क्या है ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का रहस्य?क्या है तीन लोक और 14 भवन का रहस्य ?PART-01
बिज्ञान की भाषा मे क्या अर्थ है ब्रह्मांड का?-
05 FACTS;-
1-अगर हम भौतिक रूप से ब्रह्माण्ड को समझना चाहें तो सम्पूर्ण समय और अंतरिक्ष और उसकी अंतर्वस्तु को ब्रह्माण्ड कहते हैं। ब्रह्माण्ड में सभी ग्रह, तारे, आकाशगंगाएँ के बीच के अंतरिक्ष की अंतर्वस्तु, अपरमाणविक कण, और सारा पदार्थ और सारी ऊर्जा शामिल है।सरल भाषा में ब्रह्माण्ड वो है जिसके क्षेत्र में सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह्, तारे आदि स्थित हैं और इस क्षेत्र के अस्तित्व का मूल आधार वो सारे तत्व हैं, जिनके द्वारा ब्रह्माण्ड में स्थित सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह्, तारे आदि निर्मित हैं। ब्रह्माण्डीय क्षेत्र और सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह्, तारों आदि के मध्य मात्र इतना सा अन्तर है कि ब्रह्माण्डीय क्षेत्र, तत्वों के "मूल" रूप से निर्मित है जो कि स्वतन्त्र हैं, जबकि सम्पूर्ण ग्रह, उपग्रह्, तारे आदि इन्हीं तत्वों के किसी कारणवश आपस में जुडने और जुड़ कर टूटने से निर्मित हैं।
2-ब्रह्मांड के जन्म का बिग-बैंग सिद्धांत;-
2-1-इस विराट ब्रह्माण्ड की मूल संरचना कैसी है- ये कुछ ऐसे मूलभूत प्रश्न हैं जो आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने सदियों पूर्व थे। हमारा अद्भुत ब्रह्माण्ड रहस्यों से भरा पड़ा है। यही विज्ञान है, जो प्रश्नों के जवाब तो देता है किन्तु साथ ही नये प्रश्न भी खड़े कर देता है।जार्ज लेमैत्रे (Georges Lemaitre) ने सन 1927 में सृष्टि की रचना के संदर्भ में महाविस्फोट सिद्धान्त(बिग-बैंग थ्योरी) का प्रतिपादन किया। 2-2-ब्रह्मांड का जन्म एक महाविस्फोट के कारण हुआ है. लगभग बारह से चौदह अरब वर्ष पूर्व संपूर्ण ब्रह्मांड एक परमाण्विक इकाई के रूप में अति-संघनित (compressed) था। उस समय समय और स्थान जैसी कोई वस्तु अस्तित्व में नहीं थी। लगभग १३.७ अरब वर्ष पूर्व इस महाविस्फोट से अत्यधिक ऊर्जा(energy) का उत्सजर्न(release) हुआ और हर 10-24 सेकंड से यह धमाका दोगुना बड़ा होता गया। यह ऊर्जा इतनी अधिक थी जिसके प्रभाव से आज तक ब्रह्मांड फैलता ही जा रहा है। इस धमाके के 3 लाख साल बाद पूरा ब्रह्मांड हाइड्रोजन और हीलियम गैस के बादलों से भर गया। इस धमाके के 3 लाख 80 हज़ार साल बाद अंतरिक्ष में सिर्फ फोटोन ही रह गये। इन फोटोन से तारों और आकाशगंगाओं का जन्म हुआ, और बाद में जाकर ग्रहों और हमारी पृथ्वी का जन्म हुआ. यही महाविस्फोट यानी बिग-बैंग का सिद्धांत है।
3- ब्लैक होल स्पेस में वो जगह है जहाँ भौतिक विज्ञान का कोई नियम काम नहीं करता।इसका गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र बहुत शक्तिशाली होता है।इसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता।प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है|यह अपने ऊपर पड़ने वाले सारे प्रकाश को अवशोषित कर लेता है|ब्लैक होल को हिन्दी मे ‘कृष्ण विवर‘ कहा जाता है | यह ब्रह्माण्ड का सबसे खतरनाक आकाशीय पिंड है। ब्लैक होल का अपना एक प्रभाव क्षेत्र होता है जिसे घटना क्षितिज कहा जाता है जिसमे आने वाली हर वस्तु चाहे कोई तारा या ग्रह या कोई चुम्बकीय विकिरण सभी को अपने अन्दर निगल लेता है और इसका आकार बढ़ता जाता है ।यहां तक कि प्रकाश, जिसकी गति 3 लाख km/sec है उसे भी यह अपने आप में खींचकर निगल जाता है और प्रकाश भी इसकी चपेट से बचकर नहीं निकल पाता।
4-यही कारण है कि ब्लैक होल का कोई वास्तविक फ़ोटो नहीं लिया गया जा सका था | इसके क्षेत्र में कुछ भी दिखाई नहीं देता है इसलिए इसे ब्लैक होल नाम दिया गया है।इसके प्रभाव क्षेत्र में गुरुत्वाकर्षण इतना प्रबल होता है कि यहाँ “time और space” दोनों विकृत हो जाते हैं और समय की गति बहुत धीमी पड़ जाती है।यह एक ऐसा पिंड है जिसके पास रोशनी भी नही जा सकती |इसका गुरुत्वाकर्षण इतना तेज है की ये सभी चीजों को निगल जाता है |इसके जितना पास जाते है तो समय का प्रभाव भी कम होने लगता है |उसके अंदर समय का भी कोई अस्तित्व नही है|
