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यदि परमात्मा सर्वव्यापी है, सबमें हैं, तो कोई भी गलत काम नहीं होना चाहिए?


एक कठिनाई सदा से रही है चिंतनशील आदमी के सामने कि अगर हम परमात्मा को मानें तो जगत को मानना बहुत मुश्किल हो जाता है, और अगर हम परमात्मा को मानें तो जगत की व्याख्या कठिन हो जाती 'है। अब जैसे, अगर परमात्मा ने जगत बनाया तो इतनी बीमारी, इतना दुख, इतनी पीड़ा, इतना पाप! अगर परमात्मा ने ही जगत बनाया तो आदमी को ऐसे अज्ञान में डालने की जरूरत क्या है? जिम्मेवार आदमी नहीं रह जाता, जिम्मेवार परमात्मा हो जाता है।

अभी एक ईसाई पादरी मुझे मिलने आए थे। मैंने उनसे पूछा कि किस काम में लगे हैं? वे बोले कि हम पाप से लड़ने में लगे हैं। मैंने कहा, पाप! यह पाप आया कहां से? उन्होंने कहा, यह शैतान ने पैदा किया है। अभी तक वह बिलकुल आश्वस्त थे। आमतौर से कोई ज्यादा इन बातों में पूछताछ नहीं करता, क्योंकि ज्यादा पूछताछ करने में अड़चन आती है।

मैंने उनसे पूछा, और शैतान को किसने बनाया? तब वे जरा झिझके, क्योंकि अब कठिन बात आ गई। वे डरे भी अगर कहें कि ईश्वर ने बनाया, तो मामला बड़ा खराब हो जाता है। क्योंकि ईश्वर शैतान को बनाता है, शैतान पाप को बनाता है, यह पूरा गोरखधंधा क्या है! और ईश्वर को इतनी भी बुद्धि नहीं है कि शैतान को न बनाए! और जब ईश्वर तक चूक गया शैतान को बनाने में, तो हम और आप चूक जाएं पाप करने में, तो इसमें अड़चन क्या है? और फिर पाप शैतान बनाता है और शैतान को ईश्वर बनाता है और हम पाप करते हैं, तो जिम्मेवार कौन है? हम तो विक्टिम हैं, हम तो शिकार हो गए मुफ्त! हमारा इसमें कोई संबंध ही नहीं है। परमात्मा हमको बनाता, परमात्मा शैतान को बनाता, शैतान पाप को बनाता, हम पाप करते हैं। इस पूरे वर्तुल में हमारी जिम्मेवारी कहा है? न हम परमात्मा को बनाते, न हम शैतान को बनाते, न हम पाप को बनाते, हम इन तीनों के नाहक उपद्रव को झेल रहे हैं!

वे थोड़े बेचैन हो गए। कोई उत्तर नहीं है ईसाइयत के पास। किसी के पास उत्तर खोजना मुश्किल है; क्योंकि यह बड़ी अड़चन की बात है। या कुछ लोगों ने, जैसे कि पारसी मानते हैं, जरथुस्त्र की मान्यता है कि ये दो तत्व हैं—परमात्मा और शैतान, ये दो तत्व हैं। किसी ने किसी को बनाया नहीं, दोनों शाश्वत हैं। तब और खतरा खड़ा हो जाता है! क्योंकि अगर दोनों शाश्वत हैं तो कोई भी कभी जीत नहीं सकता और कोई कभी हार नहीं सकता, शैतान और परमात्मा लड़ते रहेंगे। आप कौन हैं? आप क्षेत्र हैं, जहां वे लड़ रहे हैं, कुरुक्षेत्र! और कोई जीत नहीं सकता, कोई हार नहीं सकता, क्योंकि दोनों शाश्वत हैं।

उनकी भी कठिनाई है कि अगर शाश्वत न मानें और यह कहें कि शैतान हार सकता है, तो सवाल उठता है कि अभी तक हारा क्यों नहीं? इतना जमाना हो गया, अभी तक हारा नहीं, आगे क्या पक्का भरोसा है? हालत तो उलटी दिखती है कि शैतान रोज जीत रहा है! हारना तो बहुत दूर है, हालत यह दिखती है कि शैतान रोज जीत रहा है!

आप जान कर हैरान होंगे कि अमरीका में अभी उन्नीस सौ सत्तर में एक चर्च रजिस्टर करवाया गया है। केलिफोर्निया में एक नया चर्च रजिस्टर करवाया गया है —दि फर्स्ट चर्च ऑफ डेविल, शैतान का पहला मंदिर! और उनके अनुयायी हैं, उनका आर्च प्रीस्ट है। और उन्होंने अपनी बाइबिल छापी है। और उन्होंने कहा है कि अब हम यह घोषणा कर देते हैं कि पर्याप्त है अब समय अनुभव करने के लिए कि परमात्मा हार रहा है और शैतान जीत रहा है। वे भी बात तो ठीक कहते हैं, अगर दुनिया को देखें तो उनकी बात एकदम गलत नहीं मालूम पड़ती। दुनिया को अगर देखें, तो शैतान का अनुयायी जीत जाता है, ईश्वर का अनुयायी मात खा जाता है। शैतान के अनुयायी पदों पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं, ईश्वर का अनुयायी इधर—उधर भटकता रहता है। कोशिश करके देखें।

इसलिए ईश्वर के अनुयायी भी ट्रिक समझ गए हैं; नाम ईश्वर का लेते हैं, काम शैतान से करवाते हैं! वे समझ गए हैं कि जीतता कौन है, आखिरी हिसाब में शैतान जीतता है। लेकिन मन में डर भी बना रहता है कि कहीं भूल —चूक कभी परमात्मा जीत जाए, तो राम—राम भी जपते रहो! दोनों नाव पर सवार रहते हैं सभी समझदार लोग। जब जरूरत होती है, शैतान से काम लेते हैं, और जब कोई जरूरत नहीं होती, फुर्सत का समय होता है, तो माला फेर लेते हैं! इससे एक समझौता बना रहता है, और एक बैलेंस। और फिर आखिर में क्या पता, कौन जईतेगा!

