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उपनिषद का संक्षिप्त परिचय -


02 FACTS;-

1-उपनिषद प्राचीन वैदिक शास्त्र हैं जो हिंदू धर्म का मूल रूप हैं। उनमें गहन आध्यात्मिक शिक्षाएँ और मानवीय स्थिति के साथ-साथ दार्शनिक और आध्यात्मिक विचार शामिल हैं। उपनिषदों को हिंदू धर्म में सभी प्राचीन ज्ञान का स्रोत कहा जाता है, और वे वास्तविकता की प्रकृति को समझने के लिए एक आधार प्रदान करते हैं। उपनिषदों में ब्रह्म, आत्मा, कर्म, धर्म और मोक्ष (मुक्ति) जैसी अवधारणाओं की चर्चा की गई है। ये सच्चाई और अखंडता का जीवन जीने के तरीके पर भी मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। उपनिषद हिंदू धर्म और इसकी शिक्षाओं की गहरी समझ हासिल करने के इच्छुक लोगों के लिए आवश्यक हैं।उपनिषद शब्द ‘उप’ और ‘ति’ उपसर्ग तथा ‘सद’ धातु के संयोग से बना है. ‘सद’ धातु का प्रयोग ‘गति’,अर्थात् गमन,ज्ञान और प्राप्त के सन्दर्भ में होता है।इसका अर्थ यह है कि जिस विद्या से परब्रह्म, अर्थात् ईश्वर का सामीप्य प्राप्त हो, उसके साथ तादात्म्य स्थापित हो,वह विद्या ‘उपनिषद’ कहलाती है। उपनिषद में ‘सद’ धातु के तीन अर्थ और भी हैं – विनाश, गति, अर्थात् ज्ञान -प्राप्ति और शिथिल करना। इस प्रकार उपनिषद का अर्थ हुआ-‘जो ज्ञान पाप का नाश करे, सच्चा ज्ञान प्राप्त कराये, आत्मा के रहस्य को समझाये तथा अज्ञान को शिथिल करे, वह उपनिषद है।

2- ’अष्टाध्यायी में उपनिषद शब्द को परोक्ष या रहस्य के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है।कौटिल्य के अर्थशास्त्र में युद्ध के गुप्त संकेतों की चर्चा में ‘औपनिषद‘ शब्द का प्रयोग किया गया है। इससे यह भाव प्रकट होता है कि उपनिषद का तात्पर्य रहस्यमय ज्ञान से है। अमरकोष उपनिषद के विषय में कहा गया है-उपनिषद शब्द धर्म के गूढ़ रहस्यों को जानने के लिए प्रयुक्त होता है। डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार उपनिषद शब्द की व्युत्पत्ति उप (निकट), नि (नीचे), और षद (बैठो) से है। इस संसार के बारे में सत्य को जानने के लिए शिष्यों के दल अपने गुरु के निकट बैठते थे। उपनिषदों का दर्शन वेदान्त भी कहलाता है, जिसका अर्थ है वेदों का अन्त, उनकी परिपूर्ति। इनमें मुख्यत: ज्ञान से सम्बन्धित समस्याऔं पर विचार किया गया है। भारतीय उपनिषद ज्ञान मानव चेतना की सर्वोच्च देन है।

उपनिषदोंं के नाम ;-

उपनिषदों की संख्या 108 से लेकर 200 तक मानी जाती है। मुक्तिक उपनिषद् में उपनिषदों की संख्या 108 बताई गई है। श्रीशंकराचार्य ने 10 उपनिषदों को प्रामाणिक और प्राचीन माना है तथा इनके ऊपर भाष्य लिखा है ।श्री शंकराचार्य के भाष्य सर्वोत्तम एवं प्रामाणिक हैं । श्री शंकराचार्य ने जिन 10 उपनिषदों के भाष्य किए हैं, वे है ....ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक। इनके अतिरिक्त श्री शंकराचार्य ने अपने भाष्य में श्वेताश्वतर और कौषीतकि के भी उद्धरण दिए हैं। अतः इनको लेकर प्राचीन उपनिषदों की संख्या 12 मानी जाती है । इनके ये नाम हैं...

