विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 23,24वीं विधियां (13-24 केंद्रित होने की) का विवेचन क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि;- 23- 12 FACTS;- 1-भगवान शिव कहते है: - ‘’अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो। इस एक को छोड़कर अन्य सभी विषयों की अनुपस्थिति को अनुभव करो। फिर विषय-भाव और अनुपस्थिति भाव को भी छोड़कर आत्मोपलब्ध होओ।‘’ 2-''अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो।''कोई भी विषय,कोई भी वस्तु ले सकते है । उदाहरण के लिए एक कमल का फूल है ..परन्तु केवल देखने से काम नहीं चलेगा, अनुभव करना है।तुम कमल के फूल को देखते हो, लेकिन उससे तुम्हारा ह्रदय आंदोलित नहीं होता है क्योंकि तुम उसे अनुभव नहीं करते हो।और तुम्हारा देखना भी पूरा नहीं है ,अधूरा है। तुम कभी किसी चीज को पूरा नहीं देखते क्योंकि अतीत हमेशा बीच में आता है।कमल को देखते ही अतीत-स्मृति कहती है कि यह कमल है और यह कहकर तुम आगे बढ़ जाते हो। लेकिन जब मन कहता है कि यह कमल है तो उसका अर्थ हुआ कि तुम इसके बारे में सब कुछ जानते हो, क्योंकि तुमने बहुत कमल देखे है .. अब और क्या जानना है और आगे बढ़ जाते हो। यह देखना नहीं है बल्कि यह देखना अधूरा है। 3-कमल के फूल के साथ रहो ,देखो और फिर उसे महसूस , अनुभव करो। अनुभव करने के लिए उसे स्पर्श करो, उसे सूंघो ।पहले अपनी आंखों को बंद करो और कमल को अपने पूरे चेहरे को छूने दो। इस स्पर्श को महसूस करो। फिर कमल को आँख से स्पर्श करो। फिर कमल को नाक से सूंधो। फिर कमल को ह्रदय के पास ले जाओ ;अपना भाव अर्पित करो और उसके साथ मौन हो जाओ। सारी दूनिया को भूल जाओ ...कमल के साथ समग्रत: रहो।इस एक को छोड़कर अन्य सभी विषयों की अनुपस्थिति को अनुभव करो।यदि तुम्हारा मन अन्य चीजों के संबंध में सोच रहा है तो कमल का अनुभव गहरा नहीं जाएगा। सभी अन्य फूलों को, सभी अन्य लोगों को, सब कुछ भूल जाओ। केवल इस कमल को रहने दो ...तुम्हें आच्छादित कर लेने दो। समझो कि तुम इस कमल में डूब गये हो। 4-यह कठिन होगा, क्योंकि हम इतने संवेदनशील नहीं है। स्त्रियों किसी चीज को आसानी से महसूस कर सकती है। लेकिन पुरूषों के लिए यह ज्यादा कठिन होगा। परन्तु कवि, चित्रकार या संगीतकार का सौंदर्य बोध विकसित होता है इसलिए वे आसानी से अनुभव कर सकते है।बच्चे भी इस विधि को बहुत आसानी से कर सकते है। लेकिन हम उन्हें इसमें प्रशिक्षित नहीं करते। बच्चे किसी चीज को आसानी से अनुभव कर सकते है।यदिउन्हें प्रशिक्षित किया जाए तो बच्चे सर्वश्रेष्ठ ध्यानी हो सकते है।एक बच्चे को कमल का फूल दिया गया और उससे यह सब कहा गया। उसने यह किया और कहा कि मैं कमल का फूल बन गया हूं।वास्तव में, भाव यही है कि ''मैं ही कमल का फूल हूं।''