5-ब्रह्माण्ड में अनुमानतः 100 अरब आकाशगंगाएँ (Galaxy) हैं।आधुनिक भौतिक-शास्त्री आकाशगंगा, मिल्की वे, क्षीरमार्ग या मन्दाकिनी हमारी गैलेक्सी को कहते हैं, जिसमें पृथ्वी और हमारा सौर मण्डल स्थित है। आकाशगंगा आकृति में एक सर्पिल (स्पाइरल) गैलेक्सी है, जिसका एक बड़ा केंद्र है और उस से निकलती हुई कई वक्र भुजाएँ। हमारा सौर मण्डल इसकी शिकारी-हन्स भुजा (ओरायन-सिग्नस भुजा) पर स्थित है ।आज बिज्ञान के मुताबिक इस
आकाशगंगा मे 50% से ज्यादा ब्रह्मांड ब्लैकहोल बन चूकें हैं यानि की 50% से ज्यादा ब्रह्मांड की आयु अंत हो चुकी हैं। और जिस गति से अन्तरिक्ष मे और धरती में परिबर्तन आ रहा है..इससे स्पष्ट हैं कि परिबर्तन का समय बहुत नजदीक है।
क्या बिग-बैंग सिद्धांत सिद्धांत पूर्ण है?-
07 FACTS;-
1-आइन्स्टीन के समय (Time) तथा स्थान (Space) के Continuity के सिद्धांतों ने वैज्ञानिकों के सामने सोचने के नए आयाम रखे जिसके फलस्वरूप विश्व में ऐसे विद्वानों का अभ्युदय हुआ जो ये मानने लगे कि अतीत में भी इस धरती पर परग्रही और बुद्धिमान प्राणी, धरती वासियों के सहायता के लिए, आते रहें हैं जिन्हें शायद हमारे पूर्वज देवता या भगवान मानते थे |
2-लेकिन ये परग्रही बुद्धिमान प्राणी आखिर ब्रह्माण्ड के किस कोने से हमारे ग्रह में आते थे या कहीं ऐसा तो नहीं कि ये किसी और ब्रह्माण्ड के प्राणी थे | देखा जाय तो आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दिया गया Big Bang Theory का सिद्धांत अपूर्ण है, अभी इसमें महत्वपूर्ण संशोधन होने बचे हैं लेकिन फिर भी इसने प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथों में आये रहस्यमय शब्द ‘महत्तत्व’ को फिर से जीवित किया है |
3-बिग बैंग थ्योरी हमें बताती है कि सबसे पहले जब कुछ नहीं था तब केवल एक चीज थी ‘The Great Grand Matter’ इस द्रव्य का घनत्व (Density) 1095 Kg/Cm3 था | इसी महान द्रव्य में एक अज्ञात रहस्यमय कारण से भयंकर विस्फोट होता है और उसका समय तथा स्थान में विस्तार आरम्भ हो जाता है |
4-सबसे पहले उससे गुरुत्वाकर्षण बल (Gravitational Force) अलग होता है, ये प्रक्रिया पूरी होती है 10-43 सेकंड में | फिर उससे सबल नाभिकीय बल (Strong Nuclear Force) अलग होता है और ये प्रक्रिया पूरी होती है 10-35 सेकंड में | सबल नाभिकीय बल, किसी परमाणु की नाभिक में स्थित न्यूट्रॉन और प्रोटोन के बीच लगने वाला बल होता है |
5-इसके बाद इससे विदुत-चुम्बकीय बल (Electro-Magnetic Force) अलग होता है और इसका समय होता है 10-23 सेकंड | और इसके बाद इससे अलग होता है दुर्बल नाभिकीय बल (Weak Nuclear Force) जिसका अंतराल होता है 10-14 सेकंड | दुर्बल नाभिकीय बल किसी परमाणु में स्थित इलेक्ट्रान और उसकी नाभिक में स्थित प्रोटोन के बीच लगने वाला बल होता है |
6-इस प्रकार से सभी बलों के अलग हो जाने के बाद कुछ काल में परमाणुओं का निर्माण प्रारंभ हो जाता है और फिर आकाशगंगा, ग्रह तथा तारों का निर्माण भी | लेकिन ये सिद्धांत अपूर्ण है | इसका मूल प्रश्न ही अनुत्तरित है कि उस महान द्रव्य में विस्फोट किस ‘कारण’ से होता है | साथ ही ये ब्रह्माण्ड में स्थित विभिन्न आयामीय मंडलों (Dimensional Planes) के अस्तित्व की भी समुचित व्याख्या नहीं करता |
7-लेकिन वैज्ञानिक उस The Great Grand Matter से होते हुए प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वर्णित ‘महत्तत्व’ तक पहुँच गए हैं और उस पर शोधकार्य जारी है | भारतीय मनीषियों का दृष्टिकोण अलग था | वो आशावादी था | उन्होंने किसी प्रश्न को अनुत्तरित नहीं छोड़ा वो हर रहस्य के तह तक गए और उन्होंने ‘अन्तिम सत्य’ (Ultimate Truth) को प्राप्त किया |
आज आवश्यकता है तो उनके द्वारा किये गए खोज कार्यों पर दोबारा शोध करने की |
विभिन्न धर्म की मान्यताओं के अनुसार ब्रह्माण्ड का क्या अर्थ है ?-
04 FACTS;-
1-हिन्दू धर्म में मानते हैं कि ब्रह्माण्ड अनादि-अनंत है, इसका न कोई शुरुवात है और न ही अंत। इसमें सृष्टि सृजन से पहले की भी कहानी होगी और अंत होने के बाद भी, इसलिए कोई एक समय नहीं है - सृष्टि सृजन का!