1-ईशावास्य उपनिषद

2-केन उपनिषद

3-कठ उपनिषद

4-प्रश्न उपनिषद

5-मुण्डक उपनिषद

6-माण्डूक्य उपनिषद

7-तैत्तिरीय उपनिषद

8-ऐतरेय उपनिषद

9-छान्दोग्य उपनिषद

10-बृहदारण्यक उपनिषद

11-कौषीतकी उपनिषद

12-श्वेताश्वतर उपनिषद

उपनिषदोंं का संक्षिप्त परिचय;-

1-ईशावास्योपनिषद् ;-

ईशावास्योपनिषद् यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है। इस उपनिषद की प्रथम पंक्ति ‘ईशावास्य’ शब्द से प्रारम्भ होती है, इसलिए इसका नाम ‘ईशावास्योपनिषद्’ रखा गया है।इस उपनिषद में केवल अठारह मन्त्र हैं। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ईशावास्योपनिषद् पर प्रामाणिक भाष्य लिखा था, जो हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में ही उपलब्ध है। अपने संक्षिप्त रूप में यह ईश्वर के स्वरूप तथा मानव समुदाय के संतुलित विकास मार्ग पर सुन्दर प्रकाश डालता है।इसमें ज्ञान को साकार रूप देने पर बहुत बल दिया गया है। आत्मा का एक महत्वपूर्ण रहस्यात्मक वर्णन इसमें किया गया है।एक आदर्श ऋषि का वर्णन जो संसार के विषय, वासना, दुःख, शोक आदि में भी स्थितप्रज्ञ रहता है।

2- केनोपनिषद ;-

02 POINTS;-

1-केनोपनिषद सामवेद की जैमिनीय शाखा के ब्राह्मण ग्रन्थ का नवम अध्याय है। इसमें चार खण्ड हैं -दो पद्य में और दो गद्य में। इसके चार खण्डों में परब्रह्म का निरूपण है । इस ग्रंथ की पहली पंक्ति में सबसे पहले प्रश्न सूचक शब्द ‘केन’ का प्रयोग होने से इसे ‘केनोपनिषद्’ नाम दिया गया है। इस उपनिषद का प्रारम्भ अनन्त शक्ति विषयक जिज्ञासा से होता है – ‘केनेपित पतति प्रेषित मन।’ अर्थात् मन किसकी शक्ति से चलायमान होता है। इसी प्रसंग में आंखों की ज्योति के केन्द्र के रूप में, प्राणों की चेतना के रूप में, बुद्धि की सार-ग्राहिणी भक्ति के रूप में, मन को अभिप्रेरित करने वाली शक्ति के रूप में ईश्वर को देखा गया है।इसमें कहा गया है कि वह ईश्वर नहीं है, जिसकी पूजा बाह्य साधनों से की जाती है।इस ग्रन्थ में अहंकार निवारण के संदर्भ में कहा गया है कि जो वेद-मर्मज्ञ ईश्वर का ज्ञाता होने का दावा करता है वह उसे नहीं जानता, परन्तु जो वेदज्ञाता ईश्वर के मर्म को जानकर उसे जानने का दावा नहीं करता, वह उस अनन्त शक्ति को भली-भांति जान गया है।