प्रेम में भी यही घटित होता है। अगर तुम किसी के प्रेम में हो तो तुम सारे संसार को भूल जाते हो। और अगर अभी भी संसार तुम्हें याद है तो भली भांति समझो कि यह प्रेम नहीं है। इसलिए मीराबाई का गिरधर प्रेम ध्यान है। तुम इस विधि को भक्ति शाखा की प्रेम-विधि के रूप में भी उपयोग कर सकते हो। अब अन्य सब कुछ भूल जाओ। 5-अगर तुम शेष संसार को भूल सको तो ही तुम किसी विषय के प्रेम में हो सकते हो। चाहे वह कमल या गुलाब का फूल हो या पत्थर हो या कोई भी वस्तु हो, शर्त यही है कि उसकी उपस्थिति महसूस करो और अन्य की अनुपस्थिति महसूस करो। केवल वही विषय वस्तु तुम्हारी चेतना में अस्तित्वगत रूप से रहे।अच्छा हो कि इस विधि के प्रयोग के लिए कोई ऐसी वस्तु चुनो जो तुम्हें प्रीतिकर हो। अपने सामने एक चट्टान रखकर शेष संसार को भूलना कठिन होगा लेकिन झेन सदगुरूओं ने यह भी किया है।उन्होंने ध्यान के लिए रॉक गार्डन बना रखा है ;जहां पेड़-पौधे या फूल नहीं होते ..पत्थर और बालू होते है। और वे पत्थर पर ध्यान करते है। 6-वे कहते है कि अगर किसी पत्थर के प्रति तुम्हारा गहन प्रेम हो तो कोई भी व्यक्ति तुम्हारे लिए बाधा नहीं हो सकता; और मनुष्य चट्टान जैसे ही तो है बल्कि उससे भी ज्यादा पथरीले। उन्हें तोड़ना ..प्रवेश करना अति कठिन है। अगर तुम चट्टान को प्रेम कर सकते हो तो मनुष्य को प्रेम करने में क्या कठिनाई।तब कोई अड़चन नहीं है।लेकिन अच्छा हो कि कोई ऐसी वस्तु चुनो जिसके प्रति तुम्हारा सहज प्रेम हो।और तब शेष संसार को भूल जाओ ,उसकी उपस्थिति का आनंद लो।उस वस्तु में गहरे उतरो और उस वस्तु को अपने में गहरा उतरने दो।अब इस विधि का कठिन अंश आता है। तुमने पहले ही सब विषय छोड़ दिए है। सिर्फ यह एक विषय तुम्हारे लिए रहा है। सबको भूलकर एक इसे तुमने याद रखा था। अब ‘’विषय भाव को छोड़कर….अथार्त अब उस भाव को भी छोड़ दो।अब तो दो ही है, एक विषय की उपस्थिति है और शेष वस्तु की अनुपस्थिति है।अब उस अनुपस्थिति को भी छोड़ दो। केवल यह कमल ...उसे भी छोड़ दो और उसके प्रति जो भाव है, उसे भी... ।अब तुम अचानक एक आत्यंतिक शून्य में गिर जाते हो। जहां कुछ भी नहीं बचता। 7-ध्यान विधि 23 और रामकृष्ण परमहंस... 05 POINTS;- 1-रामकृष्ण की चेतना इतनी ठोस थी कि वह जिस रूप की इच्छा करते थे, वह उनके लिए एक हकीकत बन जाती थी। इस स्थिति में होना किसी भी इंसान के लिए बहुत ही सुखद होता है। हालांकि रामकृष्ण का शरीर, मन और भावनाएं आनंद से सराबोर थे, मगर उनका अस्तित्व इस आनंद से परे परमानंद तक जाने के लिए बेकरार था। उनके अंदर कहीं न कहीं एक जागरूकता थी कि यह 'आनं'द परमानंद तक जाने के मार्ग में एक बंधन है।