विज्ञान भैरव तंत्र की श्वास-क्रिया से संबंधित,ध्यान की महत्वपूर्ण नौ विधियां क्या है?PART-01
क्या तंत्र विज्ञान है, दर्शन नहीं?-
03 FACTS;-
1-विज्ञान भैरव तंत्र का अर्थ ही है- चेतना के पार जाने की विधि।तंत्र शब्द का अर्थ ही है विधि, उपाय, मार्ग। तंत्र का अर्थ विधि है। इसलिए यह एक विज्ञान ग्रंथ है। विज्ञान 'क्यों' की नहीं, 'कैसे' की फिक्र करता है। दर्शन और विज्ञान में यही बुनियादी भेद है। दर्शन पूछता है.. यह अस्तित्व क्यों है? विज्ञान पूछता है: यह अस्तित्व कैसे है?दर्शन को समझना आसान है, क्योंकि उसके लिए सिर्फ मस्तिष्क की जरूरत पड़ती है। लेकिन, तंत्र को समझने के लिए तुम्हारे बदलने की जरूरत होगी, बदलाहट की नहीं, आमूल बदलाहट की जरूरत होगी। जब तक तुम बिल्कुल भिन्न नहीं हो जाते हो, तब तक तंत्र को नहीं समझा जा
सकता। क्योंकि तंत्र बौद्धिक प्रस्तावना ही नहीं बल्कि एक अनुभव भी है। विज्ञान भैरव तंत्र देवी के प्रश्नों से शुरू होता है। देवी ऐसे प्रश्न पूछती हैं, जो दार्शनिक मालूम होते हैं। लेकिन शिव उत्तर उसी ढंग से नहीं देते। देवी पूछती हैं- प्रभो आपका सत्य क्या है? शिव इस प्रश्न का उत्तर न देकर उसके बदले में एक विधि देते हैं। अगर देवी इस विधि से गुजर जाएँ तो वे उत्तर पा जाएँगी। इसलिए उत्तर परोक्ष है, प्रत्यक्ष नहीं।
2-शिव नहीं बताते कि मैं कौन हूँ, वे एक विधि भर बताते हैं। वे कहते हैं : यह करो और तुम जान जाओगे। तंत्र के लिए करना ही जानना है। तुम एक प्रश्न पूछते हो और दर्शन एक उत्तर दे देता है, उससे तुम चाहे संतुष्ट होते हो या नहीं होते हो, यदि संतुष्ट हुए तो उस दर्शन के अनुयायी हो जाते हो, लेकिन तुम वही के वही रहते हो। और यदि संतुष्ट नहीं हुए तो दूसरे दर्शन की खोज में निकल चलते हो, जिनसे संतुष्टि मिल सके। लेकिन, तुम वही के वही रहते हो, अछूते, अपरिवर्तित।इसलिए तंत्र समाधान
नहीं देता, समाधान को उपलब्ध होने की विधि देता है। अगर तुम अंधे आदमी को प्रकाश के बारे में कुछ कहोगे, तो वह कहना बौद्धिक होगा। और अगर अंधा स्वयं देखने में सक्षम हो जाता है, तो वह अस्तित्वगत बात होगी।
3-इस अर्थ में तंत्र अस्तित्वगत है।तंत्र के सभी ग्रंथ शिव और देवी के बीच संवाद हैं। देवी पूछती हैं और शिव जवाब देते हैं। सभी तंत्र-ग्रंथ ऐसे ही शुरू होते हैं। तंत्र की एक निश्चित अवस्था , ढंग है।दलील के लिए उसमें जगह नहीं है, शब्दों का वहाँ अपव्यय नहीं है। उसमें तथ्यों के सीधे-सादे वक्तव्य हैं, जो तारनुमा भाषा में, संक्षिप्ततम रूप में कहे गए हैं। उसमें किसी से मनवाने का आग्रह नहीं है, मात्र बताने की बात है।शिव के ये वचन अति संक्षिप्त हैं, सूत्र रूप में हैं। लेकिन, शिव का प्रत्येक सूत्र एक वेद की हैसियत का है। उनका एक अकेला वाक्य एक महान शास्त्र का, धर्मग्रंथ का आधार बन सकता है।
ध्यान की नौ विधियां में श्वास-क्रिया का महत्व;-
05 FACTS;-
1-आरंभ की नौ विधियां श्वास-क्रिया से संबंध रखती है। इसलिए पहले हम श्वास-क्रिया के
संबंध में थोड़ा समझ लें ।हम जन्म से मृत्यु के क्षण तक निरंतर श्वास लेते रहते है। इन दो बिंदुओं के बीच सब कुछ बदल जाता है। कुछ भी बदले बिना नहीं रहता। लेकिन जन्म और मृत्यु के बीच श्वास क्रिया अचल रहती है। बच्चा जवान होगा, जवान बूढ़ा होगा। वह बीमार होगा ,उसका शरीर रूग्ण और कुरूप होगा। सब कुछ बदल जायेगा। वह सुखी होगा, दुःखी होगा, पीड़ा में होगा, सब कुछ बदलता रहेगा। लेकिन इन दो बिंदुओं के बीच व्यक्ति सतत श्वास लेता रहेगा।
2-श्वास क्रिया एक सतत प्रवाह है, उसमें अंतराल संभव नहीं है। अगर तुम एक क्षण के लिए भी श्वास लेना भूल जाओं तो तुम समाप्त हो जाओगे। यही कारण है कि श्वास लेने का जिम्मा तुम्हारी नहीं है। नहीं तो मुश्किल हो जायेगी। कोई श्वास
लेना भूल जाये तो फिर कुछ भी नहीं किया जा सकता।इसलिए यथार्थ में तुम श्वास नहीं लेते हो, क्योंकि उसमे तुम्हारी जरूरत नहीं है। तुम गहरी नींद में हो और श्वास चलती रहती है। तुम गहरी मूर्च्छा में हो और श्वास चलती रहती है। श्वासन तुम्हारे
व्यक्तित्व का एक अचल तत्व है। दूसरी बात यह जीवन कमें अत्यंत आवश्यक और आधारभूत है। इसलिए जीवन और श्वास पर्यायवाची हो गये। इसलिए भारत में उसे प्राण कहते है। श्वास और जीवन को हमने एक शब्द दिया। प्राण का अर्थ है, जीवन
