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क्या बाहर और भीतर या संसार और मोक्ष एक है?

''संसार और मोक्ष एक है''।यह सूत्र हमारी समझ में नहीं आ सकता, क्योंकि हमें बाहर का संसार जोर से पकड़े हुए है।इस सूत्र से हम एकदम घबड़ा जाएंगे क्योंकि संसार से हम पीड़ित है। मोक्ष इसके विपरीत है ...जहां हम मुक्त शांत ,आनंदित , सुखी होंगे ....जहां कोई दुख न होगा। हमारा मोक्ष हमारे संसार के विपरीत होनेवाला है। लेकिन जब कोई व्यक्ति मुक्त होता है तो इस जगत में कोई चीज विपरीत नहीं रह जाती; सब विपरीत समाप्त हो जाते हैं।तब बाहर और भीतर का फासला खो जाता है; क्योंकि सारा फासला अहंकार की दीवाल का है।उदाहरण के लिए संत कबीर कपड़ा बुनते रहे ..जुलाहे थे और जुलाहे बने रहे। शिष्यों ने बहुत बार कहा कि ‘ अब यह शोभा नहीं देता कि आप कपड़ा बुनो, कि आप बाजार में बेचने जाओ; आप गृहस्थ नहीं हो।’संत कबीर हंसते। वे कहते : ‘सब उसी का खेल है। बाहर और भीतर एक है।’''जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ''॥जब पानी भरने जाएं तो घड़ा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो बाहर और भीतर पानी ही रहता है ...पानी की ही सत्ता है।जब घड़ा फूट जाए तो उसका जल..जल में ही मिल जाता है ..अलगाव नहीं रहता।

आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है. अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है – जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है. एकाकार हो जाती है। अहंकार खड़ा है, उससे दीवाल बनी है। लेकिन फासला है ..सिर्फ एक मिट्टी की दीवाल—! .वह मिट्टी की दीवाल टूट गयी तो जो बाहर है, वही भीतर है; जो भीतर है, वही बाहर है।इसलिए संत कबीर कहते है क्या बाहर और क्या भीतर..: ‘उठना -बैठना मेरी पूजा है। चलना -फिरना मेरी उपासना है।’ अब संत कबीर मंदिर नहीं जाते; क्योंकि अब दुकान और मंदिर में कोई फासला नहीं।वह बाजार से हिमालय नहीं भागते क्योकि अब बाजार और हिमालय में कोई फासला नहीं है।वह अब अपने घर को भी छोड़कर नहीं भागते; क्योंकि अब अपने और पराये में भी कोई फासला नहीं है।भागकर भी कहां जा सकते हैं ...अहंकार के गिरते ही सारे फासले गिर जाते हैं। तब न कुछ बाहर है, न कुछ भीतर है। तब न तो पदार्थ है और न परमात्मा है; तब दोनों एक है। वह है अद्वैत ..जहां सब एक हो जाता है ...सब सीमाएं विलीन हो जाती हैं।

लेकिन वह तभी होता है, जब जीवन में सहज स्वतंत्रता फलित हो। तो ऐसा व्यक्ति स्वतंत्र स्वभाव के कारण अपने से बाहर भी जा सकता है, और वह अपने बाहर स्थित रहते हुए, अपने अंदर भी रह सकता है। उसे कोई बाधा नहीं है। वह महल में रहे तो भी संन्यासी है; वह संन्यासी होकर सड़क पर खड़ा रहे तो भी महल में है। उसके पास करोड़ों रुपयों का ढेर लगा हो तो भी वह अपरिग्रही है। और, उसके पास कुछ भी न हो, तो भी उससे बड़ा परिग्रही नहीं; क्योंकि सारा संसार उसका है।परन्तु हमें पहचानना कठिन है, क्योंकि हम एक हिस्से से परिचित है। वह जो घड़े के भीतर जल है और जो घड़े के बाहर है , वह अलग मालूम होता है। तुम्हारे भीतर जो छिपा है, वही तुम्हारे बाहर भी है। तुम्हारे भीतर जो आकाश है, वही आकाश बाहर भी है। और तुम्हारा शरीर मिट्टी के घड़े से ज्यादा नहीं है ...जो थोडा सा फासला किये हुए मालूम पड़ता है। संसार और संन्यास दो नहीं हैं। दो दिखायी पड़ते हैं, क्योंकि हम एक को ही अथार्त संसार को जानते है ... संन्यास को नहीं जानते। इसलिए हम संसार के आधार पर ही संन्यास की कल्पना भी करते हैं।हमारे संन्यास की धारणा भी संसार से ही फलित होती है।हम उसको संन्यासी कहते हो जो हमसे बिलकुल विपरीत है।

