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क्या है विशुद्ध प्रेम की परिभाषा ?क्या है,''श्री राधा कृपा कटाक्ष स्रोत'' ॥

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Apr 12, 2019
  • 8 min read

विशुद्ध प्रेम;-

07 FACTS;- 1-''वास्तव में प्रेम देना ही जानता है ..लेना नहीं.उसमें लेन-देन का सौदा नहीं है''. एक बार किसी ने श्रीराधा के पास आकर श्रीकृष्ण में स्वरुप सौंदर्य का और सद्गुणों का अभाव बतलाया और कहा कि – वे तुमसे प्रेम नहीं करते.विशुद्ध प्रेम रूप, गुण और बदले में सुख प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं करता,…और वह बिना किसी हेतु के ही प्रतिक्षण सहज ही बढता रहता है – “गुणरहितं कामना रहितम...प्रतिक्षण वर्धमानम्”.. 2-श्री राधा जी सर्वश्रेष्ठ विशुद्ध प्रेम की सम्पूर्ण प्रतिमा है अतः वे बोली – ''हमारे प्रियतम श्री कृष्ण असुंदर हो या सुन्दरशिरोमणि हो, गुणहीन हो या गुणियों में श्रेष्ठ हो, मेरे प्रति द्वेष रखते हो या करुणावरुणालय रूप से कृपा करते हो, वे श्यामसुंदर ही मेरी एकमात्र गति है.'' 3-महाप्रभु ने भी कहा है -वे चाहे मुझे ह्रदय से लगा ले या चरणों में लिपटी हुई, मुझको पैरों तले रौद डाले अथवा दर्शन से वंचित रख मर्मार्हत कर दे ,वे जैसे चाहे वैसे करे, मेरे प्राणनाथ तो वे ही है दूसरा कोई नहीं ...जैसे चातक होता है वह केवल एक मेघ से ही स्वाति की बूंद चाहता है, न दूसरे की ओर ताकता है, न दूसरा जल ही स्पर्श करता है. चातक कहता क्या है – चाहे तुम ठीक समय पर बरसो, चाहे जीवन भर कभी न बरसो, परन्तु इस चित्त चातक को तो केवल तुम्हारी ही आशा है. 4-अपने प्यारे मेघ का नाम् रटते-रटते चातक की जीभ लट गई और प्यास के मारे अंग सूख गए, तो भी चातक के प्रेम का रंग तो नित्य नवीन और सुंदर ही होता जाता है, समय पर मेघ बरसता तो है नहीं, उलटे कठोर पत्थर, ओले बरसाकर, उसने चातक की पंखो के टुकड़े-टुकड़े कर दिए, इतने पर भी उस प्रेम टेकी चतुर चातक के प्रेम प्रण में कभी चूक नहीं पड़ती. 5-मेघ... बिजली गिराकर,ओले बरसाकर, कड़क-कड़ककर वर्षा की झड़ी लगाकर,और तूफ़ान के झकोरे देकर, चातक पर चाहे जितना बड़ा भारी रोष प्रकट करे, पर चातक को प्रियतम का दोष देखकर क्रोध नहीं आता, उसे दोष दीखता ही नहीं है.गर्मियों के दिन थे, चातक शरीर से थका था, रास्ते में जा रहा था, शरीर जल रहा था, इतने में कुछ वृक्ष दिखायी दिए, दूसरे पक्षियों ने कहा इन पर जरा विश्राम कर लो. 6-परन्तु अनन्य प्रेमी चातक को यह बात अच्छी नहीं लगी.क्योकि वे वृक्ष दूसरे जल से सीचे हुए थे.एक चातक उड़ा जा रहा था किसी बहेलिये ने उसे बाण मारा, वह नीचे गंगाजी में गिर पड़ा, परन्तु गिरते ही उस अनन्य प्रेम चातक ने चोच को उलटकर ऊपर की ओर कर लिया,चातक के प्रेम रूपी वस्त्र पर मरते दम तक भी खोच नहीं लगी (वह जरा भी कही से नहीं फटा)प्रेम वास्तव में देना ही जानता है लेना जानता ही नहीं है उसमें लेन-देन का सौदा नहीं है, 7-प्रेमास्पद के दोष प्रेमी को दीखते ही नहीं, उसे तो केवल गुण ही दीखते है.और निरंतर देते रहने पर भी, देने का भान न हो, अपने को केवल लेने वाला ही माना जाए,केवल माना ही न जाए,ऐसा अनुभव भी हो,त्याग की ऐसी पराकाष्ठा जहाँ हो, वही विशुद्ध प्रेम है.