जगत अगर कोई खबर देता है तो शैतान के जीतने की देता है, परमात्मा की जीत तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती। शुभ बढ़ता हुआ मालूम नहीं पड़ता, अशुभ कमता हुआ मालूम नहीं पड़ता। प्रकाश बढ़ता हुआ मालूम नहीं पड़ता, अंधकार कम होता हुआ मालूम नहीं पड़ता। तो शाश्वत मानें तो अड़चन है। अगर ऐसा मानें कि शाश्वत नहीं है, शैतान अंतत: हारेगा—बीच में कितना ही जीते, आखिर में तो हारेगा ही। लेकिन इसका भरोसा क्या है? इसकी गारंटी क्या है? और जो बीच में जीतता है, वह आखिर में क्यों हारेगा? जो सदा जीतता है, वह आखिर में अचानक हार जाएगा! इसमें कोई तुक और संगति नहीं मालूम पड़ती।

यह प्रश्न सारी मनुष्य—जाति के साथ है। अलग—अलग धर्मों ने अलग—अलग उपाय किए हैं इस द्वंद्व को सुलझाने के, लेकिन कोई सुलझाव होता नहीं। इस सब में उपनिषद की धारणा कम से कम गलत मालूम पड़ती है, कम से कम गलत, एकदम सही नहीं। लेकिन और सब धारणाओं के बीच अगर तौला जाए तो उपनिषद की बात सबसे ज्यादा ठीक मालूम पड़ती है; बिलकुल ठीक नहीं, सबसे ज्यादा—तौल में, रिलेटिव, सापेक्ष।

उपनिषद कहते हैं कि संसार और परमात्मा में विरोध नहीं है, कोई शैतान नहीं है, और परमात्मा के विपरीत कोई शक्ति नहीं है। फिर यह संसार कैसे है? तो उपनिषद कहते हैं कि परमात्मा अपने किसी विरोधी को पैदा करके संसार पैदा नहीं कर रहा है, परमात्मा के होने में ही, परमात्मा की आभा में ही —जिसको वे माया कहते हैं; परमात्मा की छाया में ही—जिसको वे माया कहते हैं, संसार है। जैसे कोई आदमी खड़ा हो और उसकी छाया बने। छाया का कोई अस्तित्व तो नहीं होता —तलवार से काटें तो कट नहीं सकती, आग से जलाएं तो जल नहीं सकती, पानी में डुबाना चाहें, डूब नहीं सकती —फिर भी छाया होती है। अस्तित्व नहीं होता, फिर भी छाया तो होती है। आपके पीछे चलती है। दौड़े तो आपके पीछे दौड़ती है, रुके तो रुक जाती है।

उपनिषद कहते हैं, जब भी कोई चीज अस्तित्ववान होती है, तो उसकी छाया भी होती है; शैडो। यह जरा समझ लें। और इस पर विज्ञान और मनोविशान की आधुनिकतम खोजें भी इसका साथ देती हैं कि इस बात में सचाई है। कोई भी चीज बिना छाया के नहीं होती। जो भी चीज होती है, उसकी छाया होती है। अगर ब्रह्म है, तो उसकी छाया होगी। और उस छाया को वे कहते हैं माया। ब्रह्म की छाया संसार है।

जुंग ने, एक बड़े मनोवैशानिक ने इस सत्य पर किसी दूसरे आयाम से काफी खोज की। और उसने पाया कि हर आदमी का एक छाया अस्तित्व भी है —ए शैडो पर्सनैलिटी। आपको भी थोड़ा समझ लेना चाहिए; आपके पास भी छाया अस्तित्व है।

आप भले आदमी हैं, क्रोध नहीं करते; शांत हैं, धैर्यवान हैं। लेकिन अचानक एक दिन कोई छोटी सी बात! बात भी इतनी बड़ी नहीं है कि क्रोध किया जाए और आप आदमी ऐसे नहीं हैं कि क्रोध करते हों; बड़ी बातों पर क्रोध नहीं करते, किसी दिन एक छोटी सी बात पर ऐसा क्रोध उबल आता है कि आपके भी समझ के बाहर हो जाता है कि क्या हो रहा है कौन कर रहा है! इसलिए लोग कहते हैं बाद में कि मेरे बावजूद हो गया, इन्सपाइट ऑफ मी। मैं कोई करना नहीं चाहता था, हो गया! क्यों? कैसे हो गया? आप नहीं करना चाहते थे, फिर कैसे हो गया? कई बार आप कोई बात नहीं कहना चाहते और मुंह से निकल जाती है! आप कहना ही नहीं चाहते थे और मुंह से निकल गई! आप पीछे पछताते हैं कि मैंने सोचा ही नहीं था कि कहूंगा; तय ही कर लिया था कि नहीं कहने का है; फिर निकल गई!

जुंग कहता है कि आपका एक छाया व्यक्तित्व है, जिसमें जो—जो आप इनकार कर देते हैं अपने भीतर, वह इकट्ठा होता जाता है। कभी—कभी मौका पाकर, कोई कमजोर क्षण पाकर, कोई संधि पाकर, छाया व्यक्तित्व अपने को प्रकट कर देता है।

इस छाया व्यक्तित्व के कारण एक बड़ी बीमारी तक मनोविज्ञान में अध्ययन की जाती है। बड़ी बीमारी है, सारी दुनिया में फैली हुई है। उसे स्किट पर्सनैलिटी—आदमी दो टुकड़ों में टूट जाता है। कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि आदमी में दो व्यक्तित्व हो जाते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि एक आदमी के भीतर दो आदमी हैं। कहता कुछ है, करता कुछ है, कोई तालमेल नहीं दिखाई पड़ता। सुबह कुछ है, सांझ कुछ है। कोई पक्का भरोसा नहीं किया जा सकता उसकी बात का, उसके होने का। वह खुद भी डरता है कि मैं क्या कर रहा हूं, क्या कह रहा हूं, तालमेल नहीं बैठता; जैसे भीतर दो आदमी हैं। कभी बड़ा शांत, कभी बड़ा अशांत, कभी मौन, कभी बड़ा मुखर; दो हिस्से हो गए हैं।

ऐसा भी हो जाता है, हजारों पागलखानों में हजारों पागल बंद हैं, उनकी बीमारी यह है कि उनका एक व्यक्तित्व अचानक खो गया और वे दूसरे व्यक्ति हो गए। कल तक वे राम थे, और अचानक कोई घटना घटी, एक्सीडेंट हो गया, कार से गिर पड़े, सिर में चोट आ गई, और रहीम हो गए! अब वे याद ही नहीं करते कि राम थे कभी; अपने पिता को नहीं पहचानते; मां को, पत्नी को नहीं पहचानते; अब वे अपने को रहीम बताते हैं। और वे सारा हिसाब ही दूसरा बताते हैं कि उनका कोई संबंध ही इस घर से नहीं है, पहचान भी नहीं है!