2-केनोपनिषद् ‘नेति नेति’ सिद्धान्त का प्रबल प्रतिपादक ग्रन्थ है।आत्मा के बाह्य और आभ्यन्तरिक अथवा मनोवैज्ञानिक और सृष्टि-विधान- शास्त्रसम्मत दोनों प्रकार के प्रमाणों का भेद प्रदर्शित करती है।विविध इन्द्रिय-व्यापारों के प्रेरक के स्वरूप में आत्मा के अस्तित्व का मनोवैज्ञानिक विवेचन मिलता है।यह आत्मानुभूतिमूलक चरम सत्य की उपासना के पक्ष में मूर्ति पूजा का खण्डन भी करती है।इसके गद्य भाग में इन्द्र और अप्सरा की प्रसिद्ध कथा है। इसमें प्रकृति के अन्त में सन्निहित अपरिमित शक्ति के अस्तित्व की सृष्टि-विधान – शास्त्रसंगत विवेचना की गई है।यह हमें नम्रता का पाठ पढ़ाती है। इसका कथन है कि जो मनुष्य विनम्र नहीं है वह इस महान शक्ति के साक्षात्कार की आशा नहीं कर सकता।तप, संयम, कर्म इस शक्ति के अधिष्ठान हैं, वेद इसके अवयव हैं, सत्य इसका आश्रय है।यह उपनिषद हमें बाह्य और आभ्यन्तरिक दोनों ही सत्ता में, उसी एक चरम सत्य का स्वरूप देखने का उपदेश देती है।

3-कठोपनिषद्;-

यह उपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा का भाग है। इसमें दो अध्याय और छः बल्लियाँ हैं। काव्यमय शैली में उच्चतम दार्शनिक सत्यों का निरूपण करना इस उपनिषद का उद्देश्य है।इसमें उद्दालक ऋषि के गोदान व्रत की कथा का वर्णन किया गया है। इसी संदर्भ में उद्दालक ऋषि और उनके पुत्र नचिकेता का संवाद तथा नचिकेता की मृत्यु की कथा है।उद्दालक ऋषि द्वारा अपने पुत्र नचिकेता को यमराज को देने एवं नचिकेता द्वारा यमराज से ब्रह्म-विद्या से सम्बन्धित प्रश्न पूछने का उल्लेख इसमें किया गया है।कुछ वेद-ग्रन्थों का अध्ययन कर लेने पर स्वयं को परम पण्डित मानने वाले विद्वानों की इस उपनिषद में आलोचना की गई है।कठोपनिषद् में ‘शरीर-रथ’ का वर्णन तथा मृत्यु और स्वप्न की कल्पनाओं से संवलित सत्य-मीमांसा है।समस्त कठोपनिषद आत्मा की अमरता-विषयक उच्च कल्पनाओं तथा आत्मानुभूति के व्यावहारिक साधन-संकेतों से परिपूर्ण है।कठोपनिषद में एक स्थान पर विविध लोकों की आत्मानुभूति के अन्तर की ओर संकेत किया गया है।कठोपनिषद में कहा गया है कि यह केवल ब्रह्मलोक में ही सम्भव है कि हम छाया और प्रकाश की भाँति अनात्मा और आत्मा का पृथक्-पृथक् निरुपण कर सकें।

4-प्रश्नोपनिषद्;-

प्रश्नोपनिषद् का सम्बन्ध अथर्ववेद की पिप्लाद संहिता के ब्राह्मण-ग्रन्थों से है। प्रश्नोपनिषद् को उपनिषद वाङ् मय के इतिहास में परवर्ती रचना माना जाता है।इसके विषय-तत्व में एक पूर्व संकल्पित एकसूत्रता पाई जाती है, जो किसी अन्य उपनिषद में नहीं है।प्रश्नोत्तर की प्रधानता के कारण इस उपनिषद को प्रश्नोपनिषद कहते हैं।इस उपनिषद में पिप्पलाद नामक ऋषि द्वारा भरद्वाज के पुत्र सुकेशा, शिवि के पुत्र सत्यवान, कोशलवासी अश्वलायन, विदर्भवासी भार्गव, कात्यायन और कबन्धी नामक छः शिष्यों के प्रश्नो का उत्तर दिया गया है।प्रश्न उपनिषद में यज्ञ को भी ब्रह्म-चिन्तन से समन्वित किया गया है।इस उपनिषद में ईश्वर को ‘प्रभापूर्ण हिरण्यमय’ सिद्ध किया गया है।

