काश्मीर शैव दर्शन PART-01
पंच कृत्य परमेश्वर की पारमेश्वरी लीला के पाँच अंग। वे हैं – सृष्टि, स्थिति, संहार, विधान (निग्रह) और अनुग्रह। इन्हीं कृत्यों की लीला को करते रहने से वह परमेश्वर है। ये कृत्य ही उसकी परमेश्वरता की अभिव्यक्ति के पाँच अंग हैं। मूलतः ये पाँचों कृत्य उसी के हैं। उसी की इच्छा के अनुसार इन कृत्यों को इस स्थूल जगत् में क्रम से ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव नामक पाँच कारण आगे आगे निभाते रहते हैं। पंच तत्त्व धारणा पाँच तत्त्वों को आलंबन बनाकर की जाने वाली आणवोपाय के तत्त्वाध्वा में एक विशेष धारणा। इसे पंचमी विद्या भी कहते हैं। इस धारणा में अकल तथा मंत्र महेश्वर नामक दो प्रमातृ तत्त्वों तथा इनकी दो शक्तियों को मिलाकर सभी चार तत्त्वों को धारणा का आलंबन बनाते हुए उन्हें मंत्रेश्वर के स्वरूप में देखते हुए और इन्हें उसी के शुद्ध रूप का विस्तार समझते हुए भावना द्वारा व्याप्त किया जाता है। इस अभ्यास से मंत्रेश्वर परिपूर्ण परम शिवरूप में ही अभिव्यक्त हो जाता है और उसकी ऐसी अभिव्यक्ति के अभ्यास से परिपूर्ण शिवभाव का आणव समावेश साधक को हो जाता है।
पंच मंत्र स्वच्छंदनाथ के ईशान, तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव तथा अघोर (यथास्थान देखिए) नामक पाँच मंत्रात्मक शरीरों को पंचमंत्र कहते हैं। (देखिएपंच वक्त्र)। स्वच्छंदनाथ के ये पाँच शरीर मंत्र अर्थात् विद्येश्वर स्तर के देवता होते हैं। उनके इन शरीरों में प्रकट होकर संसार का कल्याण करने के स्वभाव को ही उनके पाँच मुख अभिव्यक्त करते हैं। सभी शिव आगमों, रुद्र आगमों और भैरव आगमों का उपदेश इन्हीं पंचमंत्रों ने विविध रूपों में ठहर कर किया है। पंच वक्त्र परमेश्वर के पर स्वरूप को अभिव्यक्त करने वाली तथा संसार का त्राण करने वाली उसकी चित्, निर्वृत्ति (आनंद), इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया नामक पाँच अंतरंग शक्तियाँ ही उसके पाँच मुख कहे जाते हैं। (स्व.तं.उ. प 2, पृ. 54)। उसकी ये पाँच शक्तियाँ या मुख जब अभेदात्मक, भेदाभेदात्मक तथा भेदात्मक शैवशास्त्र का उपदेश करने के लिए क्रमशः ईशान, तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव तथा अघोर नामक पाँच मुख वाले स्वच्छंदनाथ के रूप में प्रकट हो जाती हैं तब स्वच्छंदनाथ के उस पाँच मुखों वाले शरीर को भी पंचवक्त्र कहते हैं। इन सशरीर पाँच रूपों को पंचमंत्र भी कहते हैं। (तं.आ.वि. 1-18)।
दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन
पंच शक्ति परमशिव की चित्, निर्वृत्ति (आनन्द), इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया (यथास्थान देखिए) नामक पाँच मूलभूत अंतरंग शक्तियाँ। इन्हीं पाँच शक्तियों से परमेश्वर अपनी परमेश्वरता को निभाता रहता है। ये शक्तियाँ उसका स्वभाव हैं। इन्हीं के बल से वह परमेश्वर है। परमशिव के इस पाँच शक्तियों की अभिव्यक्ति से युक्त रूप को पंच वक्त्र भी कहा जाता है। वायपुराण के श्लोक में शिव के सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादिबोध, स्वतन्त्रता, अलुप्तशक्तिता और अनन्तशक्तिता ये छः गुण गिनाये गये हैं। अद्वैत सिद्धान्त के अनुसार जीव शिव से अभिन्न हैं, किन्तु माया के कारण उसका स्वरूप संकुचित हो जाता है और इसके बाद कला, विद्या, राग, काल और नियति तत्त्वों के कारण क्रमशः उसकी सर्वकर्तृता, सर्वज्ञता, नित्यपरिपूर्णतृप्तिता, नित्यता और स्वतन्त्रता – ये पाँच शक्तियाँ संकुचित हो जाती हैं । अतः इन पाँचों तत्त्वों को पंचकंचुक कहा जाता है। माया का भी इसमें समावेश कर कुछ आचार्य कंचुकों की संख्या छः मानते हैं।
पंचकला विधि/धारणा आणवोपाय की कलाध्वा नामक धारणा में छत्तीस तत्त्वों को व्याप्त करने वाले पंच कला वर्ग को आलंबन बनाकर की जाने वाली साधना को पंचकला विधि या धारणा कहते हैं। इस धारणा में निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, शांता तथा शांत्यातीता नामक पाँच कलाओं को क्रम से धारणा का आलंबन बनाते हुए उन्हें अपने ही स्वरूप से भावना द्वारा व्याप्त करके अपने शिवभाव के समावेश में प्रवेश किया जाता है। एक एक कला को भावना द्वारा परिपूर्ण स्वात्म-रूपतया पुनः पुनः देखते रहने से भी कलाविधि का अभ्यास त्रिकयोग में किया जाता है। उससे भी साधक को आणव समावेश हो जाता है। पंचकृत्य शैव और शाक्त दर्शन में शिव को पंचकृत्यकारी बताया गया है। सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोधान, और अनुग्रह ये शिव के पाँच कार्य हैं। शिव की तिरोधान शक्ति के कारण जीव अपने परमार्थ स्वरूप को भूल बैठता है और उसका अनुग्रह होने पर, जिसको कि आगम की भाषा में शक्तिपात कहा जाता है, वह अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। शिव के इन दो व्यापारों की तुलना वेदान्त दर्शन के अध्यारोप और अपवाद शब्दों से की जा सकती है। आभासन, रक्ति, विमर्शन, बीजावस्थापन और विलापन नामक पंचकृत्यों का प्रतिपादन प्रत्यभिज्ञाहृदय में किया गया है। शक्तिपात दशा में परिच्छिन्न प्रमाता में भी इन कृत्यों की अभिव्यक्ति मानी गई है। इनके अतिरिक्त क्रम दर्शन में सृष्टि, स्थिति, संहार, अनाख्या और भासा नामक पंचकृत्य प्रतिपादित हैं। इनकी व्याख्या अलग से की है।
पंचदश तत्त्व धारणा (पाँच दशी विद्या) पृथ्वी तत्त्व को साधना का आलंबन बनाकर सातों प्रमातृ वर्गो और उनकी सात शक्तियों का उसी के भीतर भावना से देखने के अभ्यास को पंचदश तत्त्वधारणा या पाँचदशी विद्या कहते हैं। पृथ्वी के स्वरूप में ही शेष चौदह तत्त्वों को विलीन करने वाली यह आणवोपाय के तत्त्वाध्वा की एक विशेष धारणा है। इसमें अकल, मंत्रमहेश्वर, मंत्रेश्वर, मंत्र (विद्येश्वर), विज्ञानाकल, प्रलयाकल तथा सकल नामक सात प्रमाताओं को और उनकी सात शक्तियों को भी साधनाकाय आलंबन बनाया जाता है। इस अभ्यास की दृढ़ता पर साधक अपनी शिवता के आणव समावेश में प्रवेश करता है। पंचपर्वा विद्या विद्या के पाँच पर्व हैं – वैराग्य, सांख्य, योग, तप और केशव में भक्ति। वैराग्य के बिना विद्या का अंकुरण भी संभव नहीं है। सांख्यशास्त्र भी विद्या का स्थान है। योग साधना और तप भी विद्या के पर्व हैं। केशव में भक्ति तो विद्या का सर्वोत्तम साधन है ।
पंचम भगवान् शिव के ईशानमुख से पंचवक्त्र गणाधीश्वर का प्रादुर्भाव बताया जाता है। इस गणाधीश्वर के पाँचों मुखों से एक-एक महापुरुष प्रकट हुये। उनके नाम हैं- ‘मखारि’, ‘कालारि’, ‘पुरारि’, ‘स्मरारि’ और ‘वेदारि’। इन्हीं को ‘पंचम’ कहते हैं। इनमें प्रत्येक पंचम से बाहर-बारह उपपंचमों की उत्पत्ति बतायी जाती है।वीरशैव संप्रदाय में ‘पंचम’ नाम की एक जाति भी है। बताया जाता है कि इस जाति के सभी व्यक्ति उन मूल पंचमों और उपपंचमों के वंश में उत्पन्न हुये हैं। मूल पुरुष के नाम से ही इनकी जाति का नाम भी पंचम है। इनको व्यवहार में ‘पंचमशाली’ कहा जाता है। वीरशैव धर्म के जो प्रमुख पाँच आचार्य हैं, जिन्हें पंचाचार्य’ कहते हैं, वे यही इन पंचमों के गुरु होते हैं। पंचम जाति में उत्पन्न प्रत्येक व्यक्ति के गोत्र, सूत्र, प्रवर, शाखा आदि अपने-अपने गुरु के अनुसार होते हैं। इन पंचमों का वैवाहिक संबंध समान गोत्र वालों में न होकर अपने से भिन्न गोत्र-सूत्र वालों के साथ किया जाता है ।
पंचमंत्र शिव के पाँच स्वरूप।
पाशुपत शास्त्र में शिव के मुख्य पाँच स्वरूप माने गए हैं। वे हैं- सद्योजात, कामदेव, अघोर, तत्पुरुष तथा ईशान। (देखिए पा.सू. तथा ग.का.)। इस ‘मंत्र’ पद की व्याख्या पाशुपत शास्त्रों में भी नहीं मिलती है और सिद्धांत शैव शास्त्रों में भी नहीं। काश्मीर शैव शास्त्र के अनुसार भेदभूमिका पर उतरे हुए शिव के पाँच दिव्य रूपों को पञ्चमंत्र कहा जाता है। इन पाँच रूपों के समष्टि स्वरूप शिव को स्वच्छनाद कहते हैं, जो पंचमुख हैं और जिसके उन मुखों के नाम ईशान, तत्पुरुष आदि हैं। मंत्र शब्द का तात्पर्य है भेद भूमिका पर उतरा हुआ शुद्ध प्रमाता।दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन
पंचमावस्था पाशुपत साधक की एक उत्कृष्टतर अवस्था।
पाशुपत साधना की इस अवस्था में साधक साधना पूर्ण कर चुका होता है तथा उसका स्थूल शरीर शेष नहीं रहता है, अतः जीविका के लिए उसे किसी भी वृत्ति की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। यह साधना की अंतिम अवस्था पंचमावस्था कहलाती है। ऐसा भासर्वज्ञ का विचार है। यह तो मुक्त योगी की स्थिति होती है सांसारिक साधक की नहीं।पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य में भी योग की पाँचवी भूमिका का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। संसार में ही रहते हुए योगी की उसी दशा को पञ्चमावस्था माना जाए तो अधिक उपयुक्त होगा।
पंचवाह क्रम दर्शन में श्रीपीठ, पंचवाह, नेत्रत्रय, वृन्दचक्र, गुरुपंक्ति और पाँच शक्तियों की उपासना विहित है। अपने शरीर को ही यहाँ श्रीपीठ बताया गया है। इस शरीर में भी परमेश्वर पाँच प्रकार से स्फुरित होता है। परमेश्वर के स्फुरण की यह धारा ही वाह के नाम से अभिहित है। इनके नाम हैं – व्योमवामेश्वरी, खेचरी, दिक्चरी, गोचरी और भूचरी। कुछ आचार्य गोचरी, दिक्चरी और भूचरी अथवा भूचरी, द्क्चिरी और गोचरी के क्रम से इनकी स्थिति बताते हैं। ये ही पाँचों शक्तियाँ क्रमशः चित्, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया शक्ति के रूप में तथा परा, सूक्ष्मा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणी के रूप में अनुभूत होती है। सृष्टि प्रभृति जितने भी पाँच संख्या वाले पदार्थ हैं, उन सबका समन्वय इन्हीं से होता है। प्रणव की पाँच कला तथा अन्य भी ऊपर बताए गए व्योम (पाँच) संख्या वाले पदार्थों का वमन करने वाली शक्ति का नाम व्योमवामेश्वरी है। यह परमेश्वर की अविकल्प भूमि में अनुप्रविष्ट विच्छवित का ही विलास है (महार्थमंजरी, पृ. 83-87)।
क्षेमराज ने प्रत्यभिज्ञाहृदय (12 सू.) में इसका वामेश्वरी के नाम से वर्णन किया है। वहाँ अन्य चार शक्तियों का क्रम यह है – खेचरी, गोचरी, दिक्चरी और भूचरी। प्रत्यभिज्ञाहृदय में प्रदर्शित क्रम के अनुसार यहाँ क्रमशः इन पाँचों का वर्णन किया जा रहा है।
1. वामेश्वरी
संवित् क्रम में चितिस्वरूपा महाशक्ति वामेश्वरी नाम धारण कर खेचरी, गोचरी, दिक्चरी और भूचरी- इन चार स्वरूपों में परिस्फुरित होती है। अविभक्त दशा में प्रमाता, आन्तर प्रमाण और प्रमेय विभाग नहीं रहता। परन्तु स्फुरण की अवस्था में प्रमाता, आन्तर प्रमाण या अन्तःकरण, बहिःकरण या बाह्य इन्द्रियाँ और प्रमेय ये चार विभाग अलग-अलग प्रकाशित होते हैं। ये अपरिमित प्रमाता को परिच्छिन्न (परिसीमित) बना देते हैं। ये सब पशुओं को विमोहित करते हैं। परन्तु आत्मा जब शिवभूमि में प्रविष्ट होती है, तब ये शक्तियाँ शिवहृदय को विकसित करती हैं। उस समय में खेचरी आदि शक्तियाँ ही आत्मा के पूर्णकर्तृत्व आदि की प्रकाशक चिद्गगनचरी, अभेदविश्चय गोचरी, अभेदालोचनात्मक दिक्चरी तथा स्वांगकल्प अद्वयप्रथामय प्रमेयात्मक भूचरी के रूप में प्रकाशमान होती हैं।