शक्ति,जीवंतता। तुम्हारा जीवन तुम्हारी श्वास है।तीसरी बात श्वास तुम्हारे और तुम्हारे शरीर के बीच एक सेतु है। सतत श्वास तुम्हें तुम्हारे शरीर से जोड़ रही है ,संबंधित कर रही है।
3-श्वास सिर्फ तुम्हारे और तुम्हारे शरीर के बीच ही सेतु नहीं है, बल्कि वह तुम्हारे और विश्व के बीच भी सेतु है। तुम्हारा शरीर विश्व का अंग है। शरीर की हरेक चीज, हरेक कण, हरेक कोश विश्व का अंश है। यह विश्व के साथ निकटतम संबंध है। और श्वास सेतु है। और अगर सेतु टूट जाये तो तुम शरीर में नहीं रह सकते। तुम किसी अज्ञात आयाम में चले जाओगे। इस
लिए श्वास तुम्हारे और देश काल के बीच सेतु हो जाती है। श्वास के दो बिंदु है, दो छोर है। एक छोर है जहां वह शरीर और विश्व को छूती है। और दूसरा वह छोर है जहां वह विश्वातीत को छूती है। और हम श्वास के एक ही हिस्से से परिचित है। जब वह विश्व में, शरीर में गति करती है। लेकिन वह सदा ही शरीर से अशरीर में गति करती है। अगर तुम दूसरे बिंदू को, जो सेतु है, धुव्र है, जान जाओं तो तुम एकाएक रूपांतरित होकर एक दूसरे ही आयाम में प्रवेश कर जाओगे।
4-लेकिन शिव जो कहते है वह योग नहीं तंत्र है। योग भी श्वास पर काम करता है। लेकिन योग और तंत्र के काम में बुनियादी फर्क है। योग श्वास-क्रिया को व्यवस्थित करने की चेष्टा करता है। अगर तुम अपनी श्वास को व्यवस्था दो तो तुम्हारा स्वास्थ सुधर जायेगा। इसके रहस्यों को समझो, तो तुम्हें स्वास्थ और दीर्घ जीवन मिलेगा। तुम ज्यादा स्ट्रांग ,ज्यादा
ओजस्वी, ज्यादा जीवंत, ज्यादा ताजा हो जाओगे। लेकिन तंत्र का इससे कुछ लेना देना नहीं है। तंत्र स्वास की व्यवस्था की चिंता नहीं करता। भीतर की और मुड़ने के लिए वह श्वास क्रिया का उपयोग भर करता है। तंत्र में साधक को किसी विशेष ढंग की श्वास का अभ्यास नहीं करना चाहिए। कोई विशेष प्राणायाम नहीं साधना है, प्राण को लयवद्ध नहीं बनाना है; बस उसके कुछ विशेष बिंदुओं के प्रति बोधपूर्ण होना है।
5-श्वास प्रश्वास के कुछ बिंदु है जिन्हें हम नहीं जानते। हम सदा श्वास लेते है। श्वास के साथ जन्मते है, श्वास के साथ मरते है। लेकिन उसके कुछ महत्व पूर्ण बिंदुओं को बोध नहीं है। और यह हैरानी की बात है। मनुष्य अंतरिक्ष की गहराइयों में उतर रहा है, खोज रहा है, वह चाँद पर पहुंच गया है। लेकिन वह अपने जीवन के इस निकटतम विंदु को समझ नहीं सका। श्वास के कुछ बिंदु है, तुम्हारे निकटतम द्वार है, जिनसे होकर तुम एक दूसरे ही संसार में, एक दूसरे ही अस्तित्व में, एक दूसरी ही
चेतना में प्रवेश कर सकते हो।लेकिन वह बिंदु बहुत सूक्ष्म है;जिसे तुमने कभी देखा नहीं है। । जो चीज जितनी निकट हो उतनी ही कठिन मालूम पड़ेगी, श्वास तुम्हारे इतना करीब है, कि उसके बीच स्थान ही नहीं बना रहता। या इतना अल्प स्थान है कि उसे देखने के लिए बहुत सूक्ष्म दृष्टि चाहिए। तभी तुम उन बिंदुओं के प्रति बोध पूर्ण हो सकते हो। ये बिंदु इन विधियों के आधार है।
ध्यान की पहली विधि का वर्णन;-
06 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है: -
''हे देवी, यह अनुभव दो श्वासों के बीच घटित हो सकता है। जब श्वास भीतर अथवा नीचे को आती है उसके बाद फिर श्वास के लौटने के ठीक पूर्व..श्रेयस्/Superior है। इन दो बिंदुओं के बीच होश पूर्ण होने से घटना घटती है''।
जब तुम्हारी श्वास भीतर आये तो उसका निरीक्षण करो। उसके फिर बाहर या ऊपर के लिए मुड़ने के पहले एक क्षण के लिए, या क्षण के हज़ारवें भाग के लिए श्वास बंद हो जाती है। श्वास भीतर आती है, और वहां एक बिंदु है जहां वह ठहर जाती है। फिर श्वास बाहर जाती है। और जब श्वास बाहर जाती है। तो वहां एक बिंदु पर ठहर जाती है। और फिर वह भीतर के लौटती
है। श्वास के भीतर या बाहर के लिए मुड़ने के पहले एक क्षण है जब तुम श्वास नहीं लेते हो। उसी क्षण में घटना घटनी संभव है। क्योंकि जब तुम श्वास नहीं लेते हो तो तुम संसार में नहीं होते हो। समझ लो कि जब तुम श्वास नहीं लेते हो तब तुम मृत हो; तुम तो हो, लेकिन मृत। लेकिन यह क्षण इतना छोटा है कि तुम उसे कभी देख नहीं पाते।
