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महाविदेह का क्या अर्थ है?


महाविदेह का अर्थ ;-

18 FACTS;-

1-पहले चक्र का नाम है, मूलाधार ;जो तुम्हें प्रकृति के ,अतीत के और भविष्य के साथ जोड़ता है।जो लोग पहले चक्र, मूलाधार/ काम के चक्र पर ही जीवन जीते हैं ;वे केवल ऊर्जा निर्मित किए चले जाते हैं और जब वे इससे अति बोझिल हो जाते हैं तब वे उसे फेंकते रहते हैं। वे खाते हैं, कार्य करते हैं, सोते हैं,और ऊर्जा निर्मित करने के बहुत से कार्य करते हैं। फिर वे कहते हैं, कि यह बहुत भारी है और इसे फेंक देते हैं। जब वे इसे फेंक देते हैं तो फिर खालीपन अनुभव; करते हैं। वे इसे नये ईंधन ,नये भोजन ,नये कार्य से पुन: भरते हैं और फिर जब ऊर्जा वहां होती है तो वे किसी भांति इससे भी छुटकारा पा लेते है। और काम चक्र सिर्फ एक छुटकारा बन जाता है।

2-जब तक तुम्हें इस बात का पता नहीं लगता कि तुम्हारे भीतर कुछ उच्चतर केंद्र भी हैं, जो इस ऊर्जा को समाहित कर सकते हैं, सृजनात्मक रूप से प्रयुक्त कर सकते हैं, तुम इसी काम के दुष्‍चक्र में बंधे रहोगे।लेकिन किसी भी भांति ..काम पर नियंत्रण खतरनाक हो सकता है। यदि नये चक्र नहीं खुल रहे हैं और तुम उसकी निंदा करते हुए, ऊर्जा को दबाते हुए उसके’साथ जबरदस्ती करते हो तो तुम एक ज्वालामुखी पर बैठे हो। किसी भी दिन विस्फोट हो सकता हैं।तब बेहतर यही है कि इससे छुटकारा पा लिया जाए। लेकिन ऐसे केंद्र हैं जो इस ऊर्जा को सोख सकते हैं, और अस्तित्व की महानतम संभावनाएं तुम्हारे सामने उदघाटित हो सकती हैं।

3-जिस क्षण ऊर्जा काम से पार जाती है, यह स्वाधिष्ठान/ हारा केंद्र को छूती है और व्यक्ति भयग्रस्त हो जाता है।तब पहली बार तुम एक नये जगत, एक नये आयाम से परिचित होते हो। तब तुम स्वाधिष्ठान/हारा से उच्चतर केंद्र, मणिपूर/नाभि केंद्र को देख सकते हो। और यह नाभि केंद्र पुनर्जीवन बन जाता है, क्योंकि नाभि केंद्र हीं सर्वाधिक ऊर्जा संरक्षक केंद्र है।जब तुम

मूलाधार/काम केंद्र से हारा में चले जाते हो, तब अंतर्यात्रा की संभावना प्रबल हो जाती है ..तुमने एक द्वार खोल लिया है। अब जब तक तुम सारे द्वार न खोल लो तुम आराम नहीं कर सकते ;देहरी पर नहीं रुके रह सकते, तुमने एक हैवन में प्रवेश पा लिया है।अब तुम एक के बाद एक नये द्वार खोल सकते हो।

4-ठीक मध्य में है अनाहत/हृदय का केंद्र। हृदय केंद्र उच्चतर और निम्नतर को विभाजित करता है। पहला है काम केंद्र, फिर हारा, फिर नाभि, और फिर आता है हृदय केंद्र। इसके नीचे तीन केंद्र हैं, इससे उपर तीन केंद्र हैं। हृदय है एकदम बीच में।काम अधोगामी है,

अधोमुखी त्रिभुज की भांति है। सहस्त्रार ऊर्ध्वगामी है, अत: सहस्त्रार एक ऊर्ध्वमुखी त्रिभुज है।और हृदय ठीक मध्य में है, जहां काम त्रिकोण सहस्त्रार के त्रिकोण से मिलता है। दोनों त्रिभुज मिलते हैं, एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं और यह षटकोणीय सितारा बन जाता हैं।