वाम शब्द वम् धातु से संबद्ध है, जिसका अर्थ होता है- वमन करना, बाहर फेंकना। यह शक्ति वामेश्वरी इसलिये कहलाती है कि यह विश्व को परमशिव से बाहर फेंकती है। वाम शब्द का अर्थ बायाँ और विपरीत भी है। यह शक्ति वामेश्वरी इसलिए भी कहलाती है कि यद्यपि शिव में अभेद, अर्थात् पूर्णता की चेतना है, किन्तु संसार दशा में इस शक्ति के कारण उसमें भेद और अपूर्णता की भावना घर कर जाती है। इसके कारण प्रत्येक जीव शरीर, प्राण इत्यादि को ही अपना स्वरूप समझने लगता है।
वाम शब्द का अर्थ सुन्दर भी होता है। परब्रह्म का सौन्दर्य इसी बात में निहित है कि वह विश्व का वमन करता हुआ पारमेश्वरी लीला के चमत्कार को चमका देता है, अन्यथा वह शून्य गननवत् जड़ और इसीलिए भावात्मक सौन्दर्य से रहित होता है।
2. खेचरी
खेचरी शक्ति का संबन्ध प्रमाता से है। इसके कारण चेतन आत्मा अपरिमित प्रमाता से परिमित प्रमाता बन जाती है। ‘खे (आकाशे) चरतीति खेचरी’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ख शब्द का अर्थ आकाश है। खे सप्तमी विभक्ति है। इसका अर्थ है ‘आकाश में’। यहाँ ख या आकाश चित् का प्रतीक है। इस शक्ति का नाम खेचरी इसलिए है कि इसका क्षेत्र चिद्गगन है। चिद्गगन के पारमार्थिक स्वभाव को छिपा कर यह प्रमाता को परिमित प्रमाता बना देती है। वह अब पशु बन जाता है। माया से उद्भूत कला आदि पंचकंचुक समष्टि रूप से खेचरी चक्र के नाम से अभिहित होते हैं। इनका नाम आत्मा के स्वरूपभूत पाँच नित्य धर्मों को संकुचित करना है। सर्वकर्तृत्व, सर्वज्ञत्व, नित्यत्व, विभुत्व और आप्तकामत्व- ये पाँच आत्मा के स्वाभाविक धर्म हैं। शिव रूपी आत्मा चिदाकाश में संचरण में समर्थ होने पर भी पशु दशा में इस खेचरी चक्र से आक्रान्त होकर परिमित प्रमाता बन जाता है। उस समय वह अल्पकर्ता, अल्पक्ष, अनित्य, नियतदेशवृत्ति और भोग की आकांक्षा से लिप्त हो जाता है।
3. गोचरी
गोचरी का संबन्ध अन्तःकरण से है। इस चक्र से चेतन आत्मा अन्तःकरण से परिच्छिन्न हो जाता है। गौ शब्द गमन या चलन का द्योतक है। किरण, गौ, इन्द्रियाँ- ये सभी पदार्थ ‘गौ’ शब्द से अभिहित होते हैं, क्योंकि इस सब में गमन का भाव निहित है। अन्तःकरण इन्द्रियों का आश्रय है। वही इन्द्रियों को परिचालित करता है। इसलिये वह गोचरी शक्ति का क्षेत्र है। इसके कारण आत्मा का स्वभावसिद्ध अभेदनिश्चय, अभेदाभिमान तथा अभेद विकल्पमय पारमार्थिक स्वरूप तिरोहित हो जाता है। भेदनिश्चय, भेदाभिमान तथा भेदविकल्प प्रधान अन्तःकरण रूप देवियाँ ही गोचरी शक्ति के नाम से प्रसिद्ध हैं।
4. दिक्चरी
दिक्चरी का संबन्ध बहिःकरण (बाह्य इन्द्रिय) से है। दिक्चरी चक्र के द्वारा चेतन आत्मा बहिःकरणों से परिच्छिन्न हो जाता है। दिक्चरी वह शक्ति है, जो दिक् (दिशाओं) में चलती रहती हैं बहिःकरण या बाह्य इन्द्रियों का संबंध दिक् या देश से है। इसलिये दिक्चरी शक्ति का क्षेत्र बाह्य इन्द्रियाँ हैं। इस शक्ति के कारण पारमार्थिक अभेद प्रथा (अभेद ज्ञान) आच्छादित हो जाती है तथा भेदविचारमय भेद प्रथा का प्राकट्य हो जाता है। यह बाह्य कारण रूप दैवीचक्र ही दिक्चरी शक्ति के नाम से प्रसिद्ध है।
5. भूचरी
भूचरी शक्ति का संबन्ध भावों (पदार्थों) से है। इसके कारण चेतन आत्मा भावों (पदार्थों = प्रमेयों) में ही अटका रह जाता है। ‘भूचरी’ में विद्यमान ‘भू’ का अर्थ ‘होना’ है। जो कुछ हो गया है, वह ‘भू’ के अन्तर्गत है। अतः यह शक्ति सभी भाव, अर्थात् पदार्थ अथवा प्रमेयों (विषयों) का बोध कराती है। सभी पदार्थ या प्रमेय भूचरी के क्षेत्र में आते हैं। भूचरी शक्ति के कारण पारमार्थिक सर्वात्मकता आवृत हो जाती है और परिच्छिन्न आभासमय प्रमेयवर्ग प्रकाशित हो उठता है।
दर्शन : शाक्त दर्शन
पंचसूतक ;-
धर्मशास्त्रों में जनन, मरण, रज, उच्छिष्ठ तथा जाति से पाँच प्रकार के सूतक माने गये हैं, अर्थात् घर में किसी का जन्म या मृत्यु होने पर, घर की किसी स्त्री के रजस्वला होने पर सूतक की प्राप्ति होती है। अतः इस सूतक के समय उस घर में पूजा आदि वैदिक कर्मो का निषेध किया गया है। उसी प्रकार उच्छिष्ठ का ग्रहण तथा कुछ विशिष्ट जाति के लोगों के साथ संपर्क न करने का भी विधान है। किंतु वीरशैव आचार्य एवं संतों ने विशेष परिस्थितियों में उपर्युक्त सूतकों को स्वीकार नहीं किया है, जैसे कि इष्टलिंग का धारण तथा उसकी पूजा के लिये जनन, मरण और रज इन तीन प्रकार के सूतकों की प्रवृत्ति नहीं होती। इसी प्रकार पादोदक और प्रसाद के सेवन के प्रसंग में ‘उच्छिष्ठ-सूतक’ को भी नहीं माना जाता। इसका तात्पर्य यह है कि वीरशैव-धर्म में दीक्षा के समय गुरु अपने शिष्य को इष्टलिंग देता है और उसे आमरण शरीर पर धारण करने का आदेश करता है। यह दीक्षा स्त्री तथा पुरुषों के लिये समान रूप से होती है। दीक्षा-संपन्न स्त्री यदि रजस्वला अथवा प्रसूता होती है, तो उस समय उस स्त्री को इष्टलिंग की पूजा करने का अधिकार है या नहीं ? यह शंका होने पर वीरशैव आचार्ये ने इष्टलिंग धारण करने वाली स्त्री को इष्टलिंग की पूजा का अधिकार प्रदान किया है। जैसे पौण्डरीक आदि दीर्घकालीन सत्रों का संकल्प करके त्याग करते समय यजमान की पत्नी यदि रजस्वला हो जाती है, तो भी वह स्नान करके गीला वस्त्र पहनकर पुन: याग में सम्मिलित होती है, उसी प्रकार वीरशैव धर्म में दीक्षित स्त्री रजस्वला या प्रसूता होने पर भी उसी दिन स्नान एवं गुरु के चरणोदक का प्रोक्षण करके शुद्ध होकर अपने नित्यकर्म इष्टलिंग की पूजा करने के लिये अधिकारी होती है। इष्टलिंग की पूजा के अतिरिक्त पाक आदि अन्य कार्यों के लिए वीरशैव धर्म में भी सूतक माना जाता है। जैसे हस्तस्पर्श के अयोग्य होने पर भी जिह्वा मंत्रोच्चारण के लिये योग्य है, उसी प्रकार रजस्वला या प्रसूता स्त्री पाक आदि अन्य लौकिक कर्म करने के लिये अयोग्य और अपवित्र होने पर भी इष्टलिंग के धारण एवं उसकी पूजा के लिये वह अग्नि, रवि तथा वायु के समान सदा पवित्र रहती है। घर में किसी की मृत्यु होती है, तो उस घर के लोग भी शव संस्कार के बाद स्नान एवं गुरु के चरणोदक के प्रोक्षण से घर को शुद्ध करके अपने अपने इष्टलिंग पूजा रूप नित्यकर्म को बिना किसी बाधा के यथावत् अवश्य पूरा करते हैं। अतः वीरशैवों को इष्टलिंग की पूजा में मरणसूतक भी नहीं लगता ।
वीरशैव संप्रदाय में प्रतिदिन गुरु या जंगम की पादपूजा करके एक पात्र में पादोदक (चरणमृत) तैयार किया जाता है और उस पादपूजा में सम्मिलित सभी शिवभक्त उसी एक पात्र में से पादोदक का सेवन करते हैं। यहाँ प्रथम व्यक्ति के ग्रहण करने के बाद वह पादोदक उच्छिष्ठ हो जाता है, तो दूसरा उसका ग्रहण करें या नहीं ? यह शंका होती है। वीरशैव आचार्यो ने इस प्रसंग में भी उच्छिष्ठ सूतक को नहीं माना है। जैसे सोमयाग में हविःशेषभूत सोमरस को चमस नामक पात्र में संग्रह करके यज्ञशाला के सभी ऋत्विज उस चमस पात्र से सोमरस का सेवन करते हैं, तो भी वहाँ उच्छिष्ठ-सूतक नहीं माना जाता, उसी प्रकार वीरशैव धर्म में भी एक पात्र से अनेक लोगों के द्वारा पादोदक स्वीकार करने पर भी उच्छिष्ठ-सूतक नहीं होता। गुरु या जंगम के भोजन से अवशिष्ट अन्न को प्रसाद कहते हैं। इस प्रसाद के स्वीकार करने में भी उच्छिष्ठ सूतक नहीं है ।
बारहवीं शताब्दी के वीरशैव संतों ने जाति-सूतक का भी निषेध किया है। उन्होंने शिवदीक्षा-संपन्न व्यक्ति किसी भी जाति का हो, उनके साथ समता का व्यवहार करने को कहा है- इस प्रकार धर्मशास्त्र-सम्मत पाँच प्रकार के सूतकों को वीरशैव धर्म में सीमित रूप में ही मान्यता दी गयी है। तब भी लोकव्यवहार में इनका पालन आवश्यक है।दर्शन : वीरशैव दर्शन
पंचसूत्रलिंग;-
पंचसूत्र’ स्थूल लिंग के निर्माण की एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से निर्मित सामान्य शिला या स्फटिक के लिंग को ‘पंचसूत्र लिंग’ कहा जाता है। उसका विधान यह है- सामान्यत: लिंग में ‘बाण’, ‘पीठ’ और ‘गोमुख’ ये तीन भाग होते हैं। ऊपर के गोलाकार को ‘बाण’, उस बाण के आश्रयभूत नीचे के भाग को ‘पीठ’ और जलहरी को ‘गोमुख’ कहा जाता है। शिलामय लिंग का निर्माण करते समय पहले ‘बाण’ तैयार करके उस बाण के वर्तुल परिमाण सदृश पीठ की लंबाई और पीठ के ऊपर की तथा नीचे की चौड़ाई होनी चाहिये। बाण के वर्तुल के आधे माप का गोमुख तैयार करना चाहिये। इस प्रकार बाण का वर्तुल, पीठ की लंबाई, पीठ के नीचे की चौड़ाई इन चारों का माप समान होना चाहिये और गोमुख का माप मात्र बाण के वर्तुल का आधा रहना चाहिये। यही ‘पंचसूत्र’ प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से निर्मित लिंग को ही ‘पंचसूत्र लिंग’ कहा जाता है।इस परिणाम में न्यनाधिक्य होने पर, अर्थात् यदि बाण अधिक परिमाण का हो तो, उस लिंग की पूजा से अपमृत्यु और पीठ का परिमाण अधिक होने पर धन का क्षय बताया गया है। बाण और पीठ का परिमाण समान होने पर ही उस लिंग से भोग तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है
इस प्रकार से निर्मित ‘पंचसूत्रलिंग’ ही वीरशैवों को क्रियादीक्षा के समय संस्कार करके आचार्य के द्वारा दिया जाता है।
वीरशैव संप्रदाय में गुरु अपने शिष्य को क्रियादीक्षा के द्वारा ‘इष्टलिंग’ प्रदान करता है, मंत्रदीक्षा के द्वारा ‘प्राणलिंग’ के स्वरूप को समझाता है और वेध-दीक्षा के माध्यम से ‘भावलिंग’ का बोध कराता है। इस प्रकार त्रिविध दीक्षा से प्राप्त इष्ट, प्राण तथा भावलिंग की गुरु के उपदेश के अनुसार क्रमशः शरीर से अर्चन, मन से चिंतन और भावना से निदिध्यासन करना ही लिंगाचार कहलाता है। इस संप्रदाय में दीक्षा-संपन्न जीव को अपने इष्ट, प्राण तथा भावलिंग के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओ की अर्चना आदि का निषेध हैं। यह निषेध उनके प्रति घृणा की भावना से नहीं, किंतु इष्टलिंग आदि में निष्ठा बढ़ाने के लिये है। अतः गुरुदीक्षा से प्राप्त उन लिंगों को ही अपना आराध्य समझ कर उन्हीं की अर्चना आदि में तत्पर रहना लिंगाचार है। इस लिंगाचार के निष्ठापूर्वक पालन करने से अंग (जीव) लिंग स्वरूप हो जाता है
पंचाचार ;-
05 FACTS;-
1- लिंगाचार अंग (जीव) को लिंगस्वरूप की प्राप्ति के लिये बताये गये आचार को ‘लिंगाचार’ कहते हैं, अर्थात् जिस आचार के पालन से अंग लिंगस्वरूप हो जाता है, वही ‘लिंगाचार’ है। शरीर, मन तथा भावना से क्रमशः लिंग की पूजा, लिंग का चिंतन एवं लिंग का निदिध्यासन करना ही लिंगाचार का स्वरूप है।
वीरशैव संप्रदाय में गुरु अपने शिष्य को क्रियादीक्षा के द्वारा ‘इष्टलिंग’ प्रदान करता है, मंत्रदीक्षा के द्वारा ‘प्राणलिंग’ के स्वरूप को समझाता है और वेध-दीक्षा के माध्यम से ‘भावलिंग’ का बोध कराता है। इस प्रकार त्रिविध दीक्षा से प्राप्त इष्ट, प्राण तथा भावलिंग की गुरु के उपदेश के अनुसार क्रमशः शरीर से अर्चन, मन से चिंतन और भावना से निदिध्यासन करना ही लिंगाचार कहलाता है। इस संप्रदाय में दीक्षा-संपन्न जीव को अपने इष्ट, प्राण तथा भावलिंग के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओ की अर्चना आदि का निषेध हैं। यह निषेध उनके प्रति घृणा की भावना से नहीं, किंतु इष्टलिंग आदि में निष्ठा बढ़ाने के लिये है। अतः गुरुदीक्षा से प्राप्त उन लिंगों को ही अपना आराध्य समझ कर उन्हीं की अर्चना आदि में तत्पर रहना लिंगाचार है। इस लिंगाचार के निष्ठापूर्वक पालन करने से अंग (जीव) लिंग स्वरूप हो जाता है। दर्शन : वीरशैव दर्शन