2-दूसरी तरफ यहूदी, इस्लाम, ईसाई एवं अन्य कई धर्मों के लोगों का मानना है कि दुनिया एक दिन शुरू हुई थी और एक दिन खत्म हो जाएगी ; इसे बाइबिल में एपोकलिप्स कहा गया है। वहीं अरस्तु एवं अन्य यूनानी दार्शनिकों की धारणा थी कि यह संसार सदैव से अस्तित्व में था तथा सदैव ही अस्तित्व में रहेगा।
3-बौद्ध दर्शन में ब्रह्मांड की उत्पत्ति, आत्मा और ईश्वर आदि की अवधारणा संबंधी प्रश्नों को कोई विशेष स्थान नहीं दिया गया है।मत्स्य पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना एक सुनहरे गर्भ में ब्रह्मा के प्रवेश कर जाने के फलस्वरूप हुई है। इसी गर्भ को हिरण्यगर्भ की संज्ञा दी गई है, जबकि सांख्य दर्शन सृष्टि की रचना की गुत्थी को पुरुष तथा प्रकृति नामक दो शाश्वत तत्वों के आधार पर सुलझाने का प्रयास करता है। 4-सांख्य दर्शन के अनुसार .. पुरुष शुद्ध चेतन स्वरूप है तथा प्रकृति तमस, रजस तथा सत्व नामक त्रिगुणों से युक्त अचेतन तत्व है। सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व प्रकृति के तीनों गुण एक संतुलन की स्थिति में शांत अवस्था में विद्यमान रहते हैं। किंतु अनादि काल में पुरुष की प्रकृति से निकटता के कारण ये तीन तत्व कम्पायमान अवस्था में आकर सृष्टि का निर्माण करने लगते हैं। इस दर्शन के अनुसार जब पुरुष अथवा शुद्ध चैतन्य, प्रकृति के इस नृत्य अथवा क्रीड़ा से स्वयं को तटस्थ कर स्वयं में लीन हो जाता है तब वह कैवल्य अथवा मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार ब्रह्माण्ड का क्या अर्थ है ?-
08 FACTS;-
1- आज का बिज्ञान हमारे पुराणों मे लिखी गई बात की प्रमाण दे रहा है। वो अनंत कोटि ब्रह्मांड जो अन्तरिक्ष मे आकाशगंगा के अंदर घूम रहें है वो भी हमारे जैसे ही है और एक ब्रह्मांड की रचना एक शिव करता है और समय के साथ जैसे शिव की शक्ति कम होती जाता है तो वो अपने बनाये हुए ब्रह्मांड को अपने अंदर समा लेता है। तो जब शिव को शक्ति/पावर चाहिए तो वो आपने रचयिता यानि महाशिव के पास जाता है जैसे की आम दुनियाँ मे बच्चे अपने पिता के पास पैसा मांगने जाते है.. जब बच्चे के पास खर्च करने के लिए पैसा नहीं बचता।
2-जैसे इस दुनिया में कुछ भी करने के लिए पावर यानि ताकत चाहिये ; ऐसे ही आध्यात्मिक दुनियाँ मे भी पावर /परम प्रकाश या सकारात्मक ऊर्जा.. सृष्टि और उसकी संचालन के लिए जरूरत पड़ती है। ये एक संसार के नियम है; जो सृजन करता है वही विसर्जन कर सकता है। इसलिए शिव को ही काल कहा जाता है क्योकि इस ब्रह्मांड का समय शिव से शुरू होता है और शिव से ही अंत होता है। जब शिव ब्रह्मांड का अंत करता है तो उसको काल प्रलय कहते हैं।
3-शिव निराकार से आकारी शिव बनते है। आकारी शिव- शक्ति शिवपुरी में रहते हैं जो की परम धाम के नीचे हैं और आकारी शिव के एक सैल या अंश से महादेव यानि शंकर की रचना होती है जो की कैलाश पर्वत में रहते हैं। तो ब्रह्मा , बिष्णु , शंकर ये सब देवता हैं उनको परमात्मा नहीं कहा जाएगा। सिर्फ निराकार शिव को ही परमात्मा कहा जाएगा जो इस पूरे ब्रह्मांड का सृजन करता है।
4-ऐसे ही एक आकाशगंगा के मालिक को महाशिव कहते है। महाशिव से महाशक्ति , महा विष्णु , महाब्रह्मा , और ये सारे शिव ..जो कि एक -एक ब्रह्मांड के मालिक है और ब्रह्मांड को संचालन करने में लगे रहते हैं; इन सबकी रचना होती है। जैसे ब्रह्मांड का समय एक शिव से होता है ;ऐसे ही एक आकाशगंगा का समय एक महाशिव से शुरू होता है। समय के प्रारम्भ मे महाशिव के पास भी परम प्रकाश की ऊर्जा रहती है और जैसे समय आगे बढ़ता है तो महाशिव की भी ऊर्जा /पावर घटता रहती है और एक ऐसा समय आता है जब महाशिव के पास भी सामर्थ्य नहीं रहती कि वो आकाशगंगा को चलाने के लिए ऊर्जा दे।
5-तब महाशिव पूरे अनंत कोटि ब्रह्मांड को महाकाल अग्नि के द्वारा भस्म करके; अपने अंदर समेट लेता है। इसको महाकाल -प्रलय कहते हैं। इसको बिज्ञान की भाषा में सुपर मशीन ब्लैकहोल कहते हैं। आज बिज्ञान ने भी इसकी खोज कर लिया है और अन्तरिक्ष में ऐसे बहुत सुपर मशीन ब्लैकहोल घूम रहें हैं। जो एक समय कल्पना में था; आज हम उसको बिज्ञान द्वारा समझ सकते हैं।
6-ये शिव या महाशिव की पावर /ऊर्जा क्यो घटती रहती है.. ये बहुत गहरा आध्यात्मिक
बिज्ञान है ।जैसे हमारे भौतिक दुनिया मे एक छोटी शक्ति एक बड़ी शक्ति के चारों ओर घूमती रहती है ऐसे ही सौर मण्डल या ब्रह्मांड ,आकाशगंगा मे और आकाशगंगा यूनिवर्स मे घूमता रहता है। सूर्य , ग्रह, आकाशगंगा , यूनिवर्स ये सारे चीज घूम रहें हैं लेकिन एक बिशेष आवृत्तियों( फ्रिक्वेन्सी) मे। कोई भी चीज इस अंतरिक्ष मे स्थिर नहीं हैं लेकिन हम इस धरती मे बसना चाहते हैं।
7-हम एक उदाहरण से अपनी हालत समझ सकते हैं ।उदाहरण के लिए ,एक चींटी एक पत्ते के ऊपर बैठी हैं और वो पत्ता एक कटोरी मे हैं; और ये कटोरी एक टोकरी मे बंद है और ये टोकरी एक जहाज के अंदर हैं; और ये जहाज एक असीमित समंदर मे जा रहा हैं । ये समंदर.. अंतरिक्ष जैसी हैं और ये धरती एक पत्ता जैसी हैं और हमारी हालत एक चींटी जैसी हैं । समंदर की एक छोटा सी लहर एक क्षण मे सब कुछ अंत कर सकती हैं.. लेकिन हम लोग इस पृथ्वी के ऊपर सबसे बड़ा बनने के लिए लड़ रहे हैं। इस उदाहरण से हमारी हालत क्या है.. हम सब समझ सकते है। इसलिए हमें उस जगतपिता को समझना पड़ेगा जो सारी अनंत सृष्टि को ऊर्जा दे रहा है और जिसकी ऊर्जा का अंत नहीं है।
8-बिज्ञान अब तक बता चुका है कि असंख्य सौर मण्डल जिसको हम ब्रह्मान्ड कहते हैं वो सब एक आकाशगंगा के अंदर, आकाशगंगा के केंद्र के चारों तरफ; प्रदक्षिणा कर रहें हैं।ऐसे असंख्य यूनिवर्स अंतरिक्ष मे हैं। ये भी बिज्ञान बता रहा है कि हमारी आकाशगंगा मे करीब 800 अरब ब्रह्मान्ड हैं। तो इतने शिव हमारी आकाशगंगा में हैं।
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क्या ब्रह्माण्ड चौदह लोकों में व्याप्त है ?-
05 FACTS;-
1-आज जिस ब्रह्माण्ड में हम लोग रहते हैं- “यह प्रकृत से उत्पन्न रमणीय ब्रह्माण्ड चौदह लोकों में व्याप्त है ...
