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दूसरी ,तीसरी ,चौथी दस महाविद्या की साधना उपासना कैसे की जाती है?


2-तारा माता;-

02 FACTS;-

मंत्र“ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट”

माता तारा स्तुति;-

मातर्तीलसरस्वती प्रणमतां सौभाग्य-सम्पत्प्रदे प्रत्यालीढ –पदस्थिते शवह्यदि स्मेराननाम्भारुदे । फुल्लेन्दीवरलोचने त्रिनयने कर्त्रो कपालोत्पले खड्गञ्चादधती त्वमेव शरणं त्वामीश्वरीमाश्रये ॥ 1-द्वितीय महाविद्या भगवती तारा, ब्रह्मांड में उत्कृष्ट तथा सर्व ज्ञान से समृद्ध हैं...घोर संकट से मुक्त करने वाली महाशक्ति। जन्म तथा मृत्यु रूपी चक्र से मुक्त कर मोक्ष प्रदान करने वाली महा-शक्ति! तारा। माँ तारा दस महाविद्या की दूसरी देवी है। इसे “तारिणी” माता भी कहा गया है। तारा माता के शरण मे जो साधक आता है उसका जीवन सफल हो जाता है। तारा माँ “फीडर’ है। मतलब जिसका स्नेहपूर्ण दूध कभी भी कम नही होता। साधक को एक दूध पीते बच्चे की तरह माँ अपनी गोद मे रखती है। उसे वात्सल्य का स्तनपान हर रोज कराती है। तारा माँ भगवान शिवशंकर की भी माता है... तो तारा माँ की ताकत का अंदाजा लगाइये। जब देव और दानव समुदमंथन कर रहे थे तो विष निर्माण हुआ उस हलाहल से विश्व को बचाने के लिये शिव शंकर सामने आये उन्होने विष प्राषन किया। लेकिन गडबड यह हुई के उनके शरीर का दाह रुकने का नाम नही ले रहा था ।इसलिये माँ दुर्गा ने तारा माँ का रूप लिया और भगवान शिवजी ने शावक का रूप लिया। फिर तारा देवी उन्हे स्तन से लगाकार उन्हे स्तनोंका दूध पिलाने लगी। उस वात्सल्य पूर्ण स्तंनपान से शिवजी का दाह कम हुआ। लेकिन तारा माँ के शरीर पर हलाहल का असर हुआ जिसके कारण वह नीले वर्ण की हो गयी। महा-विद्या तारा जगत जननी माता के रूप में एवं घोर से घोर संकटो की मुक्ति हेतु प्रसिद्ध हुई। देवी के भैरव, हलाहल विष का पान करने वाले अक्षोभ्य शिव ही हैं।

2-जिस माँ ने शिवजी को स्तनपान किया है, वो अगर हमारी भी वात्सल्यसिंधू बन जायेगी तो हमारा जीवन धन्य हो जायेगा। तारा माता भी माँ काली जैसे सिर्फ कमर मे हाथोंकी माला पहनती है। उसके गले मे भी खोपडियों की मुंड माला है। महाविद्या तारा मोक्ष प्रदान करने तथा अपने भक्तों को समस्त प्रकार के घोर संकटों से मुक्ति प्रदान करने वाली महाशक्ति हैं।

देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध मुक्ति से हैं, फिर वह जीवन और मरण रूपी चक्र से हो या अन्य किसी प्रकार के संकट मुक्ति हेतु। मुख्यतः देवी की आराधना, मोक्ष प्राप्त करने हेतु, तांत्रिक पद्धति से की जाती हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड में जितना भी ज्ञान फैला हुआ हैं, वह सब इन्हीं देवी तारा या नील सरस्वती का स्वरूप ही हैं। देवी का निवास स्थान घोर महा-श्मशान हैं, देवी ज्वलित चिता में रखे हुए शव के ऊपर प्रत्यालीढ़ मुद्रा धारण किये नग्न अवस्था में खड़ी हैं, (कहीं-कहीं देवी बाघम्बर भी धारण करती हैं) नर खप्परों तथा हड्डियों की मालाओं से अलंकृत हैं तथा इनके आभूषण सर्प हैं। तीन नेत्रों वाली देवी उग्र तारा स्वरूप से अत्यंत भयानक प्रतीत होती हैं।द्वितीय महाविद्या तारा की कृपा से सभी शास्त्रों का पांडित्य, कवित्व प्राप्त होता हैं, साधक बृहस्पति के समान ज्ञानी हो जाता हैं। वाक्-सिद्धि प्रदान करने से ये नील सरस्वती कही जाती हैं। सुख, मोक्ष प्रदान करने तथा उग्र आपत्ति हरण करने के कारण इन्हें तारणी भी कहा जाता हैं।

देवी तारा के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा;-

04 FACTS;- 1-स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, देवी तारा की उत्पत्ति मेरु पर्वत के पश्चिम भाग में, चोलना नदी के तट पर हुई। हयग्रीव नाम के दैत्य के वध हेतु देवी महा-काली ने ही, नील वर्ण धारण किया था। महाकाल संहिता के अनुसार, चैत्र शुक्ल अष्टमी तिथि में 'देवी तारा' प्रकट हुई थीं, इस कारण यह तिथि, तारा-अष्टमी कहलाती हैं, चैत्र शुक्ल नवमी की रात्रि, तारा-रात्रि कहलाती हैं। देवी का वह उग्र स्वरूप उग्र तारा के नाम से विख्यात हुआ। देवी प्रकाश बिंदु रूप में आकाश के तारे के सामान विद्यमान हैं, फलस्वरूप वे तारा नाम से विख्यात हैं।अन्य कथा 'तारा-रहस्य नमक तंत्र' ग्रन्थ से प्राप्त होती हैं; जो भगवान विष्णु के अवतार, श्री राम द्वारा लंका-पति दानव-राज रावण का वध के समय की हैं।देवी तारा, भगवान राम की विध्वंसक शक्ति हैं, जिन्होंने रावण का वध किया था।सर्वप्रथम स्वर्ग-लोक के रत्नद्वीप में वैदिक कल्पोक्त तथ्यों तथा वाक्यों को देवी काली के मुख से सुनकर, शिवजी अपनी पत्नी पर बहुत प्रसन्न हुए। शिवजी ने महाकाली से पूछा, आदि काल में अपने भयंकर मुख वाले रावण का विनाश किया, तब आश्चर्य से युक्त आपका वह स्वरूप 'तारा' नाम से विख्यात हुआ।