2-तंत्र के लिए प्रत्येक बहिर्गामी श्वास मृत्यु है और प्रत्येक नई श्वास पुनर्जन्म है। भीतर आने वाली श्वास पुनर्जन्म है; बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु है। बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु का पर्याय है; अंदर जाने वाली श्वास जीवन का। इसलिए प्रत्येक श्वास के साथ तुम मरते हो और प्रत्येक श्वास के साथ तुम जन्म लेते हो। दोनों के बीच का अंतराल बहुत क्षणिक है, लेकिन पैनी दृष्टि, शुद्ध निरीक्षण और अवधान से उसे अनुभव किया जा सकता है। और यदि तुम उस अंतराल को अनुभव कर सको तो शिव कहते है कि श्रेयस् उपलब्ध है। तब और किसी चीज की जरूरत नहीं है। तब तुम आप्तकाम हो गए। तुमने जान लिया;
घटना घट गई। श्वास को प्रशिक्षित नहीं करना। वह जैसी है उसे वैसी ही बनी रहने देना। फिर इतनी सरल विधि क्यों? सत्य को जानने को ऐसी सरल विधि? सत्य को जानना उसको जानना है। जिसका न जन्म है न मरण। तुम बाहर जाती श्वास को जान सकते हो, तुम भीतर जाती श्वास को जान सकते हो। लेकिन तुम दोनों के अंतराल को कभी नहीं जानते।
3-प्रयोग करो और तुम उस बिंदु को पा लोगे। उसे अवश्य पा सकते हो। वह है। तुम्हें या तुम्हारी संरचना में कुछ जोड़ना नहीं है। वह है ही। सब कुछ है; सिर्फ बोध नहीं है। कैसे प्रयोग करो? पहले भीतर आने वाली श्वास के प्रति होश पूर्ण बनो। उसे देखो। सब कुछ भूल जाओ और आने वाली श्वास को, उसके यात्रा पथ को देखो। जब श्वास नासापुटों को स्पर्श करे तो उसको महसूस करो। श्वास को गति करने दो और पूरी सजगता से उसके साथ यात्रा करो। श्वास के साथ ठीक कदम से कदम मिलाकर नीचे उतरो; न आगे जाओ और ने पीछे पड़ो। उसका साथ न छूटे; बिलकुल साथ-साथ चलो।
स्मरण रहे, न आगे जाना है और न छाया की तरह पीछे चलना है। समांतर चलो।श्वास और सजगता को एक हो जाने दो। श्वास नीचे जाती है तो तुम भी नीचे जाओं; और तभी उस बिंदु को पा सकते हो, जो दो श्वासों के बीच में है। यह आसान नहीं
है। श्वास के साथ अंदर जाओ; श्वास के साथ बाहर आओ।
4-गौतम बुद्ध ने इसी विधि का प्रयोग विशेष रूप से किया। बौद्ध शब्दावली में इसे अनापानसति योग कहते है। और स्वयं बुद्ध की आत्मोपलब्धि इस विधि पर ही आधारित थी। संसार के सभी धर्म, संसार के सभी द्रष्टा किसी न किसी विधि के जरिए मंजिल पर पहुंचे है। और वह सब विधियां इन एक सौ बारह विधियों में सम्मिलित है। दुनिया इस पहली विधि को बौद्ध विधि के
रूप में जानती है। क्योंकि बुद्ध इसके द्वारा ही निर्वाण को उपलब्ध हुए थे।गौतम बुद्ध ने कहा कि अपनी श्वास-प्रश्वास के प्रति सजग रहो। अंदर जाती, बाहर आती, श्वास के प्रति होश पूर्ण हो जाओ। बुद्ध अंतराल की चर्चा नहीं करते। क्योंकि उसकी जरूरत ही नहीं है। बुद्ध ने सोचा और समझा कि अगर तुम अंतराल की, दो श्वासों के बीच के विराम की फिक्र करने लगे, तो उससे तुम्हारी सजगता खंडित होगी। इसलिए उन्होंने सिर्फ यह कहा कि होश रखो, जब श्वास भीतर आए तो तुम भी उसके साथ भीतर जाओ और जब श्वास बाहर आये तो तुम उसके साथ बाहर आओ।
5-विधि के दूसरे हिस्से के संबंध में बुद्ध कुछ नहीं कहते।इसका कारण यह है कि बुद्ध बहुत साधारण लोगों से,
सीधे-सादे लोगों से बोल रहे थे। वे उनसे अंतराल की बात करते तो उससे लोगों में अंतराल को पाने की एक अलग कामना निर्मित हो जाती। और यह अंतराल को पाने की कामना बोध में बाधा बन जाती। क्योंकि अगर तुम अंतराल को पाना चाहते हो तो तुम आगे बढ़ जाओगे; श्वास भीतर आती रहेगी। और तुम उसके आगे निकल जाओगे। क्योंकि तुम्हारी दृष्टि अंतराल पर है जो भविष्य में है। बुद्ध कभी इसकी चर्चा नहीं करते; इसीलिए गौतम बुद्ध की विधि आधी है।लेकिन दूसरा हिस्सा अपने आप
ही चला आता है। अगर तुम श्वास के प्रति सजगता का, बोध का अभ्यास करते गए तो एक दिन अनजाने ही तुम अंतराल को पा जाओगे। क्योंकि जैसे-जैसे तुम्हारा बोध तीव्र, गहरा और सघन होगा, जैसे-जैसे तुम्हारा बोध स्पष्ट आकार लेगा। जब सारा संसार भूल जाएगा। बस श्वास का आना जाना ही एकमात्र बोध रह जाएगा ;तब अचानक तुम उस अंतराल को अनुभव करोगे।
6-जिसमें श्वास नहीं है।अगर तुम सूक्ष्मता से श्वास-प्रश्वास के साथ यात्रा कर रहे हो तो उस स्थिति के प्रति अबोध कैसे रह सकते हो। जहां श्वास नहीं है। वह क्षण आ ही जाएगा जब तुम महसूस करोगे। कि अब श्वास न जाती है, न आती है। श्वास
