क्या ''शून्य ध्यान''ध्यान की एक सहज विधि है?क्या हैं शक्ति चलन क्रिया की तीन विधियां
क्या है विचार शून्यता?-
02 FACTS;- 1-चेतना की पूरी अलग ही गुणवत्ता है जो विचार शून्यता से आती है: न ठीक, न गलत से, बस विचार शून्य की दशा। तुम बस देखते हो, तुम बस होशपूर्ण होते हो, लेकिन तुम सोचते
नहीं। होश विचारों के लिए आग की तरह है। यह ऐसे ही है जैसे कि तुम घर में दीपक जलाओ और अंधेरा प्रवेश नहीं कर सकता। जब घर में प्रकाश जलता है, अंधेरा प्रवेश नहीं कर सकता। विचार अंधेरे की तरह होते हैं : वे तब ही प्रवेश करते हैं जब भीतर प्रकाश न हो। होश आग है..जब तुम अधिक होश से भरते हो, तो कम विचार प्रवेश करते हैं।
2-यदि तुम अपने होश से सच में अखंडित हो जाते हो, तो विचार तुम्हारे भीतर प्रवेश नहीं करते; तुम अभेद्य किले हो गए, कुछ भी प्रवेश नहीं कर सकता। ऐसा नहीं है कि तुम बंद हो गए, परंतु तुम्हारी ऊर्जा एक किला बन जाती है। और जब कोई विचार तुम्हारे भीतर प्रवेश नहीं कर सकता,तो वे आएंगे और तुम्हारे पास से गुजर जाएंगे। तुम उन्हें आते देखोगे, और बस, जब वे तुम्हारे करीब आएंगे वे मुड़ जाएंगे। तब तुम किसी तरफ भी मुड़ सकते हो।
क्या है शून्य ध्यान?-
05 FACTS;-
1-वे लोग जो गहरे ध्यान का अनुभव करना चाहते हैं, उनके लिए शून्य ध्यान एक विशुद्ध और सहज ध्यान प्रक्रिया है।यह आपको जागरूकता के एक नये आयाम में प्रवेश दिलवाता है, जहां आपको यह स्पष्ट अनुभव होता है, कि आप यह शरीर नहीं हैं, आप यह मन नहीं हैं, आप यह जगत नहीं हैं।एक बार जब आपके जीवन में स्थिरता व निश्चलता आ जाती है, तब मन भी एकदम स्थिर हो जाता है। जब मन स्थिर हो जाता है तो आपकी बुद्धि प्रखर हो उठती है।इस प्रक्रिया द्वारा सत्य को बस सीखा ही नहीं बल्कि अनुभव किया जाता है।
2-शून्य श्वास का ध्यान सबसे आसान ध्यान है। यह ध्यान का परम रहस्य है। जब आप गहरे ध्यान में जाते हैं तो आप महसूस करेंगे कि आपकी सांसें रुक गई हैं। लेकिन आप अपनी रुकी हुई सांस में भी भी जीवित और सचेत हैं।परन्तु इसे स्वयं होने दें । इसे ध्यान से समझें और फिर करें।
3-योग विज्ञान पर आघारित इस प्रक्रिया में शक्ति चलन क्रिया (एक शक्तिशाली और शुद्धिकारक प्राणायाम, जो प्राण ऊर्जा को सुषुम्ना नाड़ी में ले जाने में सहायक होता है) और शून्य ध्यान (पंद्रह मिनट के ध्यान की एक सहज प्रक्रिया) में दीक्षित होना आवश्यक है। यह दोनों क्रियाएं मिल कर शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक विकारों से छुटकारा दिलाती हैं जिससे प्राण-ऊर्जा सहज ही सक्रिय हो जाती है।
4-तमिलनाडु में वल्लालर रामालिंगा आदिगालार नाम के एक योगी थे। एक दिन, वे एक कमरे में गए और फिर कभी बाहर नहीं आए। लोग उनके बाहर निकलने का इंतजार करते रहे। आखिर वे लोग दरवाजा तोड़ कर अंदर गए।वल्लालर वहां नहीं थे,बस फर्श पर थोड़ा सा पानी पड़ा था। उन्होंने अपना भौतिक रूप समाप्त कर लिया। ऐसी चीजें हुई हैं और ऐसी चीजें अब भी हो रही हैं।