2- सदाचार जिस आचरण से सज्जन तथा शिवभक्त संतुष्ट होते हैं और जिससे अंतरंग तथा बहिरंग की शुद्धि होती है, उसे सदाचार कहते हैं। सदाचार में धर्ममूलक अर्थार्जन और उस धन का यथाशक्ति गुरु, लिंग और जंगम के आतिथ्य में विनियोग करना, सदा शिवभक्तों के साथ रहना आदि विशुद्ध आचारों का समावेश किया गया है ।सदाचार में आठ प्रकार के ‘शीलों’ का भी समावेश किया गया है। वीरशैव संप्रदाय में शिव-ज्ञान की इच्छा की उत्पत्ति में कारणीभूत नैतिक आचरणों को ‘शील’ कहते हैं। वे हैं- अंकुरशील, उत्पन्नशील, द्विदलशील, प्रवृद्धशील, सप्रकांडशील, सशाखाशील, सपुष्पशील और सफलशील। इन्हीं को ‘अष्टशील’ कहते हैं। इनके लक्षण इस प्रकार हैं –
1. अंकुरशील
गुरु-कृपा प्राप्त करके उनसे दीक्षा लेकर अपने शरीर को शुद्ध कर लेना तथा इष्टलिंग की पूजा आदि करना ही ‘अंकुरशील’ कहलाता है। शील की प्रथम अवस्था होने से इसे ‘अंकुरशील’ कहा गया है।
2. उत्पन्नशील
जब साधक स्वयं दीक्षित होकर पूजा आदि में प्रवृत्त हो जाता है और उसी प्रकार अपने पुत्र आदि परिवार के लोगों को भी प्रवृत्त कराता है तब उसे ‘उत्पन्नशील’ कहते हैं।
3. द्विदलशील
भस्म, रुद्राक्ष आदि को, जो कि शिव के अलंकार कहे जाते है, सदा शरीर पर धारण करना ही ‘द्विदलशील’ है।
4. प्रवृद्धशील
शिव के माहात्म्य को सुनकर उसका मनन करना ही ‘प्रवृद्धशील’ कहलाता है। साधक की भक्ति की वृद्धि में यह कारण होता है।
5. सप्रकांडशील
अपने इष्टलिंग की पूजा किये बिना अन्न, जल आदि का सेवन न करना ही ‘सप्रकांडशील’ कहा जाता है।
6. सशाखाशील
इष्टलिंग के अनिवेदित पदार्थो का सेवन नन करना ही ‘सशाखाशील’ है।
7. सपुष्पशील
शिव को समर्पित वस्तुओं को, जिन्हें प्रसाद कहते हैं, न त्यागना, अर्थात् शिवप्रसाद की अवज्ञा न करना ही सपुष्पशील है।
8. सफलशील
गुरु, लिंग और जंगम में, जो वीरशैव धर्म में पूजनीय है, भेद-बुद्धि को त्यागकर, उनको शिवस्वरूप समझकर उनकी आराधना करना ही ‘सफलशील’ कहलाता है।
इस प्रकार इन आठ ‘शील’ नामक अंगों से युक्त यह आचार ही ‘सदाचार’ है ।
3-शिवाचार सृष्टि, स्थिति, संहार आदि पंचकृत्यों को करनेवाले शिव को ही अपना अनन्य रक्षक मानना ‘शिवाचार’ कहलाता है । शिवाचार में द्रव्य, क्षेत्र, गृह, भांड, तृण, काष्ठ, वीटिका, पाक, रस, भव, भूत, भाव, मार्ग, काल, वाक् और जन इन सोलह पदार्थो को शिवशास्त्रोक्त विधि से शुद्ध कर लेने का विधान है।इन सोलह पदार्थो की शुद्धि के लक्षण शास्त्रों में इस प्रकार वर्णित हैं- शिवभक्त के हाथ से प्राप्त फल, मूल आदि का ग्रहण करना और अभक्त के हाथ से प्राप्त होने पर उसे भस्म-प्रेक्षण विधि से शुद्ध कर लेना द्रव्यशुद्धि है। अपने खेत के चारों कोनों में नंदि-अंकित एक-एक शिला की स्थापना करना क्षेत्रशुद्धि है। घर के महाद्वार पर शिवलिंग को उत्कीर्ण कराना गृहशुद्धि है। उसी प्रकार अपने उपयोग के बर्तनों पर भी शिवलिंग को उत्कीर्ण कराना ‘भांड-शुद्धि’ कहलाती है। गाय, बैल आदि को खिलाए जाने वाले घास को भस्म-प्रेक्षण से शुद्ध कर लेना ‘तृण-शुद्धि’ है और इसी प्रकार जलाने की लकड़ियों को भी भस्म-प्रेक्षण से शुद्ध कर लेना ‘काष्ठ-शुद्धि’ है। केवल शिवभक्त के हाथ से ताम्बूल ग्रहण करना ‘वीटिका-शुद्धि’ कहलाता है। शिवदीक्षा-संपन्न व्यक्ति के बनाये भोजन को ग्रहण करना ‘पाक-शुद्धि’ है। केवल गोरस का सेवन करना ‘रसशुद्धि’ है। पुनर्जन्म के कारणीभूत काम्यकर्मो को त्यागकर निष्काम कर्म करना ही ‘भवशुद्धि’ है। सभी प्राणियों में दया रखना ‘भूतशुद्धि’ है। सभी कामनाओं को त्यागकर मन में सदा शिव का ही चिंतन करना ‘भावसुद्धि’ है। मार्ग में किसी प्राणी की हिंसा किये बिना सावधानी से चलना ‘मार्गशुद्धि’ है। शास्त्रोक्त ब्रह्म मुहूर्त में शिवलिंग की पूजा करना ‘कालशुद्धि’ हे। मुख से अनृत, पुरुष, बीभत्स तथा दांभिक वचनों का प्रयोग न करना ‘वाकशुद्धि’ है। सदा सज्जनों के सहवास में रहना ‘जनशुद्धि’ है। इस प्रकार अपने दैनिक जीवन में उपर्युक्त सोलह प्रकार की शुद्धियों को अपने आचरण में लाना ही ‘शिवाचार’ है।
4-गणाचार इस आचार में कायिक, वाचिक तथा मानस 64 प्रकार के शीलों का अर्थात् उत्तम आचरणों का समावेश किया गया है। उनमें प्रमुख हैं- शिव या शिवभक्तों की निंदा न सुनना, यदि कोई निंदा करता है, तो उसको दंडित करना; दंडित करने की सामर्थ्य न रहने पर उस स्थान को त्याग देना; इंद्रियों से शास्त्र-निषिद्ध विषयों का सेवन न करना; मन से निषिद्ध भोग का संकल्प भी न करना; किसी पर क्रोधित न होना; धन आदि का लोभ त्याग देना; संपत्ति आने पर भी मदोन्मत्त न होना; शत्रु और अपने पुत्र में विषमता को त्यागकर समता भाव रखना; निगमागम-वाक्यों में श्रद्धा रखना; काया, वाचा, मनसा कदापि प्रमाद नहीं करना; अनुपलब्ध वस्तुओं का व्यसन छोड़कर प्राप्त वस्तुओं से ही संतुष्ट रहना; पंचाक्षरी मंत्र का सदा मन में जप करना, ‘सोടहं’ भाव से शिव का चिंतन करना, विश्व के समस्त प्राणियों को शिव के ही अनंत रूप समझना। इस प्रकार के 64 शीलों (आचरणों) का समष्टि-स्वरूप ही ‘गणाचार’ कहलाता है। इस गणाचार के पालन से साधक के त्रिकरण (शरीर, मन, वाणी) परिशुद्ध हो जाते हैं- और उसे शिव सायुज्य की प्राप्ति हो जाती है।
5-भृत्याचार शिव-भक्त ही इस पृथ्वी में श्रेष्ठ हैं और मैं उनका भृत्य अर्थात् दास हूँ, ऐसा समझकर उनके साथ विनम्रता से व्यवहार करना ही ‘भृत्याचार’ कहलाता है (चं. शा. आ. क्रियापद 9/9)। ‘भृत्यभाव’ और ‘वीरभृत्य भाव’ के भेद से यह भृत्याचार दो प्रकार का है। अपने को गुरु, लिंग तथा जंगम का सेवक समझकर श्रद्धा से निरंतर उनकी सेवा में तत्पर रहने की भावना को ‘भृत्य-भाव’ कहते हैं। जिस भाव से युक्त साधक गुरु को तन, अपने इष्टलिंग को मन तथा जंगम को अपना सर्वस्व अत्यंत आनंद से समर्पित कर देता और उसके प्रतिफल पारलौकिक सुख से निःस्पृह होकर केवल मोक्ष की अभिलाषा रखता है, उसे ‘वीरभृत्य-भाव’ कहते हैं। इस वीरभृत्यभाव के साधक को ‘वीरभृत्य’ कहा जाता है। यही शिवानुग्रह को प्राप्त करता है।
पंचाचार्य किनको कहते हैं?-
पंचाचार्य वीरशैव धर्म के संस्थापक पाँच आचार्यो को ‘पंचाचार्य’ कहते हैं। ये पंचाचार्य ही वीरशैवों के गोत्र प्रवर्तक हैं। आगमों की मान्यता है कि इन पंचाचार्यों ने प्रत्येक युग में शिव के सद्योजात, वामदेव, अद्योर, तत्पुरुष और ईशान मुखों से प्रकट होकर वीरशैव धर्म की स्थापना की है। प्रत्येक युग में इनके नाम भिन्न-भिन्न होते हैं। कृतयुग में इनके नाम इस प्रकार थे- एकाक्षर-शिवाचार्य तथा द्वयक्षर शिवाचार्य, त्र्यक्षरशिवाचार्य, चतुरक्षर-शिवाचार्य तथा पंचाक्षर-शिवाचार्य (सु.पं.पं. प्र. पृष्ठ 2)।
त्रेतायुग में- एकवक्त्र शिवाचार्य, द्विवक्त्र शिवाचार्य, त्रिवक्त्र शिवाचार्य, चतुर्वक्त्र शिवाचार्य और पंचवक्त्र शिवाचार्य ।
द्वापरयुग में- रेणुक शिवाचार्य, दारुक शिवाचार्य, घंटाकर्ण शिवाचार्य, धेनुकर्ण शिवाचार्य एवं विश्वकर्ण शिवाचार्य ।
कलियुग में- रेवणाराध्य, मरुलाराध्य, एकोरामाराध्य, पंडिताराध्य और विश्वाराध्य । कलियुग के इन पंचाचार्यों का आविर्भाव पाँच शिवलिंगों से माना जाता है।
पंचाचार्य का विवरण ;-
05 FACTS;-
उन सबका विवरण इस प्रकार है-
1-रेवणाराध्य रेवणाराध्य ने कोनलुपाक (आंध्र) क्षेत्र के सोमेश्वरलिंग से प्रादुर्भूत होकर धर्मप्रचार के लिये बालेहोन्नूर (कर्नाटक) में एक मठ की स्थापना की, जो कि ‘रंभापुरी पीठ’ के नाम से प्रसिद्ध है। ये ही ‘वीरगोत्र’ ‘पंडिविडिसूत्र’ के प्रवर्तक हैं। इनकी शाखा को ‘रेणुका शाखा’ कहते हैं और इनका सिंहासन ‘वीर सिंहासन’ कहलाता है ।
2-मरुलाराध्य अवंतिकापुरी (मध्यप्रदेश) के वटक्षेत्र के सिद्धेश्वरलिंग से, अर्थात् भगवान् के वामदेव मुख से, मरुलाराध्य जी प्रकट हुये। कहते हैं कि वे अवंती के राजा से अनबन हो जाने के कारण बल्लारी जिले (कर्नाटक) के एक गाँव में जाकर बस गये। इनके बसने के कारण उस गाँव का नाम भी उज्जयिनी पड़ गया। यहाँ पर एक मठ की स्थापना हुई, जिसे उज्जयिनी पीठ कहते हैं। इस पीठ के आचार्य मरुलाराध्य जी वृष्टि सूत्र और नंदिगोत्र के प्रवर्तक हैं। इनकी शाखा को ‘दारुक शाखा’ कहते हैं और इनका सिंहासन ‘सद्धर्म सिंहासन’ के नाम से प्रसिद्ध है। उज्जैन (मध्य प्रदेश) में भी इनका एक शाखा मठ बहुत दिन तक अस्तित्व में रहा ।
3-एकोरामाराध्य द्राक्षाराम क्षेत्र के रामनाथ लिंग से, अर्थात् भगवान् के अघोर मुख से, एकोरामाराध्य जी प्रकट हुये और उन्होंने उत्तराखंड के श्री केदारेश्वर के पास ओखीमठ (उ.प्र.) में एक पीठ की स्थापना की। इसे ‘केदारपीठ’ कहते हैं। इस पीठ के मूल आचार्य एकोरामाराध्य ‘भृङ्गिगोत्र’ और ‘लंबनसूत्र’ के प्रवर्तक हैं। इनकी शाखा का नाम घंटाकर्ण (शंकुकर्ण) है। इनके सिंहासन को ‘वैराग्य सिंहासन’ कहते हैं। यह केदारपीठ भी अत्यंत प्राचीन है। इसकी प्राचीनता का प्रमाण एक ताम्र शासन है, जो उसी पीठ में मौजूद है। हिमवत् केदार में महाराजा जनमेजय के राज्यकाल में स्वामी आनंदलिंग जंगम वहाँ के मठ के जगदगुरु थे। उन्हीं के नाम जनमेजय ने मंदाकिनी, क्षीरगंगा, सरस्वती आदि नदियों के संगम के बीच जितना क्षेत्र है, जिसे ‘केदारक्षेत्र’ कहते हैं, इसका दान इस उद्देश्य से किया कि ओखीमठ के आचार्य गोस्वामी आनंदलिंग जंगम के शिष्य श्री केदार क्षेत्र वासी श्री ज्ञानलिंग जंगम इसकी आय से भवान् केदारेश्वर की पूजा-अर्चा किया करें। उन्होंने सूर्यग्रहण के अवसर पर श्री केदारेश्वर को साक्षी करके अपने माता-पिता की शिवलोक-प्राप्ति के लिये उन्हें इस क्षेत्र के पूरे अधिकार समेत दान दिया। यह दान महाराज जनमेजय ने मार्गशीर्ष अमावस्या सोमवार को युधिष्ठिर के राज्यारोहण के नवासी बरस बीतने पर प्लवंगनाम संवत्सर में किया। अतः केदारेश्वर का यह मठ पाँच हजार बरसों से अधिक पुराना है। टेहरी नरेश इस पीठ के शिष्य हैं। इस पीठ के जगद्गुरु को ‘रावल’ उपाधि से संबोधित किया जाता है। टेहरी नरेश इनके पट्टाधिकार के समय तिलकोत्सव समारंभ में उनको यह ‘रावल’ उपाधि देते हैं ।
4-पंडिताराध्य श्रीशैलम् (आंध्र) के मल्लिकार्जुन लिंग से, अर्थात् भगवान् के तत्पुरुष मुख से, पंडिताराध्य प्रकट हुये और श्रीशैलम् में ही उन्होंने एक पीठ की स्थापना की। इस पीठ को श्रीशैलपीठ कहते हैं। यह पंडिताराध्य ‘वृषभगोत्र’ तथा ‘मुक्तागुच्छ’ सूत्र के प्रवर्तक हैं। इनकी शाखा को ‘धेनुकर्णशाखा’ कहते हैं और इनका सिंहासन ‘सूर्य सिंहासन’ नाम से प्रसिद्ध है ।
दर्शन : वीरशैव दर्शन
5-विश्वाराध्य श्री काशीक्षेत्र (उत्तर प्रदेश) के विश्वनाथ से, अर्थात् भगवान् के ईशानमुख से, जगद्गुरु विश्वाराध्य जी प्रकट हुये और उन्होंने काशी में ही एक पीठ की स्थापना की, जिसे ‘ज्ञानपीठ’ कहते हैं। वह आजकल ‘जंगम वाड़ीमठ’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह विश्वाराध्य ‘स्कंदगोत्र’ और ‘पंचवर्णसूत्र’ के प्रवर्तक माने जाते हैं। इनकी शाखा को ‘विश्वकण ‘शाखा’ कहते हैं। इनका सिंहासन ‘ज्ञानसिंहासन’ के नाम से प्रसिद्ध है । काशी का यह जंगमवाड़ी मठ भी अत्यंत प्राचीन है। इस मठ के ‘मल्लिकार्जुनजंगम’ नामक जगद्गुरु के समय में उस समय के काशी के राजा जयनंददेव ने विक्रम संवत् 631 में प्रबोधिनी एकादशी को भूमि दान किया था। इस तरह यह ताम्र शासन चौदह सौ तीन वर्ष प्राचीन है। हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ तथा औरंगजेब आदि मुगल राजओं के दानपत्र भी इस मठ में मौजूद हैं।नेपाल देश में ‘भक्तपुर’ में भी इसका एक शाखा-मठ है। वहाँ भी वह जंगमवाड़ी मठ के नाम से ही प्रसिद्ध है। उस मठ के लिये भी विक्रम संवत 692 ज्येष्ठ सुदी अष्टमी के दिन नेपाल के राजा विश्वमल्ल ने श्री मल्लिकार्जुन यति को भूमिदान किया था। शिला पर उत्कीर्ण वह दानपत्र उसी मठ में आज भी उपलब्ध है ।