क्या हो गया? इस एक्सीडेंट में उनका जो प्रमुख व्यक्तित्व था वह आघात खा गया और उनका जो छाया व्यक्तित्व था वह सक्रिय हो गया। इसलिए वह दूसरा नाम और सब उन्होंने बदल लिया।

इस छाया व्यक्तित्व को ठीक भी किया जाता है—इलाज से, शॉक से। कभी—कभी वह ठीक हो जाता है तो वे फिर राम हो गए, फिर वे दूसरे आदमी हो गए; उनका सब व्यवहार बदल जाता है। हर आदमी के भीतर छिपा हुआ यह छाया व्यक्तित्व है। इसको अगर उपनिषद की भाषा में कहें तो उपनिषद कहते हैं, व्यक्ति के साथ बंधी है अविद्या, वह उसका छाया व्यक्तित्व है; और ब्रह्म के साथ बंधी है माया, वह उसका छाया व्यक्तित्व है। ब्रह्म के विपरीत नहीं है यह माया, उसकी छाया ही है; उसके होने का अनिवार्य अंग है। यह संसार ब्रह्म का शत्रु नहीं है, ब्रह्म के होने का छाया अंग है। इसे हम विज्ञान की भाषा से समझें तो शायद आसान हो जाए, वैसे बात आसान नहीं है। अभी उन्नीस सौ साठ में एक आदमी को नोबल प्राइज मिली। यह नोबल प्राइज सबसे अनूठी है। इस आदमी को नोबल प्राइज मिली है एंटीमैटर की खोज पर। यह शब्द बड़ा अजीब है, एंटीमैटर। इस आदमी की खोज यह है कि पदार्थ भी है जगत में और पदार्थ के विपरीत भी एक अपदार्थ है, एंटीमैटर है।

और हर चीज के विपरीत चीजें हैं। कोई चीज इस जगत में बिना विपरीत के नहीं होती। जैसे प्रकाश है तो अंधेरा है, जीवन है, तो मृत्यु है; गर्मी है, तो सर्दी है; स्त्री है, तो पुरुष है। सारा जगत दोहरी व्‍यवस्‍था से जीता है। क्या आप सोचते हैं ऐसा कोई जगत जिसमें पुरुष न हों, स्त्रियां ही स्त्रियां हों? असंभव! क्या आप सोचते हैं ऐसा कोई जगत कि पुरुष ही पुरुष हों, स्त्रियां न हों? असंभव! तालमेल इतना गहरा है कि जब बच्चे पैदा होते हैं तो लड़के एक सौ पंद्रह पैदा होते हैं और लड़कियां सौ पैदा होती है,। लेकिन पंद्रह साल की उमर तक पंद्रह लडके समाप्त हो जाते हैं; सौ और सौ का अनुपात बराबर हो जाता है। बायोलाजिस्ट कहते हैं, चूंकि लडके लड़कियों से कमजोर हैं, इसलिए प्रकृति को ज्यादा पैदा करने पड़ते हैं, ताकि पंद्रह उमर पाते -पाते शादी की तो समाप्त हो जाएंगे।

यह जान कर आप हैरान होंगे कि बायोलाजी के हिसाब से स्त्री ताकतवर है, पुरुष कमजोर है। पुरुष की जो ताकत है वह मस्कुलर है, बड़ा पत्थर उठा सकते हैं, लेकिन बड़ा दुख नहीं झेल सकते। स्त्री की जो ताकत है, वह सहनशीलता है। इसलिए स्त्रियां बडी बीमारियां झेल लेती हैं। और जरूरी है, क्योंकि बड़ी, सबसे बड़ी बीमारी तो प्रसव है, वह झेल लेती हैं। अगर पुरुष को बच्चे पैदा करने पड़े-पुरुष कभी की आत्महत्या कर लें। इस जगत में फिर पुरुष खोजने से नहीं मिलेगा! नौ महीने एक बच्चे को ढोना! नौ दिन तो कंधे पर लेकर देखें! नौ घंटे सही! नौ मिनट सही! कठिन मामला है। और फिर प्रसव की पीडा! उतनी पीड़ा झेलने के योग्य प्रकृति स्त्री को बनाती है। मजबूत है, ताकतवर है। उसकी ताकत और ढंग की है। लड़ नहीं सकती, जोर से दौड़ नहीं सकती, इससे यह मत समझना कमजोर है। उसका आयाम अलग है, शक्ति का। सहन क्षमता उसकी ज्यादा है।

तो पंद्रह वर्ष की उम्र पर बराबर हो जाते हैं। सारी दुनिया में यह अनुपात बराबर बना रहता है। आप जान कर हैरान होंगे, जब युद्ध होता है, तो लड़के ज्यादा कट जाते हैं! निश्चित ही, लड़के जाते हैं युद्ध के मैदान पर। स्त्रियां बढ़ जाती हैं। युद्ध के बाद के दिनों में लड़कों की पैदावार बढ़ जाती है, लड़कियों की कम हो जाती है। कौन करता होगा यह आयोजन? और यह कैसे होता होगा? युद्ध हो गया! दूसरा महायुद्ध हुआ, पहला महायुद्ध हुआ। तो बड़ी कठिनाई हुई कि पहले महायुद्ध में जो लाखों लोग मर गए-पुरुष। युद्ध के बाद के दो -तीन साल में लड़कों का अनुपात पैदावार का बढ़ गया और लड़कियों का एकदम कम हो गया, और अनुपात फिर घिर हो गया। तब चिंतन शुरू हुआ। दूसरे महायुद्ध में फिर वही हुआ। तब ऐसा लगा कि प्रकृति भीतर से विपरीत में संतुलन करती रहती है। आप ऐसा मत सोचें कि इस जमीन पर कभी प्रकाश ही प्रकाश रह जाएगा, अंधेरा नहीं होगा। यह नहीं हो सकता। अंधेरा और प्रकाश संतुलित होंगे।