5-बहुत से योगियों ने तत्वों को इस तरह से संघटित करके दिखाया है। वे शरीर को इस तरह त्यागते हैं कि शरीर नहीं बचता, हड्डियां नहीं बचतीं, सिर्फ थोड़ा सा पानी बचता है। यही चरम है तत्वों के संघटन का, जहां सारे तत्वों को उस बिंदु तक संघटित किया जाता है कि वहां कुछ नहीं बचता, सब शून्य में विलीन हो जाता है।
6-इसका किसी धर्म, संप्रदाय या मनोवैज्ञानिक विधि से कोई वास्ता नहीं है।यह पूरी तरह से
एक अनुभव का विज्ञान है। अगर किसी को पांच तत्वों पर सिद्धि प्राप्त हो, तो शरीर का त्याग करके उसे शून्य में विलीन किया जा सकता है। फिर शरीर का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। बहुत से योगियों ने ऐसा किया है।
7-अगर तुम शून्य ध्यान करना चाहते हो तो ध्यान रखो कि ध्यान में न तो तुम्हारे सामने कुछ हो और न तुम्हारे पीछे ही कुछ हो। अतीत को मिट जाने दो और भविष्य को भी। स्मृति और कल्पना दोनों को शून्य हो जाने दो। फिर न तो समय होगा और न आकाश ही होगा, और जिस क्षण कुछ भी नहीं होता है, तभी तुम ध्यान में हो। महामृत्यु का यह क्षण ही नित्य जीवन का क्षण भी है।’
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क्या हैं शक्ति चलन क्रिया की चार विधियां?-
1-विधि (महर्षि पतंजलि )केअनुसार :-
04 FACTS;-
1-पदमासन अथवा सिद्धासन में बैठ जाएँ |
2-हथेलियों को पृथ्वी पर टिका कर धीरे-धीरे दोनों नितम्बों को पृथ्वी से उठा – उठा कर ताड़न करें |
3-20-25 बार ताड़न करने के बाद मूलबन्ध लगा लें एवं दोनों नासिकाओं से या वायीं नासिका या फिर जो स्वर चल रहा हो उससे श्वास अंदर भरकर जालंधर बन्ध लगा लें तथा प्राणवायु को अपानवायु के साथ मिलाने की धारणा करते हुए अश्वनी मुद्रा करें (गुदाद्वार को बार-बार संकुचित कर ढीला छोड़ने की क्रिया को अश्वनी मुद्रा कहते हैं )|
4-आराम से जितनी देर रोक सकते हैं उतनी देर श्वास अन्दर ही रोककर रखें,तत्पश्चात जालंधर बन्ध खोलकर यदि दोनों नासिका से श्वास अन्दर भरी थी तो दोनों नासिका से और यदि एक नासिका से श्वास अंदर भरी थी तब उसके विपरीत नासिका से श्वास को धीरे-धीरे बाहर निकाल दें एवं कुछ देर एकाग्र होकर शांत बैठ जाएँ | 2-विधि महर्षि घेरंड के अनुसार;-
03 FACTS;-
1-आठ अंगुल लंबा और चार अंगुल चौड़ा मुलायम वस्त्र लेकर नाभि पर लगाएं और कटिसूत्र में बांध लें| फिर सिद्धासन में बैठें और प्राणवायु को अपानवायु से मिलाएं |
2-जब तक गुदा द्वार से चलती हुई वायु(अपान) प्रकाशित न हो, तब तक गुदा द्वार को संकुचित रखें (मूलबन्ध लगायें)| इससे वायु का जो निरोध होता है, उसमें कुम्भक के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती हुई सुषुम्ना मार्ग से सहस्रार में अवस्थित हो जाती है|
3-प्राण-अपान को संयुक्त करने की क्रिया प्राणवायु को पूरक द्वारा भीतर खींचने और उड्डीयान बंध से अपान वायु को ऊपर की ओर आकर्षित करने से पूर्ण होती है| इसमें गुह्य प्रदेश के संकोच और विस्तार का अभ्यास (अश्वनी मुद्रा) होने से अधिक सरलता दोनों वायु का मिलन हो जाता है |