क्रिया बिलकुल ठहर गई है। और उसी ठहराव में श्रेयस् का वास है।यह एक विधि लाखों-करोड़ों लोगों के लिए पर्याप्त है। सदियों तक समूचा एशिया इस एक विधि के साथ जीया और उसका प्रयोग करता रहा ।इस एक विधि के द्वारा हजारों-हजारों व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हुए। और यह पहली ही विधि है। दुर्भाग्य की बात कि चूंकि यह विधि बुद्ध के नाम से संबंद्ध हो गई। इसलिए हिंदू इस विधि से बचने की चेष्टा में लगे रहे। क्योंकि यह बौद्ध विधि की तरह बहुत प्रसिद्ध हुई। हिंदू इसे बिलकुल भूल गये। इतना ही नहीं, उन्होंने और एक कारण से इसकी अवहेलना की। क्योंकि शिव ने सबसे पहले इस विधि का उल्लेख किया, अनेक बौद्धों ने इस विज्ञान भैरव तंत्र के बौद्ध ग्रंथ होने का दावा किया। वे इसे हिंदू ग्रंथ नहीं मानते।यह न हिंदू है और न बौद्ध, और विधि मात्र विधि है। बुद्ध ने इसका उपयोग किया, लेकिन यह उपयोग के लिए मौजूद ही थी।और इस विधि के चलते बुद्ध-गौतम बुद्ध हुए। विधि तो बुद्ध से भी पहले थी।अन्य विधियों की तुलना में.. यह सरलतम विधियों में से एक है।यही कारण है कि पहली विधि की तरह इसका उल्लेख हुआ है।
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ध्यान की दूसरी विधि का वर्णन;-
09 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:
''जब श्वास नीचे से ऊपर की और मुड़ती है, और फिर जब श्वास ऊपर से नीचे की और मुड़ती है ...इन दो मोड़ों के द्वारा
उपलब्ध हो''।
2-थोड़े फर्क के साथ यह वही विधि है; और अब फोकस अंतराल पर न होकर मोड़ पर है। बाहर जाने वाली और अंदर जाने वाली श्वास एक वर्तुल बनाती है। याद रहे, वे समांतर रेखाओं की तरह नहीं है। हम सदा सोचते है कि आने वाली श्वास और जाने वाली श्वास दो समांतर रेखाओं की तरह है। मगर वे ऐसी है नहीं। भीतर आने वाली श्वास आधा वर्तुल बनाती है। और शेष आधा वर्तुल बाहर जाने वाली श्वास बनाती है।और वे समांतर रेखाएं नहीं है; क्योंकि समांतर रेखाएं कही नहीं मिलती है।
दूसरी यह कि आने वाली और जाने वाली श्वास दो नहीं है। वे एक है। वही श्वास भीतर आती है, बाहर भी जाती है। इसलिए भीतर उसका कोई मोड़ अवश्य होगा। वह कहीं जरूर मुड़ती होगी। कोई बिंदु होगा, जहां आने वाली श्वास जाने
वाली श्वास बन जाती होगी।लेकिन मोड़ पर इतना जोर इसीलिए है क्योंकि शिव कहते है कि मोड़ों को प्राप्त कर लो तो आत्मा को उपलब्ध हो जाओगे।
3-वास्तव में, अगर तुम कार चलाना जानते हो तो तुम्हें गियर का पता होगा। हर गियर बदलते हो तो तुम्हें न्यूट्रल गियर से गुजरना पड़ता है जो कि गियर बिलकुल नहीं है। तुम पहले गियर से दूसरे गियर में जाते हो और दूसरे से तीसरे गियर में। लेकिन सदा तुम्हें न्यूट्रल गियर से होकर जाना पड़ता है। वह न्यूट्रल गियर घुमाव का बिंदु ,मोड़ है। उस मोड़ पर पहला
गियर दूसरा गियर बन जाता है। और दूसरा तीसरा बन जाता है। वैसे ही जब तुम्हारी श्वास भीतर जाती है और घूमने लगती है तो उस वक्त वह न्यूट्रल गियर में होती है। नहीं तो वह नहीं धूम सकती। उसे तटस्थ क्षेत्र से गुजरना पड़ता है।
उस तटस्थ क्षेत्र में तुम न तो शरीर हो और न मन ही हो; न शारीरिक हो, न मानसिक हो। क्योंकि शरीर तुम्हारे अस्तित्व का एक गियर है और मन उसका दूसरा गियर है। तुम एक गियर से दूसरे गियर में गति करते हो, इस लिए तुम्हें एक न्यूट्रल गियर की जरूरत है जो न शरीर हो और न मन हो। उस तटस्थ क्षेत्र में तुम मात्र हो, मात्र अस्तित्व–शुद्ध, सरल, अशरीरी और मन से मुक्त। यही कारण है कि घुमाव बिंदु पर, मोड़ पर इतना जोर है।
4-मनुष्य एक बहुत बड़ा और जटिल यंत्र है। तुम्हारे शरीर और मन में भी अनेक गियर है।हम एक महान यंत्र है लेकिन हमें उस महान यंत्र रचना का बोध नहीं है और अच्छा है कि बोध नहीं है अन्यथा हम पागल हो जाते ।शरीर ऐसा विशाल यंत्र है कि वैज्ञानिक कहते है, अगर हमें शरीर के समांतर एक कारखाना निर्मित करना पड़े तो उसे चार वर्ग मिल जमीन की जरूरत होगी। और उसका शोरगुल इतना भारी होगा कि उससे सौ वर्ग मील भूमि प्रभावित होगी।शरीर एक विशालतम यांत्रिक
रचना है जिसमे लाखों कोशिकांए है, और प्रत्येक कोशिका जीवित है। तुम सात करोड़ कोशिकाओं के एक विशाल नगर में हो; तुम्हारे भीतर सात करोड़ नागरिक बसते है; और सारा नगर बहुत शांति और व्यवस्था से चल रहा है। प्रतिक्षण यंत्र-रचना काम कर रही है और वह बहुत जटिल है।कई स्थलों पर इन विधियों का तुम्हारे शरीर और मन की एक यंत्र-रचना के साथ