रामकृष्ण परमहंस ने अपना ज्यादातर जीवन एक परम भक्त की तरह बिताया। वह माँ काली के भक्त थे। उनके लिए माँ काली कोई देवी नहीं थीं, वह एक जीवित हकीकत थी।माँ काली उनके सामने नाचती थीं, उनके हाथों से खाती थीं, उनके बुलाने पर आती थीं और उन्हें आनंदविभोर छोड़ जाती थीं। यह वास्तव में होता था, यह घटना वाकई होती थी। उन्हें कोई मतिभ्रम नहीं था, वह वाकई माँ काली को खाना खिलाते थे। 2-एक दिन, रामकृष्ण हुगली नदी के तट पर बैठे थे, जब एक महान और दुर्लभ योगी तोतापुरी उसी रास्ते से निकले। तोतापुरी जैसे योगी हमारे देश में बहुत कम हुए हैं। तोतापुरी ने देखा कि रामकृष्ण में इतनी तीव्रता और संभावना है कि परम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मगर समस्या यह थी कि वह सिर्फ अपनी भक्ति में डूबे हुए थे।तोतापुरी रामकृष्ण के पास आए और उन्हें समझाने की कोशिश की, ‘आप क्यों सिर्फ अपनी भक्ति में ही इतने लीन हैं? आपके अंदर इतनी क्षमता है कि चरम को ,परमानंद को छू सकते हैं।’ रामकृष्ण बोले, ‘मैं सिर्फ माँ काली को चाहता हूं, बस।’ वह एक बच्चे की तरह थे जो सिर्फ अपनी मां को चाहता था। इससे बहस करना संभव नहीं था। यह बिल्कुल भिन्न अवस्था होती है। 3-रामकृष्ण माँ काली को समर्पित थे और उनकी दिलचस्पी सिर्फ माँ काली में थी। जब वह उनके भीतर प्रबल होतीं, तो वह आनंदविभोर हो जाते और नाचना-गाना शुरू कर देते। जब वह थोड़े मंद होते और माँ काली से उनका संपर्क टूट जाता, तो वह किसी शिशु की तरह रोना शुरू कर देते। वह ऐसे ही थे। इसलिए तोतापुरी जिस परमज्ञान की बात कर रहे थे, उन सब में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।तोतापुरी ने कई तरीके से उन्हें समझाने की कोशिश की मगर रामकृष्ण समझने के लिए तैयार नहीं थे। साथ ही, वह तोतापुरी के सामने बैठना भी चाहते थे क्योंकि तोतापुरी की मौजूदगी ही कुछ ऐसी थी।तोतापुरी ने देखा कि रामकृष्ण इसी तरह अपनी भक्ति में लगे हुए हैं। फिर वह बोले, ‘यह बहुत आसान है। फिलहाल आप अपनी भावनाओं को शक्तिशाली बना रहे हैं, अपने शरीर को समर्थ बना रहे हैं, अपने भीतर के रसायन को शक्तिशाली बना रहे हैं। लेकिन आप अपनी जागरूकता को शक्ति नहीं दे रहे। आपके पास जरूरी ऊर्जा है मगर आपको सिर्फ अपनी जागरूकता को सक्षम बनाना है।’ 4-रामकृष्ण मान गए और बोले, ‘ठीक है, मैं अपनी जागरूकता को और शक्तिशाली बनाउंगा और अपनी पूरी जागरूकता में बैठूंगा।’मगर जिस पल उन्हें माँ काली के दर्शन होते, वह फिर से प्रेम और आनंद की बेकाबू अवस्था में पहुंच जाते। वह चाहे कितनी भी बार बैठते, माँ काली को देखते ही उड़ने लगते।फिर तोतापुरी बोले, ‘अगली बार जब भी माँ काली दिखें, आपको एक तलवार लेकर उनके टुकड़े करने हैं।’ रामकृष्ण ने पूछा, ‘मुझे तलवार कहां से मिलेगी?’ तोतापुरी ने जवाब दिया, ‘वहीं से, जहां से आप माँ काली को लाते हैं।अगर आप एक पूरी माँ काली बनाने में समर्थ हैं, तो आप तलवार क्यों नहीं बना सकते? आप ऐसा कर सकते हैं। अगर आप एक देवी बना सकते हैं, तो उसे काटने के लिए एक तलवार क्यों नहीं बना सकते? तैयार हो जाइए।’रामकृष्ण बैठे ,मगर जैसे ही माँ काली आईं, वहआनंद में डूब गए और तलवार, जागरूकता के बारे में सब कुछ भूल गए। 5-फिर तोतापुरी ने उनसे कहा, ‘इस बार जैसे ही माँ काली आएंगी...’ उन्होंने शीशे का एक टुकड़ा उठाते हुए कहा, ‘शीशे के इस टुकड़े से मैं आपको वहां पर काटूंगा, जहां पर आप फंसे हुए हैं। जब मैं उस जगह को काटूंगा, तब आप तलवार तैयार करके माँ काली को काट दीजिएगा।’ रामकृष्ण फिर से बैठे और ठीक जिस समय रामकृष्ण परमानंद में डूबने ही वाले थे, जब उन्हें माँ काली के दर्शन हुए, उसी समय तोतापुरी ने शीशे के उस टुकड़े से रामकृष्ण के माथे पर एक गहरा चीरा लगा दिया। उसी समय, रामकृष्ण ने अपनी कल्पना में तलवार बनाई और माँ काली के टुकड़े कर दिए, इस तरह वह मां और मां से मिलने वाले आनंद से मुक्त हो गए। अब वह वास्तव में एक परमहंस और पूर्ण ज्ञानी बन गए। उस समय तक वह एक प्रेमी थे, भक्त थे, उस देवी मां के बालक थे, जिन्हें उन्होंने खुद उत्पन्न किया था। 8]-भगवान शिव कहते है: - ''आत्मोपल्बध होओ।''वास्तव में, शून्य में सीधे पहुंचना कठिन होगा—कठिन और श्रम-साध्य। इसलिए किसी विषय को माध्यम बनाकर वहां अच्छा है। इस शून्य को, इस ना-कुछ को उपलब्ध हो, यही तुम्हारा स्वभाव है, यही शुद्ध होना है ।पहले किसी विषय को अपने मन में ले लो और उसे इस समग्रता से अनुभव करो; कि किसी अन्य चीज को याद रखने की जरूरत न रहे।तुम्हारी समस्त चेतना इस एक चीज से भर जाए। और तब इस विषय को भी छोड़ दो, इसे भी भूल जाओ। तब तुम किसी अगाध अतल में प्रविष्ट हो जाते हो। जहां कुछ भी नहीं है। वहां केवल तुम्हारी आत्मा है; शुद्ध और निष्कलुष। यह शुद्ध अस्तित्व यह शुद्ध चैतन्य ही तुम्हारा स्वभाव है। 9-लेकिन इस विधि को कई चरणों में बांटकर प्रयोग करो। पूरी विधि को एकबारगी काम में मत लाओ। पहल एक विषय का भाव निर्मित करो। कुछ दिन तक सिर्फ इस हिस्से का प्रयोग करो। पूरी विधि का प्रयोग मत करो। पहले कुछ दिनों तक या कुछ हफ्तों तक इस एक हिस्से की, पहले हिस्से की साधना करो। विषय-भाव पैदा करो। पहले विषय को महसूस करो। और एक ही विषय चुनो, उसे बार-बार बदलों मत। क्योंकि हर बदलते विषय के साथ तुम्हें फिर-फिर उतना ही श्रम करना होगा। अगर तुमने विषय के रूप में कमल का फूल चुना है तो रोज-रोज कमल के फूल का ही उपयोग करो। उस कमल के फूल से तुम भर जाओ। भरपूर हो जाओ। ऐसे भर जाओ कि एक दिन कह सको की मैं फूल ही हूं। तब विधि का पहला हिस्सा सध गया, पूरा हूआ। 