क्या अर्थ है षडरिपु और अष्ट पाश का ?क्या है त्रिविध ताप?
षडरिपु और अष्ट पाश;-
07 FACTS;-
1-वे गतिविधियाॅं जो मन को स्थूल पदार्थों की ओर खींचती हैं प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कार्य करातीं है ये अविद्यामाया से उत्पन्न होती हैं। अविद्यामाया षडरिपु और अष्टपाश की जन्मदाता है।षड रिपु का अर्थ है छै शत्रु, इन्हें शत्रु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता की ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ।
2-काम, क्रोध, लोभ, मद मोह, और मात्सर्य ये षडरिपु है ...
1-Kāma means desire and lust.
2-Krodha means anger.
3--Lobha means greed.
4-Moha means delusion.
5-Mada means Ego and pride.
6-Mātsarya means Jealousy, excessive competition.।
3-जब तक मानव पाश-बद्ध, विषय-भोगो के प्रति आसक्त, देहाभिमानी हैं, वह केवल जीव कहलाता हैं, पाश-मुक्त होने पर वह स्वयं शिव के समान हो जाता हैं। वीर-साधना या शक्ति साधना का मुख्य उद्देश्य शिव तथा समस्त जीवों में ऐक्य प्राप्त करना हैं। यहाँ मानव देह देवालय हैं तथा आत्म स्वरूप में शिव इसी देवालय में विराजमान हैं। अष्ट पाशों से मुक्त हुए बिना देह में व्याप्त सदा-शिव का अनुभव संभव नहीं हैं। शक्ति साधना के अंतर्गत पशु भाव, वीर-भाव जैसे साधन कर्मों का पालन कर मनुष्य सफल योगी बन पता हैं।अष्ट पाश का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है।भय, लज्जा, घृणा, शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ....ये अष्ट पाश है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश जैसे लज्जा घृणा और भय आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं।
4-पशु भाव आदि भाव हैं। जब तक मनुष्य के बुद्धि का पूर्ण रूप से विकास ना हो, वह पशु के ही श्रेणी में आता हैं।पशु भाव से ही साधन प्रारंभ करने का विधान हैं, यह प्रारंभिक साधन का क्रम हैं, यह भाव निम्न कोटिमाना गया हैं। अपनी साधना द्वारा प्राप्त ज्ञान द्वारा जब अज्ञान का अन्धकार समाप्त हो जाता हैं, पशु भाव स्वतः ही लुप्त हो जाता हैं।
यह अष्ट मानव लक्षण सर्वदा ही मनुष्य के आध्यात्मिक उन्नति हेतु बाधक माने गए हैं तथा साधन पथ में तज्य हैं। पशु भाव साधन क्रम के अनुसार साधक इन्हीं लक्षणों या पाशों पर विजय पाने का प्रयास करता हैं।साधक को शिवत्व प्राप्त करने हेतु इन सभी पाशों या लक्षणों से मुक्ति होना अत्यंत आवश्यक हैं।
5-जो इन अष्ट-पाशों में से किसी एक से भी ग्रस्त हैं, मनोविकार युक्त हैं, वह सर्वदा, सर्व-काल तथा सर्व-व्यवस्था में साधना करने में समर्थ नहीं हो सकता। चित निर्मल हुए बिना, समदर्शिता तथा त्याग की भावना का उदय होना अत्यंत कठिन हैं,। चित को निर्मल निर्विकार करने हेतु पशु भाव का त्याग अत्यंत आवश्यक हैं। पशु भाव से साधना प्रारंभ कर अष्ट पाशों, मनोविकारों पर विजय पाकर ही साधक वीर-भाव में गमन का अधिकारी हैं।
क्या अर्थ हैं वीर भाव का?
