या अधर्म की धर्म-लेश्‍या के बिलकुल करीब है, यही से द्वार खुलेगा। परार्थ प्रेम करूणा की छोटी सी झलक इस लेश्‍या में प्रवेश होगी। लेकिन बस छोटी सी झलक।

आप दूसरे पर ध्‍यान देते है, लेकिन यह भी अपने ही लिए। आपकी पत्‍नी है, अगर कोई हमला कर दे तो आप बचायेंगे उसको—यह कापोत लेश्‍या हे। आप बचायेंगे उसको—लेकिन आप बचा इसलिए रहे है कि वह आपकी पत्‍नी हे। किसी और की पत्‍नी पर हमला कर रहा हो तो आप खड़े देखते रहेगें।

‘मेरे’ का विस्‍तार हुआ, लेकिन ‘मेरे’ मौजूद है। और अगर आपको यह भी पता चल जाए कि यह पत्‍नी धोखे बाज है, तो आप हट जायेंगे। आपको पता चल जाये कि इस पत्‍नी का लगाव किसी और से भी है, तो सारी करूणा, सारा प्रेम, सारी दया खो जायेगी। इस प्रेम में भी एक गहरा स्‍वार्थ है कि पत्‍नी के बिना मेरा जीवन कष्‍ट पूर्ण होगा,पत्‍नी जरूरी हे, आवश्‍यक है। उस पर ध्‍यान गया है, उस को मूल्‍य दिया है; लेकिन मूल्‍य मेरे लिए ही है।

कापोत लेश्‍या अधर्म की पतली से पतली कम-से-कम भारी लेश्‍या है। लेकिन अधर्म वहां है। हममें से मुश्‍किल से कुछ लौग ही इस लेश्‍या तक उठ पाते है। दूसरा मूल्‍यवान हो जाये। लेकिन इतना भी जो कर पाते है, वह भी काफी बड़ी घटना है। अधर्म के द्वार पर आप आ गये, जहां से दूसरे जगत में प्रवेश हो सकता हे। लेकिन आम तौर से हमारे संबंध इतने भी ऊंचे नहीं होते। नील-लेश्‍या पर ही होते है। और कुछ के तो प्रेम के संबंध भी कृष्‍ण लेश्‍या पर होते है।

ये जो कृष्‍ण लेश्‍या है इसमें प्रेम भी जन्‍म हो तो वह भी हिंसा के ही माध्‍यम से होगा। ऐसे प्रेमियों की अदालतों में कथायें है, जिन्‍होंने अपनी प्रेयसी को मार डाल। और बेड़ प्रेम से विवाह किया था। थोड़ी बहुत तो आप में भी, सब में यह वृति होती है—दबाने की, नाखून चुभाने की। वात्‍सायन ने अपने काम-सूत्रों में इसको भी प्रेम का हिस्‍सा कहा है; दाँत से काटो, इसको उसने जो प्रेम की जो प्रक्रिया बताई है; कैसे प्रेम करें। उसने दाँत से काटना भी कहा है, नाखुन चुभाओं, शरीर पर निशान छूट जायें—इनको लव माक्‍र्स, प्रेम के चिन्ह कहा है।

छोटे बच्‍चे में भी जग जाता है, कोई बड़ों में ही जगता है, ऐसा नहीं। छोटा बच्‍चा भी कीड़ा दिख जाये, फौरन मसल देगा,उसको पैर से। तितली दिख जाए—पंख तोड़कर देखेगा। क्‍या हो रहा है। मेंढक को पत्‍थर मार मर कर देखेगा। क्‍या हो रहा है। कुत्‍ते को मारेगा,उसे सतायेगा। ये आप प्रवर्ती बच्‍चे में बचपन से ही देख सकते है।

छोटा बच्चा भी आपका ही छोटा रूप है…बड़ा हो रहा है। आप कुत्‍ते की पूछ में डिब्‍बा नहीं बाँधते, आप आदमियों की पूछ में डिब्‍बा बाँधते है—रस लेते है, फिर क्‍या है, कुछ लोग उस को राजनीति कहते है। कुछ लोग उसको व्‍यवसाय कहते है,कुछ लोग जीवन के प्रतिस्‍पर्धा कहते है; लेकिन दूसरे को सतानें में बड़ा रस आता है। जब दूसरे को बिलकुल चारों खाने चित कर देते है तब आपको बड़ी प्रसन्‍नता होती है। जीवन में कोई परम गुहा की उपलब्‍धि हो गई।