5-मुण्डकोपनिषद्;-

मुण्डकोपनिषद तीन मुण्डकों में विभाजित है। प्रत्येक मुण्डक पृथक्-पृथक् दो खण्डों में भी विभाजित है।जैसा कि नाम से ही द्रष्टव्य है इसकी रचना मुण्डित संन्यासियों को लक्ष्य कर हुई है।मुण्डकोपनिषद भावना प्रधान है।इस उपनिषद की कुछ पक्तियां कठोपनिषद् में भी प्राप्त होती हैं।इस उपनिषद में सृष्टि की उत्पत्ति तथा ब्रह्म-तत्त्व की जिज्ञासा को प्रधानता दी गई है।

इसमें ईश्वर के अनुशासन को अमिट सिद्ध करने के लिए उसे ‘भय’ की संज्ञा दी गई है। ईश्वर के भय से सूर्य प्रकाशित होता है, अग्नि प्रज्ज्वलित होती है, हवा बहती है। मुण्डकोपनिषद में मोक्ष के स्वरूप को एक रमणीक उदाहरण के माध्यम से चित्रित किया गया है-जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में मिलकर अपने नाम रूप को विलीन कर देती हैं अर्थात् समुद्रवत् हो जाती हैं, उसी प्रकार वासना-मुक्त व्यक्ति ईश्वरत्व को प्राप्त करके ईश्वर-रूप ही हो जाता है।इस उपनिषद का कर्मकाण्ड के प्रति इसका दृष्टिकोण अनिश्चित है।इसके सृष्टि विधान सम्बन्धी सिद्धान्त सांख्य तथा वेदान्त के विचारों से प्रभावित हैं।रहस्यात्मक भावनाओं की प्रेरणा-शक्ति की दृष्टि से यह समस्त उपनिषदीय वाङ्मय में अद्वितीय है।

6-माण्डूक्योपनिषद ;-

यह उपनिषद अथर्ववेद से संबद्ध है। इसमें केवल 12 मन्त्र ही प्राप्त होते हैं।माण्डूक्योपनिषद् परवर्ती वेदान्त दर्शन की चिरन्तन मूल स्थापना करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।इस उपनिषद में ‘ॐकार’ को त्रिकालव्यापी सिद्ध करके, उसे ही सब कुछ सिद्ध कर दिया गया है। यह ॐकार को तीन मात्रा में विभाजित करती है। ॐकार की मात्राओं के अनुरूप ही मानसिक स्थिति की विविध अवस्थाएं तथा आत्मा के भिन्न-भिन्न प्रकार माने गये हैं।इसमें आत्मा और परमात्मा को एक ही तत्त्व माना गया है।इस उपनिषद में आत्मा को जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति तथा समाधि या तुरीय अवस्था रूपी चार पैरों वाला सिद्ध किया गया है।जागृति में आत्मा का स्वरूप वैश्वानर, स्वप्न में तेजस, सुषुप्ति में प्राज्ञ तथा समाधि में कैवल्य या मोक्ष रूप होता है। यद्यपि आत्मा अपने यथार्थ रूप में पूर्णतः विमुक्त है, तथापि संसार-चक्र में उसके विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं।माण्डूक्य का मत है कि इन चार मानसिक अवस्थाओं के अनुरूप ही परमात्मा के चार पक्ष हैं, जिनमें अन्तिम ही चरमतः सत्य है। दर्शन के एकान्तिक चरम सत्य की कल्पना ईश्वर की सगुण कल्पना से भी परे है।

7-तैत्तिरीयोपनिषद्;-

तैत्तिरीय उपनिषद का सम्बन्ध कृष्ण यजुर्वेद से है। यह उपनिषद तीन अध्यायों, शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली मे विभाजित है।इस उपनिषद में ब्रह्म-तत्व के विवेचन के साथ-साथ धार्मिक विधानों का भी सुन्दर निरूपण हुआ है।तैत्तिरीय उपनिषद की शिक्षावल्ली में स्वाध्याय युक्त प्रवचन की महिमा पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है।इस उपनिषद में विद्यार्थियों के लक्षणों एवं धारणाओं का सुन्दर विवेचन किया गया है।इस उपनिषद में समस्त आचार संहिता का सारांश दिया गया है।