3-हठयोगप्रदीपिका के अनुसार;-
03 FACTS;- .
1-शक्ति चालिनि मुद्रा में कुण्डलिनी का चालन व उत्थान किया जाता है।
यह क्रिया दो क्रम में की जाती है।प्रातः सायं आधा पहर अर्थात डेढ़ घंटे
सुबह व डेढ़ घंटे शाम को पिंगला नाड़ी( दाहिने नाक से) से पूरक करके परिधानयुक्ति से मूलाधार स्थित कुण्डलिनी को चलाना चाहिए।
2-मूलस्थान (गूदामूल से) एक बित्ता (9 इंच) ऊंचाई पर चार अंगुल (3 इंच) लम्बाई चौड़ाई व मोटाई वाला वस्त्र में लिपटे हुए के समान, सफ़ेद व कोमल एक नाड़ी केंद्र होता है।जिसे कंद कहा गया है।
व्रजासन में बैठ कर दोनों हाथो से पाँवो के टखनों को दृढ़ता से पकड़कर उससे कंद को जोर से दबाये।
3-इस प्रकार कुण्डलिनी को चलाने की क्रिया की जाती है। और उसके
अनन्तर भस्त्रिका कुम्भक करते है।जिससे कुण्डलिनी शीघ्र जगती है,
अर्थात उसका उत्थान होता है।उसके बाद नाभि प्रदेश स्थित सूर्यनाडी का (अर्थात नाभि का) आकुच्चन कर कुण्डलिनी को चलावे।
4-विधि;-
इस मुद्रा को करने के लिए सबसे पहले वज्रासन की मुद्रा में बैठ जाएं फिर दोनो पैरों को एड़ियों के पास से दोनो हाथों से मजबूती से पकड़ लें और पकड़े गए स्थान को जोर से दबाएं। फिर धीरे-धीरे सांस को खींचते हुए कुहू और शंखिनी नाड़ियों को ऊपर की ओर तान लें।
10 प्रमुख नाड़ियां ;-
कई योग ग्रंथ 10 नाड़ियों को प्रमुख मानते हैं।तीन का उल्लेख बार-बार मिलता है - ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। ये तीनों मेरुदण्ड से जुड़े हैं। इसके अलावा....
1-गांधारी - बाईं आँख से,
2-हस्तिजिह्वा -दाहिनी आँख से,
3-पूषा दाहिने- कान से,
4-यशस्विनी- बाँए कान से,
5-अलंबुषा -मुख से,
6-कुहू- जननांगों से
7-शंखिनी- गुदा से
जुड़ी होती है। ऐसा करने से गुदा वाला भाग और नाभि पीठ की ओर खिंच से जाते हैं। शुरू में इसको करीब 20 सैकंड तक ही करना चाहिए और फिर धीरे-धीरे सांस को छोड़ते हुए नाड़ियों को भी ढीली छोड़ दें इस क्रिया को सुबह और शाम करीब 20 बार कर सकते हैं और धीरे-धीरे करके इसको करने का समय भी बढ़ा सकते हैं।
सावधानियां :-
02 FACTS;-
1-शक्ति चालिनी मुद्रा के अभ्यास काल में हल्का सुपाच्य आहार लेना चाहिए |
2-कोई भी क्रिया क्षमता से अधिक करने पर हानिकारक सिद्ध हो सकती है अतः सावधानी पूर्वक शक्ति के अनुसार ही अभ्यास करें | मुद्रा करने का समय व अवधि :-
02 FACTS;-
1-शक्ति चालिनी मुद्रा का अभ्यास खाली पेट प्रातः एवं सायं के समय करना सर्वोत्तम है |
2-प्रारंभ में इस मुद्रा को 20 बार कर सकते हैं,अभ्यास हो जाने पर धीरे-धीरे संख्या बढ़ाई जा सकती है | चिकित्सकीय लाभ :-
02 FACTS;-