नील लेश्या वाला व्‍यक्‍ति आमतौर से, जिसको हम विवाह कहते है वह नील लेश्या वाले व्‍यक्‍ति का लक्षण है—दूसरे से कोई मतलब नहीं है, प्रेम की कोई घटना नहीं है। इसलिए भारतीयों ने अगर विवाह पर इतना जोर दिया और प्रेम विवाह पर बिलकुल जोर नहीं दिया तो उसका बड़ा कारण यही ह। कि सौ में से निन्‍यानवे लोग नील लेश्‍या में जीते है। प्रेम उनके जीवन में है ही नहीं,इसलिए प्रेम को कोई जगह देने का कारण नहीं। उनको जीवन में केवल एक स्‍त्री चाहिए। जिसका वे उपयोग कर सकें—एक उपकरण की तरह।

कापोत….आकाश के रंग की जो लेश्‍या है, उसमें प्रेम की पहली किरण उतरती है। इसलिए अधर्म के जगत में प्रेम सबसे ऊंची घटना है। ज्‍यादा से ज्‍यादा धर्म की घटना। और अगर आपके जीवन में प्रेम मूल्‍यवान है, तो उसका अर्थ है कि दूसरा व्‍यक्‍ति मूल्‍यवान हुआ। यद्यपि यह भी अभी आपके लिए ही है। इतना मूल्‍यवान नहीं है कि आप कह सकें कि मेरा न हो तो भी मूल्यवान है। अगर मेरी पत्‍नी किसी और के भी प्रेम में पड़ जाये तो भी मैं खुश होऊंगा—खुश होऊंगा,क्‍योंकि वह खुश है। वह इतनी मूल्‍यवान नहीं है; उसके व्यिक्तत्व का कोई मूल्‍य नहीं है। कि मेरे सुख के अलावा किसी और का सुख उससे निर्मित होता हो, तो भी मैं सुखी रहूँ।

फिर तीन लेश्‍याएं है: तेज, पद्म और शुक्‍ल, तेज का अर्थ हे। अग्नि की तरह सुर्ख लाल। जैसे ही व्‍यक्‍ति तेज लेश्‍या में प्रवेश करता है, वैसे ही प्रेम गहन प्रगाढ़ हो जाता है। अब यह प्रेम दूसरे व्‍यक्‍ति का उपयोग करने के लिए नहीं है। अब यह प्रेम लेना नहीं है। अब यह प्रेम देना है, यह सिर्फ दान है। और इस व्‍यक्‍ति का जीवन प्रेम के इर्द-गिर्द निर्मित होता है।

4) चौथी लेश्‍या – तेज(लाल) लेश्‍या

यह जो लाल लेश्‍या है, इसके संबंध में कुछ बातें समझ लेनी चाहिए। क्‍योंकि धर्म की यात्रा पर यह पहला रंग हुआ। आकाशी, अधर्म की यात्रा पर संन्‍यासी रंग था। लाल, धर्म की यात्रा पर पहला रंग हुआ। इसलिए हिन्‍दुओं ने लाल को, गैरिक को संन्‍यासी का रंग चुना; क्‍योंकि धर्म के पथ पर यह पहला रंग है। हिंदुओं ने साधु के लिए गैरिक रंग चुना है, क्‍योंकि उसके शरीर की पूरी आभा लाल से भर जाए। उसका आभा मंडल लाल होगा। उसके वस्‍त्र भी उसमे ताल मेल बन जाएं, एक हो जायें। तो शरीर और उसकी आत्‍मा में उसके वस्‍त्रों और आभा में किसी तरह का विरोध न रहे; एक तारतम्‍य,एक संगीत पैदा हो जाये।