2-तीन लोक के नाम;-
हिन्दू धर्म शास्त्रों में त्रिलोक या तीन लोक और 14 भवन के बारे में बताया गया है |
2-1-पाताल लोक ( अधोलोक ):-
इस लोक में राजा बलि अमर है | यह वरदान उन्हें विष्णु ने दिया था | विष्णु पुराण के अनुसार सात प्रकार के पाताल लोक होते हैं। यहा दैत्य, दानव, यक्ष और बड़े बड़े नागों की जातियां वास करतीं हैं। 2-2-भूलोक ( मध्यलोक ):-
मध्य में हमारा लोक यानि भूलोक है |यह पृथ्वी है जिसमे मनुष्य जीव जन्तु निवास करते है |
2-3.स्वर्गलोक(उच्चलोक) :-
यहा देवताओ के राजा इंद्र , सूर्य देवता , पवनदेव , चन्द्र देवता , अग्नि देव , जल के देवता वरुण , देवताओ के गुरु बृहस्पति, अप्सराये आदि निवास करती है | हिन्दू देवी-देवताओं का वास है |
3-14 भवन के नाम;- इन लोको को भी 14 लोको में बांटा गया है। इन 14 लोकों को भवन भी पुकारा जाता है| ब्रह्माण्ड के उपरी हिस्से (Upper Half) में सात लोक जिनके नाम हैं-- 1-भुवर्लोक, 2-स्वर्लोक, 3-महर्लोक, 4-जनलोक, 6. तपलोक, 7- ब्रह्मलोक,
8-सत्यलोक,
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ब्रह्माण्ड के निचले हिस्से (Lower Half) में सात लोक जिनके नाम हैं..... 8-अतललोक 9-वितललोक 10- सुतललोक 11- तलातललोक 12- महातललोक 13- रसातललोक 14-पाताललोक
4-जैसे हमारा स्थूल शरीर , सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर है ऐसे है हमारा ब्रह्मान्ड के भी तीन शरीर है। जैसे हमारा स्थूल शरीर हमें दिखता है.. लेकिन बाकी दो शरीर नहीं दिखते। हमारा शरीर पाँच तत्त्व से बना है लेकिन सिर्फ जल तत्त्व और पृथ्वी तत्त्व हम देख सकते हैं इसलिए स्थूल शरीर मे ये दोनों तत्त्व हमें दिखते हैं । बाकी अग्नि , वायु और आकाश हमे नहीं दिखते.. वो सूक्ष्म और कारण शरीर को बनाते हैं।
5- मनुष्य पुण्य करता है तो ऊपर की ओर जाता है और पाप करता है तो नीचे की ओर जाता है। ये पाप- पुण्य 'कर्म 'से जुड़ा है। अच्छा कर्म हमको हल्का बनाएगा तो हम ऊपर की ओर जाएंगे। बुरा कर्म हमें भारी बनाएगा तो हम नीचे की और जाएंगे। ये कर्म हमारी आत्मा मे रेकॉर्ड होता है जो हमारी आत्मा को भारी या हल्का बनाता है। ब्रह्म लोक से ऊपर विष्णु लोक है जिसको हम बैकुंठ कहते हैं। बैकुंठ के ऊपर शिवपुरी हैं। शिवपुरी के ऊपर परम धाम हैं। भू लोक से ब्रह्म लोक तक के ब्रह्मांड को सूक्ष्म जगत कहते हैं। बैकुंठ को कारण जगत कहते हैं। शिवपुरी को महाकारण जगत कहते हैं। शिवपुरी के ऊपर परम धाम होता है जहां आत्मा एक बार जाती है तो फिर नहीं लौटती है। परम धाम परम प्रकाश की है।
क्या है प्राणियों का शास्त्रीय वर्गीकरण ?-
05 FACTS;-
1-प्राणियों का शास्त्रीय वर्गीकरण शरीरधारी और अशरीरी दो भागों में किया गया है।चौरासी लाख योनियां शरीरधारियों की हैं। वे स्थूल जगत में रहती हैं और आँखों से देखी जा सकती हैं। दिव्य जीव जो आँखों से नहीं देखे जा सकते हैं उनका शरीर दिव्य होता है। सूक्ष्म जगत में रहते हैं। इनकी गणना तत्वदर्शी मनीषियों ने अपने समय में 33 कोटि की थी। तेतीस कोटि का अर्थ उनके स्तर के अनुरूप तेतीस वर्गों में विभाजित किये जा सकने योग्य भी होता है। 2-कोटि का एक अर्थ वर्ग या स्तर होता है। दूसरा अर्थ है—करोड़। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि उन दिव्य सत्ताधारियों की गणना तेतीस करोड़ की संख्या में सूक्ष्मदर्शियों ने की होगी। जो हो उनका अस्तित्व है ..कारण और प्रभाव भी।
3-शरीरधारी योनियों में 84 लाख की संख्या किसी समय गिनी गई होगी, पर सदा सर्वदा वह उतनी ही रहे यह आवश्यक नहीं। जीवों के विकास क्रम को देखने से पता चलता है कि कितनी ही प्राचीन जीव जातियाँ लुप्त होती जाती हैं और कितने ही नये प्रकार के जीवधारी अस्तित्व में आते हैं।फिर कितने ही जीव ऐसे हैं जिन्हें अनादि काल से जन–संपर्क से दूर अज्ञात क्षेत्रों में ही रहना पड़ा है और उनके सम्बन्ध में मनुष्य की जानकारी नहीं के बराबर है। कुछ प्राणी ऐसे हैं जो खुली आँखों से नहीं देखे जा सकते।