यह एंटीमैटर की खोज इसी आधार पर है कि जगत विरोध का संतुलन है। तो पदार्थ है, तो पदार्थ के विपरीत क्या है? वह दिखाई नहीं पडता हमें। और फिजिसिस्ट की जो धारणा है, वह बड़ी जटिल है। जैसे एक पत्थर रखा हुआ है, इस टेबल पर एक पत्थर रखा हुआ है। तो पत्थर दिखाई पड़ता है। हम पत्थर उठा लें, तो फिर तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। आप ऐसा कल्पना करें कि एक पत्थर रखा हुआ है यहां, और यहां एक छेद रखा हुआ है—छेद किया हुआ नहीं, पत्थर की जैसी खाली जगह। पत्थर को हम हटा लें, और उतनी अगर जगह खाली रह जाए जहा पत्थर रखा था, वह खाली जगह रखी हुई है पास में। उसका नाम एंटीमैटर है। अभी तक उसको किसी ने देखा नहीं। नोबल प्राइज मिल गई है। और मिलने का कारण यह है कि उस आदमी को गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि जगत में जब सभी चीजें विपरीत से भरी हैं, तो पदार्थ के होने के लिए भी उसका विपरीत होना जरूरी है, जो उसके पास ही कहीं छिपा हो। वह दिखे, न दिखे, लेकिन सैद्धांतिक रूप से उसको स्वीकार करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। माया, हम कहें कि ब्रह्म की छाया है। ब्रह्म भी नहीं हो सकता बिना माया के, माया भी नहीं हो सकती बिना ब्रह्म के। और बड़े विराट पैमाने पर माया है छाया ब्रह्म की—कहें एंटी ब्रह्म, तो भी चलेगा—वैसे ही व्यक्ति के छोटे से तल पर अविद्या है। अविद्या व्यक्ति के पैमाने पर माया है। आपके आस—पास अविद्या भी है। अब क्या किया जा सकता है? अविद्या है व्यक्ति के पास! अविद्या को कैसे छोड़े? और अगर यह नियति है, अगर यह विश्व की व्यवस्था है कि विपरीत होगा ही, और अगर ब्रह्म भी अब तक माया को नहीं छोड़ पाया है, अगर परम अस्तित्व भी माया से घिरा है, तो हम छोटे—छोटे क्षुद्र जन, छोटे—छोटे व्यक्ति, हम कैसे अविद्या को छोड़ पाएंगे! ब्रह्म नहीं छोड़ पाया माया को, हम अविद्या को कैसे छोड़ पाएंगे! और अगर नहीं छोड़ पा सकते, तो सारी धर्म की चेष्टा व्यर्थ हो जाती है। नहीं; छोड़ सकते हैं। लेकिन प्रक्रिया समझ लें। हम अविद्या को तभी छोड़ सकते हैं, जब हम मिटने को राजी हो जाएं। अगर हम मिटने को राजी नहीं हैं, तो अविद्या नहीं मिट सकती, द्वंद्व जारी रहेगा। या तो दोनों रहेंगे या दोनों मिट जाएंगे। अगर मैं कहूं कि मैं तो बचना चाहता हूं और अविद्या को मिटाना चाहता हूं, तो फिर अविद्या कभी नहीं मिटेगी। वह आपकी छाया है। इसे ऐसा समझ लें कि मैं कहूं कि मैं तो रहना चाहता हूं मेरी छाया मिटाना चाहता हूं। वह कभी नहीं मिटेगी। एक ही रास्ता है कि मैं मिट जाऊं, तो मेरी छाया मिट जाए। इसलिए अहंकार को मिटाने पर इतना जोर है। मैं मिट जाऊं तो मेरी छाया मिट जाए। और जब मैं मिट जाता हूं, मेरी छाया मिट जाती है, तो मैं ब्रह्म से लीन होकर एक हो जाता हूं। मैं की तरह नहीं, शून्य की तरह ब्रह्म में लीन हो जाता हूं। मेरी अविद्या का क्या होता होगा? जब मैं मिटता हूं, मैं ब्रह्म में लीन हो जाता हूं मेरी अविद्या माया में लीन हो जाती है। मैं खो जाता हूं ब्रह्म में, अविद्या खो जाती है माया में। जब भी मैं निर्मित होता हूं, मैं निकलता हूं ब्रह्म से, अविद्या निकलती है माया से। अविद्या, हम सबको माया का मिला हुआ भाग, छोटी —छोटी जमीन माया की हमको मिली हुई। माया दुख देती है, अविद्या पीड़ा देती है, इसलिए हम छूटना चाहते हैं। ब्रह्म को पीड़ा नहीं देती होगी? ब्रह्म नहीं छूटना चाहता होगा? ब्रह्म से मतलब कोई व्यक्ति नहीं, यह विराट अस्तित्व। इसको पीड़ा नहीं होती होगी? यह नहीं छूटना चाहता होगा? हमें पीड़ा होती है, हम छूटना चाहते हैं, ब्रह्म नहीं छूटना चाहता होगा? ब्रह्म के तल पर समस्त स्वीकार है। ब्रह्म के तल पर माया का होना स्वीकृत है। उसका कोई इनकार नहीं है। उसका कोई इनकार नहीं है, इसलिए कोई पीड़ा नहीं है। हमारे तल पर पीड़ा है। अगर हम भी स्वीकार कर लें तो वहा भी कोई पीड़ा नहीं है। मेरे हाथ में चोट लगे, तो पीड़ा चोट से नहीं होती, पीड़ा होती है इस बात से कि चोट नहीं लगनी चाहिए थी। अगर मैं स्वीकार कर लूं कि चोट लगनी ही चाहिए थी, चोट होनी ही चाहिए थी, चोट होती ही, चोट होना नियति है, फिर कोई पीड़ा नहीं है। पीड़ा है विरोध में; पीड़ा है अस्वीकार में। तो हम स्वीकार नहीं कर पाते हैं, इसलिए पीड़ा है। कोई हममें स्वीकार कर लेता है उसे—कोई जनक, कोई कृष्ण उसे स्वीकार कर लेता है, तो यहीं, बिना कुछ किए, अविद्या माया बन जाती है, कृष्ण ब्रह्म हो जाते हैं। कृष्ण स्वीकार कर लेते हैं उसे।

कृष्ण और बुद्ध, कृष्ण और महावीर के रास्ते में यह फर्क है। महावीर अपने को मिटाते हैं ताकि अविद्या मिट जाए। कृष्‍ण न अपने को मिटाते हैं, न अविद्या को; स्वीकार कर लेते हैं। महावीर अपने को मिटा कर अविद्या मिटाते हैं, कृष्ण स्वीकार करके ब्रह्मरूप हो जाते हैं—तत्‍क्षण। क्योंकि जब ब्रह्म माया नहीं मिटा रहा है और स्वीकार कर रहा है, तो कृष्ण भी स्वीकार कर लेते हैं।

इसलिए कृष्ण को हमने पूर्ण अवतार कहा है। कोई अस्वीकार नहीं है वहां, इसलिए पूर्णता है। जरा सा भी अस्वीकार हो, अपूर्णता हो जाती है। इसलिए हमने राम को कभी पूर्ण अवतार नहीं कहा। कह नहीं सकते; क्योंकि राम के मन में बहुत अस्वीकार हैं; बड़ी मर्यादाएं, सीमाओं की धारणा है। एक धोबी कह देता है कि सीता पर संदेह है, तो राम यह भी नहीं सह पाते। एक धोबी! अब कोई, नासमझों की कोई कमी है दुनिया में! कोई भी कुछ कह दे! और कोई राम के वक्त के धोबी बहुत समझदार होते होंगे, ऐसा तो है नहीं कुछ। पर एक धोबी भी यह कह दे कि सीता पर संदेह है। और अपनी स्त्री से कह दे कि एक रात घर के बाहर रही, भीतर न घुसने दूंगा। मैं कोई राम नहीं हूं, क्या समझा है तूने, कि इतने दिन रावण के घर सीता रह गई और वह सज्जन लेकर वापस लौट आए हैं। मैं कोई राम नहीं हूं, यह बात पीड़ा कर गई; राम के मन में काटा चुभ गया। राम के मन में पूरी स्वीकृति नहीं है। वह यह न देख पाए, यह न सुन पाए कि मेरी नीति पर, मेरे चरित्र पर लाछन हो जाए। सीता को फेंक सके, हटा सके, लाछन को स्वीकार न कर सके। इसलिए हिंदू मन ने कभी राम को पूर्ण अवतार नहीं कहा। कहा, मर्यादा पुरुषोत्तम; मनुष्यों में इससे बड़ी मर्यादा का आदमी नहीं हुआ। लेकिन ध्यान रहे, मनुष्यों में! मर्यादा पुरुषोत्तम! लेकिन बस एक सीमा है। शुद्ध हैं बहुत, और शुद्ध का इतना आग्रह है कि अशुद्धि का डर है।