6-इस भाव तक आते-आते साधक.. अष्ट-पाशों के कारण होने वाले दुष्परिणामों को समझने लगता हैं, परन्तु उनका पूर्ण रूप से वह त्याग नहीं कर पाता हैं, परन्तु करना चाहता हैं। वीर-भाव का मुख्य आधार केवल यह हैं कि साधक अपने आप में तथा अपने इष्ट देवता में कोई अंतर न समझें तथा साधना में रत रह कर अपने इष्ट देव के समान ही गुण-स्वभाव वाला बने।
वीर-भाव बहुत ही कठिन मार्ग हैं ,साथ ही साधक का दृढ़ निश्चयी भी होना अत्यंत आवश्यक हैं। किसी भी कारण इस मार्ग का मध्य में त्याग करना उचित नहीं हैं, अन्यथा दुष्परिणाम अवश्य हैं। जिस साधक में किसी भी प्रकार से कोई शंका नहीं हैं, वह भय मुक्त हैं, निर्भीक हैं, लज्जा व कुतूहल से रहित हैं, वेद तथा शास्त्रों के अध्ययन में सर्वदा रत रहता हैं, वह वीर साधन करने का अधिकारी हैं।
7-इसी मार्ग का अनुसरण कर महर्षि वशिष्ठ ने, नील वर्णा महा-विद्या तारा की सिद्धि प्राप्त की थी। सर्वप्रथम, अपने पिता ब्रह्मा जी की आज्ञा से महर्षि वशिष्ठ ने देवी तारा की वैदिक रीति से साधन प्रारंभ की परन्तु सहस्त्र वर्षों तक कठोर साधना करने पर भी मुनि-राज सफल न हो सके। परिणामस्वरूप क्रोध-वश उन्होंने तारा मंत्र को श्राप दे दिया। तदनंतर दैवीय आकाशवाणी के अनुसार, मुनि राज ने कौल या कुलागम मार्ग का ज्ञान प्राप्त किया तथा देवी के प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त कर, सिद्धि प्राप्त की।
सर्वश्रेष्ठ विषय भोगो को भोग करते हुए भी, विषय भोगो के प्रति अनासक्ति का भाव, इस मार्ग का चरम उद्देश्य हैं।
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अष्ट पाश;-
भय/Fear, लज्जा/Shame, घृणा/Hatred, शंका/Doubt, कुल/ancestry , शील/Modesty, मान/Values और जुगुप्सा/Loathsome ,disgusting
1- घृणा :-
व्यक्ति-विशेष के शरीर, इन्द्रियां तथा मन को न भाने वाली तथा तिरस्कृत करने वाला लक्षण घृणा कहलाती हैं। संसार के समस्त तत्व या पञ्च तत्व से निर्मित प्रत्येक वस्तुओं में किसी भी प्रकार का विकार अनुभव करना ही घृणा हैं, जो अभिमान, अहंकार इत्यादि विकारों को जन्म देता हैं। मनुष्य के हृदय पर किसी वस्तु या तत्व के प्रति प्रेम तथा किसी के प्रति तिरस्कार हैं तथा प्रत्येक तत्व में परमात्मा के अस्तित्व से अनभिज्ञ हैं।
2- शंका :-
किसी व्यक्ति के प्रति संदेह की भावनाशंका हैं। विषय-आसक्त, माया-मोह में पड़ा हुआ मनुष्य, अपने विकास के लिये नाना प्रकार के छल-प्रपंच में लिप्त रहता हैं, कपट व्यवहार करता हैं, झूठ बोलता हैं, देहाभिमानी हैं, परिणामस्वरूप वह दूसरे को भी ऐसा ही समझ कर उस पर संदेह करता हैं।
3- भय :-
मनुष्य को अपने शरीर, प्रिय-जन, संपत्ति, अभिलषित वस्तुओं से प्रेम रहता हैं तथा इसके नष्ट होने का सर्वदा भय रहता हैं। भौतिक वस्तुओं के नाश का उसे सर्वदा भय रहता हैं परन्तु आत्म के नाश का नहीं तथा आत्म तत्व को जानने की कोई आवश्यकता नहीं होती हैं। अन्य कई कारण हैं जो भय को उत्पन्न करती हैं; जैसे अपने सनमुख होने वाली कोई अप्रिय घटना इत्यादि।
4-लज्जा :-