1-इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर के समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं और यह वृद्धावस्था को रोकती है|यह मुद्रा गुदा रोगों में अत्यंत लाभकारी है |इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से यौन संबंधी रोग समाप्त होते हैं और वीर्य उर्ध्वगामी होता है।
2-शक्ति चालिनी मुद्रा के अभ्यास से स्त्रियों के भी समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं एवं उनकी सुन्दरता में भी वृद्धि होती है |एवं शरीर की खूबसूरती बढ़ाती है | आध्यात्मिक लाभ : पूरक करने के बाद उड्डियान बन्ध में अश्वनी मुद्रा करने से सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का प्रवाह प्रारंभ हो जाता है जिससे यह मुद्रा कुण्डलिनी जागरण में अत्यंत सहायक सिद्ध होती है |
NOTE;-
1-आध्यात्म-मार्ग पर हम जिन जटिलताओं सामना करते हैं ये मार्ग के कारण नहीं बल्कि उस गन्दगी के कारण हैं जिसे हम ’मन’ कहते हैं।आपके जीवन में कोई प्रवाह नहीं है,आपने अपनी ऊर्जा को इस हद तक दबा रखा है, कि सिर्फ उतना ही घटता है जितना अहंकार को सहारा देने के लिये आवश्यक है।आपके अंदर ऊर्जा की गति केवल वहीं तक है जो आपके अहंकार के लिये सुविधाजनक है; अगर ऊर्जा थोड़ी सी अधिक हो जाए आपका अहंकार विस्फोट कर जाता है।
2-जैसे ही आपके भीतर ऊर्जा पूरी तरह उमड़ पड़ती है, सब कुछ विसर्जित हो जाता है। अहंकार यह अच्छी तरह जानता है। इसीलिये यह इसे दबा कर रखता है। अगर आपके पास ऊर्जा नहीं है तब भी अहंकार बहुत कमजोर महसूस करता है। जब सारी ऊर्जा खत्म हो जाती है - तब भी अहंकार बहुत कमजोर महसूस करता है, और यह उसे पसंद नहीं है। इसलिए यह उतनी ही ऊर्जा को स्वीकार करता है, जितनी इसे मजबूत बनाती है और पोषित करती है। अगर ऊर्जा बहुत अधिक हो जाए तो अहंकार चूर-चूर हो जाएगा।इसीलिए क्रिया और योग महत्वपूर्ण है।
3-यदि कुण्डलिनी जाग्रत होने लगे तब सब कुछ नष्ट हो जाएगा; कुछ भी नहीं बचेगा। आप सिर्फ अपने चारों तरफ की हर चीज़ के साथ विलय होती एक शक्ति के रूप में रह जाएँगें।आपकी अपनी कोई इच्छा नहीं रह जाएगी।जब यह जाग्रत हो जाती है, यह हर चीज़ को व्यवस्थित कर देती है। यह एक बाढ़ की तरह है; आपकी सदियों पुरानी दुनिया कुछ घंटों के आवेग से बह जाती है। इसलिये आपकी साधना कहीं पंहुचने के लिए नहीं है। यह मात्र एक तरीका है, बाढ़ लाने की एक विधि है। एक ऐसी भीषण बाढ़ जो आपकी तुच्छ रचनाओं को मिटाकर आपको वैसा बना दे जैसा सृष्टा ने बनाना चाहा था।
क्या शून्य हो जाना ही ध्यान है ?-
08 FACTS;- 1-ध्यान का कोई अनुभव नहीं होता। जब सब अनुभव समाप्त हो जाते हैं, तब जो शेष रह जाता है उसका नाम ध्यान है।ध्यान के न तो उथले अनुभव होते हैं न गहरे अनुभव होते हैं। जहां तक अनुभव है, वहां तक ध्यान नहीं है और जहां से ध्यान शुरू होता है वहां कहां अनुभव ...अनुभव तो हमेशा बाहर-बाहर रह जाता है।