ये तीन रंग है धर्म के—तेज, पद्म, शुक्‍ल। तेज हिंदुओं ने चुना है, शुक्‍ल जैनों ने चुना हे। पद्म दोनों के बीच। बुद्ध हमेशा मध्‍य मार्ग के पक्षपाती थे, हर चीज में। क्‍योंकि बुद्ध कहते थे कि जो है वह मूल्‍यवान नहीं है, क्‍योंकि उसे छोड़ना है। और जो अभी हुआ नहीं वह भी बहुत मूल्‍यवान नहीं, क्‍योंकि उसे अभी होना है—दोनों के बीच में साधक है।

लाल यात्रा का प्रथम चरण है, शुभ्र यात्रा का अंतिम चरण है। पूरी यात्रा तो पीत की है। इसलिए बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए पीला रंग चुना है। तीनों चुनाव अपने आप में मुल्‍य वान है; कीमती है। कीमती है, बहुमूल्‍य है।

यह जो लाल रंग है, यह आपके आस पास तभी प्रगट होना शुरू होता है। जब आपके जीवन में स्‍वार्थ बिलकुल शुन्‍य हो जाता है। अहंकार बिलकुल टूट जाता है। यह लाल आपके अहंकार को जला देता है। यह अग्‍नि आपके अहंकार को बिलकुल जला देती है। जिस दिन आप ऐसे जीने लगते है जैसे ‘’मैं नहीं हूं’’ उस दिन धर्म की तरंग उठनी शुरू होती है। जितना आपको लेंगे में हूं उतनी ही अधर्म की तरंग उठनी शुरू होती है। क्‍योंकि मैं का भी ही दूसरे को हानि पहुंचाने का भाव हे। मैं हो ही तभी सकता हूं, जब मैं आपको दबाऊ। जितना आपको दबाऊ, उतना ज्‍यादा मेरा ‘’मैं’’ मजबूत होता है। सारी दूनिया को दबा दूँ पैरों के नीचे, तभी मुझे लगेगा कि ‘’मैं हूं’’।

अहंकार दूसरे का विनाश है। धर्म शुरू होता है वहां से जहां से हम अहंकार को छोड़ते है। जहां से मैं कहता हूं कि अब मेरे अहंकार की अभीप्‍सा वह जो अहंकार की महत्वाकांक्षा थी, वह मैं छोड़ता हूं। संघर्ष छोड़ता हूं,दूसरे को हराना दूसरे को मिटाना दूसरे को दबाने का भाव छोड़ता हूं। अब मेरे प्रथम होने की दौड़ बंद होती है। अब मैं अंतिम भी खड़ा हूं, तो भी प्रसन्‍न हूं। सन्‍यासी का अर्थ ही यही है कि जो अंतिम खड़े होने को राज़ी हो गया। जीसस ने कहा है मेरे प्रभु के राज्‍य में वे प्रथम होंगे, जो पृथ्‍वी के राज्‍य में अंतिम खड़े होने को राज़ी है।

लाल रंग की अवस्‍था में व्‍यक्‍ति पूरी तरह प्रेम से भरा होगा,खुद मिट जायेगा। दूसरे महत्‍वपूर्ण हो जायेंगे। पश्‍चिम के धर्म है—ईसाइयत, वह लाल रंग को अभी भी पार नहीं कर पाई। क्‍योंकि अभी भी दूसरे को कनवर्ट करने की आकांशा है। इस्‍लाम लाल रंग को पान नहीं कर पाय। गहन दूसरे का ध्‍यान है, कि दूसरों को बदल देना है, किसी भी तरह बदल देना है उसकी वजह है एक मतांधता है।

आप जान कर हैरान होंगे की दुनिया के दो पुराने धर्म—हिंदू और यहूदी, दोनों पीत अवस्‍था में हे। हिंदुओं और यहूदियों ने कभी किसी को बदलने की कोशिश नहीं की। बल्‍कि कोई आ भी जाये तो बड़ा मुश्‍किल है उसको भीतर लेना। द्वार जैसे बंद है, सब शांत है। दूसरे में कोई उत्सुकता नहीं है। संख्‍या कितनी है इसकी कोई फिक्र नहीं है।