4-अशरीरी वर्ग में/दिव्य योनियों के चार वर्ग;-
(1)पितर (2)मुक्त (3) देव (4)प्रजापति
पितर, मुक्त, देव और प्रजापति हमारी तरह पंच तत्वों का दृश्यमान शरीर धारण किए हुए नहीं है अस्तु उन्हें हम चर्मचक्षुओं से नहीं देख सकते तो भी उन्हें सूक्ष्म शरीरधारी ही कहा जायगा। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की तन्मात्राएँ उनके दिव्य शरीरों में विद्यमान रहती हैं अतएव वे शरीरधारी प्राणियों को एवं पञ्चतत्वों से बने हुए पदार्थों को प्रभावित कर सकते हैं। अपनी सीमा मर्यादा के अनुरूप वे अपनी सामर्थ्य का ; उपयुक्त अवसर पर प्रयोग भी करते हैं और दृष्टि सन्तुलन बनाये रखने में अपनी भूमिका का निर्वाह भी करते हैं।
4-1-पितर;-
पितर वे हैं जो पिछला शरीर त्याग चुके किन्तु अगला शरीर अभी प्राप्त नहीं कर सके। इस मध्यवर्ती स्थिति में रहते हुए वे अपना स्तर मनुष्यों जैसा ही अनुभव करते हैं। पिछले भले−बुरे गुण, कर्म, स्वभाव की प्रतिक्रियाएँ स्वर्ग−नरक के रूप में अनुभव करते रहते हैं। जन संकुल वातावरण में ही वे आत्माएँ भ्रमण करती रहती हैं। छोड़े हुए शरीर के जीवन काल में अनवरत श्रम करते हुए जो थकान चढ़ी थी उसे उतारने के लिए यह अवधि होती है।
4-2-मुक्त;-
मुक्त वे है जो लोभ-मोह के ,राग−द्वेष के और वासना- तृष्णा के बन्धन काट चुके है। सेवा सत्कर्मों की प्रचुरता से जिनके पाप प्रायश्चित्त पूर्ण हो गये है। उन्हें शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं रहती। उनका सूक्ष्म शरीर अत्यन्त प्रबल होता है। अपनी सहज सतोगुणी करुणा से प्रेरित होकर प्राणियों की सत्प्रवृत्तियों का परिपोषण करते हैं। सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान देते हैं। श्रेष्ठ कर्मों की सरलता और सफलता में उनका प्रचुर सहयोग रहता है।
4-3-देव ;-
देव वे जिन्हें सृष्टि सन्तुलन बनाये रहने का ईश्वर प्रदत्त विशिष्ट उत्तरदायित्व वहन करना पड़ता है। वे समय−समय पर विशेष प्रयोजनों के लिए -विशेष कलेवर धारण करके देवदूतों, महामानवों एवं अवतारी महापुरुषों के रूप में जन्म लेते हैं। समय की विकृतियों का निराकरण और अभीष्ट सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन उनका प्रधान कार्य रहता है। धर्म की ग्लानि और अधर्म के अभ्युत्थान का समाधान ,साधुता का परित्राण एवं दुष्कृतों का विनाश ..इन अवतारी महामानवों का लक्ष्य रहता है। लोक−शिक्षण एवं नव−निर्माण के लिए उनके विविध क्रिया−कलाप होते हैं। सामयिक सन्तुलन ठीक हो जाने के उपरान्त वे अशरीरी रहकर विश्व−कल्याण के प्रयोजनों में निरत रहते हैं।
4-4-प्रजापति;-
प्रजापति वर्ग की वे दिव्यात्माएँ होती हैं जो केवल पृथ्वी का न हों वरन् समस्त ब्रह्माण्ड का ;उसमें अवस्थित पृथ्वी जैसे असंख्यों चेतन प्राणधारियों वाले पिण्डों का और निर्जीव ग्रह−नक्षत्रों का सन्तुलन बनाते हैं। ब्रह्माण्ड में चल रही विविध क्रियाओं एवं उनकी प्रतिक्रियाओं की स्थापना और व्यवस्था उसी वर्ग की आत्माओं को सम्भालनी पड़ती है। उन्हें सृष्टा, पोषक−संहारक स्तर के कार्य ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भूमिका में सम्पन्न करने पड़ते हैं।
परब्रह्म;-
परब्रह्म साक्षी, दृष्टा, अचिन्त्य एवं अनिर्वचनीय है। उसकी अनुभूति ही हो सकती है व्याख्या नहीं। शरीरी और अशरीरी स्थूल और सूक्ष्म कहे जाने वाले समस्त प्राणी उसी में से उत्पन्न होते हैं और अत्यन्त उसी में लय हो जाते हैं। जड़ और चेतन सृष्टि का—परा और
अपरा प्रकृति का ,सृजेता एवं अधिपति वही है। उसी ब्रह्म महासागर की लहरें हमें विविध आकार−प्रकारों में ज्ञान−विज्ञान के माध्यम से अनुभव करते हैं।
5- शरीरधारी योनियों के चार वर्ग;-
शरीरधारियों में (1) उद्भिज (2) स्वेदज (3) अंडज (4) जरायुज हैं ..