2-अनुभव का तो अर्थ है कि चेतना में कोई विषय-वस्तु है। और ध्यान का अर्थ है: विषय-वस्तु रहित चैतन्य। अगर लगे कि खूब सुख का अनुभव हो रहा है तो इसका अर्थ हुआ कि चेतना है और सुख का अनुभव है। सुख का अनुभव चेतना में खड़ा है या चेतना को घेरे है। चेतना तो वह है जिसे सुख का अनुभव हो रहा है। सुख का अनुभव चेतना नहीं है। 3-वास्तव में, ध्यान का अनुभव होता ही नहीं। दर्पण है, दर्पण पर कोई प्रतिबिंब बनता है, तो अनुभव। और जब दर्पण पर कोई प्रतिबिंब नहीं बनता, दर्पण निराकार है, शून्य है –
तब ध्यान।ज्ञान के अनुभव होते हैं, ध्यान के नहीं।जहां तक अनुभव है, वहां तक मन है।मन अनुभवों का जोड़ है। सुख के अनुभव,दुख के अनुभव,गहराइयों के अनुभव,ऊंचाइयों के
अनुभव-सब अनुभव मन के भीतर हैं। और ध्यान अ-मन की दशा है, उन्मनी दशा है–जहां मन न रहा, जहां सब अनुभव गये, जहां एक शब्द भी उठता नहीं है, जहां एक विषय भी छाया नहीं डालता। उस निर्दोष, उस निर्मल चैतन्य का नाम ध्यान है।कृष्णमूर्ति कहते हैं कि ''किसी विधि का अभ्यास मत करो, वह सहज ही घटित होता है''।
4-विधियां दो तरह की होती हैं- सकारात्मक और नकारात्मक।सकारात्मक विधि में कहा जाता है-इस विधि का अभ्यास करो, उस विधि का अभ्यास करो। नकारात्मक में कहा जाता
है-किसी विधि का अभ्यास न करो।इसका अर्थ हुआ-अ-विधि का अभ्यास करो। विधि से बचो। विधि आये तो पकड़ो मत। विधि मिल भी जाए तो उपयोग मत करो। मगर यह नकारात्मक विधि हुई। उपनिषद कहते हैं 'नेति-नेति' – न यह, न वह…। छोड़ते चलो, किसी विधि का अभ्यास न करो। बुद्ध ने तो नकार पर बड़ा जोर दिया है, कोई विधि नहीं। ईसाई फकीरों में एक वर्ग हुआ है, जो कहते हैं– नकार से मार्ग है, 'नहीं' से द्वार है। यह भी एक विधि है। यह नकारात्मक विधि है।अगर विधि ही पकड़नी हो तो सकारात्मक पकड़नी चाहिए क्योंकि छोड़ना आसान होगा, नकारात्मक विधि को छोड़ना बहुत मुश्किल होगा।
5-उदाहरण लिए,एक झेन फकीर के पास उसका शिष्य आया। बीस वर्षों से श्रम कर रहा है। और फकीर ने कहा है – एक हाथ की ताली की आवाज कैसी होती है, इस पर ध्यान करो। अब एक हाथ की ताली की आवाज तो कुछ होती नहीं । ताली तो बजती ही दो हाथों से है।दो टकराएंगे तो आवाज होगी, आवाज का अर्थ है टकराहट। एक हाथ की ताली कैसे बजेगी? बहुत तरह के उत्तर युवक खोज कर लाता रहा। लेकिन कोई उत्तर सही नहीं हो सकता।
6-गुरु उतर सुनता ही नहीं था, वह पहले ही कह देता था – गलत! अभी उसने उत्तर बताया भी नहीं है। उसने एक दिन पूछा भी कि आप भी हैरान करते हैं मुझे! मैं खोजकर लाता हूं, महीनों की मेहनत के बाद…ध्यान करते-करते खोजता हूं कि यह उत्तर ठीक होगा, और मैं बोल भी नहीं पाता और आप…दरवाजे के भीतर आता हूं, कह देते हैं–गलत, यह भी गलत!