2-उस समय, समस्त देवताओं ने आपकी स्तुति की थी तथा आप अपने हाथों में खड़ग, नर मुंडमाल तथा अभय मुद्रा धारण की हुई थी, मुख से चंचल जिह्वा बाहर कर, आप भयंकर रुपवाली प्रतीत हो रही थी। आप का वह विकराल रूप देख सभी देवता भय से आतुर हो काँप रहे थे, आपके विकराल भयंकर रुद्र-रूप को देखकर, शांत करने के निमित्त ब्रह्माजी आप के पास आये थे।समस्त देवताओं को ब्रह्माजी के साथ देखकर देवी, लज्जित हो आप खड़ग से लज्जा निवारण की चेष्टा करने लगी। रावण वध के समय आप अपने रुद्र रूप के कारण नग्न हो गई थी तथा स्वयं ब्रह्माजी ने आपकी लज्जा निवारण हेतु, आपको व्याघ्र चर्म प्रदान किया था। इसी रूप में देवी 'लम्बोदरी' के नाम से विख्यात हुई। तारा-रहस्य तंत्र के अनुसार, भगवान राम केवल निमित्त मात्र ही थे, वास्तव में भगवान राम की विध्वंसक शक्ति देवी तारा ही थी, जिन्होंने लंका पति रावण का वध किया। संक्षेप में देवी तारा से सम्बंधित मुख्य तथ्य;- मुख्य नाम : तारा। अन्य नाम : उग्र तारा, नील सरस्वती, एकजटा। भैरव : अक्षोभ्य शिव, बिना किसी क्षोभ के हलाहल विष का पान करने वाले। भगवान के 24 अवतारों से सम्बद्ध : भगवान राम। कुल : काली कुल। दिशा : ईशान कोण। स्वभाव : सौम्य उग्र, तामसी गुण सम्पन्न। वाहन : गीदड़। सम्बंधित तीर्थ स्थान या मंदिर : तारापीठ, रामपुरहाट, बीरभूम, पश्चिम बंगाल, बिहार । , कार्य : मोक्ष दात्री, भव-सागर से तारने वाली, जन्म तथा मृत्यु रूपी चक्र से मुक्त करने वाली। शारीरिक वर्ण : नीला। देवी की साधना;-

03 FACTS;-

1-वाक सिद्धि, रचनात्मकता, काव्य गुण के लिए शिघ्र मदद करती है. साधक का रक्षण स्वयमं माँ करती है। साधना के लिये लाल मूंगा, स्फटिक या काला हकीक की माला का इस्तेमाल करे। 121 की 3 माला करे। इनके दो मंत्र है. एक मंत्र मे “त्रिं” और दूसरे मे “स्त्रीं” ऐसे उच्चारण है। शक्ति का यह तारा रूप शुद्दोक्त ऋषि द्वारा शापित है। इसिलिये उच्चारण का ध्यान रहे। देवी की साधना एकलिंग शिव मंदिर (पाँच कोस क्षेत्र के मध्य एक शिव-लिंग), श्मशान भूमि, शून्य गृह, चौराहे, गले तक जल में खड़े हो कर, वन में करने का शास्त्रों में विधान हैं। इन स्थानों पर देवी की साधना शीघ्र फल प्रदायक होती हैं, विशेषकर सर्व शास्त्र वेत्ता होकर परलोक में ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करता हैं।लक्ष्मी, सरस्वती, रति, प्रीति, कीर्ति, शांति, तुष्टि, पुष्टि रूपी आठ शक्तियां नील सरस्वती की पीठ शक्ति मानी जाती हैं, देवी का वाहन शव हैं।मत्स्य सूक्त के अनुसार कम्बल का आसन, कुशासन अथवा विशुद्ध आसन पर बैठ कर ही देवी तारा की आराधना करना उचित हैं। 2-ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर, सदाशिव तथा परमशिव को षट्-शिव ( 6 शिव) कहा जाता हैं।तारा, उग्रा, महोग्रा, वज्रा, काली, सरस्वती, कामेश्वरी तथा चामुंडा ये अष्ट तारा नाम से विख्यात हैं। देवी के मस्तक में स्थित अक्षोभ्य शिव अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। महा-शंख माला जो मनुष्य के ललाट के हड्डियों से निर्मित होती हैं तथा जिस में 50 मणियाँ होती हैं, से भी देवी की साधना करने का विधान हैं। कान तथा नेत्र के बीज के भाग को या ललाट का भाग महा-शंख कहलाता हैं, इस माला का स्पर्श तुलसी, गोबर, गंगा-जल तथा शाल-ग्राम से कभी नहीं करना चाहिये।

3-माँ तारा मंत्र;-

1-''ऊं ह्लीं आधारशक्ति तारायै पृथ्वीयां नम: पूजयीतो असि नम:''

इस मंत्र का पुरश्चरण 32 लाख जप है।जपोपरांत होम द्रव्यों से होम करना चाहिए।सिद्धि प्राप्ति के बाद साधक को तर्कशक्ति, शास्त्र ज्ञान, बुद्धि कौशल आदि की प्राप्ति होती है।

2-1- (1 Syllable Mantra) ॐ त्रीं 2-2-(3 Syllables Mantra)

ॐ ह्रुं स्त्रीं ह्रुं ॥ 2-3- (4 Syllables Mantra) ॐ ह्रीं ह्रीं स्त्रीं ह्रुं॥ 2-4- (5 Syllables Mantra) ॐ ह्रीं त्रीं ह्रुं फट् 2-5-॥- (5 Syllables Mantra) ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट्॥ 2-6- (6 Syllables Mantra) ऐं ॐ ह्रीं क्रीं ह्रुं फट्॥ 2-7- (7 Syllables Mantra) ॐ त्रीं ह्रीं, ह्रुं , ह्रीं, हुं फट्॥ 2-8- ऐं स्त्रीं ॐ ऐं ह्रीं फट् स्वाहा॥