8-ऐतरेयोपनिषद्;-

ऐतरेय उपनिषद का सम्बन्ध ऋग्वेद संहिता के ऐतरेय आरण्यक से है।इस उपनिषद में तीन अध्याय हैं, जिनमें क्रमशः सृष्टि रचना, जीवात्मा का स्वरूप (त्रिजन्म सिद्धान्त की मीमांसा) तथा ब्रह्म-तत्त्व का विवेचन किया गया।दूसरे अध्याय का सम्बन्ध सम्भवतः वैदिक ऋषि वामदेव से है।पुनर्जन्म की कल्पना ऐतरेय उपनिषद केदूसरे अध्याय में निश्चित रूप से प्रस्फुटित हुई है।

तीसरे अध्याय में अद्वैत दर्शन के मूल तत्व की बड़ी साहसिक मीमांसा है कि समस्त सचेतन तथा अचेतन सत्ताओं में एक ही सामान्य तत्व ‘चैतन्य’ की अभिव्यक्ति है।इस उपनिषद को लेकर शंकराचार्य ने अद्धैतवाद की पुष्टि करने के लिए सृष्टि रचना के प्रसंग में सृष्टि कार्य को ईश्वर की जादूगरी का परिणाम बतलाया है।जीव और ब्रह्म का ऐक्य सिद्ध करने के लिए शंकराचार्य ने अपने इस सिद्धान्त, ‘ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या’ का परिपाक कर दिया है।इस उपनिषद की गूढता दर्शनीय है।

9-छान्दोग्योपनिषद;-

02 POINTS;-

1-इस उपनिषद का सम्बन्ध सामवेद संहिता की कौथुम शाखा से है। इस उपनिषद में आठ अध्याय हैं। यह एक वृहदाकार ग्रन्थ है।बृहदारण्यकोपनिषद् में जिस प्रकार याज्ञवल्क्य अत्यन्त श्रेष्ठ तत्वज्ञानी हैं, उसी प्रकार छन्दोग्योपनिषद् में आरुणि। शतपथ ब्राह्मण का मत है कि आरुणि प्राचीन काल के एक प्रख्यात ऋषि थे और याज्ञवल्क्य उनके शिष्य थे।इसका छठा, सातवां तथा आठवां अध्याय दार्शनिक महत्व रखता है। शेष अध्याय गौण हैं।छान्दोग्योपनिषद् का पहला तथा दूसरा अध्याय ब्राह्मणकालीन कर्मकाण्ड से सबसे अधिक प्रभावित है।इनमें सृष्टि-विधान सम्बन्धी तथा कुछ तत्वज्ञान सम्बन्धी चर्चा के अतिरिक्त सामान्यतः ॐकार का महत्व और अर्थ, ॐकार की उत्पत्ति आदि की चर्चा की गई है।इस उपनिषद में ब्राह्मणकालीन बाह्य कर्मकाण्ड की भर्त्सना की गई है तथा भौतिक उद्देश्य की अपेक्षा आध्यात्मिक ध्येय की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है।इसके तीसरे अध्याय में आकाश स्थित एक महान मधुचक्र के रूप में सूर्य का प्रसिद्ध वर्णन है। ब्राह्मण पद्धति के अनुकूल गायत्री का वर्णन, शाण्डिल्य सूत्र, देवकीनन्दन कृष्ण को आंगिरस का उपदेश, एक विशाल अण्डे से सूर्य की उत्पत्ति सहित सूर्योपासना आदि अनेक विषय इसके अन्तर्गत हैं।