वास्ता पड़ेगा। लेकिन जोर सदा ही उन बिंदुओं पर रहेगा जहां तुम अचानक यंत्र-रचना के अंग नहीं रह जाते हो। जब एकाएक तुम यंत्र रचना के अंग नहीं रहे तो ये वही क्षण है जब तुम गियर बदलते हो।
5-उदाहरण के लिए, रात जब तुम नींद में उतरते हो तो तुम्हें गियर बदलना पड़ता है। कारण यह है कि दिन में जागी हुई चेतना के लिए दूसरे ढंग की यंत्र रचना की जरूरत रहती है। तब मन का भी एक दूसरा भाग काम करता है। और जब तुम नींद में उतरते हो तो वह भाग निष्क्रिय हो जाता है। और अन्य भाग सक्रिय होता है। उस क्षण वहां एक अंतराल, एक मोड़ आता है। एक गियर बदला। फिर सुबह जब तुम जागते हो तो गियर बदलता है।तुम चुपचाप बैठे हो और अचानक
कोई कुछ कह देता है, और तुम क्रुद्ध हो जाते हो। तब तुम भिन्न गियर में चले गए। यही कारण है कि सब कुछ बदल जाता है। तुम क्रोध में हुए तो श्वास क्रिया बदल जायेगी , क्रिया में कंपन आ जाएगा, खून की लय दूसरी होगी। शरीर में और ही तरह का रस द्रव्य सक्रिय होगा। तुम्हारी श्वास अस्तव्यस्त हो जायेगी;पूरी ग्रंथि व्यवस्था ही बदल जाएगी।यह घुटन जाए इसके लिए किसी चीज को चूर-चूर कर देना चाहेगा। क्रोध में तुम कुछ दूसरे ही हो जाते हो।
6-एक कार खड़ी है, तुम उसे स्टार्ट करो। उसे किसी गियर में न डालकर न्यूट्रल गियर में छोड़ दो। गाड़ी हिलेगी, कांपेगी, लेकिन चलेगी नहीं। वह गरम हो जाएगी। इसी तरह क्रोध में नहीं कुछ कर पाने के कारण तुम गरम हो जाते हो। यंत्र रचना तो कुछ करने के लिए सक्रिय है और तुम उसे कुछ करने नहीं देते तो उसका गरम हो जाना स्वाभाविक है। तुम एक यंत्र-रचना हो, लेकिन मात्र यंत्र-रचना नहीं हो। उससे कुछ अधिक हो। उस अधिक को खोजना है। जब तुम गियर बदलते हो तो भीतर सब कुछ बदल जाता है .. एक मोड़ आता है।’मोड़ पर सावधान हो जाओ, सजग हो जाओ। लेकिन यह मोड़ बहुत
सूक्ष्म है और उसके लिए बहुत सूक्ष्म निरीक्षण की जरूरत पड़ेगी। हमारी निरीक्षण की क्षमता नहीं के बराबर है; हम कुछ देख ही नहीं सकते।उदाहरण स्वरूप तुम्हें एक फूल दिया जाए तो तुम उसे नहीं देख पाओगे। एक क्षण को तुम उसे देखोगें और फिर किसी और चीज के संबंध में सोचने लगोगे। वह सोचना फूल के विषय में हो सकता है। लेकिन वह फूल नहीं हो सकता। लेकिन तब तुम फूल से दूर हट गए ; वह तुम्हारे निरीक्षण क्षेत्र में नहीं रहा। क्षेत्र बदल गया। तुम कहोगे कि यह लाल है, नीला है, लेकिन तुम उस फूल से दूर चले गए।
7-निरीक्षण का अर्थ होता है: किसी शब्द या शाब्दिकता के साथ, भीतर की बदलाहट के साथ न रहकर मात्र फूल के साथ रहना। अगर तुम फूल के साथ ऐसे तीन मिनट रह जाओ, जिसमे मन कोई गति न करे, तो श्रेयस् घट जाएगा। तुम उपलब्ध हो
जाओगे।लेकिन हम निरीक्षण बिलकुल नहीं जानते है। हम सावधान नहीं है, सतर्क नहीं है, हम किसी भी चीज को अपना अवधान नहीं दे पाते है। हम तो यहां-वहां उछलते रहते है। वह हमारी वंशगत विरासत है, बंदर-वंश की विरासत। बंदर के मन से ही मनुष्य का मन विकसित हुआ है। बंदर शांत नहीं बैठ सकता। इसीलिए बुद्ध मात्र बैठने पर इतना जौर देते है। क्योंकि
तब बंदर-मन का अपनी राह चलना बंद हो जाता है।जापान में एक खास तरह का ध्यान चलता है जिसे झा-झेन कहते है। झा झेन शब्द का जापानी में अर्थ होता है, मात्र बैठना और कुछ भी नहीं करना। कुछ भी हलचल नहीं करनी है, मूर्ति की तरह मृतवत्, अचल वर्षों बैठे रहना है । लेकिन मूर्ति की तरह वर्षों बैठने की जरूरत नहीं है अगर तुम अपने श्वास के घुमाव को अचल मन से देख सको ।तब तुम स्वयं में ,अंतर के भी पार ,प्रवेश पा जाओगे।
8-लेकिन ये मोड़ इतने महत्वपूर्ण है,क्योंकि मोड़ पर दूसरी दिशा में घूमने के लिए श्वास तुम्हें छोड़ देती है।जब वह भीतर
आ रही थी तो तुम्हारे साथ थी; फिर जब वह बाहर जाएगी तो तुम्हारे साथ होगा। लेकिन घुमाव-बिंदु पर न वह तुम्हारे साथ है और न तुम उसके साथ हो। उस क्षण में श्वास तुमसे भिन्न है और तुम उससे भिन्न हो। अगर श्वास क्रिया ही जीवन है तो तब