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03 FACTS;-

1-स्वयं अपनी या स्वतः बलिदान देने वाली देवी छिन्नमस्ता, दस महाविद्याओं में पांचवें स्थान पर, बुद्धि और ज्ञान से संबंधित।छिन्नमस्ता शब्दों दो शब्दों के योग से बना हैं:..प्रथम छिन्न और द्वितीय मस्ता। इन दोनों शब्दों का अर्थ हैं, ‘छिन्न : अलग या पृथक’ तथा ‘मस्ता : मस्तक’, इस प्रकार जिनका मस्तक देह से पृथक हैं वह छिन्नमस्ता कहलाती हैं। देवी अपने मस्तक को अपने ही हाथों से काट कर, अपने हाथों में धारण करती हैं तथा प्रचंड चंडिका जैसे अन्य नामों से भी जानी जाती हैं। उनकी उपस्थिति दस महा-विद्याओं में पाँचवें स्थान पर हैं, देवी एक प्रचंड डरावनी, भयंकर तथा उग्र रूप में विद्यमान हैं। समस्त देवी देवताओं से पृथक देवी छिन्नमस्ता का स्वरूप हैं, देवी स्वयं ही तीनों गुणों; सात्विक, राजसिक तथा तामसिक, का प्रतिनिधित्व करती हैं, त्रिगुणमयी सम्पन्न हैं। देवी ब्रह्माण्ड के परिवर्तन चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं, संपूर्ण ब्रह्मांड इस चक्र से चलायमान हैं। सृजन तथा विनाश का संतुलित होना, ब्रह्माण्ड के सुचारु परिचालन हेतु अत्यंत आवश्यक हैं।

2-देवी छिन्नमस्ता की आराधना जैन तथा बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं तथा बौद्ध धर्म में देवी छिन्नमुण्डा वज्रवराही के नाम से विख्यात हैं।देवी जीवन के परम सत्य मृत्यु को दर्शाती हैं, वासना से नूतन जीवन के उत्पत्ति तथा अंततः मृत्यु की प्रतीक स्वरूप हैं देवी। देवी, स्व-नियंत्रण के लाभ, अनावश्यक तथा अत्यधिक मनोरथों के परिणाम स्वरूप पतन, योग अभ्यास द्वारा दिव्य शक्ति लाभ, आत्म-नियंत्रण, बढ़ती इच्छाओं पर नियंत्रण का प्रतिनिधित्व करती हैं। देवी, योग शक्ति, इच्छाओं के नियंत्रण और यौन वासना के दमन की विशेषकर प्रतिनिधित्व करती हैं। समस्त प्रकार के अहंकार को छिन्न-छिन्न करती हैं देवी छिन्नमस्ता।यौन वासनाओं तथा अत्यधिक कामनाओं के त्याग और आत्म नियंत्रण की साक्षात छवि हैं‘देवी छिन्नमस्ता’।देवी अपने मस्तक को अपने ही खड्ग से काटकर, अपने शरीर से छिन्न या पृथक करती हैं तथा अपने कटे हुए मस्तक को अपने ही हाथ में धारण करती हैं। देवी का यह स्वरूप अत्यंत ही भयानक तथा उग्र हैं, देवी इस प्रकार के भयंकर उग्र स्वरूप में अत्यधिक कामनाओं तथा मनोरथों से आत्म नियंत्रण के सिद्धांतों का प्रतिपादन करती हैं।

3-देवी छिन्नमस्ता का घनिष्ठ सम्बन्ध, “कुंडलिनी” नामक प्राकृतिक ऊर्जा या मानव शरीर में छिपी हुई प्राकृतिक शक्ति से हैं। कुण्डलिनी शक्ति प्राप्त या जागृत करने हेतु; योग अभ्यास, त्याग तथा आत्म नियंत्रण की आवश्यकता होती हैं। एक परिपूर्ण योगी बनने हेतु, संतुलित जीवन-यापन का सिद्धांत अत्यंत आवश्यक हैं, जिसकी शक्ति देवी छिन्नमस्ता ही हैं, परिवर्तन शील जगत (उत्पत्ति तथा विनाश, वृद्धि तथा ह्रास) की शक्ति हैं देवी छिन्नमस्ता। इस चराचर जगत में उत्पत्ति या वृद्धि होने पर देवी भुवनेश्वरी का प्रादुर्भाव होता हैं तथा विनाश या ह्रास होने पर देवी छिन्नमस्ता का प्रादुर्भाव माना जाता हैं। देवी, योग-साधना की उच्चतम स्थान पर अवस्थित हैं। योग शास्त्रों के अनुसार तीन ग्रन्थियां ब्रह्मा ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि तथा रुद्र ग्रंथि को भेद कर योगी पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर पता हैं तथा उसे अद्वैतानंद की प्राप्ति होती हैं। योगियों का ऐसा मानना हैं कि मणिपुर चक्र के नीचे के नाड़ियों में ही काम और रति का निवास स्थान हैं तथा उसी पर देवी छिन्नमस्ता आरूढ़ हैं तथा इसका ऊपर की ओर प्रवाह होने पर रुद्रग्रंथी का भेदन होता हैं।