एक बार तुमने हृदय केंद्र खोल लिया, तो तुम उच्चतम संभावनाओं के लिए उपलब्ध हो जाते हो।

5-हृदय से नीचे तुम मानव रहते हो, हृदय के पार तुम महामानव बन जाते हो।

हृदय केंद्र के बाद है विशुद्ध/कंठ चक्र, उसके बाद आज्ञा केंद्र, और फिर सहस्रार।

हृदय है प्रेम की अनुभूति।विशुद्ध/कंठ है अभिव्यक्ति, संवाद, इसे दूसरों को देना। और अगर तुम दूसरों को प्रेम देते हो, तो तीसरी आँख का केंद्र सक्रिय हो जाता है। एक बार तुम देना आरंभ कर दो, तुम ऊंचे और ऊंचे जाने लगते हो। एक व्यक्ति जो लिए चला जाता हो, वह नीचे, नीचे और नीचे चला जाता है। जो व्यक्ति दिए चला जाए, वह उच्चतर, उच्चतर और उच्चतर होता जाता है। कंजूस होना अथार्त आदमी गिर सकता है और दानी वह महत्तम संभावना है, जिसको व्यक्ति उपलब्ध हो सकता है।

6-पांच शरीर, पांच महाभूत, और पांच केंद्र और दो सेतु। इस ढांचे के पीछे योगियों का सारा प्रयास है कि हर कहीं संयम आए, इस प्रकार व्यक्ति प्रकाश से ओतप्रोत ज्ञान को उपलब्ध हो जाए।चेतना के आयाम को संस्पर्शित करने की शक्ति, मनस शरीर के परे है, अत: अकल्पनीय है और महाविदेह कहलाती है। इस शक्ति के द्वारा प्रकाश पर छाया हुआ आवरण

हट जाता है।जब तुम मनस शरीर का अतिक्रमण कर लेते हो, तो पहली बार तुम्हें यह पता लगता है कि तुम मन नहीं हो वरन साक्षी हो। मन से नीचे तो केवल तुम्हारा तादात्म्य बना हुआ है।यदि एक बार तुम जान लो कि विचार, धारणाएं आदि सभी विषयवस्तु हैं, चेतना में तैरते बादल हैं,तो तुम तत्‍क्षण उनसे अलग/ देहातीत हो जाते हो।

7-महाविदेह का अर्थ है... जो देह के पार है,असीम है, जो अब किसी शरीर में सीमित नहीं रहा; वह स्थूल हो या सूक्ष्म, देह नहीं है। सारी सीमाएं सीमित करती हैं, बांध लेती हैं, और वह उन्हें तोड़ सकता है, छोड़ सकता है और अनंत आकाश के साथ एक हो सकता है।स्वयं को

असीम की तरह जानने का यह वही क्षण है जब इस शक्ति के द्वारा प्रकाश पर छाया आवरण हट जाता है।तुम एक प्रकाश की भांति हो ;जो कई आवरणों से ढंका है। धीरे धीरे एक एक आवरण हटाया जाना है और इससे प्रकाश अनावृत होता जाएगा।मनोमय कोष/मनस शरीर से पार जाना है ; तब तुम ध्यान बन जाते हो, अमन हो जाते हो।

8-महृषि पतंजलि का एक सारगर्भित सूत्र है कि संसार के सभी तत्व, पंच महाभूत ..पृथ्वी, वायु, अग्नि आदि, शून्य से जन्मते हैं और पुन: विश्रांति के लिए शून्य में समा जाते हैं। हर चीज शून्य से आती है और थक जाने पर विश्राम हेतु पुन: शून्य में समा जाती है।विज्ञान के अनुसार