गुरु ने कहा कि सभी उत्तर गलत हैं। इसलिए पूछने और सुनने की जरूरत क्या है? उत्तर तुम जब तक लाते रहोगे तब तक गलत! जिस दिन तुम शून्य आओगे, निरुत्तर आओगे, यह जानकर आओगे कि कोई उत्तर नहीं है, शून्य का अनुभव करके आओगे, उस दिन कुछ बात बनेगी।
7-बीस साल लंबे श्रम के बाद शून्य का अनुभव हुआ। बीस वर्ष…लंबी साधना थी। आधी उमर निकल गई। लेकिन घटना आधी घटी। आधी रात थी जब यह घटना घटी; मगर सुबह तक वह प्रतीक्षा न कर सका। यह समाचार तो गुरु को अभी देना है। बीस वर्ष से वे भी प्रतीक्षा करते हैं। और आज वह शुभ घड़ी आ गई कि मैं जा कर निवेदन कर दूं।वह भागा…आधी रात
में जाकर द्वार खटखटाए। गुरु के चरणों पर गिर पड़ा। गुरु ने एक नजर उसकी तरफ देखा और कहा – जा बाहर, इसको भी फेंक कर आ! उस युवक ने कहा। किसको फेंक कर आऊं? अब तो कुछ बचा नहीं है। शून्य का अनुभव हुआ है।
8-गुरु ने कहा – बस…बाहर जा। शून्य का कहीं अनुभव होता है! और जिसका अनुभव हो जाए वह शून्य न रहा। शून्य भी अगर अनुभव हो जाए, तो शून्य नहीं रहा। अब तुझे शून्य को छोड़ना पड़ेगा। अब तू शून्य को भी छोड़ दे, तब तू सच में शून्य हो जाएगा।नकारात्मक विधि
का यही खतरा है कि वह पहले से ही नकार है अब वह युवक सिर धुनने लगा और कहने लगा कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गयी.. कुछ हो तो छोड़ना आसान है, अब शून्य को कैसे छोडूं?
शून्य तो कुछ है नहीं जिसे छोडूं! नकारात्मक विधि से एक दिन यह अड़चन आयेगी।
शून्य मुद्रा क्या है :-
02 FACTS;-
1-शून्य का अर्थ होता है आकाश। हमारी मध्यमा उंगली आकाश से जुडी हुई होती है। ये मुद्रा हमारे शरीर के अन्दर के तत्वों में संतुलन बनाये रखती है। शून्य मुद्रा मुख्यत: हमारी श्रवण क्षमता को बढ़ाती है। यह मुद्रा शरीर के अन्दर के अग्नि तत्वों को संचालित करती है। इस मुद्रा का ज्यादा तर अभ्यास शरीर के किसी भी हिस्से में होने वाले दर्द के लिए किया जाता है।
2-आकाश का अर्थ है खुलापन , विस्तार एवं ध्वनि। शुन्य मुद्रा इसका उल्टा है। आकाश तत्व की वृद्धि से जो असन्तुलन उत्पन्न होता है , उसे कम करने के लिए शून्य मुद्रा लगाते हैं।
शून्य मुद्रा करने के विधि :-
05 FACTS;-
1- सबसे पहले आप जमीन पर कोई चटाई बिछाकर उस पर पद्मासन या सिद्धासन में बैठ जाएँ , ध्यान रहे की आपकी रीढ़ की हड्डी सीधी हो।
2- अपने दोनों हाथों को अपने घुटनों पर रख लें और हथेलियाँ आकाश की तरफ होनी चाहिये।
3- मध्यमा अँगुली(बीच की अंगुली)को हथेलियों की ओर मोड़ते हुए अँगूठे से उसके प्रथम पोर को दबाते हुए बाकी की अँगुलियों को सीधा रखें।
4- अपना ध्यान साँसों पर लगाकर अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास के दौरान सांसों को सामान्य रखना है।