देवी छिन्नमस्ता का भौतिक स्वरूप विवरण;-

देवी छिन्नमस्ता बिखरे बालों युक्त नग्न हो, कामदेव तथा उनकी पत्नी रति देवी के ऊपर अत्यंत उग्र रूप धारण किये हुए, कमल के मध्य में खड़ी हैं। देवी का शारीरिक वर्ण पीला या लाल-पीले रंग का हैं तथा पूर्ण उभरे हुए स्तनों से युक्त देवी सोलह वर्ष कि कन्या के रूप में प्रतीत हो रही हैं। देवी ने मानव मुंडो की माला के साथ सर्पों तथा अन्य अमूल्य रत्नों से युक्त आभूषण धारण कर रखी हैं, देवी सर्प रूपी यज्ञोपवित धारण करती हैं। देवी, मस्तक पर अमूल्य रत्नों से युक्त मुकुट तथा अर्ध चन्द्र धारण करती हैं, तीन नेत्र से युक्त हैं। देवी छिन्नमस्ता के दाहिने हाथ में स्वयं का कटा हुआ मस्तक रखा हुआ हैं जो उन्होंने स्वयं अपने खड्ग से काटा हैं तथा बायें हाथ में वह खड़ग धारण करती हैं जिससे उन्होंने अपना मस्तक कटा हैं। देवी के कटे हुए गर्दन से रक्त की तीन धार निकल रही हैं, एक धार से देवी स्वयं रक्त पान कर रही हैं तथा अन्य दो धाराओं से देवी की सहचरी योगिनियाँ रक्त पान कर रही हैं। दोनों योगिनियों का नाम जया तथा विजया या डाकिनी तथा वारिणी हैं। देवी, स्वयं तथा दोनों सहचरी योगिनियों के संग सहर्ष रक्त पान कर रही हैं। देवी की दोनों सहचरियां भी नग्नावस्था में खड़ी हैं तथा अपने हाथों में खड़ग तथा मानव खप्पर धारण की हुई हैं। देवी की सहचरी डाकिनी तमो गुणी (विनाश की प्राकृतिक शक्त) एवं गहरे वर्ण युक्त तथा वारिणी की उपस्थिति लाल रंग तथा राजसिक गुण (उत्पत्ति से सम्बंधित प्राकृतिक शक्ति) युक्त हैं। देवी अपने दो सहचरियों के साथ अत्यंत भयानक, उग्र स्वरूप वाली प्रतीत होती हैं, क्रोध के कारण उपस्थित महा-विनाश की प्रतीक है! देवी छिन्नमस्ता।

देवी छिन्नमस्ता के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा;-

02 FACTS;-

1-नारद-पंचरात्र के अनुसार, एक बार देवी पार्वती अपनी दो सखियों के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान हेतु गई। नदी में स्नान करते हुए, देवी का शारीरिक वर्ण काला पड़ गया। उसी समय, देवी के संग स्नान हेतु आई दोनों सहचरी डाकिनी और वारिणी, जो जया तथा विजया नाम से भी जानी जाती हैं क्षुधा (भूख) ग्रस्त हुई और उन दोनों ने पार्वती देवी से भोजन प्रदान करने हेतु आग्रह किया। देवी पार्वती ने उन दोनों सहचरियों को धैर्य रखने के लिये कहा तथा पुनः कैलाश वापस जाकर भोजन देने का आश्वासन दिया।परन्तु, उनके दोनों सहचरियों को धैर्य नहीं था, वे दोनों तीव्र क्षुधा का अनुभव कर रहीं थीं तथा कहने लगी! “देवी आप तो संपूर्ण ब्रह्मांड की माँ हैं और एक माता अपने संतानों को केवल भोजन ही नहीं अपितु अपना सर्वस्व प्रदान कर देती हैं। संतान को पूर्ण अधिकार हैं कि वह अपनी माता से कुछ भी मांग सके, तभी हम बार-बार भोजन हेतु प्रार्थना कर रहे हैं। आप दया के लिए संपूर्ण जगत में विख्यात हैं, परिणामस्वरूप देवी को उन्हें भोजन प्रदान करना चाहिए।” सहचरियों द्वारा इस प्रकार दारुण प्रार्थना करने पर देवी पार्वती ने उनकी क्षुधा निवारण हेतु, अपने खड़ग से अपने मस्तक को काट दिया, तदनंतर, देवी के गले से रक्त की तीन धार निकली।एक धार से उन्होंने स्वयं रक्त पान किया तथा अन्य दो धाराएं अपनी सहचरियों को पान करने हेतु प्रदान किया। इस प्रकार देवी ने स्वयं अपना बलिदान देकर अपनी सहचरियों के क्षुधा का निवारण किया।


2-देवी छिन्नमस्ता के उत्पत्ति से संबंधित एक और कथा प्राप्त होती हैं! जो समुद्र मंथन के समय से सम्बंधित हैं। एक बार देवताओं और राक्षसों ने अमृत तथा अन्य प्रकार के नाना रत्नों के प्राप्ति हेतु समुद्र मंथन किया। देवताओं और राक्षसों दोनों नाना रत्न प्राप्त कर शक्तिशाली बनना चाहते थे, सभी रत्नों में अमृत ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रत्न था, जिसे प्राप्त कर अमरत्व प्राप्त करने हेतु, देव तथा दानव समुद्र मंथन कर रहे थे। समुद्र मंथन से कुल 14 प्रकार के रत्न प्राप्त हुए, देवताओं के वैध धन्वन्तरी, अमृत कलश के साथ अंत में प्रकट हुए। तदनंतर देवताओं और राक्षसों दोनों में अमृत कलश प्राप्त करने हेतु, भारी उत्पात हुआ अंततः देवताओं से दैत्य अमृत कलश लेने में सफल हुए।समस्या के निवारण हेतु भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार धारण किया। अपने नाम के स्वरूप ही देवी मोहिनी ने असुरों को मोहित कर लिया तथा असुर-राज बाली से अमृत कलश प्राप्त कर, देवताओं तथा दानवों को स्वयं अमृत पान करने हेतु तैयार कर लिया। मोहिनी अवतार में स्वयं आद्या शक्ति महामाया ही भगवान विष्णु से प्रकट हुई थी। देवी मोहिनी ने छल से सर्वप्रथम देवताओं को अमृत पान कराया तथा शेष स्वयं पान कर, अपने हाथों से अपने मस्तक को धर से अलग कर दिया, जिससे अब और कोई अमृत प्राप्त न कर सकें।

देवी छिन्नमस्ता से सम्बंधित तथ्य;-

05 FACTS;-

1-सामान्यतः हिंदू धर्म अनुसरण करने वाले देवी छिन्नमस्ता के भयावह तथा उग्र स्वरूप के कारण, स्वतंत्र रूप से या घरों में उनकी पूजा नहीं करते हैं। देवी के कुछ-एक मंदिरों में उनकी पूजा-आराधना की जाती हैं, देवी छिन्नमस्ता तंत्र क्रियाओं से सम्बंधित हैं तथा तांत्रिकों या योगियों द्वारा ही यथाविधि पूजित हैं। देवी की पूजा साधना में विधि का विशेष ध्यान रखा जाता हैं, देवी से सम्बंधित एक प्राचीन मंदिर रजरप्पा में हैं, जो भारत वर्ष के झारखंड राज्य के रामगढ़ जिले में अवस्थित हैं।देवी का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय हैं इसे केवल सिद्ध साधक ही जान सकता हैं। देवी की साधना रात्रि काल में होती हैं तथा देवी का सम्बन्ध तामसी गुण से हैं। देवी अपना मस्तक काट कर भी जीवित हैं, यह उनकी महान यौगिक (योग-साधना) उपलब्धि हैं। योग-सिद्धि ही मानवों को नाना प्रकार के अलौकिक, चमत्कारी तथा गोपनीय शक्तियों के साथ पूर्ण स्वस्थता प्रदान करती हैं।