सामान्यतः मनुष्य के हृदय में मान-अपमान भावना का उदय होना लज्जा कहलाता हैं। मनुष्य का शरीर नश्वर हैं, फिर शरीर के मान-अपमान का कितना महत्व हो सकता हैं? तथा शरीर को जीवन देने वाली आत्म साक्षात् परमात्मा ही हैं तथा मान-अपमान से परे हैं।
5- जुगुप्सा :-
दूसरों की निंदा-चर्चा करना जुगुप्सा कहलाती हैं, मनुष्य दूसरों के गुण तथा दोषों को देखता हैं तथा अपने दोषों का मनन नहीं कर पाता।
6- कुल : -
उच्च कुल या वंश में जन्म कुल-भाव से हैं, जैसे उच्च कुल में पैदा हुआ अपने आप को उच्च मानता हैं तथा दूसरे के कुल को छोटा। यह भाव मनुष्य के अन्दर छोटा या बड़ा होने के प्रवृति को उदित करता हैं तथा उसके विचार भेद-भाव युक्त हो जाते हैं।मनुष्य का अपना जात्यभिमान, उसके हृदय में बड़े या छोटे भावना का प्रतिपादन करता हैं। जाति भेद को समदर्शी न मानने वाला पशु भाव से ग्रस्त हैं, चारों जातियां क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य तथा शूद्र सभी परम-पिता ब्रह्मा जी के संतान हैं।
7- शील :-
शिष्टाचार का अभिप्राय शील हैं, अन्य लोगों के प्रति मानव का व्यवहार, सेवा, उठने-बैठने का तरीका शिष्टाचार या शील कहलाती हैं। शीलता के बंधन को काट देने पर साधक विचार तथा कर्म में स्वतंत्र हो जाता हैं तथा उसे ये चिंता नहीं रहती हैं की कोई अन्य उसके बारे में क्या सोच रहा हैं।
8-मान :-
मनुष्य की जिस वृत्ति को हम अहंकार कहते हैं, उसके लिए 'अहंकार' शब्द का प्रयोग तब किया जाता है, जब वह अपनी सीमा का उल्लंघन करती है, अन्यथा इससे पूर्व तो वह स्वाभिमान होता है, जिसका प्रत्येक मानव में होना आवश्यक है। स्वाभिमान के बिना जीवन कोई जीवन नहीं रह जाता।
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According to Christian tradition the seven deadly sins are:
1-Envy(the intense desire to have an item that someone else possesses.)
2-Gluttony(an excessive and ongoing eating of food or drink.),
3-Greed or avarice, lust, pride, sloth(excessive laziness ), and wrath(strong anger).
4-Sloth
5-Wrath
6-Envy
7-Pride
THE SEVEN VIRTUES;-
The seven virtues ( how they cure each of the seven deadly sins):-
1-Kindness = cures envy by placing the desire to help others above the need to supersede them.
2-Temperance = cures gluttony by implanting the desire to be healthy, therefore making one fit to serve others.
3-Charity or love = cures greed by putting the desire to help others above storing up treasure for one’s self.
4-Chastity or self-control = cures lust by controlling passion and leveraging that energy for the good of others.
5-Humility = cures pride by removing one's ego and boastfulness, therefore allowing the attitude of service.
6-Diligence or Zeal = cures slothfulness by placing the best interest of others above the life of ease and relaxation.
7-Patience = cures wrath by taking time to understand the needs and desires of others before acting or speaking...