NOTE;-
भगवान् अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग और सोमयाग, यह पाँच यज्ञ स्वरूप हैं। “यज्ञो वै विष्णुः” यह वचन इसी का समर्थक है ाजिक कार्य इन्हीं महाचार्यो की साक्षी में संपन्न किये जाते हैं। कर्नाटक, आंध्र तथा महाराष्ट्र में प्रायः प्रत्येक गाँव में एक एक मठ है, जो इन पंचाचार्यो में से किसी एक की शाखा से संबंध रखता है। उन शाखा मठों के अधिकारियों को ‘आचार्य’ या ‘पट्टाधिकारी’ कहते हैं।
पंचात्मक भगवान् ;-
भगवान् अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग और सोमयाग, यह पाँच यज्ञ स्वरूप हैं। “यज्ञो वै विष्णुः” यह वचन इसी का समर्थक है।
पंचार्थ पाँच कोटियों वाला, पाँच वर्गों वाला।
पाशुपत सूत्र के व्याख्याता कौडिन्य (राशीकार) ने पाशुपत दर्शन को पाँच वर्गों या कोटियों में विभाजित किया है। ये पाँच वर्ग हैं- कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखान्त। इन्हीं पाँच कोटियों को पंचार्थ कहते हैं तथा पाशुपतसूत्र कौडिन्य भाष्य को पंचार्थ भाष्य के नाम से भी अभिहित किया जाता है।इस भाष्य में पाशुपत दर्शन के इन पाँच प्रतिपाद्य विषयों का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है।
पति स्वामी। शिव;-
पाशुपत दर्शन में इस जगत के सृष्टिकर्ता व स्थितिकर्ता को पति कहा गया है। जो पशुओं अर्थात् समस्त जीवों (अर्थात् उनके सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों) की सृष्टि करता है तथा उनकी रक्षा करता है, वह पति कहलाता है। पति विभु है, वह अपरिमित ज्ञानशक्ति व क्रियाशक्ति से संपन्न है। अपनी इस अपरिमित तथा व्यापक शक्ति से पति इस जगत का सृष्टि व स्थिति कारण बनता है। पति की ही शक्ति से समस्त पशुओं (जीवों) का इष्ट, अनिष्ट, शरीर, स्थान आदि निर्धारित होते हैं। अर्थात् पति ही समस्त विश्व का एकमात्र संचालक है। पशु अथवा जीव के समस्त कार्यों पर स्वामित्व ही पति (ईश्वर) का पतित्व होता है।
पति प्रमाता;-
समस्त प्रपंच को अभेद दृष्टि से देखने वाला प्रमाता। पूर्ण अभेद एवं भेदाभेद दृष्टिकोण वाले दोनों प्रकार के प्रमाता। इनमें से कोई प्रमेय तत्त्व को आत्मरूपतया ही देखते हुए केवल ‘अहं’ इसी का सतत विमर्श करते हैं और कोई उसे स्वशरीर तुल्य समझते हुए ‘अहमिदम्’ या ‘इदमहम्’ इस प्रकार का विमर्श करते हैं। दोनों प्रकार के शुद्ध प्राणी पति कोटि में गिने जाते हैं। इस प्रकार शिवतत्त्व से लेकर शुद्ध विद्या तत्त्व तक के अकल, मंत्रमहेश्वर और मंत्रेश्वर इन सभी प्राणियों को पति प्रमाता कहा जाता है। ये समस्त विश्व को अपने ही शुद्ध संवित् रूप में देखते हैं तथा इन्हें अपनी ही ज्ञान, क्रिया नामक शक्तियों का प्रसार मानते हैं।
पर तत्त्व ;-
छत्तीस तत्त्वों से उत्तीर्ण तथा इन सभी का परिपूर्ण सामरस्यात्मक अनुत्तर तत्त्व। (देखिएपरम शिव)। इसे सैंतीसवें तत्त्व के रूप में माना गया है। छत्तीस तत्त्वों का उदय इसी में से होता है और उनका लय भी इसी के भीतर होता है। वह इसी की स्वभावभूत इच्छा के बल से उसी के अनुसार होता है। इसी को परिपूर्ण परमेश्वर कहा जाता है। परचित्तज्ञान;-
योगसूत्र (3/19) कहता है कि प्रत्यय में संयम करने पर परचित्त की ज्ञान रूप सिद्धि होती है। योगी की अपनी चित्तवृत्ति प्रत्यय है, अर्थात् योगी अपने चित्त को शून्यवत् करके परचित्तगत भाव को जान सकते हैं (यह प्रक्रिया गुरुमुखगम्य है)। कोई-कोई कहते हैं कि प्रत्यय का अर्थ परचित्त ही है, अर्थात् पर के प्रत्यय में संयम करने पर परचित्त का ज्ञान होता है। पर का चित्त किस स्थिति में है (अनुरक्त है, या विद्विष्ट है या भीत है, इस प्रकार) – यह ज्ञान पहले उदित होता है। परचित्त का आलम्बन क्या है – इसको जानने के लिए पृथक् संयम करना पड़ता है।
परंपरा मोक्ष ;-
कर्म से सिद्ध होने वाला मोक्ष परंपरा मोक्ष है, क्योंकि कर्म से साक्षात् मोक्ष नहीं होता है। कर्म का विधान करने वाली श्रुतियाँ भी परंपरा मोक्ष को ही कर्म का फल निश्चित करती हैं। साक्षात् मोक्ष तो ज्ञान और भक्ति से ही होता है ।
परब्रह्म ;-
बृहत् होने के कारण असीम तथा बृहंक होने के कारण संपूर्ण विश्व को विकास में लाने वाला तथा व्याप्त करने वाला पर तत्त्व। सूक्ष्म रूप से सब कुछ को व्याप्त करते हुए अनंत चित्र विचित्र रूपों में स्वयं चमकने वाला परमेश्वर। भैरव। देखिए भैरव। परब्रह्म शुद्ध चिन्मय है। परंतु उसके भीतर समस्त विश्व की सृष्टि करने वाला वीर्य सदा विद्यमान रहता है। उस वीर्य की उच्छलन क्रिया से वह विभोर होकर रहता है। उसकी उसी क्रिया से शिव से पृथ्वी तक के तत्त्वों के उदय और लय हुआ करते हैं। अतः वह आकाश की तरह सर्वथा शांत न होकर चिच्चमत्कार से भरा रहता है। उसी से वह विश्व का बृंहण या विकास करता है और यही उसकी ब्रह्मता है। परम-अद्वैत ;-
पराद्वैत। महाद्वैत। परमाद्वय। वह दृष्टि, जिसमें किसी भी प्रकार का द्वैत शेष रह ही नहीं सकता। इसके अनुसार द्वैत, द्वैताद्वैत, अद्वैत, बंधन, मुक्ति, जड़, चेतन आदि प्रत्येक प्रकार की भेदमय अवस्थाएँ एकमात्र परिपूर्ण शुद्ध संवित् रूप में ही चमकती हैं। भेद केवल कल्पना मात्र है। परम शिव ही परिपूर्ण शुद्ध संवित् स्वरूप है। उसी के स्वातंत्र्य से एवं उसके अपने ही आनंद की लीला से उसी में सभी कुछ उसी के रूप में चमकता है। शिवदृष्टि के अनुसार सभी कुछ शिवमय है। एक जड़ पदार्थ एवं परमशिव में स्वभावतः कोई भेद नहीं है। जो कुछ भी जिस भी रूप में है वह सभी शिवमय ही है। एक जड़ पदार्थ भी उतना ही परिपूर्ण परमेश्वर है जितना स्वयं परमशिव है। सब कुछ पूर्ण परमेश्वर ही है। उससे भिन्न या अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ऐसा सिद्धांत ही पराद्वैत या परम-अद्वैत है। परमशिव अनुत्तर संवित्। प्रकाश और विमर्श का परम सामरस्यात्मक परतत्त्व। वह सैंतीसवां तत्त्व, जिसमें शिव से लेकर पृथ्वी पर्यंत सभी छत्तीस तत्त्वों का उसी की स्वेच्छा से समय समय पर लय और उदय होता रहता है तथा ऐसा होने पर भी जो सर्वथा एवं सर्वंदा शुद्ध, असीम तथा परिपूर्ण ही बना रहता है। परशिव। परमेश्वर। प्रकाशात्मक ज्ञानस्वरूपता तथा विमर्शात्मक क्रियास्वरूपता का परिपूर्ण सामरस्य। परमाणु सांख्ययोगग्रन्थों में कदाचित् परमाणु और अणु शब्द प्रयुक्त होते हैं। सांख्यीय परमाणु त्रैगुणिक (त्रिगुणविकारभूत व्यक्त पदार्थ) है, अतः यह नित्य, निरवयव, निष्कारण नहीं हो सकता। परमाणु पाँच प्रकार के हैं। विज्ञानभिक्षु ने यहाँ इन परमाणुओं का स्वरूप इस प्रकार दिखाया है – पृथ्वीपरमाणु वह ग्राह्य पदार्थ है जो मूर्ति (= काठिन्य) – समानजातीय शब्दादितन्मात्रों से उत्पन्न होता है। यह स्थूलपृथ्वी की परम सूक्ष्म अवस्था है। जलपरमाणु वह ग्राह्य पदार्थ है जो गन्धतन्मात्र को छोड़कर चार तन्मात्रों (जो स्नेहजातीय हैं) से उत्पन्न होता है। इससे महाजल आदि होते हैं। तेजःपरमाणु वह ग्राह्य पदार्थ है जो गन्ध-रस तन्मात्र को छोड़कर शेष तीन तन्मात्रों (जो उष्णता-जातीय हैं) से उत्पन्न होता है; इससे महातेजः आदि होते हैं। वायु-परमाणु वह ग्राह्य पदार्थ है जो गन्ध-रस-रूप तन्मात्रों को छोड़कर शेष दो तन्मात्रों (जो सततसंचरणशीलता-जातीय है) से उद्भूत होता है। अहंकारांशसहकृत शब्दतन्मात्र से आकाशपरमाणु उत्पन्न होता है। ‘परमसूक्ष्म’ के अर्थ में भी परमाणु शब्द (जो विशेषण है), प्रयुक्त होता है।
परशरीरावेश दसूरे के शरीर में अपने को प्रविष्ट करने की क्षमता परशरीरावेश कहलाता है। संयम विशेष के बल से ऐसा किया जा सकता है। योगसूत्र कहता है कि बन्धकारण का शैथिल्य होने से अथवा प्रचार संवेदन से परशरीरावेश रूप सिद्धि उद्भूत होती है । कर्माशय बन्ध का कारण है। नाडीमार्ग में चित्त का संचार किस रूप से होता है – इसका अनुभव करना प्रचार संवेदन है। योगी अपने चित्त को दूसरे के शरीर में निक्षिप्त करते हैं; चित्ताधीन इन्द्रियाँ चित्त का अनुसरण करती हुई परशरीर में प्रविष्ट हो जाती हैं।
परा देवी;-
1. पराशक्ति, कौलिकी शक्ति, आनंदशक्ति, पराविसर्गशक्ति, हृदय। संपूर्ण परापरा तथा अपरा शक्ति समूहों को अभिव्यक्त करने वाली निरतिशय स्वातंत्र्य के ऐश्वर्य से परिपूर्ण तथा इस ऐश्वर्य के चमत्कार को उल्लसित करने वाली तथा इस उल्लास से संपूर्ण शुद्ध तथा अशुद्ध सृष्टि को अभिव्यक्त करने वाली परमशिव की नैसर्गिक स्वभावरूपा अनुत्तराशक्ति। 2. अभेदमयी शक्ति दशा में जिस शक्ति के द्वारा परमेश्वर समस्त प्रमातृ गणों और प्रमेय समूहों को धारण करता हुआ वहाँ के समस्त प्रमातृ व्यापारों की कलना को निभाता है उसकी उस शक्ति को भी परा देवी कहते हैं। द्वादश महाकाली देवियों में इस परादेवी का उल्लेख आता है। यह भी कई एक कालियों के रूपों में प्रकट होती हुई प्रमातृ-प्रमेय-प्रमाणमय व्यापारों की कलना को चलाती रहती है। परा भट्टारिका ;-
पारमेश्वरी पराशक्ति को परा भट्टारिका कहा जाता है। भट्टारक पारमैश्वर्य से संपन्न अधिकार देवाधिदेवों को कहते हैं, जैसे ईश्वर भट्टारक, सदाशिव भट्टारक, शिवभट्टारक। तदनुसार भगवती पराशक्ति, जो शक्ति तत्त्व पर शासन करती है, उसे परा भट्टारिका कहा जाता है। ज्येष्ठा, रौद्री और वामा नामक भट्टारिकाएँ उसकी अपेक्षा अपर अर्थात् निचली कोटि की देवियाँ हैं। उच्चतम स्थान की देवी परा भट्टारका ही है। इसी को क्रमनय में काली कहा जाता है और श्रीचक्र के उपासक इसी को ललिता त्रिपुर सुंदरी कहते हैं।
परा वाक् ;-
कारण बिन्दु का अभिव्यक्त स्वरूप शब्दब्रह्म कहलाता है और यह मूलाधार में निष्पन्दावस्था में अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित रहता है। इसी स्थिति को परा वाक् कहा जाता है। शास्त्रों में नादात्मक अकारादि मातृका वर्णों की चार अवस्थाएँ वर्णित हैं – अनाहतहतोत्तीर्ण, अनाहतहत, अनाहत और हत। इनमें अनाहतहतोत्तीर्ण अवस्था ही परा वाक् है। तन्त्रालोक में उद्धृत ब्रह्मयामल में नाद को राव कहा गया है। परावाक् स्वरूप अहंविमर्शात्मक राव पश्चन्ती, मध्यमा, वैखरी और इनके स्थूल, सूक्ष्म तथा पर भेदों के कारण नवधा विभक्त हो जाता है। इन सबका आधारभूत परावागात्मक राव दशम है। इस तरह से यह परावागात्मिका राविणी दिव्य आनन्दप्रदायक दस प्रकार के नाद का नदन करती रहती है। इसी से वर्णाम्बिका का पश्यन्ती रूप अभिव्यक्त होता है। परा वाक् को ही सूक्ष्मा और कुण्डलिनी शक्ति भी कहा जाता है। योगिनीहृदय (1/36) में इसको अम्बिका शक्ति कहा गया है।
परा शुद्ध विद्या ;-
सदाशिव तत्त्व तथा ईश्वर तत्त्व में रहने वाली मंत्रमहेश्वर तथा मंत्रेश्वर प्राणियों के भेदाभेदमय दृष्टिकोण को शुद्ध विद्या या परा शुद्ध विद्या कहते हैं। इन तत्त्वों में रहने वाली प्राणियों में क्रमशः ‘अहम् इदम्’ अर्थात् ‘मैं यह हूँ’ तथा ‘इदम् अहम्’ अर्थात् ‘यह मैं हूँ’ ऐसा भेदाभेदमय दृष्टिकोण बना रहता है। परा संवित्;-