10-जब फूल ही रह जाए और शेष सब कुछ भूल जाए, तब इस भाव का कुछ दिनों तक आनंद लो। यह भाव अपने आप में बहुत सुंदर है , बहुत प्राणवान और शक्तिशाली है। कुछ दिनों तक यही अनुभव करते रहो। और जब तुम उसके साथ लयवद्ध हो जाओगे, तो फिर वह सरल हो जाएगा। फिर उसके लिए संघर्ष नहीं करना होगा। तब फूल अचानक प्रकट होता है। और समस्त संसार भूल जाता है। केवल फूल रहता है।इसके बाद विधि के दूसरे भाग पर प्रयोग करो। अपनी आँख बंद कर लो और फूल को भी भूल जाओ। याद रहे, अगर तुमने पहल भाग को ठीक-ठीक साधा है तो दूसरा भाग कठिन नहीं होगा। लेकिन यदि पूरी विधि पर एक साथ प्रयोग करोगे तो दूसरा भाग कठिन ही नहीं असंभव होगा। पहले भाग में अगर तुमने एक फूल के लिए सारी दुनियां को भूला दिया तो दूसरे भाग में शून्य के लिए फूल को भूलाना आसानी से हो सकेगा। दूसरा भाग आएगा। लेकिन उसके लिए पहला भाग पहले करना जरूरी है। 11-लेकिन मन बहुत चालाक है। मन सदा कहेगा कि पूरी विधि को एक साथ प्रयोग करो। लेकिन उसमे तुम सफल नहीं हो सकते हो। और तब मन कहेगा कि यह विधि काम की नहीं है या यह तुम्हारे लिए नही है।इसलिए अगर सफल होना चाहते हो तो विधि को क्रम में प्रयोग करो। पहले प्रथम भाग को पूरा करो और तब दूसरे भाग को हाथ में लो। और तब विषय भी विलीन हो जाता है और मात्र तुम्हारी चेतना रहती है...शुद्ध प्रकाश, शुद्ध ज्योति-शिखा।कल्पना करो कि तुम्हारे पास दीया है, और दिए की रोशनी अनेक वस्तुओ पर पड़ रही है। मन की आंखों से देखो कि तुम्हारे अंधेरे कमरे में अनेक वस्तु है और तुम एक दिया वहां लाते हो दीया उन सब वस्तुओ को प्रकाशित करता है जिन्हें तुम वहां देखते हो। 12-लेकिन अब तुम उनमें से एक विषय चुन लो, और उसी विषय के साथ रहो। दीया वहीं है, लेकिन अब उसकी रोशनी एक ही विषय पर पड़ती है। फिर उस एक विषय को भी हटा दो। और तब दीए के लिए कोई विषय नहीं बचा। वही बात तुम्हारी चेतना के लिए सही है। तुम प्रकाश हो, ज्योति शिखा हो और सारा संसार तुम्हारा विषय है। तुम सारे संसार को छोड़ देते हो और एक विषय पर अपने को एकाग्र करते हो। तुम्हारी ज्योति शिखा वही रहती है। लेकिन अब वह अनेक विषयों में व्यस्त नहीं है। वह एक ही विषय में व्यस्त है। और फिर उस एक विषय को भी छोड़ दो।अचानक तब सिर्फ प्रकाश.. चेतना बचती है। वह प्रकाश किसी विषय को नहीं प्रकाशित कर रहा है।उपनिषदो ने इसे ही ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान कहा है। इसी को गौतम बुद्ध ने निर्वाण , महावीर ने कैवल्य , परम एकांत कहा है। भगवान शिव कहते है कि अगर तुम इस विधि को साध लो तो तुम ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हो जाओगे।
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि;- 24-