5-1-उद्भिज ;-
उद्भिज वर्ग में पेड़−पौधे, लता गुल्म, घास, अन्न जड़ी−बूटियाँ आदि की गणना की जाती है।
5-2-स्वेदज ;-
स्वेदज का मोटा अर्थ तो पसीने से उत्पन्न होने वाले ‘जूँ’ आदि का नाम लिया जाता है, पर वस्तुतः यह शब्द मेरुदण्ड रहित प्राणियों के लिए प्रयुक्त होता है कीट−पतंग, मक्खी, मच्छर, टिड्डी, तितली आदि इसी वर्ग में आते हैं।
5-2-अंडज;-
अंडज वे हैं, जो अपने शरीर से अंडा ही उत्पन्न कर सकते हैं। बच्चा उनके शरीर में नहीं पलता, वरन् अण्डे में विकसित होता और उसी को फोड़कर शरीरधारी बनता है। इस वर्ग में मछलियाँ, पक्षी, रेंगने वाले कीड़े आदि आते हैं।
5-4-जरायुज;-
चौथे जरायुज जिन्हें पिण्डज भी कहते हैं वे हैं जो माता के साथ नाल तन्तु से बँधे हुए उत्पन्न होते हैं। जन्म के समय ही जिनकी आकृति अपने जन्मदाताओं के अनुरूप होती है। मनुष्य और पशु इसी श्रेणी में गिने जा सकते हैं। यों स्वेदजों में से भी अधिकाँश अण्डज ही होते हैं, पर उन्हें पृथक रीड़ रहित या रीड़ सहित होने के कारण पृथक वर्ग का गिना गया है।
मानव जन्म और शरीर का रहस्य;-
05 FACTS;- 1-नैमिशारण्य में वेदव्यास के शिष्य महर्षि सूत ने शौनक आदि मुनियों को यह वृत्तांत सुनाया, "हे मुनिवृंद, वैनतेय ने श्रीमहाविष्णु से प्रश्न किया था कि हाड़-मांस, नसें, रक्त, मुंह, हाथ-पैर, सिर, नाक, कान, नेत्र, केश और बाहुओं से युक्त जीव के शरीर का निर्माण कैसे होता है? श्रीमहाविष्णु ने इसके जो कारण बताए, वे है.. 2-स्त्रियों के रजस्वला के छठे दिन से अठारह दिन तक यदि छठे, आठवें, दसवें, बारहवें, चौदहवें, सोलहवें और अठारहवें दिन वे पति के साथ संयोग करती हैं तो उन्हें पुरुष संतान की प्राप्ति होगी। ऐसा न होकर पांचवें दिन से लेकर अठारह दिन तक विषम दिनों में यानी पांच, सात, नौ, ग्यारह, तेरह, पंद्रह और सत्रहवें दिन मैथुन क्रिया संपन्न करने पर स्त्री संतान होगी। इसलिए पुत्र प्राप्ति करने की कामना रखनेवाले दम्पतियों को सम दिनों में ही दांपत्य सुख भोगना होगा।
3-रति क्रीड़ा के समय यदि पति के शुक्र की मात्रा अधिक स्खलित होती है तो पुरुष संतान होती, पत्नी के श्रोणित की मात्रा अधिक हो जाए तो स्त्री संतान के रूप में गर्भ शिशु का विकास होता है। अगर दोनों की मात्रा समान होकर पुरुष शिशु का जन्म होता है तो वह नपुंसक होगा। गर्भ धारण के रतिक्रीड़ा में स्खलित इंद्रियां गर्भ-कोशिका में एक गोल बिंदु या बुलबुला उत्पन्न करता है। 4-इसके बाद पंद्रह दिनों के अंदर उस बिंदु के साथ मांस सम्मिलित होकर विकसित होता है। फिर क्रमश: इसकी वृद्धि होती जाती है। एक महीने के पूरा होते-होते उस पिंड से पंच तत्वों का संयोग होता है। दूसरे महीने पिंड पर चर्म की परत जमने लगती है। तीसरे महीने में नसें निर्मित होती हैं। चौथे महीने में रोम, भौंहें, पलकें आदि का निर्माण होता है। 5-पांचवें महीने में कान, नाक, वक्ष; छठे महीने में कंठ, सिर और दांत तथा सातवें महीने में यदि पुरुष शिशु हो तो पुरुष-चिह्न्, स्त्री शिशु हो तो स्त्री-चिह्न् का निर्माण होता है। आठवें महीने में समस्त अवयवों से पूर्ण शिशु का रूप बनता है। उसी स्थिति में उस शिशु के भीतर जीव या प्राण का अवतरण होता है। नौवें महीने में जीव सुषुम्न नाड़ी के मूल से पुनर्जन्म कर्म का स्मरण करके अपने इस जन्म धारण पर रुदन करता है। दसवें महीने में पूर्ण मानव की आकृति में माता के गर्भ से जन्म लेता है।
क्या मानव शरीर के भीतर चौदह भुवन या लोक निहित हैं?-
08 FACTS;-
1-मानव शरीर का गठन अति विचित्र है। इस शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम, बत्तीस दांत, बीस नाखून, सत्ताईस करोड़ शिरोकेश, तीन हजार तोले के वजन की मांसपेशियां, तीन सौ तोले वजन का रक्त, तीस तोले की मेधा, तीस तोले की त्वचा, छत्तीस तोले की मज्जा, नौ तोले का प्रधान रक्त और कफ, मल व मूत्र-प्रत्येक पदार्थ नौ तोले के परिमाण में निहित हैं। इनके अतिरिक्त अंड के भीतर की सारी वस्तुएं शरीर के अंदर समाहित हैं। 2-प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-ये पांच 'प्राण वायु' कहलाते हैं। इसी प्रकार नाग, कर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय नामक अन्य पांच वायु भी हैं। इस शरीर में शुक्ल, अस्थियां, मांस, जल, रोम और रक्त नामक छह कोशिकाएं हैं। नसों से बंधित इस स्थूल शरीर में चर्म, अस्थियां, केश, मांस और नख-ये क्षिति या पृथ्वी से सम्बंधित गुण हैं। 3-मुंह में उत्पन्न होनेवाला लार, मूत्र, शुक्ल, पीव, व्रणों से रिसनेवाला जल-ये आप यानी जल गुण हैं। भूख, प्यास, निद्रा, आलस्य और कांति तेजोगुण हैं यानी अग्नि गुण है। इच्छ, क्रोध, भय, लज्जा, मोह, संचार, हाथ-पैरों का चालन, अवयवों का फैलाना, स्थिर यानी अचल होना-ये वायु गुण कहलाते हैं।