तुम मृत हो। अगर श्वास-क्रिया तुम्हारा मन है तो उस क्षण तुम अ-मन हो।तुम्हें पता हो या न हो, अगर तुम अपनी श्वास को ठहरा दो तो मन अचानक ठहर जाता है। अगर तुम अपनी श्वास को ठहरा दो तो तुम्हारा मन अभी और अचानक ठहर जाएगा; मन चल नहीं सकता। श्वास का अचानक ठहरना मन को ठहरा देता है। क्योंकि वे पृथक हो जाते है। केवल चलती हुई श्वास मन से शरीर से जुड़ी होती है। अचल श्वास अलग हो जाती है। और तब तुम न्यूट्रल गियर में होते हो।
9-कार चालू है, शोर मचा रही है,ऊर्जा भाग रही है, आगे जाने को तैयार है। लेकिन वह गियर में ही नहीं है। इसलिए कार का शरीर और कार का यंत्र-रचना, दोनों अलग-अलग है। कार दो हिस्सों में बंटी है। वह चलने को तैयार है, लेकिन गति का यंत्र
उससे अलग है। वही बात तब होती है जब श्वास मोड़ लेती है। उस समय तुम उससे नहीं जुड़े हो और उस क्षण तुम आसानी से जान सकते हो कि मैं कौन हूं, यह होना क्या है, उस समय तुम जान सकते हो कि शरीर रूपी घर के भीतर कौन है, इस घर का स्वामी कौन है। मैं मात्र घर हूं या वहां कोई स्वामी भी है, मैं मात्र यंत्र रचना हूं, या उसके परे भी कुछ है। और शिव कहते है कि उस घुमाव बिंदु पर उपलब्ध हो। वे कहते है, उस मोड़ के प्रति बोधपूर्ण हो जाओ और तुम आत्मोपलब्ध हो।
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ध्यान की तीसरी विधि का वर्णन;-
10 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:
''जब कभी अंत: श्वास और बहिर्श्वास एक दूसरे में विलीन होती है, उस क्षण में ऊर्जारहित, ऊर्जापूरित केंद्र को स्पर्श करो''।
2-हम केंद्र और परिधि में विभाजित है। शरीर परिधि है और हम शरीर को, अथार्त परिधि को जानते है। लेकिन हम यह नहीं जानते कि कहां केंद्र है। जब बहिर्श्वास अंत:श्वास में विलीन होती है.. जब वे एक हो जाती है। जब तुम यह नहीं कह सकते कि यह अंत:श्वास है कि बहिर्श्वास, जब यह बताना कठिन हो कि श्वास भीतर जा रही है या बाहर जा रही है। जब श्वास भीतर प्रवेश कर बाहर की तरफ मुड़ने लगती है, तभी विलय का क्षण है। तब श्वास न बाहर जाती है और न भीतर आती है। श्वास गतिहीन है। जब वह बाहर जाती है, गतिमान है, जब वह भीतर आती है, गतिमान है। और जब वह दोनों में कुछ भी नहीं करती है। तब वह मौन है, अचल है..और तब तुम केंद्र के निकट हो।
3-आने वाली और जाने वाली श्वासों का यह विलय विंदु तुम्हारा केंद्र है। उदाहरण के लिए जब श्वास भीतर जाती है तो
वह तुम्हारे केंद्र को जाती है। और जब वह बाहर जाती है तो केंद्र से बाहर जाती है। इसी केंद्र को स्पर्श करना है। यही कारण हे कि ताओ वादी संत और झेन संत कहते है कि सिर तुम्हारा केंद्र नहीं है, नाभि तुम्हारा केंद्र है। श्वास नाभि-केंद्र को जाती है, फिर वहां से लौटती है, फिर उसकी यात्रा करती है।श्वास तुम्हारे और तुम्हारे शरीर के बीच सेतु है।तुम शरीर को
तो जानते हो, लेकिन यह नहीं जानते कि केंद्र कहां है। श्वास निरंतर केंद्र को जा रही है और वहां से लौट रही है। लेकिन हम पर्याप्त श्वास नहीं लेते है। इस कारण से साधारण: वह केंद्र तक नहीं पहुंच पाती है। खासकर आधुनिक समय में तो वह केंद्र तक नहीं जाती। और नतीजा यह है कि हरेक व्यक्ति विकेंद्रित अनुभव करता है। अपने को केंद्र से च्यूत महसूस करता है। पूरे आधुनिक संसार में जो लोग भी थोड़ा सोच-विचार करते है। वे महसूस करते है कि उनका केंद्र खो गया है।
3-एक सोए हुए बच्चे को देखो, उसकी श्वास का निरीक्षण करो। जब उसकी श्वास भीतर जाती है तो उसका पेट ऊपर उठता है। उसकी छाती अप्रभावित रहती है। यही वजह है कि बच्चों के छाती नहीं होती। उनके केवल जीवंत पेट होते है। श्वास प्रश्वास के साथ उनका पेट ऊपर नीचे होता है और बच्चे अपने केंद्र पर होते है। यही कारण है कि बच्चे इतने सुखी , इतने आनंदमग्न ,और इतनी ऊर्जा से भरे है कि कभी थकते नहीं । वे सदा वर्तमान क्षण में होते है। न उनका अतीत है न
भविष्य। एक बच्चा क्रोध कर सकता है। जब वह क्रोध करता है तो समग्रता से क्रोध करता है। वह क्रोध ही हो जाता है। और तब उसका क्रोध भी कितना सुंदर लगता है। जब कोई समग्रता से क्रोध ही हो जाता है। तो उसके क्रोध का भी अपना सौंदर्य
है। क्योंकि समग्रता सदा सुंदर होती है।तुम एक साथ”क्रोधी और सुंदर नहीं हो सकते। क्रोध में तुम कुरूप लगोगे। क्योंकि खंड सदा कुरूप होता है। क्रोध के साथ ही ऐसा नहीं है। तुम प्रेम भी करते हो तो कुरूप लगते हो। क्योंकि उसमे भी तुम खंडित हो, बंटे-बंटे हो।तुम्हारे प्रेम में भी द्वंद्व है,तुम अपने प्रेम में भी समग्र नहीं हो। तुम कुछ बचाकर रख रहे हो,