09 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है: -
‘’जब किसी व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में कोई भाव उठे तो उसे उस व्यक्ति पर मत आरोपित करे।‘’
2-यह सूत्र कहता है कि जब किसी के प्रति घृणा, प्रेम या कोई और भाव पक्ष या विपक्ष में पैदा हो तो उसको, उस भाव को उस व्यक्ति पर आरोपित मत करो।बल्कि स्मरण रखो कि उस भाव का स्त्रोत तुम स्वयं हो।वास्तव में,अगर हमें किसी के विरूद्ध घृणा अनुभव हो या किसी के लिए प्रेम अनुभव होती है तो हम उस घृणा या प्रेम को उस व्यक्ति पर आरोपित कर देते है।उस घृणा के ही कारण तुम अपने को बिलकुल भूल जाते हो और वह व्यक्ति तुम्हारा एक मात्र लक्ष्य या विषय बन जाता है।
वैसे ही जब तुम किसी को प्रेम करते हो ..तो भी तुम अपने को बिलकुल ही भूल जाते हो और उसे अपना एक मात्र विषय बना लेते हो। तुम अपनी घृणा को ,प्रेम को या जो भी भाव हो, उसे दूसरे पर प्रक्षेपित कर देते हो। उस दशा में तुम आंतरिक केंद्र को भूल जाते हो और दूसरे को अपना केंद्र बना लेते हो।
3-अगर कोई कहता है कि 'मैं तुम्हें प्रेम करता हूं' तो इसमें सामान्य भाव यह है कि तुम उसके प्रेम के स्त्रोत हो। लेकिन यह तथ्य नहीं है ; यह हकीकत नहीं, झूठ है। वह व्यक्ति ही स्त्रोत है, तुम तो महज वह पर्दा हो जिस पर वह अपने प्रेम को प्रक्षेपित
करता है।इस प्रेम की ऊर्जा की प्रभा में पड़ कर तुम सुंदर हो जाते हो।हो सकता है, किसी के लिए तुम सुंदर न होओ या किसी के लिए तुम बिलकुल कुरूप और विकर्षण से भरे होओ।परंतु ऐसा होता है कि कोई तुम पर प्रेम आरोपित करता है तो तुम सुंदर हो जाते हो।कोई दूसरा व्यक्ति तुम पर घृणा आरोपित करता है और तुम कुरूप हो जाते हो।अगर तुम ही प्रेम के स्त्रोत
होते तो प्रत्येक व्यक्ति को तुम्हारे प्रति प्रेमपूर्ण होना चाहिए।लेकिन तुम स्त्रोत नहीं हो।और हो सकता है कि कोई तीसरा व्यक्ति तुम्हारे प्रति बिलकुल उदासीन हो, तटस्थ हो जिसने तुम्हें देखा तक न हो।वास्तव में, हम अपने-अपने भाव दूसरों पर फैला रहे है।
4-यही कारण है कि पूर्णिमा की रात्रि में चंद्रमा तुम्हें सुंदर, चमत्कारपूर्ण और अपूर्व दिखाई देता है। उस समय सारा संसार तुम्हें अपूर्व मालूम देता है। और हो सकता है उसी रात तुम्हारे पड़ोसी के लिए अद्भुत रात्रि अस्तित्व में न हो। और अगर उसका बच्चा मर गया हो। तो वही चाँद उसके लिए उदास, दुःखी और असहनीय मालूम पड़ेगा। और वही चाँद तुम्हारे लिए इतना मोहक है। क्या चंद्रमा स्त्रोत है, आधार है? वास्तव में,यह चंद्रमा केवल पर्दा है जिस पर तुम अपने को फैला रहे हो।
प्रक्षेपित कर रहे हो।यह सूत्र कहता है: ‘’जब किसी व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में कोई भाव उठे तो उसे उस व्यक्ति पर मत