अनुत्तर संवित्। प्रकाश एवं विमर्श का शुद्ध, एकघन सामरस्यात्मक परस्वरूप। छत्तीस तत्त्वों से उत्तीर्ण तथा छत्तीस तत्त्वों का संघट्टात्मक शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण स्वरूप। काश्मीर शैव दर्शन के अनुसार जो कुछ भी, जहाँ कहीं भी, जिस किसी भी रूप में आभासित होता है, वह सभी कुछ संवित् स्वरूप ही है और संविद्रूप में संविद्रूप बनकर ही चमकता रहता है। परमशिव के ऐसे अनुत्तर स्वरूप को परासंवित् कहते हैं। परानंद ;-
आणव उपाय के उच्चार योग में भिन्न भिन्न स्थितियों में विश्रांति के हो जाने पर अभिव्यक्त होने वाली आनंद की छह भूमिकाओं में से तीसरी भूमिका। उच्चार योग की प्राण धारणा में जब साधक को अपने जीवस्वरूप की विषयशून्यता की स्थिति पर पूर्ण विश्रांति हो जाती है तब उसे प्राण और अपान पर विश्रांति का अभ्यास करना होता है। इस अभ्यास में अनंत प्रमेयों को अपान द्वारा प्राण में ही विलीन करना होता है। इसके सतत अभ्यास से साधक जिस आनंद का अनुभव करता है, उसे परानंद कहते हैं। परापरा देवी;-
ज्ञान शक्ति शुद्धशुद्ध मार्ग को प्रकाशित करने वाली तथा घोरा मातृ मंडली अर्थात् घोर शक्तियों (देखिए) के अनंत समूहों को अविरत रूप से प्रकट करते रहने वाली पारमेश्वरी शक्ति। ये शक्ति समूह मुक्ति के मार्ग को अवरुद्ध करने वाले हैं तथा मिश्रित कर्मफल के प्रति आसक्ति उत्पन्न करते हुए जीव को संसार के प्रति ही आसक्त रखने की पारमेश्वरी लीला को निभाते हैं। भेदाभेदमयी विद्या भूमिका के भीतर समस्त प्रमातृ-प्रमाण-प्रमेयमय व्यापारों की कलना करने वाली तथा इस भूमिका के समस्त प्रपंचों को धारण करने वाली वह पारमेश्वरी शक्ति, जिसके कई एक रूप द्वादश कालियों में गिने जाते हैं। परापरावस्था / दशा;-
भेदाभेद की अवस्था। वह दशा, जिसमें इदंता का पृथक् विकास नहीं हुआ होता है परंतु उसके प्रति अत्यंत सूक्ष्म उन्मुखता उभर चुकी होती है। इस अवस्था में सदाशिव, ईश्वर तथा शुद्ध विद्या और इन तत्त्वों में रहने वाले मंत्रमहेश्वर, मंत्रेश्वर तथा विद्येश्वर नामक प्राणी एवं उनका भेदाभेदमय दृष्टिकोण आता है। इस अवस्था में परमशिव का चित्, निर्वृत्ति (आनंद) आदि शक्ति पंचक विकासोन्मुख होता है। पराभक्ति ;-
ऐसी प्रेममयी और ज्ञानमयी भक्ति जिसमें उपास्य और उपासक का भेद सर्वथा विगलित हो जाता है और उपासक अपने को उपास्य के ही रूप में जानने लगता है। यह शैव दर्शन की समावेशमयी भक्ति है। इसी भक्ति की प्रशंसा उत्पल देव आदि आचार्यो ने की है। इसको ‘ज्ञानस्य परमा भूमि’ ज्ञान की सर्वोच्च भूमि और ‘योगस्य परमादशा’ योग की सर्वोच्च दशा कहा गया है। परावस्था / दशा;-
शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण ‘अहम्’ की अवस्था। पूर्ण अभेद की अवस्था। पूर्ण अभेद की अवस्था। वह अवस्था, जिसमें परमेश्वर का समस्त शक्ति समूह तथा संपूर्ण सूक्ष्म एवं स्थूल प्रपंच परिपूर्ण सामरस्यात्मक संविद्रूपता में ही चमकता रहता है। इस पूर्ण अभेद की दशा में सभी कुछ परमशिव के ही रूप में परमशिव में ही निर्विभागतया चमकता है। इस अवस्था में विश्व रचना के प्रति किसी भी प्रकार की सूक्ष्मातिसूक्ष्म उन्मुखता भी उभरी नहीं होती है, केवल परिपूर्ण चिन्मात्र प्रकाशरूपता शुद्ध विमर्शात्मकतया असीम और अनवच्छिन्न ‘अहं’ के रूप में चमकती रहती है। हाँ, समस्त सृष्टि-संहार-लीला का बीज उसी में अनभिव्यक्तता से विद्यमान रहता है। परावाच् (वाणी) ;-
शुद्ध तथा परिपूर्ण अहमात्मक परामर्शरूपिणी, असीम, शुद्ध तथा सूक्ष्मतर वाणी। अपनी परिपूर्ण शुद्ध संविद्रूपता का निर्विभागतया सतत प्रत्यवमर्श। जिस वाणी में पश्यंती, मध्यमा तथा वैखरी नामक तीनों वाणियाँ सामरस्य रूप में स्थित रहती हैं तथा जिसमें से अपने भिन्न भिन्न रूपों में अभिव्यक्त होती हैं। इस प्रकार यह तीनों वाणियों की पूर्ण सामरस्य की दशा है तथा शिव शक्ति के संघट्ट रूप परासंवित् में ही चमकती रहती हैं।
परिणामदुःखता;-
सभी प्राकृत पदार्थ दुःखप्रद हैं – इसको प्रमाणित करने के लिए योगसूत्र (2/15) में परिणामदुःख-रूप युक्ति सर्वप्रथम दी गई है। परिणाम-हेतुक दुःख = परिणामदुःख। इस युक्ति का तात्पर्य यह है कि जो वर्तमान में सुखकर प्रतीत हो रहा है, वह भी बाद में दुःखकारक अवश्य होगा। व्याख्याकारों का कहना है कि विषयसुख के अनुभवकाल में जो राग नामक क्लेश उत्पन्न होता है उससे बाद में संकल्प होता है जिससे पुनः धर्म-अधर्म रूप कर्म किए जाते हैं। इस कर्म से जो कर्माशय होता है, वह प्राणी को जाति (जन्म = देहग्रहण), आयु और भोग देता है। जब तक देहधारण है तब तक दुःखभोग भी है। विषयभोगकाल में सुखविरोधी दुःख के साधनों के प्रति द्वेष भी होता है और इन साधनों को पूर्णरूप से न छोड़ सकने के कारण प्राणी सुह्यमान भी होता रहता है। इस प्रकार रागकृत कर्माशय के साथ-साथ द्वेष-मोहकृत कर्माशय भी होते रहते हैं। चूंकि सुख स्वयं भविष्यत् दुःख का साधन हो जाता है। अतः सुखेच्छु प्राणी अनिवार्यतः दुःख को भी प्राप्त कहता है – यह परिणामदुःखयुक्ति का सार है।
परिपूर्ण ;-
जो सर्वथा, सर्वतः और सर्वदा शुद्ध एवं असीम बना रहता हुआ प्रत्येक प्रकार के स्थूल तथा सूक्ष्म भावों, अवस्थाओं एवं पदार्थों से पूरी तरह से भरा रहता है। जिसमें किसी भी प्रकार का देशकृत एवं आकारकृत कोई भी संकोच नहीं होता है। काश्मीर शैव दर्शन के अनुसार संपूर्ण बाह्य जगत् संविद्रूप परमशिव में संविद्रूप में ही सदैव स्थित रहता है। जो कुछ भी आभासित होता है, वह उसी संविद्रूपता का ही बाह्य प्रतिबिंब होता है; उससे भिन्न कुछ भी नहीं हो सकता है। अतः विश्वात्मक एवं विश्वोत्तीर्ण दोनों ही रूपों का एकघन स्वरूप अनुत्तर परमशिव ही परिपूर्ण होता है। समस्त विश्व उसमें है अतः वह विश्व से पूर्ण है। फिर समस्त विश्व को वही सत्ता प्रदान करता हुआ विश्व का पूरक भी है। दोनों ही प्रकार की दृष्टियों को लेकर के उसे पूर्ण कहा गया है। परिउपसर्ग उस पूर्णता के सर्वतोमुखी विस्तार का द्योतक है। परिमाण;-
किसी वस्तु का परिमाण कितना है – इस प्रकार का कोई विचार सांख्ययोग के प्रचलित ग्रन्थों में नहीं मिलता। सांख्यसूत्र में परिमाण-सम्बन्धी उस मत का खण्डन मिलता है जिसमें कहा गया है कि परिमाण चार प्रकार के हैं – अणु, महत्, हृस्व और दीर्घ। सूत्रकार का कहना है कि अणु और महत् परिमाण – ये दो ही भेद स्वीकार्य हैं, क्योंकि हृस्व-दीर्घ परिमाणों का अन्तर्भाव महत्-परिमाण में ही हो जाता है (5/90)। सांख्यकारिका (15) में ‘परिमाण’ का प्रसंग अव्यक्त की सत्ता सिद्ध करने के समय किया गया है। महत् आदि कार्यवस्तु परिमित परिमाण वाले अर्थात् अव्यापी होते हैं। सांख्य सभी व्यक्त पदार्थों को अव्यापी मानता है, अतः कोई भी व्यक्त पदार्थ सर्वव्यापी अर्थात् विभुपरिमाण नहीं है। यह सांख्यीय दृष्टि से कहना होगा। पुरुष ईश्वर का एक नामांतर।पाशुपत दर्शन के अनुसार ईश्वर अपनी स्वतंत्र इच्छाशक्ति के अनुसार विविध जीवों व शरीरों की उत्पत्ति कर सकता है। अतः पौरूष संपन्न होने के कारण पुरुष कहलाता है। लोक व्यवहार में पुरुष में सृष्टि करने की शक्ति होती है। इसी समय से परमेश्वर को भी पुरुष कहते हैं। वस्तुत: वही एकमात्र परमपुरुष है क्योंकि मूल सृष्टि का एकमात्र कारण वही है।
परोक्ष दीक्षाP;-
शिष्य सामने न हो, देशांतर में हो, परलोक में हो, या अगला जन्म ले चुका हो तो उसे जो दीक्षा दी जाती है उसे परोक्ष दीक्षा कहते हैं। जालप्रयोग दीक्षा (देखिए) की तरह यही परोक्ष दीक्षा की जाती है। केवल जीव का आकर्षण और दर्भमयी प्रतिमा में प्रवेशन इस दीक्षा में नहीं किया जाता है। परोक्षवाद अन्य को लक्ष्य कर अन्य का कथन परोक्षवाद है। अर्थात् किसी के संबंध में प्रत्यक्षतः कुछ न कर दूसरे व्याज से कुछ कहना परोक्षवाद है। जैसे, श्वेतकेतूपाख्यान में जीव को पुरुषोत्तम का अधिष्ठान बताने के उद्देश्य से ही जीव का अक्षर ब्रह्म से अभेद प्रतिपादित किया गया है, न कि जीव अक्षर ब्रह्म से वस्तुतः अभिन्न है। अक्षर ब्रह्म पुरुषोत्तम का अधिष्ठान है, यह पुष्टि मार्ग का सिद्धांत है। ऐसी स्थिति में जीव और अक्षर ब्रह्म को अभिन्न बताने में श्रुति का उद्देश्य यही है कि अक्षर ब्रह्म के समान ही जीव भी पुरुषोत्तम के अधिष्ठान के रूप में बोधित हो। ऐसा नहीं है कि जीव वस्तुतः अक्षर ब्रह्म से अभिन्न है। यही परोक्षवाद है (अ.भा.पृ. 1032)।
दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन
पर्यायसप्तक
शक्तिसंगम तन्त्र में पर्याय के नाम से तन्त्रों का विभाग किया गया हैं- देश, काल, आम्नाय, विद्या, दर्शन, आयतन और आगम के भेद से पर्याय सात प्रकार के होते हैं। किस देश में कौन सा आचार, क्रम, मार्ग या तन्त्र प्रचलित हैं, सका ज्ञान देश पर्याय से होता है। किस काल में कौन सी विद्या कैसे प्रचलित हुई? उसका स्वरूप क्या है? इन सबका ज्ञान काल पर्याय से होता है। किस आम्नाय में कैसा आचार है? उसका स्वरूप क्या है और उसकी विशेषता क्या है? इन प्रश्नों का समाधान आम्नाय पर्याय में वर्णित है। किस विद्या की उपासना किस आचार से की जाती है? कलियुग में उसका क्या स्वरूप है? उसका फल क्या है? इन सब विषयों का निर्णय विद्या पर्याय में किया गया है। किस दर्शन का क्या आचार है? इसके प्रतिपादक तन्त्र कौन-कौन से हैं? इस बात का निरूपण दर्शन पर्याय में किया गया है। किस आयतन की उत्पत्ति कैसे हुई? किस में कितने तन्त्र हैं? इसका आचार क्या है, इन बातों का निर्णय आयतन पर्याय में किया गया है। किस आगम की उत्पत्ति कैसे हुई? इनका आचार क्या है? मुख्य और अंग मन्त्र कौन-कौन से हैं? इनकी परंपरा कैसी है? इनमें तन्त्र कितने हैं? और इनसे सिद्धि कैसे मिलती है? इन सब विषयों का निरूपण आगम पर्याय में किया गया है।
इस प्रकरण की समाप्ति (4/7/157-160) में देश पर्याय का पूर्वाम्नाय में, काल पर्याय का दक्षिणाम्नाय में, आगम पर्याय का पश्चिमाम्नाय में, दर्शन पर्याय का उत्तराम्नाय में, आयतन पर्याय का पातालाम्नाय में और विद्या पर्याय का ऊर्ध्वाम्नाय में समावेश किया गया है। इसको वहाँ पर्यायाम्नाय भी कहा गया है। इस तरह से उक्त छः पर्यायों में भी आम्नाय पर्याय की अनिवार्य उपस्थिति रहती है, अतः आम्नाय ही इन सब में प्रधान है। तथापि दर्शन और आगम पर्याय का भी अपना निजी स्वरूप सुरक्षित है। इसी तरह से देश और काल के भेद से ही तन्त्रों का भेद होता ही है। दश महाविद्या तथा अन्य विद्याओं के प्रतिपादक स्वतन्त्र तन्त्र ग्रन्थ उपल्बध होते ही हैं। इसलिये उक्त सभी पर्यायों की स्वतन्त्र स्थिति तन्त्रशास्त्र में मान्य हैं और इसका इतना विस्तार से वर्णन किया गया है। इससे तान्त्रिक वाङ्मय की विशालता का भी परिचय मिलता है।
1. देशपर्याय