संन्‍यासी अर्थ है, जिसने महत्व आकांशा छोड़ दि है। जिसने संघर्ष छोड़ दिया है। जिसने दूसरे अहंकारों से लड़ने की वृति छोड़ दी। इस घड़ी में चेहरे के आस-पास लाल, गैरिक रंग का उदय होता है। जैसे सुबह का सूरज जब उगता है। जैसा रंग उस पर होता है, वैसा रंग पैदा होता है। इसलिए संन्‍यासी अगर सच में सन्‍यासी हो तो उसके चेहरे पर रक्त आभा, जो लाली होगी। जो सूर्य के उदय के क्षण की ताजगी होगी। वही खबर दे देगी।

5) पांचवी – पद्म लेश्‍या

पद्म..महावीर कहते है, दूसरी धर्म लेश्‍या है पीत। इस लाली के बाद जब जल जायेगा अहंकार…..स्‍वभावत: अग्नि की तभी तक जरूरत है जब तक अहंकार जल न जाये। जैसे ही अहंकार जल जायेगा, तो लाली पीत होने लगेगी। जैसे, सुबह का सूरज जैसे-जैसे ऊपर उठने लगता है। वैसा लाल नहीं रह जायेगा,पीला हो जाये। स्‍वर्ण का पीत रंग प्रगट होने लगेगा। जब स्पर्धा छूट जाती है, संघर्ष छूट जाता है, दूसरों से तुलना छूट जाती है और व्‍यक्‍ति अपने साथ राज़ी हो जाता है—अपने में ही जाने लगता है—जैसे संसार हो या न हो कोई फर्क नहीं पड़ता—यह ध्‍यान की अवस्‍था है।

लाल रंग की अवस्‍था में व्‍यक्‍ति पूरी तरह प्रेम से भरा होगा, खुद मिट जायेगा,दूसरे महत्‍वपूर्ण हो जायेंगे। पीत की अवस्‍था में न खुद रहेगा, न दूसरे रहेगें। सब शांत हो जायेगा। पीत ध्‍यान का अवस्‍था है—जब व्‍यक्‍ति अपने में होता है, दूसरे का पता ही नहीं चलता कि दूसरा है भी। जिस क्षण मुझे भूल जाता है कि ‘’मैं हूं’’ उसी क्षण यह भी भूल जायेगा कि दूसरा भी है।

पीत बड़ा शांत, बड़ा मौन, अनुद्विग्न रंग है। स्‍वर्ण की तरह शुद्ध,लेकिन कोई उत्तेजना नहीं। लाल रंग में उत्‍तेजना है,वह धर्म का पहला चरण है।

इसलिए ध्‍यान रहे, जो लोग धर्म के पहले चरण में होते है, वे उत्‍तेजित होते है। धर्म उनके लिए खींचता है—जोर से धर्म के प्रति बड़े आब्‍सेज्‍ड होते है। धर्म भी उनके लिए एक ज्‍वर की तरह होता है। लेकिन,जैसे-जैसे धर्म में गति होती जाती है,वैसे-वैसे सब शांत हो जाता है।

पश्‍चिम के धर्म है—ईसाइयत,लाल रंग को अभी पार नहीं कर पाया है। क्‍योंकि अभी भी दूसरे को कनवर्ट करने की आकांशा है। इसलाम लाल रंग को पार नहीं कर पाया है। गहन दूसरे पर ध्‍यान है। कि दूसरों को बदल देना है। किसी भी तरह बदल देना है उसकी वजह से एक मतांधता है।

व्यक्ति जब पहली दफा धार्मिक होना शुरू होता है, तो बड़ा धार्मिक जोश खरोश होता है। यही लोग उपद्रव का कारण हे जो जाते है, क्‍योंकि उनमें इतना जोश खरोश होता है कि वे फेनेटिक हो जाते है; वे अपने को ठीक मानते है, सबको गलत मानते है। और सबको ठीक करने की चेष्‍टा में लग जाते है….दया वश। लेकिन वह दया भी कठोर हो सकती है।