2-देवी का संबंध महाप्रलय से है। महाप्रलय का ज्ञान कराने वाली यह महाविद्या भगवती त्रिपुरसुंदरी का ही रौद्र रूप है। सुप्रसिद्ध पौराणिक हयग्रीवोपाख्यान का (जिसमें गणपति वाहन मूषक की कृपा से धनुष प्रत्यंचा भंग हो जाने के कारण सोते हुए विष्णु के सिर के कट जाने का निरूपण है) इसी छिन्नमस्ता से संबद्ध है।शिव शक्ति के विपरीत रति आलिंगन पर आप स्थित हैं। आप एक हाथ में खड्ग और दूसरे हाथ में मस्तक धारण किए हुए हैं अपने कटे हुए स्कन्ध से रक्त की जो धाराएं निकलती हैं, उनमें से एक को स्वयं पीती हैं और अन्य दो धाराओं से अपनी वर्णिनी और शाकिनी नाम की दो सहेलियों को तृप्त कर रही हैं इडा, पिंगला और सुषमा इन तीन नाडियों का संधान कर योग मार्ग में सिद्धि को प्रशस्त करती हैं।वास्तव में देवी छिन्न मस्ता ही हर जीव के मूलाधार चक्र में विराजमान कुण्डलिनी शक्ति की मूर्त रूप हैं !कुण्डलिनी महा शक्ति को जागृत करने के कई तरीकों में से एक है देवी छिन्न मस्ता को प्रसन्न करना !और जैसे माँ छिन्न मस्ता अपने ही शरीर का खून पी कर सबल रहती हैं उसी तरह कुण्डलिनी महा शक्ति जिस जीव के अन्दर रहती हैं उसी जीव के रक्त से ही पोषित होती हैं !

3-देवी छिन्न मस्ता निर्वस्त्र रहतीं है जो इस बात का पर्याय है की कुण्डलिनी महा शक्ति पर किसी भी माया का पर्दा नहीं हो सकता है ! इसी माया का पर्दा उठाने के लिए ही तो दुनिया के सारे भक्त, तपस्वी, योगी दिन रात तपस्या रत रहते हैं !कुण्डलिनी जागरण कईं जन्मो की साधना से सिद्ध होने वाली साधना है और जीव एक योनि से मरकर दूसरे योनि में जन्म लेता है तब भी कुण्डलिनी शक्ति हमेशा उसके साथ बनी रहती है !ऐसा विधान है कि आधी रात अर्थात् चतुर्थ संध्याकाल में छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती सिद्ध हो जाती हैं।छिन्नमस्ता का आध्यात्मिक स्वरूप अत्यन्त महत्वपूर्ण है। छिन्न यज्ञशीर्ष की प्रतीक ये देवी श्वेतकमल पीठ पर खड़ी हैं।दिशाएं ही इनके वस्त्र हैं। इनकी नाभि में योनिचक्र है। कृष्ण (तम) और रक्त(रज) गुणों की देवियां इनकी सहचरियां हैं।ये अपना शीश काटकर भी जीवित हैं। यह अपने आप में पूर्ण अन्तर्मुखी साधना का संकेत है।योगशास्त्र में तीन ग्रंथियां बतायी गयी हैं, जिनके भेदन के बाद योगी को पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है। इन्हें ब्रम्हाग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि तथा रुद्रग्रन्थि कहा गया है। मूलाधार में ब्रम्हग्रन्थि, मणिपूर में विष्णुग्रन्थि तथा आज्ञाचक्र में रुद्रग्रन्थि का स्थान है। इन ग्रंथियों के भेदन से ही अद्वैतानन्द की प्राप्ति होती है। योगियों का ऐसा अनुभव है कि मणिपूर चक्र के नीचे की नाड़ियों में ही काम और रति का मूल है, उसी पर छिन्ना महाशक्ति आरुढ़ हैं, इसका ऊर्ध्व प्रवाह होने पर रुद्रग्रन्थि का भेदन होता है।

4-छिन्नमस्ता का वज्र वैरोचनी नाम शाक्तों, बौद्धों तथा जैनों में समान रूप से प्रचलित है। देवी की दोनों सहचरियां रजोगुण तथा तमोगुण की प्रतीक हैं, कमल विश्वप्रपंच है और कामरति चिदानन्द की स्थूलवृत्ति है। बृहदारण्यक की अश्वशिर विद्या, शाक्तों की हयग्रीव विद्या तथा गाणपत्यों के छिन्नशीर्ष गणपति का रहस्य भी छिन्नमस्ता से ही संबंधित है। हिरण्यकशिपु, वैरोचन आदि छिन्नमस्ता के ही उपासक थे। इसीलिये इन्हें वज्र वैरोचनीया कहा गया है।वैरोचन अग्नि को कहते हैं। अग्नि के स्थान मणिपूर में छिन्नमस्ता का ध्यान किया जाता है और वज्रानाड़ी में इनका प्रवाह होने से इन्हें वज्र वैरोचनीया कहते हैं। श्रीभैरवतन्त्र में कहा गया है कि इनकी आराधना से साधक जीवभाव से मुक्त होकर शिवभाव को प्राप्त कर लेता है।माँ छिन्नमस्ता सुषुम्ना नाड़ी हैं जो कुण्डलिनी का स्थान हैं। सहस्रार चक्र में पहुँच कर भी साधक बहुत समय तक उस पर स्थिर नहीं रह पाते हैं।