हम कहते हैं ''अरे देखो, कैसे महान संन्यासी हैं! बिना जूते पैदल चलते हैं, धूप में खड़े हैं, वर्षा झेलते है, घास -पात में सोते हैं '।हमारे लिए राजा जनक और श्री कृष्ण संन्यासी नहीं हो सकते।क्योकि मोर मुकुट बांधे है; बांसुरी बजा रहे है।लेकिन जब तुम्हारी बुद्धि की गुलामी समाप्त होगी और तुम्हारे भीतर का सत्य मुक्त होगा, तब तुम जानोगे कि मोक्ष सब जगह है; दुकान या साम्राज्य उसके लिए बाधा नहीं है क्योंकि मुक्ति तुम्हारे अपने अनुभव की दशा है।तुम मुक्त हुए कि सब तरफ से संसार खो जाता है।बाहर भीतर सब एक है। पूजा और दुकान बराबर है। तब व्यक्ति जीवन को स्वीकार कर लेता है, जैसा है, उसमें फिर रत्ती भर भेद करने की कोई जरूरत नहीं। इसलिए ऐसा भी हुआ कि कसाई और परम गृहस्थ भी ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हो गये और ऐसा भी होता है कि सब छोड़कर भागा हुआ संन्यासी भी भटकता रहता है और ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध नहीं हो पाता।स्वतंत्र स्वभाव के कारण वह अपने से बाहर भी जा सकता है और बाहर स्थित रहते हुए अपने अंदर भी रह सकता है क्योकि अब वह मुक्त है। अब अगर तुमने मुक्त की परिभाषा की तो तुम उसे न पहचान पाओगे। मुक्त की कोई परिभाषा नहीं है; न ही उसका कोई लक्ष्य है।जिसका बाहर भीतर मिट गया हो, वह कहीं भी हो सकता है।जिसने व्यर्थ को अलग कर दिया है, उसके भीतर सार्थक के फूल खिल जाते है; उसके जीवन में एक महिमा प्रगट होती है, जो साधारणतया नहीं प्रगट होती।

एक शुभ अगर अशुभ से डरा है, तो वह बहुत मूल्य का नहीं है।साधु असाधु से डरा होता है।संत असाधु से डरा नहीं होता; क्योकि संत दोनों के पार चला गया है। संत वही है, जिसे अब कोई भी स्थिति बदल न सके। वह बाहर रहकर भी भीतर ही बना रहता है। वह संसार में भी रहे तो भी संसार उसके भीतर प्रवेश नहीं करता।संन्यास की परम दशा वही है कि जब तुम नदी से गुजर जाओ, लेकिन पानी तुम्हारे पैरों को न छुए। तुम नदी से गुजरने से डरो, यह कोई परम अवस्था नहीं है; यह तो भय की अवस्था है।तो हमें ध्यान देना है कि मन को शत्रु नहीं बनाना है; मन के पार जाना है और मन के पार जाने का सूत्र है ...साक्षी भाव।जैसे ही तुम मन के पार गये, सहज स्वतंत्रता , मुक्तता घटित होगी।और उस मुक्तता का किसी से कोई विरोध नहीं है।लड़ना नहीं है, क्योंकि तुम जिससे लड़े, तो तुम उसी के तल पर ,वहीं पर रुक जाओगे।तुम ऐसी मुक्ति दशा में पहुंच जाओ , जहां अपने से बाहर रहो या भीतर ....कोई फर्क नहीं पड़ता; क्योंकि बाहर भीतर का फासला ही गिर गया। संसार और मोक्ष तो एक हैं।तब सब द्वंद्व,द्वैत समाप्त हो गया और अद्वंद्व, अद्वैत की स्थिति आ गयी ।

....SHIVOHAM.....
















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