जैसे ही ध्‍यान पैदा होता है, प्रेम शांत होता है। क्‍योंकि प्रेम में दूसरे पर नजर होती है, ध्‍यान में अपने पर नजर आ जाती है। पीत लेश्‍या—पद्म लेश्‍या ध्यानी की अवस्‍था होती है। बारह वर्ष महावीर उसी अवस्‍था में रहे। और पीला भी जब और बिखरता जाता है, विलीन होता जाता है तो शुभ्र का जन्‍म होता है। जैसे सांझ जब सूरज डूबता है और रात अभी नहीं आई,और सूरज डूब गया है। और संध्‍या फैल जाती है। शुभ्र, कोई उत्‍तेजना नहीं, वह समाधि की अवस्‍था है। उस क्षण में सभी लेश्‍याएं शांत हो जाती है। सभी लेश्‍या शुभ्र बन गई। शुभ्र अंतिम अवस्‍था है चित की।

6) छठी लेश्‍या – शुभ्र लेश्‍या

शुभ्र चित की आखरी अवस्‍था है। झीने से झीना पर्दा बचा है, वह भी खो जायेगा। तो सातवीं को महावीर ने नहीं गिनाया; क्‍योंकि सांतवीं फिर चित की अवस्‍था नही, आत्‍मा का स्‍वभाव है। वहां सफेद भी नहीं बचता। उतनी उतैजना भी नहीं रहती।

मृत्‍यु में जैसे खोते है, जैसे काल में खोते है। वैसे नहीं—मुक्‍ति में जैसे खोते है। काले में तो सारे रंग इसलिए खो जाते है कि काला सभी रंगों को हजम कर जाता है। पी जाता है, भोग लेता है। मुक्‍ति में सभी रंग इसलिए खो जाते है, कि किसी रंग पर पकड़ नहीं रह जाती। जीवन की कोई वासना, जीवन की कोई आकांशा जीवेषणा नहीं रह जाती। सभी रंग खो जाते है। इसलिए सफेद के बाद जो अंतिम छलांग है, वह भी रंग विहीन है।

और ध्‍यान रहे, मृत्‍यु और मोक्ष बड़े एक जैसे है, और बड़े विपरीत भी; दोनों में इसलिए रंग खो जाते है। एक में रंग खो जाते है कि जीवन खो जाता है। दूसरे में इसलिए रंग खो जाते है कि जीवन पूर्ण हो जाता है, और अब रंगों की कोई इच्‍छा नहीं रह जाती।

मोक्ष मृत्‍यु जैसा है, इसलिए मुक्‍त होने से हम डरते है। जो जीवन को पकड़ता है, वहीं मुक्‍त हो सकता है। जो जीवन को पकड़ता है, वह बंधन में बना रहता है। जीवेषणा,जिसको बुद्ध ने कहा है,लास्‍ट फार लाइफ। वही इन रंगों को फैलाव है। और अगर जीवेषणा बहुत ज्‍यादा हो तो दूसरे की मृत्‍यु बन जाती है। वह कृष्‍ण लेश्‍या है। अगर जीवेषणा तरल होती जाये, कम होती जाये। फीकी होती जाये, तो दूसरे का जीवन बन जाती है—वह प्रेम है।

महावीर ने छह लेश्‍याएं कही है—अभी पश्‍चिम में इस पर खोज चलती है तो अनुभव में आता है कि ये छह रंग करीब-करीब वैज्ञानिक सिद्ध होंगे। और मनुष्‍य के चित को नापने की इससे कुशल कुंजी नहीं हो सकती। क्‍योंकि यह बाहर से नापा जा सकता है। भीतर जाने की कोई जरूरत नहीं। जैसे एक्‍सरे लेकर कहा जा सकता है कि भीतर कौन सी बीमारी है वैसे आपके चेहरे का ऑरा पकड़ा जाये तो उस ऑरा से पता चल सकता है। चित किस तरह से रूग्‍ण है, कहां अटका हे। और तब मार्ग खोज जा सकते है। कि क्‍या किया जा सकता है। जो इस चित की लेश्‍या से ऊपर उठा जा सके।

अंतिम घड़ी में लक्ष्‍य तो वहीं है। जहां कोई लेश्‍या न रह जाये। लेश्‍या का अर्थ: जो बाँधती है। जिससे हम बंधन में होते है। जो रस्‍सी की तरह हमें चारों तरफ से घेरे रहती है। जब सारी लेश्‍याएं गिर जाती है तो जीवन की परम ऊर्जा मुक्‍त हो जाती है। उस मुक्‍ति के क्षण को हिंदुओं ने ब्रह्मा कहा है—बुद्ध ने निर्वाण, कहा है, महावीर ने कैवल्‍य कहा है।