भी पदार्थ शून्य से जन्मा है।इस शुद्ध अंतराल से ही हर वास्तु का जन्म होता है।यदि तुम जीवन में तर्क ही करते रहे तो तुम सत्य में प्रविष्ट नहीं हो सकते। पहले यह स्पष्ट अवधारणा थी कि कोई चीज या तो कण हो सकती है या तरंग।लेकिन वैज्ञानिकों को पता लगा कि क्वांटम, विद्युतकण, एक ही समय में दो प्रकार से व्यवहार करता है। कभी -कभी वे तरंग की भांति दिखते हैं और कभी कणों की भांति दिखते हैं।

9-अब वही एक वस्तु उसी क्षण में दोनों एक साथ नहीं हो सकती है।क्वाण्टम विद्युतकण एक कण और एक तरंग ... इसका अर्थ हुआ कि कोई चीज बिंदु और रेखा दोनों, एक ही समय में

एक साथ है। वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सब कुछ ब्लैक होल्स (कृष्ण—विवर)से ही जन्मा है और सब कुछ पुन: ब्लैक होल्स में ही विलीन हो जाता है। ये ब्लैक होल्स विराट शून्यता के छिद्र हैं। वहां पाने के लिए कुछ भी नहीं है, किंतु वहां ऊर्जा है।वे सितारों के समांतर हैं। सितारे सकारात्मक हैं, और हर सितारे के समांतर एक ब्लैक होल है। और हर तारा जब थक जाता है, बोझिल हो जाता है तब ब्लैक होल बन जाता है। और हर ब्लैक होल जब आराम कर चुका होता है तो तारा बन जाता है।

10-पदार्थ.. अपदार्थ में परिवर्तित होता रहता है और अपदार्थ पदार्थ बन जाता है। जीवन मृत्यु बन जाता है, मृत्यु जीवन बन जाती है। प्रेम घृणा बन जाता है, घृणा प्रेम बन जाती है।

ध्रुवीयता/Polarity लगातार बदलती रहती हैं।महृषि पतंजलि के अनुसार '' यदि तुम अपने साक्षीभाव के सच्चे स्वरूप को समझ गए हो, और तब तुम एकाग्र होते हो, तुम किसी पदार्थ पर संयम साधते हो, तो तुम इसे प्रकट या लुप्त कर सकते हो क्योंकि वे 'शून्य' से आती हैं।

वैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा हो रहा है।महृषि पतंजलि कहते है कि ''ऐसा किया जा सकता है।

जो कुछ भी घट रहा है, उसे घटित करवाने के लिए विधियां और उपाय खोजे जा सकते हैं। यदि यह पहले से ही हो रहा है, तो यह वास्तविकता के विपरीत नहीं है। यदि तुमने पांच बीजों के परे, अपने अस्तित्व को .पहचान लिया है तो तुम चीजों को मूर्तमान या चीजों को अमूर्त कर सकते हो।इसके उपरांत अणिमा, आदि, देह की संपूर्णता, और देह को बाधित करने वाले तत्वों की शक्ति के निर्मूलन की उपलब्धि प्राप्त होती है।'’

11-वैज्ञानिको के लिए यह खोजना बाकी है कि यह संभव है या नहीं। किंतु यह सत्य प्रतीत

होता है।योग की आठ सिद्धियां /शक्तियां हैं। पहली है अणिमा, और फिर लघिमा और गरिमा आदि। योगियों की ये आठ शक्तियां हैं कि वे अपने शरीर को अदृश्य कर सकते हैं, अपने शरीर को इतना छोटा बना सकते हैं कि यह दिखाई ही न पड़े, या वे अपने शरीर को जितना चाहे उतना बड़ा कर सकते हैं। शरीर को छोटा, बड़ा, या पूर्ण अदृश्य बनाना, या कई स्थानों पर एक साथ प्रकट होना, यह सभी उनके नियंत्रण में होता है।