लेकिन कृष्ण और तरह के आदमी हैं; बदनामी का कोई डर ही नहीं है! जैसे बदनामी को निमंत्रण है! जैसे कितने बदनाम हो सकें, इसकी पूरी चेष्टा है! क्या मामला होगा? कोई अस्वीकृति नहीं है। जो भी है, ठीक है। इसलिए गजब की घटना घटी कृष्ण के जीवन में। ठीक वैसी घटना घटी, जैसा ब्रह्म और माया की विराट में घट रही है। एक छोटी भूमि पर जैसे विराट छोटा होकर उतर आया और आस—पास माया की छोटी घटना घटी। पूरी स्वीकृति है। जहां अविद्या स्वीकृत है, वहा नष्ट करने की कोई जरूरत नहीं है। जहा स्वीकृत नहीं है, वहां अविद्या नष्ट करनी पड़ेगी। लेकिन नष्ट करने का एक ही उपाय है, खुद को नष्ट करना। तो ही नष्ट हो पाएगी। इसलिए महावीर और बुद्ध का रास्ता कठिन है, काटने वाला है, अहंकार को तोड़ने वाला है, मिटाने वाला है। एक—एक जड़ से तोड़ेंगे, मिटाएंगे, तब छाया मिटेगी, छुटकारा होगा। कृष्ण का स्वीकार का है।

कहीं कोई तोड़ना नहीं है। लेकिन आसान वह भी नहीं है। लगता है आसान, शायद गहरे खोजें तो और भी ज्यादा कठिन भी हो सकता है। क्योंकि मन स्वीकार करने को राजी नहीं होता। मन कहता है यह हो, यह न हो। ऐसा हो, ऐसा न हो। मन कहता ही चला जाता है क्या न हो, क्या हो। मन बांटता ही चला जाता है। तो दो ही मार्ग हैं जगत में। एक मार्ग है, दोनों को मिटा दो। और एक मार्ग है, दोनों से राजी हो जाओ। दोनों हालत में छुटकारा हो जाता है।

'इस परमात्मा को माया और जीव को अविद्या—ऐसी दो उपाधि हैं, इनके त्याग करने से अखंड सच्चिदानंद परम ब्रह्म ही जान पड़ता है।'

इनके त्याग करने से! त्याग के दो मार्ग मैंने आपको कहे। एक मार्ग है मिट जाएं, अविद्या मिट जाए। एक मार्ग है. राजी हो जाएं, स्वीकार कर लें, जो है उसके बाहर जाने की आकांक्षा छोड़ दें, जैसा है उसमें रत्ती भर फर्क करने का विचार न करें। तो भी, जो शेष रह जाता है वह सच्चिदानंद ब्रह्म

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यदि परमात्मा सर्वव्यापी है, सबमें हैं, तो कोई भी गलत काम नहीं होना चाहिए। तब क्यों होती है चोरी—डकैती और हत्या और न जाने क्या—क्या? और अगर वही कराता है सब, तो फल भी वही क्यों नहीं भोगता है? अगर शेर में भी परमात्मा है तो फिर शेर हत्या क्यों करता है?