शक्तिसंगम तन्त्र (4/2/15-33) में कादि और हादि के भेद से 56-56 देशों के नाम गिनाये गये हैं और इनकी सीमा का निर्धारण भी वहीं (3/7/15-72) किया गया है। इन सभी देशों को पुनः पाक्, प्रत्यक्, दक्षिण और उदक् तथा केरल, काश्मीर, गौड और विलास के नाम से चार भागों में बाँटा गया है। अंग से मालव पर्यन्त केरल, मरुदेश से नेपाल तक काश्मीर, सिलहट्ट से सिन्धु पर्यन्त गौड सम्प्रदाय फैला हुआ है। विलास सम्प्रदाय पूरे देश में व्याप्त है। चीन देश में 100 तंत्र और 7 उपतन्त्र, द्रविड देश में 20 तंत्र और 25 उपतन्त्र, केरल में 60 तन्त्र और 50 उपतन्त्र, काश्मीर में 100 तन्त्र और 10 उपतन्त्र, गौड देश में 72 तन्त्र और 16 उपतन्त्रों की स्थिति है। इनके अतिरिक्त ऊर्ध्व दिशा और पाताल में भी सकल और निष्कल के क्रम के अनुसार शाक्त और शैव तन्त्रों की स्थिति बताई गई है। इन सबका विवरण वहीं (4/5/40-73) देखना चाहिये।
2. कालपर्याय इसका विस्तृत विवरण शक्तिसंगम तन्त्र के चतुर्थ खण्ड के 5-6 पटलों में किया गया है। कादि और हादि उभय मतों में इसका एक ही रूप समान रूप से मान्य है। यहाँ प्रधानतः दस महाविद्या, गणेश, वटुक, प्रभृति दस अवतारों की जयन्तियों का वर्णन करने के बाद बताया गया है कि उचित समय पर ही इन विद्याओं तथा देवताओं की आराधना करनी चाहिये। इसके लिये शकुनविचार भी आवश्यक है। कालपर्याय स्थित तन्त्रों की गणना वहाँ इस प्रकार की गई है –
शाक्त कालपर्याय में 64 तन्त्र, 326 उपतन्त्र, 300 संहिता, 100 चूडामणि, 9 अर्णव, 4 डामर, 8 यामल, 2 सूक्त, 6 पुराण, 1 उपवेद, 3 कक्षपुटी, 2 विमर्षिणी, 8 कल्प, 2 कल्पलता, 3 चिन्तामणि ग्रन्थों का समावेश है।
शैव कालपर्याय में 33 तन्त्र, 325 उपतन्त्र, 3 संहिता, 1 अर्णव, 2 यामल, 3 डामर, 1 उड्डालक, 2 उड्डीश, 8 कल्प, 8 संहिता, 2 चूडामणि, 2 विमर्षिणी, 1 अवतार, 5 बोध, 5 सूक्त, 2 चिन्तामणि, 9 पुराण, 3 उपपुराण, 2 कक्षपुटी, 3 कल्पद्रुम, 2 कामधेनु, 3 सद्भाव, 5 तत्त्व और 2 क्रम तन्त्र समाविष्ट हैं।
वैष्णव कालपर्याय में 75 तन्त्र, 205 उपतन्त्र, 20 कल्प, 8 संहिता, 1 अर्णव, 5 कक्षपुटी, 8 चूडामणि, 2 चिन्तामणि, 2 उड्डालक, 2 उड्डीश, 2 डामर, 1 यामल, 5 पुराण, 3 तत्त्व, 3 बोध, 3 विमर्षिणी तथा एक-एक संख्या के अमृत, तर्पण, कामधेनु और कल्पद्रुम ग्रन्थों की गणना होती है।
सौर कालपर्याय में 30 तन्त्र, 114 उपतन्त्र, 4 संहिता, 2 उपसंहिता, 5 पुराण, 10 कल्प, 2 कक्षपुटी, 3 तत्त्व, 5 विमर्षिणी, 5 चूडामणि, 2 चिन्तामणि, 1 डामर, 1 यामल, 5 उड्डालक, 2 अवतार, 2 उड्डीश, 3 अर्णव तथा एक-एक संख्या के दर्पण और अमृत ग्रन्थों का का समावेश है।
गाणपत्य कालपर्याय में 50 तन्त्र, 25 उपतन्त्र, 2 पुराण, 2 अमृत, 3 सागर, 3 दर्पण, 9 कल्प, 3 कक्षपुटी, 3 विमर्षिणी, 2 तत्त्व, 2 उड्डालक, 2 उड्डीश, 3 चूडामणि, 3 चिन्तामणि, 1 डामर, 1 यामल और और 8 पंचरात्र ग्रन्थ समाविष्ट हैं।
3. आम्नायपर्याय
वहीं सप्तम पटल में इस पर्याय का वर्णन किया गया है। साथ ही प्रत्येक आम्नाय के देवताओं का भी निरूपण मिलता है। आम्नाय पर्याय के तन्त्रों की गणना वहाँ इस प्रकार बताई गई है – पूर्वाम्नाय में 64 तन्त्र और 670 उपतन्त्र हैं। दक्षिणाम्नाय में 400 तन्त्र और 375 उपतन्त्र हैं। कालपर्याय के ही समान यहाँ यामल प्रभृति ग्रन्थ भी होते हैं। पश्चिमाम्नाय में 96 तन्त्र और इतने ही उपतन्त्र होने हैं। उत्तराम्नाय में 925 तन्त्र तथा 364 उपतन्त्र होते हैं। ऊर्ध्वाम्नाय में 64 तन्त्र और 85 उपतन्त्र तथा पातालाम्नाय में 105 तन्त्र और 2100 उपतन्त्र हैं। आम्नाय विभाग को दीक्षाम्नाय भी कहा जाता है। इसी ग्रन्थ के प्रथम खण्ड (1/4/67-69) में पाँच आम्नायों का विवरण मिलता है। वहाँ बताया गया है कि केरल सम्प्रदाय का ऊर्ध्वाम्नाय में, काश्मीर का पश्चिमाम्नाय में, विलास और वैष्णव का दक्षिणाम्नाय में, चैतन्य का पूर्वाम्नाय में और गौड सम्प्रदाय का उत्तराम्नाय में समावेश किया जाता है।
4. विद्यापर्याय विद्यापर्याय का वर्णन यहाँ (4/7/38-47) समयाम्नाय के नाम से किया गया है। समयाम्नाय को भी यहाँ पुनः षडाम्नाय में विभक्त कर और उनके देवता आदि का वर्णन करते हुए बाद में उनके तन्त्रों और उपतन्त्रों की संख्या बातई गई है, जो कि इस प्रकार है – पूर्वाम्नाय में 10 तन्त्र और 5 उपतन्त्र, दक्षिणाम्नाय में 8 तन्त्र और 9 उपतन्त्र, पश्चिमाम्नाय में 20 तन्त्र और 8 उपतन्त्र, उत्तराम्नाय में 100 तन्त्र और 9 उपतन्त्र, ऊर्ध्वाम्नाय में 20 तन्त्र और 3 उपतन्त्र, पातालाम्नाय में 9 तन्त्र और 2 उपतन्त्र होते हैं। 5. दर्शनपर्याय दर्शनपर्याय के विवरण में यहाँ (4/7/48-58) बताया गया है कि 100 तन्त्र और 8 उपतन्त्रों से युक्त शाक्त दर्शन पूर्वाम्नाय में, 50 तन्त्र और 5 उपतन्त्रों से युक्त शैव दर्शन दक्षिणाम्नाय में, दक्षिणाचार के प्रतिपादक 36 तन्त्र और 36 ही उपतन्त्रों से अलंकृत वैष्णव दर्शन पश्चिमाम्नाय में, 70 तन्त्र और 3 उपतन्त्रों से मंडित गाणप दर्शन उत्तराम्नाय में, 12 तन्त्र और 10 उपतन्त्रों से संयुक्त सौर दर्शन ऊर्ध्वाम्नाय में तथा 100 तन्त्र और 63 उपतन्त्रों से राजित बौद्ध दर्शन पातालाम्नाय में प्रतिष्ठित है। उक्त विभाग हादिमत के अनुसार है। कादिमत के अनुसार शैव दर्शन पूर्व में, वैष्णव दक्षिण में, गाणप पश्चिम में, सौर उत्तर में और शाक्त दर्शन ऊर्ध्वाम्नाय में प्रतिष्ठित है। यहाँ षडाम्नाय के आधार पर षड्दर्शनों का प्रतिपादन किया गया है। इसी ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में तारा, त्रिपुरा और छिन्नमस्ता के भेद से षड्दर्शनों की गणना की गई है। तदनुसार शाक्त, शैव, गाणपत, सौर, वैष्णव और बौद्ध ये तारा के षड्दर्शन हैं। वैदिक, सौर, शाक्त, शैव, गाणपत्य और बौद्ध ये त्रिपुरा के षड्दर्शन हैं। यहाँ वौष्णव के स्थान पर वैदिक दर्शन का समावेश किया गया है। छिन्ना षड्दर्शन में चान्द्र, स्वायम्भुव, जैन, चीन और नील इन पाँच दर्शनों की ही गणना मिलती है। बौद्ध दर्शन को मिलाकर यह संख्या पूरी की जा सकती है। 6. आयतनपर्याय आयतनपर्याय का विवरण यहाँ नहीं मिलता है। केवल पंचायतन का उल्लेख मिलता है। पाँच उपास्य देवताओं के आयतनों (मन्दिरों) का एक स्थान पर समाहार पंचायतन के नाम से प्रसिद्ध है। स्मार्त धर्म में शक्ति, शिव, विष्णु, सूर्य और गणेश में से किसी एक इष्ट देवता को मुख्य मानकर उसके मन्दिर के मध्य में तथा उसके चारों कोनों पर चार अन्य देवताओं के आयतनों की स्थापना विहित है। कृष्णानन्द के तन्त्रसार में भी इनका विवरण मिलता है। आयतन पर्याय में इन्हीं की उपासना के प्रतिपादक शास्त्रों की गणना होनी चाहिये। प्रपंचसार और शारदातिलक ऐसे ही ग्रन्थ हैं। अथवा कादिमत के अनुसार प्रदर्शित दर्शन पर्याय में पाँच ही दर्शन वर्णित हैं। उनका भी पंचायतन विभाग में समावेश किया जा सकता है। इस प्रकारण में दिव्याम्नाय, विद्याम्नाय, सिद्धाम्नाय, रत्नाम्नाय (महाम्न्या) मण्डलाम्नाय, रसातलाम्नाय, पंचकृत्याम्नाय, कालिकाम्नाय, बटुकाम्नाय का ही विस्तार से वर्णन किया गया है। दिव्याम्नाय की दो प्रकार की व्याख्या की गई है। वस्तुतः इनका संबंध आम्नाय पर्याय से है। पंचकृत्याम्नाय का वर्णन कुलार्णव तन्त्र में भी मिलता है। इसका संबंध शंकराचार्य द्वारा प्रतिष्ठापित पाँच मठों से भी है, ऐसा यहीं बताया गया है। 7. आगमपर्याय आयतन पर्याय में प्रदर्शित रत्नाम्नाय (महाम्नाय) का ही यहाँ आगम पर्याय नामक अन्तिम विभाग के रूप में वर्णन है। तदनुसार चीनागम में अक्षोभ्यतन्त्र के साथ 7 तन्त्र, बौद्धागम में 21 तन्त्र और 8 उपतन्त्र, जैनागम में 16 तन्त्र ओर 8 उपतन्त्र, पाशुपतागम में 9 तन्त्र और 6 उपतन्त्र, कापालिकागम में 1 तन्त्र और 4 उपतन्त्र, पाषण्डागम में 3 तन्त्र और 5 उपतन्त्र, पांचरात्रागम में 10 तन्त्र और 7 उपतन्त्र, अघोरागम में 10 तन्त्र और 8 उपतन्त्र, मंजुघोषागम में 20 तन्त्र और 30 उपतन्त्र, भैरवागम में 100 तन्त्र और 70 उपतन्त्र, बटुकागम में 200 तन्त्र और 80 उपतन्त्र, संजीवन्यागम में 3 तन्त्र और 7 उपतन्त्र, सिद्धेश्वरागम में 10 तन्त्र और 8 उपतन्त्र, नीलवीरागम में 17 तन्त्र, मन्त्रसिद्धयागम में 18 तन्त्र, मृत्युंजयागम में 20 तन्त्र और 12 उपतन्त्र, मायाविहारागम में 3 तन्त्र और 5 उपतन्त्र, विश्वरूपागम में 9 तन्त्र और 7 उपतन्त्र, योगरूपागम में 50 तन्त्र और 10 उपतन्त्र, विरूपागम में 7 तन्त्र और 8 उपतन्त्र, यक्षिप्यागम में 5 तन्त्र और 70 उपतन्त्र, निग्रहागम में 10 तन्त्र और 200 उपतन्त्र विराजमान हैं। ”
दर्शन : शाक्त दर्शन
पशु जीव;-
पाशुपत दर्शन के अनुसार समस्त चेतन जीव, सिद्धों व जीवन्मुक्तों को छोड़कर, पशु कहलाते हैं। क्योंकि सामान्यतया ये जीव ऐश्वर्यविहीन होते हैं और ऐश्वर्यविहीनता ही बंधन होता है। अतः ऐश्वर्य और स्वातंत्र्य का अभाव जीव को भिन्न-भिन्न पाशों के बंधन में बांध देता है और पाशो के बंधनों में बंध जाने के कारण ही जीव पशु कहलाता है। सांख्य दर्शन के तेईस तत्व ही पाशुपत दर्शन में पाश कहलाते हैं। ये पाश कलाएं भी कहलाती हैं। इन कलाओं के बंधन में बंध जाने के कारण जीव परवश हो जाता है, वह स्वतंत्र नहीं रहता है। अस्वातंत्र्य ही जीव के बंधन का मुख्य रूप बनकर उसे पशु बना देता है।कौडिन्य भाष्य में पशु को तीन प्रकार का बताया गया है- देव, मनुष्य और तिर्यक्। देव ब्राह्म आदि आठ प्रकार के कहे गए हैं। मनुष्य ब्राह्मण आदि विविध तरह के तथा तिर्यक् मृगादि पाँच प्रकार के कहे गए हैं। इन सभी तरह के, पशुओं में कुछ साञ्जन (शरीर व इन्द्रिय सहित) तथा कुछ निरञ्जन (शरीर व इन्द्रियरहित) होते हैं।
पशु;-
माया और कंचुकों से मलिन बना हुआ, क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से घिरा हुआ तथा समस्त प्रपंच को भेद दृष्टि से देखने वाला प्रमाता। वस्तुतः अपने ही स्वातंत्र्य से अपने आनंद के लिए अपनी मायाशक्ति तथा उसी से विकसित कला विद्या आदि पाँच आवरक तत्त्वों से घिरा हुआ शुद्ध संवित् स्वरूप परम शिव ही पशु कहलाता है। इस भूमिका पर उतरकर उसकी समस्त ऐश्वर्यशालिनी शक्तियाँ संकोच को प्राप्त कर जाती हैं। इस प्रकार की संकुचित संवित् जब पुर्यष्टक रूप सूक्ष्मतर देह में प्रविष्ट हो जाती है तो उसे ही पशु कहा जाता है। (तं.सा.पृ. 82-3)। इस स्थिति में पहुँचने पर वह कर्मानुसार फल भोग से कलुषित होता रहता है। पशुत्व;-
मल का एक प्रकार।पाशुपत दर्शन के अनुसार पशुत्व, जो पुरुष का गुण है तथा धर्म-अधर्म दोनों से व्यतिरिक्त है, पंचम प्रकार का मल है। पुरुष की ज्ञानशक्ति व क्रियाशक्ति में जो संकोचरूपी बंधन पड़ता है, वही पशुत्व होता है, जिससे पुरुष बंधन में पड़ा रहता है। असर्वज्ञत्व, अपतित्व आदि पशुत्व के भेद भी गिने गए हैं। इस तरह का ऐश्वर्यहीनता रूप बंधन ही पशुत्व है और वही संसार तथा जन्ममरण का अनादि कारण है।
पशुत्वहानि ;-
विशुद्धि का भेद।पाशुपत साधना का अभ्यास करते-करते युक्त साधक के पशुत्व का पूर्णरूपेण उच्छेद हो जाता है। उसका पशुत्व रूपी बंधन कट जाता है, तथा वह पशुत्वहानि रूप विशुद्धि को प्राप्त कर लेता है, जिसकी प्राप्ति से साधक साधना के पथ पर आगे बढ़ते हुए उत्कृष्ट स्तर की विशुद्धि को प्राप्त करने के प्रति अग्रसर हो जाता है।
पशुपति ;-