4-ध्वनि भावना, प्रश्न, ये गगन यानी आकाशिस्थ गुण है। कान, नेत्र, नासिका, जिा, त्वचा, ये पांचों ज्ञानेंद्रिय हैं। इडा, पिंगला और सुषुम्ना ये दीर्घ नाड़ियां हैं।इनके साथ गांधारी, गजसिंह, गुरु, विशाखिनी-मिलकर सप्त नाड़ियां कहलाती हैं। मनुष्य जिन पदार्थो का सवेन करता है उन्हें उपरोक्त वायु उन कोशिकाओं में पहुंचा देती हैं। परिणामस्वरूम उदर में पावक के उपरितल पर जल और उसके ऊध्र्व भाग में खाद्य पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं। इस जटराग्नि को वायु प्रज्वलित कर देती है। 5-इसी प्रकार शरीर के भीतर चौदह भुवन या लोक निहित हैं- ये भुवन शरीर के विभिन्न अंगों के प्रतीक हैं, जैसे-दायां पैर अतल नाम से व्यवह्रत है, तो एड़ी वितल, घुटना सुतल, घुटने का ऊपरी भाग यानी जांध रसातल, गुह्य पाश्र्व भाग तलातल, गुदा भाग महातल, मध्य भाग पाताल, नाभि स्थल भूलोक, उदर भुवर्लोक, ह्रदय सुवर्लोक, भुजाएं सहर्लोक, मुख जनलोक, भाल तपोलोक, शिरो भाग सत्यलोक माने जाते हैं। 6-इसी प्रकार त्रिकोण मेरु पर्वत, अघ: कोण, मंदर पर्वत, इन कोणों का दक्षिण पाश्र्व कैलाश वाम पाश्र्व हिमाचल, ऊपरी भाग निषध पर्वत, दक्षिण भाग गंधमादन पर्वत, बाएं हाथ की रेखा वरुण पर्वत नामों से अभिहित हैं। 7-अस्थियां जम्बू द्वीप कहलाती हैं। मेधा शाख द्वीप, मांसपेशियां कुश द्वीप, नसें क्रौंच द्वीप, त्वचा शालमली द्वीप, केश प्लक्ष द्वीप, नख पुष्कर द्वीप नाम से व्यवहृत हैं। जल समबंधी मूत्र लवण समुद्र नाम से पुकारा जाता है तो थूक क्षीर समुद्र, कफ सुरा सिंधु समुद्र, मज्जा आज्य समुद्र, लार इक्षु समुद्र, रक्त दधि समुद्र, मुंह में उत्पन्न होनेवाला जल शुदार्नव नाम से जाने जाते हैं। 8-मानव शरीर के भीतर लोक, पर्वत और समुद्र ही नहीं बल्कि ग्रह भी चक्रों के नाम से समाहित हैं। प्रधानत: मानव के शरीर में दो चक्र होते हैं- नाद चक्र और बिंदु चक्र। नाद चक्र में सूर्य और बिंदु चक्र में चंद्रमा का निवास होता है। इनके अतिरिक्त नेत्रों में अंगारक, ह्रदय में बुध, वाक्य में गुरु, शुक्ल में शुक्र, नाभि में शनि, मुख में राहू और कानों में केतु निवास करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य के भीतर भूमंडल और ग्रह मंडल समाहित है। यही मानव जन्म और शरीर का रहस्य है।
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क्या है ब्रह्माण्ड के चौदह अलग-अलग आयामीय मंडल (Dimensional Plane)का रहस्य?-
11 FACTS;-
1-समस्त भूमंडल, सप्त महाद्वीपों ,सप्त महासागरों तथा चार प्रकार के प्राणियों (स्वेदज, अंडज, जरायुज तथा उद्भिज) से युक्त है | इस प्रकार से हम समझ सकते हैं कि हमारी पृथ्वी के अलावा इस ब्रह्माण्ड में चौदह अलग-अलग आयामीय मंडल (Dimensional Plane) हैं | ऐसा कहा गया है कि जिस प्रकार से वस्त्र की परतें होती हैं उसी प्रकार से ये ब्रह्माण्ड दस उत्तरोत्तर विशाल आवरणों से घिरा हुआ है |
2-ये दस विशाल आवरण वास्तव में इस ब्रह्माण्ड का दस आयामों (Dimensions) में विस्तार है | ब्रह्मा जी ने प्रकृति की सहायता से इस ब्रह्माण्ड को ग्यारह आयामों (Dimensions) में रचा है | ग्यारहवें आयाम, जिसमे स्वयं ब्रह्मा जी स्थित हैं, में बाकी दसो आयाम का विस्तार है | यहाँ आयामों (Dimensions) को आयामीय मंडल (Dimensional Plane) नहीं समझना चाहिए |
3-आयामीय मंडल (Dimensional Plane) को एक पृथक लोक समझ सकते हैं जो बाकी लोकों से भिन्न होगा जबकि ब्रह्माण्ड का प्रत्येक आयाम (Dimensions) अपने से नीचे वाले आयाम (Dimensions) की तुलना में, समय तथा स्थान में अधिक विस्तार लिए हुए होगा | विचित्र बात ये है कि ब्रह्माण्ड के एक ही आयाम (ग्यारहवें आयाम) में बाकी दसों आयामों का विस्तार हुआ है |
4-मृत्यु के बाद, चेतना का जितना विस्तार हुआ होता है, उसी अनुसार उसकी आयामों में गति होती है | पुराणों में आया है है कि ये प्राकृत ब्रह्माण्ड साठ करोड़ योजन ऊंचा और पचास करोड़ योजन विस्तार वाला है (पूरी तरह गोल नहीं है ये ब्रह्माण्ड) | यह अंड अपने इर्द-गिर्द तथा ऊपर-निचे रखे हुए कड़ाहे के समान कठोर भाग से उसी तरह से सब ओर घिरा हुआ है जैसे अनाज का बीज कड़ी भूसी से घिरा रहता है |