12-यह असंभव प्रतीत होता है, लेकिन जो कुछ भी असंभव लगता था वह देर से ही सही लेकिन संभव हो जाता है। मनुष्य के लिए उड़ना असंभव था, किसी को इस पर यकीन नहीं था। राइट ब्रदर्स को पागल, सनकी समझा जाता था। जब उन्होंने अपने पहले वायुमान का अविष्कार किया, वे इसे लोगों को बताने से इतने भयभीत थे, कि यदि उन्हें पता लग गया तो इन्हें पकड़ कर अस्पताल में भरती कर दिया जाएगा। पहली उड़ान, पूरी तरह से किसी को बताए बिना, केवल दोनों के द्वारा संपन्न की गई। और उन्होंने अपना पहला वायुयान एक तहखाने में छिप कर बनाया, ताकि कोई भी यह जान न पाए कि वे क्या कर रहे हैं। उनकी पहली उड़ान मात्र साठ सेकेंड की थी .. लेकिन इसने सारी मानवता को, अदभुत रूप से बदल दिया।यह संभव हो गया। कभी किसी ने सोचा भी न था कि परमाणु को विभाजित किया जा सकता है।

13-ऐसी बहुत सी बातें घटी हैं जिन्हें सदा असंभव समझा जाता रहा था। हम चांद पर पहुंच

गए।यह असंभव का प्रतीक था।आइंस्टीन के अनुसार जब कोई प्रकाश के वेग से यात्रा करता है तो समय और इसका प्रभाव मिट जाता है। एक व्यक्ति अनंत आकाश की यात्रा पर जाकर पाच सौ वर्ष बाद वापस आ सकता है। यहां के सारे लोग मर चुके होंगे, उसे कोई नहीं पहचानेगा, और वह किसी को नहीं पहचानेगा ;किंतु वह उसी उम्र का होगा। तुम्हारी आयु पृथ्वी की गति के कारण बढ़ रही है। यदि वह प्रकाश के समान हो जाए; जो वास्तव में अत्यधिक है, तो तुम्हारी आयु बिलकुल भी न बढ़ेगी।

14-उदाहरण के लिए ,भागवत का प्रसंग है कि श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का विवाह रेवती से हुआ था। लेकिन रेवती कई युगों से अविवाहित थीं। कारण था उनके लिए सुयोग्य वर न मिल पाना। इस बात को लेकर रेवती के पिता रेवत काफी परेशान थे।राजा रेवत, महान राजा शर्याति के वंशज थे और वह कुशस्थली का राज-काज संभाल रहे थे। यह पूरा घटनाक्रम सतयुग का है। जब राजा रेवत अपनी पुत्री रेवती के विवाह को लेकर चिंतित थे, तब वह एक दिन ब्रह्मलोक पहुंचे। ब्रह्मलोक में उस समय वेदों का गान चल रहा था। इसलिए वह वहां रुक गए। समय बीतता गया। वेदों का पाठ जब खत्म हुआ तो ब्रह्माजी के सामने उन्होंने अपनी बात कही।लेकिन ब्रह्माजी ने कहा, 'हे राजन् आप जब से ब्रह्मलोक में हैं। तब से तो कई युग बीत चुके हैं। आपके सगे-संबंधियों का भी अंत हो चुका है। इस समय पृथ्वी पर द्वापरयुग चल रहा है।वहां स्वयं साक्षात् विष्णु भगवान ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया है। और उनके भाई बलराम भी हैं। जो शेषनाग के अवतार हैं। राजन् आपको बलराम से सुयोग्य वर रेवती के लिए पृथ्वी पर मिलना मुश्किल हैं। अतः रेवती का विवाह बलराम से कीजिए।'

15-राजा रेवत ब्रह्माजी की आज्ञा का पालन करते हुए बलराम जी से मिले, लेकिन रेवत और उनकी पुत्री रेवती के शरीर का आकार सतयुग के मानव की तरह इक्कीस हाथ का था। ऐसे में बलराम ने अपने हल को रेवती के सिर पर रख दिया और उनके शरीर का आकार द्वापरयुग के उस समय मौजूद मनुष्य की तरह यानी 7 हाथ का हो गया।बाद में बलराम और