5-यह साधक की आन्तरिक और आध्यात्मिक शक्ति तथा साधना के स्वरूप पर निर्भर है कि वह सहस्रार में कितने समय तक रहता है।संक्षेप में देवी छिन्नमस्ता से सम्बंधित मुख्य तथ्य;- मुख्य नाम : छिन्नमस्ता। अन्य नाम : छिन्न-मुंडा, छिन्न-मुंडधरा, आरक्ता, रक्त-नयना, रक्त-पान-परायणा, वज्रवराही। भैरव : क्रोध-भैरव। भगवान विष्णु के 24 अवतारों से सम्बद्ध : भगवान नृसिंह अवतार। तिथि : वैशाख शुक्ल चतुर्दशी। कुल : काली कुल। दिशा : उत्तर। स्वभाव : उग्र, तामसी गुण सम्पन्न। कार्य : सभी प्रकार के कार्य हेतु दृढ़ निश्चितता, फिर वह अपना मस्तक ही अपने हाथों से क्यों न काटना हो, अहंकार तथा समस्त प्रकार के अवगुणों का छेदन करने हेतु शक्ति प्रदाता, कुण्डलिनी जाग्रति में सहायक। शारीरिक वर्ण : करोड़ों उदित सूर्य के प्रकाश समान कान्तिमयी।

साधना;-

02 FACTS;-

1-मंत्र- “ऊं श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा:”इस मंत्र के जाप के लिए रुद्राक्ष या काले हकीक की माला का इस्तेमाल करना चाहिए और कम से कम ग्यारह माला या बीस माला जपना चाहिए। यह विद्या बहुत ही तीव्र है जो बहुत जल्दी अपना परिणाम दिखाने लगती हैं। यह छिन्नमस्ता देवी शत्रुओं का तुरंत नाश करनेवाली, वाक देनेवाली, रोजगार में सफलता, नौकरी में पदोन्नति, कोर्ट केस में मुक्ति दिलाने के लिए जानी जाती हैं। सरकार को आपके पक्ष में करनेवाली, कुण्डलिनी जागरण में सहायक, पति-पत्नी को तुरंत वश में करनेवाली चमत्कारी देवी हैं।

2-माँ छिन्नमस्ता मंत्र;-

1-''ऊं श्रीं ह्लीं ह्लीं वज्र वैरोचनीये ह्लीं ह्लीं फट् स्वाहा''

इस मंत्र का पुरश्चरण चार लाख जप है।जप का दशांश होम पलाश या बिल्वफलों से करना चाहिए।श्वेत कनेर पुष्पों से होम करने से रोग मुक्ति, मालती पुष्पों के होम से वाचा सिद्धि व चंपा के पुष्पों से होम करने पर सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

2-1- (1 Syllable Mantra) ह्रुं॥ 2-2- (3 Syllables Mantra) ॐ ह्रुं ॐ॥ 2-3-ॐ ह्रुं स्वाहा॥2-4- (5 Syllables Mantra) ॐ ह्रुं स्वाहा ॐ॥ 2-5-(6 Syllables Mantra) ह्रीं क्लीं श्रीं ऐं ह्रुं फट्॥2-6- ॐश्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवैरोचनीयै ह्रुं ह्रुं फट् स्वाहा॥ 2-7- ॐ वैरोचन्ये विद्महे छिन्नमस्तायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥



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4-त्रिपुर सुंदरी माता;-

02 FACTS;-

मंत्र –ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नमः(इस मंत्र के जाप के लिए रुद्राक्ष की माला का इस्तेमाल किया जा सकता है। कम से कम दस माला जप करें।

त्रिपुर सुंदरी माता स्तुति;;-

उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां रक्तालिप्तपयोधरां जपपटीं विद्यामभीतिं वरम् । हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्दे समन्दस्मिताम् ॥

1-तीनों लोकों में सर्वाधिक सुन्दर तथा मनोरम, एक सोलह वर्षीय चिर-यौवन युवती, मह- त्रिपुरसुंदरी नामक तृतीय महाविद्या। सर्व मनोकामना पूर्ण करने वाली महाविद्या,श्रीकुल की अधिष्ठात्री! महा त्रिपुरसुंदरी।जिस काम मे देवता का चयन करने मे कोई दिक्कत हो तो देवी त्रिपुर सुन्दरी की उपासना कर सकते है। यह भोग और मोक्ष दोनो ही साथ-साथ प्रदान करती है। ऐसी इस दुनिया मे कोई साधना नही है जो भोग और मोक्ष एक साथ प्रदान करे। महाविद्या महा-त्रिपुरसुंदरी स्वयं आद्या या आदि शक्ति हैं। इनके षोडशी, राज-राजेश्वरी, बाला, ललिता, मिनाक्षी, कामेश्वरी अन्य नाम भी विख्यात हैं। अपने नाम के अनुरूप देवी तीनों लोकों में सर्वाधिक सुंदरी हैं तथा चिर यौवन युक्त षोढसी युवती हैं, इनका स्वरूप तीनों लोकों को मोहित करने वाला हैं। देवी सोलह कलाओं से पूर्ण हैं और सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं।

2-श्रीरूप में धन, संपत्ति, समृद्धि दात्री श्रीशक्ति के नाम से विख्यात हैं, इन्हीं महाविद्या की आराधना कर कमला नाम से विख्यात दसवी महाविद्या धन की अधिष्ठात्री हुई तथा श्री की उपाधि प्राप्त की। श्रीयंत्र जो यंत्र शिरोमणि हैं, साक्षात् देवी का स्वरूप हैं; देवी की आराधना-पूजा श्री यंत्र में की जाती हैं। कामाख्या पीठ महाविद्या त्रिपुरसुन्दरी से ही सम्बंधित तंत्र पीठ हैं, जहाँ सती की योनि पतित हुई थीं; योनि के रूप में यहाँ देवी की पूजा-आराधना होती हैं।देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध पारलौकिक शक्तियों से हैं, समस्त प्रकार की दिव्य, अलौकिक तंत्र तथा मंत्र शक्तिओं (इंद्रजाल) की देवी अधिष्ठात्री हैं। तंत्र मैं उल्लेखित मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तम्भन इत्यादि (जादुई शक्ति), कर्म इनकी कृपा के बिना पूर्ण नहीं होते हैं। अपने भक्तों को हर प्रकार की शक्ति देने में समर्थ हैं। राज-राजेश्वरी रूप में देवी ही तीनों लोकों का शासन करने वाली हैं।देवी शांत मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव के नाभि से निर्गत कमल-आसन पर बैठी हुई हैं। चार भुजाएं हैं तथा भुजाओं में पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करती हैं। देवी के आसन को ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा यमराज अपने मस्तक पर धारण किये हुए हैं; देवी तीन नेत्रों से युक्त एवं मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए अत्यंत मनोहर प्रतीत होती हैं। सहस्रों उगते सूर्य के समान कांति युक्त देवी का शारीरिक वर्ण हैं। श्री विद्या, महा त्रिपुरसुंदरी की प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा;-