कोई ज्ञानी आ पहुंचे! यहां अज्ञानियों का जमघट है। यहां इतने ज्ञान की बात नहीं पूछनी चाहिए। इस तरह के बचकाने प्रश्नों का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन पूछा है, तो अब तुम समझो! पूछा है, तो उत्तर मिलेगा। पहली बात, इस संसार में न कोई गलत काम कभी हुआ है, न होगा। हो ही नहीं सकता। असंभव है। क्योंकि परमात्मा सर्वव्यापी है। तुम जिसको गलत कहते हो, वह तुम्हारी धारणा है। तुम जिसको सही कहते हो, वह तुम्हारी धारणा है। तुम्हारी तुम धारणा के कारण सही और गलत दिखायी पड़ता है। धारणा को छोड़ो, फिर क्या सही और क्या गलत है! ध्यानी को कुछ गलत नहीं दिखायी पड़ता और कुछ सही नहीं दिखायी पड़ता, क्योंकि ध्यानी की धारणा छूट गयी। एक बात तुम्हें ठीक दिखायी पड़ती हैं, दूसरे को वही गलत दिखायी पड़ती है। समझो तुम कहते हों—चोरी पाप है। लाओत्सू वजीर हो गया था अपने देश का। एक आदमी चोरी करके पकड़ा गया। उसने चोर को और साहूकार को, दोनों को छह—छह महीने की सजा दे दी। साहूकार चिल्लाया कि तुम होश में हो कि शराब पीए हो, मामला क्या है? साहूकार को सजा! कभी सुनी? लेकिन लाओत्सु ने कहा : अगर तुम इतना धन इकट्ठा न करते, तो चोरी होती न। तुमने सारे गांव का धन इकट्ठा कर लिया, चोरी न हो तो क्या हो? सच तो यह है कि मैंने खुद ही कई बार सोचा है। यह आदमी तो नंबर दो का कसूरवार है, नंबर एक के तुम कसूरवार हो। न तुम इतना धन इकट्ठा करते, न चोरी होती। सम्राट के पास बात गयी। सम्राट भी बहुत हैरान हुआ कि इस तरह की सजा! लेकिन लाओत्सू की बात में बल तो था। चोरी ठीक है या गलत? चोरी गलत— अगर तुम यह मानते हो कि लोगों का धन इकट्ठा करना बिलकुल ठीक है। तो गलत है। अगर लोगों का धन इकट्ठा करना ही गलत है, तो फिर चोरी कैसे गलत होगी? चोरी तो एक तरह का साम्यवाद है। यह व्यक्तिगत रूप से साम्यवाद फैला रहा है आदमी; बांट रहा संपत्ति लोगों की। जहा ज्यादा इकट्ठी हो गयी है, वहा से छुटकारा दिला रहा है। पश्चिम के बहुत बड़े विचारक पुरूधो ने लिखा है : सब संपत्ति चोरी है। संपत्ति मात्र चोरी है। तुम्हारे पास इकट्ठी कैसे होती है? किसी न किसी की जेब खाली होगी तो इकट्ठी होगी। तो साहूकार और चोर में फर्क क्या है। पुरूधो के हिसाब से? चोर छोटा—मोटा चोर है, साहूकार बड़ा चोर है—बस इतना फर्क है। क्या ठीक है, क्या गलत है? हिंदुस्तान में तेरापंथी जैन हैं। वे कहते हैं कि राह में पड़ा हुआ आदमी अगर प्यासा मर रहा हो तो पानी भी मत पिलाना। क्यों? तुम कहोगे यह तो बात बड़ी गड़बड़ हो गयी। पानी पिलाना प्यासे को तो पुण्य है, अच्छा कार्य है न! इसको तो कोई बुरा कार्य नहीं कहेगा। तेरापथियो से पूछो। वे कहते हैं कि अगर तुमने इसको पानी पिलाया और यह आदमी मर रहा था, पानी की वजह से बच गया और कल अगर इसने किसी की हत्या कर दी तो तुम भी जिम्मेवार होओगे। न तुम इसको पानी पिलाते, न यह बचता, न हत्या होती। तुम्हारा हाथ तो है इसमें, इससे तुम बच न सकोगे। इसलिए झंझट में न पड़ो, अपना रास्ता निकल जाओ, चुपचाप निकल जाओ। विचार की बात तो है ही। तुमने किसी आदमी को रुपये दिये, कि वह भूखा था, और उसने जाकर शराब पी ली। न तुम रुपये देते, न वह शराब पीता। शराब पी कर आया और अपनी पत्नी को मार डाला। तुम्हारी दया ने बड़ी हानि कर दी। क्या ठीक है! क्या गलत है! और एक बात विचारणीय है कि क्या जिसको तुम ठीक कहते हो, वह गलत के बिना बच सकेगा? जरा सोचो! रामायण में से रावण को निकाल दों—वह गलत है—राम को बचा लो। बचेंगे राम? रावण को निकालते ही उनकी जान निकल जाएगी। उनमें कुछ न बचेगा। भूसा रह जाएगा। ऐसा लगता है गेहूं तो फिर रावण ही था। न सीता की चोरी होगी, न राम—रावण युद्ध होगा—कथा आगे ही नहीं बढेगी। कथा को आगे बढ़ाने के लिए रावण एकदम जरूरी है। यहूदा को हटा लो और जीसस की कहानी बेकार हो जाती है, क्योंकि यहूदा के कारण ही जीसस को सूली लगती है। तो ही कहानी में रस है। तुम जरा बुरे को अलग कर लो जीवन से, असाधु को अलग कर लो—तुम्हारे साधु कहां बचेंगे? बुरे को अलग करते ही तुम्हारे महात्माओं में कितना महात्मापन रह जाएगा? किस कारण रह जाएगा? संयुक्त है जैसे दिन और रात जुड़े हैं। राम और रावण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। न तो रावण हो सकता है राम के बिना, न राम हो सकते हैं रावण के बिना। महर्षि रमण ने ठीक उत्तर दिया था। एक जर्मन विचारक ने उनसे पूछा—यही पूछा था, जैसे तुमने पूछा है—कि दुनिया में इतना पाप क्यों है, इतनी बुराई क्यों है? पता है रमण ने क्या कहा? बड़ा अदभुत उत्तर दिया, शायद ही किसीने दिया हो? कोई ज्ञानी ही दे सकता है। रमण ने कहा— 'टू थिकेन द प्लाँट। ' कहानी को जरा रसपूर्ण बनाने के लिए। सघन करने के लिए। कहानी में थोड़ा मजा लाने के लिए। तुमने देखा, तुम कोई कहानी बना सकते हो जिसमें बुराई न हो? सच तो यह है, कहा जाता है अच्छे आदमी की जिंदगी में कहानी होती ही नहीं। अच्छा आदमी बिलकुल सपाट कोरे कागज की तरह होता है। बुराई कुछ की नहीं, अच्छाई ही अच्छाई है। बैठकर घर में भजन ही करते रहे; कहानी कहां? तुमने अच्छे आदमी की कहानी देखी है? अगर अच्छे आदमी की भी कहानी होगी तो बुरे आदमी को लाना पड़ेगा, जो उनकी कहानी को जान देगा, प्राण देगा। नहीं तो रामचंद्र जी अपने लेकर सीता जी को और लक्ष्मण जी को घूमते रहते। अभी तक घूम ही रहे होते! वह तो भला रावण का...! तो घूमते रहो सीता जी को लेकर। कहां रुकोगे? कैसे रुकोगे? इस जगत में बुराई और भलाई विपरीत नहीं है—परिपूर्वक हैं। रात के बिना दिन नहीं है, दिन के बिना रात नहीं है। स्त्री के बिना पुरुष नहीं है, पुरुष के बिना स्त्री नहीं है। सर्दी के बिना गर्मी नहीं है, गर्मी के बिना सर्दी नहीं है। यहां जितने द्वंद्व हैं, वे ऊपर से दिखायी पड़ रहे हैं, भीतर जुड़े हैं। यह तुम्हें स्मरण आ जाए, तो तुम समझोगे कि बड़ी प्यारी कहानी चल रही है। फिर बुरे से भी तुम नाराज नहीं हो; तुम जानते हो, वह भी अनिवार्य है। रावण की अनुकंपा है, इसलिए राम इतने प्रगाढ़ होकर प्रकट हुए हैं। काले ब्लैकबोर्ड पर लिखना पड़ता है न सफेद खड़िया से! ब्लैकबोर्ड न हो तो सफेद खड़िया से लिख न सकोगे। रावण ब्लैकबोर्ड है, राम सफेद खड़िया की तरह उभरते हैं। रावणों को इसलिए तो काला पोता गया है। जितना काला रावण को पोतेगे, उतने ही राम सफेद हो कर प्रकट होते हैं। जीवन की यह अनिवार्यता है। यह खेल है। यहां न कुछ बुरा है न कुछ भला है। तुम पूछते हो, 'यदि परमात्मा सर्वव्यापी है'... निश्चित सर्वव्यापी है... 