कुछ रोक रहे हो; तुम बहुत कंजूसी से दे रहे हो।
4-बच्चा क्रोध और हिंसा से भी समग्र होता है। उसका मुखड़ा दीप्त और सुंदर हो उठता है। वह यहां और अभी होता है। उसके क्रोध का न किसी अतीत से कुछ लेना-देना है और न किसी भविष्य से; वह हिसाब नहीं रखता है। वह मात्र क्रुद्ध है। बच्चा अपने केंद्र पर है। और जब तुम केंद्र पर होते हो तो सदा समग्र होते हो। तब तुम तो कुछ करते हो वह समग्र होता है। भला या बुरा, वह समग्र होता है। और जब खंडित होते हो, केंद्र से च्युत होते हो तो तुम्हारा हरेक काम भी खंडित होता है। क्योंकि उसमे तुम्हारा खंड ही होता है। उसमे तुम्हारा समग्र संवेदित नहीं होता है। खंड समग्र के खिलाफ जाता है। और वही
कुरूपता पैदा करता है।कभी हम सब भी बच्चे थे लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते है हमारी श्वास क्रिया उथली हो जाती है। तब श्वास पेट तक कभी नहीं जाती है, नाभि केंद्र को नहीं छूती है।
5-अगर श्वास ज्यादा से ज्यादा नीचे जाएगी तो वह कम से कम उथली रहेगी। लेकिन वह तो सीने को छूकर लौट आती है। वह केंद्र तक नहीं जाती है। तुम केंद्र से डरते हो, क्योंकि केंद्र पर जाने से तुम समग्र हो जाओगे। अगर तुम खंडित रहना चाहो
तो खंडित रहने की यही प्रक्रिया है।तुम प्रेम करते हो, अगर तुम केंद्र से श्वास लो तो तुम प्रेम में पूरे बहोगे।तुम दूसरे के प्रति, किसी के भी प्रति खुलने से, असुरक्षित और संवेदनशील होने से डरते हो।तुम डरे हुए हो कि वह दूसरा है, और अगर तुम पूरी तरह खुले हो, असुरक्षित हो तो तुम नहीं जानते कि क्या होने जा रहा है।तुम पूरी तरह दूसरे में खो जाने से डरते हो।
इसलिए तुम गहरी श्वास नहीं ले सकते। तुम अपनी श्वास को शिथिल और ढीला नहीं कर सकते हो। क्योंकि वह केंद्र तक चली जायेगी। क्योंकि जिस क्षण श्वास केंद्र पर पहुँचेगी, तुम्हारा कृत्य अधिकाधिक समग्र होने लगेगा।क्योंकि तुम समग्र
होने से डरते हो, इसलिए तुम उथली श्वास लेते हो। तुम अल्पतम श्वास लेते हो ;अधिकतम नहीं। यही कारण है कि जीवन इतना जीवनहीन लगता है। अ
6- तुम न्यूनतम श्वास लोगे तो जीवन जीवनहीन ही होगा। तुम जीते भी न्यूनतम हो, अधिकतम नहीं। तुम अधिकतम जियो तो जीवन अतिशय हो जाए। लेकिन तब कठिनाई होगी। उस हालत में मन खतरा महसूस करता है; इसलिए जीवित न रहना उसे
मंजूर है।तुम जितने मृत होगें उतने सुरक्षित होगें। जितने मृत होगें उतना ही सब कुछ नियंत्रण में होगा। तुम नियंत्रण करते हो तो तुम मालिक हो, क्योंकि नियंत्रण करते हो इसलिए अपने को मालिक समझते हो। तुम अपने क्रोध पर, अपने प्रेम पर, सब कुछ पर नियंत्रण कर सकते हो। लेकिन यह नियंत्रण ऊर्जा के न्यूनतम तक पर ही संभव है।तुम भयभीत हो क्योंकि समग्र
से अर्थात सत्य से डरते हो....आखिर उस डर का कारण क्या है?इंसान तो अपनी सुविधा के लिए सब कुछ करता है। अपने रास्ते में कोई विघ्न आता है तो कुछ भी तरीका निकालके रास्ता बना ही लेता है ।उससे सत्य का और असत्य का कोई लेना देना नहीं है।वास्तव में, हम 24 घंटे में1 8 घंटे असत्य के सहारे रहते है और जैसे -जैसे हम असत्य के सहारे हो जाते है तो भयभीत हो जाते है।
7-जिन दो आंखों से हम परिचित हैं, जिन दो आंखों से हम देखते हैं, जिन दो चक्षुओं को हम जानते हैं, वह अज्ञानता के चक्षु हैं। अज्ञान की स्थिति में ये दो आंखें काम करती हैं और ज्ञान की दृष्टि बंद रहती है और यह भी सत्य है कि जब ज्ञान दृष्टि खुल
जाती है तब अज्ञान दृष्टि बंद हो जाती है।जिस तरह अज्ञान दृष्टि बाहर की ओर काम करती है, उसी प्रकार ज्ञान दृष्टि भीतर की ओर काम करती है। दोनों में क्रिया एक ही तरह है। दोनों में अंतर यह है कि एक जहां हमें वाह्य जगत का बोध कराती है और तमाम तरह के भौतिक अथवा सांसारिक अनुभव देती है वही दूसरी दृष्टि या कहें ज्ञान की दृष्टि हमें आंतरिक अथवा
पारलौकिक जगत का बोध कराती है।इस आंख को तीसरी आंख या त्रिनेत्र कहते हैं जिसे ज्ञानमय दृष्टि कहा जाता है। अज्ञानमय दृष्टि की तरह तीसरी आंख भी मनुष्य में विद्यमान है। यह तीसरी आंख दृश्य जगत का अदृश्य जगत के साथ संबंध स्थापित करती है। तीसरा नेत्र भौतिक-अज्ञानमय जगत के तत्वों से अलग हटकर सूक्ष्म जगत की सूक्ष्म गतिविधियों का अनुभव कराता है। यही आंख दिव्य भाव में आत्मलीन कर परम सत्ता का साक्षात्कार कराती है। तीसरी आंख के खुलने के बाद ज्ञान शक्ति और अज्ञान शक्ति दोनों ही उस मनुष्य के अधिकार में होती है।