5-इस ब्रह्माण्ड में भूमंडल जिसमे पृथ्वीलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक भी आ जाते हैं, का घेरा एक करोड़ योजन का है | इनके ऊपर महर्लोक का परिमाण भी एक करोड़ योजन का है | उसके ऊपर दो करोड़ योजन परिमाण का जनलोक है | उसके ऊपर चार करोड़ योजन परिमाण का तपोलोक है | और उसके ऊपर आठ करोड़ योजन का सत्यलोक है | उसके बाहर सप्तावरण नामक बाहरी घेरा है (‘उपासनात्रयसिद्धांत’ नामक ग्रन्थ में उद्धृत सदाशिव संहिता से) |यद्यपि ग्रंथों में वर्णित ‘योजन’ का, आज के समय में प्रचलित ईकाई से अंतर होने से वे संदेहास्पद हैं|
6-पृथ्वी तत्व का विस्तार एक करोड़ योजन का है | जल तत्व का घेरा दस करोड़ योजन तक कहा गया है | अग्नि का घेरा सौ करोड़ (एक अरब) योजन परिमाण का है | वायु का घेरा एक हज़ार करोड़ (दस अरब) योजन परिमाण का है तथा आकाश का आवरण दस हज़ार करोड़ (एक खरब) योजन का है |
7-इन सबके परे ‘अहंकार’ का आवरण एक लाख करोड़ (दस खरब) योजन का है और प्रकृति का आवरण असंख्य योजन का है | प्रकृति के अंतर्गत समस्त लोक काल रूप अग्नि के द्वारा (प्रलयकाल में) जला दिए जाते हैं | लेकिन ये ब्रह्माण्ड अविद्यारूपी घने अन्धकार से व्याप्त है, इसके ऊपरी भाग में ‘विरजा’ नाम की एक अत्यंत रहस्यमय नदी बहती है जिसकी सीमा के बारे में कही किसी पुराण या ग्रन्थ में ज़िक्र नहीं है |
8-वह विश्व-ब्रह्माण्ड के उस पार उसका आवरण बनी हुई स्थित है | यह विरजा नदी, प्रकृति तथा पर्व्योम (सच्चिदानन्द स्वरुप परमेश्वर का नित्य धाम) के बीच में विद्यमान है | उस नदी के आगे हिरण्यगर्भ अपने साकार रूप में साक्षात् विराजमान हैं | वो नित्य धाम प्रकृति के परे, सदा रहने वाला, अपने ही प्रकाश से प्रकाशित, माया रुपी मल से रहित, काल तथा प्रलय के प्रभाव से मुक्त होता है |
9-उसे न तो सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा और ना ही अग्नि, जहाँ पहुँचने पर चेतना अपने उस परम विस्तार को प्राप्त होती है जहाँ से (कर्म बंधन में फंस कर) वापस लौट के आना संभव नहीं | लेकिन भारतीय मनीषी, केवल ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, उसकी रचना, उसकी आयु सम्बन्धी रहस्यों को जानकर ही संतुष्ट नहीं हो गए, बल्कि वो उससे आगे भी गए |
10-उन्होंने देखा की जिस ब्रह्माण्ड को हम इतना विशाल और जटिल समझ रहे थे वैसे एक, दो नहीं बल्कि असंख्य ब्रह्माण्ड है और सब एक से बढ़कर एक है | उन सबको इसी प्रकृति ने रचा है | उन्होंने उन ब्रह्मांडों के ब्रह्मा को भी देखा जिनकी गिनती करना उनके लिए संभव नहीं था | धन्य है वे मनीषी जिन्होंने अंतिम सत्य को जानने की उत्कट अभिलाषा में उसके बाद भी शोधकार्य जारी रखा और पाया कि प्रकृति भी अंत नहीं है |
11-हमारी प्रकृति जैसी अनंत प्रकृतियाँ हैं | प्रत्येक प्रकृति अपने ‘प्रक्रत्यंड’ में असंख्य ब्रह्मांडों की रचना किये हुए है | ब्रह्मांडों की ही तरह प्रक्रत्यंड भी असंख्य हैं | इन सारे प्रक्रत्यंडों को मिला कर बनता है ‘मायांड’ |मायांड का विनाश.. मतलब प्रलय का भी अंत |
मायांड के विनाश के बाद अशुद्ध माया नहीं बचती | मायांड की अधीश्वरी ही सर्वेश्वरी हैं | समस्त प्रकार की शुद्ध और अशुद्ध माया की साक्षात् स्वरूपा हैं वो ‘महामाया’ | प्राचीन भारतीय मनीषियों ने देखा कि महामाया ही सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर की प्रेयसी हैं और उनके द्वारा रची गयी सृष्टियों की तुलना में हम इतने लघु होते हुए भी साक्षात् उनके ही स्वरुप हैं |
NOTE;-
इस अंतिम सत्य का भान होते ही मन उस नित्य और अविनाशी आनंद से भर जाता है परन्तु इसको सिर्फ वही जान सकता है जिसने उसको अनुभव किया हो |चौरासी लाख शरीरधारी और तेतीस कोटि अशरीरी प्राणियों का यह अखिल विश्व ब्रह्माण्ड वस्तुतः ईश्वर की दिव्य सत्ता से ही ओत−प्रोत है। उसका प्रसार−विस्तार सर्वत्र दृष्टिगोचर होगा यदि हम विवेक के ज्ञान−चक्षुओं को खोल सके तो देखेंगे कि अनेकता के बीच एकता का कितना सुदृढ़ आधार मौजूद हैं। इसे जानने के बाद अपने पराये का भेद समाप्त हो जाता है। इसे अनुभव करने के बाद आत्मा का प्रेम इस अजस्र निर्झर के रूप में फूटता है और उस अमृत भरे आनन्द से अन्तरात्मा का कण−कण भाव−विभोर हो जाता है। यही है जीवन का परम लक्ष्य।
सात लोक-सात शरीर;-
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...SHIVOHAM...