2-चौथे अध्याय में रैक्व का दर्शन सिद्धान्त, सत्यकाम जाबाल और उसकी माता की कथा और उपकोसल की कथा है जो अपने गुरु सत्यकाम जाबाल से तत्व-ज्ञान सीखता है। इसमें राजा जानश्रुति और रैक्व मुनि का अत्यन्त रोचक एवं रहस्यपूर्ण आख्यान दिया हुआ है। हिन्दी साहित्य के प्रमुख उपन्यासकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसी आख्यान से प्रेरित होकर ‘अनामदास का पोथा’ उपन्यास लिखा है।पाँचवें अध्याय में जैबली का परलोक-विषयक सिद्धान्त है, जो बृहदारण्यकोपनिषद् के परलोक-शास्त्र से बहुत कुछ साम्य रखता है। अश्वपति कैकेय के पास ज्ञान सम्पादन के लिये आये हुये छ: तत्व जिज्ञासुओं के सृष्टि विधान सम्बन्धी छः पृथक्-पृथक् सिद्धान्तों का कैकेयकृत प्रसिद्ध समन्वय – सिद्धान्त भी इसी में पाया जाता है।छठे अध्याय में आरुणि का विचार – परिप्लुत अद्वैतवाद पाते हैं, जो आत्मा और विश्वात्मा के एकान्त प्रभेद का प्रतिपादन करता है।छान्दोग्योपनिषद के सातवें अध्याय में नारद और सनत् कुमार का प्रसिद्ध संवाद है।अन्तिम आठवें अध्याय में आत्मानुभूति के लिये कुछ उपयोगी तथा उत्तम व्यावहारिक साधन दिये गये हैं। इसमें ब्रह्मा जी के पास दैत्यराज विरोचन तथा देवराज इन्द्र के पहुँचने के फलस्वरूप ब्रह्मविद्या की विवेचना अत्यन्त मार्मिक बन गई है।

10-बृहदारण्यकोपनिषद;-

02 POINTS;-

1-यह उपनिषद सभी उपनिषदों में सबसे बड़ा है |इस उपनिषद का सम्बन्ध शुक्ल यजुर्वेदीय ‘शतपथ ब्राह्मण’ ग्रन्थ से है।

इस उपनिषद में कुल छः अध्याय हैं, जिसमें केवल दूसरे, तीसरे और चौथे अध्याय दार्शनिक महत्व रखते हैं; शेष अध्यायों का दार्शनिक तत्व प्रसंगेतर विचारों से युक्त है। इस ग्रन्थ में आरण्यक एवं उपनिषद तत्त्वों को एकाकार कर दिया गया है।

इस उपनिषद में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के संवाद की गम्भीरता दर्शनीय है। ब्रह्मविद्या का इतना सुन्दर और विस्तृत विवेचन अन्यत्र दुर्लभ है।इस उपनिषद के पहले अध्याय में हिरण्यगर्भ का यज्ञ-अश्व के रूप में सुन्दर वर्णन किया गया है। उसके बाद मृत्यु के समस्त वस्तु जगत की उत्पत्ति होने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। तदुपरान्त प्राण की श्रेष्ठता प्रमाणित करता हुआ एक उपाख्यान है, जिसके आधार पर आगे चलकर सृष्टि-विधान के विषय में अनेक दन्तकथायें गढ़ी गई हैं।दूसरे अध्याय में गार्ग्य नामक एक अभिमानी ब्राह्मण और अजातशत्रु नामक एक शान्त प्रकृति राजा का संवाद है।

2-इसी अध्याय में महर्षि याज्ञवल्क्य, जो अपनी दोनों पत्नियों के बीच अपनी सम्पत्ति विभाजित कर रहे हैं तथा महर्षि आथर्वण का प्रथम उल्लेख मिलता है।दूसरे, तीसरे और चौथे अध्यायों में महर्षि याज्ञवल्क्य का क्रमशः पत्नी मैत्रेयी, राजा जनक की सभा के तत्वज्ञानियों और स्वयं राजा जनक के साथ वाद-विवाद-संवाद है।पाँचवें अध्याय में नीतिशास्त्र, सृष्टि विधान शास्त्र, परलोकशास्त्र आदि से सम्बन्ध रखने वाले कुछ बिखरे चिन्तनों के अतिरिक्त अनेक तत्वों का सम्मिश्रण है।अन्तिम छठे अध्याय में इन्द्रिय-विषयक एक प्रसिद्ध उपाख्यान है | इसी अध्याय में महर्षि प्रवाहण जैबली का उल्लेख है, जिनकी ‘पंचाग्नि मीमांसा’ अत्यंत महत्वपूर्ण है।इस अध्याय में अन्य कई बातों के साथ उपनिषदोंं की ऋषि वंशगत परम्परा दी गई है।