आरोपित करो, बल्कि केंद्रित रहो।‘’यहां व्यक्ति की जगह कोई वस्तु भी हो सकती है। विषय के रूप में कुछ भी काम देगा। तुम सदा केंद्रित रहो। याद रहे कि तुम स्त्रोत हो और विषय की और गति करने की बजाएं स्त्रोत की और गति करो।
5-जब घृणा का भाव उठे तो घृणा के विषय पर जाने की बजाएं उस बिंदु पर जाना बेहतर है जहां पर घृणा आ रही है। उस व्यक्ति को मत खोजों जो इस घृणा का विषय है। लक्ष्य है; उस केंद्र को खोजों जहां से घृणा उठ रही है। केंद्र की तरफ चलो, भीतर जाओ अपनी घृणा या प्रेम या जो भी भाव हो उसे केंद्र की , स्त्रोत की या उदगम की ओर यात्रा का साधन बनाओ।
यह बहुत ही मनोवैज्ञानिक विधि है..उदगम पर जाओ, और वहां केंद्रित रहो।इसे प्रयोग करो।किसी ने तुम्हारा अपमान किया और तुम क्रोधित हो गए, ज्वरग्रस्त हो गए। अभी तुम्हारा यह क्रोध उस आदमी की ओर प्रवाहित हो रहा है; जिसने तुम्हें अपमानित किया। तुम अपने पूरे क्रोध को ..उस आदमी पर प्रक्षेपित कर रहे हो; जिसने तुम्हें अपमानित किया है। अगर उसने तुम्हें अपमानित किया है तो वास्तव में, उसने केवल तुम्हें थोड़ा कुरेदा है..उसने तुम्हारे क्रोध को उभरने में थोड़ा सहायता कर दी। लेकिन यह क्रोध वास्तव में ..तुम्हारा है।
6-वह व्यक्ति श्री राम या गौतम बुद्ध के पास जाए और उन्हें अपमानित करे तो वह उनमें कोई क्रोध पैदा नहीं कर सकेगा। वह अगर जीसस के पास जाए तो जीसस उसे अपना दूसर गाल भी हाजिर कर देंगे। और बोधिधर्म के पाए जाए तो वह अट्टहास
कर उठेंगे। यह व्यक्ति पर निर्भर है।इसलिए दूसरा व्यक्ति स्त्रोत नहीं है। स्त्रोत सदा तुम्हारे भीतर है। दूसरा सिर्फ स्त्रोत पर चोट कर रहा है। लेकिन अगर तुम्हारे भीतर क्रोध नहीं है तो क्रोध बाहर नहीं आएगा। यदि तुम किसी बुद्ध को चोट करो तो
करूणा आएगी क्योंकि वहां क्रोध नहीं है।एक सूखे कुएं में बाल्टी डालों तो कुछ भी हाथ नहीं आता। पानी वाले कुएं में बाल्टी डालों और वह पानी से भरकर बाहर आती है। लेकिन पानी कुएं में है। कुआं स्त्रोत है। बाल्टी तो पानी को बाहर लाने का
निमित मात्र है।
7-जो व्यक्ति तुम्हें अपमानित करता है वह बाल्टी का काम करता है। वह तुम्हारे भीतर से तुम्हारे क्रोध, घृणा या किसी भी आग को बाहर ले आता है। तो स्मरण रहे कि तुम स्त्रोत हो।इस विधि के लिए विशेष रूप से इस बात को
ध्यान में रख लो कि दूसरों पर तुम जो भी भाव प्रक्षेपित करते हो उसका स्त्रोत सदा तुम्हारे भीतर है। इसलिए जब भी कोई भाव पक्ष या विपक्ष में उठे तो तुरंत भीतर प्रवेश करो और उस स्त्रोत के पास पहु्ंचो जहां से यह भाव उठ रहा है। स्त्रोत पर केंद्रित रहो, विषय की चिंता ही छोड़ दो। किसी ने तुम्हें तुम्हारे क्रोध को जानने का मौका दिया है। इसके लिए उसे तुरंत धन्यवाद दो और उसे भूल जाओ। फिर आंखें बंद कर लो और अपने भीतर सरक जाओ। और उस स्त्रोत पर ध्यान दो जहां से यह प्रेम या क्रोध का भाव उठ रहा है।भीतर गति करने पर तुम्हें वह स्त्रोत मिल जाएगा। क्योंकि घृणा हो या प्रेम, सब भाव तुम्हारे