कृष्‍ण, नील, कापोत—ये तीन अधर्म लेश्याएं है। इन तीनों से युक्‍त जीव दुर्गीत में उत्‍पन्‍न होता है।

तेज,पद्म, और शुक्‍ल। ये तीन धर्म लेश्‍याएं है। इन तीनों से युक्‍त जीव सदगति में उत्‍पन्‍न होता है। ध्‍यान रहे,शुभ्र लेश्‍या के पैदा हो जाने पर भी जन्‍म होगा। अच्‍छी गति होगी, सदगति होगी, साधु का जीवन होगा। लेकिन जन्‍म होगा, क्‍योंकि लेश्‍या अभी भी बाकी है। थोड़ा सा बंधन शुभ्र का बाकी है। इसलिए पूरा विज्ञान विकसित हुआ था प्राचीन समय में—मरते हुए आदमी के पास ध्‍यान रखा जाता था कि उसकी कौन सी लेश्‍या मरते क्षण मैं है, क्‍योंकि जो उसकी लेश्‍या मरते क्षण में है, उससे अंदाज लगाया जो सकता है कि वह कहां जायेगा। उसकी क्‍या गति होगी।

सभी लोगों के मरने पर लोग रोते नहीं थे, लेश्‍या देखकर….अगर कृष्‍ण लेश्‍या हो तो ही रोने का अर्थ है। अगर कोई अधर्म लेश्‍या हो तो रोने का अर्थ है, क्‍योंकि वह व्‍यक्‍ति फिर दुर्गति में जा रहा है, दुःख में जा रहा है। नरक में भटकने जा रहा है। तिब्‍बत में बारदो पूरा विज्ञान है, और पूरी कोशिश की जाती है कि मरते क्षण में भी इसकी लेश्‍या बदल जायें। तो भी काम का हे। मरते क्षण में भी जिस अवस्‍था में—उसी में हम जन्‍मते है। ठीक वैसे जैसे रात आप सोते है तो जो विचार आपका अंतिम होगा; सुबह वही विचार आपका प्रथम होगा।

इसे आप प्रयोग कर के देख ले। बिलकुल आखिरी विचार रात सोते समय जो आपके चित में होगा। जिसके बार आप खो जायेंगे अंधेरे में नींद के—सुबह जैसे ही जागेंगे, वही विचार पहला होगा। क्‍योंकि रात भर सब स्‍थगित रहा, तो जो रात अंतिम था वहीं पहले सुबह प्रथम बनेगा। बीच में तो गैप है, अंधकार है, सब खाली है। इसलिए हमने मृत्‍यु को महानिद्रा कहा है। इधर मृत्‍यु के आखिरी क्षण में जा लेश्‍या होगी। जन्‍म के समय में वही पहली लेश्‍या होगी।

बुद्ध पैदा हुए….। जब भी कोई व्‍यक्‍ति श्वेत लेश्‍या के साथ मरता है, तो जो लोग भी धर्म लेश्‍याओं में जीते है, पीत या लाल में, उन लोगों को अनुभव होता है; क्‍योंकि यह घटना जागतिक है। और जब भी कोई व्‍यक्‍ति शुभ्र लेश्‍या में जन्‍म लेता है, तो जो लोग भी लाल और पीत लेश्‍या के करीब होते है, या शुभ्र लेश्‍या में होते है। उनको अनुभव होता है कौन पैदाहोना गया है। जिसे हम गुरु या भगवान कहते है उसे सब क्‍यों नहीं पहचान पाते, जितनी लेश्‍या निम्‍न होगी, वह उतना ही सत गुरु से दूर भागेगा या विरोध करेगा। आपने देखा पूरे इतिहास में जीसस, कृष्‍ण,मीरा,कबीर, नानक,मोहम्‍मद,रवि दास, बुद्ध, महावीर….किसी भी सत गुरु को ले ली जिए। सम कालीन कुछ गिने चुने लोग ही इनके आस पास आ पाते हे। इसे आप प्रकृति का शाश्वत नियम मान ले।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;


Single post: Blog_Single_Post_Widget
bottom of page