'सब में है, तो फिर कोई भी काम गलत नहीं होना चाहिए। ' हुआ ही नहीं—मैं तुमसे कहता हूं— अभी तक। खेल ही हो रहा है यहां—क्या गलत और क्या सही! नाटक हो रहा है। तुम नाटक में बहुत ज्यादा भ्रम में पड़ गये हो। बंगाल के एक बहुत बड़े विद्वान, ईश्वरचंद्र विद्यासागर एक नाटक देखने गये। उसमें एक आदमी है जो बड़ा बुरा चरित्र है— भ्रष्टाचारी, बलातकारी। और उसमें एक स्त्री है जो बिलकुल पवित्र है, प्रार्थना की तरह पवित्र है, फूलों की तरह क्यारी है। वह उस स्त्री को पकड़ लेता है एक जंगल में और बलात्कार करना चाहता है। सन्नाटा छा जाता है सभा में। और अचानक लोग चकित हो जाते हैं, ईश्वरचंद्र छलांग लगाकर पहुंच गये मंच पर, निकाल लिया जूता और लगे पीटने उसको! किसी की समझ में नहीं आया कि यह हुआ क्या, मामला क्या है! उस आदमी ने जूता उनका हाथ में ले लिया और सिर से लगा लिया। जब उसने सिर से लगाया, तब उन्हें होश आया, कि यह नाटक है। अच्छे—बुरे की आदत! भले आदमी! यह बर्दाश्त के बाहर हो गया। उस आदमी ने कहा : जूता मैं दूंगा नहीं। यह मेरा पुरस्कार है। आप जैसा आदमी धोखे में आ गया, इससे बड़ा प्रमाणपत्र और और क्या होगा मेरे नाटक का? उसने जूता नहीं दिया सो नहीं दिया। वह जूता अब भी सुरक्षित है कलकत्ते में। उसका परिवार उसे संभाल कर मंजूषा में रखे हुए हैं कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर धोखा खा गये, यह प्रमाण है कि जरूर यह अभिनेता कुशल रहा होगा, अदभुत रहा होगा! ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि लगा कि बिलकुल सच हो रहा है। इतना सच कि बचाने कि जरूरत आ गयी। जो जानते हैं उनके लिए यह पृथ्वी बड़ा मंच है। यहां न बुरा कभी हुआ है, न होता है। यहां बुरा— भला सब नाटक का हिस्सा है— 'टू थि केन द प्लाँट'। कही को जरा रसपूर्ण बनाने के लिए। राम अकेले— अकेले आएंगे, दिखायी भी न पड़ेंगे, रावण को लाना पड़ता है। रावण अकेला आएगा तो भी राम के बिना कोई रस नहीं होगा उसके जीवन में। जो इस तरह देखेगा, वह मुक्त हो जाएगा—शुभ— अशुभ दोनों से। और शुभ— अशुभ से मुक्त हो जाना संतत्व है। साधु— असाधु से मुक्त हो जाना संतत्व है। इसलिए ध्यान रखना, संत का अर्थ साधु मत करना। साधु तो संत है ही नहीं। साधु कैसे संत होगा?— अभी असाधु से लड़ रहा है। संत तो वह है, जिसे दिखायी पड़ गया साधु— असाधु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अब न जो साधु रहा, न असाधु रहा, जो दोनों के पार खड़ा हो गया, साक्षी हो गया, द्रष्टा हो गया। वही द्रष्टा होना मैं तुम्हीं यहां सिखा रहा हूं। इसलिए बहुतों को अड़चन होती है। वे यहां आकर सोचते हैं कि अरे! यहां बुरा— भला सब चल रहा है! वे सोच कर आए थे कि लोग बैठे होंगे झाडों के नीचे अपनी— अपनी माला लिये, राम—राम जप रहे होंगे। यहां हजार काम हो रहे हैं। यहां रामचंद्र जी सीता को लिये जा रहे हैं। यहां रावण जी पीछे लगे हैं, यह सीता को भगाने का आयोजन कर रहे हैं! यहां पूरी रामलीला हो रही है! तुम आते हो, तुम बड़ी बेचैनी में पड़ जाते हो। तुम सोचते थे रामचंद्र जी बैठे होंगे, सीता जी बैठी होंगी—सीता जी चरखा चला रही होंगी, खादी बुन रही होंगी; रामचंद्र जी मक्खी उड़ा रहे होंगे। करेंगे क्या बैठे—बैठे! मेरी दृष्टि में जीवन जैसा है, स्वीकार्य है। जीवन प्यारा है; उसमें बुरा— भला सब अंगीकार होना चाहिए। उसमें खट्टा— मीठा सब चाहिए। नहीं तो जीवन एक स्वाद का होगा तो उसके आयाम खो जाएंगे। जीवन बहु— आयामी होना चाहिए। हां, इस सब के भीतर साक्षी जगना चाहिए। सब चलता रहेगा ऐसा, साक्षी जग जाना चाहिए। और निश्चित ही रावण का साक्षी जगा होगा—उतना ही, जितना राम का। इसलिए लक्ष्मण को भेजा है—रावण से शिक्षा लेने! कि जा, मरते रावण से कुछ सीख ले! कहा कि वह महाज्ञानी था। क्या बात होगी? क्या राज होगा? साक्षी था। सीता को चुराकर तो ले गया था, लेकिन सीता के साथ कुछ दुर्व्यवहार किया नहीं। सीता को सुरक्षित रखा था। एक खेल था, जैसे पुरा कर रहा था। एक खेल था, उसका पार्ट निभा रहा था। लेकिन कहीं दूर खड़ा सब देख भी रहा होगा। राम के हाथ से मर कर प्रसन्न था, आनंदित था। कहते हैं राम के हाथ से मरने के कारण मुक्त हो गया। राम के हाथ से मरना यानी गुरु के हाथ से मरना। जिस आत्महत्या की मैं तुम्हें अभी बात सिखा रहा था, रावण ने राम को उकसा कर, राम के हाथ से अपनी हत्या करवा ली। इससे शुभ और क्या हो सकता है? कहानी को जरा नये ढंग से देखो, जरा मेरी आंखों से देखो! और तब तुम पाओगे : यहां कुछ बुरा नहीं है, कुछ भला नहीं है। यहां काटे फूलों की रक्षा कर रहे हैं, उनके दुश्मन नहीं हैं। यहां फूल काटो के संगी—साथी हैं, सखा हैं, उनमें कोई शत्रुता नहीं है। यह आदमी की बुद्धि है, जो निर्णय कर लेती है—यह अच्छा, यह बुरा। निर्णय एक दफा कर लिया, तो फिर वैसा दिखायी पड़ने लगता है। फिर वैसा दिखायी पड़ने लगता है, फिर सवाल उठता है कि परमात्मा बुरे— भले को क्यों मौका दे रहा है, भला ही भला होना चाहिए। परमात्मा तुम्हारी बुद्धि के अनुसार नहीं चल रहा है। तुम्हारी बुद्धि बड़ी छोटी है। तुम्हें क्या बुरे का पता है, क्या भले का पता है? अब तुम परेशान हो रहे हो कि एक सिंह आया और आदमी को झपट कर खा गया, तो यह बड़ा बुरा हो रहा है। क्यों बुरा हो रहा है? सिंह को भूखा मारना है? सिंह की भी तो सोचो! वह सिर्फ अपना नाश्ता कर रहा है। अब आदमी बड़ा होशियार है। जब सिंह को मारता है, उसको कहता है—शिकार, खेल। और जब सिंह मारता है तब नहीं कहता शिकार, तब खेल नहीं