मशहूर चातक पक्षी की खास विशेषताएं ;- 04 FACTS;- 1-चातक लगभग 15 इंच लंबा काले रंग का पक्षी है, जिसका निचला भाग सफेद होता है । इसके सिर पर चोटीनुमा रचना होती है। स्वाति नक्षत्र का पानी चातक के लिए जीवन उपयोगी सिद्ध होता है ।भारतीय साहित्य में चातक को प्रतीक्षारत विरही के रूप में प्रस्तुत किया है । उसका वर्षा जल से अटूट रिश्ता बताया जाता है । इसके बारे में ऐसा माना जाता है कि यह वर्षा की पहली बूंदों को ही पीता है। अगर यह पक्षी बहुत प्यासा है और इसे एक साफ़ पानी की झील में डाल दिया जाए तब भी यह पानी नहीं पिएगा और अपनी चोंच बंद कर लेगा ताकि झील का पानी इसके मुहं में न जा सके। 2-यह पक्षी मुख्यतः एशिया और अफ्रीका महाद्वीप पर पाया जाता है। इसे मारवाडी भाषा में 'मेकेवा' और 'पपीया' भी कहा जाता हैं।इसके सिर पर चोटीनुमा रचना होती है. चातक ‘कुक्कू’ कुल का प्रसिद्ध पक्षी है, जो अपनी चोटी के कारण इस कुल के दूसरे पक्षियों से अलग रहता है.शरद ऋतु और वर्षा के समय यह पक्षी अपनी मधुर आवाज़ के साथ बोलता हुआ दिखाई देता है. मेघदूत में यक्ष मेघ से कहता है, ‘तेरा यह स्वभाव है कि तू बिना गरजे भी उन चातकों को जल देता है, जो तुझसे इसकी याचना करते हैं।’ शायद महाकवि कालीदास को पता था, चातक वर्षा का संदेश लाते हैं।. 3-इस कुल के पक्षी सभी गरम देशों में पाए जाते हैं. इन पक्षियों की पहली और चौथी उँगलियाँ पीछे की ओर मुड़ी रहती हैं.गौरतलब है कि चातक की यही विशेषताएं उसे दूसरे पक्षियों से खास बनाती हैं.चातक नाम के ये पक्षी दिन भर एक जोड़े के रूप में साथ रहते हैं लेकिन शाम को ये दोनों बिछड़कर ही रात बिताते हैं, जिसके बाद अगली सुबह इनका मिलन होता है. 4-स्वाति नक्षत्र का करता है इंतज़ार...कहते हैं कि चातक स्वाति नक्षत्र में अपनी प्यास बुझाता है. इसके लिए वो आसमान से पानी के बरसने का इंतज़ार करता है और बारिश की पहली बूंदों से ही अपनी प्यास बुझाता है. स्वाति नक्षत्र का पानी इस पक्षी के लिए जीवन उपयोगी सिद्ध होता है,वह तो स्वाती-मेघ के दर्शन का ही प्रेमी है। इसलिए यदि स्वाती की बूँदें भी तिरछी गिरती हैं, तो उन्हें पाने के लिये अपने मुख को टेढ़ा नहीं करता। दर्शन करते समय यदि एक-आध स्नेह-बिन्दु उसके मुख में गिर जाए तो वही उसके लिये बहुत है। दर्शन से वंचित होकर उसे स्वाति का जल भी नहीं चाहिए...वाकई यह हैरत की बात है कि पानी में रहते हुए भी यह अपनी प्यास आसमान से गिरे बारिश के बूंदों से ही बुझाता है. चाहे बारिश के लिए लंबा इंतज़ार ही क्यों न करना पड़े. NOTE;- केले में स्वाति नक्षत्र के समय बारिश की बूंद गिरे , तो उसमें कपूर पैदा होता है ।और स्वाति नक्षत्र में सीप में स्वाति बूंद पङ जाने से मोती उत्पन्न होता है ।

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श्री राधा कृपा कटाक्ष स्रोत ॥ श्रीराधा कृपाकटाक्ष स्तोत्र का गायन वृन्दावन के विभिन्न मन्दिरों में नित्य किया जाता है। इस स्तोत्र के पाठ से साधक नित्यनिकुंजेश्वरि श्रीराधा और उनके प्राणवल्लभ नित्यनिकुंजेश्वर ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण की सुर-मुनि दुर्लभ कृपाप्रसाद अनायास ही प्राप्त कर लेता है।

मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी। व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१) भावार्थ :-

समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी है, हे जगज्जननी श्रीराधे माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१)

अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले। वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२) भावार्थ :-

आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंड अग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभय दान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आप के हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (२)

अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां, सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः। निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (३) भावार्थ :-

रास क्रीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में आप अपनी बाँकी भृकुटी से आश्चर्य उत्पन्न करते हुए सहज कटाक्ष रूपी वाणों की वर्षा करती रहती हैं। आप श्री नन्दकिशोर को निरंतर अपने बस में किये रहती हैं, हे जगज्जननी वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (३)

तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले। विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (४) भावार्थ :-

आप बिजली के सदृश, स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी आभा वाली हैं, आप दीपक के समान गोरे अंगों वाली हैं, आप अपने मुखारविंद की चाँदनी से शरद पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा को लजाने वाली हैं। आपके नेत्र पल-पल में विचित्र चित्रों की छटा दिखाने वाले चंचल चकोर शिशु के समान हैं, हे वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (४)

मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते। अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (५) भावार्थ :-

आप अपने चिर-यौवन के आनन्द के मग्न रहने वाली है, आनंद से पूरित मन ही आपका सर्वोत्तम आभूषण है, आप अपने प्रियतम के अनुराग में रंगी हुई विलासपूर्ण कला पारंगत हैं। आप अपने अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंज-राज के प्रेम क्रीड़ा की विधा में भी प्रवीण हैं, हे निकुँजेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (५)

अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते, प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी। प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (६) भावार्थ :-

आप संपूर्ण हाव-भाव रूपी श्रृंगारों से परिपूर्ण हैं, आप धीरज रूपी हीरों के हारों से विभूषित हैं, आप शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान अंगो वाली है, आपके पयोंधर स्वर्ण कलशों के समान मनोहर हैं। आपकी मंद-मंद मधुर मुस्कान सागर के समान आनन्द प्रदान करने वाली है, हे कृष्णप्रिया माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (६)

मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते, लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने। ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (७) भावार्थ :-

जल की लहरों से कम्पित हुए नूतन कमल-नाल के समान आपकी सुकोमल भुजाएँ हैं, आपके नीले चंचल नेत्र पवन के झोंकों से नाचते हुए लता के अग्र-भाग के समान अवलोकन करने वाले हैं। सभी के मन को ललचाने वाले, लुभाने वाले मोहन भी आप पर मुग्ध होकर आपके मिलन के लिये आतुर रहते हैं ऎसे मनमोहन को आप आश्रय देने वाली हैं, हे वृषभानुनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (७)

सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे, त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति। सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (८) भावार्थ :-

आप स्वर्ण की मालाओं से विभूषित है, आप तीन रेखाओं युक्त शंख के समान सुन्दर कण्ठ वाली हैं, आपने अपने कण्ठ में प्रकृति के तीनों गुणों का मंगलसूत्र धारण किया हुआ है, इन तीनों रत्नों से युक्त मंगलसूत्र समस्त संसार को प्रकाशमान कर रहा है। आपके काले घुंघराले केश दिव्य पुष्पों के गुच्छों से अलंकृत हैं, हे कीरतिनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (८)

नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले। करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (९) भावार्थ :-

आपका उर भाग में फूलों की मालाओं से शोभायमान हैं, आपका मध्य भाग रत्नों से जड़ित स्वर्ण आभूषणों से सुशोभित है। आपकी जंघायें हाथी की सूंड़ के समान अत्यन्त सुन्दर हैं, हे ब्रजनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (९)

अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्, समाजराजहंसवंश निक्वणातिग। विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१०) भावार्थ :-

आपके चरणों में स्वर्ण मण्डित नूपुर की सुमधुर ध्वनि अनेकों वेद मंत्रो के समान गुंजायमान करने वाले हैं, जैसे मनोहर राजहसों की ध्वनि गूँजायमान हो रही है। आपके अंगों की छवि चलते हुए ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे स्वर्णलता लहरा रही है, हे जगदीश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१०)

अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते, हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे। अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे, कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम्॥ (११) भावार्थ :-

अनंत कोटि बैकुंठो की स्वामिनी श्रीलक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं, श्रीपार्वती जी, इन्द्राणी जी और सरस्वती जी ने भी आपकी चरण वन्दना कर वरदान पाया है। आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि की प्राप्ति होती है, हे करूणामयी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (११)

मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी, त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी। रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी, ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥ (१२) भावार्थ :-

आप सभी प्रकार के यज्ञों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी हैं, आप स्वधा देवी की स्वामिनी हैं, आप सब देवताओं की स्वामिनी हैं, आप तीनों वेदों की स्वामिनी है, आप संपूर्ण जगत पर शासन करने वाली हैं। आप रमा देवी की स्वामिनी हैं, आप क्षमा देवी की स्वामिनी हैं, आप आमोद-प्रमोद की स्वामिनी हैं, हे ब्रजेश्वरी! हे ब्रज की अधीष्ठात्री देवी श्रीराधिके! आपको मेरा बारंबार नमन है। (१२)

इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी, करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्। भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं, लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्॥ (१३) भावार्थ :-

हे वृषभानु नंदिनी! मेरी इस निर्मल स्तुति को सुनकर सदैव के लिए मुझ दास को अपनी दया दृष्टि से कृतार्थ करने की कृपा करो। केवल आपकी दया से ही मेरे प्रारब्ध कर्मों, संचित कर्मों और क्रियामाण कर्मों का नाश हो सकेगा, आपकी कृपा से ही भगवान श्रीकृष्ण के नित्य दिव्यधाम की लीलाओं में सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा। (१३)

जय श्री राधे


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