भगवान महेश्वर का नामांतर।पशुओं अर्थात् समस्त जीवात्माओं के ईश्वर, स्वामी व पालक को पाशुपत दर्शन में पशुपति (पशुओं का पति) नाम से अभिहित किया गया है। पति ही पशुओं के लिए जगत की सृष्टि करता है। उस सृष्टि मे वे कर्मफल भोग को भी प्राप्त करते हैं और पाशुपत योग का अभ्यास भी करते हैं। इस तरह से उनका हित करता हुआ परमेश्वर उनका पालक या पति है।केवल उसी पशु की योग में प्रवृत्ति हो जाती है जिस पर शिव अनुग्रह करते हैं। इस तरह से अनुग्रह द्वारा जीवों को योग में प्रवृत्त करने वाला और उसके फलस्वरूप उन्हें संसृति के कष्टों से बचाने वाला शिव उन पशुओं का पति कहलाता है
पशुमातरः-
पशुओं को अर्थात् बद्ध जीवों को विविध प्रकार की प्रेरणा देने वाली परमेश्वर की शक्तियाँ। ये शक्तियाँ पशु प्रमाता को अर्थात् जीव को अपने शुद्ध स्वरूप के प्रति अभिमुख करने वाली, उसमें सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति उत्पन्न करने वाली तथा उसका अधःपतन करने वाली क्रमशः अघोर, घोर तथा घोरतरी शक्तियों के तीन वर्गों में विभक्त हैं। शक्तियों के ये तीन वर्ग ही एक-एक जीव के साथ ब्राह्मी, माहेश्वरी आदि आठ मातृकाओं के रूप में लगकर उसके समस्त व्यवहारों में उसे चलाती रहती हैं। परमेश्वर की ज्येष्ठा, रौद्री और वामा नामक शक्तियों के अधीन रहकर ये ‘पशुमातरः’ काम करती रहती हैं।
पश्यंती वाच् / वाणी ;-
परावाच् (देखिए) ही अपने परिपूर्ण स्वातंत्र्य से बाह्यरूपतया अभिव्यक्त होने की अतिसूक्ष्म इच्छा से प्रेरित होकर जिस भेदाभेदात्मक रूप में प्रकट होती है उसे पश्यंती वाच् कहते हैं। इस वाणी में अभी तक वाच्य और वाचक के पार्थक्य के स्फुट उदय के न होने से उनके भेद की भी अभिव्यक्ति स्पष्टतया नहीं हुई होती है। इसमें संविद्रूप परावाक् ही प्रधानतया शुद्धाशुद्ध प्रमातृ रूप में प्रकट होती है।परंतु इस वाणी में समस्त वाच्यों और वाचकों का क्रमरहित आभास होता है। यह परा में और इसमें भेद है। आगे मध्यमा में समस्त भेद का क्रमरूपतया स्फुट आभास बुद्धि के क्षेत्र में हो जाता है, जो पश्यंती में नहीं होता। अतः पश्यंती को अविभागा और संहृतक्रमा कहा गया है। इस वाणी की स्पष्ट अभिव्यक्ति मुख्यतया सदाशिव दशा में हुआ करती है। पश्यन्ती ;-
व्यंजक के प्रयत्न से संस्कृत मूलाधार स्थित पवन जब नाभि तक चला जाता है, तो उस पवन से पश्यत्नी वाक् अभिव्यक्त होती है। यह विमर्शात्मक मन से जुड़ी रहती है और इसमें कार्य बिन्दु का सामान्य स्पन्दन प्रकाशित हो उठता है। पश्यन्ती को नाद की अनाहतहत अवस्था माना जाता है। अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति के सहारे परा वाक् अनेक रूप धारण करने को जब उद्यत होती है, तो पहले वर्णाम्बिका का पश्यन्ती रूप अभिव्यक्त होता है। कामकलाविलासकार पुण्यानन्द (23-24 श्लो.) ने पश्यन्ती के ग्यारह अवयव माने हैं। प्रकाशात्मक अकार की वामा, ज्येष्ठा, रौद्री और अम्बिका नामक चार कलाएँ तथा समष्टि रूप अकार मिलकर उसके पाँच अवयव होते हैं। इसी तरह विमर्शात्मक हकार की इच्छा, ज्ञान, क्रिया और शान्ता नामक चार कलाएँ तथा समष्टि रूप हकार मिलकर भी पाँच अवयव होते हैं। अकार और हकार की सामरस्यावस्था पश्यन्ती का ग्यारहवाँ रूप बनती हैं। योगिनी हृदय (1/37-38) में इसको वामा शक्ति कहा गया है।
पात ;-
भक्ति मार्ग में भगवद्भाव से च्युत हो जाना पात है। भगवद् भाव से च्युति के कारण ही इन्द्रत्व आदि के प्राप्ति रूप आधिकारिक फल को भी पतन कहा गया है ।
पारमार्थिक सत्ता;-
व्यावहारिक सत्ता का मूल, शुद्ध एवं स्थिर रूप। संपूर्ण व्यावहारिक सत्ता मूलतः अनुत्तर संवित् में संवित् के ही रूप में रहती है। पारमार्थिक सत्ता परमसिव की शक्तिता का अंतः रूप है। आभासमान समस्त विश्व वस्तुतः सर्वथा असत्य नहीं है, क्योंकि यह अपने पारमार्थिक रूप में सदैव शुद्ध संवित् रूप में तो आभासित होता ही रहता है। वही उसकी पारमार्थिक सत्ता है। पारमार्थिक सत्ता कल्पित व्यावहारिक सत्ता का ही अकल्पित एवं शुद्ध रूप है। पाश;-
परमशिव की शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण संविद्रूपता से भिन्न जो कुछ भी आभासित होता है, वह सभी कुछ बंधन स्वरूप होता हुआ पाश कहलाता है। वस्तुतः संवित् से भिन्न कुछ भी नहीं है, वही परमशिव है। परंतु जब वही अपने परिपूर्ण स्वातंत्र्य से अपनी परमाद्वैत संविद्रूपता को अपने ही आनंद के लिए छिपाता हुआ और अपने आपको संकुचित रूप में प्रकट करता हुआ अनंत रूपों में अभिव्यक्त होता है तो वे सभी संकुचित रूप तथा सारे का सारा प्रपंच पाश कहलाते हैं। (तं.आ. आ. 8-292)। अपनी परिपूर्ण शुद्ध संविद्रूपता का अज्ञान। पाशाष्टक ;-
अद्वैतवादी शाक्त दर्शन की त्रिपुरा, क्रम, कौल प्रभृति सभी शाखाओं में पाशाष्टक की चर्चा आई है। कुलार्णव तन्त्र में इनके नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं- घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जाति। योगिनीहृदयदीपिका ,महार्थमंजरी प्रभृति ग्रन्थों में इनका उल्लेख मिलता है। इसका अभिप्राय यह है कि शाक्त साधक घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा प्रभृति मानसिक विकृत भावों से तथा कुल, शील और जाति के संकीर्ण बन्धनों से अपने को मुक्त कर लेता है। इन पाशों से जब तक साधक बँधा रहता है, तब तक वह जीवन्मुक्त कैसे कहा जा सकता है? इस पाशमुक्त स्थिति का पूर्ण विकास किसी अघोरी बाबा में देखने को मिलता है। सहज अवस्था की प्राप्ति के लिये भी इन पाशों से मुक्त होना आवश्यक है। भारतीय और तिब्बती साहित्य में 84 सिद्धों की चर्चा मिलती है। वे सभी इन पाशों से मुक्त महायोगी माने गये हैं।
पाशुपत दर्शन;-
03 FACTS;-
सम्प्रति उपलब्ध पाशुपत साहित्य के ग्रंथों में पाशुपत मत के दार्शनिक सिद्धांतों का विशेष प्रतिपादन नहीं हुआ है। इसमें अधिकतर पाशुपत धर्म तथा पाशुपत योग के बारे में व्याख्या हुई है। पाशुपत मत वास्तव में दर्शन की एक व्यवस्थित पद्धति नहीं थी अपितु योगियों का सम्प्रदाय था। योगियों के समूहों के समूह शिव को आराध्य देव मानकर साधना विशेष का अभ्यास करते – करते समस्त भारत का भ्रमण करे रहते थे। कहीं-कहीं पर उस समय के राजा लोग भी उन संन्यासियों से प्रभावित होकर उन्हें आश्रय दे देते थे तथा शिव की पूजा व भक्ति को अपनाते थे।वैदिक रूद्र का आदिम निवासियों के शिव के साथ एकीकरण होने पर कालांतर में शिव ने जब प्रमुख स्थान ग्रहण कर लिया तब शैवमत भिन्न – भिन्न स्थानों पर भिन्न – भिन्न धाराओं में समृद्ध होने लगा। दक्षिण में तमिलनाडू में शैव सिद्धांत, कर्नाटक में वीर शैव, काश्मीर में प्रत्यभिज्ञा शैव दर्शन तथा राजपूताना, गुजरात आदि में पाशुपत मत के रूप में शैव दर्शन पनपने लगा। वैसे पाशुपत संन्यासी समस्त भारत में भ्रमण करते रहे हैं, परंतु पाशुपत मत के संस्थापक लकुलीश के गुजरात काठियावाड़ में अवतार लेने के कारण वही स्थान पाशुपत मत का केंद्र माना जाने लगा।
2-इस तरह से पाशुपत मत प्रधानरूप से संन्यासियों में पनपी योगविधि थी दार्शनिक सिद्धांत नहीं। परंतु बाद में पाशुपत मत के जो ग्रंथ बने उनमें पाशुपत सिद्धांतों की थोड़ी बहुत व्याख्या की गई है।पाशुपतसूत्र तथा उसके कौडिन्यकृत पञ्चार्थीभाष्य में पाँच पदार्थों की व्याख्या की गई। पाशुपत दर्शन के विषयों को पाँच वर्गों में बांटा गया है। वे हैं- कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखांत। गणकारिकाकार ने पाशुपत सिद्धांत को नौ गणों में विभाजित किया है। इनमें से आठ गण पंचक हैं तथा एक गण त्रिक। परंतु पाशुपत मत व दर्शन का मुख्य विषय योगविधि है तथा समस्त योग, धर्म व दर्शन का फल दुःखांत अर्थात् समस्त सांसारिक क्लेशों की पूर्ण निवृत्ति और ऐश्वर्यपूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति है। माधवाचार्य तथा हरिभद्र ने भी अपने ग्रंथों में अर्थात् सर्वदर्शन संग्रह तथा षड्दर्शन समुच्चय में पाशुपत सूत्र तथा गणकारिका के आधार पर ही पाशुपत मत का प्रतिपादन किया है।इन सब ग्रंथों के आधार पर पाशुपत दर्शन का मुख्य सार है कि समस्त फल अर्थात् जगत कार्य है। इसका एकमात्र हेतु (कारण) ईश्वर है, जिसको भिन्न-भिन्न नामों से अभिहित किया गया है।
3-ईश्वर स्वतंत्र है।वह समस्त कार्य को उत्पन्न करने अथवा संहार करने में पूर्णत: स्वतंत्र है। उसे किसी अन्य कारण की अपेक्षा नहीं होती है। पाशुपत मत में कर्म सिद्धांत या माया अथवा अविद्या का कहीं भी उल्लेख नहीं हुआ है। ईश्वर शतश: निरपेक्ष रूप से कार्य का कारण बनता है तथा जीवों को मुक्ति दिलाने में उसी का एकान्तिक प्रसाद काम करता है। जिस पर ईशप्रसाद होगा, वही मुक्तिमार्ग में लगेगा। उसकी एकमात्र स्वतंत्र इच्छा से, जीवों को इष्ट, अनिष्ट, स्थान, शरीर, विषय इंद्रियों आदि की प्राप्ति होती है।पाशुपत मत में योग के साथ – साथ भक्ति पर काफी बल दिया गया है। भक्ति सिद्धि का एक आवश्यक सहायक तत्व है, तथा मोक्ष पारमैश्वर्य प्राप्ति है। परंतु मुक्त जीव ईश्वर के साथ एक नहीं होता है, अपितु उसी की जैसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है जिस स्थिति को रूद्र सायुज्य कहा गया है। पाशुपत दर्शन, योग व धर्म का चरम उद्देश्य सापाक को रुद्रसायुज्य की प्राप्ति करवाना है।
पाशुपत धर्म ;-
02 FACTS;-
1-पाशुपत मत में मुख्य विषय योगविधि है, परंतु योगविधि का अनुसरण करने से पूर्व हर साधक को उस योग से संबंधित धर्मविशेष का अनुसरण करना पड़ता है। पाशुपत धर्म वैदिक धर्म से कई बातों में भिन्नता लिए है। वैसे पाशुपत मत का अनुयायी केवल ब्राह्मण या द्विज ही हो सकता है।शूद्र और स्त्री के साथ बोलना या उन्हें देखना भी साधक के लिए निषिद्ध है। यदि गलती से देख ही ले तो उसे शुद्धि करनी पड़ती है।पाशुपत मत में वैदिक धर्म की कुछ एक बातें अवश्य समाई हैं, वह है ओंङ्कार पर ध्यान लगाना तथा अघोर आदि मंत्रों का जप करना। परंतु और सभी अनुष्ठानों में पाशुपत धर्म भिन्नता लिए हुए हैं। इसमें बलि, हवन आदि को कहीं स्थान नहीं मिला है। बस एकमात्र पूजा और योग साधना को ही प्रमुख स्थान मिला है।
वास्तव में पाशुपत धर्म में भी भिन्न-भिन्न विधियाँ ही हैं। पाशुपत धर्म साधारण गृहस्थ के लिए नहीं प्रतिपादित हुआ है। पाशुपत धर्म के आचार्यों ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि साधारण मानवमात्र के लिए कौन-सी धर्मविधि अपेक्षित है, परंतु पाशुपत साधक के लिए कौन-सी धर्मविधि अपेक्षित है, उसे साधना करते-करते कहाँ निवास करना चाहिए, कैसे जीविका का निर्वाह करना चाहिए, वस्त्र कैसे पहनने चाहिए? आदि सभी बातों की व्याख्या की गई है। इस प्रकार से पाशुपत धर्म केवल योगियों के लिए ही बना है।
2-पाशुपत धर्म में अहिंसा पर काफी बल दिया गया है, परंतु साधक मांस का सेवन कर सकता है, यदि वह भिक्षा में मिला हो। परंतु स्वयं पशु को मार कर उसका मांस खाना निषिद्ध है। आहार लाघव नामक यम में भी यही बात कही गई है कि साधक के भोजन की मात्रा नही अपितु उसके भोजन अर्जित करने के ढंग में आहारलाघव होता है। भिक्षा में मिला अन्न या जो कहीं पड़ा हो, केवल उसी अन्न को पाशुपत साधक खाए तो आहारलाघव नामक यम का पालन माना जाएगा। परंतु यदि किसी से बलात्कार से छीना हुआ एक ग्रास भी ले, वह अनुचित है।पाशुपत धर्म में शिव की मूर्ति की पूजा को पूरे अनुष्ठान से करने को कहा गया है।
पाशुपत मत ;-
02 FACTS;-