02 FACTS;- 1-पौराणिक कथा के अनुसार सती वियोग के पश्चात भगवान शिव सर्वदा ध्यान मग्न रहते थे। उन्होंने अपने संपूर्ण कर्म का परित्याग कर दिया था, जिसके कारण तीनों लोकों के सञ्चालन में बाधा उत्पन्न होने लगी। उधर तारकासुर ब्रह्माजी से वर प्राप्त कर चूका था कि "उसकी मृत्यु शिव के पुत्र द्वारा ही होगी।" वह एक प्रकार से अमर हो गया था, चूंकि सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में देह त्याग कर दिया था जिस कारण शिव जी संसार से विरक्त हो घोर ध्यान में चले गए थे।तारकासुर ने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर, समस्त देवताओं को प्रताड़ित कर स्वर्ग से निष्कासित कर दिया था। देवताओ के भोगो का उपभोक्ता बन चूका था।सती हिमालय राज के यहाँ पुनर्जन्म ले चुकी थी तथा भगवान शिव को पति रूप में पाने हेतु वे साधनारत थी।भगवान शिव को समाधि से उठाने के लिए देवताओ ने कामदेव का सहारा लिया। कामदेव सदल वहन पहुचे जहाँ महादेव शिव समाधिस्थ थे। कामदेव ने कुसुम सर नामक मोहिनी वाण से भगवान शिव पर प्रहार किया, परिणामस्वरूप शिव जी का ध्यान भंग हो गया। देखते ही देखते भगवान शिव के तीसरे नेत्र से उत्पन्न क्रोध अग्नि ने कामदेव को जला कर भस्म कर दिया। कामदेव की पत्नी रति द्वारा अत्यंत दारुण विलाप करने पर भगवान शिव ने कामदेव को पुनः द्वापर युग में भगवान कृष्ण के पुत्र रूप में जन्म धारण करने का वरदान दिया तथा वहां से अंतर्ध्यान हो गए। 2-भगवान शिव के एक गण ने कामदेव के भस्म से मूर्ति निर्मित की। उस निर्मित मूर्ति से एक पुरुष का प्राकट्य हुआ। उस प्राकट्य पुरुष ने भगवान शिव की अति उत्तम स्तुति की, स्तुति से प्रसन्न हो भगवान शिव ने भांड (अच्छा)! भांड! कहा। तदनंतर, भगवान शिव द्वारा उस पुरुष का नाम भांड रखा गया तथा उसे ६० हजार वर्षों का राज दे दिया। शिव के क्रोध से दग्ध होने के कारण भांड, तमो गुण सम्पन्न था। वह धीरे-धीरे तीनों लोकों पर भयंकर उत्पात मचाने लगा। देवराज इंद्र के राज्य के समान ही, भाण्डासुर ने स्वर्ग जैसे राज्य का निर्माण किया तथा राज करने लगा।तदनंतर, भाण्डासुर ने स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर, देवराज इन्द्र तथा स्वर्ग राज्य को चारों ओर से घेर लिया। भयभीत इंद्र, नारद मुनि के शरण में गए तथा इस समस्या के निवारण हेतु उपाय पूछा। देवर्षि नारद ने, आद्या शक्ति की यथा विधि आराधना करने का परामर्श दिया। देवराज इंद्र ने देवर्षि नारद द्वारा बताये हुए साधना पथ का अनुसरण कर देवी की आराधना की और त्रिपुरसुंदरी स्वरूप में प्रकट हो देवी ने भाण्डासुर वध कर समस्त देवताओं को भय मुक्त किया।कहा जाता हैं, कि भण्डासुर तथा देवी त्रिपुरसुंदरी ने अपने चार-चार अवतारी स्वरूपों को युद्ध करने हेतु अवतरित किया। भाण्डासुर ने हिरण्यकश्यप दैत्य का अवतार धारण किया और देवी-ललिता ने प्रह्लाद स्वरूप में प्रकट हो, हिरण्यकश्यप का अंत किया। भाण्डासुर ने महिषासुर का अवतार धारण किया तब देवी त्रिपुरा ने दुर्गा अवतार धारण कर महिषासुर का वध किया। भाण्डासुर द्वारा रावण का अवतार धारण करने पर देवी के नखों से अवतरित राम ने रावण का संहार किया।