उसी स्त्रोत से आते है।
8-इस स्त्रोत के पास उस समय पहुंचना आसान है जब तुम क्रोध या प्रेम या घृणा सक्रिय रूप से अनुभव करते हो। इस क्षण में भीतर प्रवेश करना आसान होता है। जब तार गर्म है तो उसे पकड़कर भीतर जाना आसान होता है। और भीतर जाकर जब तुम एक शीतल बिंदु पर पहुंचोगे तो अचानक एक भिन्न आयाम, एक दूसरा ही संसार सामने खुलने लगता है।
इसलिए क्रोध, घृणा या प्रेम जो भी हो उसका उपयोग अंतर्यात्रा के लिए करो। हम सदा दूसरों की तरफ गति करने में इन भावों का उपयोग करते हे। और जब अपने भाव आरोपित करने के लिए हमें कोई नहीं मिलता तो बड़ी निराशा लगती है। तब हम अपने भावों को निर्जीव वस्तुओं पर भी आरोपित करने लगते है। ऐसे-लोग देखे गए है जो अपने जूतों पर क्रोध करते है और क्रोध से उन्हें फेंकते है ;जो घर के दरवाजे पर क्रोध करते है, क्रोध में उसे खोलते है, उसे गालियां तक देते है।
9-उदाहरण के लिए एक बहुत बड़े झेन सदगुरू लिंची कहते थे कि ''मैं जब युवा था तो मुझे नौका-विहार
का बहुत शौक था। मेरे पास एक छोटी सी नाव थी और उसे लेकर में अक्सर अकेला झील की सैर करता था। मैं घंटों झील में
रहता था।एक दिन ऐसा हुआ कि मैं अपनी नाव में आँख बंद कर सुंदर रात पर ध्यान कर रहा था। तभी एक खाली नाव उलटी दिशा में आई और मेरी नाव से टकरा गई। मेरी आंखे बंद थी। इसलिए मैंने मन में सोचा कि किसी व्यक्ति ने अपनी नाव मेरी
नाव से टकरा दी है और मुझे क्रोध आ गया।मैंने आंखें खोली और मैं उस व्यक्ति को क्रोध में कुछ कहने ही जा रहा था कि मैंने देखा कि दूसरी नाव खाली है। अब मुझे कुछ करने का कोई उपाय न रहा। किस पर यह क्रोध प्रकट करूं? नाव तो खाली है। और वह नाव धार के साथ बहकर आई थी और मेरी नाव से टकरा गई थी।अब मेरे लिए कुछ भी करने को न था। एक खाली
नाव पर क्रोध उतारने की कोई संभावना न थी। तब फिर एक ही उपाय बाकी रहा। मैंने आंखें बंद कर ली। और अपने क्रोध को पकड़ कर उलटी दिशा में बहने लगा। और मैं पहुँच गया अपने केंद्र पर। वह खाली नाव मेरे आत्म ज्ञान का कारण बन गई। उस मौन रात में मैं आपने भीतर सरक गया।और क्रोध मेरी सवारी बन गया। और खाली नाव मेरी गुरु हो गई''।और
फिर लिंची ने कहा, ''अब जब कोई व्यक्ति मेरा अपमान करता है तो मैं हंसता हूं और कहता हूं कि यह नाव भी खाली है। मैं आंखें बंद करता हूं और अपने भीतर चला जाता हूं''।इसीलिए इस विधि को प्रयोग करो। यह तुम्हारे लिए चमत्कार कर सकती है।
...SHIVOHAM....
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