5- इस अवस्था में कम से कम 10 मिनट तक रहना चाहिये।इसका अभ्यास हर रोज़ करेंगे तो आपको अच्छे परिणाम मिलेंगे।मुद्रा का अभ्यास प्रातः एवं सायंकाल को 22-22 मिनट के लिए किया जा सकता है।
शून्य मुद्रा से होने वाले लाभ :-
10 FACTS;-
1. शरीर में किसी भी अंग में सुन्नपन आ जाए , तो इस मुद्रा को लगाने से सुन्नपन दूर होता है। सुन्नपन वहीं होता है , जहाँ रक्त संचार ठीक से न हो। शून्य मुद्रा रक्त संचार बढाती है।
2. कानों में सांय-सांय की आवाज हो , तो इस मुद्रा से लाभ होगा।कानों में दर्द के लिए यह मुद्रा बहुत ही लाभदायक है – तत्काल दो-तीन मिनट में ही कान दर्द समाप्त हो जाता है।
3.कानों में बहरापन हो जाए , कान बहता हो , तो लगभग 45 मिनट रोज इस मुद्रा के निरन्तर अभ्यास से बहरापन दूर होता है , कानों का बहना बंद हो जाएगा। कानों में जमी हुई मैल भी इस मुद्रा से दूर होगी। कानों के सभी रोगों में शून्य मुद्रा व आकाश मुद्रा दोनों ही लाभकारी हैं। कानों के बहरेपन में यह मुद्रा रामबाण का काम करता है।
4. बच्चों को कभी गाल पर थप्पड़ मारने से या टक्कर से कान में दर्द एवं कानों की सूजन भी इससे ठीक होती है ।जब कान बहते हों तो , कानों में दर्द हो तो डॉक्टर कानों में रुई डालकर कान बंद कर देते हैं – शून्य मुद्रा ठीक यही काम करती है
5.ह्रदय रोग व गले के रोग भी दूर होते हैं।मसूड़े मजबूत होते हैं , मसूड़ों का रोग पायरिया भी ठीक होता है।
6. इस मुद्रा से गले के रोग दूर होते हैं , आवाज साफ होती है और थायरायड के रोग भी दूर होते हैं।
7.हवाई यात्रा करते समय कानों में दवाब बढ़ जाता है Ear Plug लगाने पड़ते हैं। ऐसे में शून्य मुद्रा लगा लें।
8.इसके नियमित अभ्यास से इच्छा शक्ति मजबूत होती है,एकाग्रता बढती है।
9. शून्य मुद्रा थायराइड ग्रंथि के रोग भी दूर करती है। इसको करने से शरीर में किसी भी प्रकार के होने वाले दर्द में लाभ मिलता है।
10. जिस प्रकार आकाश मुद्रा विकलांग बच्चों के लिए लाभकारी है , उसी प्रकार से जो बच्चे Hyperactive होते हैं , अत्यधिक जिद्दी होते हैं , एक जगह टिक कर नहीं बैठ सकते उनमें एकाग्रता नहीं होती , उनका आकाश तत्व बढ़ा होता है , उन्हें शून्य मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए , और साथ ही पृथ्वी मुद्रा का भी क्योंकि उनका पृथ्वी तत्व कम होता है। Hyperactive बच्चों की एकाग्रता की कमी को Attention Deficit Disorder कहते हैं।
शून्य मुद्रा में सावधानियाँ :-
भोजन करने के तुरंत पहले या बाद में शून्य मुद्रा न करें किसी आसन में बैठकर एकाग्रचित्त होकर शून्य मुद्रा करने से अधिक लाभ होता है।
...SHIVOHAM....