देवी श्रीविद्या त्रिपुरसुंदरी से सम्बंधित अन्य तथ्य। 03 FACTS;- 1-देवी काली के समान ही देवी त्रिपुरसुंदरी चेतना से सम्बंधित हैं। देवी त्रिपुरा, ब्रह्मा, शिव, रुद्र तथा विष्णु के शव पर आरूढ़ हैं, तात्पर्य, चेतना रहित देवताओं के देह पर देवी चेतना रूप से विराजमान हैं और ब्रह्मा, शिव, विष्णु, लक्ष्मी तथा सरस्वती द्वारा पूजिता हैं। कुछ शास्त्रों के अनुसार, देवी कमल के आसन पर भी विराजमान हैं, जो अचेत शिव के नाभि से निकला हैं शिव, ब्रह्मा, विष्णु तथा यम, चेतना रहित शिव सहित देवी को अपने मस्तक पर धारण किये हुए हैं।यंत्रों में श्रेष्ठ श्रीयन्त्र साक्षात् देवी त्रिपुरा का ही स्वरूप हैं। देवी त्रिपुरा आदि शक्ति हैं, कश्मीर, दक्षिण भारत तथा बंगाल में आदि काल से ही, श्री संप्रदाय विद्यमान हैं जो देवी आराधक हैं। विशेषकर दक्षिण भारत में देवी श्रीविद्या नाम से विख्यात हैं। मदुरै में विद्यमान मीनाक्षी मंदिर, कांचीपुरम में विद्यमान कामाक्षी मंदिर, दक्षिण भारत में हैं तथा यहाँ देवी श्रीविद्या के रूप में पूजिता हैं। वाराणसी में विद्यमान राजराजेश्वरी मंदिर, देवी श्रीविद्या से ही सम्बंधित हैं। 2-देवी की उपासना श्रीचक्र में होती है, श्रीचक्र से सम्बंधित मुख्य शक्ति देवी त्रिपुरसुंदरी ही हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध गुप्त और परा विद्याओं से हैं। देवी त्रिपुरसुंदरी श्रीकुल की अधिष्ठात्री देवी हैं।देवी में सभी वेदांतो का तात्पर्य-अर्थ समाहित हैं तथा चराचर जगत के समस्त कार्य इन्हीं देवी में प्रतिष्ठित हैं। देवी में न शिव की प्रधानता हैं और न ही शक्ति की, अपितु शिव तथा शक्ति ('अर्धनारीश्वर') दोनों की समानता हैं। समस्त तत्वों के रूप में विद्यमान होते हुए भी, देवी सबसे अतीत हैं, परिणामस्वरूप इन्हें ‘तात्वातीत’ कहा जाता हैं। देवी जगत के प्रत्येक तत्व में व्याप्त भी हैं और पृथक भी हैं, परिणामस्वरूप इन्हें ‘विश्वोत्तीर्ण’ भी कहा जाता हैं। देवी ही परा ( जिसे हम देख नहीं सकते ) विद्या भी कही गई हैं, ये दृश्यमान प्रपंच इनका केवल उन्मेष मात्र हैं , देवी चर तथा अचर दोनों तत्वों के निर्माण करने में समर्थ हैं तथा निर्गुण तथा सगुण दोनों रूप में अवस्थित हैं। ऐसे ही परा शक्ति, नाम रहित होते हुए भी अपने साधकों पर कृपा कर, सगुण रूप धारण करती हैं। 3-भंडासुर की संहारिका, त्रिपुरसुंदरी, सागर के मध्य में स्थित मणिद्वीप का निर्माण कर चित्कला के रूप में विद्यमान हैं। तत्वानुसार अपने त्रिविध रूप को व्यक्त करती हैं ...1-आत्म-तत्व, 2-विद्या-तत्व, 3-शिव-तत्व। इन्हीं तत्व-त्रय के कारण ही देवी 1- शाम्भवी 2-श्यामा तथा 3- विद्या के रूप में त्रिविधता प्राप्त करती हैं। इन तीनों शक्तिओं के भैरव क्रमशः परमशिव, सदाशिव तथा रुद्र हैं।देवी त्रिपुरसुन्दरी के पूर्व भाग में श्यामा और उत्तर भाग में शाम्भवी विराजित हैं तथा इन्हीं तीन विद्याओं के द्वारा अन्य अनेक विद्याओं का प्राकट्य या प्रादुर्भाव हुआ है। संक्षेप में देवी श्री विद्या त्रिपुरसुंदरी से सम्बंधित मुख्य तथ्य;- मुख्य नाम : महा त्रिपुरसुंदरी। अन्य नाम : श्री विद्या, त्रिपुरा, श्री सुंदरी, राजराजेश्वरी, ललित, षोडशी, कामेश्वरी, मीनाक्षी। भैरव : कामेश्वर। तिथि : मार्गशीर्ष पूर्णिमा। भगवान के 24 अवतारों से सम्बद्ध : भगवान परशुराम। कुल : श्रीकुल ( इन्हीं के नाम से संबंधित )। दिशा : ऊपर की ओर । स्वभाव : सौम्य। सम्बंधित तीर्थ स्थान या मंदिर : कामाख्या मंदिर, 51 शक्ति पीठों में सर्वश्रेष्ठ, योनि पीठ गुवहाटी, आसाम। कार्य : सम्पूर्ण या सभी प्रकार के कामनाओं को पूर्ण करने वाली। शारीरिक वर्ण : उगते हुए सूर्य के समान।

माँ त्रिपुर सुंदरी मंत्र;-

मंत्र;-

''ॐ श्रीं ह्लीं क्लीं एं सौ: ऊं ह्लीं श्रीं कएइलह्लीं हसकहलह्लीं संकलह्लीं सौ: एं क्लीं ह्लीं श्रीं''

विधि;-

इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जप के पश्चात त्रिमधुर (घी, शहद, शक्कर) मिश्रित कनेर के पुष्पों से होम करना चाहिए।कमल पुष्पों के होम से धन व संपदा प्राप्ति, दही के होम से उपद्रव नाश,अंगूर के होम से वांछित सिद्धि व तिल के होम से मनोभिलाषा पूर्ति व गुग्गुल के होम से दुखों का नाश होता है।कपूर के होमत्व से कवित्व शक्ति आती है

2-1-ॐ ऐं सौः क्लीं॥ 2-2- (5 Syllables Mantra) ॐ ऐं क्लीं सौः सौः क्लीं॥ 3-3- (6 Syllables Mantra) ॐ ऐं क्लीं सौः सौः क्लीं ऐं॥ 2-4- (18 Syllables Mantra) ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिपुरामदने सर्वशुभं साधय स्वाहा॥ 2-5- (20 Syllables Mantra) ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं परापरे त्रिपुरे सर्वमीप्सितं साधय स्वाहा॥ 2-6-ॐ क्लीं त्रिपुरादेवि विद्महे कामेश्वरि धीमहि। तन्नः क्लिन्ने प्रचोदयात्॥

श्री विद्या -पंचदशी :-

1- बाल सुंदरी- 8 वर्षीया कन्या रूप में 2- षोडशी त्रिपुर सुंदरी- 16 वर्षीया सुंदरी

3-त्रिपुर सुंदरी-युवा स्वरूप 4- ललिता त्रिपुर सुंदरी- वृद्धा रूप

श्री विद्या -पंचदशी मंत्र:-

1-श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी मंत्र:-ॐ ऐं क्लीं सौः॥ 2-षोडशी त्रिपुर सुंदरी -''ॐ क ए इ ल ह्रीं ।ह स क ह ल ह्रीं।स क ल ह्रीं ''

3- त्रिपुर सुंदरी -''ॐ क ए इ ल ह्रीं ।ह स क ह ल ह्रीं।स क ल ह्रीं श्रीं''॥

4-ललिता त्रिपुर सुंदरी-''ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नम:।''

..... SHIVOHAM........


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