8-इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद व्यक्ति संसार की वास्तविकताओं को जान लेता है, समझ लेता है।सत्य और असत्य क्या है, इन सबके बारे में वह सब कुछ जान लेता है। त्रिनेत्र को जाग्रत करने वाला व्यक्ति जो भी कार्य-व्यवहार करता है, वह नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों की कसौटी के पूर्णत: अनुकूल होता है।हमारा जीवन इन दोनों का ही मिलन बिंदु है।
कभी न कभी हर व्यक्ति ने यह अनुभव किया है कि वह अचानक न्यूनतम से अधिकतम तल पर पहुंच गया। तुम किसी पहाड़ पर चले जाओ। अचानक तुम शहर से, उसकी कैद से बाहर हो जाओ। अब तुम मुक्त हो। विराट आकाश है, हरा जंगल है, बादलों को छूता शिखर है। अचानक तुम गहरी श्वास लेते हो ;हो सकता है, उस पर तुम्हारा ध्यान न गया हो।
अब जब पहाड़ जाओ तो इसका ख्याल रखना। केवल पहाड़ के कारण बदलाहट नहीं मालूम होती, श्वास के कारण मालूम होती है। तुम गहरी श्वास लेते हो और कहते हो, अहा, तुमने केंद्र छू लिया, क्षण भर के लिए तुम समग्र हो गए। और सब कुछ आनंदपूर्ण है। वह आनंद पहाड़ से नहीं, तुम्हारे केंद्र से आ रहा है। तुमने अचानक उसे जो छू लिया।
9-शहर में तुम भयभीत थे। सर्वत्र दूसरा मौजूद था और तुम अपने को काबू में किए रहते थे। न रो सकते थे, न हंस सकते थे।
कहीं सिपाही खड़ा था, तो कहीं जज खड़ा था। बर्ट्रेंड रसेल ने कहा है कि मैं सभ्यता से प्रेम करता हूं, लेकिन हमने यह सभ्यता
भारी कीमत चुका कर हासिल की है।तुम सड़क पर नहीं नाच सकते, लेकिन पहाड़ चले जाओ और वहां अचानक नाच सकते हो। तुम आकाश के साथ अकेले हो और आकाश कारागृह नहीं है। वह अंनत तक खुलता ही जाता है। एकाएक तुम एक
गहरी श्वास लेते हो; केंद्र छू जाता है; और तब आनंद ही आनंद है।लेकिन वह आनंद लंबे समय तक टिकने वाला नहीं है। घंटे दो घंटे में पहाड़ विदा हो जाएगा। तुम वहां रह सकते हो, लेकिन पहाड़ विदा हो जाएगा और तुम्हारी चिंताएं लौट आएँगी। फिर तुम वापस आ गए..अपनी झूठी सभ्यता में। वह गहरी श्वास सच में तुमसे नहीं आई थी। वह अचानक घटित हुई थी, बदली परिस्थिति के कारण गियर बदल गया था। नई परिस्थिति में तुम पुराने ढंग से श्वास नहीं ले सकते थे। इसलिए क्षण भर को एक नयी श्वास आ गई, उसने केंद्र छू लिया और तुम आनंदित थे।
10-भगवान /शिव कहते है, तुम प्रत्येक क्षण केंद्र को स्पर्श कर रहे हो, या यदि नहीं स्पर्श कर रहे हो तो कर सकते हो। गहरी, धीमी श्वास लो और केंद्र को स्पर्श करो। छाती से श्वास मत लो। वह एक चाल है;झूठी सभ्यता ने हमें उथली श्वास सिखा दी
है। केंद्र में गहरे उतरना जरूरी है, अन्यथा तुम गहरी श्वास नहीं ले सकते। शिव रहस्यमय शब्दावली का उपयोग करते है। ऊर्जारहित, ऊर्जापूरित। वह ऊर्जारहित है, क्योंकि तुम्हारे शरीर, तुम्हारे मन उसे ऊर्जा नहीं दे सकते। तुम्हारे शरीर की ऊर्जा और मन की ऊर्जा वहां नहीं है। इसलिए जहां तक तुम्हारे तादात्म्य का संबंध है, वह ऊर्जारहित है। लेकिन वह ऊर्जापूरित है,
क्योंकि उसे ऊर्जा का जागतिक स्त्रोत उपलब्ध है।तुम्हारे शरीर की ऊर्जा पेट्रोल जैसी ईंधन है। तुम कुछ खाते-पीते हो उससे ऊर्जा बनती है। खाना पीना बंद कर दो और शरीर मृत हो जाएगा। तुरंत नहीं कम से कम तीन महीने लगेंगे। क्योंकि तुम्हारे पास पेट्रोल का एक खजाना भी है। तुमने बहुत ऊर्जा जमा की हुई है, जो कम से कम तीन महीने काम दे सकती है। शरीर चलेगा, उसके पास जमा ऊर्जा थी। और किसी आपत्काल में उसका उपयोग हो सकता है। इसलिए शरीर ऊर्जा-ईंधन
ऊर्जा है।केंद्र को ईंधन-ऊर्जा नहीं मिलती है। यही कारण है कि शिव उसे ऊर्जारहित कहते है। वह तुम्हारे खाने पीने पर निर्भर नहीं है। वह जागतिक स्त्रोत से जुड़ा हुआ है, वह जागतिक ऊर्जा है। इसलिए शिव उसे ‘’ऊर्जारहित, ऊर्जापूरित केंद्र कहते है। जिस क्षण तुम उस केंद्र को अनुभव करोगे जहां से श्वास जाती-आती है, जहां श्वास विलीन होती है, उस क्षण तुम आत्मोपलब्ध हो जाओगे।
...SHIVOHAM......
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