रेवती काफी समय तक पृथ्वी पर मौजूद रहे थे।हठ योग के अनुसार मनुष्य के शरीर में ऊर्जा की तीन धाराएं होती हैं। एक को ‘पिंगला’ कहते हैं, यह दाईं धारा है, मस्तिष्क के बाएं हिस्से से जुड़ी है अथार्त सूर्य नाड़ी। फिर दूसरी धारा है ‘इड़ा’, बाईं धारा, दाएं मस्तिष्क से जुड़ी है अथार्त चंद्र नाड़ी। और तब एक तीसरी धारा है, मध्यधारा /सुषुम्ना,जो केंद्रीय और संतुलित है। यह सूर्य और चंद्रमा ..दोनों से एक साथ मिल कर बनी है।

16-सामान्यत: तुम्हारी ऊर्जा या तो ‘पिंगला’ द्वारा गतिमान होती है या ‘इड़ा’ द्वारा। योगी की ऊर्जा सुषुम्ना द्वारा प्रवाहित होने लगती है। यह कुंडलिनी कहलाती है। तब ऊर्जा इन दोनों दाएं और बाएं के ठीक मध्य से प्रवाहित होती है। तुम्हारे मेरुदंड के साथ ही इन धाराओं का अस्तित्व है। एक बार उर्जा मध्यधारा से प्रवाहित होने लगे, तुम संतुलित हो जाते हो। तब व्यक्ति न स्त्री होता है न पुरुष, न कोमल न कठोर, या दोनों पुरुष -स्त्री, कोमल और कठोर। सुषुम्ना में सारी ध्रुवीयताएं विलीन हो जाती हैं और सहस्रार सुषुम्ना का शिखर है।अगर तुम

अपने अस्तित्व के निम्नतम बिंदु मूलाधार /काम केंद्र पर रहते हो, तो तुम्हारी गति या तो ‘इड़ा’ से होगी या ‘पिंगला’ से होगी, अथार्त सूर्य नाड़ी या चंद्र नाड़ी, और तुम विभाजित रहोगे। और तुम दूसरे की खोज करते रहोगे, दूसरे की कामना करते रहोगे, स्वयं में अधूरापन अनुभव करोगे, तुम्हें दूसरे पर आश्रित रहना पड़ेगा।

17-जब तुम्हारी अपनी ऊर्जाएं अंदर मिल जाती हैं तो ब्रह्मांडीय चरम ऊर्जा का विस्फोट घटता है। जब इड़ा और पिंगला मिल कर सुषुम्ना में समा जाती हैं, तब व्यक्ति निरंतर आनंदमग्न रहता है। तब इस आनंद का कोई अंत नहीं है। फिर वह व्यक्ति कभी नीचे नहीं आता, कभी भी अधोगामी नहीं होता। व्यक्ति शिखर पर ही रहता है। ऊंचाई का यह बिंदु

व्यक्ति का अंतर्तम केंद्र, उसका समग्र अस्तित्व बन जाता है। 'पतंजलि योगप्रदीप्त' का यह अध्याय विभूतिपाद कहलाता हैं जिसमे अ‍ष्टसिद्धि के अलावा अन्य अनेक प्रकार की सिद्धियों का वर्णन मिलता है।

18-विभूति का अर्थ है : ‘शक्ति'।इस अध्याय में संयम के माध्यम से मिलने वाली विभूतियों या दिव्य उपलब्धियों की विस्तृत चर्चा की गयी है |महृषि पतंजलि ने यह अध्याय इसलिए सम्मिलित किया कि उनके शिष्य और वे लोग जो उनका अनुसरण कर रहे हैं, उन्हें सावधान किया जा सके कि रास्ते में बहुत सी शक्तियां घट सकती हैं, किंतु उनमें तुम्हें उलझना नहीं है। एक बार तुम शक्ति में उलझे तो, परेशानी में पड़ जाओगे। तुम उस बिंदु से बंध जाओगे और तुम्हारी उड़ान थम जाएगी। और व्यक्ति को परम अंत तक उड़ते ही जाना है ...जब तक कि शून्यता न खुले और तुम ब्रह्मांडीय आत्मा में पुन: समाहित हो जाओ।

.....SHIVOHAM...

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