1-पाशुपत शैव मत के बीज प्रागैतिहासिक काल में भी विद्यमान थे। क्योंकि सिन्धु घाटी के कुल निवासियों के धर्म के बारे में कई प्रमाणों से अनुमान लगाया जाता है कि उन निवासियों में पाशुपत शैव धर्म का प्रचलन था। सिन्धु घाटी में उस समय के प्रचलित धर्म को निश्चित करने के लिए कई प्रमाण उपलब्ध होते हैं जैसे मोहजोंदड़ों की खुदाई में मिले अवशेषों में पुरुष देवता का खुदा हुआ पक्की मिट्टी का एक चित्र मिला है, जिसके दायीं तरफ एक हाथी और एक शेर तथा बायीं तरफ एक गेंडा और एक भैंसा चित्रित है तथा सिंहासन के नीचे दो हिरण दिखाए गए हैं। पुरुष देवता के चहुँ ओर इतने पशुओं को अंकित करने का शायद यही अर्थ रहा हो कि पशुओं के रक्षक यह पुरुष देवता माने जाते रहे हों तथा इस संदर्भ में भी उसे पशुपति माना जाता हो। वैसे तो पाशुपत मत में पशु का अर्थ जानवरमात्र न लेकर जीवमात्र लिया गया है। परंतु ऋग्वेद में रूद्र से एक स्थान पर प्रार्थना की गई है कि वह द्विपादों (जीवों) तथा चतुष्पादों (जानवरों) की रक्षा करे। (ऋग्वेद 1-114 -1)। वैदिक रूद्र ने समय के बहाव के साथ-साथ शिव का रूप धारण किया। अतः बहुत संभव है कि वेदों में सिंधुघाटी के जिस देवता को शिश्नदेव कहा गया है, वह यही पुरुष देवता ही हो। तथा पशुमात्र (चाहे जानवर हो या जीव) का रक्षक होने के कारण पशुपति कहा जाने लगा हो। इस पुरुष देवता की विशेष मुद्रा, जिस मुद्रा में वह बैठा है, उस प्रागैतिहासिक काल में शैव योग के प्रचलन का एक और प्रमाण उपस्थित करती हैं। इस तरह की मुद्रा शैव मत के शांभव योग में आती है।
2-इस मुद्रा के अतिरिक्त लिंग और योनि के आकार के कई पत्थर मिले हैं, जिनसे सिन्धु घाटी सभ्यता में लिंगोपासना का पता चलता है। इस तरह से सिन्धु घाटी के लोग किसी पुरुष देवता को तथा उसके लिंग को प्रतीक के रूप में पूजते थे। ऊपर चर्चित मुद्रा में आसन विशेष अंकित होने से तथा एक नासाग्रदृष्टि वाले योगी की प्रस्तर मूर्ति से यह भी पता चलता है कि योग का भी प्रचलन रह होगा तथा कई इतिहासवेत्ताओं के मतानुसार सिन्धुघाटी में पाशुपत शैवमत प्रचलित था। बाद में वैदिक आर्यों के देवताओं ने धीर-धीरे सिन्धु घाटी में प्रचलित उस प्रागैतिहासिक शैव धर्म को आत्मसात् कर लिया। क्योंकि वैदिक साहित्य का ध्यान पूर्वक अनुशीलन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वैदिक रूद्र का रूप धीरे-धीरे बदलता गया और वह सिन्धुघाटी के शिव का रूप धारण करता गया। यजुर्वेद के समय तक शैव धर्म वैदिक आर्यों के धर्म का मुख्य अंग बन गया और यहाँ तक कि वैदिक धर्म में लिंगोपासना का समावेश भी हो गया चाहे उसका रूप काफी बदल गया। बाद में श्वेताश्वतर उपनिषद्, नारायणीय उपनिषद्, अथर्वशिरस् उपनिषद, पुराणों, महाभारत तथा रामायण में पाशुपत धर्म ने प्रमुख धर्म के रूप में तथा शिव ने परम देवता के रूप में एक निश्चित व महत्वपूर्ण स्थान ले लिया। इस तरह से पाशुपत मत भारत का अतिप्राचीन धर्म है।
पाशुपत योग ;-
पाशुपत मत का मुख्य विषय योग साधना है तथा पाशुपत मत के ग्रंथ प्रमुखत: पाशुपत योग का ही प्रतिपादन करते हैं। पाशुपतों ने योग शब्द की व्याख्या की है कि जीवात्मा का परमात्मा से संयोग ही योग कहलाता है । यह योग दो प्रकार का कहा गया है – क्रियात्मक योग तथा क्रियोपरम योग।क्रियात्मक योग में जप, ध्यान समाधि आदि का अभ्यास करना होता है, परंतु क्रियोपरम योग में क्रिया की पूर्ण निवृत्ति होती है तथा शुद्ध संवित् ही शेष रहती है। पाशुपत मत में यम, नियमों आदि पर भी काफी बल दिया गया है। पातञ्जल योग में चितवृत्तियों का विरोध योग होता है। परंतु पाशुपत मत में चित्तवृत्तियों के सांसारिक विषयों से पूर्णत: निवृत्त होने पर तथा संपूर्णत: ईश्वर में ही लगे रहने को योग कहते हैं। इस योग को प्राप्त करने के लिए जप, तप, रूद्रस्मरण और पाशुपत मत की विधि का पालन आवश्यक है जो इस योग के मुख्य अंग हैं। यह विधि एक विचित्र साधना है जो साधक को आलोचना और निन्दा का पात्र बना देती है तथा जो काफी विस्तृत है। इसमें आने वाले सभी पारिभाषिक शब्द यथा स्थान परिभाषित किए गए हैं। पाशुपत साधना का अपना विशेष अङ्ग यह विधि ही है जो अन्य साधना मार्गों में कही भी नहीं मिलती है।
पाशुपत लकुलीश ;
02 FACTS;-
1-प्रागैतिहासिक काल से प्रचलित पाशुपत शैव धर्म को वैदिक आर्यों के धर्म के साथ एकीकरण हो जाने के उपरांत तथा रामायण महाभारत के समय तक पूर्णरूपेण एक लोकधर्म बनने के उपरांत कालांतर में पाशुपत मत का एक अभिनव आविर्भाव हुआ तथा इस युग में इस मत के ऐतिहासिक संस्थापक का नाम लकुलीश अथवा लगुलीश है जिसके आविर्भाव का काल दूसरी शती का आरंभ माना जाता है। पुराण साहित्य से हमें ज्ञात होता है कि लकुलिन् अथवा नकुलिन् ने लोगों में पाशुपत अथवा माहेश्वर योग का प्रचार किया। इस नकुलिन् को भगवान शिव का अवतार माना गया है।परंतु इस लकुलीश का समय पूरी तरह निश्चित नहीं है कि कब हुआ था? कुछ विद्वानों ने इसको पतंजलि के समय 200 ई.पू. में रखा है तथा कई विद्वानों ने चन्द्रगुप्त द्वितीय के मथुरा शिलालेख के आधार पर ईसा की दूसरी शती में रखा है।
2-राजस्थान, गुजरात, काठियावाड़ उड़ीसा आदि कई स्थानों में मिले कई शिलालेखों में नकुलीश की मूर्ति खुदी हुई मिली है। तेरहवीं शती के श्रृंगारदेव चित्र प्रशस्ति में भी लकुलिन् का पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक के रूप में तथा उसके चार पुत्रों अथवा चार शिष्यों का उल्लेख हुआ है। चीनी यात्री ह्यूनसांग को हिन्दुकुश से दक्षिणभारत तक पाशुपत संन्यासी मिलते रहे। बादरायण, शंकर आदि ने भी उनके अनुयायियों का उल्लेख किया है। रामानुज (12वीं शती) ने भी पाशुपत शैवों के आचार का उल्लेख किया है। लकुलीश की जो पूर्ण या अर्धखंडित मूर्तियाँ मिली हैं, उन सबमें उसका मस्तक केशों से ढ़का हुआ है। दाएं हाथ में बीजपूर का फल तथा बाएं हाथ में लगुड (दण्ड) रहता है। लकुलीश के अवतार लेने के बारे में वायुपुराण, लिंगपुराण तथा कायावरोहण माहात्म्य में सामग्री मिलती है।
पिंगला नाडी;-
नाडी शब्द के विवरण में बताया गया है कि शरीर स्थित अनन्त नाडियों में से तीन नाडियँ मुख्य हैं – इडा, पिंगला और सुषुम्णा। इनमें से पिंगला नाडी शरीर के दक्षिण भाग में स्थित है, जो कि सूर्यात्मक माना जाता है। पिंगला नाडी दक्षिण मुष्क से उठकर धनुष की तरह तिरछे आकार में दाहिने गुर्दे और हंसुली में से होती हुई दक्षिण नासिका तक गतिशील रहती है। पिंगला नाडी खितरक्त वर्ण की है। इसमें सूर्य का संचार होता है। यह ऊर्ध्वगामिनी नाडी है। ज्ञानसंकलिनी तन्त्र (11-12 श्लो.) में पिंगला नाडी को यमुना बताया गया है। सकाम कर्मों का अनुष्ठान करने वाले जीवों को यह नाडी शुक्ल देवयान मार्ग से देवलोक में ले जाती है, जो कि अन्ततः पुनर्जन्म का कारण बनता है। इन नाडियों का शोधन किये बिना साधक कभी भी स्वात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं हो सकता। रेचक प्राणायाम करते समय पिंगला नाडी से ही वायु को बाहर निकाला जाता है।
पिंड;-
परिशुद्ध अंतःकरण वाले जीव को ‘पिंड’ कहते हैं। वीरशैव दर्शन में ‘आणव’ आदि मल-त्रय से आवृत परशिव का अंश ही जीव कहलाता है। यह अपने कर्मानुसार जन्म-मरण-चक्र में भ्रमण करता हुआ अनेक जन्मों में मन, वाणी तथा शरीर से जन्य पापों के प्रशमनार्थ यदि अनेक मनुष्य-जन्मों में पुण्य कार्य ही करता रहता है, तो उसके प्राक्तन नानाविध पाप ध्वस्त हो जाते हैं और वह पुण्यदेही बन जाता है, तथा उसमें शिवभक्ति का अंकुर उदित हो जाता है।शुद्ध अंतःकरण वाले इसी जीव को वीरशैव संतों ने ‘आदिपिंड’ कहा है। आदिपिंड कहने का उनका तात्पर्य यह है कि पहली बार इसका अंतःकरण शुद्ध हुआ है और उसमें शिवभक्ति का उदय हुआ है। यह अन्य जीवों से विलक्षण है। इसको ‘चरम-देही’ कहा जाता है, अर्थात् यही इसका चरम अंतिम देह है। अब इसका पुनर्जन्म नहीं होने वाला है। इसी जन्म में यह विवेक और वैराग्य को प्राप्त करके वीरशैवों की उपासना के क्रम से मुक्त हो जाता है।
पिंड-ज्ञानी;-
आत्मानात्म-विवेक-संपन्न जीव को वीरशैव दर्शन में ‘पिंडज्ञानी’ कहते हैं। शरीर आदि से आत्मा के पार्थक्य का ज्ञान ही ‘पिंडज्ञान’ है, अर्थात् नश्वर शरीर, इंद्रिय, मन तथा बुद्धि को अनात्मा जानकर उससे भिन्न सनातन और मुख्य अहं-प्रत्यय (मैं इस प्रकार के ज्ञान) के विषयीभूत चैतन्य को ही आत्मा समझना पिंडज्ञान है। इसे ‘आत्मानात्म विवेक’ और ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विज्ञान’ भी कहा गया है। इस विवेक से युक्त शुद्ध अंतःकरण वाला जीव ही ‘पिंड-ज्ञानी’ कहलाता है। यह शरीर आदि से अपने को भिन्न मानता हुआ भी शिव को भी अपने से भिन्न तथा अपना प्रेरक मानता है। इस तरह इसमें अभी भेदबुद्धि बनी रहती है ।
इस ‘पिंडज्ञानी’ को वीरशैव संतों ने ‘मध्य-पिंड’ कहा है। इसको ‘मध्य-पिंड’ इसलिये कहा जाता है कि अविवेकी-जीव और मुक्त जीव इन दोनों के बीच में इसकी स्थिति रहती है, अर्थात् आत्मानात्मा के विवेक का उदय होने से यह सामान्य संसारी जीवों से श्रेष्ठ है, और इसको अभी परशिव के साथ सामरस्य (एकता) का बोध नहीं हुआ है, अतः उन मुक्तात्माओं से यह कनिष्ठ है। इस प्रकार उन दोनों के मध्य अवस्थित होने से यह ‘मध्य – पिंड’ कहलाता है (तो.व.को. पृ.283)।दर्शन : वीरशैव दर्शन
पिंडस्थ ;-
जाग्रत् आदि दशाओं के भिन्न भिन्न नाम जो योगियों की परंपरा में प्रचलित हुए हैं उनमें जाग्रत् दशा को पिंडस्थ कहते हैं। पिंड स्थूल शरीर का नाम है। जाग्रत् में सारा व्यवहार स्थूल शरीर में ही ठहरता हुआ देखने में आता है। अतः इसे ऐसा नाम दिया गया है। शैवदर्शन में पिंडस्थ के चार भेद माने गए हैं और वे हैं – अबुद्ध (साधारण बद्ध प्राणी), बुद्ध (शास्त्रज्ञान वाला योगाभ्यासी साधक), प्रबुद्ध (योगज अनुभूति वाला साधक) और अप्रबुद्ध (परिपक्व ज्ञान वाला सिद्ध योगी)। पिण्ड ;-
मालिनीविजय तन्त्र तथा तन्त्रालोक में जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत अवस्थाओं का निरूपण पिण्ड, पद, रूप, रूपातीत तथा महाप्रचय अथवा सततोदित अवस्था के रूप में किया गया है। यहाँ जीवात्मा को पिण्ड बताया गया है। पिण्ड, अर्थात् शरीर को ही जीवात्मा मानने वाला यह जीव अबुद्ध, बुद्ध, प्रबुद्ध और सुप्रबुद्ध के भेद से चार प्रकार का होता है। मालिनीविजय में कुलचक्र की व्याप्ति के (19/30-48) और शिवज्ञान के प्रसंग में भी पिण्ड पद का विवरण मिलता है। जैन तन्त्र ग्रन्थ ज्ञानार्णव के 34 वे प्रकरण में पिण्डरूप ध्यान का वर्णन है। वहाँ इस ध्यान में पाँच प्रकार की धारणाएँ बताई गई हैं। योगिनीहृदय में वर्णित है कि कन्द, अर्थात् पिण्ड में कामरूप पीठ की स्थिति है। दीपिकाकार ने पिण्ड, अर्थात् कुण्डलिनी शक्ति का स्थान मूलाधार बताया है। वहीं अन्यत्र इसको विघ्नरूप माना है। इसलिये 3/137 की व्याख्या में अमृतानन्द द्वारा उद्धृत एक प्रामाणिक वचन में बताया गया है कि इससे मुक्त होने पर ही वास्तविक मुक्ति मिलती है। कौलज्ञाननिर्णय में एक स्थान पर पिण्ड का अर्थ स्थान, दूसरे स्थान पर बद्ध आत्मा किया है। वहीं यह भी बताया गया है कि इसके आठ भेद होते हैं। आणव उपाय के प्रसंग में भी शब्द की चर्चा आ चुकी है।
....SHIVOHAM...
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