11-कौषीतिकी उपनिषद;-

कुषीतक नामक ऋषि की शिष्य परम्परा में कौषीतकी उपनिषद की रचना हुई। इस उपनिषद का सम्बन्ध ऋग्वेद संहिता से है। उपनिषदों में कौषीतिकी उपनिषद को सबसे प्राचीन माना जाता है। इस उपनिषद में ब्रह्मतत्व का सांगोपांग अथार्त अंगों उपांगों सहित विवेचन किया गया है। यह उपनिषद भी बृहदाकार है।कौषीतकी उपनिषद चार अध्यायों में विभाजित है।पहले अध्याय में छान्दोग्योपनिषद् और बृहदारण्यकोपनिषद् के देवमार्ग तथा पितृमार्ग के वर्णनों का विस्तार है। इस अध्याय में चित्र गार्गायनि नाम के क्षत्रिय राजा ने विद्वान् उद्दालक आरुणि को परलोक की शिक्षा दी है।कौषीतकी उपनिषद का मूल तत्व इसके दूसरे और तीसरे अध्याय में है। दूसरे अध्याय में सर्वजित कौषीतकी, पैंग्य, प्रतर्दन और शुष्कभृंगार इन चार ऋषियों के सिद्धान्त संचित हैं।द्वितीय अध्याय में प्राणों की विविध उपासनाएँ, महाप्राण (ब्रह्म) की विवृति, पिता और पुत्र में स्नेह-सम्बन्ध आदि हैं।इसके अतिरिक्त इसमें उस समय की परम्परागत रूढ़ियों तथा सामाजिक रीतियों का वर्णन है।तीसरे अध्याय में प्रतर्दन इन्द्र से तत्वज्ञान ग्रहण करता है। इसमें इंद्र के पराक्रम का उल्लेख किया गया है। इसी अध्याय में इन्द्र ने काशीराज दिवोदास को प्राण और प्रज्ञा के सम्बन्ध में उपदेश दिया है।चतुर्थ अध्याय में काशीराज अजातशत्रु ने बालाकि को परब्रह्म का उपदेश दिया है।कौषीतकी उपनिषद में कहा गया है कि आत्मा संसार के समस्त भले-बुरे कार्यों का कारण है। समस्त पुरुष उसके हाथ में केवल निमित्त मात्र हैं।

12-श्वेताश्वतरोपनिषद्;-

श्वेताश्वतर उपनिषद का सम्बन्ध कृष्ण यजुर्वेद से है। इस उपनिषद में छः अध्याय हैं।इस उपनिषद की काव्यमय शैली उल्लेखनीय है।श्वेताश्वतरोपनिषद् के पहले अध्याय में आत्मवाद सहित सभी तत्कालीन दर्शन सिद्धान्तों की ‘त्रैमूर्त्यात्मक अद्वैत शैव मत’ के पक्ष में समीक्षा है। दूसरे अध्याय में योग का विशद् वर्णन है। जब एक योगी योगानल के माध्यम से ज्योतिर्मय शरीर को प्राप्त कर लेता है तो उसे जरा-मरण तथा व्याधि इत्यादि का भय नही रहता।तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में शैव और सांख्य दर्शन की मीमांसा है तथा पाँचवें अध्याय के दूसरे श्लोक में उल्लिखित ‘कपिल’ शब्द की व्युत्पत्ति है।अन्तिम छठा अध्याय इस उपनिषद का एकमात्र अंश है जो साम्प्रदायिकता की संकीर्ण परिधि के बाहर है। इसमें शुद्ध सगुण ईश्वर का निरूपण तथा गुरु भक्ति और ईश्वर भक्ति का आदेश है। कर्म और ज्ञान के तर्कसंगत समन्वय की बात कही गई है।

...SHIVOHAM...

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