क्या है त्रिविध ताप?-
03 FACTS;-
1-आधिदैहिक ताप(Caused by Supernatural/ Spirituality);-
शरीर से, मन से होने वाली बीमारियाँ आधिदैहिक ताप के अन्तर्गत आती हैं। इस शरीर को स्वतः अपने ही कारणों से जो कष्ट होता है उसे दैहिक ताप (physical/ self generated sufferings) कहा जाता है। इसे आध्यात्मिक ताप भी कहते हैं क्योंकि इसमें आत्म या अपने को अविद्या, राग, द्वेष, मू्र्खता, बीमारी आदि से मन और शरीर को कष्ट होता है। मनुष्य इस पर भी पूर्ण नियंत्रण नहीं कर पाया है।आध्यात्मिक ताप अज्ञान जनित कष्ट होते हैं। मनुष्य जब तक ज्ञानार्जन नहीं करता तब तक वह संसार में तिरस्कृत होता रहता है।
2-आधिभौतिक ताप(Caused by created beings);-
02 POINTS;-
1-आस-पास के वातावरण से प्राप्त अशान्ति को, दुःख आधिभौतिक ताप ( worldly sufferings) कहते हैं।जो कष्ट भौतिक जगत के बाह्य कारणों से या आस-पास के वातावरण से प्राप्त अशान्ति से होता है उसे आधिभौतिक या भौतिक ताप कहा जाता है।शत्रु आदि स्वयं से परे वस्तुओं या जीवों के कारण ऐसा कष्ट उपस्थित होता है।इस संसार में रहने वाले हर जीव का स्वभाव भिन्न होता है।वह कब और किस समय अपनी कोई भी क्या प्रतिक्रिया दे दे, इस विषय में कहा नहीं न सकता।
2-प्राणी विशेष के द्वारा दिया जाने वाला कष्ट आधिभौतिक है।आधिभौतिक ताप सांसारिक वस्तुओं अथवा जीवों से प्राप्त होने वाला कष्ट होता है।आधिभौतिक दु:खों पर भी पूर्ण नियंत्रण मनुष्य के द्वारा नहीं हो पाता है।
3-आधिदैविक ताप(Caused by destiny);-
04 POINTS;-
1-अज्ञात स्रोत के कारण होने वाली दुःखद घटनाओं से प्राप्त ताप को आधिदैविक ताप (act of god) कहते हैं।जो कष्ट दैवीय कारणों से उत्पन्न होता है उसे आधिदैविक या दैविक ताप कहा जाता है। अत्यधिक गर्मी, सूखा, भूकम्प, अतिवृष्टि आदि अनेक कारणों से होने वाले कष्ट को इस श्रेणी में रखा जाता है। आधिदैविक, आधिभौतिक व आध्यात्मिक। दैवीय शक्तियों के रुष्ट होने से जो दु:ख होता है उससे अतिवृष्टि, अनावृष्टि, राष्ट्र विप्लव, भूकंप, सुनामी आदि,होता है। इस पर मनुष्य का कोई नियंत्रण नहीं है। 2-आधिदैविक वह ’सत्यता’ है जिसे प्रकृति की सूक्ष्म किन्तु अत्यन्त शक्तिशाली ’सत्ताएँ’ संचालित करती हैं।जैसे अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल तथा अकाश एक ओर भौतिक रूप में ग्रहण किए जाते हैं, वैसे ही उनकी ’आधिदैविक’ सत्ता भी है जो मनुष्य और जगत् के जीवन को निर्धारित करती हैं ।
3-आधिदैविक ताप दैवी शक्तियों द्वारा दिये गये या पूर्वजन्मों में स्वयं के किए गये कर्मों से प्राप्त कष्ट कहलाता है।मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसका भाग्य उसके साथ ही इस धरा पर आ जाता है। इस सृष्टि के प्रारम्भ से इस वर्तमान जन्म तक न जाने कितने ही जन्म उसने लिए होते हैं। उन सभी जन्मों में किए गए उसके सुकर्मो और दुष्कर्मो के फल का भुगतान तो उसे करना ही पड़ता है।उन सब शुभाशुभ कर्मो का फल भोगते हुए कई प्रकार के उतार-चढावों को पार करना मानो उसकी नियति बन जाती है।
4-इसके साथ-साथ अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओलावृष्टि, सुनामी, बाढ़, भूकम्प आदि दैविक तापों उसे सताते रहते हैं, मनुष्य को उनसे मुक्ति नहीं मिलती जब तक वह इन सब को भोग नहीं लेता।सांसारिक विघ्न-बाधाएँ भी उसे कदम-कदम पर डराती रहती हैं और तब मनुष्य विवश होकर इसे ही अपने भाग्य का फैसला मानकर अपना सिर झुका लेता है।
.....SHIVOHAM...