मानता। यह तो बड़ी बेईमानी हो गयी। तुम सिंह को मारो, तो खेल खेलने गये थे— आखेट, क्रीड़ा! ऐसे तुमने नाम बना रखे हैं। और जब सिंह कभी शिकार कर जाए, तो नर भक्षी है। क्यों साहब, उनको भी कुछ खेलने दोगे कि नहीं! सब खेल—खेल में हो रहा है। तुम्हारा भी खेल में हो रहा है, उनको भी खेल चल रहा है। जिस दिन तुम साक्षी— भाव से देखोगे... आदमी की तरह मत देखो, क्योंकि उसमें तो पक्षपात हो गया। तुम जब आदमी की तरह देखते हो, तो पक्षपात हो गया; फिर तुम सिंह की तरह नहीं देखते। पक्षपात छोड़ कर साक्षी— भाव से देखो, तो तुम देखोगे, क्या फर्क पड़ता है, तुमने सिंह खाया है कि सिंह ने तुमको खाया है? राम ही राम को खा रहा है! राम ही राम को पचा रहे हैं! ठीक चल रहा है। कुछ अड़चन नहीं है। परम ज्ञानी को अगर सिंह खा जाएगा, तो वह यही जानता है कि ठीक है, परमात्मा ने मुझसे आत्मसात कर लिया—सिंह के द्वारा; सिंह के रूप में आया और मुझे ले गया। अठारह सौ सत्तावन की गदर में ऐसा हुआ। एक संन्यासी तीस वर्ष से मौन था और नग्न भी था। चांदनी रात थी, अपनी मस्ती में घूमता हुआ जा रहा था। वह भूल से अंग्रेजों की छावनी में पहुंच गया। वे तो समझे कि कोई जासूस है। उन्होंने उसे पकड़ लिया। और तब वह बोले नहीं, तब तो पक्का समझ गये कि जासूस है, और नग्न है। उनको तो बड़ा क्रोध आया। किसी ने एकदम संगीन खींच कर उसकी छाती से लगा दी। बस वह आखिरी शब्द एक बोला। जैसे ही उसे मारा गया, उसकी छाती में संगीन भोंक दी गयी, उसने आखिरी शब्द जो बोला, वह महावाक्य था उपनिषद का— 'तत्वमसि', तू भी वही है। क्या कह रहा है यह संन्यासी यह कह रहा है : मैं तुझे पहचानता हूं तू किसी रूप में आ। तू आज हत्यारे के रूप में आया है, तू मुझे धोखा न दे पाएगा— 'तत्त्वमसि'! उस संन्यासी ने कसम ली थी कि जब परमात्मा से मिलन होगा, तभी बोलूंगा। तीस साल नहीं बोला था, आज बोला। परमात्मा ने खूब ढंग चुना आने का। साक्षी के लिए कुछ बुरा नहीं, कुछ भला नहीं। सब लहरें है। और सब एक की ही लहरें हैं। तुम पूछते हो, ' और अगर वही कराता है सब कुछ, तो फल भी वही क्यों नहीं भोगता?' तुम क्या सोचते हो, तुम भोग रहे हो? वही भोग रहा है। कराता भी वही भोगता भी वही। कर्ता भी वही, भोक्ता भी वही। तुम्हारी भ्रांति है कि तुम कर रहे हो और तुम्हारी भ्रांति है कि तुम भोग रहे हो। तुम हो कहां? तुम्हारा होना भ्रांती है, भ्रम है, माया है। तुम तो लहर हो उसीकी। जो कुछ भी हो रहा है, उस पर ही हो रहा है। ऐसा ध्यान जब तुम्हारा खुलेगा, साफ होगी दृष्टि, तो दिखायी पड़ेगा। लेकिन इस तरह के प्रश्नों को उठाकर तुम कहीं न पहुंचोगे। इन प्रश्नों का कोई बौद्धिक उत्तर नहीं है। अनुभूति ही उत्तर हो सकती है। थोड़े साक्षी बनो। थोड़े ध्यान में जाओ। तुम्हें दिखायी पड़ने लगेगा जो मैं कह रहा हूं। मेरी बात मान लेने से हल नहीं होगा, क्योंकि तुम्हारा अनुभव तो विपरीत ही रहेगा। एक बिच्छू आकर काट जाएगा और सब भूल जाएगा। तुम कहोगे—यह बिच्छू! इसमें कैसे परमात्मा देखें! और फिर परमात्मा ने इसमें जहर क्यों रखा है? 'टू थिकेन द प्लाँट'। नहीं तो मजा ही क्या होता है? वह जो डंक दे गया है तुम्हें जोर से, इसमें मजा ही नहीं रह जाता। तुम क्या सोचते हो उसमें काँफी या चाय रख देता? सब पोच हो जाता, खेल का मजा ही चला जाता। उसके डंक में रखा है जहर, कि दे जाए मजा तुम्हें! मगर वही है। वही जहर है, वही अमृत है। जरा—सा कांटा चुभ जाता है और तुम्हें सवाल उठने लगते हैं—बड़े दार्शनिक सवाल तुम सोचते हो—कि कांटा क्यों चुभा? अगर परमात्मा सर्वव्यापी है, तो कांटा क्यों चुभा? कांटे में भी वही चुभ रहा है, लेकिन हम भेद किये बैठे हैं। हमारा परमात्मा से मतलब कुछ ऐसा होता है कि जो— जो हम चाहें, वही होना चाहिए, तो परमात्मा है। तो सब ईसाई चाहते हैं, हिंदू समाप्त हो जाएं, ईसाई होने चाहिए, तो वे मानेंगे कि परमात्मा है। और हिंदू चाहते हैं, कि सब ईसाई समाप्त हो जाएं, तो परमात्मा है। मस्जिद जो जाता है वह सोचता है, सब मस्जिद जाएं तो परमात्मा है। मंदिर क्यों हैं? ये मंदिर नहीं होने चाहिए। और मंदिर जानेवाला सोचता है, सब मस्जिदें गिर जाएं। अगर तुम इस तरह सोचोगे, तो तुम पाओगे कि ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसको ठीक मानने वाले सारे लते राजी हो जाएं, या गलत मानने के लिए सारे लोग राजी हो जाएं। परमात्मा किसकी सुने? मैंने सुना है कि पहले वह यहीं जमीन पर रहता था। बीच बाजार में ही रहता था। मगर लोगों ने उसे बहुत परेशान कर दिया। लोग सुबह से शाम तक कतार लगाए, उसके सामने खड़े रहें। रात उसको जगा—जगा कर कहें कि इस वक्त ऐसा होना चाहिए, इस वक्त ऐसा होना चाहिए। आज पानी गिराओ! और दूसरा आकर उसी वक्त कहता है कि आज पानी मत गिराना, आज मैंने घड़े बनाए हैं, सूख जाने दो! और एक कहता है, आज मैंने बीज डाले हैं, खेत में, पानी गिराओ। और कोई कहता है, धूप निकालो, आज कपड़े सुखाने हैं। घबड़ा गया होगा—पागल गया होगा! भाग खड़ा हुआ। तब से लौट कर नहीं देखा उसने यहां। और जहा—जहा आदमी पहुंच जाता है, वहा से भाग जाता है। यहां से गया तो हिमालय पर रहने लगा। फिर आदमी हिमालय पहुंच गया, उसने हिमालय छोड़ दिया। फिर वह चांद पर रहने लगा। अब आदमी चांद पर पहुंच गया, उसने चांद छोड़ दिया। तुम यह मत सोचना कि चांद पर वह रहता नहीं था—रहता था, तुम्हारे पहुंचने की वजह से भाग गया। तुम जहा जाओगे, वहीं से भाव जाएगा। तुमसे ड़रता है। तुम ऐसे सवाल उठाते हो! इन सवालों का कोई बौद्धिक हल नहीं है। साक्षी बनो। तुम्हारे साक्षी में ये सारे सवाल गिर जाएंगे। और जिस दिन तुम्हें राम और रावण में एक दिख जाएगा, उस दिन जानना कि कुछ हुआ। जब तक रावण तुम्हें दुश्मन दिखायी पड़े और राम तुम्हें प्यारे दिखायी पड़े, तब तक समझना, अभी कुछ हुआ नहीं। फूल और कांटा जिस दिन एक हो जाएं, सुख और दुख जिस दिन एक हो जाएं, उस दिन जानना, कुछ हुआ है। उसी दिन सारे प्रश्न समाप्त हो जाते हैं।

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